Thursday, June 30, 2016

वार-मूवी ‘ऑय इन द स्काई’(Eye in the Sky)

बहुत दिनों बाद एक अच्छी वार-मूवी ‘ऑय इन द स्काई’(Eye in the Sky) देखने को मिली.मूवी २०१५ में रिलीज़ हुयी है. यह मूवी नैरोबी(केन्या) में अल-शबाब नाम के अतिवादी संगठन से जुड़े आतंकियों को पकड़ने/ खत्म करने के लिए एक अत्याधुनिक मिलिट्री ऑपरेशन पर आधारित है.२०१४ में साउथ अफ्रीका में बनी इस फिल्म में युद्ध, राजनीति और नैतिकता के बीच परस्पर संघर्ष को बखूबी चित्रित किया गया है.’अल-शबाब’ ठिकाने के नजदीक ही रोटियां बेचने वाली एक मासूम केन्याई बालिका को ड्रोन हमले की प्राणघातक मार से बचाने के लिए पूरे ऑपरेशन मिशन को कैसे-कैसे अपनी योजनायें बदलनी पडती हैं,यह इस फिल्म का एक अत्यंत ‘संवेदनशील’ और जिज्ञासा-भरा पहलू है.
मूवी के अंत में ऑपरेशन के मुख्य-कमांडर का एक राजनीतिज्ञ को कहा गया यह कथन कि “सिपाही से कभी भी यह मत कहें कि वह युद्ध की भयंकरता को नहीं समझता” इस बात को दर्शाता है कि एक सिपाही के दिल में भी मानवीयता/संवेदनशीलता कूटकूट कर भरी रहती है. मूवी देखने लायक है.

Wednesday, June 29, 2016



कावपूत की बुद्धिमानी

कहावत की व्युत्पत्ति कह+आवत से मानी जाती है। हालांकि कुछ विद्वान ‘कथावार्ता’ से भी इसका उद्भव मानते हैं। कहावतें मनुष्य के युग-युगीन लोकानुभव की धरोहर/साक्षी हैं। मनुष्य का सीधा-सच्चा और परखा हुआ ज्ञान कहीं देखना हो तो इन में देखिये। कहावतों का जन्म लोकानुभव से तो होता ही है, कभी-कभी कोई घटना या कहानी भी कहावत को जन्म देती है। आपको एक कश्मीरी कहावत ‘काव गव पाव त कावपूत गव डोड पाव’ यानी कौआ पाव बराबर तो कौए का पूत/बच्चा/पोता डेढ़ पाव के बराबर, की कहानी सुनाता हूँ। 
एक बार एक कौआ और उसका पोता सड़क-किनारे किसी मुरदार जानवर पर ठूँगें मार रहे थे। इतने में वहां से एक मनुष्य गुज़रा जिसे देख छोटा कौआ(पोता) फुर्र से उडकर पास खड़े पेड़ पर जाकर बैठ गया। दादाजी उड़े नहीं, अपनी जगह पर ही बैठे रहे। मनुष्य के चले जाने के बाद पोता वापस सड़क पर आ गया और दादा से कहने लगा:”दादाजी,आप मनुष्य को देखकर उड़े/भागे क्यों नहीं?---कहीं पत्थर-वत्थर मार देता तो?” दादाजी को पोते की इस नासमझी-भरी बात पर हँसी आई,बोले: “वत्स,तुम अभी भोले हो। ---भागना तब चाहिए जब हम देखें कि मनुष्य पत्थर उठाने वाला है या उसने पत्थर उठा लिया है। पहले से ही भागने में क्या तुक है?” पोते ने तुरंत जवाब दिया:” दादाजी,अगर मनुष्य ने पहले से अपनी पीठ के पीछे पत्थर को छिपकर रखा होता, तो?” पोते के इस सटीक उत्तर का दादाजी से कोई उत्तर देते न बना और वे बगलें झांकते हुए वहां से खिसक गए. कहावत का आशय यह है कि कभी-कभी अल्प-आयु वाले बालक बुद्धिमानी की ऐसी बात करते हैं कि बड़े-बूढ़े भी तर्क-विहीन हो जाते हैं।



Sunday, June 26, 2016



अब्राहम लिंकन का प्रसिद्ध पत्र


अमरीकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन द्वारा अपने बेटे के स्कूल के प्रिंसिपल को लिखा पत्र दुनिया के सर्वश्रेष्ठ पत्रों में शुमार किया जाता है।इस पत्र में लिंकन ने प्रिंसिपल को जो बातें लिखी हैं वे सचमुच गौर करने लायक हैं।पत्र में कई सारी बातें लिखी गयी हैं।यहाँ पर इन बातों का मात्र सारांश दिया जा रहा है।अपने पत्र में लिंकन ने अपने बेटे के प्रिंसिपल को ‘सम्मानीय सर’ से संबोधित किया है,यह राष्ट्रपति लिंकन के एक शिक्षक के प्रति उनके आदर और श्रद्धा भाव को दर्शाता है।लिंकन प्रिंसिपल को आगे लिखते हैं:

“आप उसे(मेरे बेटे को) सिखाइए कि मेहनत से कमाया गया एक रुपया, सड़क पर मिलने वाले पाँच रुपए के नोट से ज्यादा कीमती होता है। आप उसे बताइएगा कि दूसरों से जलन की भावना अपने मन में न लाएँ। मुझे उम्मीद है कि आप उसे बता पाएँगे कि दूसरों को धमकाना और डराना कोई अच्‍छी बात नहीं है। यह काम करने से उसे दूर रहना चाहिए।
आप उसे किताबें पढ़ने के लिए तो कहिएगा ही, पर साथ ही उसे आकाश में उड़ते पक्षियों को, धूप में हरे-भरे मैदानों में खिले फूलों पर मँडराती तितलियों को निहारने की याद भी दिलाते रहिएगा। मैं समझता हूँ कि ये बातें उसके लिए ज्यादा काम की हैं। मैं मानता हूँ कि स्कूल के दिनों में ही उसे यह बात भी सीखना होगी कि नकल करके पास होने से फेल होना अच्‍छा है। किसी बात पर चाहे दूसरे उसे गलत कहें, पर अपनी सच्ची बात पर कायम रहने का हुनर उसमें आना चाहिए। दयालु लोगों के साथ नम्रता से पेश आना और बुरे लोगों के साथ सख्ती से पेश आना भी उसे सीखना चाहिए। दूसरों की सारी बातें सुनने के बाद उसमें से काम की चीजों का चुनाव उसे इन्हीं दिनों में सीखना होगा। मेरा सोचना है कि उसे खुद पर विश्वास होना चाहिए और दूसरों पर भी। तभी तो वह एक अच्छा इंसान बन पायेगा । 

ये बातें बड़ी हैं और लंबी भी। पर आप इनमें से जितना भी उसे बता पाएँ उतना उसके लिए अच्छा होगा। फिर अभी मेरा बेटा बहुत छोटा है और बहुत प्यारा भी। “

आपका 











अब्राहम लिंकन का अंतिम दिन (14 अप्रैल, 1865)




अब्राहम लिंकन सोलहवें राष्ट्रपति थे जो मार्च १८६१ से लेकर अप्रैल १८६५ तक अमेरिका के राष्ट्रपति रहे।निम्न-मध्यवर्ग की लाचारियों,अभावों और पीडाओं को झेलते लिंकन इस महान पद तक पहुंचे थे।अमेरिका में दास-प्रथा के उन्मूलन की दिशा में किये गये इनके अभूतपूर्व प्रयासों को अमेरिका और पूरे विश्व में सदैव याद किया जायगा।कहते हैं, इनको इनके हितैषियों ने सावधान किया था कि गुलाम-प्रथा-समर्थक लोग आपकी जान के लिए खतरा हैं। आप अपनी सुरक्षा बढ़ा दें। परंतु लिंकन को अपनी जनता पर पूरा भरोसा था कि जनता ऐसा कुछ भी नहीं करेगी।मगर दैव को कुछ और ही मंज़ूर था। राजकाज के अपने व्यस्त समय में से थोडा-सा समय निकाल कर 14 अप्रैल 1865 को राष्ट्रपति लिंकन और श्रीमती लिंकन ने वॉशिंगटन डीसी में फोर्ड थियेटर में चल रहे एक नाटक को देखने का मन बनाया। वे अपनी पत्नी मैरी टाड और मित्रों के साथ रथ पर बैठकर थियेटर गये। वहां उन्हें एक विशेष स्थान पर बैठाया गया।

जॉन विल्केस बूथ नाम का एक युवक था जो गुलाम(दास)-प्रथा का कट्टर समर्थक था। वह अब्राहम लिंकन की जान का प्यासा था। उसने जान लिया था कि अब्राहम लिंकन नाटक देखने जा रहे हैं और उनके पास न कोई अंगरक्षक है और न कोई हथियार ही। उसे यह अवसर अपने काम के लिए अनुकूल लगा। वह दाहिने हाथ में पिस्तौल और बायें हाथ में खंजर लेकर पीछे से आया और लिंकन के सिर में गोली मार दी। लिंकन के दिमाग में गोली घुस गयी और वे आगे की ओर गिर पड़े। मैरी टाड के रुदन से पूरा थियेटर गूंज गया। भगदड़ मच गयी। लिंकन का खून फर्श पर बह रहा था। डाक्टरों ने बड़ा प्रयत्न किया परन्तु वे अपने राष्ट्रपति को बचा न सके।
राष्ट्रपति लिंकन की मृत्यु से पूरा अमेरिका दहल गया। लाखों नर-नारी फूट-फूटकर रो पड़े। सैनिक, प्रजा सब बहुत पीडि़त हुए। सर्वाधिक रोये दक्षिण राज्यों के लाखों नीग्रो जिनको गुलामी से मुक्ति दिलानें में लिंकन का रक्त बहा था। लिंकन की शव-यात्रा निकली जिसमें चालीस लाख आंसू बहाते लोग थे। वाशिंगटन से शव को स्प्रिंगफील्ड लाया गया और स्प्रिंगफील्ड में, जहां लिंकन का अपना घर था, वहां उनके शव को दफनाया गया।

पति की मृत्यु के बाद मैरी लिंकन अपने बेटों के साथ अपने घर में न रह सकीं। वे अपनी बहन के साथ उन्हीं के घर में आ गयीं। जिस पलंग पर मैरी लिंकन अपने राष्ट्रपति पति के साथ सोया करती थी, उसे वे अपने साथ ले आयी थीं। अपनी बहन के घर के एक कमरे में उन्होंने वह पलंग डलवाया था। वे बिलकुल चुप रहती थीं। रात को जब सोती तो पलंग की वह जगह खाली छोड़ देती थीं जिस पर राष्ट्रपति लिंकन सोया करते थे।


Friday, June 24, 2016

खेमों में साहित्य 

जनसत्ता (चौपाल)5 जून,2016

शिबन कृष्ण रैणा, अलवर 

साहित्य जैसे पुनीत कार्य-सृजन में यदि यह देखा जाने लगे कि अमुक तो वामपंथी है, दक्षिणपंथी है, जनवादी है या फिर प्रतिक्रियावादी और इन्हें एक-दूसरे के कार्यक्रमों में कतई शामिल नहीं होना चाहिए, तो इसे कोई उम्दा, गरिमामय अथवा गंभीर किस्म का चिंतन नहीं माना जाएगा। ऐसा विचार मन में पालना साहित्य और उसके सरोकारों का अपमान है। एक तरफ हम साहित्य द्वारा विश्वमैत्री या विश्वबंधुत्व का सपना साकार करने की बात करते हैं और दूसरी तरफ साहित्य को ही वर्गों में बांटने का प्रयत्न करते हैं। लेखक के वर्ग या उसकी निष्ठा का निर्णय उसके लेखन से होगा न कि इस बात से कि वह किस विचारधारा से जुड़ा हुआ है। वर्ग और खेमों तक अपने को सीमित रखने का जमाना गया। अब वैश्वीकरण का जमाना है। दृष्टि बदलनी होगी तभी साहित्य का भला होगा। वैसे भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया साहित्य-सृजन को हाशिये पर धकेलने पर तुला हुआ है और हम हैं कि साहित्य लिखने-पढ़ने या उस पर बात करने वालों को शाबाशी देने के बजाय उन्हें खेमों में बांट कर हतोत्साह कर रहे हैं और उनके लिखे की पूर्वग्रहपूर्ण समीक्षा करते हैं। 



छूटे हए,छटके हुए 


जनसत्ता 14 मार्च, 2013: 

यह बात तब की है जब कश्मीर में आतंकवादी घटनाएं अपने चरम पर थीं। 1989-90 का वर्ष खासतौर पर इसलिए याद किया जाएगा क्योंकि इस साल रोज-रोज के बम धमाकों, अत्याचारों, आतंकी घटनाओं आदि से तंग आकर बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडित घाटी से विस्थापित होकर देश के दूसरे हिस्सों में चले आए। कुछ तो अपना घर-गृहस्थी का सामान साथ ले आने में सफल रहे, मगर कुछ को वहां सब कुछ छोड़ कर खाली हाथ ही अपनी जान बचाते हुए घरों से भाग जाना पड़ा। कुछ कहां हैं, अभी तक पता नहीं है। 

मगर, अधिकतर विस्थापित कश्मीरी पंडित जम्मू और देश के दूसरे शहरों में चले आए और यहां विभिन्न कैंपों, मंदिरों, शरणस्थलियों में रहने लगे। देश के कई सामाजिक संगठनों और संस्थाओं ने विपदा की इस घड़ी में विस्थापित कश्मीरी पंडितों की हर तरह से यथोचित मदद और सेवा की। मगर यह दर्द/गिला सभी को है कि जम्मू-कश्मीर सरकार ने घाटी से कश्मीरी पंडितों के इस पलायन पर आज तक चुप्पी साध रखी है। पूरी घाटी में कश्मीरी पंडितों के खाली पड़े घर इस बात के गवाह हैं कि उनमें रहने वाले लोगों पर आतंकवादियों या उनके नाम पर कश्मीर के ही लोगों ने कितने जुल्म ढाए हैं! 

चूंकि अधिकतर कश्मीरी पंडित घाटी से पलायन कर चुके हैं, इसलिए आज उनमें बिखराव के कारण उनकी वोट की ताकत भी किसी मतलब की नहीं रही। जब वोट की ताकत ही नहीं बची, तो उनकी सुध लेने वाला भी कोई नहीं है। यों तो वहां ऐसा भी एक वर्ग मौजूद है, जो घाटी से पंडितों के पलायन पर बहुत दुखी है और कहता है कि यह पलायन कश्मीरी मुसलमानों के लिए बहुत बड़ा कलंक है। 
विस्थापन की इस भगदड़ में मेरे मित्र त्रिलोकी बाबू का एक सूट, दर्जी अली मुहम्मद के पास श्रीनगर में ही रह गया था। यह सूट त्रिलोकी ने अपनी शादी की तीसवीं सालगिरह पर पहनने के लिए अली मुहम्मद को सिलने के लिए दिया था। मगर किसको पता था कि एक दिन आतंक का कहर पंडितों को बेघर कर देगा? त्रिलोकी बाल-बच्चों समेत रातों-रात एक ट्रक में अपना सामान भर कर जम्मू चले आए। 
सात-आठ वर्ष बाद जब स्थिति तनिक सामान्य हुई तो मुझे किसी काम से श्रीनगर जाना पड़ा। त्रिलोकी को जब मालूम पड़ा कि मैं श्रीनगर जाने वाला हूं तो उन्होंने मुझे एक काम पकड़ा दिया: दर्जी की पर्ची हाथ में थमा कर कहने लगे- ‘भई, मेरा सूट वहां दर्जी के पास पड़ा हुआ है, उसने सिल तो दिया होगा, ये रहे सिलाई के पैसे और यह रही पर्ची।’ दर्जी और दर्जी की दुकान से मैं अच्छी तरह वाकिफ था। मैंने पैसे और पर्ची जेब में डाल लिए। 
श्रीनगर पहुंच कर अली मुहम्मद दर्जी की दुकान ढूंढ़ने में मुझे ज्यादा दिक्कत नहीं हुई। हां, इतना जरूर पाया कि आसपास की दुकानें कुछ बदल और कुछ चौड़ी हो गई थीं। सड़कों पर आवाजाही और रौनक वैसी की वैसी थी। हां, दुपहियों की जगह चार पहिए वाली गाड़ियां कुछ ज्यादा नजर आ रही थीं। मुझे सचमुच बहुत अच्छा लग रहा था। इतने वर्षों बाद अपने मुहल्ले को देख कर, गली-कूचों, सड़कों, खाली पड़े मकानों आदि को देख कर मेरे मन में एक अजीब तरह का भाव भर आया। 

मैं अली भाई की दुकान पर पहुंचा। सामने बैठे एक बुजुर्गवार के हाथ में त्रिलोकी की पर्ची थमा दी। वह शख्स मुझे कुछ क्षण तक एकटक निहारता रहा, फिर मेरे कंधे पर अपना एक हाथ रख कर बोला- ‘अच्छा तो आप त्रिलोकीनाथ जी के दोस्त हैं? उन्होंने आपको अपना सूट मंगाने के लिए भेजा है...?’ फिर दूसरा हाथ भी मेरे कंधे पर रखते हुए भावपूर्ण शब्दों में कहने लगे- ‘वो! वोह देखो! उनका कोट ऊपर हैंगर में टंगा है, बिल्कुल तैयार है।’ अपने एक सहायक से सूट को पैक करने के लिए कहते हुए उन्होंने मुझसे पूछा- ‘कैसे हैं त्रिलोकीनाथ जी? बच्चे उनके कैसे हैं? अब तो बड़े हो गए होंगे, भाभी जी कैसी हैं?... भई, सचमुच बहुत बुरा हुआ, हमें भी बहुत दुख है... जाने कश्मीर को किसकी नजर लग गई!’ 
इससे पहले कि वे कुछ और कहते, मैंने जेब से सिलाई के पैसे निकाले और दर्जी को पकड़ाने लगा। मेरे हाथ में पैसे देख कर अली मुहम्मद बोले- ‘पहले तो त्रिलोकीनाथ जी को हमारा आदाब कहना, फिर उनको कहना कि इंशाअल्लाह जब वे खुद यहां आएंगे, यहां रहने लगेंगे, तब मैं ये पैसे लूंगा, अभी नहीं, अभी बिल्कुल नहीं।.... आप बैठिए, चाय वगैरह लीजिए।’ मैं कुछ भी बोल नहीं पाया। बस, सोचता रहा कि सदियों से चली आ रही कश्मीर की भाई-चारे की इस रिवायत को यह किसकी नजर लग गई!








कश्मीरी काव्य में रामकथा

डॉ. शिबन कृष्ण रैणा


कश्मीरी काव्य में वैष्णवभक्ति का निरूपण उन्नीसवीं शताब्दी के आसपास से देखने को मिलता है। कश्मीर में रामभक्ति का विकास एक सशक्त संप्रदाय के रूप में नहीं हो पाया, इसका प्रमुख कारण है कि कश्मीर-मंडल शताब्दियों तक शैवमत का प्रधान केंद्र रहा। यहाँ के भक्त कवि एवं धर्म परायण प्रबुद्ध जन इसी मत के सैद्धांतिक चिंतन-मनन तक सीमित रहे। भौगोलिक सीमाओं के कारण भी यह प्रदेश मध्य भारत के वैष्णव भक्ति आंदोलन से सीधे जुड़ नहीं सका। कालांतर में वैष्णव भक्ति की सशक्त स्त्रोतस्विनी जब समूचे देश में प्रवाहित होने लगी, तब कश्मीर मंडल भी इससे अछूता नहीं रह सका। 



दरअसल, कश्मीर में वैष्णव-भक्ति के प्रचार-प्रसार का श्रेय उन घुमक्कड़ साधुओं, संतों एवं वैष्णव भक्तजनों को जाता है, जो उन्नीसवीं शताब्दी में मध्य भारत से इस प्रदेश में आए और राम-कृष्ण भक्ति का सूत्रपात किया। यहाँ पर यह रेखांकित करना अनुचित नहीं होगा कि शैव-संप्रदाय के समांतर कश्मीर में सगुण भक्ति की क्षीण धारा तो प्रवाहित होती रही किंतु एक वेगवती धारा का रूप ग्रहण करने में वह असमर्थ रही। इधर, जब शैव संप्रदाय के अनुयायी विदेशी सांस्कृतिक आक्रमण से आक्रांत हो उठे तो निराश - नि:सहाय होकर वे विष्णु के अवतारी रूप में त्राण-सहारा ढूँढ़ने लगे। अंतर केवल इतना रहा कि जिस सगुण भक्ति, विशेषकर रामभक्ति आंदोलन ने, मध्य भारत के कवि को सोलहवीं शती में प्रभावित और प्रेरित किया, उसी आंदोलन ने देर से ही सही, कश्मीर में उन्नीसवीं शताब्दी में प्रवेश किया और रामकथा विषयक सुंदर काव्य रचनाओं की सृष्टि हुई, जिनमें प्रकाशराम कृत 'रामावतारचरित' कश्मीरी काव्य परंपरा में अपनी सुंदर वर्णन-शैली, भक्ति-विह्वलता, कथा-संयोजन तथा काव्य-सौष्ठव की दृष्टि से विशेष महत्व रखता है। 

रामावतारचरित 

'रामावतारचरित' की मूलकथा का आधार यद्यपि वाल्मीकि कृत रामायण है, तथापि कथासूत्र को कवि ने अपनी प्रतिभा और दृष्टि के अनुरूप ढालने का सुंदर प्रयास किया है। कई स्थानों पर काव्यकार ने कथा-संयोजन में किन्हीं नूतन (विलक्षण अथवा मौलिक) मान्यताओं की उद्घोषणा की है। सीता-जन्म के संबंध में कवि की मान्यता यह है कि सीता, दरअसल, रावण-मंदोदरी की पुत्री थी। मंदोदरी एक अप्सरा थी, जिसकी शादी रावण से हुई थी। उनके एक पुत्री हुई, जिसे ज्योतिषियों ने रावणकुल के लिए घातक बताया। फलस्वरूप मंदोदरी उसके जन्म लेते ही, अपने पति रावण को बताए बिना, उसे एक संदूक में बंद कर नदी में बहा देती है। बाद में राजा जनक यज्ञ की तैयारी के दौरान नदी किनारे उसे पाकर कृतकृत्य हो उठते हैं। तभी लंका में अपहृत सीता को देखकर मंदोदरी वात्सल्याधिक्य से विभोर हो उठती है - 

तुजिन तमि कौछि क्यथ हाथ ललनोवन
गेमच कौलि यैलि लेबन लौलि क्यथ सोवुन
बुछिव तस माजि मा माजुक मुशुक आव
लबन यैलि छस बबन दौद ठींचि तस द्राव। (पृ.१४५)
(तब उस मंदोदरी ने उसे गोद में उठाकर झुलाया तथा पानी में फेंकी उस सीता को पुन: पाकर अपने अंक में सुलाया। अहा, अपने रक्त-मांस की गंध पाकर उस माँ के स्तनों से दूध की धारा द्रुत गति से फूट पड़ी।) 

'रामावतारचरित' में आई दूसरी कथा विलक्षणता राम द्वारा सीता के परित्याग की है। सीता को वनवास दिलाने में रजक-घटना को मुख्य कारण न मानकर कवि ने सीता की छोटी ननद(?) को दोषी ठहराया है, जो पति-पत्नी के पावन-प्रेम में, यों फूट डालती है। एक दिन वह भाभी (सीता जी) से पूछती है कि रावण का आकार कैसा था, तनिक उसका हुलिया तो बताना। सीता जी सहज भाव से काग़ज़ पर रावण का एक रेखाचित्र बना देती है, जिसे ननद अपने भाई को दिखाकर पति-पत्नी के पावन-प्रेम में यों फूट डालती हैं। 

"दोपुन तस कुन यि वुछ बायो यि क्या छुय
दोहय सीता यथ कुन वुछित तुलान हुव
मे नीमस चूरि पतअ आसि पान मारान
वदन वाराह तअ नेतरव खून हारान(पृ.३९९) 

(रावण का चित्र दिखाकर - देखो भैया, यह क्या है! सीता इसे देख-देख रोज़ विलाप करती है। जब से मैंने यह चित्र चुरा लिया है, तब से उनकी आँखों से अश्रुधारा बहे जा रही हैं। यदि वह यह जान जाए कि ननद ने उसका यह काग़ज़ चित्र चुरा लिया है तो मुझे ज़िंदा नहीं छोड़ेगी।) 

मक्केश्वर-लिंग से वंचित 

'रामावतारचरित' के युद्धकांड प्रकरण में उपलब्ध एक अत्यंत अद्भुत और विरल प्रसंग 'मक्केश्वर लिंग' से संबंधित हैं, जो प्राय: अन्य रामायणों में नहीं मिलता है। वह प्रसंग जितना दिलचस्प है, उतना ही गुदगुदानेवाला भी। शिव रावण द्वारा याचना करने पर उसे युद्ध में विजयी होने के लिए एक लिंग (मक्केश्वर) दे देते हैं और कहते हैं कि जा, यह तेरी रक्षा करेगा, मगर ले जाते समय इसे मार्ग में कहीं पर भी धरती पर नहीं रखना। 

लिंग को अपने हाथों में आदरपूर्वक थामकर रावण आकाशमार्ग द्वारा लंका की ओर प्रयाण करते हैं। रास्ते में उन्हें लघुशंका की आवश्यकता होती है। वे आकाश से नीचे उतरते हैं तथा इस असमंजस में पड़ते हैं कि लिंग को कहाँ रखें? तभी ब्राह्मण वेश में नारद मुनि वहाँ पर प्रगट होते हैं, जो रावण की दुविधा भाँप जाते हैं। रावण लिंग उनके हाथों में यह कहकर पकड़ाकर जाते हैं कि वे अभी निवृत्त हो कर आ रहे हैं। रावण लघु-शंका से निवृत्त हो ही नहीं पाता! संभवत: वह प्रभु की लीला थी। काफ़ी देर तक प्रतीक्षा करने के उपरांत नारद जी लिंग धरती पर रखकर चले जाते हैं। तब रावण के खूब प्रयत्न करने पर भी लिंग उस स्थान से हिलता नहीं है और इस प्रकार शिव द्वारा प्रदत्त लिंग की शक्ति का उपयोग करने से रावण वंचित हो जाता है।(पृ.-२९५-२९७) 

शिव से लंका माँगी 

'रामावतारचरित' में उल्लिखित एक दिलचस्प कथा-प्रसंग लंका-निर्माण के संबंध में हैं। पार्वती जी ने एक दिन अपने निवास-हेतु भवन निर्माण की इच्छा शिव जी के सम्मुख व्यक्त की। विश्वकर्मा द्वारा शिव जी की आज्ञा पर एक सुंदर भवन बनाया गया। भवन के लिए स्थान के चयन के बारे में 'रामावतारचरित' में एक रोचक प्रसंग मिलता है। गरुड़ एक दिन क्षुधापीड़ित होकर कश्यप के पास गए और कुछ खाने को माँगा। कश्यप ने उसे कहा, 'जा, उस मदमस्त हाथी और ग्राह को खा डाल जो तीन सौ कोस ऊँचे और उससे भी दुगुने लंबे हैं। वे दोनों इस समय युद्ध कर रहे हैं।' गरुड़ वायु के वेग की तरह उड़ा और उन पर टूट पड़ा तथा अपने दोनों पंजों में पकड़कर उन्हें आकाश-मार्ग की ओर ले गया। भूख मिटाने के लिए वह एक विशालकाय वृक्ष पर बैठ गया। भार से इस वृक्ष की एक डाल टूटकर जब गिरने को हुई तो गरुड़ ने उसे अपनी चोंच में उठाकर बीच समुद्र में फेंक दिया, यह सोचकर कि यदि डाल (शाख) पृथ्वी पर गिर जाएगी तो पृथ्वी धँसकर पाताल में चली जाएगी। इस प्रकार जिस जगह पर यह शाख (कश्मीरी लंग) समुद्र में जा गिरी, वह जगह कालांतर में - 'लंका' कहलाई। विश्वकर्मा ने अपने अद्भुत कौशल से पूरे त्रिभुवन में इसे अंगूठी में नग के समान बना दिया। गृह-प्रवेश के समय कई अतिथि एकत्र हुए। अपने पितामह पुलस्त्य के साथ रावण भी आए और लंका के वैभव ने उन्हें मोहित किया। गृह-प्रवेश की पूजा के उपरांत जब शिव ने दक्षिणास्वरूप सबसे कुछ माँगने का अनुरोध किया तो रावण ने अवसर जानकर शिव जी से लंका ही माँग ली - 

"दोपुस तअम्य तावणन लंका मे मंजमय
गछ्यम दरमस मे दिन्य, बोड दातअ छुख दय
दिचन लवअ सारिसूय कअरनस हवालह
तनय प्यठअ पानअ फेरान बालअ बालह।" (पृ.-१९६)
(तब रावण ने तुरंत कहा - मैं लंका को माँगता हूँ, यह मुझे धर्म के नाम पर मिल जानी चाहिए क्यों कि आप ईश्वर-रूप में सबसे बड़े दाता हैं। तब शिव ने चारों ओर पानी छिड़का और लंका को उसके हवाले कर दिया और तभी से शिव स्वयं पर्वत-पर्वत घूमने लगे।) 

'जटायु-प्रसंग' भी 'रामावतारचरित' में अपनी मौलिक उद्भावना के साथ वर्णित हुआ है। जटायु के पंख-प्रहार जब रावण के लिए असहनीय हो उठते हैं तो वह इससे छुटकारा पाने की युक्ति पर विचार करता है। वह जटायु-वध की युक्ति बताने के लिए सीता को विवश कर देता है। विवश होकर सीता को उसे जटायु-वध का उपाय बताना पड़ता है - 

वोनुन सीतायि वुन्य येत्अ बअ मारथ
नतअ हावुम अमिस निशि मोकल नअच वथ
अनिन सखती तमसि, सीतायि वोन हाल
अमिस जानावारस किथ पाठ्य छुस काल
दोपुस तमि रथ मथिथ दिस पल च दारिथ
यि छनि न्यंगलिथ तअ जानि नअ पत लारिथ।" (पृ.- १४६-१४७)
(तब रावण ने सीता से कहा, 'मैं तुझे अभी नहीं पर मार डालूँगा, अन्यथा इससे मुक्त होने का कोई मार्ग बता। सीता पर उस रावण ने बहुत सख्ती की, जिससे सीता ने वह सारा हाल (तरीक़ा) बताया, जिससे उस पक्षी का काल आ सकता था। वह बोली, 'रक्त से सने हुए बड़े-बड़े पत्थरों को इसके ऊपर फेंक दो। उन्हें यह निगल जाएगा और इस तरह (भारस्वरूप) तुम्हारे पीछे नहीं पड़ेगा। जब तक यह रामचंद्र जी के दर्शन कर उन्हें मेरी ख़ैर-ख़बर नहीं सुनाएगा, तब तक यह मरेगा नहीं।) 

वशिष्ठ द्वारा अमृत-वर्षा 

'रामावतारचरित' में कुछ ऐसे कथा-प्रसंग भी हैं, जो तनिक भिन्न रूप में संयोजित किए गए हैं। उदाहरण के तौर पर रावण-दरबार में अंगद के स्थान पर हनुमान के पैर को असुर पूरा ज़ोर लगाने पर भी उठा नहीं पाते (पृ.- २१२) एक अन्य स्थान पर रावण युद्धनीति का प्रयोग कर सुग्रीव को अलग में एक खत लिखता है और अपने पक्ष में करना चाहता है। तर्क वह यह देता है कि क्या मालूम किसी दिन उसकी गति भी उसके भाई (बालि) जैसी हो जाए। वह भाई के वध का प्रतिशोध लेने के लिए सुग्रीव को उकसाता है और लंका आने की दावत देता है, जिसे सुग्रीव ठुकरा देते हैं। (पृ.-२२८) इसी प्रकार महिंरावण/अहिरावण का राम और लक्ष्मण को उठाकर पाताल-लोक ले जाना और बाद में हनुमान द्वारा उसे युद्ध में परास्त कर दोनों की रक्षा करना-प्रसंग भी 'रामावतारचरित' का एक रोचक प्रकरण है (पृ.-२५९, २८४)। 'रामावतारचरित' के लवकुश-कांड में भी कुछ ऐसे कथा-प्रसंग हैं, जिनमें कवि प्रकाशराम की कतिपय मौलिक उद्भावनाओं का परिचय मिल जाता है। लव-कुश द्वारा युद्ध में मारे गए राम-लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के मुकुटों को देखकर सीता का विलाप करना, सीता जी के रुदन से द्रवित होकर वशिष्ठ जी द्वारा अमृत-वर्षा कराना और सेना सहित रामादि का पुनर्जीवित हो उठना, वशिष्ठ के आग्रह पर सीता जी का अयोध्या जाना किंतु वहाँ राम द्वारा पुन: अग्नि-परीक्षा की माँग करने पर उसका भूमि-प्रवेश करना आदि प्रसंग ऐसे ही हैं। 

कश्मीरी विद्वान डॉ.शशिशेखर तोषखानी के अनुसार 'रामावतारचरित' की सबसे बड़ी विशेषता है, स्थानीय परिवेश की प्रधानता। अपने युग के सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक परिवेश का कृति पर इतना गहन प्रभाव है कि उसका स्थानीय तत्वों के समावेश से पूरा कश्मीरीकरण हो गया है। 

ये तत्व इतनी प्रचुर मात्रा में कृति में लक्षित होते हैं कि अनेक पात्रों के नाम भी कश्मीरी उच्चारण के अनुरूप ही बना दिए गए हैं। जैसे जटायु यहाँ पर 'जटायन' हैं, कैकेयी 'कीकी', इंद्रजीत 'इंद्रजेठ' है और संपाति 'संपाठ' आदि। रहन-सहन, रीति-रिवाज़, वेशभूषा आदि में स्थानीय परिवेश इतना अधिक बिंबित है कि १९ वीं शती के कश्मीर का जनजीवन साकार हो उठता है। 

राम के वनगमन पर विलाप करते हुए दशरथ कश्मीर के परिचित सौंदर्य-स्थलों और तीर्थों में राम को ढूँढ़ते हुए व्याकुल दिखाए गए हैं।(पृ.-९२-९३), लंका के अशोक वन में कवि ने गिन-गिनकर उन तमाम फूलों को दिखलाया है, जो कश्मीर की घाटी में अपनी रंग-छवि बिखेरते हैं।(पृ.-२००) राम का विवाह भी कश्मीरी हिंदुओं में प्रचलित द्वार-पूजा, पुष्प-पूजा आदि रीतियों और रस्मों के अनुसार ही होता। 

'लवकुशचरित' में सीता के पृथ्वी-प्रवेश प्रसंग के अंतर्गत कश्मीरी रामायणकार प्रकाशराम ने भक्ति विह्वल होकर 'शंकरपुर' गाँव (कवि के मूल निवास-स्थान कुयंगाँव-काजीगुंड से लगभग पाँच किलोमीटर की दूरी पर स्थित) में सीता जी का पृथ्वी-प्रवेश दिखाया है। (पृ.-४५) किंवदंती है कि यहाँ के 'रामकुंड-चश्में' के पास आज भी जब यह कहा जाता है - 'सीता, देख राम जी आए हैं, तेरे राम जी आए हैं' तो चश्मे के पानी में से बुलबुले उठते हैं। हो सकता है यह भावातिरेक जनित एक लोक-विश्वास हो लेकिन कश्मीरी कवि प्रकाशराम ने इस लोक-विश्वास को रामकथा के साथ आत्मीयतापूर्वक जोड़कर अपनी जननी जन्मभूमि को देवभूमि का गौरव प्रदान किया है। 

कुल मिलाकर 'रामावतारचरित' कश्मीरी भाषा-साहित्य में उपलब्ध रामकथा-काव्य-परंपरा का एक बहुमूल्य काव्य-ग्रंथ है, जिसमें कवि ने रामकथा को भाव-विभोर होकर गाया है। कवि की वर्णन-शैली एवं कल्पना शक्ति इतनी प्रभावशाली एवं स्थानीय रंगत से सराबोर है कि लगता है 'रामावतारचरित' की समस्त घटनाएँ अयोध्या, जनकपुरी, लंका आदि में न घटकर कश्मीर-मंडल में ही घट रही हैं। 'रामावतारचरित' की सबसे बड़ी विशेषता यही है और यही उसे 'विशिष्ट' बनाती हैं। 'कश्मीरियत' की अनूठी रंगत में सनी यह काव्यकृति संपूर्ण भारतीय रामकाव्य-परंपरा में अपना विशेष स्थान रखती हैं। 







अनुवाद कला पर प्रो० जीवनसिंह की डॉ० शिबन कृष्ण रैणा से बातचीत


अनुवाद राष्ट्र-सेवा का कर्म है






(राजस्थान साहित्य अकादमी के प्रथम अनुवाद-पुरस्कार से सम्मानित,भारतीय अनुवाद परिषद, दिल्ली द्वारा द्विवागीश पुरस्कार से समादृत, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, बिहार राजभाषा विभाग, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय तथा देश की अन्य कई महत्वपूर्ण साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा डॉ० रैणा को उनके योगदान के लिए पुरस्कृत-सम्मानित किया जा चुका है। अंग्रेजी, कश्मीरी तथा उर्दू से डा0 रैणा पिछले ३० वर्षों से निरन्तर अनुवाद-कार्य करते आ रहे हैं और अब तक इनकी चैदह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनकी सर्वत्र प्रशंसा हुई है। डॉ० रैणा भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, राष्ट्रपति निवास, शिमला में अधेता भी रहे हैं, जहाँ उन्होंने ‘भारतीय भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद की समस्याएँ’ विषय पर शोधकार्य किया है.यह कार्य संस्थान से प्रकाशित हो चुका है.सम्प्रति डॉ०रैणा संस्कृति मंत्रालय,भारत सरकार के सीनियर फेलो हैं. प्रसिद्ध अनुवादक,शिक्षाविद एवं लेखक डॉ०शिबनकृष्ण रैणा से प्रो० जीवनसिंह की अनुवादकला पर विस्तृत बातचीत के कुछ अंश यहाँ पर प्रस्तुत हैं.)



प्रश्न०: आपको अनुवाद की प्रेरण कब और कैसे मिली ?

उ०: १९६२ में कश्मीर विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिन्दी) कर लेने के बाद मैं पी-एच.डी. करने के लिए कुरुक्षेत्र विश्ववि़द्यालय आ गया (तब कश्मीर विश्वविद्यालय में रिसर्च की सुविधा नहीं थी) यू.जी.सी. की जूनियर फेलोशिप पर ‘कश्मीरी तथा हिन्दी कहावतों का तुलनात्मक अध्ययन’ पर शोधकार्य किया। 1966 में राजस्थान लोक सेवा आयोग से व्याख्याता हिन्दी के पद पर चयन हुआ।प्रभु श्रीनाथजी की नगरी नाथद्वारा मैं लगभग दस वर्षों तक रहा.यहाँ कालेज-लाइब्रेरी में उन दिनों देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाएँ : धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नवनीत, कादम्बिनी आदि आती थीं.। इन में यदा-कदा अन्य भारतीय भाषाओं से हिन्दी में अनुवादित कविताएँ/कहानियाँ/व्यंग्य आदि पढ़ने को मिल जाते। मुझे इन पत्रिकाओं में कश्मीरी से हिन्दी में अनुवादित रचनाएँ बिल्कुल ही नहीं या फिर बहुत कम देखने को मिलती। मेरे मित्र मुझसे अक्सर कहते कि मैं यह काम बखूबी कर सकता हूँ क्योंकि एक तो मेरी मातृभाषा कश्मीरी है और दूसरा हिन्दी पर मेरा अधिकार भी है। मुझे लगा कि मित्र ठीक कह रहे हैं। मुझे यह काम कर लेना चाहिए। मैं ने कश्मीरी की कुछ चुनी हुई सुन्दर कहानियों/कविताओं/लेखों/संस्मरणों आदि का मन लगाकर हिन्दी में अनुवाद किया। मेरे ये अनुवाद अच्छी पत्रिकाओं में छपे और खूब पसन्द किए गए। कुछ अनुवाद तो इतने लोकप्रिय एवं चर्चित हुए कि अन्य भाषाओं यथा कन्नड़, मलयालम, तमिल आदि में मेरे अनुवादों के आधार पर इन रचनाओं के अनुवाद हुए और उधर के पाठक कश्मीरी की इन सुन्दर रचनाओं से परिचित हुए। मैंने चूंकि एक अछूते क्षेत्र में प्रवेश करने की पहल की थी, इसलिए श्रेय भी जल्दी मिल गया।

प्रश्न०: अब तक आप किन-किन विधाओं में अनुवाद कर चुके हैं ?

उ0: मैंने मुख्य रूप से कश्मीरी, अंग्रेजी और उर्दू से हिन्दी में अनुवाद किया है। साहित्यिक विधाओं में कहानी, कविता, उपन्यास, लेख, नाटक आदि का हिन्दी में अनुवाद किया है।

प्रश्न० आप द्वारा अनुवादित कुछ कृतियों के बारे में बताएंगे ?

उ0: मेरे द्वारा अनुवादित कृतियाँ, जिन्हें मैं अति महत्वपूर्ण मानता हूँ और जिनको आज भी देख पढ़कर मुझे असीम संतोष और आनंद मिलता है, ‘प्रतिनिधि संकलन:कश्मीरी’(भारतीय ज्ञानपीठ)१९७३, ‘कश्मीरी रामायण: रामावतार चरित्र’ (भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनऊ)१९७५ ‘कश्मीर की श्रेष्ठ कहानियाँ’ (राजपाल एण्ड संस दिल्ली)१९८० तथा ‘ललद्यद’ (अंगे्रजी से हिन्दी में अनुवाद, साहित्य अकादमी, दिल्ली) १९८१ हैं। ‘कश्मीर की श्रेष्ठ कहानियाँ’ में कुल 19 कहानियाँ हैं। कश्मीरी के प्रसिद्ध एवं प्रतिनिधि कहानीकारों को हिन्दी जगत के सामने लाने का यह मेरा पहला सार्थक प्रयास है। प्रसिद्ध कथाकार विष्णु प्रभाकर ने मेरे अनुवाद के बारे में मुझे लिखा :‘ये कहानियाँ तो अनुवाद लगती ही नहीं हैं, बिल्कुल हिन्दी की कहानियाँ जैसी हैं. आपने, सचमुच, मेहनत से उम्दा अनुवाद किया है।’

प्रश्न०: अपनी अनुवाद-प्रक्रिया पर कुछ प्रकाश डालिए।

उ0: अनुवाद प्रक्रिया से तात्पर्य यदि इन सोपानों/चरणों से है, जिनसे गुजर कर अनुवाद/अनुवादक अपने उच्चतम रूप में प्रस्तुत होता है, तो मेरा यह मानना है कि अनुवाद रचना के कथ्य/आशय को पूर्ण रूप से समझ लेने के बाद उसके साथ तदाकार होने की बहुत जरूरत है। वैसे ही जैसे मूल रचनाकार भाव/विचार में निमग्न हो जाता है। यह अनुवाद-प्रक्रिया का पहला सोपान है। दूसरे सोपान के अन्तर्गत वह ‘समझे हुए कथ्य’ को लक्ष्य-भाषा में अंतरित करे, पूरी कलात्मकता के साथ। कलात्मक यानी भाषा की आकर्षकता, सहजता एवं पठनीयता के साथ। तीसरे सोपान में अनुवादक एक बार पुनः रचना को आवश्यकतानुसार परिवर्तित/परिवर्धित करे। मेरे विचार से मेरे अनुवाद की यही प्रक्रिया रही है।

प्रश्न०: अनुवाद के लिए क्या आपके सामने कोई आदर्श अनुवादक रहे ?

उ0: आदर्श अनुवादक मेरे सामने कोई नहीं रहा। मैं अपने तरीके से अनुवाद करता रहा हूँ और अपना आदर्श स्वयं रहा हूँ। दरअसल आज से लगभग 30-35 वर्ष पूर्व जब मैंने इस क्षेत्र में प्रवेश किया, अनुवाद को लेकर लेखकों के मन में कोई उत्साह नहीं था, न ही अनुवाद कला पर पुस्तकें ही उपलब्ध थीं और न ही अनुवाद के बारे में चर्चाएँ होती थीं। इधर, इन चार दशकों में अनुवाद के बारे में काफी चिंतन-मनन हुआ है। यह अच्छी बात है।

प्रश्न०: क्या आप मानते हैं कि साहित्यिक अनुवाद एक तरह से पुनर्सृजन है ?

उ0: मैं अनुवाद को पुनर्सृजन ही मानता हूँ, चाहे वह साहित्य का हो या फिर किसी अन्य विधा का। असल में अनुवाद मूल रचना का अनुकरण नहीं वरन् पुनर्जन्म है। वह द्वितीय श्रेणी का लेखन नहीं, मूल के बराबर का ही दमदार प्रयास है। मूल रचनाकार की तरह ही अनुवादक भी तथ्य को आत्मसात करता है, उसे अपनी चित्तवृत्तियों में उतारकर पुनः सृजित करने का प्रयास करता है तथा अपने अभिव्यक्ति-माध्यम के उत्कृष्ट उपादानों द्वारा उसको एक नया रूप देता है। इस सारी प्रक्रिया में अनुवादक की सृजन-प्रतिभा मुखर रहती है

प्रश्न०: अनुवाद करते समय किन-किन बातों के प्रति सतर्क रहना चाहिए ?

उ.०: यों तो अनुवाद करते समय कई बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए जिनका विस्तृत उल्लेख आदर्श अनुवाद/अनुवन्दक जैसे शीर्षकों के अन्तर्गत ‘अनुवादकला’ विषयक उपलब्ध विभिन्न पुस्तकों में मिल जाता है। संक्षेप में कहा जाए तो अनुवादक को इन बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए। (1) उसमें स्रोत और लक्ष्य भाषा पर समान रूप से अच्छा अधिकार होना चाहिए। (2) विषय का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए। (3) मूल लेखक के उद्देश्यों की जानकारी होनी चाहिए। (4) मूल रचना के अन्तर्निहित भावों की समझ होनी चाहिए। (5) सन्दर्भानुकूल अर्थ-निश्चयन की योग्यता हो। एक बात मैं यहाँ पर रेखांकित करना चाहूंगा और अनुवाद-कर्म के सम्बन्ध में यह मेरी व्यक्तिगत मान्यता है। कुशल अनुवादक का कार्य पर्याय ढूंढ़ना मात्र नहीं है, वह रचना को पाठक के लिए बोधगम्य बनाए, यह परमावश्यक है। सुन्दर-कुशल, प्रभावशाली तथा पठनीय अनुवाद के लिए यह ज़रूरी है कि अनुवादक भाषा-प्रवाह को कायम रखने के लिए, स्थानीय बिंबों व रूढ़ प्रयोगों को सुबोध बनाने के लिए तथा वर्ण्य-विषय को अधिक हृदयग्राही बनाने हेतु मूल रचना में आटे में नमक के समान फेर-बदल करे। यह कार्य वह लंबे-लंबे वाक्यों को तोड़कर, उनमें संगति बिठाने के लिए अपनी ओर से एक-दो शब्द जोड़कर तथा ‘अर्थ’ के बदले ‘आशय’ पर अधिक जोर देकर कर सकता है। ऐसा न करने पर ‘अनुवाद’ अनुवाद न होकर मात्र सरलार्थ बनकर रह जाता है।

प्रश्न०: मौलिक लेखन और अनुवाद की प्रक्रिया में आप क्या अंतर समझते हैं ?

उ.०: मेरी दृष्टि में दोनों की प्रक्रियाएं एक-समान हैं। मैं मौलिक रचनाएं भी लिखता हूँ। मेरे नाटक, कहानियाँ आदि रचनाओं को खूब पसन्द किया गया है। साहित्यिक अनुवाद तभी अच्छे लगते हैं जब अनुवादित रचना अपने आप में एक ‘रचना’ का दर्जा प्राप्त कर ले। दरअसल, एक अच्छे अनुवादक के लिए स्वयं एक अच्छा लेखक होना भी बहुत अनिवार्य है। अच्छा लेखक होना उसे एक अच्छा अनुवादक बनाता है और अच्छा अनुवादक होना उसे एक अच्छा लेखक बनाता है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, पोषक हैं।

प्रश्न०: भारत में विदेशों की तुलना में अनुवाद की स्थिति के विषय में आप क्या सोचते हैं ?

उ०: पश्चिम में अनुवाद के बारे में चिन्तन-मनन बहुत पहले से होता रहा है। कहने की आवश्यकता नहीं कि जिस तरह ज्ञान-विज्ञान एवं अन्य व्यावहारिक क्षेत्रों में पश्चिम बहुत आगे है, उसी तरह ‘अनुवाद’ में भी वह बहुत आगे है। वहाँ सुविधाएं प्रभूत मात्रा में उपलब्ध हैं, अनुवादकों का विशेष मान-सम्मान है। हमारे यहाँ इस क्षेत्र में अभी बहुत-कुछ करना शेष है।

प्रश्न०: भारत में जो अनुवाद कार्य हो रहा है, उसके स्तर से आप कहाँ तक सन्तुष्ट हैं ? इसमें सुधार के लिए आप क्या सुझाव देना चाहेंगे।

उ.०: साहित्यिक अनुवाद तो बहुत अच्छे हो रहे हैं। पर हाँ, विभिन्न ग्रन्थ- अकादमियों द्वारा साहित्येत्तर विषयों के जो अनुवाद सामने आए हैं या आ रहे हैं, उनका स्तर बहुत अच्छा नहीं है। दरअसल, उनके अनुवादक वे हैं, जो स्वयं अच्छे लेखक नहीं हैं या फिर जिन्हें सम्बन्धित विषय का अच्छा ज्ञान नहीं है। कहीं-कहीं यदि विषय का अच्छा ज्ञान भी है तो लक्ष्य भाषा पर अच्छी/सुन्दर पकड़ नहीं है। मेरा सुझाव है कि अनुवाद के क्षेत्र में जो सरकारी या गैर सरकारी संस्थाएं या कार्यालय कार्यरत हैं, वे विभिन्न विधाओं एवं विषयों के श्रेष्ठ अनुवाद का एक राष्ट्रीय -पैनल तैयार करें। अनुवाद के लिए इसी पैनल में से अनुवादकों का चयन किया जाए। पारिश्रमिक में भी बढ़ोतरी होनी चाहिए।

प्रश्न० आप अनुवाद के लिए रचना का चुनाव किस आधार पर करते हैं ?

उ.०: देखिए, पहले यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि हर रचना का अनुवाद हो, यह आवश्यक नहीं है। वह रचना जो अपनी भाषा में अत्यन्त लोकप्रिय रही हो, सर्वप्रसिद्ध हो या फिर चर्चित हो, उसी का अनुवाद वांछित है और किया जाना चाहिए। एक टी.वी. चैनल पर मुझसे पूछे गए इसी तरह के एक प्रश्न के उत्तर में मैंने कहा था - ‘प्रत्येक रचना/पुस्तक का अनुवाद हो, यह ज़रूरी नहीं है। हर भाषा में, हर समय बहुत-कुछ लिखा जाता है। हर चीज़ का अनुवाद हो, न तो यह मुमकिन है और न ही आवश्यक! मेरा मानना है कि केवल अच्छी एवं श्रेष्ठ रचना का ही अनुवाद होना चाहिए। ऐसी रचना जिसके बारे में पाठक यह स्वीकार करे कि सचमुच अगर मैंने इसका अनुवाद न पढ़ा होता तो निश्चित रूव से एक बहुमूल्य रचना के आस्वादन से वंचित रह जाता।

प्रश्न0: : अनुवाद से अनुवाद के बारे में आप की क्या राय है?

उ0:: प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो की वह पंक्ति याद आती है जिसमें वह कहता है कि कविता में कवि मौलिक कुछ भी नहीं कहता,अपितु नकल की नकल करता है।‘फोटो-स्टेटिंग’ की भाषा में बात करें तो जिस प्रकार मूल प्रति के इम्प्रेशन में और उस इम्प्रेशन के इम्प्रेशन में अन्तर रहना स्वाभाविक है,ठीक उसी प्रकार सीधे मूल से किए गये अनुवाद और अनुवाद से किए गये अनुवाद में फर्क रहेगा।मगर,सच्चाई यह है कि इस तरह के अनुवाद हो रहे हैं।तुर्की,अरबी,फ्रैंच,जर्मन आदि भाषाएं न जानने वाले भी इन भाषाओं से अनुवाद करते देखे गए हैं।इधर,कन्नड़,मलयालम,गुजराती,तमिल,बंगला आदि भारतीय भाषाओं से इन भाषाओं को सीधे-सीधे न जानने वाले भी अनुवाद कर रहे हैं।ऐसे अनुवाद अंग्रेज़ी या हिन्दी को माध्यम बनाकर हो रहे हैं।यह काम खूब हो रहा है।

प्रश्न : अनुवाद-कार्य के लिए अनुवाद-प्रशिक्षण एवं उसकी सैद्धान्तिक जानकारी को आप कितना आवश्यक मानते हैं?

उ : सिद्धान्तों की जानकारी उसे एक अच्छा अनुवाद-विज्ञानी या जागरूक अनुवादक बना सकती है,मगर प्रतिभाशाली अनुवादक नहीं।मौलिक लेखन की तरह अनुवादक में कारयित्री प्रतिभा का होना परमावश्यक है।यह गुण उसमें सिद्धान्तों के पढ़ने से नहीं,अभ्यास अथवा अपनी सृजनशील प्रतिभा के बल पर आसकेगा। यों,अनुवाद-सिद्धान्तों का सामान्य ज्ञान उसे इस कला के विविध ज्ञातव्य पक्षों से परिचय अवश्य कराएगा।

प्रश्न०: अनुवाद में स्रोत भाषा के प्रति मूल निष्ठता के बारे में आपकी क्या राय है ?

उ.०: मूल के प्रति निष्ठा-भाव आवश्यक है। अनुवादक यदि मूल के प्रति निष्ठावान नहीं रहता, तो निश्चित रूप से ‘पापकर्म’ करता है। मगर, जैसे हमारे यहाँ (व्यवहार में) ‘प्रिय सत्य’ बोलने की सलाह दी गई है, उसी तरह अनुवाद में भी अनुवाद में भी प्रिय लगने वाला फेर-बदल स्वीकार्य है। दरअसल, हर भाषा में उस देश के सांस्कृतिक, भौगोलिक तथा ऐतिहासिक सन्दर्भ प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में रहते हैं और इन सन्दर्भों का भाषा की अर्थवत्ता से गहरा संबंध रहता है। इस अर्थवत्ता को ‘भाषा का मिज़ाज’ अथवा भाषा की प्रकृति कह सकते हैं। अनुवादक के समक्ष कई बार ऐसे भी अवसर आते हैं जब कोश से काम नहीं चलता और अनुवादक को अपनी सृजनात्मक प्रतिभा के बल पर समानार्थी शब्दों की तलाश करनी पड़ती है। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि भाषा और संस्कृति के स्तर पर मूल कृति अनुवाद कृति के जितनी निकट होगी, अनुवाद करने में उतनी ही सुविधा रहेगी। सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक दूरी जितनी-जितनी बढ़ती जाती है, अनुवाद की कठिनाइयाँ भी उतनी ही गुरुतर होती जाती हैं। भाषा, संस्कृति एवं विषय के समुचित ज्ञान द्वारा एक सफल अनुवादक उक्त कठिनाई का निस्तारण कर सकता है।

प्रश्न०: आप किस तरह के अनुवाद को सबसे कठिन मानते हैं और क्यों ?

उ.०: अनुवाद किसी भी तरह का हो पर अपने आप में एक दुःसाध्य/श्रमसाध्य कार्य है। इस कार्य को करने में जो कोफ़्त होती है, उसका अन्दाज़ वहीं लगा सकते हैं जिन्होंने अनुवाद का काम किया हो। वैसे मैं समझता हूँ कि दर्शन-शास्त्र और तकनीकी विषयों से संबंधित अथवा आंचलिकता का विशेष पुट लिए पुस्तकों का अनुवाद करना अपेक्षाकृत कठिन है। गद्य की तुलना में पद्य का अनुवाद करना भी कम जटिल नहीं है।

प्रश्न०: लक्ष्य भाषा की सहजता को बनाए रखने के लिए क्या-क्या उपाय सुझाना चाहेंगे ?

उ.०: सुन्दर-सरस शैली, सरल-सुबोध वाक्य गठन, निकटतम पर्यायों का प्रयोग आदि लक्ष्य भाषा की सहजता को सुरक्षित रखने में सहायक हो सकते हैं। यों मूल भाषा के अच्छे परिचय से भी काम चल सकता है लेकिन अनुवाद में काम आने वाली भाषा तो जीवन की ही होनी चाहिए।

प्रश्न०: किसी देश की सांस्कृतिक चेतना को विकसित करने में अनुवाद की क्या भूमिका है ?

उ०: अनुवाद-कर्म राष्ट्र सेवा का कर्म है। यह अनुवादक ही है जो भाषाओं एवं उनके साहित्यों को जोड़ने का अद्भुत एवं अभिनंदनीय प्रयास करता है। दो संस्कृतियों, समाजों, राज्यों, देशों एवं विचारधाराओं के बीच ‘सेतु’ का काम अनुवादक ही करता है। और तो और, यह अनुवादक ही है जो भौगोलिक सीमाओं को लांघकर भाषाओं के बीच सौहार्द, सौमनस्य एवं सद्भाव को स्थापित करता है तथा हमें एकात्मकता एवं वैश्वीकरण की भावना से ओतप्रोत कर देता है। इस दृष्टि से यदि अनुवादक को समन्वयक, मध्यस्थ, सम्वाहक, भाषायी-दूत आदि की संज्ञा दी जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। कविवर बच्चन जी, जो स्वयं एक कुशल अनुवादक रहे हैं, ने ठीक ही कहा है कि अनुवाद दो भाषाओं के बीच मैत्री का पुल है। वे कहते हैं - ‘अनुवाद एक भाषा का दूसरी भाषा की ओर बढ़ाया गया मैत्री का हाथ है। वह जितनी बार और जितनी दिशाओं में बढ़ाया जा सके, बढ़ाया जाना चाहिए ...।’
प्रश्न०: अनुवाद मनुष्यजाति को एकदूसरे के पास लाकर हमारी छोटी दुनिया को बड़ा बनाता है।इसके बावजूद यह दुनिया अपने-अपने छोटे अहंकारों से मुक्त नहीं हो पाती-इसके कारण क्या हैं?आप इस बारे में क्या सोचते हैं?

उ०: देखिए,इसमें अनुवाद/अनुवादक कुछ नहीं कर सकता। जब तक हमारे मन छोटे रहेंगे,दृष्टि संकुचित एवं नकारात्मक रहेगी,यह दुनिया हमें सिकुड़ी हुई ही दीखेगी ।मन को उदार एवं बहिर्मुखी बनाने से ही हमारी छोटी दुनिया बड़ी हो जाएगी।

प्रश्न०: अच्छा,यह बताइए कि कश्मीर की समस्या का समाधान करने में कश्मीरी-हिन्दी एवं कश्मीरी से हिन्दीतर भारतीय भाषाओं में अनुवाद किस सीमा तक सहायक हो सकते हैं?

उ०: कश्मीर में जो हाल इस समय है ,उससे हम सभी वाकिफ़ हैं।सांप्रदायिक उन्माद ने समूची घाटी के सौहार्दपूर्ण वातावरण को विषाक्त बना दिया है। कश्मीर के अधिकांश कवि,कलाकार,संस्कृतिकर्मी आदि घाटी छोड़कर इधर-उधर डोल रहे हैं और जो कुछेक घाटी में रह रहे हैं उनकी अपनी पीड़ाएं और विवशताएं हैं। विपरीत एवं विषम परिस्थितियों के बावजूद कुछ रचनाकार अपनी कलम की ताकत से घाटी में जातीय सद्भाव एवं सांप्रदायिक सौमनस्य स्थापित करने का बड़ा ही स्तुत्य प्रयास कर रहे हैं। मेरा मानना है कि ऐसे निर्भिक लेखकों की रचनाओं के हिन्दी अनुवाद निश्चित रूप से इस बात को रेखांकित करेंगे कि बाहरी दबावों के बावजूद कश्मीर का रचनाकार शान्ति चाहता है और भईचारे और मानवीय गरिमा में उसका अटूट विश्वास है और इस तरह एक सुखद वातावरण की सृष्टि संभव है।ऐसे अनुवादों को पढ़कर वहां के रचनाकार के बारे में प्रचलित कई तरह की बद्धमूल/निर्मूल स्थापनाओं का निराकरण भी हो सकता है।इसी प्रकार कश्मीरी साहित्य के ऐसे श्रेष्ठ एवं सर्वप्रसिद्ध रचनाकारोंजैसे,लल्लद्यद,नुंदऋषि,महजूर,दीनानाथ रोशन,निर्दोष आदि, जो सांप्रदायिक सद्भाव के सजग प्रहरी रहे हैं, की रचनाओं के हिन्दी अनुवाद कश्मीर में सदियों से चली आरही भाईचारे की रिवायत को निकट से देखने में सहायक होंगे।
http://www.apnimaati.com/2012/06/blog-post_13.html
http://www.liveaaryaavart.com/2015/04/shiven-raina-interview.html







गलतफहमी और खुशफहमी में क्या अंतर होता है?




डॉ० शिबन कृष्ण रैणा।

व्याकरणिक दृष्टि से गलतफहमी और खुशफहमी एक दूसरे के विलोम हैं कि नहीं यह कहना तो मुश्किल है, मगर इतना ज़रूर है कि अंतर्विरोधों से भरे आज के इस विविधायामी जीवन और समाज में दोनों शब्द अपना विशेष महत्व रखते हैं. ध्यान से देखा जाय तो दोनों शब्द व्यक्ति की ‘समझ’ से जुड़े हुए हैं. किसी के बारे में गलत धारणा रखना या बनाना गलतफहमी है. यह धारणा जानबूझकर भी बनाई जा सकती है या फिर सहज-स्वाभाविक भी हो सकती है. कभी-कभी अपूर्ण सूचनाओं, तथ्यों या ज्ञान के आभाव में भी गलतफहमियां जन्म लेती हैं. इसके विपरीत खुशफहमी व्यक्ति की समझ का वह रूप है जिसमें व्यक्ति यह भाव पाले रहता है कि वह औरों से श्रेष्ठतर है या दूसरे उससे कमतर हैं. इसमें भी उसका अज्ञान ही काम करता है. सामाजिक जीवन, विशेषकर पारिवारिक जीवन में दोनों गलतफहमियों अथवा खुशफहमियों की बड़ी भूमिका है. 

पति-पत्नी के बीच जब कभी विचारों या अहम् के टकराव की स्थिति पैदा होती है, तो वह कमोबेश गलतफहमियों अथवा खुशफहमियों के कारण ही होती है. छोटी सी गलतफहमी बवाल खड़ा कर देती है और खुशफहमी अहम् को इतना उछाल देती है कि एक-दूसरे से श्रेष्ठतर समझने की होड़ में परिवार में अक्सर तनाव छाया रहता है. हमारे पुरुष-प्रधान समाज में पुरुष की इस खुशफहमी पर एक रोचक घटना याद आ रही है:

एक सेवानिवृत बुजुर्गवार डाक्टर से परामर्श लेने पहुंचे : ‘डाक्टर साहब, मुझे लगता है कि मेरी पत्नी अब पिछले कुछ समय से ऊंचा सुनने लगी है, कोई उपाय बताइए जिससे वह ठीक हो जाय.’ 
डॉक्टर ने बुजुर्गवार को समझाया: ‘इससे पहले कि मैं कोई ‘हियरिंग-एड’ प्रस्तावित करूं, आप उनसे 40 फुट की दूरी से सामान्य बोलचाल की भाषा में कोई वार्तालाप कर के देख लें. अगर वह सुनती है तो ठीक है, नहीं तो 30 फुट की दूरी रखें. फिर भी नहीं सुनती है तो 20 फुट की दूरी रखें और इस तरह दूरी घटाते रहें. मुझे बाद में रिपोर्ट दे दीजिये.’ 
उसी दिन शाम को घर लौटने पर उन महाशय ने देखा कि उनकी पत्नी किचन में खाना बना रही है. मौका अच्छा था. उन्होंने किचन से 40 फुट की दूरी पर रहकर आवाज़ दी. ‘ सुनो, आज सब्जी क्या बन रही है?’ पत्नी की तरफ से कोई जवाब नहीं आया. उन्होंने दूरी अब 30 फुट कर दी और बात को फिर दोहराया. तब भी कोई जवाब नहीं मिला. दूरी 20 फूट रखने के बाद भी पत्नी की तरफ से जब कोई जवाब नहीं आया तो महाशयजी 5 फुट की दूरी से तनिक ऊंची आवाज़ में बोले ‘सुनो, मैं पूछ रहा हूँ कि आज सब्जी क्या बन रही है?’तब भी कोई जवाब नहीं. 
बुजुर्गवार को पूरा यकीन हो गया कि उनकी पत्नी सच में ऊंचा सुनने लगी है. अब वे बिलकुल उसके निकट ही आ गये और ज़ोर से बोले ‘मैं पूछ रहा हूँ कि आज सब्जी क्या बनी है?’अबकी बार पत्नी ने झल्ला कर उत्तर दिया: ‘पांच बार दोहरा चुकी हूँ कि दमआलू की सब्जी बनी है, दमालू की सब्जी बनी है -- अब और कितनी बार दोहराना पड़ेगा?’
विडंबना देखिये, पतिदेव खुद ऊंचा सुनते थे और बहरेपन का दोष अपनी पत्नी पर मढ़ रहे थे. पारिवारिक ढांचे में पति-पत्नी के रिश्ते का अपना एक अलग और महत्वपूर्ण स्थान है। इस रिश्ते में जितना समर्पण और आदर-भाव होगा, उतना ही यह रिश्ता फलेगा-फूलेगा और मजबूत होगा दरअसल, किसी भी रिश्ते को निभाने के लिए प्रेम, वैचारिक सामंजस्य, परस्पर सम्मान, एक-दूसरे की भावनाओं की कद्र और विश्वास सबसे ज़रूरी है। पति-पत्नी के रिश्ते में तो ये बातें और भी आवश्यक हो जाती हैं, ख़ास तौर पर ऐसे पति-पत्नी के रिश्तों में जिनका वैवाहिक जीवन समय के थपेड़े झेलता हुआ बहुत आगे निकल चुका हो.
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अनुवाद हमें राष्ट्रीय ही नहीं अन्तर्राष्ट्रीय भी बनाता है

  डा. शिबन कृष्ण रैणा



अनुवाद-कर्म राष्ट्रसेवा का कर्म है। यह अनुवादक ही है जो दो संस्कृतियों, राज्यों, देशों एवं विचारधाराओं के बीच ‘सेतु’ का काम करता है। और तो और यह अनुवादक ही है जो भौगोलिक सीमाओं को लांघकर भाषाओं के बीच सौहार्द, सौमनस्य एवं सद्भाव को स्थापित करता है तथा हमें एकात्माकता एवं वैश्वीकरण की भावनाओं से ओतप्रोत कर देता है। इस दृष्टि से यदि अनुवादक को समन्वयक, मध्यस्थ, संवाहक, भाषायी-दूत आदि की संज्ञा दी जाए तो कोई अत्युक्ति न होगी। कविवर बच्चन जी, जो स्वयं एक कुशल अनुवादक रहे हैं, ने ठीक ही कहा है कि अनुवाद दो भाषाओं के बीच मैत्री का पुल है। वे कहते हैं- ”अनुवाद एक भाषा का दूसरी भाषा की ओर बढ़ाया गया मैत्री का हाथ है। वह जितनी बार और जितनी दिशाओं में बढ़ाया जा सके, बढ़ाया जाना चाहिए- – -। (साहित्यानुवाद: संवाद और संवेदना, डा० आरसू पृ० ८५) भाषा के आविष्कार के बाद जब मनुष्य-समाज का विकास -विस्तार होता चला गया और सम्पर्कों एवं आदान-प्रदान की प्रक्रिया को अधिक फैलाने की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी, तो अनुवाद ने जन्म लिया । प्रारम्भ में अनुवाद की परंपरा निश्चित रूप से मौखिक ही रही होगी । इतिहास साक्षी है कि प्राचीनकाल में जब एक राजा दूसरे राजा पर आक्रमण करने को निकलता था, तब अपने साथ ऐसे लोगों को भी साथ लेकर चलता था जो दुभाषिए का काम करते थे । यह अनुवाद का आदिम रूप था ।

साहित्यिक-गतिविधि के रूप में अनुवाद को बहुत बाद में महत्त्व मिला । दरअसल, अनुवाद के शलाका-पुरुष वे यात्री रहे हैं, जिन्होंने देशाटन के निमित्त विभिन्न देशों की यात्राऍं कीं और जहां-जहां वे गये, वहां-वहांकी भाषाएं सीखकर उन्होंने वहॉं के श्रेष्ठ ग्रंथों का अपनी-अपनी भाषाओं में अनुवाद किया । चौथी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में फाहियान नामक एक चीनी यात्री ने २५ वर्षों तक भारत में रहकर संस्कृत भाषा, व्याकरण, साहित्य, इतिहास, दर्शनशास्त्र आदि का अध्ययन किया और अनेक ग्रंथों की प्रतिलिपियां तैयार कीं । चीन लौटकर उसने इनमें से कई ग्रंथों का चीनी में अनुवाद किया । कहा जाता है कि चीन में अनुवादकार्य को राज्य द्वारा प्रश्रय दिया जाता था तथा पूर्ण धार्मिक विधि-विधान के साथ अनुवाद किया जाता था । संस्कृत के चीनी अनुवाद जापान में छठी-सातवीं शताब्दी में पहुंचे और जापानी में भी उनका अनुवाद हुआ ।

प्राचीनकाल से लेकर अब तक अनुवाद ने कई मंजिलें तय की हैं । यह सच है कि आधुनिककाल में अनुवाद को जो गति मिली है, वह अभूतपूर्व है । मगर, यह भी उतना ही सत्य है कि अनुवाद की आवश्यकता हर युग में, हर काल में तथा हर स्थान पर अनुभव की जाती रही है। विश्व में द्रुतगति से हो रहे विज्ञान और तकनॉलजी तथा साहित्य, धर्म-दर्शन, अर्थशास्त्र आदि ज्ञान-विज्ञानों में विकास ने अनुवाद की आश्वयकता को बहुत अधिक बढ़ावा दिया है ।

आज देश के सामने यह प्रश्न चुनौती बनकर खड़ा है कि बहुभाषओं वाले इस देश की साहित्यिक-सांस्कृतिक धरोहर को कैसे अक्षुण्ण रखा जाए ? देशवासी एक-दूसरे के निकट आकर आपसी मेलजोल और भाई-चारे की भावनाओं को कैसे आत्मसात् करें ? वर्तमान परिस्थितियों में यह और भी आवश्यक हो जाता है कि देशवासियों के बीच सांमजस्य और सद्भाव की भावनाऍं विकसित हों ताकि प्रत्यक्ष विविधता के होते हुए भी हम अपनी सांस्कृतिक समानता एंव सौहार्दता के दर्शन कर अनकेता में एकता की संकल्पना को मूर्त्त रूप प्रदान कर सकें । भाषायी सद्भावना इस दिशा में एक महती भूमिका अदा कर सकती है। सभी भारतीय भाषाओं के बीच सद्भावना का माहौल बने, वे एक-दूसरे से भावनात्मक स्तर पर जुड़ें और उनमें पारस्परिक आदान-प्रदान का संकल्प दृढ़तर हो, यही भारत की भाषायी सद्भावना का मूलमंत्र है। इस पुनीत एवं महान् कार्य के लिए सम्पर्क भाषा हिन्दी के विशेष योगदान को हमें स्वीकार करना होगा। यही वह भाषा है जो सम्पूर्ण देश को एकसूत्र में जोड़कर राष्ट्रीय एकता के पवित्र लक्ष्य को साकार कर सकती है। स्वामी दयानन्द ने ठीक ही कहा था, ”हिन्दी के द्वारा ही सारे भारत को एकसूत्र में पिरोया जा सकता है।’’ यहॉं पर यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि हिन्दी को ही भाषायी सद्भावना की संवाहिका क्यों स्वीकार किया जाए ? कारण स्पष्ट है। हिन्दी आज एक बहुत बड़े भू-भाग की भाषा है। इसके बोलने वालों की संख्या अन्य भारतीय भाषा-भाषियों की तुलना में सर्वाधिक है। लगभग ५० करोड़ व्यक्ति यह भाषा बोलते हैं। इसके अलावा अभिव्यक्ति, रचना-कौशल, सरलता-सुगमता एंव लोकप्रियता की दृष्टि से भी वह एक प्रभावशाली भाषा के रूप में उभर चुकी है और उत्तरोत्तर उसका प्रचार-प्रसार बढ़ता जा रहा है। अत: देश की भाषायी सद्भावना एवं एकात्माकता के लिए हिन्दी भाषा के बहुमूल्य महत्त्व को हमें स्वीकार करना होगा।

भाषायी सद्भावना की जब हम बात करते हैं तो ‘अनुवाद’ की तरफ हमारा ध्यान जाना स्वभाविक है। दरअसल, अनुवाद वह साधन है जो ‘भाषायी सद्भावना’ की अवधारणा को न केवल पुष्ट करता है अपितु भारतीय साहित्य एवं अस्मिता को गति प्रदान करने वाला एक सशक्त और आधारभूत माध्यम है। यह एक ऐसा अभिनन्दनीय कार्य है जो भारतीय साहित्य की अवधारणा से हमें परिचित कराता है तथा हमें सच्चे अर्थों में भारतीय बना क्षेत्रीय संकीर्णताओं एंव परिसीमाओं से ऊपर उठाकर ‘भारतीयता` से साक्षात्कार कराता है। देश की साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत के दर्शन अनुवाद से ही संभव हैं। आज यदि सुब्रह्मण्य भारती , महाश्वेता देवी, उमाशंकर जोशी , विजयदान देथा, कुमारन् आशान् , वल्लत्तोल, ललद्यद, हब्बाखातून, सीताकान्त माहापात्र, टैगोर आदि भारतीय भाषाओं के इन यशस्वी लेखकों की रचनाऍं अनुवाद के ज़रिए हम तक नहीं पहुंचती, तो भारतीय साहित्य सम्बन्धी हमारा ज्ञान कितना सीमित,कितना क्षुद्र होता, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

पूर्व में कहा जा चुका है कि विविधताओं से युक्त भारत जैसे बहुभाषा-भाषी देश में एकात्मकता की परम आवश्यकता है और अनुवाद साहित्यिक धरातल पर इस आवश्यकता की पूर्ति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने में सक्षम है। अनुवाद वह सेतु है जो साहित्यिक आदान-प्रदान, भावनात्मक एकात्मकता, भाषा समृद्धि, तुलनात्मक अध्ययन तथा राष्ट्रीय सौमनस्य की संकल्पनाओं को साकार कर हमें वृहत्तर साहित्य-जगत् से जोड़ता है। अनुवाद-विज्ञानी डॉ० जी० गोपीनाथन लिखते हैं- ‘भारत जैसे बहुभाषा -भाषी देश में अनुवाद की उपादेयता स्वयंसिद्ध है। भारत के विभिन्न प्रदेशों के साहित्य में निहित मूलभूत एकता के स्परूप को निखारने (दर्शन करने) के लिए अनुवाद ही एकमात्र अचूक साधन है। इस तरह अनुवाद द्वारा मानव की एकता को रोकने वाली भौगोलिक और भाषायी दीवारों को ढहाकर विश्वमैत्री को और भी सुदृढ़ बना सकते हैं।’

आने वाली शताब्दी अन्तरराष्ट्रीय संस्कृति की शताब्दी होगी और सम्प्रेषण के नये-नये माध्यमों व आविष्कारों से वैश्वीकरण के नित्य नए क्षितिज उद्घाटित होंगे । इस सारी प्रक्रिया में अनुवाद की महती भूमिका होगी । इससे ”वसुधैव कुटुम्बकम्’’ की उपनिषदीय अवधारणा साकार होगी । इस दृष्टि से सम्प्रेषण-व्यापार के उन्नायक के रूप में अनुवादक एवं अनुवाद की भूमिका निर्विवाद रूप से अति महत्त्वूपर्ण सिद्ध होती है ।





सच्चा मानव-धर्म



परिचर्चाः डॉ० शिबन कृष्ण रैणा




भारतीय संस्कृति में धर्म/अधर्म के स्वरूप पर विशद चर्चा मिलती है.ऋषियों, मुनियों, मनीषियों, धर्मशास्त्रियों आदि ने अपने-अपने ढंग से ‘धर्म’ शब्द की परिभाषा की है। सबसे सरल भाषा में इस बहु चर्चित शब्द की जो परिभाषा की गयी है, वह है: जो सुख दे वह धर्म हैं: “सुखस्य मूलम्धर्मः” यानी सुख का मूल धर्म हैं| भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें तो धर्म ‘धृ’ धातु से बना हैं जिसका अर्थ हैं धारण करना अर्थात ग्रहण अथवा अपनाने योग्य गुणों को धारण करना। ये अपनाने/धारण योग्य गुण कौन से हैं? मनु स्मृति में इनका विस्तार से उल्लेख किया गया है

हमारे यहाँ धर्मशास्त्रों में सत्य, न्याय, सेवा, सहनशीलता आदि सद्गुण धर्म के आधारभूत तत्त्व माने गये हैं जिन पर धर्म की नीवं टिकी हई है । इन पर चलने से मनुष्य सुख को प्राप्त करता है और इनका विपरीत आचरण दुःख पहुंचाता है। अज्ञानी मनुष्य समझ नहीं पाता कि उसके दुःख का मूल कारण क्या है? वास्तव में, धर्म के विपरीत जो भी कार्य किया जायगा वह ‘अधर्म’ है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि उपर्युक्त धर्म के मूलभूत सिद्धांतों पर जो मनुष्य चलेगा उसका शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक विकास होगा और विपरीत आचरण करने वाले को दुःख प्राप्त होगा ।यही कारण है कि मनुस्मृति में हमारे आचार-व्यवहार को धर्म से जोड़कर देखा गया है। मनु ने एक स्थान पर बताया हैं : “आचारः परमोधर्मः” अर्थात (अच्छा)आचरण परम धर्म हैं। मनु महाराज यह भी कहते हैं कि हमारे वस्त्र, तिलक, माला, आभूषण इत्यादि बाहरी चिन्ह हमें धार्मिक नहीं बनाते, हमारा अच्छा आचरण ही हमें सच्चे अर्थों में धार्मिक बनता है। धर्म पुण्य है, जबकि अधर्म पाप है और कौन नहीं जानता कि पाप से दुःख प्राप्त होता है और हम ईश्वर से दूर जाते हैं। धर्म की सार्थकता के सम्बन्ध में एक और आप्त वचन है: “धर्मो रक्षति रक्षितः” यानी जो धर्म की रक्षा करता है उसकी धर्म से स्वयं रक्षा होती है।

अंत में एक बात हमें नहीं भूलनी चाहिए कि धर्म जब एक विचारधारा का रूप ले लेता है तो धीरे-धीरे उसका संप्रदायीकरण हो जाता है। हिन्दू,जैन, सिख, पारसी, बौद्ध, वैष्णव, इस्लाम, ईसाई इत्यादि धर्म ऐसे ही अस्तित्व में आये है। इन सभी धर्मों के अथवा सम्प्रदायों के अपने सिदांत हैं और अपने अनुयायी हैं। ध्यान से देखा जाय तो सभी धर्म मूलतः आत्मा के विस्तार और मानव-कल्याण की बात करते हैं। दिक्कत वहां पर खड़ी होती है जहाँ पर हम अपने धर्म को दूसरे के धर्म से श्रेष्ठतर सिद्ध करने की कोशिश करते हैं। मोटे तौर पर हमारी आत्मा की जो आवाज है, वही सच्चा धर्म हैं। अंतर्मन की आवाज़ के विपरीत यदि हम आचरण करते हैं तो वह अधर्म है। यहाँ पर मुझे मेरे पितामह की एक बात याद आ रही है। मैंने कश्मीर १९६२ में छोड़ा है। तब मेरे दादा जी स्व० पंडित शम्भुनाथजी (रैणा) राजदान, प्रधान ब्राह्मण महा मंडल, जम्मू-कश्मीर, जीवित थे। कश्मीर विश्विद्यालय से हिंदी में एम०ए०(प्रथमश्रेणी में प्रथम रहकर) मैं पी-एचडी० करने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय चला आया था। उस जमाने में कश्मीर विश्विद्यालय में पी-एच डी० करने की सुविधा नहीं थी। मेरा चयन यूजीसी की फ़ेलोशिप के लिए हो गया था। मुझे याद है घर से विदा होते समय दादाजी ने सर पर हाथ फेरते हुए मुझसे कहा था:” हमसे दूर जा रहे हो बेटा। .हम तो तुम्हारे साथ अब होंगे नहीं। मगर एक बात का हमेशा ध्यान रखना. “औरों के दुःख में दुखी और औरों के सुख में सुखी होना सीखना. सच्चा मानव-धर्म यही है।”

सच्चे मानव-धर्म की इससे और सुंदर परिभाषा क्या हो सकती है?



कश्मीर के कृष्णभक्त कवि परमानंद

                                                                                            


कश्मीरी साहित्य का आंरभ प्रसिद्ध संत कवयित्री ललद्यद से होता है। यह बात १४ वीं शताब्दी की है। ललद्यद से पूर्व कश्मीरी में रचित (शितिकंठ के महानयप्रकाश को छोड़कर) किसी अन्य साहित्यिक कृति या साहित्यकार का उल्लेख नहीं मिलता। ललद्यद का वाक-साहित्य दार्शनिक चेतना का आगार है जिसपर शैव, वेदांत तथा योगदर्शन की छाप स्पष्टतया अंकित मिलती है। ललद्यद ने जिस भक्ति को अपनी काव्य-साधना का माध्यम बनाया, वह निर्गुण भक्ति थी। आगे चलकर १६ वीं शती के आसपास से कश्मीरी कविता धर्म-दर्शन के नीरस वायु मंडल से निकलकर प्रेम व सौंदर्य के स्वच्छंद वातावरण में साँसें लेने लगी। हब्बाखातून, अरणिमाल, ख्वाजा हबीब अल्लाह नौशहरी आदि इस काल की कविता के उल्लेखनीय कवि हैं। १७५० ई. से १९०० ई. तक जो काव्य-रचना हुई उसे दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम भाग के अंतर्गत वह काव्य आता है जिसका मूलाधार सूफ़ी दर्शन है। इस काव्य-वर्ग के कवियों ने फ़ारसी काव्य-पद्धति का अनुसरण किया तथा कश्मीरी में फ़ारसी मसनवियों के आधार पर अनेक प्रेम-काव्य लिखे। ये सभी कवि प्रायः मुसलमान थे। इनमें उल्लेखनीय हैं- स्वच्छक्राल, महमूद गामी, वली अल्लाह मत्तू, मकबूल शाह क्रालवारी, शमस फकीर आदि। दूसरे भाग के अंतर्गत वह काव्य आता है जिसका मूलाधार कृष्णभक्ति व रामभक्ति है। इस काव्य-वर्ग के कवियों ने भारतीय काव्य-पद्धति का अनुसरण किया तथा कृष्ण एवं राम संबंधी चरित्-काव्यों को कश्मीरी में वाणी दी। ये कवि प्रायः हिंदू थे जिनमें उल्लेखनीय हैं- कविवर परमानंद, कृष्ण राजदान, लक्ष्मण रैणा बुलबुल, प्रकाशराम आदि।
भक्ति, ज्ञान और प्रेम की रसधारा से कश्मीरी काव्य को सिंचित करने वाले कृष्ण-भक्त कवि परमानंद को कश्मीरी भक्ति साहित्य में विशिष्ट स्थान प्राप्त है। इनकी कविता में धर्म और कर्म का सुंदर उन्मेष तथा संसार की असारता, जीवन की सार्थकता एवं मानवीय चेतना के आध्यात्मिक विस्तार का सफल-सुंदर निरूपण मिलता है। इनका अधिकांश काव्य कृष्ण-भक्ति से ओतप्रोत है। कवि ने कृष्ण चरित् का उपयोग भक्ति के रागात्मक स्वरूप एवं मानवीय दर्शन के अंतर्गत किया है जो सगुण-निर्गुण के भेद से ऊपर है।
कविवर परमानंद का वास्तविक नाम नंदराम था। इनका जन्म अमरनाथ तीर्थ के मार्ग में पड़ने वाले प्रसिद्ध धार्मिक स्थान मटन के निकट एक छोटे से गाँव सीर में १७९१ ई. में हुआ था। पिता का नाम कृष्ण पंडित तथा माता का नाम सरस्वती था। डॉ. शशिशेखर तोषखानी के अनुसार मटन कुंड का झलमल जल और पास की अनेक-अनेक जल-धाराएँ, चीड़ वन और उनसे छनकर आती हुई हवा, ऊँचे, गिरि शिखर, शांत प्रकृति-इस परिवेश में नंदराम के व्यक्तित्व के कवि और विरक्त संत, इन दोनों रूपों को विकास का उपर्युक्त वातावरण मिला। शिक्षा उन्होंने फ़ारसी मकतब में किसी मुल्ला से पाई थी और जो दल-के-दल साधु, संन्यासी और तीर्थयात्री मटन आया करते थे उनके सम्पर्क में आकर परमानंद का परिचय महाभारत, भागवत, शिवपुराण तथा वेदांत दर्शन से हुआ। उत्तर भारत के वैष्णव संत-कवियों की वाणी, कबीर और सिक्ख गुरुओं के शब्द और साखियों से लेकर सूर के पद इसी माध्यम से उनके पास पहुँचे। ... पच्चीस वर्ष की आयु में परमानंद अपने पिता के बाद गाँव के पटवारी बने पर कबीर की तरह ’मन लागो यार फकीरी में‘ का भाव लेकर वे पटवारी का बोझ घर चलाने भर के लिए जैसे-तैसे सँभाले रहे।
परमानंद के पिता कृष्णपंडित ने उनकी शादी बाल्यकाल में ही मालद्यद नाम की एक लड़की से कर दी। परमानंद जितने सरल और शांत स्वभाव के थे, उनकी पत्नी मालद्यद उतनी ही कर्कश और उग्र स्वभाव की थी। गार्हस्थ्य-सुख से वंचित रहने के कारण परमानंद ज्यादातर साधु-संतों की संगत में रहते। परमहंस स्वामी आत्मानंद जी के साथ इनका काफी समय बीता और उनके सम्पर्क में रहकर वेदांत का पूर्ण अध्ययन किया। एक सिक्ख साधु के सान्निध्य में रहकर उन्होंने गुरू ग्रंथ साहब का भी अध्ययन किया। कहते हैं परमानंद के जीवन के अंतिम वर्ष शारीरिक और मानसिक कष्ट में बीते। दो पुत्रों की अकाल मृत्यु ने उनके दिल को ऐसी ोट पहुँचाई जिसे वे झेल न पाए। अपनी लड़की के पुत्र को गोद लिया, पर अपने स्वभाव और रुचियों में वह कवि से इतना भिन्न था कि परमानंद उससे वह भावानात्मक संबंध न बना सके जिसकी उन्हें अकेलेपन में आवश्यकता थी। बढ़ती हुई वृद्धावस्था और तद्जनित शारीरिक अशक्तता के कारण उनकी आँखों की रोशनी कम और श्रवण-शक्ति क्षीण हो गई। अपनी असहाय स्थिति का मार्मिक वर्णन कवि ने फारसी में रचित इन पंक्यिों में किया है-
हमें गुफ्तम खुदावंदा करमकुन
नमे गुफ्तम खुदावंदा करम कुन,
(हे खुदा ! मैंने तुमसे कहा था कि मुझपर करम (कृपा) करो। यह तो नहीं कहा था कि मुझे बहरा बना दो।) “परमानंद के जीवन के एकाकीपन की व्यथा को बहुत कुछ उनके प्रतिभावन शिष्यों ने पाट दिया जिनमें लक्ष्मण रैणा बुलबुल जैसे कवि तथा नारायण मूर्चगर (मूर्तिकार) जैसे चित्रकार थे। इन्हीं के बीच भजन गाते-बजाते हुए इस कवि ने कश्मीरी को अपनी महान काव्य-कृतियाँ दीं।”(डॉ. तोषखानी)
परमानंद की काव्य-प्रतिभा उनके युवाकाल से ही विकासोन्मुखी रही। प्रारंभ में उन्होंने“गरीब” उपनाम से फारसी में काव्यरचना की और बाद में कश्मीरी को अपनी भावाभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। बीच-बीच में मौज में आकर पंजाबी, ब्रज और खड़ी बोली के अटपटे सम्मिश्रण,जिसे उन्होंने “भाखा” की संज्ञा दी है, में भी उन्होंने कुछ गीत लिखे, जो काफी दिलचस्प हैं। ... कालक्रम की दृष्टि से परमानंद के काव्य को विभिन्न वर्गो के अंतर्गत विभाजित करना उसके मूल्यांकन के लिए विशेष सहायक नहीं हो सकता क्योंकि स्पष्ट संकेत-सूत्रों के अभाव में इस बात का निर्णय करना असंभव है कि कवि ने कौनसी रचना कब लिखी, पर काव्य-मूल्यों की दृष्टि से परमानंद के कृतित्व के श्रेष्ठतम अंशों को सरलता से अधोरेखित किया जा सकता है। उनकी प्रतिभा का पूर्ण प्रतिफलन उनकी तीन काव्य-कृतियों “राधा-स्वरंवर”, “सुदामा-चरित” और “शिव लग्न” के अतिरिक्त “पेड़ और छाया”, “कर्मभूमिका”, “सहज व्यचार” जैसी स्फुट कविताओं तथा प्रतीकात्मक रचनाओं में देखा जा सकता है।
’कृष्ण चरित‘ पर आधारित राधा-स्वयंवर शीर्षक काव्य-रचना में कविवर परमानंद की अद्भुत कवित्व शक्ति एवं अनन्य भक्ति-भावना का परिचय मिल जाता है। लगभग १४०० छंदों वाली इस वृहदाकार काव्यकृति में, जो कृष्णचरित संबंधी विविध आयाम उभरे हैं, जिनका मूलाधार भागवत पुराण का दशम-सकंध है। संपूर्ण काव्य एक अध्यात्म-रूपक बन पड़ा है। कृति के प्रांरभ में ही कृष्ण को ’चित्-विमर्श देदीप्यमान भगवान‘ कहकर पात्रों और कथासूत्रों के प्रतीकात्मक स्वरूप को उद्घाटित किया है-
गोकुल हृदय म्योन तति चोन गूर्यवान
च्यत विर्मश दीप्तीमान भगवानो...
हृदय मेरा गोकुल
विचरती जहाँ तेरी गायें हैं,
गोपियाँ हैं मेरे मन की वृत्तियाँ
पीछे-पीछे जो तेरे दौड़ पड़ती हैं...
हे चित्त-विमर्श देदीप्यमान भगवान्।


“राधा-स्वयंवर” में वर्णित मुख्य प्रसंग इस प्रकार हैं-कृष्ण और राधा का जन्म, गोचारण करते एक-दूसरे पर मुग्ध हो जाना, किशोरनुराग का वर्णन, वनलीला, मुरली वादन, रास क्रीड़ा,गोपिका चीरहरण, माँ द्वारा बिटिया को झिड़कना किंतु मुरली की धुन सुनते ही बेटी से पहले दौड़ पड़ना, राधा की सगाई, राधा और रुक्मिणी का सामंजस्य आदि। इन सभी कथा-प्रसंगों से होती हुई काव्यकृति की परिणति राधा-कृष्ण के परिणय में हो जाती है और अपने शीर्षक “राधा-स्वयंवर” ो सार्थक करती है।
जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है “राधा स्वयंवर” में परमानंद की काव्य प्रतिभा और उनकी कवित्व शक्ति की उत्कर्षता पाठक को बरबस अभिभूत कर लेती है। एक उदाहरण प्रस्तुत है। लोकापवाद के भय से माँ अपनी बेटी राधा को टोकती है-
राधा से माँ बोली-
बिटिया लाज रखो माँ की
नहीं तो तात से पिटवाऊँगी तुमको,
बोली राधा-
माँ, भोली हो तुम
कौन है किससे खेल रहा
वहाँ तो कोई भी नहीं बिन कान्ह।
कान्ह ही ग्वालबाल और बालाएँ
कौन वहाँ जो कान्ह नहीं
लोग यों ही बातें उडाएँ...।
मुरली नाद उठा इतने में
दूर-दूर और निकट-निकट,
बौराई माँ और निकल पडी बिटिया के पीछे-पीछे...।
“राधा-स्वयंवर” में श्रीकृष्ण और राधा के विवाह का वर्णन अतीव सजीव बन पड़ा है।
राधा को कवि ने प्रकृति का प्रतीक और कृष्ण को पुरुष का प्रतीक माना है। इस विवाह का प्रबंध करने के लिए प्रकृति की विभिन्न शक्तियाँ योगदान करती हैं-
वाव लूकपाल द्राव लछ डुवनावान
इंद्राजअ वथ लिव नावान,
बसंत रंग-रंग पोश वथरावान
सिरिय चंद्रम ह्यथ शमा चरागान...।
(वायुदेव स्वयं मार्ग साफ करने लगे। इंद्रदेव पानी का छिड़काव करने लगे तथा वसंतदेव मार्ग पर रंग-बिरंगे फूल बिछाने लगे। सूर्य और चंद्रदेव ने अपने प्रकाश से सकल दिशाओं में जगमगाहट कर दी। यामिनी देवी के हाथों में मेघ-छतरी सुशोभित हो रही थी तथा पक्षी अपने पंखों से आकाश में पंखा झल रहे थे। जैसे ही बारात वृषभानु के घर पहुँची तो वहाँ के सभी लोग बारातका स्वागत करने के लिए निकल पडे। घर के भीतर अग्निदेव भाँति-भाँति के पदार्थ तैयार करने में लगे हुए थे जिन्हें स्वादिष्ट बनाने के लिए अमृतरस का प्रयोग किया जा रहा था।)
परमानंद की दूसरी महत्वपूर्ण कृति है “सुदामाचरित”। २५० छंदों वाली इस अपेक्षाकृत लघु काव्य-रचना में कृष्ण की बाल-लीलाओं, ग्वालिनों की यशोदा से शिकायत, मीत सुदामा का विपदाग्रस्त जीवन, मीत की याद, अनुग्रह, मित्र-मिलन आदि का वर्णन है। “राधा-स्वयंवर” की तरह इस काव्य-कृति में भी एक आध्यात्मिक रूपक की परिकल्पना की गई है। डॉ. तोषखानी के शब्दों में- ’एक महत भाव, एक दार्शनिक विचार-सूत्र राधा स्वयंवर की ही तरह सुदामाचरित के केंद्र में भी स्थित है और संपूर्ण काव्य में रक्तवाहिनी नाड़ियों की भाँति अपनी ऊर्जा संचारित करता है। ईश्वर और मनुष्य, जीवात्मा और परमात्मा के परस्पर नैकट्य की एक मैत्री-संबंध के रूप में परिकल्पना परमानंद से लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व सूरदास ने भी की थी और बीसवीं शती के जर्मन कवि रिल्के ने भी। परमानंद के अनुसार दोनों से पार्थक्य अथवा दूरी की प्रतीति का कारण जीव का अहंभाव है। पार्थक्य का बोध पृथक इच्छा का परिणाम है, अन्यथा जीव का परमात्मा से अभेद है। जब सद्-बुद्धि (सुशीला) की प्रेरणा से सुभेच्छा का उन्मेष होता है तो जीव (सुदामा) पुनः ईश्वर की ओर अपनी यात्रा आरंभ करता है और सभी दुःखों का अवसान हो जाता है। रूपक और अन्योक्ति परमानंद की प्रिय तकनीक है। सुदामाचरित में इस तकनीक के प्रयोग द्वारा कवि ने कृष्ण-सुदामा मैत्री प्रसंग को आत्मा-बोध का आध्यात्मिक धरातल प्रदान किया है। सतह से गहरे अर्थों की ओर ले जाने का परमानंद का यह प्रयत्न उनके काव्य की एक बड़ी विशिष्टता है। सुदामाचरित को यह बात एक महत्वपूर्ण काव्य कृति बनाती है। इसमें कृष्ण और सुदामा अपने सहज व्यक्तित्वों को बनाए रखते हुए भी प्रतीक पात्रों के रूप में कथा को गति और अर्थ प्रदान करते है।‘‘
जैसा कि कहा जा चुका है “सुदामा चरित” मुख्यतया भगवान श्रीकृष्ण और उनके बाल सखा सुदामा के सम्मिलन की प्रसिद्ध घटना पर आधारित है। इस काव्य कृति में आध्यात्मिकता के भी दर्शन होते हैं। साधक (सुदामा) अविद्या के कारण साध्य (श्रीकृष्ण) से विमुख हो जाता है तथा अनेक प्रकार की दुविधाओं में उलझ जाता है। आत्मबोध हो जाने पर वह साध्य को पुनः प्राप्त कर लेता है। भगवान श्रीकृष्ण और सुदामा के मिलन-प्रसंग को चित्रित करने में परमानंद का कवि-हृदय यों विभोर हो उठा है-
वुनि ओस वातनय द्वारिका मंदरो
सखरित रूदमुत शामसंदरो,
ब्रोंठ नेरि यारस त सूल्य रूकमनी
अथन हृयथ पोशमाल दोनवय बअच...।
(अभी सुदामा द्वारिका पुरी पहुँचे भी न थे कि भगवान श्रीकृष्ण रुक्मिणी समेत उनके स्वागत के लिए तैयार हो गए। दोनों पति-पत्नी के करकमलों में पुष्पमालाएँ सुशोभित हो रही थी। श्रीकृष्ण रुक्मिणी से कहते हैं- आज मेरा पुराना मित्र आ रहा है, क्या तुम्हें प्रसन्नता नहीं हो रही? जो कोई भी भगवान को पाने के लिए एक कदम बढ़ाता है, भगवान उसे प्राप्त करने के लिए दस कदम आगे बढ़कर आते हैं। उनके नैकट्य में आने पर वे भी दोनों पति-पत्नी आनंदित होकर हड़बड़ाते हुए नंगे पाँव भागे। आगे-आगे श्रीकृष्ण थे और पीछे-पीछे रुक्मिणी जी। भगवान को देख भक्त सुदामा ने अपने आप को श्रीकृष्ण की बाँहों में सौंप दिया। दोनों को ऐसा लगा मानो स्वप्न देख रहे हों। भगवान सुदामा को अपनी गोद में बिठाकर अंदर महल में ले आए। रुक्मिणी जी ने उनके पैर थामे थे। तत्पश्चात भगवान ने सुदामा के हाथ-पैर धोए क्योंकि उसने सच्चे मन से भगवान के नाम की माला जपी थी। तब भगवान सुदामा की फटी-पुरानी गुदड़ी को टटोलने लगे,वैसे ही जैसे कोई योगी परम तत्व को टटोलता है। दो बार भगवान ने तंडुल अपने मुँह में डाले और तीसरी बार रुक्मिणी ने हाथ पकड़ लिया। सुदामा यह सबकुछ चकित होकर देखने लगे। उन्होंने चारों ओर नजर दौड़ाई और लगा जैसे वहाँ पर कोई न हो, केवल भगवान ही सर्वत्र व्याप्त हों...।)
“सुदामाचरित्र” के ही अंतर्गत श्रीकृष्ण जन्म-प्रसंग यों वर्णित हुआ-
गटि मंज गाश आव चान्ये जेनय
जय जय जय दीवकी नंदनय।
(तेरे जन्म लेने पर अंधकार प्रकाश में बदल गया। हे दवकी-नंदन ! तेरी जय-जयकार हो। तू देशकाल से परे तथा अगोचर है किंतु फिर भी तेरे जन्म लेने से सभी का मन आनंदित हो रहा है। यशोदा ने तेरे ऊपर फूलों की वर्षा की तथा सभी ने तुझे गोद में उठा-उठाकर झुलाया गया। सकल गोप-गोपिकाएँ यशोदा को पुत्र-जन्म पर बधाई देने के लिए आई। कृष्ण को देखकर वे उसकी चिरायु की कामना करने लगीं। पूरे नगर में खुशियाँ मनाई गई...।)
“शिवलग्न” परमानंद की तीसरी काव्यकृति है जिसका प्रतिपाद्य पार्वती-परिणय है। २८० छेदों में निबद्ध इस प्रबंधात्मक कृति में भी अन्योक्ति का प्रयोग हुआ है। कवि के अनुसार शिव और शक्ति क्रमशः पुरुष और प्रकृति के प्रतीक हैं और इन्हीं के संयोग से इस सृष्टि का निर्माण हुआ है।
प्रबंध काव्य-रचनाओं के अतिरिक्त परमानंद ने स्फुट कविताएँ भी लिखी हैं जिनमें प्रमुख हैं- कर्मभूमिका, पेड़ और छाया, अमरनाथ यात्रा, सहज-विचार आदि। स्फुट कविताओं में कवि ने तत्व-ज्ञान की बडी ही सटीक और सारगर्भित व्याख्या की है। इन कविताओं को पढ़ने के उपरांत ज्ञात होता है कि परमानंद वास्तव में उच्चकोटि के तत्वद्रष्टा थे। अपने जीवन के चिरकालीन अनुभवोपरांत ही वे ऐसी व्याख्याएँ प्रस्तुत कर सके हैं। उनकी पैनी जीवन-दृष्टि से संयुक्त दो पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-
कर्म बूमिकायि दीज दर्मुक सग
संतोष ब्यालि बवि आनंदुक फल।
(कर्मरूपी भूमि में संतोष के बीज को धर्म के पानी से सींचने पर जो प्राप्ति होगी, वह आनंदरूपी फल होगा।)
पूर्व में कहा जा चुका हैं कि परमानंद हिंदी में भी कविताएँ करते थे। इनकी हिंदी कविताओं के कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-
श्रीकृष्ण का जन्म होने पर भगवान शंकर के मन में उन्हें देखने की इच्छा हुई। वे एक योगी का रूप धारणकर तथा हाथ में भिक्षा-पात्र लिए गोकुल गाँव की ओर चल दिए-
भिख्या मांगन साँग बनायो, आयो सदासिव गोकुल में।
दर्शन करने को ध्यान धरायो, आयो सदाशिव गोकुल में।
नंगे सिर और नंगे पैर, नंदेश्वर का सवारी था,
अंग मं भस्मा भभूत चढाए, आयो सदाशिव गोकुल में।
हाथ में त्रिशूला, कान में मुंदरा, सुदर मुख को करा कराल,
घंटा शब्द और शंख बजायो, आयो सदाशिव गोकुल में।
गल में नागेंद्र, हारा पग में, जल में जैसे उठी तरंग,
गोकुल में भूकंप मचायो, आयो सदाशिव गोकुल में...।।
परमानंद की हिंदी कविताओं में पंजाबी शब्द-प्रयोगों का आधिक्य है। कहीं-कहीं पर कवि ने कश्मीरी, हिंदी तथा पंजाबी भाषाओं के मिश्रित रूप में कविताएँ की है-
ना तुम देखो कृष्ण श्यामा
पतिया हमारा पारा लूको,
बाजीगर ने बाजीगरी की
जिगर हमारा पारा लूको।
आखूँगा हम ना कह सकूँगा
ना कहूं तो मर जाऊँगा,
रिस के नसना, उसका हँसना
चोरों का अलंकारा लूको...।।
कविवर परमानंद के कुछ चित्र कश्मीर में उपलब्ध हैं जिनसे उनके भव्य व्यक्तित्व का भान होता है। उनकी आँखें चमकीली तथा नाक उभरी हुई थी। ललाट प्रशस्त तथा देह गठीली थी। परमानंद के दो पुत्र हुए थे किंतु दोनों का निधन अल्पायु में ही हुआ। अपनी दीन-हीन स्थिति का उल्लेख कवि ने एक स्थान पर यों किया है-
कुन तअ कीवल, सोरमुच आश,
नअ पुतुर तअ नअ रूदमुत गाश।
(मैं अकेला रह गया हूँ। मेरी आशाएँ मिट गई हैं। निःसंतान हूँ तथा आँखों की ज्योति भी समाप्त हो गई है।)
कश्मीरी साहित्य के ये महान कृष्ण-भक्त कवि सन १८७९ ई. में दिवंगत हुए।
http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/S/ShibanKrishanRaina/kavi_Parmanand_Alekh.htm

Wednesday, June 22, 2016

कश्मीर की उलझन


आज 23 जून 2016 के 'जनसत्ता'(चौपाल) में मेरा पत्र।


कश्मीर और कश्मीर के विस्थापित पंडितों से संबंधित प्रश्नों का हल ढूंढने के लिए कुछ सरगर्मी-सी आ गई है। पहले श्रीश्री ने हुर्रियत के अध्यक्ष मीरवाइज उमर फारूक से उनके आवास पर मुलाकात कर कश्मीर में चल रही स्थिति पर विस्तार से चर्चा की। बाद में दर्जन भर स्वघोषित पंडित नेताओं ने भी मीरवाइज से मुलाकात की और पंडितों की घाटी में वापसी और उनके पुनर्वास पर विचार-विमर्श किया। तनावग्रस्त घाटी में शांति स्थापित हो और पंडित समुदाय ससम्मान घाटी में लौटें, उसके लिए किए जाने वाले ऐसे प्रयासों की हर स्तर पर प्रशंसा की जानी चाहिए। लेकिन चिंता का विषय थोड़ा अलग है। ऐसी महत्त्वपूर्ण वार्ताओं के लिए हमेशा मान्यताप्राप्त मंचों के माध्यम से ही बातचीत की पहल होनी चाहिए। छोटे गुट नेतृत्व में केवल विभाजन पैदा करते हैं।
पनुन कश्मीर’ पंडितों की एकमात्र प्रतिनिधि संस्था हुआ करती थी। पिछले लगभग पच्चीस वर्षों के दौरान इस संस्था ने हर मुश्किल घड़ी में पंडितों का साथ दिया है और धरने-प्रदर्शनों के आलावा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कश्मीरी पंडितों के विस्थापन और पुनर्वास के मुद्दों को जोरदार तरीके से उठाया और जिंदा रखा है। समझ में नहीं आ रहा कि क्या ‘पनुन कश्मीर’ के नेताओं को हाशिए पर डाल दिया गया है या फिर उन्होंने अपनी मर्जी से इन स्वयंभू पंडित नेताओं को अपना कार्यभार सौंप कर शांति-वार्ताओं की प्रक्रिया से अपने को अलग कर दिया है? कौन नहीं जानता कि बहुत सारे नेता या मंच ज्यादातर मामलों को सुलझाने के बजाय उन्हें उलझाते ही हैं।


UPHOLD HUMAN VALUES

MY LETTER IN TODAY’S (22:6:2016) DAILY EXCELSIOR, JAMMU


Sir,
The holy month of Ramadan/Ramzan is on its way to conclude progressively and end up in a great festivity called Eid-Mubarak. The entire month carries a message and that is the message of service to mankind. Let the hearts be filled with love, soul with compassion and mind with wisdom. It is a call to uphold and abide by the basic human values and respect humanity.
Humanity is a blissful virtue that every person under the Sun needs to follow in his life. Selfless service, compassion, empathy, tolerance and truthfulness are the cardinal principles of this heavenly virtue. Purity of heart, too, is one of the basic components of humanity. A person whose mind is pure and devoid of any deceit, attains ecstatic bliss and unity with God while as one whose mind is full of deceit, indulging in fraudulent acts, deception and vanity can never realize and attain the real pleasure of life. His mind is always absorbed in ways wherein he could cause harm to others, look down upon them, accrue wealth by illegal means and misuse his power. Howsoever rich or famous this kind of a person may be, he will never succeed in attaining peace of mind. He will be perpetually surrounded by worries and his sinful acts would haunt him always and disturb his inner peace. Therefore, in order to remain happy, fearless, cool and contented, one should adopt the virtues of simplicity, purity, humility and compassion. Also, one should discard the harmful traits of deceit, shrewdness, vanity and abhorrence from his nature and thus bring his words, mind and deeds in complete harmony with humanity.
Yours etc, 


किसी भी जाति के अस्तित्व के लिए तीन शर्तों का होना परमावश्यक है:

-Dr.Shiben Krishen Raina

बहुत पहले कॉलेज में बीo एo (पार्ट 3) के विद्यार्थियों को मैंने एक निबन्ध पढाया था। निबन्ध का नाम मुझे इस समय याद नहीं आ रहा, मगर इस सुंदर निबन्ध में 'जाति'(community) की अवधारणा को लेखक ने बहुत ही सटीक ढंग से स्पष्ट किया था। लेखक का कहना था कि किसी भी जाति के अस्तित्व के लिए तीन शर्तों का होना परमावश्यक है: 1-उसका भौगोलिक आधार अर्थात उसकी अपनी सीमायें या भूमि, 2-उसकी अपनी सांस्कृतिक पहचान, और 3-अपनी भाषा और अपना साहित्य। ये तीनों किसी भी 'जाति' के मूलभूत तत्व हैं।----अमेरिका या इंग्लैंड में रहकर आप अपनी संस्कृति का गुणगान या संरक्षण करते रहें,मगर वहां आप अपना भौगोलिक आधार तैयार नहीं कर सकते।यह आधार तैयार हो सकता है अपने ही देश में और 'पनुन कश्मीर' का नारा इस दिशा में उठाया गया सही कदम है।सारे कश्मीरी पंडित जब एक ही जगह पर रहने लगें गे तो भाषा की समस्या भी अपने आप सुलझ जायगी और हमारी संस्कृति की भी रक्षा होगी।---लगता तो यह एक दूर का सपना है, मगर क्या मालूम यह सपना कभी सच भी हो जाय।

Tuesday, June 21, 2016



पहचान की दृष्टि

(आदि संत कवयित्री ललद्यद (चौदहवीं शताब्दी) कश्मीरी भाषा-साहित्य की विधात्री मानी जाती हैं)

शिबन कृष्ण रैणा


जनसत्ता 22 फरवरी, 2013: कश्मीरी की आदि संत कवयित्री ललद्यद (चौदहवीं शताब्दी) कश्मीरी भाषा-साहित्य की विधात्री मानी जाती हैं। ललेश्वरी, लल, लला, ललारिफा, ललदेवी आदि नामों से विख्यात इस कवयित्री को कश्मीरी साहित्य में वही स्थान प्राप्त है जो हिंदी में कबीर को है। इनकी कविता का छंद ‘वाख’ कहलाता है जिसमें उन्होंने अनुभवसिद्ध ज्ञान के आलोक में आत्मशुद्धता, सदाचार और मानव-बंधुत्व का ऐसा पाठ पढ़ाया जिससे कश्मीरी जनमानस आज तक देदीप्यमान है।
ललद्यद का जन्म पांपोर के निकट सिमपुरा गांव में एक ब्राह्मण किसान के घर हुआ था। यह गांव श्रीनगर से लगभग पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। तत्कालीन प्रथानुसार ललद्यद का विवाह बाल्यावस्था में ही पांपोर/ पद्मपुर ग्राम के एक प्रसिद्ध ब्राह्मण घराने में हुआ। उनके पति का नाम सोनपंडित बताया जाता है। बाल्यकाल से इस आदि कवयित्री का मन सांसारिक बंधनों के प्रति विद्रोह करता रहा जिसकी चरम परिणति बाद में भावप्रवण ‘वाक्-साहित्य’ के रूप में हुई। कबीर की तरह ललद्यद ने भी ‘मसि-कागद’ का प्रयोग नहीं किया। ये वाख प्रारंभ में मौखिक परंपरा में ही प्रचलित रहे और बाद में इन्हें लिपिबद्ध किया गया। इन वाखों की संख्या लगभग दो सौ है। सूत्रात्मक शैली में निबद्ध ये ‘वाख’ कवयित्री की अपूर्व आध्यात्मिक अनुभूतियों की अभिव्यंजना बड़े सुंदर ढंग से करते हैं। योगिनी ललद्यद संसार की महानतम आध्यात्मिक विभूतियों में से एक हैं, जिन्होंने अपने जीवनकाल में ही ‘परमविभु’ का मार्ग खोज लिया था और ईश्वर के धाम/ प्रकाशस्थान में प्रवेश कर लिया था। वे जीवनमुक्तथीं और उनके लिए जीवन अपनी सार्थकता और मृत्यु भयंकरता खो चुके थे। उन्होंने ईश्वर से एकनिष्ठ होकर प्रेम किया था और उसे अपने में स्थित पाया था। ललद्यद के समकालीन कश्मीर के प्रसिद्ध सूफी-संत शेख नूरुद्दीन वली/ नुंद ऋषि ने कवयित्री के बारे में जो विचार व्यक्त किए हैं, उनसे बढ़ कर उनके प्रति और क्या श्रद्धांजलि हो सकती है- ‘उस पद्मपोर/ पांपोर की लला ने/ दिव्यामृत छक कर पिया/ वह थी हमारी अवतार/ प्रभु! वही वरदान मुझे भी देना।’
ललद्यद के वाख-साहित्य का मूलाधार दर्शन है और यह वैसा ही है जैसा हिंदी के निर्गुण संत कवियों में परिलक्षित होता है। ललद्यद विश्वचेतना को आत्मचेतना में तिरोहित मानती हैं। सूक्ष्म अंतर्दृष्टि द्वारा उस परम चेतना का आभास होना संभव है। यह रहस्य उन्हें अपने गुरु से ज्ञात हुआ- ‘गुरु ने एक रहस्य की बात मुझे बताई: बाहर से मुख मोड़ और अपने अंतर को खोज। बस, तभी से बात हृदय को छू गई और मैं निर्वस्त्र नाचने लगी।’ दरअसल, ललद्यद की अंतर्दृष्टि 

दैहिक चेष्टाओं की संकीर्ण परिसीमाओं को लांघ कर असीम में फैल चुकी थी। वे ठौर-ठौर अंतर्ज्ञान का रहस्य अन्वेषित करने के लिए डोलने लगीं। उनकी आचार-मर्यादा कृत्रिम व्यवहारों से बहुत ऊपर उठ कर समष्टि में गोते लगाने लगी। वे नाचती-गाती और आनंदमग्न होकर निर्वस्त्र घूमती रहतीं। उनके इस असामान्य आचरण को देख कर लोग उन्हें ‘ललमच’ (लल-पगली) कह कर पुकारते थे। पुरुष वह उन्हीं को मानतीं जो ईश्वर से डरते हों और ऐसे पुरुष, उनके अनुसार इस संसार में बहुत कम थे। फिर शेष के सामने नग्नावस्था में घूमने-फिरने में शर्म कैसी?

ललद्यद उस सिद्ध-अवस्था में पहुंच चुकी थीं जहां ‘स्व’ और ‘पर’ की भावनाएं लुप्त हो जातीं हैं। जहां मान-अपमान, निंदा-स्तुति, राग-विराग आदि मन के संकुचित होने को ही लक्षित करते हैं। जहां पंचभौतिक काया मिथ्याभासों और क्षुद्रताओं से ऊपर उठ कर विशुद्ध स्फुरणों का केंद्रीभूत पुंज बन जाती है: ‘युस मे मालि हेडयम, गेल्यम, मसखरअ करेम, सु हो मालि मनस खरेंम न जांह, शिव पनुन येली अनुग्रह करेम, लुक हुंद हेडून मे करेम क्याह?’ यानी ‘चाहे मेरी कोई अवहेलना करे या तिरस्कार, मैं कभी उसका बुरा मानूंगी नहीं। जब मेरे शिव/ प्रभु का मुझ पर अनुग्रह है तो लोगों के भला-बुरा कहने से क्या होता है?’ इस असार संसार में व्याप्त विभिन्न विरोधाभासों और सामाजिक विसंगतियों को देख कर ललद्यद का अंतर्मन व्यथित हो उठा और वे कह उठीं- ‘एक प्रबुद्ध को भूख से मरते देखा जैसे पतझर की बयार में पत्ते जीर्ण-शीर्ण होकर झरते हैं। उधर, एक निपट मूढ़ द्वारा रसोइए को पिटते देखा। बस तभी से (इस विसंगति को देख कर) प्रतीक्षारत हूं कि मेरा यह अवसाद कब दूर होगा?’

ललद्यद के एक वाख/ पद को पढ़ कर यह अंदाजा लगाना सहज होगा कि ऐसी रचनाशीलता की आज के युग में कितनी अधिक सार्थकता और आवश्यकता है- ‘शिव (यानी प्रभु) थल-थल में रहते हैं। इसलिए हिंदू-मुसलमान में तू भेद न जान। प्रबुद्ध है तो अपने आपको पहचान। साहिब (ईश्वर) से तेरी यही है असली पहचान।’ ललद्यद का कोई भी स्मारक, समाधि या मंदिर कश्मीर में नहीं मिलता है। शायद वे इन सब बातों से ऊपर थीं। वे दरअसल ईश्वर (परम विभु) की प्रतिनिधि बन कर अवतरित हुर्इं और उसके फरमान को जन-जन में प्रचारित कर उसी में चुपचाप मिल गर्इं, जीवन-मरण के लौकिक बंधनों से ऊपर उठ कर- ‘मेरे लिए जन्म-मरण हैं एक समान/ न मरेगा कोई मेरे लिए/ और न ही/ मरूंगी मैं किसी के लिए!
http://archive.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=39402:2013-02-22-05-43-26



झबरे की भौं भौं

तंग-दस्ती अथवा फटेहाली कौन चाह्ता है भला? सभी सुख-चैन और आनन्द चाहते हैं.


उचित-अनुचित साधनों से प्राप्त सुविधाएँ अथवा सुख-चैन जब छिन जाते हैं या फिर छिनने को होते हैं तो व्यक्ति कुनमुनाने लगता है या फिर भौं-भौं करने लगता है. कश्मीरी की एक लघु-कहानी याद आ रही है: “एक बार एक सफेद झबरा कुत्ता मालिक की कार से सर बाहर निकाले इधर-उधर कुछ देख रहा था. सेठजी दूकान के अंदर कुछ सामान खरीदने के लिए गए हुए थे. कुत्ते को देख लगे बाजारी कुत्ते उसपर भूँकने. झबरे ने जरा भी ध्यान नहीं दिया. कुत्ते फिर और लगातार भौं-भौं करने लगे. तब भी झबरा चुप. आखिर जब कुत्तों ने आसमान सर पर उठा लिया तो झबरा बोला:”दोस्तों, क्यों अपना गला फाड़ रहे हो? मैं भी आपकी ही जाति का हूँ. लगता है मेरा सुख-चैन आप लोगों को बर्दाश्त नहीं हो रहा? तुम लाख चिल्लाते रहो, मगर तुम्हारी इस भौं-भौं से मैं अपना आराम छोड़ने वाला नहीं.” 

कौन नहीं जानता कि सुख-चैन को प्राप्त करने के लिए, उसे सुरक्षित रखने के लिए या फिर उसे हथियाने के लिए विश्व में एक-से-बढ़कर-एक उपद्रव हुए हैं. आज के समाज में हर स्तर पर जो ‘हलचल’ व्याप्त है, वह प्रायः इसी भावना की वजह से है.


वाह,भई वाह! देखने लायक प्रदर्शनी।

फेसबुक का कमाल 



दुबई का इब्नबतूता माल

दुबई संयुक्त अरब अमीरात का एक प्रमुख शहर है.बड़ा ही दिलकश और शानशौकत वाला शहर है.यों तो दुबई में लगभग अस्सी शापिंग-माल बताये जाते हैं जिनमें दुबई माल सब से बड़ा है.यह दुबई का ही नहीं विश्व के सब से बड़े मालों में से एक है.इसके बाद नंबर आता है “इब्न बतूता माल” का. मोरक्को निवासी इब्न बतूता (1304-1368-69) के नाम पर यह माल बनाया गया है.इब्न बतूता 22 वर्ष की आयु में कई देशों की यात्रा पर निकला था.लगभग छह वर्षों तक उसने अरब,पूर्वी अफ्रीका,भारत,चीन,फारस,दक्षिणी रूस,मिस्र,स्पेन आदि देशों की यात्रा की. अपने परिवार की परंपरा के अनुसार इब्नबतूता ने कम उम्र में ही साहित्यिक तथा शास्त्ररूढ़ शिक्षा हासिल की थी. अपनी श्रेणी के अन्य सदस्यों के विपरीत इब्नबतूता पुस्तकों के स्थान पर यात्राओं से अर्जित अनुभव को ज्ञान का अधिक महत्वपूर्ण स्रोत मानता था.


उसे यात्राएँ करने का बहुत शौक था और वह नए-नए देशों और लोगों के विषय में जानने के लिए दूर-दूर के क्षेत्रों तक गया था. 1332-33 में भारत के लिए प्रस्थान करने से पहले वह मक्का की तीर्थ यात्राएँ और सीरिया, इराक, फारस, यमन, ओमान तथा पूर्वी आफ्रीका के कई तटीय व्यापारिक बंदरगाहों की यात्राएँ कर चुका था. मध्य एशिया के रास्ते होकर इब्नबतूता सन्‌ 1333 में स्थलमार्ग से सिधं पहुचँ.उसने दिल्ली के सुल्तान महुम्मद बिन तुगलक के बारे में सुना था और कला और साहित्य के एक दयाशील संरक्षक के रूप में उसकी ख्याति से आकर्षित हो बतूता ने मुल्तान और कच्छ के रास्ते होकर दिल्ली की यात्रा की.


इसी महान पर्यटक के नाम पर “इब्न बतूता” माल बना है.521,000 वर्ग मीटर में फैले इस अद्भुत माल में 270 दुकानें, 50 रेस्टोरेंट, 21 स्क्रीन-सिनेमा, 4500 कारों के लिए पार्किंग की जगह है जो इसे दुनिया का सबसे बड़ा विषयाधारित माल बनाता है.इस माल को, इब्न बतूता ने जिन-जिन प्रमुख देशों की यात्रा की, उन देशों की थीम को आधार बनाकर निर्मित किया गया है.सम्पूर्ण माल को छह कोर्टस/प्रभागों में बांटा गया है जिनमें इजिप्ट, इंडिया, चाइना, पर्शिया, टयूनिशिया और एंडलूसिया कोर्टस हैं. हर प्रभाग ऊपर वर्णित देशों की थीम/कला-संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है. हाथी को प्रतीक बनाकर भारत का प्रभाग/कोर्ट देखने लायक है








दुबई का 'मिरेकल गार्डन' जैसे रेगिस्तान में नंदन-कानन


दुबई की यह मेरी पांचवीं यात्रा है। जब भी यहाँ आया हूँ कोई-न-कोई नयी बात या नयी चीज़ सुनने-देखने को मिली है। पिछली बार जब आया था तो ‘बुर्ज खलीफा’ चर्चा में था। 160 मंजिलों वाली तथा लगभग 828 मीटर ऊंची इस आकाश-छूती इमारत को देखकर सचमुच आश्चर्य हुआ था। उससे पहले दुबई स्थित उस होटल ‘बुर्ज-अल-अरब’ को देखा था, जिसके बारे में सुना था कि वह विश्व का सब से बड़ा सात-सितारा होटल है। प्रतिमान पर प्रतिमान स्थापित करना इस शान-शौकत और चमक-दमक वाले दुबई शहर की ‘ललक’ का एक तरह से पर्याय बन गया है। विश्व का सब से बड़ा मॉल ‘दुबई मॉल’ भी यहीं पर है। स्वचालित (बिना ड्राइवर के) मेट्रो भी यहां है। और भी बहुत कुछ है यहाँ देखने के लिए।

इस बार उस पुष्प-उद्यान को देखने का मौका मिला जिसके बारे में अपने देश में सुन रखा था। यह पुष्प उद्यान यानी 'मिरेकल गार्डन' विश्व-प्रसिद्ध है। लगता है जैसे समूचा 'नंदन-कानन' सहरा में उतर कर आया हो। दुबई मिरेकलगार्डन का क्षेत्रफल लगभग सत्तर हज़ार वर्गमीटर है। विश्व का यह ऐसा पहला उपवन है जिसमें 60 रंगों के 4.5 करोड़ फूल हैं। इनमें से अनेक ऐसे हैं जिन्हें फारस की खाड़ी के इलाके में पहली बार लाया गया है। यह संसार का पहला ऐसा बाग़ है जो फूलों से बनी तीन मीटर ऊंची दीवार से घिरा हुआ है और इसमें एक दस मीटर ऊंचा पुष्प-पिरामिड भी है| फूलों के गुच्छों, झुरमुटों और कियारियों को बड़े ही कलापूर्ण ढंग से तराशा/संवारा गया है। जहाँ तक भी नजर जाती है महकते फूलों का समुद्र ठाठें मारता दृष्टिगोचर होता है। रेगिस्तान में ऐसा दृश्य विरल ही नहीं, अकल्पनीय भी है। इस दिलकश गुलिस्तान के निर्माताओं का कहना है कि वे संसार को दिखाना चाहते थे कि सहरा को भी कैसे प्रदूषित जल का विवेकपूर्ण तरीके से उपयोग कर उसे हराभरा किया जा सकता है। दुनिया को वे यह भी बताना चाहते थे कि दुबई मात्र ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं (लोहा-सीमेंट-रेत) और मालों/होटलों का ही शहर नही है। अपितु प्रकृति-प्रेमी नगर भी है।

एक बात और। दुबई की भावी योजनाओं में एक अत्यंत महत्वाकांक्षी परियोजना है ‘फाल्कन सिटी ऑफ़ वंडर्स'। इस परियोजना के तहत दुनिया भर से वास्तुकला के कई श्रेष्ठ नमूनों की प्रतिकृतियां बनाई जाएंगी जिनमें पिरामिड,हैंगिंग गार्डन, एफिल टावर, ताज महल, चीन की महान दीवार और पिसा की झूलती मीनार शामिल हैं। परियोजना दुबई के प्रतिमानों की श्रृंखला में एक और नई कहानी लिखेगी, ऐसा इसके प्रबंधकों का मानना है।
दुबई के प्रशासकों (शेखों) को यह समझ में आने लगा है कि उनके तेल के जखीरे अब ज्यादा दिनों तक चलने वाले नहीं हैं और एक-न-एक दिन उनके ये तेल के कुंए तेल देना बंद कर देंगे। दरअसल, 1930 में उन्हें तेल की अकूत संपदा हाथ लगी थी, उससे पहले यहाँ के लोग मछली-पालन या समुद्र से मोती निकालने का काम करते थे, लगभग अस्सी वर्षों से सहरा इन्हें तेल से मालामाल कर रहा है।

बुर्ज, होटल, चौड़ी सड़कें, चमक-दमक, वैभव, ठाठ-बाठ आदि सब तेल की वजह से है। मगर तेल निकलेगा भी तो कब तक? इसलिए विकल्प के तौर पर, समय रहते, यहाँ के शासक ‘पर्यटन’ उद्योग को बढ़ावा देने में जुटे हुए हैं। चिकित्सा और शिक्षा के क्षेत्रों में भी बड़ी-बड़ी महत्वाकांक्षी परियोजनाएं ये लोग ला रहे हैं.