कश्मीरी परंपरा की अनमोल धरोहर है कांगड़ी
कश्मीर की भीषण सर्दी में जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुकी कांगड़ी, एक पारंपरिक अग्नि-पात्र है जो सदियों से कश्मीरी लोगों को गर्माहट प्रदान करती आ रही है। जब कश्मीर का तापमान शून्य से भी नीचे चला जाता है, डल झील तक जम जाती है बिजली भी नदारद रहती है, तब कांगड़ी ही लोगों के लिए ठंड से बचने का सहारा बनती है।
‘कांगड़ी’ को बनाना आसान नहीं है, बेहद संयम और धीरज के साथ एक ‘कांगड़ी’ बनकर तैयार होती है. कुम्हार द्वारा तैयार एक मिट्टी के कटोरेनुमा बर्तन के इर्द-गिर्द कश्मीर में पाई जाने वाली ‘कीकर’ नाम की लकड़ी (बांस से मिलती जुलती) की खपचियों टुकड़ों से एक तरह की टोकरी बुनी जाती है. बुनी गई इसी लकड़ी की टोकरी के ठीक बीचोबीच मिट्टी के कटोरे को इस प्रकार से बिठा दिया जाता है कि आसानी से मिट्टी का कटोरा न हिलता-डुलता है और न ही आसानी से टोकरी से बाहर निकल पाता है. इसी में चिनार या अन्य वृक्षों के कोयले और अंगारे रखे जाते हैं जो एक तरह से चलती-फिरती अंगीठी का काम करती है.
कड़ी मेहनत से तैयार की गई ‘कांगड़ी’ को बाद कारीगर अपने-अपने ढंग से इसे सजाते हैं. इसी सजावट से ‘कांगड़ी’ की कीमत तय की जाती है, जो 200 रुपए से लेकर 2000 रुपए तक हो सकती है. विशेष रूप से तैयार करवाई गई रंगीन व सजावटी ‘कांगड़ी’ की कीमत 2000 रुपए से भी ज्यादा होती है.
बांडीपुरी कांगड़ी और च्र्रार कांगड़ी को काफी लोकप्रिय माना जाता हैं. कश्मीरी हस्तशिल्प का ‘कांगड़ी’ एक नायाब उदाहरण है. हस्तनिर्मित बेहद ख़ूबसूरत ‘कांगड़ी’ की ख़ूबसूरती देखते ही बनती है. यही नहीं पर्यावरण के लिहाज़ से भी कांगड़ी बेहद अनुकूल है.
विदेश अथवा स्वदेश से कश्मीर आने वाले पर्यटक ‘कांगड़ी’ के आकर्षण से अपने को रोक नहीं पाते हैं और अक्सर अपने ‘ड्राईंग-रूम’ में सजाने के लिए ‘कांगड़ी’ को ख़रीद कर ले जाते हैं.
शादी-विवाह से लेकर धार्मिक अनुष्ठानों तक में कांगड़ी का विशेष महत्व रहता है. कश्मीरी लोक गीतों में भी कांगड़ी की महिमा गाई गई है.कांगड़ी मेहमान-नवाजी का भी प्रतीक है. किसी मेहमान के घर में आने पर सबसे पहले कांगड़ी ही पेश की जाती है. आधुनिक हीटिंग उपकरणों के सुलभ होने के बावजूद कांगड़ी की लोकप्रियता बरकरार है. हमारे समय में यानी तीस-चालीस साल पहले कांगड़ी सस्ती हुआ करती थी.यही कोई दस-बीस रूपये में खरीदी जाती थी. जैसा की बताया गया अब इसकी कीमत २०० रुपये से लेकर 2000 रुपये तक हो गयी है. लापरवाही से इस्तेमाल करने पर कांगड़ी खतरनाक भी हो सकती है. लंबे समय तक अत्यधिक प्रयोग से त्वचा संबंधी समस्याएं हो सकती हैं.चिकित्सकों के अनुसार, अत्यधिक प्रयोग से कैंसर का खतरा भी हो सकता है.
कांगड़ी आज भी कश्मीरी संस्कृति और जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह न केवल एक गर्म करने का उपकरण है, बल्कि कश्मीरी परंपरा और कला का एक अनूठा उदाहरण भी है। हालांकि इसकी मांग में कमी आई है, फिर भी यह कश्मीरी पहचान का एक अभिन्न अंग बनी हुई है।कांगड़ी कश्मीर की ठंडी जलवायु में उपयोग की जाने वाली एक पारंपरिक वस्तु है, जो शीतलहर और हिमपात के दौरान कश्मीरियों के लिए अनिवार्य होती है। यह चलती-फिरती एक छोटी अँगीठी है, जिसे हमेशा पास में रखा जाता है, इसमें जलाए गए कोयलों की गर्मी व्यक्ति को सर्द मौसम में गर्म रखने का काम करती है।
लापरवाही से कांगड़ी सेंकने के कारण कई बार शरीर और कपड़ों के जल जाने का जोखिम भी रहता है. कुछ अनुभवहीन लोग बड़े-बजुर्गों को देखकर बिस्तर में ‘कांगड़ी’ ले कर सोने की कोशिश में भी खतरा मोल लेते हैं. बिस्तर में ‘कांगड़ी’ के पलट जाने से जलने का डर रहता है. आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के उपलब्ध होने के बावजूद कश्मीर में ‘कांगडी’ का आकर्षण व आवश्यकता कम नही हुई है. तमाम तरह की आधुनिक सुविधाएं भी ‘कांगडी’ की मांग और ज़रूरत को कम नहीं कर पाईं हैं. आज भी ‘कांगडी’ की अपनी पहचान कायम है.
गर्म ‘कागड़ी’ को लेकर चलते-फिरते रहना और अपने रोज़मर्रा के काम करते रहना अपनेआप में ज़बरदस्त कुशलता का काम है. लंबे अभ्यास से कई लोग ऐसे पारंगत हो जाते हैं कि रात में बड़े आराम से बिस्तर में भी ‘कांगड़ी’ को लेकर सो जाते हैं. हालांकि, बिस्तर में कांगड़ी को लेकर सो पाना सभी के लिए संभव नही है, इसके लिए ‘कांगड़ी’ को सेंकने का पर्याप्त अनुभव चाहिए.
वज़न में हल्की होने और कहीं भी ले जाने की आसानी के कारण भी आम लोगों में ‘कांगड़ी’ बेहद लोकप्रिय है. कश्मीर में आम लोग कांगड़ी को फिरन (एक विशेष कश्मीरी परिधान) में लेकर बड़े आराम व सुविधा के साथ कहीं भी चले जाते हैं. बाज़ार जाते हुए, सफ़र करते हुए, खेतों में काम करते हुए, हर कहीं, कांगड़ी को अपने संग रख कर सेंकते हुए कश्मीर में लोग नज़र आ जाते हैं. कड़कड़ाती ठंड से बचने के लिए ‘कांगड़ी’ के मुकाबले दूसरी कोई ‘चलती-फिरती’ सुविधा उपलब्ध नहीं है.
कश्मीर घाटी में हर घर में एक नहीं ‘कांगड़ियों’ का ढेर रहता है. घर के प्रत्येक सदस्य की अपनी एक अलग ‘कांगड़ी’ होती है. बुजुर्गों के लिए तो ‘कांगड़ी’ किसी वरदान से कम नहीं. यही नहीं मेहमानों के लिए भी बकायदा घाटी के हर घर में ‘कांगड़ी’ रखी जाती है.
जैस की खा गया है सर्दियों में कश्मीर में किसी भी घर में किसी मेहमान के आने पर उसका स्वागत गर्म ‘कांगड़ी’ से ही किया जाता है. मेहमान को चाय-नाश्ता पेश करने से पहले गर्मा-गर्म ‘कांगड़ी’ पेश की जाती है, ताकि वो ठंड़ से फौरन अपना बचाव कर सके.
अपनी भाषा, संस्कृति से भावनात्मक रूप से जुड़े कश्मीरी समाज में ‘कांगड़ी’ को लेकर एक भावनात्मक जुड़ाव है और कश्मारी समाज ‘कांगड़ी’ को अपनी संस्कृति का एक अहम हिस्सा मानता है. ‘कांगड़ी’ को लेकर कश्मीरी भाषा में कईं लोकगीत भी प्रचलित हैं. यही नहीं कश्मीर में शादियों में बेटियों की विदाई के समय विशेषरूप से तैयार करवाई गई ख़ूबसूरत रंगीन ‘कांगड़ी’ उपहार में दिए जाने का प्रचलन भी है. ‘कांगड़ी’ एक तरह से जीवनरक्षक का काम करती है, बर्फबारी व ठंड़ में जब सारे साधन बेकार साबित होने लगते हैं तब ‘कांगड़ी’ ही सहारा देती है.
डी और कश्मीरियत का चोली-दामन का साथ है। कश्मीरी पण्डितों के सबसे बड़े त्योहार शिवरात्रि के कई दिन पहले जब ब्याहता लड़की मैके आती है तो उसे अन्य सामान के साथ एक सुन्दर-सजीली कांगड़ी भी दी जाती है। लड़की की शादी के पहले वर्ष जब एक रस्म, जिसे कश्मीरी पण्डित समाज में 'शिशुर लागुन' कहते हैं, अदा की जाती है, उस समय भी नववधू के ससुराल वाले एवं उनके सम्बन्धी, मित्र वधू की नई सुन्दर खाली कांगड़ी में मेवे,कुछ रूपये-पैसे आदि डालते हैं। किसी मृत व्यक्ति के वर्ष भर जो श्राद्ध आदि होते हैं, उनमें भी अन्य वस्तुओं के साथ मृतक के नाम कांगड़ी दान में दी जाती है। जिस प्रकार मैदानी क्षेत्रों में हर साल मकर संक्रांति के अवसर पर पितरों के नाम जल-भरे घड़े दान किए जाते हैं, उसी प्रकार इस दिन कश्मीर में अंगारों से भरी कांगड़ियाँ पितरों के नाम प्रति वर्ष दान दी जाती हैं। यज्ञोपवीत संस्कार, ब्याह-शादियों तथा ऐसे ही अन्य उत्सवों पर जवान महिलाएँ मंगलगान गाती हैं, तो उस समय अंगारों-भरी कांगडी में हरमल के बीज (जिसे स्थानीय भाषा में इसबन्द कहा जाता है) जलाना अनिवार्य होता है। इतना ही नहीं, किसी व्यक्ति की प्रेतबाधा दूर करनी हो तो कांगड़ी में अभिमन्त्रित तिल तथा गुग्गल-धूप अवश्य जलाया जाता है। कहने का तात्पर्य यह कि कांगडी कश्मीरी लोकजीवन के हर क्षेत्र में समा गई है।
उल्लेखनीय है कि सर्दियों में हर वर्ष जम्मू-कश्मीर को गंभीर रूप से बिजली संकट का सामना करना पड़ता है. कई घंटों की बिजली कटौती में इलेक्ट्रॉनिक उपकरण सफ़ेद हाथी ही साबित होते हैं. दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों में भयंकर सर्दी और बर्फ़बारी के बीच हर साल बिजली के मूलभूत ढांचे को भी भारी नुक्सान पहुंचता है, जिस कारण कई दिनों तक बिजली बंद रहती है. श्रीनगर जैसे बड़े शहर को भी बर्फबारी के दौरान गंभीर रूप से बिजली कटौती का सामना करना पड़ता है.ऐसे अवसर पर कांगड़ी ही कश्मीरियों के लिए ‘त्रान’ बनती है.
यहाँ पर यह स्पष्ट करना ज़रूररु है कि कुछ लोगों ने यह धारणा फैला राखी है कि कंगड़ी को गले में लटकाया जाता है जो सही नहीं है. सच्चाई यह है कि कंगड़ी को व्यक्ति सपने ‘फिरन’ (एक किस्म का चोगा या चोला) के अंदर बड़ी सावधानी के साथ रखता है और इसके अंदर रखे अंगरों या तपती रख की गर्मी से अपने हाथ पैर सकता और इस तरह उसका शरीर गर्म रहता है।