Sunday, December 22, 2024





कश्मीर का प्रसिद्ध केसर पुष्प

डा० शिबन कृष्ण रैणा

कश्मीर को प्राचीनकाल से ही पुष्प-वाटिका कहा जाता है। बसंतागमन के साथ यहां रम्यवदना प्रकृति एक बार पुनः झूम उठती है। बर्फीली चादर ओढ़े पर्वत-शिखर, कल-कल करती फेनिल सरिताएं तथा छन-छन बजतें चिनार के वृक्षों के साथ यह सुरम्य घाटी अभिनव श्रंगार कर नूतन किसलयों तथा रंगा-रंग फूलों से खिल उठती हैं। चमेली, नरगिस, गुलाब, गुलशबी आदि की सुरभि से फिजाएं सुगंधित होती हैं तथा चारों ओर जीवनरस का संचार होता है। ऋतुराज वसंत इस सुरभ्य घाटी की पावन धरती को जो विशेष कुसुम भेंट करता है, वह है केसर-कुसुम जो अपनी मोहक सुरभि और सुन्दर-वर्ण से सबको मुग्ध करता है।

श्रीनगर से लगभग आठ मील दूर, जम्मू-कश्मीर राजमार्ग पर पद्मपुर (वर्तमान पांपोर) के पठारों पर हमें इसी मौसम में पीतारूण और लालिमा-मिश्रित, नील वर्ण के खिले हुए केसर-कुसुम ऐसे दिखायी देते हैं, मानो धरती पर सुन्दर कालीन बिछी हो, या जैसे शालीमार, निशात, अछबल आदि मुग़ल-बागात के कुसुम-कुंज का अंग-अंग महकाने के बाद ऋतुराज ने अब यहां पदार्पण किया हो। दूर-दूर तक फैले इन पठारों पर नव-बहार देखकर हृदय गदगद हो उठता है। केसर के इन पुष्पों को कश्मीरी में ‘क्वंग पोष’ कहते हैं।

कल्हण कृत राजतरंगिणी में केसर-कुसुम की खेती के बारे में एक प्रसंग आता है एक दिन प्रसिद्ध नेत्र-चिकित्सक वाग्भट्ट के पास दक्षक नामक एक नेत्र-रोगी नेत्रों की चिकित्सा के लिऐ आये, रोगी के नेत्रों से अश्रुधारा वह रही थीं। वाग्भट्ट ने रोगी को ठीक किया। रोगी वाग्भट्ट पर प्रसन्न हुए तथा उसको पारिश्रमिक के तौर पर केसर-कुसुम के कुछ बीज दिये। रोगी ये बीज कहाँ से ले आया था-यह कहने में इतिहासकार मौन हैं फिर भी इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कश्मीर में केसर-कुसुम की खेती प्राचीनकाल से होती रही है क्योंकि नाग यहां के आदिवासी माने जाते है। तक्षक-नाग की पूजा आज भी यहां श्रद्धा से की जाती है। इस नाग-नायक का वास यहां के एक गांव ज़ेवन में प्राप्त एक तालाब में समझा जाता है। ‘आईने-अकबरी में अब्दुल-फजल ने लिखा है की प्राचीनकाल में केसर की उपज के समय यहां एक मेला लगता था, जिसमे दूर-दूर के गांव से लोग आकर भाग लेते थे।

कहा जाता है सिकंदर ने जब कश्मीर में प्रवेश किया तो यहां उसके सिपाही केसर की बहार देखकर मुग्ध हो गये थे, यही कारण है कि इन्होंने राजा को कश्मीर पर आक्रमण न करने का सुझाव दिया था। पुराकाल में आयरलैंड के सम्राट का चौगा केसर से ही रंगा जाता था, कोई एक सौ वर्ष पूर्व यहूदी लोग केसर रंगी कमीज पहनने में गर्व अनुभव करते थे, यूनान और रोम में सुगंध के लिए नाटक ग्रहों और राज सभाओं में केसर के रस का छिडकाव किया जाता था, नीरो ने जब रोम में प्रवेश किया था। तो शहर के मुख्य रास्तों पर लोगों ने सुगंध के लिए केसर-इत्र का छिडकाव किया था। हिन्दुओं तथा यूनानियों में आज भी पूजन आदि में केसर-का प्रयोग होता है। हिन्दू माथे पर केसर-कुमकुम लगाते है। अरब, चीन और भारत में सबसे पहले केसर-का मूल्यवान औषधियों में प्रयोग हुआ है। चीन में केसर कश्मीर से तिब्बत के रास्ते ले जाई जाती थी।

इतना ही नहीं, केसर-कुसुम का गुणगान देश-विदेश के कई लेखकों ने अपनी अमूल्य कृतियों में किया है। कालिदास ने अपने कई नाटकों में इसकी खूब प्रशंसा की है। इसी को आधार मानकर कई आलोचक इन्हें कश्मीर वासी मानते हैं। जहाँगीर ने ‘तुजकि-जहाँगीरी’में दिल खोल कर इस का गुणगान किया है। यूनान के होमर और हैपो-क्रेटीज के गौरव-ग्रंथों में भी केसर-कुसुम का उल्लेख मिलता है। विख्यात चीनी पर्यटक हवेन सांग ने अपने भारत-यात्रा संस्मरण में केसर-कुसुम का का बार-बार वर्णन किया है, ‘आईने-अकबरी में अब्बुल-फजल लिखते हैं-‘केसर के खिले हुए फूलों का दृश्य इतना नयन रम्य होता है कि वह मनहूस तवीयत के लोगों को भी आह्लादित कर सकता है’।

इस समय सम्पूर्ण एशिया में केसर-कुसुम की खेती जम्मू-कश्मीर में की जाती है। वह भी मात्र दो क्षेत्रों में कश्मीर में पांपोर के पठारों पर और जम्मू में किश्तवाड़ के पर्वतनीय क्षेत्र में। इन दोनों स्थानों में केसर-कुसुम नवम्बर के महीने में महक उठते हैं और चांदनी-जैसा इनका मनमोहक दृश्य उपस्थित करते हैं।

केसर की उपज करना भी एक कला है। इसका बीज बोने के लिए पहले भूमि का चुनाव करना पड़ता है। इसके लिए भूमि जोतने में काफी समय लग जाता है। भूमि का एक बड़ा प्लाट जोतने के बाद इस पर चौकोर क्यारियां बनायीं जाती हैं। इसके बाद केसर-बीज बोया जाता है। केसर-की जड़ चौदह वर्ष तक भूमि में ही रहती है और इन सारे वर्षों में नियमित रूप से फूल खिलते हैं। केसर कुसुम खिल उठने के बाद इनको इकट्ठा करके धूप में सुखाया जाता हैं। फिर इनकी पंखुडियां अलग की जाती है। इसको कश्मीरी में शाही ज़ाफरान कहते हैं फूल की निचली पंखड़ियों को भी जाफरान कहा जाता है किंतु इन्हें उच्च-कोटि का नहीं माना जाता है। इन को कश्मीरी में मोंगरा कहते हैं।

केसर फूल सदियों से जम्मू-कश्मीर राज्य की आय का प्रमुख साधन रहा है। हिंदुकाल में यह राज्य की आय तथा लोगों की जीविका का मुख्य साधन रहा है। सुलतान तथा मुगलकाल में सरकार ने केसर-भूमि अपने अधिकार में ली थी। सुल्तानों के शासनकाल में केसर की खेती ७००० एकड़ भूमि पर तथा मुग़लकाल में ९००० ऐकड भूमि पर होती रही है। इसके बाद अफगानों के शासनकाल में यहां के लोगों ने इसकी खेती करना छोड़ दिया क्योंकि यही वह समय है जब घटी में भयंकर अकाल पीडीए और कई लोग भुखमरी से मारे गये। सर वाल्टर लारेंस अपनी पुस्तक ’वैली आफ कश्मीर’ में लिखते है कि इस दुर्भिक्ष से जब लोग बहुत परेशान हुए तो इन्होंने केसर-जड़ रोटी के बदले खायी, इसके बाद जैसे ही हालत सुधारे तो इसके बीज किश्तवाड़ से मंगवाये गये। तब से कश्मीर में केसर की खेती फिर शुरू हुई । आजकल कश्मीर और किश्तवाड में केवल ७००० ऐकड भूमि में केसर की खेती की जाती है। इस समय कश्मीर और किश्तवाड़ के अतिरिक्त हिमाचल प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में भी केसर की खेती करने के प्रयोग हो रहे हैं।

केसर को जड़ी-बूटियों का बाप मन जाता है। इसके नियमित सेवन से सेहत को अनगिनत फायदे मिलते हैं। इसमें वो सभी जरूरी पोषक तत्व पाए जाते हैं, जो हमारे शरीर के स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होते हैं। केसर में कार्बोहाइड्रेट्स होते हैं, जो शरीर को ऊर्जा प्रदान देते हैं। यह प्रोटीन, विटामिन, मिनरल्स जैसे- कैल्शियम, पोटैशियम, आयरन, मैग्नीशियम, और फॉस्फोरस और एंटीऑक्सीडेंट्स का खजाना है।

केसर के सेवन से सर्दी-खांसी का इलाज करने, मेंटल हेल्थ को बढ़ावा देने, पाचन को सुधारने में, ब्लड प्रेशर को कंट्रोल करने, त्वचा की समस्याओं को दूर करने, खून साफ करने और यौन स्वास्थ्य में सुधार करने में मदद मिलती है। केसर का सेवन अक्सर दूध के साथ या अलग-अलग पकवानों के साथ किया जाता है।

Friday, December 20, 2024





कश्मीरी परंपरा की अनमोल धरोहर है कांगड़ी

कश्मीर की भीषण सर्दी में जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुकी कांगड़ी, एक पारंपरिक अग्नि-पात्र है जो सदियों से कश्मीरी लोगों को गर्माहट प्रदान करती आ रही है। जब कश्मीर का तापमान शून्य से भी नीचे चला जाता है, डल झील तक जम जाती है बिजली भी नदारद रहती है, तब कांगड़ी ही लोगों के लिए ठंड से बचने का सहारा बनती है।

‘कांगड़ी’ को बनाना आसान नहीं है, बेहद संयम और धीरज के साथ एक ‘कांगड़ी’ बनकर तैयार होती है. कुम्हार द्वारा तैयार एक मिट्टी के कटोरेनुमा बर्तन के इर्द-गिर्द कश्मीर में पाई जाने वाली ‘कीकर’ नाम की लकड़ी (बांस से मिलती जुलती) की खपचियों टुकड़ों से एक तरह की टोकरी बुनी जाती है. बुनी गई इसी लकड़ी की टोकरी के ठीक बीचोबीच मिट्टी के कटोरे को इस प्रकार से बिठा दिया जाता है कि आसानी से मिट्टी का कटोरा न हिलता-डुलता है और न ही आसानी से टोकरी से बाहर निकल पाता है. इसी में चिनार या अन्य वृक्षों के कोयले और अंगारे रखे जाते हैं जो एक तरह से चलती-फिरती अंगीठी का काम करती है.

कड़ी मेहनत से तैयार की गई ‘कांगड़ी’ को बाद कारीगर अपने-अपने ढंग से इसे सजाते हैं. इसी सजावट से ‘कांगड़ी’ की कीमत तय की जाती है, जो 200 रुपए से लेकर 2000 रुपए तक हो सकती है. विशेष रूप से तैयार करवाई गई रंगीन व सजावटी ‘कांगड़ी’ की कीमत 2000 रुपए से भी ज्यादा होती है.

बांडीपुरी कांगड़ी और च्र्रार कांगड़ी को काफी लोकप्रिय माना जाता हैं. कश्मीरी हस्तशिल्प का ‘कांगड़ी’ एक नायाब उदाहरण है. हस्तनिर्मित बेहद ख़ूबसूरत ‘कांगड़ी’ की ख़ूबसूरती देखते ही बनती है. यही नहीं पर्यावरण के लिहाज़ से भी कांगड़ी बेहद अनुकूल है.

विदेश अथवा स्वदेश से कश्मीर आने वाले पर्यटक ‘कांगड़ी’ के आकर्षण से अपने को रोक नहीं पाते हैं और अक्सर अपने ‘ड्राईंग-रूम’ में सजाने के लिए ‘कांगड़ी’ को ख़रीद कर ले जाते हैं.

शादी-विवाह से लेकर धार्मिक अनुष्ठानों तक में कांगड़ी का विशेष महत्व रहता है. कश्मीरी लोक गीतों में भी कांगड़ी की महिमा गाई गई है.कांगड़ी मेहमान-नवाजी का भी प्रतीक है. किसी मेहमान के घर में आने पर सबसे पहले कांगड़ी ही पेश की जाती है. आधुनिक हीटिंग उपकरणों के सुलभ होने के बावजूद कांगड़ी की लोकप्रियता बरकरार है. हमारे समय में यानी तीस-चालीस साल पहले कांगड़ी सस्ती हुआ करती थी.यही कोई दस-बीस रूपये में खरीदी जाती थी. जैसा की बताया गया अब इसकी कीमत २०० रुपये से लेकर 2000 रुपये तक हो गयी है. लापरवाही से इस्तेमाल करने पर कांगड़ी खतरनाक भी हो सकती है. लंबे समय तक अत्यधिक प्रयोग से त्वचा संबंधी समस्याएं हो सकती हैं.चिकित्सकों के अनुसार, अत्यधिक प्रयोग से कैंसर का खतरा भी हो सकता है.

कांगड़ी आज भी कश्मीरी संस्कृति और जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह न केवल एक गर्म करने का उपकरण है, बल्कि कश्मीरी परंपरा और कला का एक अनूठा उदाहरण भी है। हालांकि इसकी मांग में कमी आई है, फिर भी यह कश्मीरी पहचान का एक अभिन्न अंग बनी हुई है।कांगड़ी कश्मीर की ठंडी जलवायु में उपयोग की जाने वाली एक पारंपरिक वस्तु है, जो शीतलहर और हिमपात के दौरान कश्मीरियों के लिए अनिवार्य होती है। यह चलती-फिरती एक छोटी अँगीठी है, जिसे हमेशा पास में रखा जाता है, इसमें जलाए गए कोयलों की गर्मी व्यक्ति को सर्द मौसम में गर्म रखने का काम करती है।

लापरवाही से कांगड़ी सेंकने के कारण कई बार शरीर और कपड़ों के जल जाने का जोखिम भी रहता है. कुछ अनुभवहीन लोग बड़े-बजुर्गों को देखकर बिस्तर में ‘कांगड़ी’ ले कर सोने की कोशिश में भी खतरा मोल लेते हैं. बिस्तर में ‘कांगड़ी’ के पलट जाने से जलने का डर रहता है. आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के उपलब्ध होने के बावजूद कश्मीर में ‘कांगडी’ का आकर्षण व आवश्यकता कम नही हुई है. तमाम तरह की आधुनिक सुविधाएं भी ‘कांगडी’ की मांग और ज़रूरत को कम नहीं कर पाईं हैं. आज भी ‘कांगडी’ की अपनी पहचान कायम है.

गर्म ‘कागड़ी’ को लेकर चलते-फिरते रहना और अपने रोज़मर्रा के काम करते रहना अपनेआप में ज़बरदस्त कुशलता का काम है. लंबे अभ्यास से कई लोग ऐसे पारंगत हो जाते हैं कि रात में बड़े आराम से बिस्तर में भी ‘कांगड़ी’ को लेकर सो जाते हैं. हालांकि, बिस्तर में कांगड़ी को लेकर सो पाना सभी के लिए संभव नही है, इसके लिए ‘कांगड़ी’ को सेंकने का पर्याप्त अनुभव चाहिए.

वज़न में हल्की होने और कहीं भी ले जाने की आसानी के कारण भी आम लोगों में ‘कांगड़ी’ बेहद लोकप्रिय है. कश्मीर में आम लोग कांगड़ी को फिरन (एक विशेष कश्मीरी परिधान) में लेकर बड़े आराम व सुविधा के साथ कहीं भी चले जाते हैं. बाज़ार जाते हुए, सफ़र करते हुए, खेतों में काम करते हुए, हर कहीं, कांगड़ी को अपने संग रख कर सेंकते हुए कश्मीर में लोग नज़र आ जाते हैं. कड़कड़ाती ठंड से बचने के लिए ‘कांगड़ी’ के मुकाबले दूसरी कोई ‘चलती-फिरती’ सुविधा उपलब्ध नहीं है.

कश्मीर घाटी में हर घर में एक नहीं ‘कांगड़ियों’ का ढेर रहता है. घर के प्रत्येक सदस्य की अपनी एक अलग ‘कांगड़ी’ होती है. बुजुर्गों के लिए तो ‘कांगड़ी’ किसी वरदान से कम नहीं. यही नहीं मेहमानों के लिए भी बकायदा घाटी के हर घर में ‘कांगड़ी’ रखी जाती है.

जैस की खा गया है सर्दियों में कश्मीर में किसी भी घर में किसी मेहमान के आने पर उसका स्वागत गर्म ‘कांगड़ी’ से ही किया जाता है. मेहमान को चाय-नाश्ता पेश करने से पहले गर्मा-गर्म ‘कांगड़ी’ पेश की जाती है, ताकि वो ठंड़ से फौरन अपना बचाव कर सके.

अपनी भाषा, संस्कृति से भावनात्मक रूप से जुड़े कश्मीरी समाज में ‘कांगड़ी’ को लेकर एक भावनात्मक जुड़ाव है और कश्मारी समाज ‘कांगड़ी’ को अपनी संस्कृति का एक अहम हिस्सा मानता है. ‘कांगड़ी’ को लेकर कश्मीरी भाषा में कईं लोकगीत भी प्रचलित हैं. यही नहीं कश्मीर में शादियों में बेटियों की विदाई के समय विशेषरूप से तैयार करवाई गई ख़ूबसूरत रंगीन ‘कांगड़ी’ उपहार में दिए जाने का प्रचलन भी है. ‘कांगड़ी’ एक तरह से जीवनरक्षक का काम करती है, बर्फबारी व ठंड़ में जब सारे साधन बेकार साबित होने लगते हैं तब ‘कांगड़ी’ ही सहारा देती है.

डी और कश्मीरियत का चोली-दामन का साथ है। कश्मीरी पण्डितों के सबसे बड़े त्योहार शिवरात्रि के कई दिन पहले जब ब्याहता लड़की मैके आती है तो उसे अन्य सामान के साथ एक सुन्दर-सजीली कांगड़ी भी दी जाती है। लड़की की शादी के पहले वर्ष जब एक रस्म, जिसे कश्मीरी पण्डित समाज में 'शिशुर लागुन' कहते हैं, अदा की जाती है, उस समय भी नववधू के ससुराल वाले एवं उनके सम्बन्धी, मित्र वधू की नई सुन्दर खाली कांगड़ी में मेवे,कुछ रूपये-पैसे आदि डालते हैं। किसी मृत व्यक्ति के वर्ष भर जो श्राद्ध आदि होते हैं, उनमें भी अन्य वस्तुओं के साथ मृतक के नाम कांगड़ी दान में दी जाती है। जिस प्रकार मैदानी क्षेत्रों में हर साल मकर संक्रांति के अवसर पर पितरों के नाम जल-भरे घड़े दान किए जाते हैं, उसी प्रकार इस दिन कश्मीर में अंगारों से भरी कांगड़ियाँ पितरों के नाम प्रति वर्ष दान दी जाती हैं। यज्ञोपवीत संस्कार, ब्याह-शादियों तथा ऐसे ही अन्य उत्सवों पर जवान महिलाएँ मंगलगान गाती हैं, तो उस समय अंगारों-भरी कांगडी में हरमल के बीज (जिसे स्थानीय भाषा में इसबन्द कहा जाता है) जलाना अनिवार्य होता है। इतना ही नहीं, किसी व्यक्ति की प्रेतबाधा दूर करनी हो तो कांगड़ी में अभिमन्त्रित तिल तथा गुग्गल-धूप अवश्य जलाया जाता है। कहने का तात्पर्य यह कि कांगडी कश्मीरी लोकजीवन के हर क्षेत्र में समा गई है।

उल्लेखनीय है कि सर्दियों में हर वर्ष जम्मू-कश्मीर को गंभीर रूप से बिजली संकट का सामना करना पड़ता है. कई घंटों की बिजली कटौती में इलेक्ट्रॉनिक उपकरण सफ़ेद हाथी ही साबित होते हैं. दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों में भयंकर सर्दी और बर्फ़बारी के बीच हर साल बिजली के मूलभूत ढांचे को भी भारी नुक्सान पहुंचता है, जिस कारण कई दिनों तक बिजली बंद रहती है. श्रीनगर जैसे बड़े शहर को भी बर्फबारी के दौरान गंभीर रूप से बिजली कटौती का सामना करना पड़ता है.ऐसे अवसर पर कांगड़ी ही कश्मीरियों के लिए ‘त्रान’ बनती है.

यहाँ पर यह स्पष्ट करना ज़रूररु है कि कुछ लोगों ने यह धारणा फैला राखी है कि कंगड़ी को गले में लटकाया जाता है जो सही नहीं है. सच्चाई यह है कि कंगड़ी को व्यक्ति सपने ‘फिरन’ (एक किस्म का चोगा या चोला) के अंदर बड़ी सावधानी के साथ रखता है और इसके अंदर रखे अंगरों या तपती रख की गर्मी से अपने हाथ पैर सकता और इस तरह उसका शरीर गर्म रहता है।







Wednesday, September 4, 2024



मौली का महत्व



मुझे लगता है कि कश्मीरी शब्द ना’र्यवन्द “नाडीबंध”से बना है। हिंदी क्षेत्रों में इसे मौली,कलावा,रक्षा-सूत्र,डोरा आदि नामों से जाना जाता है। वैसे,मौली शब्द प्रचलन में अधिक है। मौली लाल-पीले सूत का वह लच्छा है जिसे विवाह आदि मांगलिक अवसरों पर कलाई,घड़ों तथा अन्य वस्तुओं पर बाँधा जाता है। कलाई पर इसलिए क्योंकि कलाई में स्थित नाडी/नब्ज़ का विशेष महत्त्व है। वैद्य कलाई की नाडी/नब्ज़ के परीक्षण द्वारा ही रोग का पता लगाते हैं। नाडी-परीक्षण से हृदय द्वारा संचालित रक्त-संचार का पता भी पता लगाया जाता है।
मौली बाँधने की प्रथा कब से शुरू हुई और इसके महत्त्व के विषय में अनेक आख्यान शास्त्रों में मौजूद हैं । ऐ९स माना जाता है कि मौली बाँधने की परंपरा तब से चली आ रही है, जब से दानवीरों में अग्रणी महाराज बलि की अमरता के लिए वामन भगवान् ने उनकी कलाई पर रक्षा सूत्र बांधा था !इसे रक्षा-कवच के रूप में भी शरीर पर बांधा जाता है !इन्द्र जब वृत्रासुर से युद्ध करने जा रहे थे तब इंद्राणी शची ने इन्द्र की दाहिनी भुजा पर रक्षा-कवच के रूप में मौली को बाँध दिया था और इन्द्र इस युद्ध में विजयी हुए !। मौली का दोनों धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व बताया जाता है।

ऐसा माना जाता है कि मौली बांधना उत्तम स्वास्थ्य भी प्रदान करता है क्योंकि मौली बांधने से त्रिदोष यानी वात, पित्त तथा कफ का शरीर में सामंजस्य बना रहता है। शरीर की संरचना का प्रमुख नियंत्रण हाथ की कलाई में होता है, अतः यहां मौली बांधने से व्यक्ति स्वस्थ रहता है। इसे बांधने से बीमारी अधिक नहीं बढती है। ब्लड प्रेशर, हार्ट एटेक, डायबीटिज और लकवा जैसे रोगों से बचाव के लिये मौली बांधना हितकर बताया गया है। शास्त्रों का ऐसा भी मत है कि मौली बांधने से त्रिदेव : ब्रह्मा, विष्णु व महेश तथा तीनों देवियों- लक्ष्मी, पार्वती व सरस्वती की कृपा प्राप्त होती है। ब्रह्मा की कृपा से "कीर्ति", विष्णु की अनुकंपा से "रक्षा बल" मिलता है तथा शिव "दुर्गुणों" का विनाश करते हैं। इसी प्रकार लक्ष्मी से "धन", दुर्गा से "शक्ति" एवं सरस्वती की कृपा से "बुद्धि" प्राप्त होती है। मौली शत प्रतिशत कच्चे धागे (सूत) की ही होनी चाहिये। पुरुषों तथा अविवाहित कन्याओं के दाएं हाथ में तथा विवाहित महिलाओं के बाएं हाथ में मौली को बांधा जाता है। जिस हाथ में कलावा या मौली बांधें उसकी मुट्ठी बंधी हुयी हो एवं दूसरा हाथ सिर पर हो। इस पुण्य कार्य के लिए व्रतशील बनकर उत्तरदायित्व स्वीकार करने का भाव रखा जाए। संकटों के समय भी यह रक्षासूत्र हमारी रक्षा करता है,ऐसा माना जाता है। वाहन, कलम, बही खाते, फैक्ट्री के मेन गेट, चाबी के छल्ले, तिजोरी पर पवित्र मौली बांधने से लाभ होता है, महिलाएं मटकी, कलश, कंडा, अलमारी, चाबी के छल्ले, पूजा घर में मौली बांधें या रखें। मोली से बनी सजावट की वस्तुएं घर में रखेंगी तो नई खुशियां आती हैं । नौकरी-पेशा लोग कार्य करने की टेबल एवं दराज में पवित्र मौली रखें या हाथ में मौली बांधेंगे तो लाभ प्राप्ति की संभावना बढ़ती है।

Tuesday, August 6, 2024





चाथम आरा मिल

अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में स्थित ‘चाथम सॉ-मिल’ एशिया की सबसे बड़ी आरा मिलों में से एक है।ब्रिटिश शासन-काल के दौरान 1883 में स्थापित इस मिल का इतिहास बड़ा ही गौरवशाली है। यह आरा-मिल एक छोटे से द्वीप पर बनी है और एक पुल द्वारा पोर्ट-ब्लेयर से जुड़ा हुयी है। पोर्ट-ब्लेयर से 3 किलोमीटर उत्तर में स्थित इस मिल के प्रवेश-द्वार पर विशाल लकड़ी का गेट गर्व से इस द्वीप के इतिहास में इस मिल के योगदान को रूपायित करता है। जैसा कि कहा गया इस मिल को मुख्य रूप से 1883 में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान द्वीप के भीतर निर्माण कार्यों के लिए लकड़ी की जरूरतों को पूरा करने के लिए बनाया गया था। अंग्रेजों ने अपने देश में भी लकड़ी की जरूरतों को पूरा करने के लिए इस आरा मिल का इस्तेमाल किया।

आरा मिल परिसर के भीतर एक संग्रहालय है जो अंडमान और निकोबार द्वीप-समूह की काष्ठ-संपदा को प्रदर्शित करता है।
1942 में, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान यह मिल ब्रिटिश बमबारी का शिकार हुयी थी जिसमें इस मिल में काम करने वाले कई कर्मियों समेत अनेक सुरक्षा कर्मी मारे गये थे। उनकी याद में मिल-परिसर में एक स्मारक भी स्थापित किया गया है।

Sunday, July 28, 2024



अंडमान-निकोबार की राजधानी पोर्ट ब्लेयरके आसपास कई सारे दर्शनीय स्थान हैं जिन में एक चर्चित स्थान है ‘मुंडा पहाड़’ या ‘चिड़िया टापू’। यह जगह जितनी रामणीक और हरियाली से भरपूर है उतनी ही प्रसिद्ध भी है। प्रख्यात जैविक उद्यान और सर्वप्रसिद्ध ‘सिंफनी बीच’ भी इसी जगह पर स्थित हैं।दोनों जगहों के बारे में संक्षेप में जानना आवश्यक है।

चिड़िया टापू जैविक उद्यान (बर्ड आइलैंड जैविक उद्यान) 2001 में अस्तित्व में आया था, जिसका उद्देश्य अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में पाए जाने वाले स्थानिक और लुप्तप्राय जानवरों की प्रजातियों का संरक्षण और अध्ययन करना था। तब से यह पार्क जैव विविधता और संरक्षण का केंद्र रहा है, जहाँ से द्वीप के समृद्ध जीवों की झलक देखी जा सकती है।
हरा-भरा और घना जंगल जैसा वातावरण यहाँ के जानवरों के प्राकृतिक आवास को आत्मीयता प्रदान करता है। 40 हेक्टेयर में फैला यह पार्क विभिन्न प्रकार के पौधों,पेड़ों,वन्य-जीवों आदि से आपूरित है। पक्षियों के अलावा यहाँ जंगली सूअरों के साथ-साथ तरह-तरह के हिरण और भी देख सकते हैं। जंगली तोते,बन्दर,कबूतर आदि के अलावा आराम करते मगरमच्छों को भी यहाँ देखा जा सकता है।

‘सिम्फनी समुद्र जंगल रिज़ॉर्ट’ प्राकृतिक सौंदर्य और शानदार निर्माण-शैली का एक दिलकश समुद्र-तटीय रिज़ॉर्ट है। तीन दशकों से अधिक के आतिथ्य उत्कृष्टता के लिए प्रसिद्ध प्रतिष्ठित सिम्फनी रिसॉर्ट्स श्रृंखला अपनी अद्वितीय आतिथ्य सेवा के लिए प्रसिद्ध है। यह पोर्ट ब्लेयर में एक वेलनेस सेंटर वाला एकमात्र 5-सितारा होटल के रूप में अपनी अलग पहचान रखता है। रिज़ॉर्ट में 85 कमरे, एक इनफिनिटी पूल और बगल में सनसेट लाउंज है, जहां से सूर्यास्त के मनमोहक दृश्य को देखा जा सकता है।



Sunday, July 21, 2024



अंडमान निकोबार द्वीप की राजधानी पोर्ट ब्लेयर की यात्रा के दौरान यहाँ की सेल्युलर जेल का उल्लेख करना परम आवश्यक है।यह जेल अंग्रेजों द्वारा भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के सेनानियों को कैद में रखने और उन पर ज़ुल्म ढाने के लिए बनाई गई थी। यह जेल ‘काला पानी’ के नाम से भी कुख्यात है।अंग्रेजी सरकार द्वारा भारत के स्वतंत्रता-सैनानियों पर किए गए अत्याचारों,ज़ुल्म-सितम और यातनाओं की मूक गवाह है इस जेल की दीवारें और उनकी एक-एक ईंट!

इस जेल के अंदर 694 कोठरियां हैं। इन कोठरियों को बनाने का उद्देश्य बंदियों के आपसी मेलजोल को रोकना था। आक्टोपस की तरह सात शाखाओं में फैली इस विशाल कारागार के अब केवल तीन अंश बचे हैं। कारागार की दीवारों पर वीर शहीदों के नाम लिखे हैं। यहां एक संग्रहालय भी है जहां उन शस्त्रों को देखा जा सकता है जिनसे स्वतंत्रता सैनानियों पर अत्याचार किए जाते थे।
भारत के प्रसिद्ध क्रांतिकारी, स्वतंत्रता सेनानी, समाजसुधारक, इतिहासकार, राजनेता तथा विचारक विनायक दामोदर सावरकर को 7 अप्रैल, 1911 को काला पानी की सजा पर सेल्युलर जेल भेजा गया था । वीर सावरकर को स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े होने के कारण अंग्रेजों द्वारा 'दोहरे आजीवन कारावास' की सजा सुनाकर अंडमान-निकोबार की सेल्युलर जेल में रखा गया था।सावरकर के अनुसार इस जेल में स्वतंत्रता सेनानियों को कड़ा परिश्रम करना पड़ता था। कैदियों को यहां कोल्हू में बैल की तरह जुत कर सरसों व नारियल आदि का तेल निकालना होता था। इसके अलावा उन्हें जेल के साथ लगे व बाहर के जंगलों को साफ कर दलदली भूमि व पहाड़ी क्षेत्र को समतल भी करना होता था। रुकने पर उनको कड़ी सजा व बेंत व कोड़ों से पिटाई भी की जाती थी। इतने पर भी उन्हें भरपेट खाना नहीं दिया जाता था।सावरकर 4 जुलाई, 1911 से 21 मई, 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे। उनके समर्थक उन्हें वीर सावरकर के नाम से सम्बोधित करते हैं।इनके नाम को भास्वरित करता एक सुंदर पार्क जेल-परिसर के बाहर बना हुआ है।

अपने समय में इस जेल में रहने की सज़ा को कालापानी की सजा भी कहा जाता था। ‘कालापानी’ शब्द की व्युत्पति संस्कृत के शब्द 'काल' से मानी जाती है, जिसका अर्थ समय या मृत्यु होता है। यानी काला पानी शब्द का अर्थ मृत्यु के उस स्थान से है, जहां से कोई भी जिंदा वापस नहीं आता था।

पोर्ट ब्लेयर की इस जेल का एक आकर्षण ‘ध्वनि और प्रकाश शो’ है । सेल्युलर जेल के इतिहास की कहानी जानने के लिए यह शो सूचनाओं और मनोरंजन का एक अद्भुत मिश्रण है। भारत के स्वतंत्रता-संग्राम में अपनी आहुति देने वाले माँ-भारती के वीर सपूतों के बारे में रुचि रखने वालों के लिए ध्वनि और प्रकाश का यह शो निश्चित रूप से देखने योग्य है।

इस शो द्वारा जेल के कैदियों की उत्पीडन-गाथा परिसर की दीवारों पर ध्वनि और प्रकाश के अद्भुत कला-कौशल से जीवंत हो उठती है।लगभग 45 मिनट तक चलने वाला यह शो अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में प्रदर्शित होता है। परिसर में बचे एक प्राचीन पीपल के पेड़ की आवाज़ द्वारा जेल की कहानी सुनाए जाने का विचार दर्शकों को भावुक कर उन्हें अतीत की यादों में डुबो देता है और वे अपने वीर शहीदों के उत्सर्ग और बलिदान की रोमांचक दास्ताँ सुनकर अभिभूत हो उठते हैं।

जेल परिसर के अंदर कुछ जगहें हैं जिन्हें सुरक्षित रखा गया है।जैसे: वह स्थान जहाँ कैदी को सूली पर चढ़ाये जाने से पहले उसके मजहब के अनुसार रस्म आदि निभाई जाती थी,कैदी को कोड़े लगाने की जगह, कैदी द्वारा कोल्हू में जुतकर तेल निकालने की जगह आदि-आदि।

भारत-माता के उन वीर सपूतों को शत-शत नमन जिन्होंने सेल्युलर जेल की काल कोठरियों में अपने जीवन के बहुमूल्य वर्ष प्राणों की आहुति देकर बिताये और हमें आज़ादी दिलाई।

Friday, July 12, 2024



Fear Time: For it is a Great Watcher.


Dr.Shiben Krishen Raina

When a person’s desires become excessively intense or he becomes overly ambitious, when he rises from the scratch and touches the skies, he may, out of arrogance, start considering himself invincible. This is the point where the pages of his downfall begin to be written. It is rightly said, "Fear time, for it is Almighty. It keeps an eye on everyone and takes note of everything. When the appropriate time comes, it takes account of all. In its realm, there might be a delay, but there is no injustice.

As a matter of fact, human nature is such that once basic needs are met, the quest for more begins. This quest can lead to growth and progress, but it can also lead to an unquenchable thirst for more and more, known as greed. When an individual becomes consumed by greed, his actions are often driven by the desire to accumulate more wealth, power, or status. This relentless pursuit can make him override the ethical and moral boundaries he might be crossing.

Ambition is often praised as a virtue that drives individuals to achieve great things. However, when ambition turns into an obsession, it can lead to one’s downfall. Overambitious individual may start to believe that he is above everyone else, and this delusion can make him reckless. He may take undue risks or make decisions that harm others, believing that he is invulnerable to consequences.

We should keep in mind that time is the great watcher. It observes everything silently, taking note of every action and every decision. Time has a way of its own to expose the truth and bring about justice. It may seem to delay, but it never denies. The reckoning may not come immediately, but it will come eventually. Those who have risen through unethical means or have let arrogance cloud their judgment will find that time has not forgotten their deeds.

When the fall comes, it is often swift and unexpected. The very foundations that seemed so solid can crumble down overnight. The support systems that seemed unshakeable can vanish. The individual who once soared high is brought back to the ground. This fall is not just a physical or financial one; it is also a fall from grace, a loss of respect and dignity and a disaster in family, as well.

The lesson here is clear: fear time, respect it, and understand its power. Recognize that no matter how high you rise; you are never above the laws of nature and the universe. Stay grounded, remain humble, and always be mindful of your actions and decisions. Time is watching, and it will hold you accountable one day.

As already said, time, the silent mediator of justice, keeps a vigilant watch over the deeds of humanity. While corruption, irregularities, and unethical activities may temporarily escape detection, they leave indelible marks on the fabric of existence. These transgressions, though hidden from immediate view, are never truly concealed from the unerring gaze of time.The perpetrators of such misdeeds might bask in a false sense of security, believing their actions to be beyond accusation or discovery. They may even revel in the fruits of their illicit labors, unaware of the unavoidable forces aligning against them. But time, a patient and relentless watcher, hits at them when suitable and appropriate time approaches. Unlike human justice systems, which can be fallible or manipulated, time's judgment is absolute and inescapable. It does not announce its arrival with fanfare or warning. There are no sirens, no alarms to herald the approach of its vengeance. Instead, it moves with the quiet inevitability of a glacier, slowly but surely eroding the foundations of ill-gotten gains and unearned privileges.

This concept is defined in various literary forms. The phrase "the mills of God grind slowly, but they grind exceedingly fine" speaks to this inevitable process. Similarly, the "Rod of God has no sound.” (Uski Lathi mein Awaaz Nahi..) serves as a metaphor for this cosmic accountability. It reminds us that our actions have consequences, even if those consequences are not immediately apparent.

It is this understanding that gives hope to the oppressed and strikes fear into the hearts of wrongdoers. For while human systems may fail, and immediate consequences may be avoided, the ultimate judgment of time remains a reality.

Virtuous and wise individuals heed to this silent warning. They understand that each action, no matter how small or seemingly inconsequential, is being recorded in the annals of time. This awareness serves as a powerful deterrent against moral compromise and unethical behavior.

0000

Former Fellow, IIAS, Shimla (H.P)
Currently in Bengaluru (Karnataka)

Tuesday, July 9, 2024



Courage Amidst Conflict: The Story of Bashir Athar


Dr. Shiben Krishen Raina

In the turbulent year of 1997, amidst the height of militancy in Kashmir, I embarked on a journey to Srinagar for academic purposes. The atmosphere was fraught with tension, yet assurances of adequate security measures gave me some solace. My itinerary included stops in both Jammu and Srinagar.

Upon completing my work in Jammu, I arrived at the Srinagar airport, where a vehicle awaited me, accompanied by an armed guard. My accommodation was arranged at the Tourist Reception Center, conveniently located near the local Doordarshan Kendra.

After fulfilling my official duties, I had the privilege of meeting Bashir Malik, popularly known as Bashir Athar, ’Athar’ being his pen-name. At that time, Athar was the Chief News Editor at Doordarshan and later retired as Deputy Director General. I was familiar with some of his poetry, and he knew of my literary contributions, as well. Our meeting was warm. He introduced me to his colleagues and also arranged for my interview at the DD Centre.

During our conversation, Athar received a phone call. Though I couldn't discern the caller's words, Athar's thunderous response left an indelible mark on me. He roared into the phone, "Listen carefully. I will only say 'killed' for your dead man, not 'martyred'. Do whatever you want." After a brief exchange, he hung up the phone.

Athar then explained the situation. Militant groups frequently threatened him, demanding that those killed in encounters be referred to as 'martyrs' in news bulletins. Athar stood firm, declaring, "I will be the last person to succumb to their pressure."

Throughout his tenure, Athar maintained this resolute stance, facing the militants' challenges head-on. There was even an incident where a bomb was thrown at him, but he miraculously escaped unharmed. During this period of turmoil Athar could not attend the funeral of his mother, who passed away in 1993, nor perform the last rites of his uncle, who had adopted him as his son. ‘Come what may!’ Athar always remained unwavering in his commitment to the truth.

Bashir Malik was honored with the Shiromani Patarkarita Rattan Award by the Shaheed Memorial Sewa Society (Ludhiana) for his outstanding service to the nation, presenting an accurate picture of the situation in Kashmir against all odds. During our discussions, Bashir revealed the many challenges he faced. As per his words reporting from Kashmir was not an easy job. He had been doing it for over 20 years, ever since the eruption of militancy in Kashmir. While traditional media persons had left the valley or succumbed to militants’ dictates, Bashir Malik stood firm. Militants had already killed several state-run media personnel, making reporting for All India Radio and Doordarshan nearly suicidal, especially for someone with widespread family ties in the valley. Malik, from Anantnag, the fountainhead of militancy, chose to stand steady, reporting for AIR and presenting a picture contrary to that of traditional and biased media reported. This displeased the militants, who intensified their threats to Athar.

Malik's family received numerous threats, with Malik himself receiving at least 100 threatening calls daily. He frequently changed his telephone numbers and residences. Despite the predicament, he chose to uphold his conscience over succumbing to fundamentalism and secessionism. This decision isolated him socially, with militants issuing a fatwa of social boycott against him. Athar wrote me later that the most painful moments of his life were when he couldn't attend his mother and uncle's funerals. "I was only about 50 km away when my uncle and my mother were being laid to rest, yet I could not join the mourning... I was made to mourn, grieve and weep all alone," he recounted.
Malik aspired to rise above parochial and chauvinistic considerations, demonstrating that not all Kashmiri Muslims were fundamentalists or secessionists. He highlighted that many like him were willing to die for India, with hundreds having already sacrificed their lives for the country. His award by the Shaheed Memorial Sewa Society acknowledges those sacrifices and supports his stand.

Athar's story offers a glimpse into the daily pressures faced by journalists in conflict zones, particularly in Kashmir during the height of militancy and violence. His unwavering commitment to journalistic integrity, even in the face of grave danger, is a proof of his courage, principles, and dedication.

Interestingly, Athar's fighting spirit is also reflected in his poetry collection, “Kani Shahar.” His verses carry the same fierce determination and resilience he displayed as a news editor. Some of his poems, which I had the privilege of translating into Hindi, appeared on various social platforms within and outside the country and were later published in a book-form that he dedicated to me reverentially. It won’t be out of context to quote one of Bashir's most poignant poems here for readers' contemplation. This piece aims to expose the nefarious and destructive motives of antisocial elements, including extremists bent upon dividing the homogeneous and secular character of Kashmiri society. The last four lines of the poem highlight the deep love the poet has for his society and homeland, expressing hope that no one can divide his motherland.

"Keep on Dividing”

You divided the sky,

Divided the Universe too.

God too you divided,

And divided the countries all over.



You divided the shade of trees,

Divided their greenness and freshness.

Our rich traditions you got divided,

Bonds ever thick you divided.



You divided water, air too,

Divided our rich past.

Present too you brutally divided,

You divided man, his humanness.



Divided his soul, his psyche too,

You divided the love

Of our mothers, brothers'

and sisters' affection, too.



Keep on dividing, my friend!

Till you are exhausted.

But tell me,

How will you divide

My Motherland, my homeland?

Where you live,

I live,

And our ancestors lived!



Athar's story is a powerful reminder of the challenges faced by media professionals in conflict-ridden areas. It underscores the importance of maintaining journalistic ethics and the personal risks involved in standing up to anti-social groups. His dual role as a fearless journalist and poet adds depth to his personality, showing how art and professional integrity can coexist and reinforce each other.

In conclusion, Bashir Athar's story is not just about one man's courage but a reflection of the broader struggles faced by those who uphold truth and integrity in challenging circumstances. Athar’s life and work inspire, reminding us of the power of individual resolve in the face of intimidation and the crucial role of responsible journalism in conflict zones.

It needs to be mentioned here that author of several books in Urdu, Hindi and Kashmiri, Malik was awarded thrice by Doordarshan for his outstanding work in news- reporting and also conferred with the State award of excellence in the field of media by J&K State Government.

Malik has travelled widely and has the distinction of accompanying various Presidents and Prime Ministers of our country to over fifteen foreign countries.

0000











Friday, July 5, 2024



Memories of Peetambar Paanwala: A Glimpse into Kashmir's Habba-Kadal


In the heart of Srinagar, nestled near the picturesque Habba Kadal Bridge, stood a small shop that held a special place in the memories of many. This was the area where Peetambar Paanwala, affectionately known as "Peetkak, owned a shop." His humble establishment was more than just a paan shop. It was a gathering place, a source of entertainment, and a window into the changing times of Kashmir. I am talking of mid-Fifties when I was just a school-going boy.

Peetkak's shop was strategically located in what was then considered the bustling center of Srinagar: Habba-Kadal. Habbakadal, a locality in Srinagar Srinagar, holds a special place in the hearts of many. It is home to a significant population of Kashmiri Pandits adds to the city’s unique character. I remember Habbakadal’s bustling square, always beaming with activity and people. From there, four roads branch out, leading to different neighborhoods: Fateh Kadal, Babapora, Kral Khod (Ganpatyar), and Purshyar (Kani Kadal). Those days most people preferred to walk, and bicycles and Tangas (horse-drawn carriages) were a common sight. I have the proud privilege of being a native resident of Purshyar, Habbakadal. Amidst the bustling sight of Habba-Kadal and around, Peetkak's shop wore a busy look. In front were three renowned bookstores, Kapoor Brothers, Ali Muhammad and Sons and Omkar Brothers, adding an intellectual flavor to the neighborhood. Just next door, a quieter presence could be found in the form of Zinda Paanwala, another betel leaf seller who lived in the same lane where I lived.

Peetkak himself was a character larger than life. Tall and sturdy, he possessed an imposing figure behind his modest counter. His face was captivating, exuding a charm that drew people to his shop. Perhaps his most striking feature was the prominent round vermilion Tilak adorning his forehead, a symbol of his faith and identity. But it wasn't just his appearance that made Peetkak memorable, his voice carried authority and could be heard far and wide, while his quick wit and audacious nature had made him a local celebrity of the entire area.

In an era when owning a radio was a luxury few could afford, Peetkak's shop served as a point of social meetings. Students would gather around, drawn by the allure of Radio Ceylon's Geetmala, a popular music program that brought the latest hits to their eager ears. Cricket enthusiasts found solace here too, huddling close to catch the excitement of match commentaries. In this way, Peetkak's small shop became a place where shared experiences created lasting bonds.

Despite the seemingly idyllic setting, all was not peaceful in the Kashmir valley. Peetkak often voiced his frustration about the frequent disruptions to daily life. His words paint a vivid picture of a region in turmoil: "What kind of place are we living in?" he would lament, listing off a number of disturbances - "Daily curfews, protests, demonstrations, strikes, lathi-charges, shutdowns." His advice to me is still fresh in my memory : "Leave this place, or else you'll end up selling paan/betel leaves like me for the rest of your life. Nothing is left here for young talented boys like you."



Nearly seven decades have gone by and suddenly today the memory of this colorful character resurfaced in my mind, prompting questions about Peetkak's fate and his current whereabouts.

The story of Peetambar Paanwala offers more than just a nostalgic glimpse into Srinagar's past. It serves as a microcosm of a society in transition, caught between tradition and modernity, peace and conflict. Through the lens of this small paan shop and its charismatic owner, we see the complex landscape of life in Kashmir - the simple joys of shared entertainment, the bonds of community, and the undercurrent of unrest that came to define the region later At this point of time, Peetkak's words of warning seem almost prophetic, highlighting the challenges faced by a generation coming of age in uncertain times. As we reflect on this chapter of history, we're reminded of the profound ways in which our environments and experiences shape our lives, often in ways we can't fully appreciate until years later.

Wednesday, June 19, 2024



Stemming the Rot: Tackling Question Paper Leaks


The recent leaks of question papers for the prestigious NEET and NET exams have sparked nationwide outrage, igniting anger among examinees, parents, and the media. These incidents have cast a shadow over India's education system, highlighting vulnerabilities in a process meant to be foolproof. Having been closely associated with exam conduction, I understand the delicate nature and immense responsibility involved. Ensuring smooth, fair, and timely exams is a great challenge for examination-controlling bodies.

I have been associated with examination-controlling process closely.The examination process is intricate, encompassing multiple stages - from appointing question paper setters to printing, packing, and dispatching papers/OMRs to exam centers, including those in remote areas. Maintaining utmost confidentiality, privacy, and trust is crucial, as any breach at any stage can have catastrophic consequences.

Question papers are set by eminent subject experts and experienced academics, carefully vetted by the examination controller. These scholars are presumed to possess unimpeachable integrity. However, past instances reveal that even such luminaries can succumb to temptation, leaking their creation for undisclosed gains and disgracing the sacred examination process.

An examination controller has limited oversight capability and must rely on subordinate personnel to execute their duties diligently. Unfortunately, at times, these very employees collude with unscrupulous external elements for personal benefits, enabling such anti-academic activities. The root cause lies in the deteriorating moral fabric of our society, which fosters economic and academic scams alike.

It is high time concerted efforts were made to break this unholy nexus between paper leakers and their collaborators. Urgent measures are needed to plug loopholes in the question paper distribution system. Examination authorities must enforce the highest levels of secrecy at every stage - paper setting, printing, and distribution - to preempt any untoward incidents.

Both perpetrators and consumers of leaked papers must face stringent punitive action to serve as a deterrent. Exemplary punishment alone can curb this growing menace that tarnishes India's credibility on the global education landscape.

Enhancing and modernizing the examination process with cutting-edge technology and robust security measures is crucial. Equally important is the revitalization of societal ethics and principles. Only through these combined efforts can we preserve the sanctity of the examination system that shapes India's future.



Dr.Shiben Krishen Raina

Former Principal and Fellow at IIAS, Shimla (H.P)

Ex-Senior Fellow, Ministry of Culture,

Govt. of India.

skraina123@gmail.com

Saturday, June 15, 2024



Preserving Historical Gems: 'Shribhatt and Other Plays' by Gyanmudra Publication, Bhopal.


The realm of literature is enriched by a recent publication from Gyanmudra Publication, Bhopal, titled 'Shribhatt and Other Plays.' by Dr.Shiben Krishen Raina. This collection of three radio plays not only entertains but also preserves the rich cultural heritage of Kashmir and the Bhakti era.

The collection comprises three plays: 'Shribhatt,' 'Habbakhaton,' and 'Dinan ke Pher' (Rahim Khan-Khanaan/Vicissitudes of Time). While their narratives are rooted in history, they were initially crafted as radio dramas and broadcasted from the Jaipur station of Akashvani, garnering widespread acclaim during their time.

The opening play, 'Shribhatt,' narrates a remarkable chapter from Kashmir's history. It centers around Pandit Shribhatt, a physician whose wisdom and medical expertise cured the chronic ailment of Sultan Zain-ul-Abidin 'Badshah,' the ruler of Kashmir from 1420 to 1470 CE. As a token of gratitude, the king offered Shribhatt anything he desired from the royal treasury. What Shribhatt requested has become an unprecedented and prideful moment for the entire Kashmiri Pandit community.

The second play, 'Habbakhaton,' delves into the life of the celebrated music queen of Kashmir, exploring her journey and struggles. Similarly, 'Dinan ke Pher' portrays the life and times of Rahim, a revered poet-warrior of the Bhakti era, known for his profound literary contributions.

Each play is preceded by a preface that provides a comprehensive introduction to the plot, enabling readers to appreciate the nuances and historical context effectively. Additionally, the preface offers insights into the significance and form of radio plays, highlighting their unique ability to captivate audiences through the power of audio storytelling. Here, the readers will have the opportunity to immerse themselves in these captivating narratives, gain insights into the past, and celebrate the enduring power of storytelling.

Sultan Zain-ul-Abidin 'Badshah' (1420-1470 AD) was a highly popular, benevolent, and art-loving ruler of Kashmir. The people affectionately and respectfully called him 'Badshah', meaning the great king. It is said that once he developed a life-threatening abscess on his chest that even the greatest physicians,Hakeems and Vaidyas could not cure. Renowned physicians were summoned from Iran, Afghanistan, Turkistan, and other countries, but all failed. Then, a Kashmiri physician, Pandit Shribhatta, used his wisdom and experience to treat the 'Badshah' and healed his abscess, restoring his health. In gratitude for this favor, the Sultan opened the royal treasures for Shribhatta and asked him to request anything he desired. What Shribhatta asked for is a remarkable chapter in the history of Kashmir, one that the entire Kashmiri Pandit community takes pride in.

Indeed, the Kashmiri populace, especially the Hindu population, had been oppressed by the atrocities of Sultan Zain-ul-Abidin's father, Sikander Butshikan. Upon ascending to the throne, it seemed as though Zain-ul-Abidin had resolved to atone for his father's cruel deeds and sins. Historian Pandit Shrivara, in his Rajatarangini, has described the reign of this compassionate and tolerant Sultan, following the cruel sultans, in a highly emotional manner: 'The reign of Zain-ul-Abidin came like the application of a cooling sandalwood paste on the body after the heat of the desert has subsided.' History bears witness that Zain-ul-Abidin made every effort to steer Kashmir back to its ancient glory. The Kashmiri Pandits who had dispersed to other regions of India were called back. Numerous developmental works were initiated for the welfare of the people. All Hindu scriptures were translated into Persian. In fact, it was the physician Pandit Shribhatta who had awakened this sympathy for all humanity in the Sultan's heart.

The description of this brief period of prosperity in Kashmir would be incomplete without introducing the great physician Pandit Shribhatta. As mentioned earlier, just two years after Zain-ul-Abidin had ascended the throne, a dangerous abscess appeared on his chest. Many physicians treated it. Several renowned Muslim physicians from Central Asia were also summoned. But the abscess kept growing. Sultan Zain-ul-Abidin had heard that there were several Hindu Vaidyas in Kashmir who were considered experts in treating incurable abscesses. By the Sultan's order, a search for such Vaidyas began. However, due to the forced conversions and atrocities carried out by the cruel sultans, Kashmir had become devoid of such Hindu talents. According to Jonaraja's Rajatarangini, 'The Sultan's officials finally found the physician Shribhatta, who was known for his ability to neutralize poisons. Shribhatta knew the art of incision and healing. However, out of fear, Shribhatta deliberately delayed his arrival. When he finally arrived, the king encouraged him. Shribhatta completely cured the king's abscess.

While treating the Sultan, Pandit Shribhatta was afraid that if the Sultan did not recover, he might face the death penalty due to the Sultan's anger. In his Rajatarangini, Shrivara wrote, 'Although the physician Shribhatta was highly skilled in treating abscesses, he began the Sultan's treatment cautiously and hesitantly. Just as a person burned by fire would take a long time to muster the courage to touch a glittering diamond' (Rajatarangini). When the Sultan fully recovered, he wanted to reward Pandit Shribhatta with great wealth and jewels.

Shribhatta preferred not to accept any reward. He did not concern himself with personal comfort but valued the prosperity and well-being of his beloved Kashmir. This behavior of Shribhatta was a unique experience for the Sultan. By rejecting wealth and focusing on the nation's welfare, Pandit Shribhatta inspired the Sultan to adopt a liberal and humane perspective. Pandit Shribhatta took advantage of the Sultan's awakened generosity for the benefit of Kashmir and Pandits. At the Sultan's request, Shribhatta presented several proposals for the welfare of Kashmir, which are mentioned in the play.

In the play ‘Habba Khatun’ (1554-1609), the rise and fall of this renowned Kashmiri poetess has been very poignantly depicted. Habba Khatun is an unparalleled figure in the world of Kashmiri poetry, whose songs resonated in the valleys of Kashmir uptil now. Habba Khatun's real or childhood name was 'Zoon'. She was a village belle, with exquisite beauty and a melodious voice. Eventually, her parents married her off to a young man named Azeez Lone. Unfortunately, this relationship did not last long, as Zoon and Azeez had neither compatible interests nor shared similar thoughts. She also did not receive any empathy from her in-laws. Afflicted by this sorrow, her emotional mind cried out, and she lamented to her parents in a song : "Char kar myon malinyo...!" meaning, "I am not happy in my in-laws' place, my parents! Relieve me from my suffering... Everyone is taunting me, take care of me, my parents! Relieve me from my suffering...!"



One day, while working in the fields, Habba Khatun might have been humming the lines of this very song to ease her despair. At that moment, a handsome young man adorned in beautiful attire passed by on a decorated horse. He was mesmerized by the melodious and sorrowful words of her song and was drawn towards the village belle. This young man was none other than Prince Yousuf Shah Chak, the heir to the throne of Kashmir. In a moment, the beautiful Zoon of 'Chandrahar' village became the queen of the future king's heart. Habba accepted the prince's silent love proposal, and in 1570 AD, she left the fields and entered the royal palace. After setting foot in the palace, Habba Khatun's personality blossomed. Although Prince Yousuf Shah did not prove to be an able administrator, he was a person of refined taste and an art lover by nature. He brought renowned music teachers from foreign lands to groom Habba. She received every encouragement and facility to polish her art.

Habba Khatun's creative works reflect a beautiful and vibrant blend of qualities – a village belle and a queen, a musician and a poetess. The poetess's emotional outpourings are called 'Vachan', through which Habba's tender and sensitive personality can be seen as an integral part of Kashmiri poetry and culture. Living in the idyllic atmosphere of the palace, Habba composed beautiful works filled with love and devotion, reflecting her emotional mind - "I have arranged a bouquet for you, enjoy these pomegranate flowers / I am the earth, you are my sky, you are the veil of my mysteries / I am a relish, you are a beloved guest, enjoy these pomegranate flowers...!"



In 1585 AD, the Mughal armies marched towards Kashmir under the leadership of Raja Bhagwandas. Yousuf's valiant army fiercely fought against the powerful Mughal forces. Persuaded by Raja Bhagwandas, Yousuf agreed to make a treaty with Emperor Akbar, despite his son Yakub's warning that there seemed to be some deception. After that, Yousuf did not return. It is said that he was imprisoned in Basok (Biswak) in Bihar, where he died seven years later.

After being separated from Yousuf, the desolation and emptiness that engulfed Habba Khatun's life gave birth to heart-wrenching songs of separation, earning her the title of 'Queen of Songs'. These songs reflect the anguish, dejection, and agony of the poetess's tormented mind - "My parents raised me, fed me milk and sweets / They called me fondly, bathed me well, now I wander as a traveler from door to door / Alas, may no one's youth go in vain." It is said that Habba Khatun lived for twenty years after Yousuf's departure from Kashmir and eventually embraced death, carrying the pain of love and unfulfilled dreams in her eyes. Her grave is said to be located at 'Pantchok' near Srinagar. In memory of this Kashmiri poetess, an Indian Navy ship was named 'Habba Khatun'.

The third play titled ‘Dinan Ke Pher’ (Vicissitude of Time) is based on the great Moghul warrior and poet Rahim Khan-Khanan. Rahim was a venerable personality of the Mughal Sultanate, who witnessed three generations of the Mughal empire during his lifetime. He very closely experienced the ups and downs of life.

Rahim was not only a master of the pen and the sword but also a true devotee of human brotherhood/love. He was a skilled poet in Turkish, Arabic, Persian, Sanskrit, and Hindi. He was a polymath scholar. He had immense practical experience of life. All in all, Rahim was a Kalpataru (wish-fulfilling tree) among poets, a Karna for the seekers, and a Bhoja for the virtuous. He possessed the imaginative propensity of an artist and the realistic vision of administrators. He gave thousands of Rupees, Ashrafi coins, and wealth to scholars, Fakirs, and the needy, both directly and indirectly. For poets and the virtuous, he was like a God-father. Whoever came to him felt as if he had come home, and he received so much wealth that he did not need to go to the emperor's court.

There are many incidents related to Rahim's generosity in history. One such incident is mentioned in this play. His magnanimity was such that he would spend lakhs on a single couplet or poem composed by a poet. It is said that for a verse in his praise, Rahim gave the poet Gang Thirty-Six lakh Rupees as reward. While giving alms, Rahim would not look up. His charity was for people of all religions. Once, the poet Gang asked:Seekhe kahan Nawabju aisi deni den, jyon-jyon kar uncho karo, tyon-tyon niche nain. (Where did you learn such giving, my lord, the more you give, the lower go your eyes?)



Replied Rahim, Denhar kou aur hai, bhejat so din rain, log bharam hampar dharain, yaten niche nain. (Giver is somebody else, who sends day and night, people mistakenly think it is me, hence the lowered eyes!)



Rahim was trusted by Akbar. He got caught in the conflict between Jahangir and Shah Jahan to such an extent that he was imprisoned. His son Darab Khan's head was cut off and sent to him in the form of a watermelon. His entire family was killed by the oppressors, but Rahim did not lose his self-respect. He understood it as the ‘Vicissitude of Time’ (Dinan Ke Pher) and remained steadfast on his path:

Rahiman mohi na suhaay amiya piyavai maan bin

Baru vish dei bulaay maan sahit maribo bhalo.

(Rahim does not like drinking the nectar of disrespect, better to call and drink poison with honor, death with honor is better.)

Rahim Khankhana, the promoter and exponent of the shared Hindu-Muslim culture, was truly a secular poet. He was so deeply immersed in Indian culture and religious consciousness that his being a Turk seems like a myth. Through the medium of Hindu mythological tales like Krishna-Sudama, Bhrigu-Vishnu, Shiva-Ganga, etc., Rahim imparted beautiful teachings of morality and knowledge, which are truly pearls of wisdom.

According to Dr. Vidya Niwas Mishra, Rahim is a personality who seems like a brimming cup of experience, eager to spill over. Although a foreigner by lineage, he was such a loyal son of the soil of Hindustan that while he may have dedicated his intellect to Arabic, Persian, or Turkish, his heart belonged to Braj Bhasha, Awadhi, Khari Boli, and Sanskrit. His entire life was spent in the royal court, but his words were about the life of the common man. This intoxicated and towering Turk, born on the soil of Hindustan, will remain a source of inspiration for the proponents of secularism and poets with sensitive hearts for ages to come.


Intolerance Versus ‘Sarva Dharama Sambhava’

Dr. Shiben Krishen Raina



In recent decades, societies across the globe have been gripped by a disturbing trend of growing intolerance, fueling strife, wars, bitterness, and animosity. This intolerance poses a grave challenge to the fundamental values of humanity and threatens to loosen the fabric of our global community.

Tolerance is the foundation upon which a civil society is built. It creates an environment where individuals can fully exercise their freedom of religion, living by the faith and values they embrace without fear of persecution or discrimination. In a truly tolerant society, every person has the right to live freely according to his beliefs, whatever they may be. Tolerance fosters mutual respect, where diverse perspectives are not only accepted but celebrated as the rich heritage of human experience.

At its core, tolerance is rooted in the idea of treating all people equally, recognizing that our shared humanity transcends superficial differences. It nurtures universal values such as love, compassion, empathy, and kindness – virtues that bind us together as a global family. While all human beings are imperfect and prone to mistakes, tolerance encourages us to extend understanding and forgiveness, rather than allowing cynicism to aggravate into resentment and hostility.

Intolerance manifests in multifaceted forms – racial, religious, gender-based, and more. Its implications are far-reaching and treacherous. First, it breeds cynicism and distrust, creating fertile ground for the seeds of violence, terrorism, and other subversive activities that hamper human progress. Intolerance fractures communities, erodes social cohesion, and undermines the fundamental rights and freedoms that are the hallmarks of a just society.

Consider the tragic events of the Kashmiri Pandits who had to leave their ancestral homes and flee/migrate to various parts of the country due to the forced persecution by frenzied people of the Kashmir valley. The number of these hapless and ill-fated Pandits is said to be around three to four Lacs.

Combatting the menace of intolerance requires a concerted effort on multiple fronts. Education is paramount, especially for the younger generation, who will shape the future. By instilling in them the values of human dignity, empathy, and the virtues of tolerance, we can cultivate a generation committed to building bridges, not walls.

Equally crucial is the role of civil society – organizations, institutions, and individuals dedicated to upholding and propagating the principles of tolerance, inclusivity, and respect for diversity. When these standards are firmly upheld and championed, they become powerful forces for positive change, paving the way for a better future for humanity.

In this era of unprecedented global interconnectedness, the choice before us is clear: embrace tolerance or succumb to the divisive forces of intolerance. The path forward lies in recognizing the values of humanity, forgetting our differences, and fostering an environment where every individual can thrive without fear of persecution. Only then can we truly unlock the full potential of human civilization and create a world where peace, understanding, and mutual respect lay supreme.

Further,by learning from history and actively working towards a more tolerant and inclusive society, we can ensure that the rising tide of intolerance does not drown the values that define our humanity. Instead, we can build a future where diversity is cherished, and every person has the opportunity to live with dignity and peace.



Iy won’t be out of context to throw some light on the priceless idea of Sarva Dharma Sambhava.’ The literal interpretation of the term ' Sarva Dharma Sambhava' is all dharmas (truths) are equal. The term is said to be among the beliefs of Hinduism, however, it is attributable to Mahatma Gandhi. It is said that he first coined this adage. The meaning associated with the phrase is that all religions are equal. The etymology of the phrase itself clears the meaning, i.e., "Sarva - all"; "Dharma- reality or religion"; and lastly "Sambhava- equal". This has been the India’s Glorious Tradition of Religious Harmony. The need of the hour is to adhere to this Gandhian idea of "Sarv Dharam Sambhav"(Looking at each religion with equal perception).This will definitely take our country forward rid us of the strife, mistrust and discord we are facing.

India is a land of remarkable diversity, where people of various faiths and beliefs have co-existed harmoniously for centuries. This plural ethos is deeply rooted in the nation's spiritual traditions, which advocate the principle of "Sarva Dharma Sambhava" – an equal reverence for all religions.

This Indian wisdom upholds that truth is one, though the wise may describe it in different ways. It recognizes the inherent validity of all spiritual paths and encourages respect and understanding towards the multiplicity of faiths. Sarva Dharma Sambhava is not mere tolerance but a genuine acceptance of the legitimacy of diverse religious traditions.

Over the ages, this inclusive worldview has enriched India's composite culture and strengthened the fabric of unity amidst diversity. From the Sufi tradition of compassion to the Bhakti movement that transcended caste and creed, India's history brims with examples of inter-faith harmony and coexistence.
In contemporary times, when divisive forces seek to polarize societies on sectarian lines, it is imperative that India remains steadfast in upholding its pluralistic ethos. Adhering to the sublime ideal of Sarva Dharma Sambhava can pave the way for mutual understanding, compassion, and solidarity among all communities.
This calls for a renewed commitment to secular values and a conscious effort to foster an environment where every individual feels secure in the freedom to practice his faith. Educational institutions, the media, and civil society must play a proactive role in promoting interfaith dialogues, dispelling myths, and combating prejudices.

To end up, it is through the celebration of our rich diversity and the unwavering spirit of inclusiveness that India can truly realize its potential as a harmonious and prosperous nation. By embracing the universal message of Sarva Dharma Sambhava, we can collectively shape a society where all religions find equal reverence and dignity.

Tuesday, April 30, 2024



The Crumbling State of TV Debates


In the modern media landscape, political debates should serve as a vital forum for exchanging ideas, analyzing policies, and fostering substantive civic discourse. However, a concerning trend has emerged in recent years – the alarming deterioration in the quality and integrity of these televised debates. From perpetual interruptions to a blatant disregard for core issues, the state of political discourse on television has plunged to depths that threaten the very foundations of democratic dialogue.
One of the most glaring symptoms of this decline is the prevalence of participants incessantly talking over each other. Instead of engaging in respectful and thoughtful exchanges, panelists frequently devolve into loud shouting competitions, rendering meaningful conversation a near impossibility to listen to. This not only diminishes the value and purpose of the debate itself but also actively alienates viewers waiting and eager to seek informed and constructive discourse.

Furthermore, a troubling tendency has taken root – the tendency of participants to stray from the central topic or issue at hand. Whether motivated by a desire to deflect criticism or a lack of adequate preparation, speakers habitually turn off from the main issue and thus leave audience frustrated and disengaged. This consistent deviation from the core themes undermines the very purpose of political debates and erodes public trust in the media's ability to facilitate informed discussions.

Another troubling phenomenon plaguing modern political debates on TV is the pervasive expression of anger, hostility, and personal attacks by the participants creating a problematic and helpless situation for the anchor. Rather than presenting well-reasoned arguments and engaging in civil discourse, some panelists resort to inflammatory rhetoric and worthless assaults. This not only detracts from the substantive merits of the debate but also sets a dangerous precedent for civil discourse in society at large.

Moreover, the habit of indiscriminately talking about prepared talking-points repeatedly has become rampant in political debates. Instead of offering genuine insights or engaging with opposing viewpoints in a meaningful way, participants too often resort to parroting pre-scripted narratives, resulting in a shallow and unproductive exchange devoid of reliable discourse.

As viewers witness this landscape of much-too stale and hackneyed political debates, the temptation to simply switch off the television altogether or seek refuge in entertainment programming grows increasingly. Succumbing to this urge is indicative of the vicious cycle of declining discourse and further diminishes the media's vital role as a catalyst for informed civic engagement.

It is incumbent upon all stakeholders in the media industry to take proactive and decisive steps to address this crisis and restore integrity to political debates. This may involve implementing stricter guidelines for participant conduct, fostering a culture of accountability, and prioritizing substantive dialogue over sensationalism and spectacle.

Crucially, viewers themselves bear a profound responsibility to demand better from the media and hold broadcasters accountable for the quality of their programming. By actively engaging with content that upholds the principles of respectful discourse and meaningful exchanges, and by vocalizing dissatisfaction with substandard offerings, audiences can drive positive change and reclaim the integrity of political discourse.

In the end, the crumbling state of political debates on television represents a crisis of civic discourse that demands immediate attention and strenuous action. Only by recognizing the root causes of this decline and taking decisive steps to address them can we hope to reclaim the integrity of political discourse and ensure that television remains a platform for informed civic engagement, democratic participation, and the robust exchange of ideas that represent a healthy democratic society.

Wednesday, March 27, 2024





The True Essence of Education: Beyond Textbooks and Exams


Education, at its core, must prepare individuals not only to excel in their chosen fields but also to contribute meaningfully to society. It must equip them with the skills and values necessary to interact with others, respect diversity, and engage in civic life.

As we continue to navigate an ever-changing world, let us remember that the true essence of education lies not in the pages of a textbook but in the hearts and minds of those who strive to make a difference. Let us strive to embody the values of compassion, humility, and service that define true education and shape a brighter future for generations to come.

A little over two decade ago, an extraordinary encounter awaited me at the Alwar railway station in Rajasthan, leaving an indelible mark on my heart and reaffirming the true purpose of education.
As my wife and I alighted from the train after a heartwarming visit to Mumbai, a figure of wisdom and grace emerged to assist us. Without a moment's hesitation, the man reached out and took our heavy suitcases from our weary hands. Astonished, I had not even managed to utter a word before this benevolent stranger spoke, "Are you Mr. Raina?" There was a familiarity in his voice, though I could not place it.
The stranger continued to carry the weighty suitcases with ease, treading all the way towards the exit-gate. Puzzled, my wife and I exchanged glances, wondering who this mysterious individual could be. Before I could inquire, the stranger politely responded, "You may not remember, but I remember you well, sir. I was your student a long time ago. I later became a lecturer and recently retired as a principal. I was at the station to bid farewell to someone on the same train you arrived in."
Overwhelmed with emotion and curiosity, we boarded an auto-rickshaw arranged by this former student so fondly for us. As the auto-rickshaw navigated the busy streets of Alwar, I pondered over the significance of this unexpected chance-meeting.
This former student's act of kindness served as a poignant reminder that true education goes beyond textbooks and exams. True education, as exemplified by this individual, transcends the boundaries of time and continues to shape lives even years after the last lesson was taught. It instills values of compassion, humility, and service that endure long after formal schooling has ended.



In a world where selfishness and negativity can often seem pervasive, this encounter offered a beacon of hope, dispelling the notion that there are more "bad" people than "good" in society. The adage, "If you are good, the world is good," resounded in my thoughts, reaffirming my belief that acts of kindness have a ripple effect, inspiring others to follow suit.

The former student's gesture not only lightened the physical load of the suitcases but also lifted the weight of skepticism from my heart. This chance-meeting reminded me that compassion and goodness still persist in our society, often in the most unexpected of places.

In the years that followed, the memory of this unforgettable meeting remained imprinted on my mind. I came to the conclusion that the true purpose and essence of education can be found in individuals who, like that venerable figure at the Alwar railway station, make the world a better place through acts of kindness, gentleness, and selflessness. They embody the highest ideals of education, making society proud through their actions.

Education, at its core, should not merely impart knowledge but also cultivate a sense of humanity, empathy, and a desire to make a positive impact on the world around us. It is through such individuals that the true purpose of education is manifested, transcending classroom walls and leaving an indelible mark on the hearts and minds of those they encounter.

As already said, education is a transformative journey that transcends the mere acquisition of textbook knowledge. While gaining academic proficiency is undoubtedly important, the true purpose of education is to cultivate well-rounded individuals who are equipped to lead fulfilling and purposeful lives, both personally and as contributing members of society.

The real essence of education lies in its ability to shape individuals into virtuous and accomplished human beings. It is a process that nurtures not only intellectual growth but also fosters personal development, ethical reasoning, and a deep sense of social responsibility. Education should ignite a lifelong thirst for knowledge, critical thinking, and a commitment to continuous self-improvement.

Moreover, education plays a pivotal role in preparing individuals to actively participate in and contribute to the fabric of society. It should impart the necessary skills to navigate the complexities of human interactions, respect diversity, and engage in civic life. This encompasses developing effective communication abilities, emotional intelligence, teamwork and leadership capabilities, and fostering cultural awareness and empathy.

By embracing this holistic approach, education becomes a powerful force that empowers individuals to unlock their full potential, forge meaningful connections with others, and positively impact their communities. It is a catalyst for personal growth, social cohesion, and the advancement of society as a whole.

To sum up, the true purpose of education extends far beyond the confines of academic disciplines; it is a transformative journey that equips individuals with the knowledge, skills, and values necessary to lead purposeful and fulfilling lives while actively contributing to the betterment of society.

Saturday, March 2, 2024



Shivratri: A Joyous Celebration for Kashmiri Pandits


Our country’s rich cultural heritage comes alive through its varied festivals and rituals, spanning from Holi's vibrant hues to Diwali's illuminating joy, from Dussehra's triumph to Pongal's harvest celebration, and from the unity in Christmas and Eid to the profound spirituality of Shivratri. Among these, Shivratri, or Mahashivratri, emerges with a deep significance for Hindus not just in India but also in Nepal, Bangladesh, Sri Lanka, and beyond. This year, the festival falls on the 8th of March, marking a day of divine observance and joyous celebration.

Devotees across lands come together in devotion to Lord Shiva, revered as Mahadeva, celebrating Mahashivratri, or the 'Great Night of Shiva'. This festival commemorates the legend of Lord Shiva consuming a deadly poison to save the universe, encapsulating his role as the protector. The fervor and zeal with which this day is celebrated are unparalleled. Moreover, Mahashivratri is also celebrated as the day of Lord Shiva's union with Goddess Parvati. Women, celebrating the festivity, engage in pujas, venerating Goddess Parvati or Gauri, praying for blissful married lives.

In the scenic valleys of Kashmir, Shivratri is named as 'Herath', a festival of profound emotional and spiritual significance for Kashmiri Pandits. Despite adversities, their celebration of 'Herath', derived from 'Har-Ratri' or the Night of Har (Shiva), remains unwavering. Traditionally, Kashmiri Pandits, while residing in Kashmir, maintained a dedicated worship space in their homes called 'Thokur Kuth'. The preparation for Shivratri involved a thorough cleansing of their abodes and the setting up of ten urns, representing deities including Shiva and Parvati, adorned with flowers and containing walnuts symbolizing the sacred Vedas. This elaborate puja stretches over several days, underlining the sanctity of the festival.

On the eve of Amavasya, the Kalasha of Vatuk-Bhairav (Shiva) is ceremoniously taken to the banks of the Vitasta (Jhelum River) for the immersion of worship materials. A symbolic dialogue at the doorstep upon return invokes Lord Shiva's blessings, continuing the celebrations with the distribution of walnuts from the urn as Prasad, especially to married sisters and daughters.

The day following 'Herath' witnesses the heartwarming 'Salam' tradition, where neighbors, including those from the Muslim community, extend their greetings to their Hindu (Pandit) counterparts, weaving a great tradition of unity and harmony in the region.
Shivratri, for Kashmiri Pandits, is not just a festival; it's a deeply embedded part of their philosophical, spiritual, social, and cultural ethos. Despite facing numerous challenges, their spirit in celebrating this festival reflects their enduring reverence and faith. As this auspicious festival nears, let us join in prayers for the well-being of all, hoping that it brings joy, prosperity, and solace to every corner of our nation, including the Pandits who have continued to observe this festival with deep conviction and faith, wherever they may be. May Lord Shiva bestow his infinite blessings, ushering in happiness and peace for all.

Monday, January 29, 2024



रामचन्द्रजी द्वारा सीता के परित्याग की कथा: ननद की जलन

कश्मीरी रामायण 'रामावतार चरित` में एक कथा-विलक्षणता राम द्वारा सीता के परित्याग की है। सीता को वनवास दिलाने में रजक-घटना को मुख्य कारण न मानकर कवि ने सीता की छोटी ननद (?)को दोषी ठहराया है जो पति-पत्नी के पावन-प्रेम में यों फूट डालती है। एक दिन कुतिलतावश वह भाभी (सीता जी) के पीछे पड़कर पूछती है कि रावण का आकार कैसा था, तनिक उसका हुलिया तो बताना। न चाहते हुए भी सीता जी सहज-भाव से कागज़/भोजपत्र पर रावण का एक काल्पनिक रेखाचित्र बना देती है जिसे ननद अपने भाई को दिखाकर पति-पत्नी के पावन-प्रेम यों फूट डालती है:

''दोपुन तस कुन यि वुछ बायो यि क्या छुय
दोहय सीता यथ कुन वुछिथ तुलान हुय,
मे नीमस चूरि पतअ आसि पान मारान
वदन वाराह तअ नेतरव खून हारान। (पृ० ३९९)
(रावण का चित्र दिखा कर- देखो भैया, यह क्या है! सीता इसे देख-देख रोज़ विलाप करती है। जब से मैंने यह चित्र चुरा लिया है, तब से उसकी आंखों से अश्रुधारा बहे जा रही है। यदि वह यह जान जाए कि ननद ने उसका यह कागज़/चित्र चुरा लिया है तो मुझे ज़िन्दा न छोड़ेगी . . . .।)

इस प्रसंग से प्रेरित होकर रामचन्द्रजी सीता का परित्याग करने की सोचते हैं और लक्ष्मणजी से माता सीता को वन में छोड़ आने का आदेश देते हैं।वैसे,इस वृत्तांत का उल्लेख भारतीय रामकथा में भी मिलता है।कहते हैं,जब श्रीराम लंका-विजय के बाद अयोध्या वापस आए तो कुछ दिनों बाद श्रीराम के गुप्तचरों ने उनसे कहा कि प्रजा में माता सीता की पवित्रता पर संदेह किया जा रहा है। इसी संदेह के कारण माता सीता को अग्नि-परीक्षा भी देनी पड़ी। लेकिन इसके बाद भी माता सीता की पवित्रता पर सवाल उठाए जा रहे थे। तब प्रभु श्रीराम को पिता दशरथ के द्वारा सिखाया गया राजधर्म याद आ गया। जिसमें राजा दशरथ ने कहा था कि एक राजा का अपना कुछ नहीं होता है। सब-कुछ राज्य का हो जाता है। बल्कि आवश्यकता पड़ने पर यदि राजा को अपने राज्य और प्रजा के हित के लिए अपनी स्त्री, संतान, मित्र यहां तक कि प्राण भी त्यागने पड़े तो उसमें संकोच नहीं करना चाहिए। क्योंकि राज्य ही उसका मित्र है और राज्य ही उसका परिवार है। प्रजा की भलाई ही उसका सर्वोपरि धर्म है।इस कारण भगवान श्रीराम ने अपने राजधर्म का पालन करते हुए माता सीता को छोड़ने का मन बना लिया। सीता जब गर्भवती थीं तब उन्होंने एक दिन प्रभु राम से तपोवन घूमने की इच्छा व्यक्त की। श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा कि वे सीता को तपोवन में छोड़ आएं। लक्ष्मण ने तपोवन में पहुंचकर अत्यंत दुखी मन से सीता से कहा- 'माते, में आपको अब यहां से वापस नहीं ले जा सकता, क्योंकि यही आज्ञा है।‘-------

इस मार्मिक प्रसंग को कवि प्रकाशराम ने अपनी रामायण ‘रामावतारचरित’ में यों भावुक होकर वर्णन किया है:-

दैव गति देखिए, शाहंशाह (रामचन्द्रजी) को एक दूत ने (राज्य में हो रही किसी अनियमितता) की खबर दी। तब उन्होंने स्वयं सम्बंधित दफतर की जाँच-पडताल की और इस प्रकार फसाद (कटुता) ने जड़ पकड़ ली। देखिए, वे खुद ज्ञाता और सर्वज्ञ थे। किन्तु नियति के चक्र के बहानों (कारणों) से वे भी बच न सके। (नियति ने) बाकी कौर-केसर भी निकालनी शुरू की और उन (रामचन्द्रजी) के घर में फूट पड़ने लगी।(कहते हैं) उस सीता की एक छोटी ननद थी जिसने उस (बेचारी सीता) की भरी दुपहरी को शाम में बदल डाला। सीता से उसका वैर खूब बढ़ गया था। उसको जब उसने (रानीजी के समान) सुख-भोग करते देखा तो उसके घुटने जैसे टूट गए। रश्क ने ज़ोर मारा और देखिए, उस (सीता)का क्या हाल कर दिया? उसे तख्त पर चढ़ा नीचे उसके लिए खाई खोद डाली। (ननद एक दिन बोली) तुमने आज तक मेरी कोई बात नहीं मानी। अपनी होकर भी मुझे दुश्मन मानती रही। (आज मैं कुछ चाहती हूँ) सच-सच लिखकर मुझे बता देना। वह दशमुख-रावण सूरत से भला कैसा था? उस (सीता) के सामने खूब गरजमंद बनी वह(खूब पीछे पड़ गयी)। इधर, वह (सीता) यह न जान सकी कि यह मेरे गले में कौन-सा फंदा डाल रही है? उसने सीता की दुबारा खूब मनुहार की और वह (सीता) त्रिया होने के कारण (स्त्री सुलभ स्वभाव से) मजबूर हो गई। अव्वल, उस सीता को सच्चाई (असलियत) दिखाई न दी। दूसरा, उसने (सरल स्वभाव के कारण) अपने में और ननद में कोई भिन्नता नहीं जानी और तीसरा यही उसके लिए संकट का कारण बना। चैथी बात यह कि शायद उसके सुखों में बढोतरी हो गई थी, तभी अहंकार का सदाशिव ने यह हाल कर दिया। पाँचवी बात यह कि उसकी स्वयं की यह इच्छा रही होगी कि पुत्र को जन्म देकर जल्दी से घर (माँ वसुंधरा के पास) चली जाऊँ। छठी बात यह कि वह लोगो को ननद के दुर्व्यवहार से परिचित कराना चाहती थी। सातवीं बातयह कि उधर, श्रीरामजी को धोबी ने भी उलाहना दिया था। आठवीं बात यह कि शायद रामचन्द्रजी ने पूछा हो कि माँग इस समय क्या माँगती है? और उस (सीता) ने कहा हो कि मेरे मन की यही राय (इच्छा) है कि मैं पुनः ऋषियों के स्थान (वन) को देखना चाहती हूँ। नौवीं बात यह कि (अयोध्या)पहुँचकर उसकी खूब टीका (टिप्पणी) होने लगी थी। दसवीं बात यह कि (शायद) उसने सोचा हो कि (अब अत्यधिक) सुखानंद से क्या मिलने वाला है, अतः वन में बैठकर भगवान् को ढूँढ लूँ। मुद्दा यह कि उस (सीता) ने उस (रावण) की सूरत बनाई और (ननद को) दिखाकर कहा- देख, कैसे नरकवासी रावण ज़हर खा रहा है। तभी उस (रेखा-चित्र) को वह भाई के पास ले गई और उसे दिखाया। देखिए, कैसे सीता को (उस ननद ने) मरवा डाला (आफ़त में डाल दिया)। वह (भाई से) बोली-देखो भैया, यह क्या है! सीता रोज़ इसे देख-देखकर विलाप करती है। जब से इस (चित्र) को मैंने उसके यहाँ से चुराया है, वह खूब छाती पीटने लगी है। यदि वह जान जाय कि उसका यह कागज़ (रेखा-चित्र) ननद (मैं) ने चुरा लिया है तो वह मुझे मार ही डालेगी, ऐसी (डाकिन) है वह!

सीता को जलावतन करना

यह सुनकर रामजी अत्यन्त क्रुद्ध हुए। इधर, संभवतः कुश और लव को पैदा होना था। यहसोचकर रामजी बेताव (चिन्ताकुल) हो उठे। लक्ष्मण को बुलवाकर उससे सब कुछ बताया और कहा कि सीता को वन में छोड़ आ।---ऐसा सुनकर लक्ष्मणजी तनिक उग्र हो उठे ओैर कहा कि सीता को यह किस पाप की सज़ा दी जा रही है ? परन्तु उन (रामजी) के आगे उनकी एक न चल सकी तथा उनका जिगर एकबारगी दहक उठा। लक्ष्मणजी पुनः बोले-आपको ज़रा भी इन्साफ न रहा। सीता सती हैं, उस पर भला कौन-सा पाप लगा है? (जो आप उसे यह कठोर दण्ड दे रहे है) अपनी ओर से उस (लक्ष्मण) ने खूब विनती की, मगर रामजी ने कुछ भी नहीं माने। दरअसल, उस (भगवान्) को ऐसा करना था, जिसकी यह घटना बहाना-मात्र बन गई।

लाचार होकर लक्ष्मण ने हुक्म को मान लिया और सीता को अपने साथ न ले जाने के लिए उसे कोई चारा (उपाय) नज़र आता न दिखा।(घर से) निकालकर सीता को वन में छोड़ आने को वह जाने को तैयार हुआ। देखिए, कैसे मनुष्यजाति के लोगो ने स्वर्ग की हूर को निकाल बाहर कर दिया। कहते हैं, वह लक्ष्मण खूब रोने लगा तथा (बार-बार)पीछे मुडकर देखने लगा (ताकि रामचन्द्रजी को दया आ जाए और वे उन्हें रोक लें)।बहुत रोने से उसका दिल दहलने लगा और वह गश खा गया। (होश में आने पर) वह धीरे-धीरे पीछे की ओर पुनः (कातर नजरों से) देखने लगा कि शायद उनको अब भी दया आ जाए। तब रोते हुए सीता धीरे-से बोली-(रे लक्ष्मण !) तू ही बता कि किस बात की यह सज़ा मुझे दी जा रही है? (अब तक) रास्ते छानते-छानते क्या मेरे पैर कम घिसे थे? जानती हूँ यह उपदेश (शायद) ननद द्वारा इन्हें दिया गया है। तब लक्ष्मण बोला-आप थोडी देर के लिए यहाँ बैठ जाइए, मैं अपने-आप का अंत कर देता हूँ। क्योंकि (आपकी दशा देख-देखकर) मेरा दिल जल रहा है। यह बात सुनकर सीता नीचे पृथ्वी पर गिर पडी़। उसके शरीर से तीव्र कँपकँपी छूटने लगी तथा देह पर जैसे चीटिंयाँ रेंगने लगी। आँखों की ज्योति कम हो गई और वह पत्थरों को चाटने लगी। वह (लक्ष्मण से) बोली-मुझे छोड जाने से पहले ज़रा पानी तो पिला देना। तब वह(लक्ष्मण) पानी लेने के लिए गया और जब बहुत दूर से पानी ले आया तो उसने देखा कि स्वर्ग की वह हूर-परी (सीता) गहन निद्रा में डूबी हुई है। गहरी नींद में वह ऐसे निमग्न थी जैसे मुँह के बल गिर पडी हो या फिर जैसे फूल की डाली सूखकर पृथ्वी पर गिरी हो। लक्ष्मण ने जब सीता माता को यों सुसुप्तावस्था में देखा तो उसने इसी में गनीमत जानी कि अब वह (सीता को छोड़) उससे दूर निकल जाए। पानी के लौटे को वृक्ष (की डाली) पर लटका दिया और उस (सीता के) मुँह पर पानी की बूँदें धीरे-धीरे टपकने लगी। इसके उपरान्त लक्ष्मणजी रोते हुए लौटने लगे वैसे ही जैसे किसी को मारने के लिए (सूली की ओर) बढाया जाता हो । रोते-रोते वह इतना क्षीणकाय हो गया कि (बार-बार) मुँह के बल गिर जाता मानो (सीता के) पादों से रुख्सत (विदाई) माँग रहा हो। (मारे ग्लानि के वह मन-ही-मन कहने लगा-) मुझ पर दया करना। हे उमा देवी ! मुझे क्षमा करना, मैने पाप किया है (आपको वन में छोड़ आने की बात मैंने मान ली)। आपको इस अवस्था में देखकर मेरा कलेजा छलनी हो रहा है, अब दुबारा आपको देखने की ताकत मुझ में कहाँ ? मैं आपको चरणों के सान्निध्य से रूखसत हो रहा हूँ-ऐसा सोच मृत्यु जैसे मुझे काटने को आती है।आपको (यों अकेला) छोडने के लिए जाने मैं क्यों यहाँ आ गया ? अब, हे माता ! मैं आपकी ही शरण में हूँ। मुझपर (पास) दया करना। मुझे रामचन्द्रजी का हूक्म नहीं मानना चाहिए था और न ही इस काम के लिए उन्हें मुझे यहाँ भेजना चाहिए था। मुझे वे वही पर शमशीर/तलवार से मार डालते, यदि मैं आपको साथ ले चलने के उनके हुक्म को न मानता, तो ज्यादा अच्छा था। अन्यथा, लगता है हे माता! यह सब आपके कर्म-लेख में बदा था जिसका अर्थ स्पष्ट होता जा रहा है। इस प्रकार (खिन्न मन से) वह लुभावना चन्द्र (लक्ष्मण) चलता गया और नमस्कार करते हुए शहर (अयोध्या) के अन्दर पहुँचा गया। इधर, सीता (लोटेटे में रखे) पानी की बूँदों से बेदार हो गई। उसके वस्त्र गर्मी के कारण पसीने में भीग गए थे। जब उसने देखा कि लक्ष्मण उससे दूर हो गया है तो वह गलने/उद्विग्न हुयी, वैसे ही काँपने लगी जैसे वायु से पेड़ की टहनी। वह बोली-हाय ! यह क्या हुआ ? यह किन (मुसीबतों) सर्पों ने मेरे गले को घेर लिया। अब कहीं कौए और गीदड़ मुझे (इस निर्जन में) खा न जाएँ ! लक्ष्मण द्वारा इस प्राकर छोड़ देने पर रोते-रोते उसकी आँखों की ज्योति कम हो गई। कभी उसे लगता जैसे दूर से (लक्ष्मणजी) उसकी ओर आ रहे हों किन्तु (दूसेर ही क्षण) नजरों से वे गायब हो जाते। (तब) अपने आप से वह सुन्दरी (सीता) कहने लगी कि बहुत ज्यादा रोने से इन दो पुतलियों का प्रकाश मद्धिम पड़ गया है। तभी शायद वे लक्ष्मण मुझे दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। वह बैठकर (ध्यान से) चलने की आहट पर कान धरने लगी (आँखों की ज्योति पर विश्वास न कर आहट का अवलम्ब लेने लगी किन्तु क्षणभर के बाद (किसी की भी आहट न पाकर) वह समझा गई कि वे (लक्ष्मण) उसको छोड़कर चोरी-छिपे घर चले गए होंगे। तब अपने को खाक में मिला देख वह अपने दुखड़े सुनाने लगी जिन्हें सुन (वन के) पत्थर भी जैसे पिघल गए (चाक हो गए)। उसके रोने से ऐसी अश्रु-धारा बही जिससे सैलाब आया तथा (बेचारे) पशु-पक्षी वन छोड़कर भागते हुए पंजाब जहुँच गए। गुलों ने जब उसका मुख देखा तो उनपर जैसे कालिख पुत गई। बहती वायु में भी वे सूख गए तथा (धराशायी होकर) मिट्टी के नीच छिप गए। (उस वन के बीचों-बीच) उस अकेली सीता की हाल (सूखे) काँटों व घास-फूस की तरह हो गई। एक तो नाजुक बदन, दूसरा यह अकेलापन। तीसरा त्रिया (पत्नी) होकर भी अपने भर्त्ता के सुख से वंचित। चैथा, मन्दोदरी के गर्भ से चोरी-छिपे जन्म लेना और फिर राजा जनक का पिता बन उसका पालन-पोशण करना।(आशय यह है कि सीता को जन्म से ही तरह-तरह के कष्ट देखने पड़े) आँखों से वह आँसू और हाथ-पैरों से खून बहाने लगी। (बेचारी) बार-बार गिर जाती तथा उसकी जुबान गूँगी हो गई तथा पीड़ा से तड़फने लगी। वह भीतर वन की ओर चल दी। (दौर्बल्य के कारण) उसकी हंसी जैसी गर्दन टेढ़ी हो गई।

वन में जाकर उसने जो बात कही, रे मनुष्य! उसे तू कान लगाकर सुन। वह सदुपेदश है तथा उसको हृदयंगम कर और असत्य से पीछे हट। (वह बोली-) खबर नहीं किस घड़ी मैंने उनका मन तोड़ा जो (आज) काँटों पर चलकर मेरे पाद यों छलनी हो रहे हैं। खबर नहीं किस घड़ी मैंने अतीत में (अभिमान-वश) किसी का मजाक जो उड़ाया जो (आज) मेरी बहार में यों वीराना छा गया। खबर नहीं किस घड़ी मैंने किसी पर अन्याय किया जो (आज) स्वर्ग की चमेली पर कालिख पुत गई। खबर नहीं किसी घड़ी किसने मुझे बददुआ दी जो मैं (आज) यों उदास फिरने लगी हूँ। खबर नहीं किस को मैंने अपने रहस्य बता डाले जो (आज) हृदय में यों तीर लग गया। खबर नहीं किसके साथ मैंने धोखा किया जो (आज) मेरी यह दुर्गति हुई, अन्यथा मेरा पाप ही क्या था। वह रोते हुए कहने लगी-कहाँ गया वह जिसने मुझे आग में धकेल दिया, कहाँ गया वह जिसने मेरे कर्म-लखे को पलटा दिया। कहाँ गया वह जिसने मुझे आग में तपाकर सोना (कुन्दन) बनाया। कहा गया वह जो हम दोनों (सीता-राम) को यकसान (एक समान) समझता था। (आज) यह मुझे यों निःसहाय छोड़कर कहाँ चला गया ? जो मेरे साथ यहाँ तक आया था, वह कहाँ गया ? उसने इस प्रकार चले जाने से मेरे जिगर में आग धधकने लगी है। वह मेरा एकमात्र था, किन्तु अब वह भी चला गया। दरअसल, पाप (दुर्भाग्य) के कारण मेरी आँख लग गई और मैं उसका मूल्य जान न सकी। अब किसको दोष दूँ? मेरे भाग्य में ऐसा ही बदा था। जो मुझे भोगना होगा उससे अब भला कौन मुझे दूर कर सकता है ! (बस, एक बात है) यहाँ अकेले में तनिक बेबस पड़ी हूँ। रो-रोकर सारे अंग टूट गए हैं। इस प्रकार वह सीता रोते हुए तथा रक्त बहाते हुए चलती गई और रामजी के लिय यह भजन गाने लगी।

०००००