कश्मीर का प्रसिद्ध केसर पुष्प
डा० शिबन कृष्ण रैणा
कश्मीर को प्राचीनकाल से ही पुष्प-वाटिका कहा जाता है। बसंतागमन के साथ यहां रम्यवदना प्रकृति एक बार पुनः झूम उठती है। बर्फीली चादर ओढ़े पर्वत-शिखर, कल-कल करती फेनिल सरिताएं तथा छन-छन बजतें चिनार के वृक्षों के साथ यह सुरम्य घाटी अभिनव श्रंगार कर नूतन किसलयों तथा रंगा-रंग फूलों से खिल उठती हैं। चमेली, नरगिस, गुलाब, गुलशबी आदि की सुरभि से फिजाएं सुगंधित होती हैं तथा चारों ओर जीवनरस का संचार होता है। ऋतुराज वसंत इस सुरभ्य घाटी की पावन धरती को जो विशेष कुसुम भेंट करता है, वह है केसर-कुसुम जो अपनी मोहक सुरभि और सुन्दर-वर्ण से सबको मुग्ध करता है।
श्रीनगर से लगभग आठ मील दूर, जम्मू-कश्मीर राजमार्ग पर पद्मपुर (वर्तमान पांपोर) के पठारों पर हमें इसी मौसम में पीतारूण और लालिमा-मिश्रित, नील वर्ण के खिले हुए केसर-कुसुम ऐसे दिखायी देते हैं, मानो धरती पर सुन्दर कालीन बिछी हो, या जैसे शालीमार, निशात, अछबल आदि मुग़ल-बागात के कुसुम-कुंज का अंग-अंग महकाने के बाद ऋतुराज ने अब यहां पदार्पण किया हो। दूर-दूर तक फैले इन पठारों पर नव-बहार देखकर हृदय गदगद हो उठता है। केसर के इन पुष्पों को कश्मीरी में ‘क्वंग पोष’ कहते हैं।
कल्हण कृत राजतरंगिणी में केसर-कुसुम की खेती के बारे में एक प्रसंग आता है एक दिन प्रसिद्ध नेत्र-चिकित्सक वाग्भट्ट के पास दक्षक नामक एक नेत्र-रोगी नेत्रों की चिकित्सा के लिऐ आये, रोगी के नेत्रों से अश्रुधारा वह रही थीं। वाग्भट्ट ने रोगी को ठीक किया। रोगी वाग्भट्ट पर प्रसन्न हुए तथा उसको पारिश्रमिक के तौर पर केसर-कुसुम के कुछ बीज दिये। रोगी ये बीज कहाँ से ले आया था-यह कहने में इतिहासकार मौन हैं फिर भी इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कश्मीर में केसर-कुसुम की खेती प्राचीनकाल से होती रही है क्योंकि नाग यहां के आदिवासी माने जाते है। तक्षक-नाग की पूजा आज भी यहां श्रद्धा से की जाती है। इस नाग-नायक का वास यहां के एक गांव ज़ेवन में प्राप्त एक तालाब में समझा जाता है। ‘आईने-अकबरी में अब्दुल-फजल ने लिखा है की प्राचीनकाल में केसर की उपज के समय यहां एक मेला लगता था, जिसमे दूर-दूर के गांव से लोग आकर भाग लेते थे।
कहा जाता है सिकंदर ने जब कश्मीर में प्रवेश किया तो यहां उसके सिपाही केसर की बहार देखकर मुग्ध हो गये थे, यही कारण है कि इन्होंने राजा को कश्मीर पर आक्रमण न करने का सुझाव दिया था। पुराकाल में आयरलैंड के सम्राट का चौगा केसर से ही रंगा जाता था, कोई एक सौ वर्ष पूर्व यहूदी लोग केसर रंगी कमीज पहनने में गर्व अनुभव करते थे, यूनान और रोम में सुगंध के लिए नाटक ग्रहों और राज सभाओं में केसर के रस का छिडकाव किया जाता था, नीरो ने जब रोम में प्रवेश किया था। तो शहर के मुख्य रास्तों पर लोगों ने सुगंध के लिए केसर-इत्र का छिडकाव किया था। हिन्दुओं तथा यूनानियों में आज भी पूजन आदि में केसर-का प्रयोग होता है। हिन्दू माथे पर केसर-कुमकुम लगाते है। अरब, चीन और भारत में सबसे पहले केसर-का मूल्यवान औषधियों में प्रयोग हुआ है। चीन में केसर कश्मीर से तिब्बत के रास्ते ले जाई जाती थी।
इतना ही नहीं, केसर-कुसुम का गुणगान देश-विदेश के कई लेखकों ने अपनी अमूल्य कृतियों में किया है। कालिदास ने अपने कई नाटकों में इसकी खूब प्रशंसा की है। इसी को आधार मानकर कई आलोचक इन्हें कश्मीर वासी मानते हैं। जहाँगीर ने ‘तुजकि-जहाँगीरी’में दिल खोल कर इस का गुणगान किया है। यूनान के होमर और हैपो-क्रेटीज के गौरव-ग्रंथों में भी केसर-कुसुम का उल्लेख मिलता है। विख्यात चीनी पर्यटक हवेन सांग ने अपने भारत-यात्रा संस्मरण में केसर-कुसुम का का बार-बार वर्णन किया है, ‘आईने-अकबरी में अब्बुल-फजल लिखते हैं-‘केसर के खिले हुए फूलों का दृश्य इतना नयन रम्य होता है कि वह मनहूस तवीयत के लोगों को भी आह्लादित कर सकता है’।
इस समय सम्पूर्ण एशिया में केसर-कुसुम की खेती जम्मू-कश्मीर में की जाती है। वह भी मात्र दो क्षेत्रों में कश्मीर में पांपोर के पठारों पर और जम्मू में किश्तवाड़ के पर्वतनीय क्षेत्र में। इन दोनों स्थानों में केसर-कुसुम नवम्बर के महीने में महक उठते हैं और चांदनी-जैसा इनका मनमोहक दृश्य उपस्थित करते हैं।
केसर की उपज करना भी एक कला है। इसका बीज बोने के लिए पहले भूमि का चुनाव करना पड़ता है। इसके लिए भूमि जोतने में काफी समय लग जाता है। भूमि का एक बड़ा प्लाट जोतने के बाद इस पर चौकोर क्यारियां बनायीं जाती हैं। इसके बाद केसर-बीज बोया जाता है। केसर-की जड़ चौदह वर्ष तक भूमि में ही रहती है और इन सारे वर्षों में नियमित रूप से फूल खिलते हैं। केसर कुसुम खिल उठने के बाद इनको इकट्ठा करके धूप में सुखाया जाता हैं। फिर इनकी पंखुडियां अलग की जाती है। इसको कश्मीरी में शाही ज़ाफरान कहते हैं फूल की निचली पंखड़ियों को भी जाफरान कहा जाता है किंतु इन्हें उच्च-कोटि का नहीं माना जाता है। इन को कश्मीरी में मोंगरा कहते हैं।
केसर फूल सदियों से जम्मू-कश्मीर राज्य की आय का प्रमुख साधन रहा है। हिंदुकाल में यह राज्य की आय तथा लोगों की जीविका का मुख्य साधन रहा है। सुलतान तथा मुगलकाल में सरकार ने केसर-भूमि अपने अधिकार में ली थी। सुल्तानों के शासनकाल में केसर की खेती ७००० एकड़ भूमि पर तथा मुग़लकाल में ९००० ऐकड भूमि पर होती रही है। इसके बाद अफगानों के शासनकाल में यहां के लोगों ने इसकी खेती करना छोड़ दिया क्योंकि यही वह समय है जब घटी में भयंकर अकाल पीडीए और कई लोग भुखमरी से मारे गये। सर वाल्टर लारेंस अपनी पुस्तक ’वैली आफ कश्मीर’ में लिखते है कि इस दुर्भिक्ष से जब लोग बहुत परेशान हुए तो इन्होंने केसर-जड़ रोटी के बदले खायी, इसके बाद जैसे ही हालत सुधारे तो इसके बीज किश्तवाड़ से मंगवाये गये। तब से कश्मीर में केसर की खेती फिर शुरू हुई । आजकल कश्मीर और किश्तवाड में केवल ७००० ऐकड भूमि में केसर की खेती की जाती है। इस समय कश्मीर और किश्तवाड़ के अतिरिक्त हिमाचल प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में भी केसर की खेती करने के प्रयोग हो रहे हैं।
केसर को जड़ी-बूटियों का बाप मन जाता है। इसके नियमित सेवन से सेहत को अनगिनत फायदे मिलते हैं। इसमें वो सभी जरूरी पोषक तत्व पाए जाते हैं, जो हमारे शरीर के स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होते हैं। केसर में कार्बोहाइड्रेट्स होते हैं, जो शरीर को ऊर्जा प्रदान देते हैं। यह प्रोटीन, विटामिन, मिनरल्स जैसे- कैल्शियम, पोटैशियम, आयरन, मैग्नीशियम, और फॉस्फोरस और एंटीऑक्सीडेंट्स का खजाना है।
केसर के सेवन से सर्दी-खांसी का इलाज करने, मेंटल हेल्थ को बढ़ावा देने, पाचन को सुधारने में, ब्लड प्रेशर को कंट्रोल करने, त्वचा की समस्याओं को दूर करने, खून साफ करने और यौन स्वास्थ्य में सुधार करने में मदद मिलती है। केसर का सेवन अक्सर दूध के साथ या अलग-अलग पकवानों के साथ किया जाता है।