Thursday, October 6, 2016


कला और संवेदना 

(जनसत्ता,६ अक्टूबर,२०१६)

पहले के ज़माने में कलाएं स्वान्तः सुखाय होती थीं।अब वे धनोपार्जन का कारगर माध्यम बन गयी हैं।पाकिस्तानी कलाकार अपना देश छोड़ कर हमारे देश में आकर अगर यहाँ फिल्मों में काम करते हैं तो कोई मानवता या भाईचारे का संदेश देने के लिए यहां नहीं आते हैं,बल्कि पैसा कमाने के लिए यहाँ आते हैं और मोटी रकमें कमाकर वापस अपने देश चले जाते हैं।जो संस्थाएं या फिल्म कम्पनियां उन्हें यहाँ बुलाती हैं उनके भी अपने हित होते हैं।जिन दिनों उड़ी/कश्मीर की त्रासदी हुयी,ये सारे पाकिस्तानी कलाकार हमारे देश में थे।विश्व के सभ्य समाज ने ऊड़ी-त्रासदी की कड़े शब्दों में निंदा की मगर मजाल है पाकिस्तानी कलाकारों ने सार्वजनिक तौर पर इस त्रासद घटना की मज़म्मत में दो शब्द भी बोले हों।

ये सच है कि कला की दुनिया से जुड़े लेखकों,गायकों,संगीतकारों या फिर अभिनेताओं आदि की अपनी एक अलग दुनिया होती है और वे देश या समाज में हो रहे ऊहापोह से अपने को दूर रखने में ही अपना भला समझते हैं।मगर हमें यह नही भूलना चाहिए कि कलाओं का समाज के सुखदुख से चोलीदामन का साथ होता है।समाज है तो कलाकार है,समाज नही तो कलाकार का क्या वजूद?संवेदनहीनता कला की पहचान नहीं है,उसका संदेश सार्वभौमिक होता है,आत्मकेंद्रित नहीं।मानवीय सरोकारों से दूर निजी हितों और स्वार्थों से प्रेरित कला मात्र व्यवसाय कहलायेगी,कला नहीं।