विधिक साहित्य में सरल भाषा और अनुवाद की भूमिका
डॉ० शिबन कृष्ण रैणा
इस बात की पूरी सम्भावना है कि ’विधि ’ शब्द विधाता से बना हुआ शब्द लगता है।मोटे तौर पर विधाता के विधान को ही ‘विधि’ के अंतर्गत रखा जा सकता है। विधि का उद्देश्य समाज के आचरण को नियमित करना होता है।विधि, जिसे हम कानून भी कह सकते हैं,के अनुकूल आचरण करने के लिए विधि की जानकारी आवश्यक है अन्यथा भले ही अनजाने में ही सही, विधि के उल्लंघन के लिए हम उत्तरदायी/दण्डित हो सकते हैं। इसलिए व्यक्ति को विधिक दृष्टि से साक्षर और जागरूक होना बहुत जरूरी है। जो व्यक्ति विधिक रूप से साक्षर नहीं है या विधिक जागरूकता से संपन्न नहीं है उसे कई प्रकार की हानियां हो सकती हैं, यथा: 1-विधिक दृष्टि से निरक्षर व्यक्ति कानून से भयभीत रहता है और वह उससे दूर रहना ही हितकर समझता है। 2-विधिक दृष्टि से निरक्षर व्यक्ति अनजाने में कानून के विपरीत आचरण कर सकता है। 3-विधिक रूप से निरक्षर व्यक्ति कानून से सहायता प्राप्त करने में अक्षम होता है। 4-विधिक रूप से निरक्षर व्यक्ति अपने विधिक अधिकारों का प्रभावी ढंग से उपयोग नहीं कर पाता है।कुल मिलाकर विधिक जागरूकता (Legal Awareness) का अर्थ है:जनता को कानून से संबंधित सामान्य बातों से परिचित कराकर उसका सशक्तीकरण करना। सशक्तीकरण के इस प्रयास को ’विधिक साक्षरता’ (Legal Literacy) भी कहा जाता है। विधिक जागरूकता से विधिक संस्कृति (Legal Culture) को बढ़ावा मिलता है। इससे कानून के निर्माण में लोगों की भागीदारी बढ़ती है और कानून के शासन (Rule of Law) की स्थापना की दिशा में प्रगति होती है।
पहले विधिक रूप से साक्षर होने का अर्थ कानूनी दस्तावेजों,विचारों,निर्णयों ,कानूनों आदि को लिख-पढ़ पाने की क्षमता से संपन्न होना माना जाता था। लेकिन समय के साथ -साथ अब इस अर्थ में स्पष्टता आ चुकी है। अब ’विधिक जागरूकता’ का अर्थ कानून से संबंधित इतनी जानकारी अथवा क्षमता से है जो एक कानून-सम्मत समाज में अर्थपूर्ण जीवन जीने के लिए जरूरी हो।
विधि की भाषा: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
भारत एक बहुभाषा-भाषी देश है। प्राचीनकाल में संस्कृत,प्राकृत,पालि आदि भाषाएँ प्रचलित थीं। मुस्लिम शासनकाल के दौरान अरबी-फारसी तथा अंग्रेजी शासनकाल में अंग्रेजी राजकाज की भाषा रही है। यों,अंग्रेजों ने भी शुरू में फारसी को ही राजभाषा के रूप में अपनाया था लेकिन आगे चलकर लार्ड मैकाले ने 19वी शताब्दी के मध्य में अंग्रेजी को शिक्षा और प्रशासन ही भाषा के रूप में स्थापित तो किया,मगर अरबी-फारसी का प्रयोग एकदम से बंद नहीं हो पाया।
आजादी के पहले और बाद में अदालतों-कचहरियों की भाषा अंग्रेजी होते हुए भी फारसी से प्रभावित रही। अंग्रेजी को विधि और न्यायालय की भाषा बनाने में अंग्रेजों को काफी परिश्रम करना पड़ा था क्योंकि उस समय गैर-सरकारी स्तर पर धर्मशास्त्रों को आधार बनाकर निपटाए जाने वाले अधिकतर मुकदमे संस्कृत के माध्यम से ही होते थे। धीरे-धीरे इसका अनुवाद अंग्रेजी में होने लग गया।लेकिन काम आसान नहीं था। अफसर फारसी को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। कुछ अफसर हिंदी या स्थानीय भाषा को ही अदालत की भाषा बनाने के पक्ष में थे। वैसे तो अंग्रेजी के पक्ष में सबसे कम लोग थे क्योंकि अधिकांश लोग शिक्षित नहीं थे और जो कुछ शिक्षित थे, उन्हें अंग्रेजी का ज्ञान कम था। इसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में हमारी वर्तमान न्याय पद्धति और आज की विधि शब्दावली का निर्माण हुआ।
इस दौरान न्याय की भाषा को जनसामान्य की भाषा से दूर रखने का प्रयास किया गया।भाषा के स्तर पर न्याय-प्रकिया को जानबूझकर इतना जटिल बना दिया गया कि वह आम आदमी की पहँच के बाहर हो जाए। जब न्यायालय में निर्णय सुनाए जाते और कागजात रखे या दिए जाते तो अंग्रेजी न जानने वाला पक्ष या संबंधित व्यक्ति यह समझ पाने में असमर्थ रहता है कि क्या हुआ? कैसे हुआ? और अब उसे आगे क्या करना है? यह सब जानने के लिए उसे अंग्रेज़ीदां कानून-विषेशज्ञों के पास जाना पड़ता । मतलब यह कि अंग्रेजी का वर्चस्व विधि के क्षेत्र में बना रहा। मामूली हेर-फेर के साथ वही सारे अधिनियम और विधियाँ बहुत लम्बे समय तक हमारे न्यायालयों और कोर्ट-कचहरियों में चलते रहे। कालान्तर में बदलते समय के साथ यह आवश्यकता बल पकड़ने लगी कि जब लोकतंत्र में ’जनता के द्वारा,जनता के लिए और जनता का शासन’ होता है तो ऐसा शासन जनता की भाषा के बिना और विदेशी भाषा के सहारे कैसे और कब तक चल सकता है? इसीलिए धीरे-धीरे विधि के क्षेत्र में हिंदी का प्रयोग बढ़ने लगा।परिणामस्वरूप,विधि शब्दावली,जो अब तक अंग्रेजी में थी ,का हिंदी में निर्माण सरकारी स्तर पर प्रारम्भ हुआ ।
विधि के क्षेत्र में सरल भाषा और अनुवाद की आवश्यकता
यह सर्वविदित है कि पिछले दो-एक दशकों से हिंदी भाषा अपनी वैश्विक पहचान बनाने की दिशा में तेज़ी के साथ आगे बढ़ रही है। लेकिन तकनीकी ,विधि,प्रबंधन,चिकित्सा और वैज्ञानिक शिक्षण /लेखन की दिशा में अनेक स्तुत्य प्रयासों के बावजूद अभी भी बहुत कुछ करना शेष है।अगरचे चीन, जापान, जर्मनी,फ्रांस और रूस जैसे अनेक देश यह काम अपनी-अपनी भाषाओँ में कर सके हैं मगर हमारे यहाँ अभी भी अँगरेज़ी का दबदबाबना हुआ है।दरअसल,हमारी मानसिक गुलामी इसक एक बड़ा कारण रही है। आज भी हमारा तंत्र अँगरेज़ी के दुष्चक्र से बाहर नहीं निकल सका है। इसीलिए यह कह दिया जाता है कि यहाँ हिंदी में तकनीकी या वैज्ञानिक शिक्षण/लेखन नहीं हो सकता । जबकि ऐसा बिल्कुल नही हैं। हमारे भाषाविदों ने इस चुनौती को स्वीकार करके वर्षों पहले इस दिशा मे महत्वपूर्ण कार्य शूरू कर दिया है। डॉ० रघुवीर और उनके जैसे बहुत से लोंगो ने शुरुआत की, तो अरविंदकुमार,भोलानाथ तिवारी आदि जैसे एकनिष्ठ महानुभावों ने उस कार्य को और आगे बढ़ाया । लेकिन दिक्कत यही है कि तकनीकी शिक्षण के नाम पर जो अनुवाद हो रहा है, जो शब्द गढ़े जा रहे हैं, वे इनते क्लिष्ट हैं कि उनको ग्राह्य कर पाना संभव नहीं हो पा रहा।असली चुनौती यह है कि हमारे भाषाविद् अँगरेज़ी से इतर ऐसे नए-नए शब्द सर्जित करें, जो बेहद आसान हों। पारिभाषिक शब्दावली कोशों में भी ऐसे अनेक शब्द सम्मिलित हैं जो लोगों के समझ में नहीं आते। वे उच्चारण की दृष्टि से भी बेहद कठिन हैं। फिर भी उन्हें प्रचलन में लाने की कोशिश हो रही है, जबकि शिक्षण के लिए सरल शब्दों के लिए और अधिक कठिन साधना ज़रूरी है। हिंदी में अनुवाद के रूप में या अनुसंधान के रूप में अनेक नए शब्दों की सर्जना हुई है, हो रही है, लेकिन अधिकांश मामले में उसकी बुनावट जटिल है, इसे स्वीकारना होगा । शब्द गढ़ने के नाम पर कई बार असफल प्रयास हुए हैं। लोक प्रचलित हो चुके अँगरेज़ी के शब्दों के कठिन अनुवाद अब ग्राह्य नहीं हो सकते । टाई के लिए कंठलंगोट और कंठभूषण अथवा सिगरेट के लिए श्वेत धूम्रपान दंडिका जैसे शब्द मजाक बन कर ही रह गए हैं ।
दरअसल,हर भाषा का अपना एक अलग मिज़ाज होता है,अपनी एक अलग प्रकृति होती है जिसे दूसरी भाषा में ढालना या फिर अनुवादित करना असंभव नहीं तो कठिन ज़रूर होता है।भाषा का यह मिज़ाज इस भाषा के बोलने वालों की सांस्कृतिक-परम्पराओं,देशकाल-वातावरण,परिवेश,जीवनशैली,रुचियों,चिन्तन-प्रक्रिया आदि से निर्मित होता है।अंग्रेजी का एक शब्द है ‘स्कूटर’. चूंकि इस दुपहिये वाहन का आविष्कार हमने नहीं किया,अतः इस से जुड़ा हर शब्द जैसे: टायर,पंक्चर,सीट,हैंडल,गियर,ट्यूब आदि को अपने इसी रूप में ग्रहण करना और बोलना हमारी विवशता ही नहीं हमारी समझदारी भी कहलाएगी । इन शब्दों के बदले बुद्धिबल से तैयार किये संस्कृत के तत्सम शब्दों की झड़ी लगाना स्थिति को हास्यास्पद बनाना है।आज हर शिक्षित/अर्धशिक्षित/अशिक्षित की जुबां पर ये शब्द सध-स गये हैं।इसीतरह स्टेशन,सिनेमा,बल्ब,पावर,मीटर,पाइप आदि जाने कितने सैंकड़ों शब्द हैं जो अंग्रेजी भाषा के हैं मगर हम इन्हें अपनी भाषा के शब्द समझकर इस्तेमाल कर रहे हैं । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है समाज की सांस्कृतिक परम्पराओं का भाषा के निर्माण में महती भूमिका रहती है । अब हिंदी का एक शब्द लीजिये: खडाऊं.अंग्रेजी में इसे क्या कहेंगे?वुडन स्लीपर? जलेबी को राउंड राउंड स्वीट्स?सूतक को अनहोली टाइम?च्यवनप्राश को टॉनिक?आदि-आदि।कहने का तात्पर्य यह है कि हर भाषा की चूंकि अपनी निजी प्रकृति होती है, अतः उसे दूसरी भाषा में ढालने में बड़ी सावधानी बरतनी पडती है और कभी कभी उस भाषा के कतिपय शब्दों को उनके मूल रूप में स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है। टेक्निकल को तकनीकी बनाकर हमने उसे लोकप्रिय कर दिया। रिपोर्ट को रपट किया । अलेक्जेंडर सिकंदर बना।एरिस्टोटल अरस्तू हो गया और रिक्रूट रंगरूट में बदल गया। कई बार भाषाविदों का काम समाज भी करता चलता है। जैसे मोबाइल को चलितवार्ता और टेलीफोन को दूरभाष भी कहा जाता है। भाषाविद् प्रयास कर रहे होंगे कि इन शब्दों का सही अनुवाद सामने आए ।यदि कोई सरल शब्द संभव न हो सके तो मोबाइल/दूरभाष को ही गोद लेने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। पराई संतानों को स्वीकार करके हम उनके नए नामकरण की कोशिश करते हैं लेकिन हर बार सफलता मिल जाए, यह ज़रूरी नहीं।हिंदी की तकनीकी शब्दावली को समृद्ध करने के लिए यह अति आवश्यक है कि हम सरल अनुवाद की संस्कृति को प्रोत्साहित करते रहें। अनुवाद ही वह सर्वोत्तम प्रविधि है, जो हिंदी के तकनीकी शिक्षण का आधार बनेगी। अनुवाद एक पुल है, जो दो दिलों को, दो भाषिक संस्कृतियों को जोड़ देता है।अनुवाद के सहारे ही विदेशी या स्वदेशी भाषाओं के अनेक शब्द हिंदी में आते हैं और नया संस्कार ग्रहण करते हैं। कोई भाषा तभी समृद्ध होती है, जब वह अन्य भाषाओं के शब्द भी ग्रहण करती चले। हिंदी में शब्द आते हैं और नया संस्कार ग्रहण करते हैं। हिंदी भाषा में आकर अँगरेज़ी के कुछ शब्द समरस होते चलें तो यह खुशी की बात है और हमें इसे स्वीकार करना चाहिए।
सरकार की राजभाषा नीति और विषेशकर राजभाषा अधिनियम बन जाने के बाद सरकारी कामकाज में जो द्विभाषिकता का दौर आया,इससे अनुवाद के काम से जुडे़ लोगों की जिम्मेदारी बढ़ गई है । विधि के क्षेत्र में भी अनुवाद की उपस्थिति दर्ज है और इसकी अहम भूमिका है। संविधान का प्राधिकृत हिंदी-पाठ इसका प्रमाण है,जो मूलतः अंग्रेजी से अनुवाद कर तैयार किया गया है।
विधि में भाषा का विशिष्टता और उसका अनुवाद
विधि अथवा कानून की भाषा विशिष्ट स्वरूप वाली होती है।दूसरे शब्दों में कानून की भाषा सटीक,सुनिश्चित, संक्षिप्त और सुस्पष्ट होती है और होनी भी चाहिए। विधि/कानून में प्रत्येक शब्द का अपना विशेष महत्व होता है। हर शब्द अपना निश्चित और स्पष्ट अर्थ रखता है।विधि की शब्दावली जितनी सरल और बोधगम्य होगी उतनी ही जल्दी वह व्यक्ति की समझ में आ जाएगी। हिंदी की विधि शब्दावली के निर्माण में जहाँ एक ओर संस्कृत को आधार बनाया गया है, वहीं दूसरी ओर प्रचलित शब्दों को ज्यों का त्यों अपनाने की कोशिश भी की गई है। ’गवाह’, ’करार’, ’समन’, ’अर्जी’, ’बयान’, ’वारंट’,’वकील’, ’अपील’,जैसे शब्द जहाँ आसान लगते हैं वहीँ ’विनिर्दिश्ट’, ’दुश्प्रेरण’ ’प्रसाक्ष्य’ आदि शब्द कठिन लगते हैं और गले नहीं उतरते हैं। परम्परा से प्रचलित शब्दों का हमें अधिकाधिक प्रयोग करना चाहिए क्योंकि आम लोगों में ये शब्द लोकप्रिय हो गए हैं। ऐसे शब्दों को बढ़ावा देकर विधि की भाषा को जनसाधारण के और करीब लाया जा सकता है।
विधि की भाषा स्वयं में इतनी जटिल,तकनीकी और क्लिष्ट होती है कि कोई भी व्यक्ति,भले ही वह कितना ही पढ़ा-लिखा क्यों न हो, अंग्रेजी खूब जानने वाला भी हो, कानून की भाषा तथा उसकी शब्दावली को आसानी से नहीं समझ सकता।हिंदी भाषी व्यक्ति के लिए तो यह समस्या और भी विकट है। इसलिए समय की यह माँग है कि विधि से जुड़े साहित्य का ऐसा सरल, स्पष्ट एवं बोधगम्य अनुवाद होना चाहिए जिसे आम जनता अपनी भाषा में आसानी से समझ सके तथा संविधान में दिए अधिकारों की जानकारी प्राप्त कर सके।कौन नहीं जानता कि अपनी भाषा में जो संवाद होता है वह हमारे दिलोदिमाग को जल्दी प्रभावित करता है।अपनी/निज भाषा में सरल तरीके से अनुवादित विधि के नियमों आदि को पढ़ कर व्यक्ति कानूनी व्यवस्थाओं के संबंध में भली प्रकार से समझ सकता है और निश्चिततः विधिक रूप से जागरूक हो सकता है।
यहाँ पर अनुवाद सम्बन्धी एक अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष पर विचार करना अनुचित न होगा।विधि,विज्ञान,प्रबंधन अथवा अन्य तकनीकी विषयों से जुडी ज्ञानधाराओं के ग्रन्थों का हिंदी प्रदेशों की गन्थ-अकादमियों ने खूब अनुवाद कराया है और अब भी अनुवाद हो रहे हैं।कुछेक अपवादों को छोड़ प्रायः यह अनुभव किया गया है कि ये अनुवाद अत्यंत दु:रुह और बोझिल हैं।अंग्रेजी से किये गये इन अनुवादों को सामान्य स्तर का पाठक/विद्यार्थी अच्छी तरह से समझ नहीं पा रहा है अथवा समझने में उसे कठिनाई हो रही है।यह इस लिए क्योंकि एक तो ये अनुवाद सम्बंधित विषयों के जानकारों ने नहीं किये हैं और दूसरा इन अनुवादों की भाषा सरल नहीं है।यही कारण है कि ग्रन्थ अकादमियों के ‘स्टोरों’ में ये अनुवादित ग्रन्थ दीमक चाट रहे हैं।जब तक अनुवाद मूल जैसा और पठनीय न होगा तब तक उस अनुवादित पुस्तक को खरीदने वाला कोई नहीं मिलेगा।इसके लिए अच्छे अनुवादकों का विषयवार एक राष्ट्रीय panel/पैनल बनना चाहिए।ग्रन्थ अकादमियों की पुस्तकों के अनुवाद डिक्शनरियों के सहारे हुए हैं।शब्द के लिए शब्द,बस।संबंधित विषय का सम्यक ज्ञान होना,स्वयं एक अच्छा लेखक होना,दोनों भाषाओं पर पकड़ होना आदि एक अच्छे अनुवादक की विशेषतायें होती हैं।संगीतशास्त्र की पुस्तक का अनुवाद संगीत जानने वाले हिंदी विद्वान से ही कराया जाना चाहिए।नहीं कराएंगे तो पुस्तक स्टोर में दीमक का शिकार बनेगी ही।
2/537,Aravali Vihar,
Alwar 301001
(Rajasthan)
skraina123@gmail.com
बहुत ही सुंदर |
ReplyDeleteके.बी.व्यास
अद्भुत, अद्वितीय
ReplyDeleteReally nice and helpful . Thanku 🙏
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