Saturday, January 4, 2025





Bangalore’s ‘Rameshwaram Cafe



Bangalore, or Bengaluru as it is now officially known, is one of India’s most prominent cities. Known for its pleasant, balanced climate, the city has earned several nicknames, including the 'Silicon Valley of India' for being a hub of Information Technology (IT). Home to some of the world’s leading IT companies, Bengaluru also boasts the title 'Garden City of India,' with its numerous lakes and lush parks.

The city is a cultural and educational hub, hosting historical landmarks such as the ISKCON temple—one of the largest Krishna temples globally—sports arenas like the M. Chinnaswamy Stadium, and prestigious institutions, including the National Cricket Academy. Bengaluru is also the headquarters of the Art of Living Foundation, one of India’s most popular NGOs, led by Sri Sri Ravi Shankar. Adding to its vibrancy are performances by artists, musicians, and comedians, which are a regular feature of its cultural scene. Given its unique mix of technology, tradition, and entertainment, Bengaluru is aptly called a ‘Fun City.’

Currently, I am in Bangalore, and one name that has been making waves here is the 'Rameshwaram Cafe.' Located in Indiranagar, this 10x10 square-foot eatery has become a must-visit destination for food lovers, especially those craving authentic South Indian cuisine. Interestingly, the cafe gained widespread attention last year due to a bombing incident, but this hasn't deterred its popularity.

Despite its modest size, the cafe is perpetually bustling with customers, both inside and outside. People start queuing up early in the morning to get a taste of its delicious offerings. Known for its exceptional South Indian delicacies, the Rameshwaram Cafe reportedly generates an annual turnover exceeding ₹50 crore.

The Rameshwaram Cafe was established in 2021 by CA Divya Raghavendra Rao and Raghavendra Rao. Since its inception, the cafe has set itself apart not just with its food but also with its traditions. Every morning, a religious ceremony is performed before the massive kitchen is set in motion. The gas stoves are lit only after prayers to the divine, ensuring a spiritual start to the culinary day.

In the cafe’s expansive kitchen, dozens of skilled chefs work tirelessly to prepare a wide variety of South Indian dishes. From fluffy idlis and crispy dosas to flavorful sambars and chutneys, every item is crafted to perfection. This dedication to authenticity and quality has made Rameshwaram Cafe a household name in Bengaluru and beyond.

Visiting the Rameshwaram Cafe is more than just a meal; it is an experience that blends culinary delight with cultural reverence. For food enthusiasts and cultural explorers alike, this little gem in Indiranagar offers a slice of Southern tradition, served with a side of impeccable hospitality.

Whether you're a local or a visitor, Rameshwaram Cafe is a must-visit spot in Bengaluru. Its blend of flavor, faith, and finesse truly captures the spirit of this dynamic city.

0000

Sunday, December 22, 2024





कश्मीर का प्रसिद्ध केसर पुष्प

डा० शिबन कृष्ण रैणा

कश्मीर को प्राचीनकाल से ही पुष्प-वाटिका कहा जाता है। बसंतागमन के साथ यहां रम्यवदना प्रकृति एक बार पुनः झूम उठती है। बर्फीली चादर ओढ़े पर्वत-शिखर, कल-कल करती फेनिल सरिताएं तथा छन-छन बजतें चिनार के वृक्षों के साथ यह सुरम्य घाटी अभिनव श्रंगार कर नूतन किसलयों तथा रंगा-रंग फूलों से खिल उठती हैं। चमेली, नरगिस, गुलाब, गुलशबी आदि की सुरभि से फिजाएं सुगंधित होती हैं तथा चारों ओर जीवनरस का संचार होता है। ऋतुराज वसंत इस सुरभ्य घाटी की पावन धरती को जो विशेष कुसुम भेंट करता है, वह है केसर-कुसुम जो अपनी मोहक सुरभि और सुन्दर-वर्ण से सबको मुग्ध करता है।

श्रीनगर से लगभग आठ मील दूर, जम्मू-कश्मीर राजमार्ग पर पद्मपुर (वर्तमान पांपोर) के पठारों पर हमें इसी मौसम में पीतारूण और लालिमा-मिश्रित, नील वर्ण के खिले हुए केसर-कुसुम ऐसे दिखायी देते हैं, मानो धरती पर सुन्दर कालीन बिछी हो, या जैसे शालीमार, निशात, अछबल आदि मुग़ल-बागात के कुसुम-कुंज का अंग-अंग महकाने के बाद ऋतुराज ने अब यहां पदार्पण किया हो। दूर-दूर तक फैले इन पठारों पर नव-बहार देखकर हृदय गदगद हो उठता है। केसर के इन पुष्पों को कश्मीरी में ‘क्वंग पोष’ कहते हैं।

कल्हण कृत राजतरंगिणी में केसर-कुसुम की खेती के बारे में एक प्रसंग आता है एक दिन प्रसिद्ध नेत्र-चिकित्सक वाग्भट्ट के पास दक्षक नामक एक नेत्र-रोगी नेत्रों की चिकित्सा के लिऐ आये, रोगी के नेत्रों से अश्रुधारा वह रही थीं। वाग्भट्ट ने रोगी को ठीक किया। रोगी वाग्भट्ट पर प्रसन्न हुए तथा उसको पारिश्रमिक के तौर पर केसर-कुसुम के कुछ बीज दिये। रोगी ये बीज कहाँ से ले आया था-यह कहने में इतिहासकार मौन हैं फिर भी इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कश्मीर में केसर-कुसुम की खेती प्राचीनकाल से होती रही है क्योंकि नाग यहां के आदिवासी माने जाते है। तक्षक-नाग की पूजा आज भी यहां श्रद्धा से की जाती है। इस नाग-नायक का वास यहां के एक गांव ज़ेवन में प्राप्त एक तालाब में समझा जाता है। ‘आईने-अकबरी में अब्दुल-फजल ने लिखा है की प्राचीनकाल में केसर की उपज के समय यहां एक मेला लगता था, जिसमे दूर-दूर के गांव से लोग आकर भाग लेते थे।

कहा जाता है सिकंदर ने जब कश्मीर में प्रवेश किया तो यहां उसके सिपाही केसर की बहार देखकर मुग्ध हो गये थे, यही कारण है कि इन्होंने राजा को कश्मीर पर आक्रमण न करने का सुझाव दिया था। पुराकाल में आयरलैंड के सम्राट का चौगा केसर से ही रंगा जाता था, कोई एक सौ वर्ष पूर्व यहूदी लोग केसर रंगी कमीज पहनने में गर्व अनुभव करते थे, यूनान और रोम में सुगंध के लिए नाटक ग्रहों और राज सभाओं में केसर के रस का छिडकाव किया जाता था, नीरो ने जब रोम में प्रवेश किया था। तो शहर के मुख्य रास्तों पर लोगों ने सुगंध के लिए केसर-इत्र का छिडकाव किया था। हिन्दुओं तथा यूनानियों में आज भी पूजन आदि में केसर-का प्रयोग होता है। हिन्दू माथे पर केसर-कुमकुम लगाते है। अरब, चीन और भारत में सबसे पहले केसर-का मूल्यवान औषधियों में प्रयोग हुआ है। चीन में केसर कश्मीर से तिब्बत के रास्ते ले जाई जाती थी।

इतना ही नहीं, केसर-कुसुम का गुणगान देश-विदेश के कई लेखकों ने अपनी अमूल्य कृतियों में किया है। कालिदास ने अपने कई नाटकों में इसकी खूब प्रशंसा की है। इसी को आधार मानकर कई आलोचक इन्हें कश्मीर वासी मानते हैं। जहाँगीर ने ‘तुजकि-जहाँगीरी’में दिल खोल कर इस का गुणगान किया है। यूनान के होमर और हैपो-क्रेटीज के गौरव-ग्रंथों में भी केसर-कुसुम का उल्लेख मिलता है। विख्यात चीनी पर्यटक हवेन सांग ने अपने भारत-यात्रा संस्मरण में केसर-कुसुम का का बार-बार वर्णन किया है, ‘आईने-अकबरी में अब्बुल-फजल लिखते हैं-‘केसर के खिले हुए फूलों का दृश्य इतना नयन रम्य होता है कि वह मनहूस तवीयत के लोगों को भी आह्लादित कर सकता है’।

इस समय सम्पूर्ण एशिया में केसर-कुसुम की खेती जम्मू-कश्मीर में की जाती है। वह भी मात्र दो क्षेत्रों में कश्मीर में पांपोर के पठारों पर और जम्मू में किश्तवाड़ के पर्वतनीय क्षेत्र में। इन दोनों स्थानों में केसर-कुसुम नवम्बर के महीने में महक उठते हैं और चांदनी-जैसा इनका मनमोहक दृश्य उपस्थित करते हैं।

केसर की उपज करना भी एक कला है। इसका बीज बोने के लिए पहले भूमि का चुनाव करना पड़ता है। इसके लिए भूमि जोतने में काफी समय लग जाता है। भूमि का एक बड़ा प्लाट जोतने के बाद इस पर चौकोर क्यारियां बनायीं जाती हैं। इसके बाद केसर-बीज बोया जाता है। केसर-की जड़ चौदह वर्ष तक भूमि में ही रहती है और इन सारे वर्षों में नियमित रूप से फूल खिलते हैं। केसर कुसुम खिल उठने के बाद इनको इकट्ठा करके धूप में सुखाया जाता हैं। फिर इनकी पंखुडियां अलग की जाती है। इसको कश्मीरी में शाही ज़ाफरान कहते हैं फूल की निचली पंखड़ियों को भी जाफरान कहा जाता है किंतु इन्हें उच्च-कोटि का नहीं माना जाता है। इन को कश्मीरी में मोंगरा कहते हैं।

केसर फूल सदियों से जम्मू-कश्मीर राज्य की आय का प्रमुख साधन रहा है। हिंदुकाल में यह राज्य की आय तथा लोगों की जीविका का मुख्य साधन रहा है। सुलतान तथा मुगलकाल में सरकार ने केसर-भूमि अपने अधिकार में ली थी। सुल्तानों के शासनकाल में केसर की खेती ७००० एकड़ भूमि पर तथा मुग़लकाल में ९००० ऐकड भूमि पर होती रही है। इसके बाद अफगानों के शासनकाल में यहां के लोगों ने इसकी खेती करना छोड़ दिया क्योंकि यही वह समय है जब घटी में भयंकर अकाल पीडीए और कई लोग भुखमरी से मारे गये। सर वाल्टर लारेंस अपनी पुस्तक ’वैली आफ कश्मीर’ में लिखते है कि इस दुर्भिक्ष से जब लोग बहुत परेशान हुए तो इन्होंने केसर-जड़ रोटी के बदले खायी, इसके बाद जैसे ही हालत सुधारे तो इसके बीज किश्तवाड़ से मंगवाये गये। तब से कश्मीर में केसर की खेती फिर शुरू हुई । आजकल कश्मीर और किश्तवाड में केवल ७००० ऐकड भूमि में केसर की खेती की जाती है। इस समय कश्मीर और किश्तवाड़ के अतिरिक्त हिमाचल प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में भी केसर की खेती करने के प्रयोग हो रहे हैं।

केसर को जड़ी-बूटियों का बाप मन जाता है। इसके नियमित सेवन से सेहत को अनगिनत फायदे मिलते हैं। इसमें वो सभी जरूरी पोषक तत्व पाए जाते हैं, जो हमारे शरीर के स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होते हैं। केसर में कार्बोहाइड्रेट्स होते हैं, जो शरीर को ऊर्जा प्रदान देते हैं। यह प्रोटीन, विटामिन, मिनरल्स जैसे- कैल्शियम, पोटैशियम, आयरन, मैग्नीशियम, और फॉस्फोरस और एंटीऑक्सीडेंट्स का खजाना है।

केसर के सेवन से सर्दी-खांसी का इलाज करने, मेंटल हेल्थ को बढ़ावा देने, पाचन को सुधारने में, ब्लड प्रेशर को कंट्रोल करने, त्वचा की समस्याओं को दूर करने, खून साफ करने और यौन स्वास्थ्य में सुधार करने में मदद मिलती है। केसर का सेवन अक्सर दूध के साथ या अलग-अलग पकवानों के साथ किया जाता है।

Friday, December 20, 2024





कश्मीरी परंपरा की अनमोल धरोहर है कांगड़ी

कश्मीर की भीषण सर्दी में जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुकी कांगड़ी, एक पारंपरिक अग्नि-पात्र है जो सदियों से कश्मीरी लोगों को गर्माहट प्रदान करती आ रही है। जब कश्मीर का तापमान शून्य से भी नीचे चला जाता है, डल झील तक जम जाती है बिजली भी नदारद रहती है, तब कांगड़ी ही लोगों के लिए ठंड से बचने का सहारा बनती है।

‘कांगड़ी’ को बनाना आसान नहीं है, बेहद संयम और धीरज के साथ एक ‘कांगड़ी’ बनकर तैयार होती है. कुम्हार द्वारा तैयार एक मिट्टी के कटोरेनुमा बर्तन के इर्द-गिर्द कश्मीर में पाई जाने वाली ‘कीकर’ नाम की लकड़ी (बांस से मिलती जुलती) की खपचियों टुकड़ों से एक तरह की टोकरी बुनी जाती है. बुनी गई इसी लकड़ी की टोकरी के ठीक बीचोबीच मिट्टी के कटोरे को इस प्रकार से बिठा दिया जाता है कि आसानी से मिट्टी का कटोरा न हिलता-डुलता है और न ही आसानी से टोकरी से बाहर निकल पाता है. इसी में चिनार या अन्य वृक्षों के कोयले और अंगारे रखे जाते हैं जो एक तरह से चलती-फिरती अंगीठी का काम करती है.

कड़ी मेहनत से तैयार की गई ‘कांगड़ी’ को बाद कारीगर अपने-अपने ढंग से इसे सजाते हैं. इसी सजावट से ‘कांगड़ी’ की कीमत तय की जाती है, जो 200 रुपए से लेकर 2000 रुपए तक हो सकती है. विशेष रूप से तैयार करवाई गई रंगीन व सजावटी ‘कांगड़ी’ की कीमत 2000 रुपए से भी ज्यादा होती है.

बांडीपुरी कांगड़ी और च्र्रार कांगड़ी को काफी लोकप्रिय माना जाता हैं. कश्मीरी हस्तशिल्प का ‘कांगड़ी’ एक नायाब उदाहरण है. हस्तनिर्मित बेहद ख़ूबसूरत ‘कांगड़ी’ की ख़ूबसूरती देखते ही बनती है. यही नहीं पर्यावरण के लिहाज़ से भी कांगड़ी बेहद अनुकूल है.

विदेश अथवा स्वदेश से कश्मीर आने वाले पर्यटक ‘कांगड़ी’ के आकर्षण से अपने को रोक नहीं पाते हैं और अक्सर अपने ‘ड्राईंग-रूम’ में सजाने के लिए ‘कांगड़ी’ को ख़रीद कर ले जाते हैं.

शादी-विवाह से लेकर धार्मिक अनुष्ठानों तक में कांगड़ी का विशेष महत्व रहता है. कश्मीरी लोक गीतों में भी कांगड़ी की महिमा गाई गई है.कांगड़ी मेहमान-नवाजी का भी प्रतीक है. किसी मेहमान के घर में आने पर सबसे पहले कांगड़ी ही पेश की जाती है. आधुनिक हीटिंग उपकरणों के सुलभ होने के बावजूद कांगड़ी की लोकप्रियता बरकरार है. हमारे समय में यानी तीस-चालीस साल पहले कांगड़ी सस्ती हुआ करती थी.यही कोई दस-बीस रूपये में खरीदी जाती थी. जैसा की बताया गया अब इसकी कीमत २०० रुपये से लेकर 2000 रुपये तक हो गयी है. लापरवाही से इस्तेमाल करने पर कांगड़ी खतरनाक भी हो सकती है. लंबे समय तक अत्यधिक प्रयोग से त्वचा संबंधी समस्याएं हो सकती हैं.चिकित्सकों के अनुसार, अत्यधिक प्रयोग से कैंसर का खतरा भी हो सकता है.

कांगड़ी आज भी कश्मीरी संस्कृति और जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह न केवल एक गर्म करने का उपकरण है, बल्कि कश्मीरी परंपरा और कला का एक अनूठा उदाहरण भी है। हालांकि इसकी मांग में कमी आई है, फिर भी यह कश्मीरी पहचान का एक अभिन्न अंग बनी हुई है।कांगड़ी कश्मीर की ठंडी जलवायु में उपयोग की जाने वाली एक पारंपरिक वस्तु है, जो शीतलहर और हिमपात के दौरान कश्मीरियों के लिए अनिवार्य होती है। यह चलती-फिरती एक छोटी अँगीठी है, जिसे हमेशा पास में रखा जाता है, इसमें जलाए गए कोयलों की गर्मी व्यक्ति को सर्द मौसम में गर्म रखने का काम करती है।

लापरवाही से कांगड़ी सेंकने के कारण कई बार शरीर और कपड़ों के जल जाने का जोखिम भी रहता है. कुछ अनुभवहीन लोग बड़े-बजुर्गों को देखकर बिस्तर में ‘कांगड़ी’ ले कर सोने की कोशिश में भी खतरा मोल लेते हैं. बिस्तर में ‘कांगड़ी’ के पलट जाने से जलने का डर रहता है. आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के उपलब्ध होने के बावजूद कश्मीर में ‘कांगडी’ का आकर्षण व आवश्यकता कम नही हुई है. तमाम तरह की आधुनिक सुविधाएं भी ‘कांगडी’ की मांग और ज़रूरत को कम नहीं कर पाईं हैं. आज भी ‘कांगडी’ की अपनी पहचान कायम है.

गर्म ‘कागड़ी’ को लेकर चलते-फिरते रहना और अपने रोज़मर्रा के काम करते रहना अपनेआप में ज़बरदस्त कुशलता का काम है. लंबे अभ्यास से कई लोग ऐसे पारंगत हो जाते हैं कि रात में बड़े आराम से बिस्तर में भी ‘कांगड़ी’ को लेकर सो जाते हैं. हालांकि, बिस्तर में कांगड़ी को लेकर सो पाना सभी के लिए संभव नही है, इसके लिए ‘कांगड़ी’ को सेंकने का पर्याप्त अनुभव चाहिए.

वज़न में हल्की होने और कहीं भी ले जाने की आसानी के कारण भी आम लोगों में ‘कांगड़ी’ बेहद लोकप्रिय है. कश्मीर में आम लोग कांगड़ी को फिरन (एक विशेष कश्मीरी परिधान) में लेकर बड़े आराम व सुविधा के साथ कहीं भी चले जाते हैं. बाज़ार जाते हुए, सफ़र करते हुए, खेतों में काम करते हुए, हर कहीं, कांगड़ी को अपने संग रख कर सेंकते हुए कश्मीर में लोग नज़र आ जाते हैं. कड़कड़ाती ठंड से बचने के लिए ‘कांगड़ी’ के मुकाबले दूसरी कोई ‘चलती-फिरती’ सुविधा उपलब्ध नहीं है.

कश्मीर घाटी में हर घर में एक नहीं ‘कांगड़ियों’ का ढेर रहता है. घर के प्रत्येक सदस्य की अपनी एक अलग ‘कांगड़ी’ होती है. बुजुर्गों के लिए तो ‘कांगड़ी’ किसी वरदान से कम नहीं. यही नहीं मेहमानों के लिए भी बकायदा घाटी के हर घर में ‘कांगड़ी’ रखी जाती है.

जैस की खा गया है सर्दियों में कश्मीर में किसी भी घर में किसी मेहमान के आने पर उसका स्वागत गर्म ‘कांगड़ी’ से ही किया जाता है. मेहमान को चाय-नाश्ता पेश करने से पहले गर्मा-गर्म ‘कांगड़ी’ पेश की जाती है, ताकि वो ठंड़ से फौरन अपना बचाव कर सके.

अपनी भाषा, संस्कृति से भावनात्मक रूप से जुड़े कश्मीरी समाज में ‘कांगड़ी’ को लेकर एक भावनात्मक जुड़ाव है और कश्मारी समाज ‘कांगड़ी’ को अपनी संस्कृति का एक अहम हिस्सा मानता है. ‘कांगड़ी’ को लेकर कश्मीरी भाषा में कईं लोकगीत भी प्रचलित हैं. यही नहीं कश्मीर में शादियों में बेटियों की विदाई के समय विशेषरूप से तैयार करवाई गई ख़ूबसूरत रंगीन ‘कांगड़ी’ उपहार में दिए जाने का प्रचलन भी है. ‘कांगड़ी’ एक तरह से जीवनरक्षक का काम करती है, बर्फबारी व ठंड़ में जब सारे साधन बेकार साबित होने लगते हैं तब ‘कांगड़ी’ ही सहारा देती है.

डी और कश्मीरियत का चोली-दामन का साथ है। कश्मीरी पण्डितों के सबसे बड़े त्योहार शिवरात्रि के कई दिन पहले जब ब्याहता लड़की मैके आती है तो उसे अन्य सामान के साथ एक सुन्दर-सजीली कांगड़ी भी दी जाती है। लड़की की शादी के पहले वर्ष जब एक रस्म, जिसे कश्मीरी पण्डित समाज में 'शिशुर लागुन' कहते हैं, अदा की जाती है, उस समय भी नववधू के ससुराल वाले एवं उनके सम्बन्धी, मित्र वधू की नई सुन्दर खाली कांगड़ी में मेवे,कुछ रूपये-पैसे आदि डालते हैं। किसी मृत व्यक्ति के वर्ष भर जो श्राद्ध आदि होते हैं, उनमें भी अन्य वस्तुओं के साथ मृतक के नाम कांगड़ी दान में दी जाती है। जिस प्रकार मैदानी क्षेत्रों में हर साल मकर संक्रांति के अवसर पर पितरों के नाम जल-भरे घड़े दान किए जाते हैं, उसी प्रकार इस दिन कश्मीर में अंगारों से भरी कांगड़ियाँ पितरों के नाम प्रति वर्ष दान दी जाती हैं। यज्ञोपवीत संस्कार, ब्याह-शादियों तथा ऐसे ही अन्य उत्सवों पर जवान महिलाएँ मंगलगान गाती हैं, तो उस समय अंगारों-भरी कांगडी में हरमल के बीज (जिसे स्थानीय भाषा में इसबन्द कहा जाता है) जलाना अनिवार्य होता है। इतना ही नहीं, किसी व्यक्ति की प्रेतबाधा दूर करनी हो तो कांगड़ी में अभिमन्त्रित तिल तथा गुग्गल-धूप अवश्य जलाया जाता है। कहने का तात्पर्य यह कि कांगडी कश्मीरी लोकजीवन के हर क्षेत्र में समा गई है।

उल्लेखनीय है कि सर्दियों में हर वर्ष जम्मू-कश्मीर को गंभीर रूप से बिजली संकट का सामना करना पड़ता है. कई घंटों की बिजली कटौती में इलेक्ट्रॉनिक उपकरण सफ़ेद हाथी ही साबित होते हैं. दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों में भयंकर सर्दी और बर्फ़बारी के बीच हर साल बिजली के मूलभूत ढांचे को भी भारी नुक्सान पहुंचता है, जिस कारण कई दिनों तक बिजली बंद रहती है. श्रीनगर जैसे बड़े शहर को भी बर्फबारी के दौरान गंभीर रूप से बिजली कटौती का सामना करना पड़ता है.ऐसे अवसर पर कांगड़ी ही कश्मीरियों के लिए ‘त्रान’ बनती है.

यहाँ पर यह स्पष्ट करना ज़रूररु है कि कुछ लोगों ने यह धारणा फैला राखी है कि कंगड़ी को गले में लटकाया जाता है जो सही नहीं है. सच्चाई यह है कि कंगड़ी को व्यक्ति सपने ‘फिरन’ (एक किस्म का चोगा या चोला) के अंदर बड़ी सावधानी के साथ रखता है और इसके अंदर रखे अंगरों या तपती रख की गर्मी से अपने हाथ पैर सकता और इस तरह उसका शरीर गर्म रहता है।







Wednesday, September 4, 2024



मौली का महत्व



मुझे लगता है कि कश्मीरी शब्द ना’र्यवन्द “नाडीबंध”से बना है। हिंदी क्षेत्रों में इसे मौली,कलावा,रक्षा-सूत्र,डोरा आदि नामों से जाना जाता है। वैसे,मौली शब्द प्रचलन में अधिक है। मौली लाल-पीले सूत का वह लच्छा है जिसे विवाह आदि मांगलिक अवसरों पर कलाई,घड़ों तथा अन्य वस्तुओं पर बाँधा जाता है। कलाई पर इसलिए क्योंकि कलाई में स्थित नाडी/नब्ज़ का विशेष महत्त्व है। वैद्य कलाई की नाडी/नब्ज़ के परीक्षण द्वारा ही रोग का पता लगाते हैं। नाडी-परीक्षण से हृदय द्वारा संचालित रक्त-संचार का पता भी पता लगाया जाता है।
मौली बाँधने की प्रथा कब से शुरू हुई और इसके महत्त्व के विषय में अनेक आख्यान शास्त्रों में मौजूद हैं । ऐ९स माना जाता है कि मौली बाँधने की परंपरा तब से चली आ रही है, जब से दानवीरों में अग्रणी महाराज बलि की अमरता के लिए वामन भगवान् ने उनकी कलाई पर रक्षा सूत्र बांधा था !इसे रक्षा-कवच के रूप में भी शरीर पर बांधा जाता है !इन्द्र जब वृत्रासुर से युद्ध करने जा रहे थे तब इंद्राणी शची ने इन्द्र की दाहिनी भुजा पर रक्षा-कवच के रूप में मौली को बाँध दिया था और इन्द्र इस युद्ध में विजयी हुए !। मौली का दोनों धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व बताया जाता है।

ऐसा माना जाता है कि मौली बांधना उत्तम स्वास्थ्य भी प्रदान करता है क्योंकि मौली बांधने से त्रिदोष यानी वात, पित्त तथा कफ का शरीर में सामंजस्य बना रहता है। शरीर की संरचना का प्रमुख नियंत्रण हाथ की कलाई में होता है, अतः यहां मौली बांधने से व्यक्ति स्वस्थ रहता है। इसे बांधने से बीमारी अधिक नहीं बढती है। ब्लड प्रेशर, हार्ट एटेक, डायबीटिज और लकवा जैसे रोगों से बचाव के लिये मौली बांधना हितकर बताया गया है। शास्त्रों का ऐसा भी मत है कि मौली बांधने से त्रिदेव : ब्रह्मा, विष्णु व महेश तथा तीनों देवियों- लक्ष्मी, पार्वती व सरस्वती की कृपा प्राप्त होती है। ब्रह्मा की कृपा से "कीर्ति", विष्णु की अनुकंपा से "रक्षा बल" मिलता है तथा शिव "दुर्गुणों" का विनाश करते हैं। इसी प्रकार लक्ष्मी से "धन", दुर्गा से "शक्ति" एवं सरस्वती की कृपा से "बुद्धि" प्राप्त होती है। मौली शत प्रतिशत कच्चे धागे (सूत) की ही होनी चाहिये। पुरुषों तथा अविवाहित कन्याओं के दाएं हाथ में तथा विवाहित महिलाओं के बाएं हाथ में मौली को बांधा जाता है। जिस हाथ में कलावा या मौली बांधें उसकी मुट्ठी बंधी हुयी हो एवं दूसरा हाथ सिर पर हो। इस पुण्य कार्य के लिए व्रतशील बनकर उत्तरदायित्व स्वीकार करने का भाव रखा जाए। संकटों के समय भी यह रक्षासूत्र हमारी रक्षा करता है,ऐसा माना जाता है। वाहन, कलम, बही खाते, फैक्ट्री के मेन गेट, चाबी के छल्ले, तिजोरी पर पवित्र मौली बांधने से लाभ होता है, महिलाएं मटकी, कलश, कंडा, अलमारी, चाबी के छल्ले, पूजा घर में मौली बांधें या रखें। मोली से बनी सजावट की वस्तुएं घर में रखेंगी तो नई खुशियां आती हैं । नौकरी-पेशा लोग कार्य करने की टेबल एवं दराज में पवित्र मौली रखें या हाथ में मौली बांधेंगे तो लाभ प्राप्ति की संभावना बढ़ती है।

Tuesday, August 6, 2024





चाथम आरा मिल

अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में स्थित ‘चाथम सॉ-मिल’ एशिया की सबसे बड़ी आरा मिलों में से एक है।ब्रिटिश शासन-काल के दौरान 1883 में स्थापित इस मिल का इतिहास बड़ा ही गौरवशाली है। यह आरा-मिल एक छोटे से द्वीप पर बनी है और एक पुल द्वारा पोर्ट-ब्लेयर से जुड़ा हुयी है। पोर्ट-ब्लेयर से 3 किलोमीटर उत्तर में स्थित इस मिल के प्रवेश-द्वार पर विशाल लकड़ी का गेट गर्व से इस द्वीप के इतिहास में इस मिल के योगदान को रूपायित करता है। जैसा कि कहा गया इस मिल को मुख्य रूप से 1883 में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान द्वीप के भीतर निर्माण कार्यों के लिए लकड़ी की जरूरतों को पूरा करने के लिए बनाया गया था। अंग्रेजों ने अपने देश में भी लकड़ी की जरूरतों को पूरा करने के लिए इस आरा मिल का इस्तेमाल किया।

आरा मिल परिसर के भीतर एक संग्रहालय है जो अंडमान और निकोबार द्वीप-समूह की काष्ठ-संपदा को प्रदर्शित करता है।
1942 में, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान यह मिल ब्रिटिश बमबारी का शिकार हुयी थी जिसमें इस मिल में काम करने वाले कई कर्मियों समेत अनेक सुरक्षा कर्मी मारे गये थे। उनकी याद में मिल-परिसर में एक स्मारक भी स्थापित किया गया है।

Sunday, July 28, 2024



अंडमान-निकोबार की राजधानी पोर्ट ब्लेयरके आसपास कई सारे दर्शनीय स्थान हैं जिन में एक चर्चित स्थान है ‘मुंडा पहाड़’ या ‘चिड़िया टापू’। यह जगह जितनी रामणीक और हरियाली से भरपूर है उतनी ही प्रसिद्ध भी है। प्रख्यात जैविक उद्यान और सर्वप्रसिद्ध ‘सिंफनी बीच’ भी इसी जगह पर स्थित हैं।दोनों जगहों के बारे में संक्षेप में जानना आवश्यक है।

चिड़िया टापू जैविक उद्यान (बर्ड आइलैंड जैविक उद्यान) 2001 में अस्तित्व में आया था, जिसका उद्देश्य अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में पाए जाने वाले स्थानिक और लुप्तप्राय जानवरों की प्रजातियों का संरक्षण और अध्ययन करना था। तब से यह पार्क जैव विविधता और संरक्षण का केंद्र रहा है, जहाँ से द्वीप के समृद्ध जीवों की झलक देखी जा सकती है।
हरा-भरा और घना जंगल जैसा वातावरण यहाँ के जानवरों के प्राकृतिक आवास को आत्मीयता प्रदान करता है। 40 हेक्टेयर में फैला यह पार्क विभिन्न प्रकार के पौधों,पेड़ों,वन्य-जीवों आदि से आपूरित है। पक्षियों के अलावा यहाँ जंगली सूअरों के साथ-साथ तरह-तरह के हिरण और भी देख सकते हैं। जंगली तोते,बन्दर,कबूतर आदि के अलावा आराम करते मगरमच्छों को भी यहाँ देखा जा सकता है।

‘सिम्फनी समुद्र जंगल रिज़ॉर्ट’ प्राकृतिक सौंदर्य और शानदार निर्माण-शैली का एक दिलकश समुद्र-तटीय रिज़ॉर्ट है। तीन दशकों से अधिक के आतिथ्य उत्कृष्टता के लिए प्रसिद्ध प्रतिष्ठित सिम्फनी रिसॉर्ट्स श्रृंखला अपनी अद्वितीय आतिथ्य सेवा के लिए प्रसिद्ध है। यह पोर्ट ब्लेयर में एक वेलनेस सेंटर वाला एकमात्र 5-सितारा होटल के रूप में अपनी अलग पहचान रखता है। रिज़ॉर्ट में 85 कमरे, एक इनफिनिटी पूल और बगल में सनसेट लाउंज है, जहां से सूर्यास्त के मनमोहक दृश्य को देखा जा सकता है।



Sunday, July 21, 2024



अंडमान निकोबार द्वीप की राजधानी पोर्ट ब्लेयर की यात्रा के दौरान यहाँ की सेल्युलर जेल का उल्लेख करना परम आवश्यक है।यह जेल अंग्रेजों द्वारा भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के सेनानियों को कैद में रखने और उन पर ज़ुल्म ढाने के लिए बनाई गई थी। यह जेल ‘काला पानी’ के नाम से भी कुख्यात है।अंग्रेजी सरकार द्वारा भारत के स्वतंत्रता-सैनानियों पर किए गए अत्याचारों,ज़ुल्म-सितम और यातनाओं की मूक गवाह है इस जेल की दीवारें और उनकी एक-एक ईंट!

इस जेल के अंदर 694 कोठरियां हैं। इन कोठरियों को बनाने का उद्देश्य बंदियों के आपसी मेलजोल को रोकना था। आक्टोपस की तरह सात शाखाओं में फैली इस विशाल कारागार के अब केवल तीन अंश बचे हैं। कारागार की दीवारों पर वीर शहीदों के नाम लिखे हैं। यहां एक संग्रहालय भी है जहां उन शस्त्रों को देखा जा सकता है जिनसे स्वतंत्रता सैनानियों पर अत्याचार किए जाते थे।
भारत के प्रसिद्ध क्रांतिकारी, स्वतंत्रता सेनानी, समाजसुधारक, इतिहासकार, राजनेता तथा विचारक विनायक दामोदर सावरकर को 7 अप्रैल, 1911 को काला पानी की सजा पर सेल्युलर जेल भेजा गया था । वीर सावरकर को स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े होने के कारण अंग्रेजों द्वारा 'दोहरे आजीवन कारावास' की सजा सुनाकर अंडमान-निकोबार की सेल्युलर जेल में रखा गया था।सावरकर के अनुसार इस जेल में स्वतंत्रता सेनानियों को कड़ा परिश्रम करना पड़ता था। कैदियों को यहां कोल्हू में बैल की तरह जुत कर सरसों व नारियल आदि का तेल निकालना होता था। इसके अलावा उन्हें जेल के साथ लगे व बाहर के जंगलों को साफ कर दलदली भूमि व पहाड़ी क्षेत्र को समतल भी करना होता था। रुकने पर उनको कड़ी सजा व बेंत व कोड़ों से पिटाई भी की जाती थी। इतने पर भी उन्हें भरपेट खाना नहीं दिया जाता था।सावरकर 4 जुलाई, 1911 से 21 मई, 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे। उनके समर्थक उन्हें वीर सावरकर के नाम से सम्बोधित करते हैं।इनके नाम को भास्वरित करता एक सुंदर पार्क जेल-परिसर के बाहर बना हुआ है।

अपने समय में इस जेल में रहने की सज़ा को कालापानी की सजा भी कहा जाता था। ‘कालापानी’ शब्द की व्युत्पति संस्कृत के शब्द 'काल' से मानी जाती है, जिसका अर्थ समय या मृत्यु होता है। यानी काला पानी शब्द का अर्थ मृत्यु के उस स्थान से है, जहां से कोई भी जिंदा वापस नहीं आता था।

पोर्ट ब्लेयर की इस जेल का एक आकर्षण ‘ध्वनि और प्रकाश शो’ है । सेल्युलर जेल के इतिहास की कहानी जानने के लिए यह शो सूचनाओं और मनोरंजन का एक अद्भुत मिश्रण है। भारत के स्वतंत्रता-संग्राम में अपनी आहुति देने वाले माँ-भारती के वीर सपूतों के बारे में रुचि रखने वालों के लिए ध्वनि और प्रकाश का यह शो निश्चित रूप से देखने योग्य है।

इस शो द्वारा जेल के कैदियों की उत्पीडन-गाथा परिसर की दीवारों पर ध्वनि और प्रकाश के अद्भुत कला-कौशल से जीवंत हो उठती है।लगभग 45 मिनट तक चलने वाला यह शो अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में प्रदर्शित होता है। परिसर में बचे एक प्राचीन पीपल के पेड़ की आवाज़ द्वारा जेल की कहानी सुनाए जाने का विचार दर्शकों को भावुक कर उन्हें अतीत की यादों में डुबो देता है और वे अपने वीर शहीदों के उत्सर्ग और बलिदान की रोमांचक दास्ताँ सुनकर अभिभूत हो उठते हैं।

जेल परिसर के अंदर कुछ जगहें हैं जिन्हें सुरक्षित रखा गया है।जैसे: वह स्थान जहाँ कैदी को सूली पर चढ़ाये जाने से पहले उसके मजहब के अनुसार रस्म आदि निभाई जाती थी,कैदी को कोड़े लगाने की जगह, कैदी द्वारा कोल्हू में जुतकर तेल निकालने की जगह आदि-आदि।

भारत-माता के उन वीर सपूतों को शत-शत नमन जिन्होंने सेल्युलर जेल की काल कोठरियों में अपने जीवन के बहुमूल्य वर्ष प्राणों की आहुति देकर बिताये और हमें आज़ादी दिलाई।