Sunday, December 26, 2021



अपनों का अपनों से लगाव बना रहे(नववर्ष संदेश)

डा० शिबन कृष्ण रैणा

नव-वर्ष यानी नया साल! जो था सो बीत गया और जो काल के गर्भ में है, वह हर पल, हर क्षण प्रस्फुटित होने वाला है। यों देखा जाए तो परिवर्तन प्रकृति का आधारभूत नियम है। तभी तो दार्शनिकों ने इसे चिरंतन सत्य की संज्ञा दी है। इसी नियम के अधीन काल-रूपी पाखी के पंख लग जाते हैं और वह स्वयं तो विलीन हो जाता है किन्तु अपने पीछे छोड़ जाता है काल के सांचे में ढली विविधायामी आकृतियां। कुछ अच्छी तो कुछ बुरी। कुछ रुपहली तो कुछ कुरूप।काल का यह खेल या अनुशासन अनन्त समय से चला आ रहा है।

हम सभी अनेक प्रकार की कमजोरियों से भरे हुए हैं। यह दावा करना बिल्कुल गलत होगा कि हमारे अन्दर कोई अवगुण नहीं है। नये वर्ष में हमें अपने संकल्पों में एक संकल्प यह भी जोड़ लेना चाहिए कि मैं अपने किसी एक अवगुण-विशेष को समाप्त करूँगा। जैसे: मैं अपने क्रोध को नियंत्रित करूँगा। मैं आलस्य से मुक्त होऊँगा।मुझे अपने अन्दर के ईर्ष्या के भाव को समाप्त करना है।वाणी में मिठास पैदा करनी है आदि-आदि। साथ ही 2022 में विनम्रता के महत्व को और भी अच्छी तरह से जानना होगा। विनम्रता एक श्रेष्ठ गुण है। इस गुण से शत्रु को भी मित्र बनाया जा सकता है। गीता में भी विनम्रता के बारे में बताया गया है। जिनके स्वभाव में विनम्रता होती है, वे सभी के प्रिय होते हैं। ऐसे लोगों को हर स्थान पर सम्मान मिलता है।

आइए नयी ऊर्जा, आशा और उत्साह के साथ नववर्ष का स्वागत करें। हर ओर नया और सकारात्मक देखें। सभी चेहरों को नयी नजर से देखें। हर चीज में नयापन तलाशें। अपने आस-पास को नयी प्रेरणा और नयी आशा-उमंग से देखें। नयी राह की ओर देखें। नये सपने देखें, नए मार्ग बनाएं और उन पर चलना शुरू करें। इच्छा-शक्ति को प्रबल करें। पाखंड का त्याग करें। भरोसा करें, भरोसे के लायक बनें। विश्वास करें, विश्वास जीतें। अपनी गरिमा समझें और दूसरों की अहमियत को समझें। लाख कोशिश के बाद भी मानव मस्तिष्क में स्मृतियां शेष रह ही जाती हैं। फिर भी कोशिश करें कि मात्र अच्छी स्मृतियां ही शेष रहें।इसी के साथ अपनी स्मृतियों से पूर्वाग्रहों को मुक्त करें।यह कठिन तपस्या है, फिर भी प्रयास करें। स्मृतियों को बोझ न बनने दें। स्मृतियों को प्रेरक बनाएं। अच्छी यादें प्रेरणा देती हैं, सुख देती हैं। दुखदायी स्मृतियों को मिटा दें। जिन दुर्गुणों को पिछले वर्ष झेला, उन्हें आज भूल जाएं। हम नये वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं।अतः यह कामना करें कि सब कुछ नया हो। सब कुछ अच्छा हो। हर ओर शुभ हो। हर काम का शुभ आरंभ हो। नए वर्ष में यह भी कामना करें कि युवाओं के लिए रोजगार का मार्ग प्रशस्त हो। व्यापार में चल रही मंदी समाप्त हो। किसानों के लिए सकारात्मक माहौल बने। स्वच्छ भारत बने। कला-संस्कृतियों की रक्षा हो। शहरी-ग्रामीण जीवन स्तर, अमीर-गरीब के बीच खाई चौड़ी न हो और सब के सम्मान और जीवन की रक्षा हो।

इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए हम एक-दूसरे को शुभकामनाएं दें ताकि आने वाला नया वर्ष सबके लिए सुख-समृद्धि के ढेरों अवसर लेकर आए। प्रत्येक वर्ष नए साल के अवसर पर हम सभी को आशा होती है कि नव-वर्ष हमारे लिए काफी अच्छा साबित हो।हम सभी के लिए नया साल नई उम्मीदों, नई इच्छाओं, नई आशाओं तथा नई संभावनाओं को तलाशने का एक सुंदर अवसर होता है।नए साल में हमें यह भी कोशिश करनी चाहिए कि हम पुराने साल में की गई गलतियों को न दोहराएं। बीते वर्ष में की गई गलतियों तथा असफलताओं से सीख लेते हुए हमें जिन्दगीं में आगे कदम बढ़ाना चाहिए तथा अपनी सफलता सुनिश्चित करने की कोशिश करनी चाहिए।

बदलते वक्त के साथ बदलें।जमाने के साथ चलें। बदलती तकनीक के साथ बदलें। अपटूडेट रहें ताकि फूहड़ न कहलाएं।नई सुबह इस नए साल में हमारे स्वागत के लिए तैयार खड़ी है। उसका गर्मजोशी के साथ बाहें फैलाकर स्वागत करें और ईश्वर से प्रार्थना करें:

अपनों का अपनों से लगाव बना रहे
आसमां छु लें, पर जमीं पर पाँव डटे रहें,

इस प्रार्थना पर विचार करना हे प्रभु,
सबके सपनों को तू साकार करना प्रभु।

Saturday, December 25, 2021



अमरनाथ तीर्थ

भारतवर्ष तीर्थों की पवित्र भूमि है। इस धरा पर शायद ही कोई ऐसा प्रांत होगा जहाँ तीर्थस्थल न हों। ये तीर्थस्थल दीर्घकाल से आस्था एवं विश्वास के प्रमुख केंद्र रहे हैं। कश्मीर प्रांत में स्थित 'अमरनाथ' नामक तीर्थस्थल का विशेष महत्व है। कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ में इस तीर्थ को ‘अमरेश्वर’ बताया गया है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में स्थित शिव के द्वादश ज्योतिर्लिगों: सोमनाथ, मल्लिकार्जुन, महाकालेश्वर, ॐकारेश्वर, केदारनाथ, भीमाशंकर, काशी-विश्वनाथ आदि के अतिरिक्त ‘अमरनाथ’ का विशेष महत्व है। शिव के प्रमुख स्थलों में अमरनाथ अन्यतम है। अत: अमरनाथ को तीर्थो का तीर्थ कहा जाता है।

अमरनाथ हिन्दुओं का एक प्रमुख तीर्थस्थल है। यह जम्मू-कश्मीर राज्य के श्रीनगर शहर के उत्तर-पूर्व में 141 किलोमीटर दूर समुद्र तल से 3,888 मीटर (12756 फुट) की ऊंचाई पर स्थित है। इस गुफ़ा की लंबाई (भीतर की ओर गहराई) 19 मीटर और चौड़ाई 16 मीटर है। यह गुफ़ा लगभग 150 फीट क्षेत्र में फैली है और गुफ़ा 11 मीटर ऊंची है तथा इसमें हज़ारों श्रद्धालु समा सकते हैं। प्रकृति का अद्भुत वैभव अमरनाथ गुफ़ा, भगवान शिव के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। एक पौराणिक गाथा के अनुसार भगवान शिव ने पार्वती को अमरत्व का रहस्य (जीवन और मृत्यु के रहस्य) बताने के लिए इस गुफ़ा को चुना था। मृत्यु को जीतने वाले मृत्युंजय शिव अमर हैं, इसलिए 'अमरेश्वर' भी कहलाते हैं। जनसाधारण 'अमरेश्वर' को ही अमरनाथ कहकर पुकारते हैं।शिव-भक्त इसे बाबा अमरनाथ या बर्फानी-बाबा भी कहते हैं।

अमरनाथ हिंदी के दो शब्द “अमर” अर्थात “अनश्वर” और “नाथ” अर्थात “भगवान” को जोड़ने से बनता है। एक पौराणिक कथा के अनुसार जब देवी पार्वती ने भगवान शिव से अमरत्व के रहस्य को प्रकट करने के लिये कहा, जो वे उनसे लंबे समय से छिपा रहे थे। तब यह रहस्य बताने के लिये भगवान शिव, पार्वती को हिमालय की इस गुफा में ले गए, ताकि उनका यह रहस्य कोई भी ना सुन पाये और यही भगवान शिव ने देवी पार्वती को अमरत्व का रहस्य बताया था।
40 मीटर ऊँची अमरनाथ गुफा में पानी की बूंदों के जम जाने की वजह से पत्थर की एक सुंदर मूर्ती बन जाती है। हिन्दू धर्म के लोग इस बर्फीली मूर्ति को शिवलिंग मानते है। कहा जाता है की भगवान शिव पहलगाम (बैल गाँव) में नंदी और बैल को छोड़ गए थे। चंदनवाड़ी में उन्होंने अपनी जटाओ से चन्द्र को छोड़ा था। और शेषनाग सरोवर के किनारे उन्होंने अपना साँप छोड़ा था। महागुनास (महागणेश पहाड़ी) पर्वत पर उन्होंने भगवान गणेश को छोड़ा था। पंजतारनी पर उन्होंने पाँच तत्व- धरती, पानी, हवा, आग और आकाश छोड़ा था। और इस प्रकार दुनिया की सभी चीजो का त्याग कर भगवान शिव ने वहाँ तांडव नृत्य किया था और अंत में भगवान शिव देवी पार्वती के साथ पवित्र गुफा अमरनाथ आये थे।
इस यात्रा का सबसे अच्छा समय गुरु पूर्णिमा और श्रावण पूर्णिमा के समय में होता है। जम्मू-कश्मीर सरकार ने श्रद्धालुओ की सुख-सुविधाओ के लिये रास्ते भर में सभी सुविधाए उपलब्ध करवाई है। ताकि भक्तगण आसानी से अपनी अमरनाथ यात्रा पूरी कर सके। लेकिन कई बार यात्रियों की यात्रा में बारिश बाधा बनकर आ जाती है। जम्मू से लेकर पहलगाम (7500 फीट) तक की बस सेवा भी उपलब्ध है। पहलगाम में श्रद्धालु अपने सामन और कपड़ो के लिये कई बार कुली भी रखते है। वहाँ हर कोई यात्रा की तैयारिया करने में ही व्यस्त रहता है। इसीके साथ सूरज की चमचमाती सुनहरी किरणे जब पहलगाम नदी पर गिरती है, तब एक महमोहक दृश्य भी यात्रियों को दिखाई देता है। कश्मीर में पहलगाम मतलब ही धर्मगुरूओ की जमीन।
अधिकारिक तौर पे, यात्रा का आयोजन राज्य सरकार श्री अमरनाथ यात्रा बोर्ड के साथ मिलकर करती है। सरकारी एजेंसी यात्रा के दौरान लगने वाली सभी सुख-सुविधाए श्रद्धालुओ को प्रदान करती है, जिनमे कपडे, खाना, टेंट, टेलीकम्यूनिकेशन जैसी सभी सुविधाए शामिल है।

गुफा के रास्ते में बहुत सी समाजसेवी संस्थाए श्रद्दालुओ को खाना, आराम करने के लिये टेंट या पंडाल की व्यवस्था करते है। यात्रा के रास्ते में 100 से भी ज्यादा पंडाल लगाये जाते है, जिन्हें हम रात में रुकने के लिये किराये पर भी ले सकते है। निचले कैंप से पंजतारनी (गुफा से 6 किलोमीटर) तक की हेलिकॉप्टर सुविधा भी दी जाती है।



इतिहासकारों का विचार है कि अमरनाथ यात्रा हज़ारों वर्षों से चली या रही है तथा अमरनाथ-दर्शन का महत्त्व पुराणों में भी मिलता है। बृंगेश सहिंता, नीलमत पुराण, कल्हण की राजतरंगिनी आदि में इस तीर्थ का बराबर उल्लेख मिलता है। नीलमत पुराण में अमरेश्वर के बारे में दिए गए उल्लेख से पता चलता है कि इस तीर्थ के बारे में छठी-सातवीं शताब्दी में भी लोगों को जानकारी थी। कश्मीर के महान् शासकों में से एक था 'जैनुलबुद्दीन' (1420-70 ईस्वी), जिसे कश्मीरी लोग प्यार से ‘बड़शाह’ कहते हैं, खते हैं कि उसने भी अमरनाथ गुफ़ा की यात्रा की थी।(इस बारे में इतिहासकार जोनराज ने उल्लेख किया है।) अकबर के इतिहासकार अबुल-फ़जल (16वीं शताब्दी) ने आइना-ए-अकबरी में उल्लेख किया है कि अमरनाथ एक पवित्र तीर्थस्थल है। गुफ़ा में बर्फ़ का एक बुलबुला बनता है जो थोड़ा-थोड़ा करके 15 दिन तक रोजाना बढता रहता है और दो गज से अधिक ऊंचा हो जाता है। चन्द्रमा के घटने के साथ-साथ वह भी घटना शुरू कर देता है और जब चांद लुप्त हो जाता है तो शिवलिंग भी विलुप्त हो जाता है। स्वामी विवेकानन्द ने 1898 में 8 अगस्त को अमरनाथ गुफ़ा की यात्रा की थी और बाद में उन्होंने उल्लेख किया कि मुझे लगा कि बर्फ़ का लिंग स्वयं शिव हैं। मैंने ऐसी सुन्दर, इतनी प्रेरणादायक कोई चीज़ नहीं देखी और न ही किसी धार्मिक-स्थल का इतना आनन्द लिया।

अमरनाथ की यात्रा श्रीनगर स्थित दशमी अखाड़ा से पंचमी तिथि को प्रारम्भ होती है और पहलगाम में रुकती है और पुन: द्वादशी तिथि को प्रस्थान प्रारम्भ होता है। श्रावण मास में पवित्र हिमलिंग के दर्शनार्थ लाखों लोग भिन्न-भिन्न प्रदेशों से यहाँ आते हैं। गुफा में ऊपर से बर्फ के पानी की बूंदें यत्र-यत्र गिरती रहती हैं और यहीं पर एक ऐसा स्थान है, जहाँ इन बूंदों से लगभग दस फुट ऊँचा शिवलिंग बनता है। चंद्रमा के घटने-बढने के साथ ही इस हिमलिंग का आकार भी परिवर्तित होता है, जो श्रावण पूर्णिमा को अपने पूर्ण रूप में आ जाता है तथा अमावस्या तक धीरेधीरे छोटा हो जाता है। विस्मय का विषय यह है कि गुफा में सामान्यतः कच्ची बफ ही दिखाई देती है जो भुरभुरी होती। है लेकिन यह शिवलिंग ठोस बर्फ का बना होता है। मुख्य हिम शिवलिंग से कुछ दूरी पर गणेश, भैरव तथा पार्वती के पृथक्-पृथक् हिमलिंग रूप भी दृष्टिगत होते हैं।

अमरनाथ की गुफा तक पहुँचने के लिए सामान्यतः दो मार्ग हैं, प्रथम पहलगाम मार्ग और दूसरा सोनमर्ग-बालटाल मार्ग पहलगाम या बालटाल किसी भी मार्ग से गुफा तक पहुँचा जा सकता है। पहलगाम अथवा सोनमर्ग से आगे की यात्रा पैदल ही करनी पड़ती है। पहलगाम मार्ग अपेक्षाकृत सुविधाजनक है जबकि बालटाल मार्ग अमरनाथ की गुफा से मात्र 14 किलोमीटर की दूरी पर है, लेकिन यह मार्ग अत्यंत दुर्गम है। सामान्यतः यात्री पहलगाम मार्ग से अमरनाथ यात्राइसी मार्ग के प्रयोग हेतु प्रेरित करती है।

पहलगाम से अमरनाथ की दूरी 45 किलोमीटर है। इस यात्रा मार्ग में चंदनबाड़ी, शेषनाग तथा पंचतरणी तीन प्रमुख रात्रि पड़ाव हैं। प्रथम पड़ाव चंदनबाड़ी है, जो पहलगाम से 12.8 किलोमीटर की दूरी पर है। तीर्थयात्री पहली रात यहीं पर बिताते हैं। दूसरे दिन पिस्सू घाटी की चढ़ाई प्रारम्भ होती है। चंदनबाड़ी से 13 किलोमीटर दूर शेषनाग में अगला पड़ाव है। यह चढ़ाई अत्यंत दुर्गम है। यहीं पर पिस्सू घाटी के दर्शन होते हैं। पूरी यात्रा में पिस्सू घाटी का मार्ग बहुत कठिन है। पिस्सू घाटी समुद्र तल से 11,120 फुट की ऊँचाई पर है। इसके पश्चात् यात्री शेषनाग पहुँचते हैं। लगभग डेढ़ किलोमीटर लम्बाई में फैली हुई झील अत्यंत सुंदर है। तीर्थयात्री रात्रि में यहीं विश्राम करते हैं। तीसरे दिन यात्रा पुनः आरम्भ होती है। इस यात्रा मार्ग में बैववैल टॉप एवं महागुणास दरें को पार करना पड़ता है। महागुणास से पंचतरणी का पूरा रास्ता उतरावयुक्त है। छोटी-छोटी पाँच नदियों के बहने के कारण यह स्थान पंचतरणी नाम से प्रसिद्ध हुआ है। पंचतरणी से अमरनाथ की पवित्र गुफा 6 किलोमीटर की दूरी पर है। गुफा के समीप पहुँचकर पड़ाव डाल दिया जाता है तथा प्रात:काल पूजन इत्यादि के पश्चात् पंचतरणी वापस लौटा जाता है। अंततः प्रात:काल शिव के हिमलिंग स्वरूप के दर्शनोपरांत अद्भुत आनंद की प्राप्ति होती है।

जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका हैं कि शिव ने पार्वती को अमरत्व का उपदेश इसी गुफा में दिया था। जब वे उन्हें कथा सुना रहे थे तो उस समय कपोतद्वय(दो कबूतर)भी वहीं आसपास मौजूद थे जिन्होंने यह उपदेश सुन। श्रद्धालु इन्हें अमरपक्षी कहते हैं जो शिव द्वारा पार्वती को दिए गए अमरत्व के उपदेश को सुनकर अमर हो गए। आज भी जिन श्रद्धालुओं को ये कपोतद्वय दिखाई देते हैं, तो ऐसा माना जाता है कि उन्हें शिव-पार्वती ने अपने प्रत्यक्ष दर्शन दिए हैं। प्रतिवर्ष सम्पन्न होने वाली इस पुण्यशालिनी यात्रा से अनेक पुण्य फलों की प्राप्ति होती है। ऐसा माना जाता है कि अमरनाथ दर्शन और पूजन से महापुण्य प्राप्त होता है।

शास्त्रों में इंद्रिय निग्रह पर विशेष बल दिया गया है जिससे मुक्ति की प्राप्ति होती है। भृगीश संहिता में इसी प्रकार का संकेत प्राप्त होता है जिसके अनुसार अमरनाथ यात्रा निग्रह के बिना ही मुक्ति प्रदान करने वाली है। अत: यात्राक्रम में आने वाली परिस्थितियों तथा गंतव्य स्थल पर पहुँचकर होने वाले हर्ष-विषाद मिश्रित अनेकविध अनुभवों के कारण तीर्थयात्री को विविध प्रकार के सांसारिक कष्टों का बोध होता है तथा साथ ही शिव के हिमलिंगरूप के दर्शन से उसका हृदय इतना संयमित हो जाता है कि इंद्रिय निग्रह किए बिना ही उसे मुक्ति प्राप्त होती है।

भृगीश संहिता में यह भी कहा गया है कि अमरेश्वर शिव के दर्शन अत्यंत पुण्यशाली है। वे अपने भक्तों के समस्त भवरोगों यथा-आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक दु:खों का समूल नाश करते



आमरनाथ-यात्रा से संबंधित एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि यह यात्रा पारस्परिक सद्भाव के प्रचार का कार्य भी करती है। विभिन्न प्रांतों से शिव के दर्शनार्थ आने वाले लोगों में परस्पर समभाव की भावना विकसित होती है, विभिन्न भाषा-भाषी लोगों में परस्पर वार्तालाप होता है, भाईचारे की भावना का विकास होता है और विभिन्न प्रांतों की भौगोलिक जानकारी का आदान-प्रदान होता है।अत: अमर नाथ तीर्थ को तीर्थाटन के अतिरिक्त श्रद्धा,ज्ञान एवं भक्ति के समुच्चय के रूप में माना जा सकता है।

Friday, December 17, 2021



Arabic Language, a Bridge Between Civilizations’ (Gulf News 17th December,20)



There seem to be no two opinions on the recent finding by UNESCO that hundreds of languages and dialects around the world are threatened to disappear because of enforced illiteracy and migration. Findings reveal that almost half of the globe’s 6,700 languages and dialects are disappearing because people have stopped using them. In other words, parents and elders of these languages may no longer pass on these languages to their children, and in the process, the languages might wither away, leaving no signs of their existence for future generations.

Reasons for this upheaval in languages are manifold. Educational disadvantages including migration and other manifestations, eventually lead to the possibility of a culture and its language being weakened almost to the point of disappearance and obscurity. More than this is the massive influence of the English language exerting on languages smaller or bigger. English has become a global language and its utility is immense and unquestionable. It connects the people of the world, while regional or other national languages are not. English is the language for global communication. The modern world is firmly connected by technology and by globalization, and the English language is a means to that. The more people reach out to each other the more they need a common language for communication. English fills up the slot for its ease of learning and for already being a global language spoken across continents. Companies are becoming more international, and English is considered an essential skill for more and more jobs. There are some organizations that now conduct all their business in English, no matter where in the world they are based. If you want the best-paid opportunities, learning English is virtually essential. Languages other than English might be a source of just preserving our social and cultural identities.



Thursday, October 14, 2021

कश्मीर का संक्षिप्त इतिहास

कल्हण ने ‘राजतरंगिणी’ में कश्मीर का इतिहास गोनन्द-२ नाम के राजा से प्रारम्भ किया हैI यह वह समय है जब पाण्डवों के राजा युधिष्ठिर का राजतिलक हुआ था। गोनन्द-२ मगध के राजा जरासंघ का निकट-सम्बन्धी था।यमुना तट पर जब श्रीकृष्ण के साथ जरासंघ ने युद्ध किया, तो इसमें गोनन्द-२ ने भी भाग ले लिया था। गोनन्द-२ के पश्चात उनके पुत्र दामोदर ने कश्मीर का शासन संभाला।कल्हण के अनुसार दामोदर के पश्चात ३५ राजाओं ने कश्मीर पर शासन किया मगर इनके सम्बन्ध में आज तक किसी भी इतिहासकार को कोई प्रमाणिक सामग्री प्राप्त नही हुई है।विश्वास किया जाता है कि इनका सम्बन्ध पाण्डवों की वंश परम्परा से रहा होगा कयोंकि कश्मीर में पाण्डवों के बहुत से खंडहर प्राप्त हुए हैं। कल्हण ने अपनी कृति में ऐसे केवल आठ राजाओं का उल्लेख अनुमान के आधार पर किया है। इनके नाम हैं लव,कुश, खाजेन्द्र, सुरेन्द्र, गोधारा, सुवर्ण, जनक और शचीनार। बडशाह के राजत्वकाल में इन अज्ञात राजाओं पर शोध के बाद श्रीवर ने ‘जैन-राजतरंगिणी’ में केवल तीन ऐसे राजाओं का उल्लेख किया है। इनके नाम हैं हरणदेव, भीमसेन तथा संदिमान। इनमें से अन्तिम के नाम पर ’संदिमाननगर’ बसा हुआ था ।कहा जाता है कि इन्होंने अपने राज्य का विस्तार गांधार से कनौज तक किया था।

भारत के समकालीन ऐतिहासिक तथ्यों से हमें जिन राजाओं की सही जानकारी प्राप्त होती है, उनमें मगध के सम्राट अशोक का नाम सर्वोपरि है ।चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार इन्होंने कश्मीर में बौद्ध-धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए पांच हजार बौद्ध-भिक्षु भेजे थे।अशोक को श्रीनगर की राजधानी ‘पुराणादिष्ठान:’ (वर्तमान पांद्रेठन) बसाने का श्रेय प्राप्त है। इनके राजत्वकाल में यहां ६६ हजार मकान थे ।बौद्ध-धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए इन्होंने यहां कई बौद्ध-विहारों का निर्माण किया था। बौद्ध-धर्म के वे प्रशंसक थे। कहा जाता है कि वे वर्ष में एक बार हरमुकट गंगा जाकर भगवान शिव की पूजा करते थे। इन्होंने विजेश्वर (वर्तमान बिजबिहारा) में दो भव्य मंदिरों का निर्माण कर इन्हें भगवान् शिव को समर्पित किया था। इस समय स्मृतिस्वरूप पुराणा दिष्ठान: में इनका बनाया एक जीर्णप्राय बौद्धविहार विधमान है।

५ वीं शती में हूण आक्रान्ताओं ने उत्तरी-भारत पर आक्रमण किया। इनमें मिहिरकुल का नाम सर्वोपरि है ।इन्होंने पीरपांचाल दर्रे को पार करके कश्मीर-घाटी में प्रवेश किया। दरअसल, तोरमाण भारत वर्ष पर आक्रमण करने वाला चीन से आने वाले हूणों का नेता था जिसने 500 ई के लगभग मालवा पर अधिकार किया था। मिहिरकुल तोरमाण का ही पुत्र था, जिसने हूण साम्राज्य का विस्तार अफ़ग़ानिस्तान तक किया। तोरमाण ने कई विजय अभियान किये थे, एक बड़े विस्तृत भू-भाग पर अपना साम्राज्य स्थापित किया था। अपनी विजयों के बाद उसने 'महाराजाधिराज' की उपाधि धारण की थी। भारत के काफ़ी बड़े क्षेत्रफल पर उसने अपनी विजय पताकाएँ फहराई थीं जिसमें कश्मीर भी शामिल था।उसका प्रभुत्व सम्भवत: मध्यप्रदेश की पहाड़ियों तथा मध्य भारत तक व्याप्त था। बहुत बड़ी संख्या में तोरमाण के चाँदी के सिक्के बरामद हुए हैं। इनके राजत्वकाल में कश्मीर की राजधानी सकाला (वर्तमान स्यालकोट) थीं ।ये एक निर्दयी राजा हुए हैं। इन्होंने कई बौद्ध-भिक्षुओं को निरपराध मार डाला। बौद्ध विहार और स्तूप नष्ट करवाए ।इनके स्थान पर मंदिरों का निर्माण कराया। कहा जाता है, एक बार इन्होंने पीर-पंचाल से एक हाथी को गिरते हुए देखा ।उसकी चिंघाड़ को सुनकर वे इतने खुश हुए कि इन्होंने उसी समय अपने मनोरंजन के लिए एक सौ हाथियों को उसी स्थान से गिराने का आदेश दे दिया। इसके बाद उनके पुत्र ने कश्मीर का शासन संभाला। ये बड़े कृपालु राजा हुए हैं। इन्होंने अपने पिता के प्रति जनता की कटु-स्मृतियों को दया एवं सौहार्द में परिवर्तित किया। इसी वंशपरंपरा के अन्य पांच राज हुए हैं-सीतानंद, वसुनन्द, नारा, अशोक तथा प्रतापदित्य। इनमेंसे अंतिम का एक पुत्र जलौक तथा पौत्र तुंजीन था। इनकी शासनावधि में कश्मीर की ललितकलाओं का अभूतपूर्व विकास हुआ।

राजतरंगिणी में ऐसे कई राजाओं का उल्लेख मिलता है जिन्होंने जनता की काफी सेवा की है ।इनमें गोपादित्य के पुत्र मेघवाहन का नाम उल्लेखनीय है। इन्होंने असम के राजा की पुत्री अमृतप्रभा के साथ विवाह किया था। उसने एक पुत्र को जन्म दे दिया जिसका नाम श्रेष्ठसेन था।उसके दो पुत्र हुए।एक का नाम था तनुजा तथा दूसरे का प्रवरसेन ।ये दोनों कार्यकुशल राजा थे। तनुजा के दो पुत्र थे, तोरमान और हिरण्य ।इनमे से पहले तोरमान ने कश्मीर का शासन संभाला ।तोरमान का जो लड़का हुआ, वह अपने चाचा के नाम पर प्रवरसेन-१ कहलाया। प्रवरसेन-१ कारकोट वंश परम्परा से सम्बन्ध रखते थे। अपने पूर्वजों का राज वापस लेने के उद्देश्य से इन्होंने मातृगुप्त के विरुद्ध कांगड़ा में सेना इकट्ठी की। बाद में इन्होंने कश्मीर राज्य का विस्तार भारत के उत्तरी सीमाओं तक किया।

कश्मीर-इतिहास में कारकोट वंशीय राजाओं की शासनावधि स्वर्ण-युग के नाम से अभिहित की जाती हैं। इस वंश परम्परा का शासन ६ वीं शती से शुरु होकर ८ वीं शती के मध्य तक स्थिर रहता है। इस वंश परम्परा से सम्बंधित जो लोकप्रिय राजा हुए हैं, उनमें चन्द्रपीड, ललितादिव्य मुक्तापीड, जयपीड तथा सुखवर्मन का नाम उल्लेखनीय है। चन्द्रपीड वीर एवं साहसी राजा थे ।कहा जाता है, उस समय चीन का राजा भी उनका नाम लेते डर जाता था। परन्तु सारे भारत में कारकोट वंश के यशकीर्ति की किरण प्रज्जवलित करने का श्रेय ललितादिव्य मुक्तापीड़ा को प्राप्त है।कश्मीर-इतिहास में इनको सर्वोच्च स्थान प्राप्त है ।अपने राजत्वकाल में इन्होंने सेना को पंजाब, गुजरात, मालवा, कठियाबाड तथा मेवाड तक तथा दूसरी ओर बिहार तथा बंगाल तक भेजा था। इसके अतिरिक्त इन्होंने कश्मीर राज्य का विस्तार तिब्बत और बद्खंशा तक किया ।कश्मीर-घाटी के नवनिर्माण में इनका अनुपमेय योग रहा है ।मटन में मार्तंड मंदिर का निर्माण तथा परिहासपुर (वर्तमान शादीपुर) का बसाना इन्हीं की देन है। कल्हण के अनुसार ललितादित्य ने यहाँ अपना निवास और चार मंदिरों का निर्माण कराया था। इन में से एक विष्णु मुक्तकेशव को समर्पित था, जिसमें 84.000 तोले सोने की प्रतिमा स्थापित की गई थी। इसी तरह के एक मंदिर में चांदी की एक प्रतिमा थी। उन्होंने एक भगवान बुद्ध की तांबे की प्रतिमा बनवाई जो "आकाश को छूती थी"।

ललितादित्य को हिन्दू-धर्म पर अविचल विश्वास था, परन्तु साथ ही साथ बौद्ध-धर्म पर भी श्रद्धा रखते थे। यही कारण है कि इन्होंने बौद्धों के भी कई विहार बनाये जिनमे उष्कर का बौद्ध-विहार उल्लेखनीय है।कलापरखी और विद्वान होने के कारण इनके शाही दरबार में कई विद्वान और कला प्रेमी मौजूद रहते थे।

कारकोट वंश के राजाओं के अवसान के बाद अवन्ति वर्मन ने यहां उत्पल वंश की स्थापना की।ये अवन्तिपुर नगर के निर्माता थे। इनके राजमहल में आनन्द वर्द्धन तथा रत्नाकर जैसे विद्वान मौजूद रहते थे।प्रसिद्ध इंजिनियर सुया, जिन्होंने कश्मीर को बाढ़ के आतंक से बचाने के लिए वितस्ता के तटों पर कई बांध बनाये, इनका एक दरबारी इंजिनियर था।वर्तमान सोपुर कस्बा सूया के ही नाम पर बसा हुआ है। अवन्ति वर्मन के पुत्र शंकर वर्मन भी एक सकुशल प्रशासक, राजनीतिक और सफल योद्धा थे।कहा जाता है, इनके पास ६ लाख से अधिक सेना थी।अपने राजत्वकाल में झेलम और चिनाब का मध्य क्षेत्र पुन: जीत लिया। यह सारा क्षेत्र कारकोट राजाओं के राजत्वकाल में विदेशियों ने अपने अधिकार में कर लिया था। इसके पश्चात ३४ वर्षों की कालावधि में लगभग दस उत्पल वंशीय राजाओं ने कश्मीर का शासन संभाला जिनमें शंकर वर्मन की पत्नी भी एक थीं।इसी कड़ी के अन्तिम राजा क्षेमगुप्त का उल्लेख भी मिलता है जो विलासी स्वभाव के थे।

क्षेमगुप्त के निधन के बाद उनके बेटे अभिमन्यु ने कश्मीर का शासन संभाला। मगर शासन की असली भागदौर उसकी माता दिद्दा के हाथों में थी।दिद्दा बहुत सुन्दर थी, लेकिन एक टांग से लंगड़ी थी। कश्मीर का शासन अन्तिम रूप से सँभालने की इच्छा से उसने अपने दो पौत्रों त्रिभुवन और भीमगुप्त का वध करवाया।दिद्दा लोहार वंश से सम्बन्ध रखती थीं।अपने राजत्वकाल में वह तुंग नामक एक चरवाहा से प्रेम करने लगी जिसको बाद में उसने कश्मीर का प्रधानमंत्री बनाया।अपना कोई सन्तान न होने के कारण उसने भाई के पुत्र संग्राम राज को कश्मीर का राजकुमार बनाया।वह एक सकुशल शासिका थीं।उसने ‘दिद्दमठ’ (वर्तमान दिद्दमर) का निर्माण किया।इसे लोग लंगड़ी और चुड़ैल रानी कहते थे, परंतु वह बहुत ही बहादुर और सुंदर थी। उसके चर्चे संपूर्ण भारत में थे। प्राचीन संस्कृत कल्हण ने कश्मीर के इतिहास की सबसे शक्तिशाली महिला शासक दिद्दा का उल्लेख किया है। कहते हैं कश्मीर के राजा क्षेमेन्द्र गुप्त एक बार आखेट पर निकले और उन्होंने एक बहुत खूबसूरत लड़की को देखा और वे उसे दिल दे बैठे, परंतु वह लड़की अपंग/लंगड़ी थी। राजा ने फिर भी उससे विवाह किया।लोहार राजवंश रानी दिद्दा बचपन में ही युद्ध कला में पारंगत हो गई थी और वह तरह-तरह के खेलों में भी निपुण थी। राजा क्षेमेन्द्र गुप्त ने जब पहली बार उसे देखा तो उसकी खूबसूरती पर मोहित होकर उससे विवाह कर लिया। बाद में रानी ने राजकाज में भी भागीदारी निभानी शुरू कर दी।दिद्दा बहुत ही तीक्ष्णबुद्धि वाली महिला थी और वह तथा उसके सैनिक गुरिल्ला युद्ध करना जानते थे। रानी बहुत ही चालाकी से जंग लड़ती थी इसीलिए उसे लंगड़ी रानी और चुड़ैल रानी भी कहा जाता था।मान्यता है कि जब कई राजा-महाराजा दिद्दा से हार गए तो उन्होंने अपनी शर्म को छुपाने के लिए दिद्दा को चुड़ैल कहना शुरू कर दिया जिसके चलते वह चुड़ैल रानी के नाम से प्रसिद्ध हो गई।यह भी मान्यता है कि जब दिद्दा के पति क्षेमेन्द्र गुप्त की मृत्यु हुई तो सत्ता हासिल करने के लिए उसके शत्रुओं ने उसे सती प्रथा का हवाला देकर सती करवाना चाहा परंतु दिद्दा बहुत ही चतुर थी उसने अपनी नीति के चलते क्षेमेन्द्र गुप्ता की पहली पत्नी को सती करवा दिया और अपनी शर्तों के बल पर राजगद्दी पर ताकतवर महिला बनकर बैठ गई और उसने लगभग 50 वर्षों राज किया।







संग्राम्राज के बाद जिन राजाओं ने कश्मीर का राजपाठ संभाला उनमें हर्ष का नाम उल्लेखनीय है।हर्ष एक सकुशल प्रशासक होने के साथ-साथ कलाप्रेमी और एक कवि भी थे। इनके दरबार में विद्वानों, कवियों एवं संगीतज्ञों की चहल-पहल हर समय समय रहती थीं। कश्मीरी संगीत में कर्नाटक-संगीत की शैलियों का सम्मिश्रण करने का श्रेय इन्ही को प्राप्त है। इन्ही के राजत्वकाल में कल्हण ने राजतरंगिणी की रचना की है। अपने राजत्वकाल के अंतिम दिनों में डामर कबीले के सरदारों ने उससे सत्ता छीनने की कोशिश की, परन्तु हर्ष ने इनको अपने पुरे युद्ध-कौशल से हराया। मगर दुर्भाग्य से ऐसे हमले बार-बार होते रहे।अन्त में हर्ष की सेना को मुँह की खानी पड़ी। इनका राजमहल नष्ट कर दिया गया।देश में अशांति फैल गयी।अन्त में जब इन्होंने कश्मीर से बाहर भागने की कोशिश की तो इनका वध कर दिया गया। इसके बाद डामर कबीले के सरदारों ने सत्ता अपने हाथों में ले ली। इन सरदारों में मुख्य थे उचल और ससुला इन दोनों ने लगभग २० वर्षों तक कश्मीर पर अपना एकाधिकार स्थापित किया।इसी बीच हर्ष के पौत्र भीक्षचार्य ने उनसे सत्ता हथियाने के कई प्रयत्न किये, परन्तु इनके सारे प्रयास असफल रहे।

कश्मीर में हिन्दू शासन के अन्तिम राजा जयसिंह हुए हैं।यह ससुल का पुत्र था। यद्दपि इनके बाद उपाध्याय, रामदेव आदि नरेशों ने कश्मीर का राजपाठ संभाला है, परन्तु इनके शासन-काल का तिथि निश्चित नही है।इनके सम्बन्ध में कहा जाता है कि कजाला नामक किसी तुर्की आक्रान्ता ने इन्हें मार डाला है।

जयसिंह की मृत्यु के बाद, कश्मीर की राजनीतिक स्थिति शान्ति पूर्ण नहीं रही।अब से लगभग दो शतियों तक किसी भी राजा ने स्थायी रूप से यहां का शासन नहीं संभाला। इसी कालावधि में उत्तरीय क्षेत्रों से आये कई मुसलमान आक्रान्ताओं ने कश्मीर पर अपने एकाधिकार स्थापित करने के प्रयत्न किये, किन्तु दुर्गम पहाड़ी रास्तों के कारण वे यहां प्रवेश नही कर पाये। लेकिन राजा सहदेव की गलत राजनीतिक नीतियों के कारण अब कश्मीर में विदेशियों का प्रवेश करना असंभव नहीं रहा। आखिर वह समय भी आया जब दिल्चू नामक एक विदेशी आक्रान्ता ने कश्मीर पर आक्रमण किया।अब्बुल फजल के अनुसार ये चंगेज खां के वंशज तथा कंधार के राजा के सेनाध्यक्ष थे। इधर स्वात के शाहमीर, तिब्बत के रेंचनशाह तथा दर्दिस्तान के लंकर चक्र यहां शरणार्थी बनकर आये।बाद में ये सहदेव के शाही दरबार में उच्च पदों पर बने रहे।दिल्चू आक्रान्ता के आक्रमण से सत्रस्त,सहदेव कश्मीर छोड़कर किशवाड़ चले आये। कश्मीर में इनके प्रधानमंत्री रामचंद्र की बेटी कोटा रानी ने शासन संभाला। इसने पर्शिया से आये उचल आक्रान्ता को कश्मीर से बाहर खदेड़ दिया। माना जाता है कि इसके लिए इसने रेंचनशाह से सहायता मांगी।बाद में इसने रेंचनशाह के साथ विवाह किया।रेंचनशाह एक सकुशल प्रशासक था।वह बुलबुलशाह नामक एक मुस्लिम दरवेश के हाथों इस्लाम-धर्म में दीक्षित हुए थे। इनके निधन के बाद सहदेव के भाई उदयन देव ने कश्मीर का शासन संभाला।कोटा रानी ने उसके साथ पुनर्विवाह किया। इनके राजत्वकाल में विदेशी आक्रान्ताओं ने कश्मीर पर पुनः आक्रमण किया। लेकिन इनको तुरंत खदेड़ कर बाहर भगाया गया।उदयनदेव की मृत्यु के बाद कोटा रानी ने स्वयं कश्मीर पर शासन किया।५० दिनों तक शासन करने के पश्चात शाहमीर ने जो कोटा रानी का मुख्यमंत्री भी था, सुलतान शम्सुद्दीन के नाम से कश्मीर पर अपना एकाधिकार स्थापित किया और ‘सलातीने-कश्मीर’नामक वंश परम्परा की नींव डाली।बाद में इसी वंश परम्परा के राजाओं ने २२२ वर्षों तक कश्मीर का शासन संभाला।कहना न होगा कि इसी कालावधि में कश्मीर में हमदान के मीर-अली सय्यद ने इस्लाम का प्रचार किया।

शाहमीरी वंश परम्परा के सुलतान सिकंदर ‘बुतशिकन’ और जैनुलाब्धीन ‘बडशाह’ के नाम कश्मीर के इतिहास में विशेष महत्व रखते हैं।इनमें से प्रथम को मूर्तिभंजक कहा जाता है क्योंकि वह मूर्ती-पूजा के विरोधी थे।कहते हैं कि इस क्रूर शासक ने यहां के अनेक मंदिरों और पूजास्थलों को गिराया।अनेक हिन्दुओं का नर-संहार किया जिसके फलस्वरूप उस समय यहां केवल ग्यारह हिन्दू-घर बच गये थे। परन्तु जनता पर किये गये अत्याचार की कटु-स्मृतियों को इस आतायी शासक के पुत्र जैनउलाब्दीन ‘बडशाह’ ने भुलवा दिया।इन्होंने अपने राजत्वकाल में यहां से भागे हुए हिन्दुओं को बाहर से बुलाकर घाटी में फिर बसाया।इनके शाही-दरबार में बहुत से कवि, विद्वान एवं नीति-निपुण मंत्री थे।श्रीभट्ट नामक वैद्य, जिसने उसकी जान बचायी थी,उनको अपना शिक्षा/स्वास्थ्य मंत्री बनाया।कश्मीर के नव-निर्माण में इन्होंने उल्लेखनीय कार्य किये है।इनके राजत्वकाल में कश्मीरी ललित कलाओंका प्रभूतपूर्व विकास हुआ।

शाहमीरी वंश के बाद चकों ने कश्मीर पर स्थायी रूप से अपना एकाधिकार स्थापित किया। इनमें युसुफशाह ‘चक’ का नाम उल्लेखनीय है। इन्होंने यहां की सुप्रसिद्ध कवयित्री हब्बाखातून के साथ विवाह किया था।बाद में मुग़ल सम्राट अकबर ने कश्मीर को अपने एकाधिकार में कर लिया। इनके पहले बाबर, हिमायूं आदि ने भी कश्मीर को हथियाने के असफल प्रयास किये थे। इस बीच मुगल बादशाहों का कश्मीर के नव-निर्माण में अनुपमेय रहा। कश्मीर के मुग़ल बाग-बगीचे इसी नव-निर्माण के सूचक हैं।

मुगलों के बाद अफगानों ने कश्मीर पर शासन किया।पठान सरदारों ने यहां के लोगों पर तरह-तरह के अत्याचार किये।इन्होंने कश्मीर के नव-निर्माण के प्रति कोई ध्यान नही दिया।इनके राजत्वकाल में यहां लगभग २८ राजाओं ने शासन की डोर संभाली। इनमें से एक हिन्दू भी था।उसका नाम सुखजीवन था। इनके कार्यकाल में यहां के हिन्दुओं को काफ़ी सुविधाएँ प्राप्त हुई।इसके अतिरिक्त इसी कालावधि में दीवान नंदराम तिक्कू नामक एक कश्मीरी पंडित काबुल का प्रधान मंत्री बन गया था। कुछ समय के लिए उसका नाम वहां के सिक्कों पर उत्कीर्ण था। पठानों के अन्तिम शासक का नाम था जबार खां।वह बड़ा ही क्रूर शासक था। उसी ने हिन्दुओं को शिवरात्रि का पर्व ग्रीष्मकाल में मनाने का आदेश दिया था।कहते हैं कि लोगों के प्रति जबार खां के नृशंस अत्याचार को देखकर, यहां का एक प्रतिनिधि मण्डल बीरबल दर मिर्जा के नेतृत्व में पंजाब के महाराजा रंजीतसिंह के पास सहायतार्थ गया।महाराजा रंजीतसिंह ने जबार खां को परास्त करने के लिए अमृतसर से एक विशाल सिक्ख-सेना कश्मीर भेजी।दोनों की सेनाओं का पीरपंचाल के दर्रे पर कड़ा मुकाबला हुआ, जिसमें सिक्ख सेना की विजय हुई और जबार खां मारे गये।इसके पश्चात सिक्खों ने कश्मीर पर लगभग छबीस २६ वर्षों(१८२०-१८४६) तक शासन किया।

१८४६ से लेकर १९४७ तक कश्मीर में पर डोगरा शासकों का आधिपत्य रहा।इस वंश के प्रथम राजा का नाम महाराजा गुलाबसिंह था।इन्होंने लाहौर-संधि के अंतर्गत ६ मार्च १८४६ ई. को अंग्रेजों से कश्मीर-घाटी को ६५ लाख रूपयों में खरीदा था।(कई जगह ७५ लाख का उल्लेख है।) ये बड़े वीर तथा उत्साही राजे हुए हैं।इन्होंने अपनी कार्यकुशलता से लद्दाख, तिब्बत तथा अन्य सीमावर्ती क्षेत्रों को अपनी राज्य में मिला दिया और वर्तमान जम्मू-कश्मीर की स्थापना की।महाराजा गुलाबसिंह के बाद उनके सुयोग्य पुत्र महाराजा रणवीरसिंह कश्मीर के राजा बने।इन्होंने अपने कार्यकाल में यहां कई मंदिरों का निर्माण किया। धर्मार्थ ट्रस्ट तथा रघुनाथ संस्कृत विद्यालय की स्थापना की तथा अनेक हस्तलिखित संस्कृत ग्रंथों का संकलन करवाया।इसके अतिरिक्त राज्य की आर्थिक स्थिति सुधारने में इन्होंने अनुपम योगदान प्रदान किया है। इनके पश्चात महाराज प्रतापसिंह ने कश्मीर का राजपाठ संभाला। इन्होंने ४० वर्षों तक यहां शासन किया।अपने राजत्वकाल में इन्होंने यहां शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ कई शिक्षण-संस्थाओं की स्थापना की।इसके अतिरिक्त इन्होंने बानिहाल कार्ट रोड, झेलम वैली रोड, शाली स्टोर, मोहरा विधुतघर आदि की स्थापना की। इनके निधन के बाद हरिसिंह कश्मीर के राजा बने।ये डोगरा वंश परम्परा के अन्तिम राजा हुए हैं। इन्होंने जनता के कल्याण के लिए उल्लेखनीय कार्य किये

सन १९४७ ई. में भारत का विभाजन होने पर नवगठित देश पाकिस्तान ने कश्मीर को हथियाने के लिए असफल प्रयास किया। इसी बीच महाराजा हरिसिंह ने कश्मीर राज्य का विलय भारत के साथ किया तथा अपने राजकीय अधिकार जनता के प्रतिनिधियों को सौंप दिये।सन १६५३ ई. तक शेख मोहम्मद अब्दुल्ला कश्मीर के पहले मुख्यमंत्री रहे।इनके पश्चात बक्शी गुलाम अहमद कश्मीर के नये प्रधानमंत्री बने।बाद में इन्होंने कामराज प्लान के अंतर्गत त्याग पत्र दे दिया।इनके पश्चात कुछ महीनों के लिए ख्वाजा शम्सुद्दीन कश्मीर के नये प्रधान मंत्री बने। इन्हीं के राजत्वकाल में हजरतबल से हजरत मोहम्मद के पवित्र बाल की चोरी हो गयी थी। बाद में गुलाम अहमद सादिक कश्मीर के मुख्यमंत्री बने। दिसंबर १६७१ ई. में इनकी मृत्यु के बाद सैयद मीर कासिम कश्मीर के नये मुख्यमंत्री बने रहे। सन १६७४ ई. में शेख-इंदिरा समझौते के अंतर्गत सैयद मीर कासिम ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया और शेख मोहम्मद अब्दुल्ला एक बार फिर कश्मीर के मुख्यमंत्री बने।

शेख अब्दुल्ला की मृत्यु हो जाने बाद उनके सुपुत्र डॉ. फारूक अब्दुल्ला राज्य के मुख्यमंत्री बने।कालान्तर में फारूक अब्दुल्ला के सुपुत्र उमर अब्दुल्ला ने राज्य के मुख्य-मंत्री का पद संभालाI गुलाम मोहम्मद शाह(गुल शाह),गुलाम नबी आज़ाद,मुफ़्ती मुहम्मद सैयद,उनकी सुपुत्री महबूबा मुफी आदि भी जम्मू-कश्मीर राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैंI

5 अगस्त २०१९ को भारत सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 370 की ताकतों को खत्म कर 31 अक्टूबर २०१९ से सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर प्रदेश को जम्मू-कश्मीर और लद्दाख इन दो अलग केंद्र-शासित राज्यों में विभाजित कर दिया। अब दोनों केंद्र-शासित राज्यों में संसद के बने कई कानून लागू हो सकेंगे।
सचमुच, पांच अगस्त २०१९ का दिन भारतीय इतिहास के पन्नों में स्वर्ण-अक्षरों में लिखा जायगा। जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा देने वाली संविधान की धारा ३७० को हटाने के प्रस्ताव को राज्य-सभा ने इसी दिन अपनी मंजूरी दे दी।

मोटे तौर पर धारा 370 हटने का मतलब है कि अब जम्मू-कश्मीर में अलग संविधान नहीं होगा। जम्मू-कश्मीर में अलग झंडा भी नहीं रहेगा। जम्मू-कश्मीर में देश के दूसरे राज्यों के लोग ज़मीन ख़रीद सकेंगे और नौकरी भी पा सकेंगे और इसी के साथ जम्मू-कश्मीर की विधानसभा का कार्यकाल 6 साल न हो कर 5 साल होगा। इस धारा के हटने से जम्मू-कश्मीर में उद्यमी अपने प्रतिष्ठान/उद्योग आदि लगा सकेंगे जिससे वहां के नागरिकों को विकास और रोजगार के नए-नए अवसर प्राप्त होंगे।वहां के नागरिकता कानून में विसंगति की वजह से लगभग छह दशकों से बिना किसी अधिकार के शरणार्थियों का जीवन जी रहे लाखों लोगों को बराबरी का दर्जा हासिल होगा। कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापसी की प्रक्रिया शुरू होगी। प्रदेश के बाहर शादी करने वाली कश्मीर की बेटियों को अपनी पैतृक संपत्ति में उनका जायज़ अधिकार हासिल हो सकेगा आदि-आदि।

Sunday, September 26, 2021





‘आलोकपर्व’ के अक्तूबर 2019 के अंक में प्रकाशित श्री जिया-उस-सलाम के इंटरव्यू को ध्यान से पढ़ गया। दरअसल, दुबई आते समय यह अंक अपने दिल्ली के दो-तीन दिनों के प्रवास के दौरान मुझे किसी मित्र ने पढ़ने के लिए दिया था।

इस इंटरव्यू को कवर-स्टोरी के तौर पर छापा गया है। इंटरव्यू निःसंदेह विचारोत्तेजक तो है पर कुछ पाठकीय विमर्श (टीका-टिप्पणी) भी लाज़िमी है।

यह सही है कि पत्रकारिता का प्रयोजन पाठक, श्रोता और दर्शक को उसके आसपास घट रही शुभ-अशुभ घटनाओं से परिचित कराना होता है। ‘अशुभ’ को ही हर समय परोसते रहने को कुछ पत्रकार-बंधु बेलाग अथवा निडर पत्रकारिता की संज्ञा देते हैं। व्यवस्था अथवा सरकार की कमजोरियों, उसकी गलत नीतियों अथवा उसके गलत निर्णयों की समीक्षा तो होनी चाहिए मगर अच्छे कामों की प्रशंसा भी उतनी ही लाजिमी है। मगर जिसकी फितरत ही टांग खींचने की हो, वह शख्स ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ की दुहाई देकर अपने दायित्वबोध से विमुक्त नहीं हो सकता। यह बताने कि जरूरत नहीं कि ऐसे पत्रकार सज्जन अपने किसी पूर्वाग्रह के तहत ऐसा कर रहे होते हैं ।

नोटबंदी से आतंकवाद पर लगाम लगी कि नहीं यह जानना उतना आवश्यक नहीं है जितना कि यह जानना कि नोटबंदी से कुल मिलाकर देश को कितना लाभ हुआ? सूत्र बताते हैं कि भारत में पहली बार वर्ष 1946 में 500, 1000, और दस हजार रुपये के नोटों की नोटबंदी की गई थी। जनवरी, 1978 में जब मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री थे, तब 1000, 5000, और 10000 के नोटों को पुनः बंद किया गया था। भारत में 2005 में मनमोहन सिंह की सरकार ने भी 2005 से पहले के 500 के नोटों को बदलवा दिया था।

जब यूरोपियन यूनियन बना तब उन्होंने यूरो नाम की नई करेंसी चलाई थी तब सारे पुराने नोट बैंकों में जमा करवाए गये थे। यूरोप में हुई इस नोटबंदी ने यूरोप में बवाल मचा दिया था। जिम्बाब्वे में भी महंगाई से बचने के लिए 2015 में नोटबंदी का प्रयोग किया गया था।गर्ज़ यह कि नोटबंदी कोई नया प्रयोग नहीं है। कई देशों ने अपनी माली हालत सुधारने के लिए समय-समय पर ऐसे प्रयोग किया हैं। इतना जरूर है कि भारत में पहले भी नोटबंदी हुई थी परंतु वह इतने विवाद का विषय नहीं बनी।

इस में कोई संदेह नहीं कि भ्रष्टाचार को रोकना, कालाधन समाप्त करना, नकली-नोट बंद करना, मंहगाई रोकना और आतंकवादी गतिविधियों पर काबू पाने के लिए ही नोटबंदी का उपयोग किया जाता है। देश में कई देश-विरोधी ताकते होटी हैं। वे काले धन को छुपाकर रखते हैं। इसी धन को आतंकवादी गतविधियों को अंजाम देने के लिए किया जाता है।देश में हुई नोटबंदी के कारण भ्रष्टाचारियों को अपना छिपाया हुआ काला धन सरकार को समर्पित करना पड़ा, कई लोगों ने इन्हें जला दिया और कइयों ने तो नदी या नाले में फेंक दिया।

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी की नोटबंदी की घोषणा को विपक्ष ने असफलता और देश के पिछड़ने की वजह बताया लेकिन प्रधानमंत्री जी अपने फैसले पर अड़े रहे। विपक्षी इस तरह से नोटबंदी का विरोध कर रहा था मानो उन्होंने अपने पास बहुत सारा काला धन छुपा कर रखा हुआ हो। सरकार अपने फैसले पर कायम रही और लोगों से संयम बरतने की अपील की।

सभी जानते हैं कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। अगर नोटबंदी की हानियाँ हैं तो कुछ फायदे भी हैं। नोटबंदी नहीं होती तो भारत में कभी भी आर्थिक जागरूकता नहीं फैलती। नोटबंदी के बाद अब प्रायः सभी लोग ऑनलाईन/डिजिटल पेमेंट करने लगे हैं। यहाँ तक की चायवाला, ढाबेवाले आदि अब ऑनलाईन भुगतान करवाते हैं । यह नोटबंदी की एक बहुत बड़ी उपलब्धि है।

इसी के साथ नोटबंदी की वजह से नकली नोट छापने का काम भी बंद हो गया है जिसकी वजह से देश से नकली नोटों की बहुत बड़ी मात्रा बेमानी हो गई है। नोटबंदी की वजह से ही कश्मीर का मुद्दा कुछ समय के लिए शांत भी हो गया। पत्थरबाज़ों में काले धन का बंटना बंद हो गया। चाहे कोई माने या न माने नोटबंदी ने कश्मीर में आतंकवाद की कमर अवश्य तोड़ डाली है। कुछ तो सुरक्षा बलों की एक्स्ट्रा मुस्तैदी ने तोड़ी और कुछ ईडी के छापों ने। जिनको ये बातें नहीं माननी वे कभी नहीं मानेंगे!

अंत में एक बात का उल्लेख यहाँ पर करना जरूरी है। अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के फायदे भी अब सामने आने लगे हैं। लगभग तीन दशक पूर्व जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन गवर्नर श्री जगमोहन ने उस समय के पूर्व प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी को अनुच्छेद 370 के बारे में आगाह किया था कि संविधान में जोड़ा गया यह अनुच्छेद घाटी में अमीरों/ सत्ताधीशों के हितों की रक्षा अधिक करता है और गरीबों के हितों की अनदेखी ज़्यादा करता है। इसी लिए प्रदेश के सत्ता और धन-लोलुप राजनेता और नौकरशाह इसे हटाने के पक्ष में कतई नहीं हैं। अब जैसे ही अनुच्छेद 370 हट गया तो सारे ऊंट पहाड़ के नीचे आ गए।

रोशनी एक्ट इस बात का गवाह है कि कैसे इस एक्ट की आड़ में कश्मीर के हुक्मरान,सत्ताधीश, मठाधीश और धनाधीश सरकारी ख़ज़ाने में सेंधमारी कर रहे थे और गरीबों का हक छीन रहे थे! आगे और भी कई सारे दुष्कर्म सामने आएंगे इन सत्ताधीशों के। कुल मिलाकर सत्ता पर जब तक ये भद्रजन काबिज़ रहते हैं तो सब ठीक होता है और कश्मीर भारत का अभिन्न अंग होता है। सत्ता छिन जाते ही ये भद्रजन छाती कूटने लगते हैं और विखंडन की बातें करने लगते हैं। यही हाल चाटुकार नौकरशाहों और मीडिया/पत्रकारों का भी है।

Sunday, August 1, 2021







भारतीय संस्कृति का पावन पर्व कृष्ण-जन्माष्टमी

डा० शिबन कृष्ण रैना

हमारा देश सांस्कृतिक दृष्टि से एक समृद्ध देश है। इसकी वैविध्यपूर्ण संस्कृति हमारे विभिन्न त्योहारों और पर्वों में झलकती है।यहाँ होली, दीवाली, दशहरा, पोंगल, महाशिवरात्रि, क्रिसमस, ईद इत्यादि अनेक त्योहार और पर्व मनाए जाते हैं।भारतवासी ये त्योहार पूर्ण उत्साह और धूमधाम से मनाते हैं। हमारे इन सभी त्योहारों और पर्वों में कृष्ण जन्माष्टमी का त्यौहार विशेष महत्व रखता है। इस वर्ष ३० अगस्त को कृष्ण-जन्माष्टमी का पर्व मनाया जा रहा है। जन्माष्टमी अथवा कृष्ण-जन्माष्टमी प्रभु श्रीकृष्ण पर आस्था रखने वाले भक्तजनों के लिए एक बहुत बड़ा दिन होता है।

पौराणिक ग्रथों के अनुसार भगवान विष्णु ने इस धरती को पापियों के अन्यायों से मुक्त कराने के लिए श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया था।मान्यता है कि आज से लगभग पाँच सहस्त्र वर्ष पूर्व कृष्ण का जन्म मथुरा में हुआ था । पौराणिक कथा के अनुसार देवकी कंस की बहन थी और कंस मथुरा का राजा था। उसने मथुरा के राजा और अपने पिता अग्रसेन को जेल में बंदी बना लिया था और खुद राजा बन गया था। कंस ने अपनी बहन देवकी का विवाह अपने मित्र वसुदेव के साथ कराया था ।

कंस बहुत ही अत्याचारी राजा था। जब वह अपनी बहन देवकी को विवाह के बाद रथ पर उसे उसकी ससुराल छोड़ने जा रहा था तब एक आकाशवाणी हुई : ‘ जिस बहन को तुम इतने प्यार से विदा कर रहे हो, उसकी आठवीं संतान तुम्हारी मौत का कारण बनेगी ‘। इस आकाशवाणी को सुनकर कंस घबरा गया था।

उसने अपनी बहन और उसके पति को कारागार में बंद कर दिया। देवकी के सात पुत्र हुए लेकिन कंस ने उन्हें एक-एक कर के निर्दयतापूर्वक मार दिया। जब देवकी के आठवें पुत्र का जन्म हुआ तब कारागार के सारे पहरेदार सोये हुए थे। वसुदेव अपने बच्चे को पास ही के गाँव गोकुल के नन्द बाबा के घर छोड़ आये और उनकी लडकी को लेकर लौट आये।

जब सुबह हुई तो वासुदेव ने उस कन्या को कंस को सौंप दिया । कंस ने जैसे ही मारने के लिए उसे पत्थर पर पटका तो वह लडकी उडकर आकाश में चली गई और जाते-जाते उसने कहा कि तुझे मारने वाला अभी जीवित है और वह गोकुल पहुंच चुका है। इस आकाशवाणी को सुनकर कंस बहुत परेशान हुआ।उसने कृष्ण को मारने के लिए बहुत प्रयत्न किये। उसने बहुत से राक्षसों को जैसे – पूतना , बकासुर आदि को कृष्ण को मरने के लिए भेजा लेकिन कोई भी कृष्ण को मार नहीं पाया। श्रीकृष्ण ने सभी की हत्या कर दी । कालान्तर में कंस स्वयं काल का ग्रास बन गया और श्रीकृष्ण ने अपने माता-पिता को कारागार से मुक्त कराया।बाद में श्रीकृष्ण ने अपना बालपन नन्द बाबा और यशोदा मैया के यहाँ ही बिताया।

जन्माष्टमी कई जगह अलग-अलग तरीकों से मनाई जाती है। जन्माष्टमी के पर्व पर झाकियों के रूप में श्रीकृष्ण के मोहक स्वरूप देखने को मिलते है। मंदिरो को इस दिन खूब सजाया जाता है और कई लोग इस दिन व्रत भी रखते है। जन्माष्टमी के दिन मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण को झूले में झुलाया जाता है। जन्माष्टमी के दिन प्रात:काल लोग अपने घरों को साफ करके मन्दिरों में धूप और दीये जलाते हैं । इस दिन लोग उपवास भी रखते हैं । मन्दिरों में सुबह से ही कीर्तन,भजन, पूजा पाठ, यज्ञ, वेदपाठ, कृष्ण-लीललाएं आदि प्रारम्भ होती हैं ।जन्माष्टमी पर प्रायः मन्दिर चार-पांच दिन पहले से ही सजने प्रारम्भ हो जाते हैं । इस दिन मन्दिरों की शोभा अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच जाती है । बिजली से जलने वाले रंगीन बल्बों से मन्दिरों को सजाया जाता है ।

श्रीकृष्ण को माखन दूध,दही काफी पसन्द था जिसकी वजह से ऐसा कहा जाता है कि वे पूरे गांव का माखन चोरी करके खा जाते थे। एक दिन उन्हें माखन-चोरी करने से रोकने के लिए उनकी मां यशोदा को उन्हें एक खंभे से बांधना पड़ा और इसी वजह से भगवान श्रीकृष्ण का नाम ‘माखन-चोर’ भी पड़ा।

वृन्दावन में महिलाओं ने मथे हुए माखन की मटकी को ऊंचाई पर लटकाना शुरू कर दिया जिससे कि श्रीकृष्ण का हाथ वहां तक न पहुंच सके, लेकिन नटखट कृष्ण की समझदारी के आगे उनकी यह योजना भी व्यर्थ साबित हुई । माखन चुराने के लिए श्रीकृष्ण ने अपने दोस्तों के साथ मिल कर एक-दूसरे के कंधे पर चढ़कर योजना बनाई और साथ मिलकर ऊंचाई में लटकाई मटकी से दही और माखन चुरा लिया। वही से प्रेरित होकर ‘दही-हांडी’ का खेल शुरू हुआ ।

भगवान श्रीकृष्ण प्रेम और माधुर्य के प्रतीक हैं। ऐसे जननायक भगवान श्रीकृष्ण के जन्म का उत्सव भारत समेत दुनिया के अनेक देशों में मनाया जाता है। भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन भगवान कृष्ण का जन्मोत्सव तो मनाया ही जाता है, इस दिन व्रत रखने का अपना महत्व है। मान्यता है कि जन्माष्टमी का व्रत रखने से व्यक्ति को सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है। जैसा कि पहले खा जा चुका है कि इस दिन सभी मंदिरों का श्रंगार किया जाता है। घर-घर में झूला और श्रीकृष्ण की झांकी सजाई जाती है। रात को बारह बजे श्री कृष्ण का जन्म होते ही शंख और घंटों की आवाज से सारे मंदिरों और सकल दिशाओं में श्री कृष्ण के जन्म की सूचना से दिशाएं गूंज उठती हैं। इसके बाद भगवान कृष्ण को झूला झुलाकर आरती की जाती है और प्रसाद वितरण किया जाता है। प्रसाद ग्रहण करने के बाद ही व्रत खोला जाता है।

मन्दिरों में देवकी-वसुदेव-कारागार और कृष्ण हिण्डोला आदि झांकियां विशेष आकर्षण के केन्द्र होती हैं । सभी भक्तगण हिण्डोले में रखी कृष्ण प्रतिमा को झुलाकर जाते हैं । श्रीकृष्ण के जन्म-स्थल मथुरा और वृन्दावन में मन्दिरों की शोभा अद्वितीय होती है । भक्तगणों का सुबह से तांता लगा रहता है । जो अर्धरात्रि तक थामे नहीं थमता ।

श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व में ऐसे गुण थे, जिसके कारण वे हिन्दुओं के महानायक बने ।उन्होंने गरीब मित्र सुदामा से मित्रता निभाई, दुराचारी शिशुपाल का वध किया, पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में आने वाले अतिथियों के पैर धोए और जूठी पत्तलें उठाईं, महाभारत के युद्ध में अपने स्वजनों को देखकर विमुख अर्जुन को आत्मा की अमरता का संदेश दिया, जो हिन्दुओं का धार्मिक ग्रंथ ‘श्रीमद्‌भगवतगीता’ बना ।

यही ग्रंथ आज हमारे देश की सांस्कृतिक और दार्शनिक परम्परा की आधारशिला है।उन्हीं श्रीकृष्ण की प्रशंसा में ‘भगवत् पुराण’ समेत अनेक नाटक और लोकगीत लिखे गए हैं जो आज भी मन्दिरों में गाये जाते हैं ।कविवर सूरदास ने प्रभु श्रीकृष्ण कि स्तुति में और उनके बाल-वर्णन में जो सुंदर पद रचे हैं वे विश्व-साहित्य की अनूठी धरोहर है ।

प्रभु श्रीकृष्ण का चरित्र हमें लौकिक और आध्यात्मिक शिक्षा देता है । गीता में उन्होंने स्वयं कहा है कि व्यक्ति को मात्र कर्म करना चाहिए फल की इच्छा नहीं रखनी चाहिए ।‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ अर्थात श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि हे मनुष्य! तेरा अधिकार कर्म करने पर ही है, उसके फल पर नहीं।इसलिए तू फल की दृष्टि से कर्म मत कर और न ही ऐसा सोच कि फल की आशा के बिना कर्म क्यों करूं?

अंत में,जब-जब संसार में कष्ट ,पाप, अनाचार और भ्रष्टाचार बढ़ता है तब-तब उसे खत्म करने के लिए कोई-न-कोई बड़ी शक्ति या महापुरुष भी जरुर जन्म लेता है जो पाप और पापी का नाश करता है।कृष्ण जन्माष्टमी पर हमें यह संकल्प करना चाहिए कि हम हमेशा सत्कर्म करते रहें और दीन-दुखियों की तनमन से सेवा करें ।