Sunday, January 30, 2022



Har Bhatt (Zadu)Shastri.

Most of the patriots and freedom fighters who sacrificed their lives in the Indian independence movement have found a place in our history and historians have highlighted their contribution sufficiently. But there are some freedom lovers and martyrs who could not find a place in history. The reasons may be anything, but it would not be unreasonable to remember them and pay tribute to them, more especially, when the 'Amrit Mahotsav of Independence’ is being celebrated in the country.

Late Jagadhar Jadu, a well-known professor of the Kashmiri Pandit community, was a famous researcher and scholar of Sanskrit. He was the first Kashmiri scholar to work with Japanese and Russian scholars. Dinanath Jadu and Kantichandra Jadu were born in 1916 and 1918 respectively to the same promising and intellectual Kashmiri Pandit. Dinanath Jadu was a captain in the Azad Hind Fauj (INA) and fought bravely in Malaysia. He died in India in 1986. The second brother, Kantichandra Jadu, is believed to have been the personal secretary of Netaji Subhas Chandra Bose. It is also alleged that Kantichandra Jadu was on board the same plane that mysteriously crashed in the year 1945 due to which both Subhash Chandra Bose and Kantichandra Jadu died. Broadly speaking, the Jadu family of Kashmir has always been courageous and nationalistic in its approach and conduct. There is one more example. Krishna Misri (Jadu) had registered herself as a volunteer in the women's wing of the 'National Militia' during the Pakistani-backed tribal (Kabayili) invasion on Kashmir in October 1947. In fact, it was a woman wing of Self-Defense attributed to the National Conference. This wing was also known as the 'Women Self Defense Corps' (WSDC). During the Pakistan-backed tribal attack on Kashmir in 1947, this wing did a remarkable job in which the contribution of Krishna Misri(Jadu) cannot be forgotten. Krishna should have been a teenager of only 13 or 14 years at the time of the tribal attack on Kashmir but her selfless service for the people of Kashmir at the time of turmoil never got unnoticed.

There is one more example from the Jadu dynasty. And that example is the patriotism and sacrifice of the late Pushkarnath Jadu. Pushkar Nath Jadu was born on 15th April 1928 to Pt. Vasudev Jadu and Smt. Devaki Jadu. His father was an engineer in the Government of Jammu and Kashmir. Pushkarnath did his graduation from Amar Singh College, Srinagar. Science was his main subject. He was influenced by the leftist ideology. In that era, some enthusiastic and nationalist youth of Srinagar-Kashmir had formed an organization called 'Progressive Group'. Later, this group established a 'Peace Brigade' as a front-line force to counter the Trible Raid on Kashmir. Some volunteers led by Pushkarnath Jadu went to Handwara to stop the march of the tribal invaders. These young men had almost nothing in the name of weapons at their disposal. Still, they did not give up. Once the Indian Army units started arriving at the request of the then Maharaja Of J&K, Pushkarnath and other nationalist youths started assisting and giving logistic support to these units in the Handwara-Kupwara-Teetwal region. Since Pushkarnath was familiar with the local language and environment, seeing his hard work, dedication and capability, the administration entrusted him with the important responsibility of collecting local information, intelligence reports and other relevant inputs. He was posted to the Teettwal front. Here, while performing his duty, in July 1948, this untold, unknown and unsung hero, laid down his life for the pride and glory of his motherland Kashmir and thus became a great martyr to the nation and to the Kashmiri Pandit Community in particular.

Needless to mention here my wife Hansa Zadu has a close family relationship with this legendary family. She is the granddaughter of the great Shaivite and Sanskrit Scholar Late Har Bhatt (Zadu)Shastri. It may not be out of context to highlight the contribution of this great scholar here briefly: Har Bhatt Zadu was born in 1874 in a family that had produced some of the topmost Sanskrit scholars of Kashmir. His father Pandit Keshav Bhatt Zadu was the Royal Astrologer in the Court of Maharaja Ranbir Singh, the then ruler of Jammu and Kashmir who was a great patron of scholars and scholarship. Har Bhatt Shastri (Zadu) worked as Pandit at the Oriental Research Department of Jammu and Kashmir state, a post from which he retired in 1931.

Har Bhatt’s sharp intellect, his great erudition, and, especially his deep insight into the Shaiva philosophy of Kashmir won him the esteem of such distinguished scholars as K. C. Pandey of Lucknow University and Prof James H. Wood of the College of Oriental Languages and Philosophy, Bombay. His repute attracted the well-known linguist Prof Suniti Kumar Chatterji to him and he stayed in Srinagar for two years to learn the basics of the monistic philosophy of Kashmir Shaivism from him.

It was only after David B. Spooner came from the USA to Kashmir to learn from scholars like Har Bhatt and Nitya Nand Shastri that Sanskrit began to be taught as a subject at Harvard University in 1905.

This "celebrated scholar of Shaiva lore", one of the greatest interpreters of the Shaiva philosophy of Kashmir, passed away in 1951. His illustrious American disciple, Dr. Spooner, often wrote letters to him paying reverence to Har Bhatt and holding him in high esteem as always.

Monday, January 17, 2022




बत्तीस साल की जलावतनी 
हमारा देश धर्म-निरपेक्ष देश है। कितना है और कब से है, यह शोध का विषय है। मिलजुल कर रहना और एक दूसरे के सुख दुःख में शामिल होना कौन नहीं चाहता? सभी समुदायों में, सभी धर्मावलम्बियों और सम्प्रदायों में सौमनस्य बढ़े और धार्मिक उन्माद घटे, आज की तारीख में समय की मांग यही है। मगर यह तभी सम्भव है जब सभी धर्मानुयायी ऐसा मन से चाहेंगे। लगभग ३२ वर्ष पूर्व कश्मीर में पंडितों के साथ जो अनाचार और तांडव हुआ उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। घाटी में उनके साथ रोंगटे खड़ी करने वाली जो बर्बरतापूर्ण घटनाएं हुईं, उन्हें कश्मीरी पंडित समाज अब तक भूला नहीं है। आज अधिकांश पंडित-समुदाय अपने ही देश में बेघर हुआ शरणार्थियों का जीवन व्यतीत कर रहा है।

बत्तीस साल की जलावतनी और वह भी अपने ही देश में! यानी लगभग तीन दशक से ऊपर! बच्चे जवान हो गए,जवान बुजुर्ग और बुजुर्गवार या तो हैं या फिर 'त्राहि-त्राहि' करते देवलोक सिधार गए।कैसी दुःखद/त्रासद स्थिति है कि नयी पीढ़ी के किशोरों-युवाओं को यह तक नहीं मालूम कि उनका जन्म कहाँ हुआ था?उनकी मातृभूमि कौन-सी है?बाप-दादाओं से उन्होंने जरूर सुना है कि मूलतः वे कश्मीरी हैं, मगर 1990 में वे बेघर हुए थे।सरकारें आईं और गईं मगर किसी भी सरकार ने उनको वापस घाटी में बसाने की मन से कोशिश नहीं की। की होती तो आज विस्थापित पंडित घाटी में लस-बस रहे होते। सरकारें जांच-आयोग तक गठित नहीं कर पाईं ताकि यह बात सामने आ सके कि इस देश-प्रेमी समुदाय पर जो अनाचार हुए,जो नृशंस हत्याएं हुईं या फिर जो जघन्य अपराध किए गए, उनके जिम्मेदार कौन हैं? दर-दर भटकने को मजबूर इस कौम ने अपनी राह खुद बनायी और खुद अपनी मंजिल तय की।लगभग तीन दशकों के निर्वासन ने इस पढ़ी-लिखी कौम को बहुत-कुछ सिखाया है।स्वावलम्बी,मजबूत और व्यवहार-कुशल बनाया है।जो जहां भी है,अपनी मेहनत और मिलनसारिता से उसने अपने लिए एक जगह बनायी है।बस,खेद इस बात का है कि एक ही जगह पर केंद्रित न होकर यह छितराई कौम अपनी सांस्कृतिक-धरोहर शनै:-शनै: खोती जा रही है।समय का एक पड़ाव ऐसा भी आएगा जब विस्थापन की पीड़ा से आक्रान्त/बदहाल यह जाति धीरे-धीरे अपनी पहचान और अस्मिता खो देगी।नामों-उपनामों को छोड़ इस जाति की अपनी कोई पहचान बाकी नहीं रहेगी। हर सरकार का ध्यान अपने वोटों पर रहता है। उसी के आधार पर वह प्राथमिकता से कार्य-योजनाओं पर अमल करती है और बड़े-बड़े निर्णय लेती है। पंडित-समुदाय उसका वोट-बैंक नहीं अपितु वोट पैदा करने का असरदार और भावोत्तेजक माध्यम है।अतः तवज्जो देने लायक भी नहीं है।



सरला भट नाम की नर्स से आतकंवादियों द्वारा सामूहिक बलात्कार किया गया और बाद में उसके शरीर को चीर कर कैसे सरे बाज़ार घुमाया गया, यह बात मैंने सुन रखी थी। आज किसी ने वह चित्र मुझे भेजा जिसे देख मेरा कलेजा मुंह को आ गया। धर्मनिरपेक्षता और मानवाधिकार के अलम्बरदारों के मुंह पर तमाचा जड़ने वाला तथा आँखों में आंसू लाने वाला यह चित्र प्रस्तुत है। सरला भट सच्ची देश भक्तिन थी। सुना है उसने सुरक्षा कर्मियों को आतंकियों के ठिकानों का पता बताया था जिसकी कीमत उसे बेदर्दी के साथ चुकानी पड़ी। सरकार से मेरा अनुरोध है कि वीरगति को प्राप्त हुयी कश्मीर की बहादुर बेटी सरला भट के उत्सर्ग और उसकी राष्ट्रभक्ति को ध्यान में रखते हुए उसे मरणोपरांत दिए जाने वाले किसी उपयुक्त अलंकरण से नवाज़ा जाना चाहिए। कश्मीर की इस देशभक्त वीरांगना (बेटी)के नाम पर कोई स्मारक भी बने तो लाखों पंडितों की आहत भावनाओं की कदरदानी होगी.

सरला भट तुझे सलाम! कश्मीर की बेटी तुझे सलाम!!

Saturday, January 15, 2022


संगीत-जगत के सिरमौर प्रसिद्ध गायक कुंदनलाल सहगल

संगीत-जगत के सिरमौर प्रसिद्ध गायक कुंदनलाल सहगल की आज (१८ जनवरी) पुण्य-तिथि है।उनकी गायकी का कौन कायल नहीं होगा! मैं भी उनका कायल हूँ। उनके द्वारा गाए लगभग सभी गीत/भजन/गजलें मेरे पास हैं। आज से लगभग ५० वर्ष पूर्व मैं सहगल साहब के गानों के दो एल.पी. रिकॉर्ड खरीद लाया था।तब ग्रामोफ़ोन से ये रिकॉर्ड बजते और सुने जाते थे। ‘बालम आय बसो मेरे मन में, ‘इक बांग्ला बने न्यारा’, ‘जब दिल ही टूट गया’, ‘गम दिए मुस्तकिल,’ ‘सो जा राजकुमारी,’ ‘ऐ कातिबे तकदीर’--–आदि गाने सहगल साहब की गायिकी के लाजवाब नमूने हैं। कुंदन लाल सहगल अपने चहेतों के बीच के.एल सहगल के नाम से मशहूर थे।ऐसे सुपरस्टार, जो गायक भी थे अभिनेता भी।

सहगल साहब का जन्म 11 अप्रैल 1904 को जम्मू के नवाशहर में हुआ था और बाद में यह परिवार जालंधर में रहने लगा था। इनके पिता अमरचंद सहगल के दो बेटे थे: रामलाल और हज़ारीलाल। तीसरे का नाम रखा गया कुंदन लाल। सवा महीना बीता तो कुंदन की मां केसर बाई अपनी देवरानी के साथ पहली बार घर से निकलीं। तवी नदी के किनारे दोनों ने स्नान किया और पास में बनी मजार पर सलमान यूसुफ़ पीर के चरणों में कुंदन को रख दिया।यूसुफ़ पीर एक पहुंचे हुए सूफी पीर और सूफी संगीत के ज्ञाता थे। कुंदन रोने लगा तो माँ केसर बाई चुप कराने लगी।पीर ने रोक दिया। कहा, ‘उसे रोने दो। रोने से बच्चे का गला खुलता है, फेफड़े मज़बूत होते हैं। ’ कुछ देर के बाद उन्होंने कहा: ‘यह बच्चा अपनी मां की तरह ही गायन के सुरीले संस्कार लेकर पैदा हुआ है। एक दिन यह बड़ा गायक जरूर बनेगा।‘

कुंदन बचपन से ही अपनी मां को रोज़ सुबह भजन गाते देखते था। रात को उनसे लोरी सुनता तभी नींद आती। स्कूल जाने की उम्र हुई तो पढ़ाई में मन नहीं लगा लेकिन गाना सुनाने को कहो तो तैयार रहते। जंगल में चिड़िया का चहचहाना सुनते, गडरियों के लोकगीत सुनते, मजार पर जो सूफी गीत गूंजते,उन्हें मन लगाकर सुनते , घऱ में भजन आदि। बड़े होने लगे तो मां के गाए भजनों को हू-ब-हू वैसे ही गाकर सुनाने लगे। जीवन के आखिरी दिनों तक कुंदन धार्मिक रहे। रोज सुबह उठकर हार्मोनियम लेकर बालकनी में बैठ जाते और दो भजन गाते – “उठो सोनेवालो सहर हो गई है, उठो रात सारी बसर हो गई है” और “पी ले रे तू ओ मतवाला, हरी नाम का प्याला.”

हर कलाकार की तरह ही सहगल साहब को शोहरत की बुलंदियों तक पहुंचने में बहुत संघर्ष करना पड़ा। सहगल की प्रारंभिक शिक्षा बहुत ही साधारण तरीके से हुई थी। उन्हें अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ देनी पड़ी थी और जीवन-यापन के लिए उन्होंने रेलवे में टाईमकीपर की मामूली नौकरी की। बाद में उन्होंने रेमिंगटन नामक टाइपराइटिंग मशीन की कंपनी में सेल्समैन की नौकरी भी की। संगीत से उनका गहरा लगाव था।कहते हैं कि वे एक बार उस्ताद फैयाज ख़ाँ के पास तालीम हासिल करने की गरज से गए, तो उस्ताद ने उनसे कुछ गाने के लिए कहा। उन्होंने राग दरबारी में खयाल गाया, जिसे सुनकर उस्ताद ने गद्‌गद्‌ भाव से कहा कि बेटे मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है कि जिसे सीखकर तुम और बड़े गायक बन सको।

सहगल के पिता अमरचंद सहगल जम्मू शहर में तहसीलदार थे। अचानक एक दिन केएल सहगल बिना किसी से कुछ कहे घर छोड़कर चले गए। नौकरी की तलाश में वे कई जगह घूमे-भटके जिनमें मुरादाबाद, कानपुर, बरेली, लाहौर, शिमला और दिल्ली शहर शामिल हैं।

कोलकत्ता में उनके सम्मान में एक बड़ा आयोजन होने वाला था।सहगल साहब अपनी पत्नी आशा रानी के साथ कार द्वारा कानपुर के रास्ते कलकत्ता जा रहे थे।कानपुर पहुंचने पर सहगल ने ड्रावर से रुकने के लिए कहा। ड्राइवर ने कार साइड में खड़ी कर दी।सहगल साहब पैदल ही शहर के भीतर चले गए।काफी देर हो गयी।सहगल साहब कहीं नजर नहीं आ रहे थे।पत्नी और ड्राइवर चिंता करने लगे।तभी दूर से सहगल साहब कार की तरफ आते हुए दिखाई दिए।पत्नी ने देखा कि सहगल साहब की आँखें पुरनम थीं। पूछने पर सहगल बोले: “आशा! मैं आज उन गलियों और सड़कों को देखने गया था जिन पर बेकारी और गर्दिश के दिनों में मैं खूब भटका था।‘कहते-कहते सहगल साहब ने अपनी आँखें पोंछी और कार में बैठ गए।

यहूदी की लड़की, देवदास, परवाना, मोहब्बत के आंसू, ज़िंदा लाश और शाहजहां जैसी फ़िल्मों से अपने अभिनय का लोहा मनवाने वाले के.एल.सहगल यानी कुंदनलाल सहगल बहुत कम उम्र में लोकप्रियता के शिखर पर पहुंच तो गए मगर शराब से दूरी नहीं बना पाए। शराब पर उनकी निर्भरता इस हद तक बढ़ गई कि इससे उनके काम और सेहत पर असर पड़ने लगा। धीरे-धीरे उनकी सेहत इतनी ख़राब हो गई कि फिर सुधार मुमकिन न हो सका। उन्होंने 18 जनवरी 1947 को सिर्फ 42 साल की उम्र में वे इस दुनिया को अलविदा कह गए।

Monday, January 10, 2022



Broadly speaking, when justice and genuine rights are denied to a person over a longer period; the person is left with two options: bear the situation patiently, or the reaction is anguish, and that a reaction, in the process, can culminate in terrorism, vandalism or radicalism. Besides other things, the spreading of communal hatred, religious frenzy, separatist tendency etc. are the tools that terrorists generally use to attain their so-called mission. Guns too are used to achieve the specified task. Fanaticism, extremism, radicalism, separatism, militancy, activism etc. are its other names or manifestations. This is one side of the picture of terrorism: terrorists fighting for a genuine cause i.e., liberating themselves, their society/country from the oppressor/perpetrator. As Indian freedom fighters and revolutionaries struggled against the British Raj to achieve freedom from the clutches of the foreign rule.)

Another side of the picture is disgusting and questionable. Over the years terrorism has emerged as a systematic use or threatened use of violence to intimidate a population, community or government and thereby effect political, religious or ideological change just to achieve personal gains. Modern terrorism has resorted to another option of intimidation, i.e., influence the mass media, to amplify and broadcast feelings of intense fear and anger among the people. Needless to mention here, acts of terror are carried out by people who are indoctrinated to follow a strategy of dying to kill. They are the ones who have become pawns in the hands of their masters who direct their paths, sitting in the comforts of far-off places with all the facilities available to them. Masters have their vested political interests while pawns seemingly have nothing to gain except suffering for a cause about which they themselves don’t know or know very little.

Terrorism in Kashmir is almost Thirty years old now and has a likeness to the second side of the picture. It has a history long enough to be traced from the date when partition was forced resulting in the emergence of two nations- India and Pakistan- after the sub-continent freed itself from the colonial rule of the British Empire. It may not be out of context here to probe into the consequences in detail that gave rise to terrorism in Kashmir. But again, before that, giving a brief introduction of this widely known beautiful valley would be too apt.

Kashmir-Paradise on Earth (the Switzerland of Asia) Nature’s grand finale of beauty is a masterpiece of earth’s creation of charm and loveliness. Famous for its beauty and natural scenery throughout the world and its high snow-clad mountains, scenic spots, beautiful valleys, rivers with ice-cold water, attractive lakes and springs and ever-green fields, dense forests and beautiful health resorts, enhance its grandeur and are a source of great attraction for tourists. It is also widely known for its different kinds of agricultural products, fruit, vegetables, saffron, herbs, and minerals, precious stones handicrafts like woollen carpets, shawls and the finest kind of embroidery on clothes. During summer, one can enjoy the beauty of nature, trout fishing, big and small game hunting etc.; during winter climbing mountain peaks and sports like skating and skiing on snow slopes are commonly enjoyed. In addition to the above, the Pilgrimage to famous religious shrines of the Hindus and the Muslims make Kashmir a great tourist attraction. About Kashmir, Mughal Emperor Jahangir is believed to have said, “If there is any heaven on earth, it is here in Kashmir, in Kashmir in Kashmir only.”

Apart from natural beauty, Jammu and Kashmir have a unique cultural blend which makes them different from the rest of the country (India). It is not only distinct in cultural forms and heritage but in geographical, demographical, ethnic, social entities, forming a distinct spectrum of diversity. The people of Kashmir, Jammu and Ladakh, all follow diverse religions, languages and cultures. Its different cultural forms in art and architecture, fair and festivals, rites and rituals, seers and sagas, languages and literature, embedded in ageless period of history, speak of endless unity and diversity with unparalleled cultural cohesion and amicability. Kashmir has been a great centre of learning. A treasure of rich Sanskrit literature is to be found here. Early Indo-Aryanic civilization has originated and flourished in this land. It has also been influenced by Islam, bringing its traditions of Persian civilization, tolerance, brotherhood and sacrifice.

After the British withdrew from the Indian subcontinent in 1947 and India and Pakistan emerged as two separate countries, princely states were given an option to choose the country they wanted to stay on. The states falling geographically within had no other option but to merge with the country they were situated in. Border states like Kashmir, Jodhpur etc. took time to come out with their firm decisions probably because they wanted to enjoy the status of independent statehood. In the case of Kashmir, where Maharaja (King) Hari Singh was the ruler, the situation worsened considerably. Territorial disputes over Kashmir had already started brewing, Pakistan claiming that Kashmir should go to its side since Muslims were in majority there.

Apprehending that Maharaja might opt for accession to India, Pakistan prepared for aggression in a bid to capture the state forcibly hoping that masses, mainly Muslims, would support its mission. That didn’t happen. Secular forces headed by the then-popular mass leader Sheikh Mohammad Abdullah fondly known as Sher-i-Kashmir motivated the Kashmiri people (Hindus, Muslims and Sikhs) to rise to the occasion and stand united to counter and frustrate the evil designs of the enemy who was marching to the capital city Srinagar indulging in bloodshed and mayhem. A new slogan echoed the entire valley: “Hamlavar khabardaar, hum Kashmiri hai tayaar---Hindu Muslim Sikh Ithaad, Naya Kashmir Zindabaad---“Beware you, attackers! We Kashmiris are ready to counter you—Long live the Unity of Hindus, Muslims and Sikhs-!!" At Hazuri Bagh, Srinagar before a large crowd on October 1, 1947, Sher-i-Kashmir proclaimed: "Till the last drop of my blood, I will not believe in two-nation theory." It was a rebuff to Mr Jinnah-father of the nation of Pakistan, who was watching the developments so closely from his country's side. Finding their designs on Kashmir not stemming, Pakistan rulers launched an armed attack on Jammu and Kashmir to annex it. Tribes in thousands along with Pak regular troops entered the state on October 22, 1947, from several points and indulged in looting, arson, rape, bloodshed and mayhem. Bowing before the wishes of the people and seeing his regular army being outnumbered, the Maharaja signed the Instrument of Accession in favour of India on October 26, 1947, on the prescribed terms and conditions. This was accepted by the Governor-General of India, Lord Mountbatten the next day. The Instrument of Accession executed by Maharaja Hari Singh was the same which was signed by other rulers of the other princely states. Similarly, the acceptance of the Instrument of Accession by the Governor-General was also identical in respect of all such instruments.

With J&K becoming a legal and constitutional part of the Union of India, the Indian army rushed to the State to push back the invaders and vacate aggression from the territory of the state. The first batch of Indian Army troops arrived at Srinagar airport immediately after the Accession was signed. On October 30, 1947, an Emergency Government was formed in the State with Sheikh Mohammad Abdullah as its head. The Army fought a sustained battle with the tribals/Kabayilies and after several sacrifices pushed them out of the Valley and other areas in the Jammu region. (Earlier Brigadier Rajendra Singh Chief of State Forces with a small number of soldiers at his disposal fought valiantly with the enemy and laid down his life in the process.)

Meanwhile, the people of Kashmir under the towering leadership of Sher-I-Kashmir were mobilized and they resisted the marching columns of the enemy. Till the arrival of Indian troops, it was mainly the Muslim volunteers under the command of Sheikh Mohammad Abdullah who braved death. While the army pushed back the invaders, there were several instances where people put up a gallant resistance and stopped the advancing troops. The most conspicuous examples of people’s resistance were the martyrdom of Mohammad Maqbool Sherwani and Master Abdul Aziz, both staunch followers of Sher-i-Kashmir Sheikh Abdullah. Sherwani did not oblige the invaders when they inquired from him the route to Srinagar. Instead, he put them on a wrong track gaining time for troops to reach Srinagar from New Delhi. Somehow the tribesmen came to know about his tactics and nailed him at a Baramulla crossing and asked him to raise pro-Pakistan slogans. He did raise slogans but these were different. These were pro-Hindu-Muslim unity and in favour of Sher-i-Kashmir. Enraged by this, the ruthless tribesmen emptied their guns on him. The sacrifice of Master Abdul Aziz too was exemplary. The invaders who raped the nuns and wanted other non-Muslim women to be handed over to them, Master Abdul Aziz, a tailor by profession, held the Holy Quran in his hand and said that they can touch the women only after they pass over his dead body and the holy Quran. The brutal killers did not spare him either.

On January 1, 1948, India took up the issue of Pak aggression in Jammu and Kashmir to the UN under Article 35 of its Charter. The government of India in its letter to the Security Council said: “…Such a situation now exists between India and Pakistan owing to the aid which invaders, consisting of nationals of Pakistan and tribesmen… are drawing from Pakistan for operations against Jammu and Kashmir, a State which has acceded legally to the Dominion of India and is part of India. The Government of India requests the Security Council to call upon Pakistan to put an end immediately to the giving of such assistance which is an act of aggression against India. If Pakistan does not do so, the Government of India may be compelled, in self-defense, to enter into Pakistan territory to take military action against the invaders.” After long debates, a cease-fire was established at midnight on January 1, 1949. Eventually, India filed a complaint with the UN Security Council, which established the United Nations Commission for India and Pakistan (UNCIP). Pakistan was accused of invading the region and was asked to withdraw its forces from Jammu & Kashmir. The UNCIP also passed a resolution stating: “The question of accession of the state of Jammu & Kashmir to India or Pakistan will be decided through the democratic method of the free and impartial plebiscite.” However, this could not take place because Pakistan did not comply with the UN resolution and refused to withdraw from the state. The international community failed to play a decisive role in the matter saying that Jammu & Kashmir is a “disputed territory.” In 1949, with the intervention of the United Nations, India and Pakistan defined a ceasefire line (“Line of Control”) that divided the two countries. This has left Kashmir a divided and disturbed territory up till now.

In September 1951, free and fair elections, as per the Constitutional modalities, were held in Jammu & Kashmir, and the National Conference party under the leadership of Sheikh Abdullah came into power. With the advent of the Constituent Assembly of the State of Jammu & Kashmir representing the aspirations of the people of Jammu and Kashmir, the regions became an integral part of India constitutionally. After Sheikh Abdullah; Bakshi Gulam Mohamad, G.M.Sadiq, Mir Qasim, Gul Shah, Mufti Sayed, Dr Farooq Abdullah, Gulam Nabi Azad, Mrs Mehbooba Mufti and Omar Abdullah ruled as Chief Ministers Minister of the J&K state.

Though the governments ran smoothly over the years, continued instigations and arousing religious frenzy by Pakistan did not stop. The year 1965 saw a war between India and Pakistan claiming many lives on both sides. A cease-fire was established and the two countries signed an agreement at Tashkent (Uzbekistan) in 1966, pledging to end the dispute by peaceful means. Five years later, the two again went to war, which resulted in the creation of Bangladesh. Another accord was signed in 1972 between the two Prime Ministers Indira Gandhi and Zulfiqar Ali Bhutto in Shimla. After Bhutto was executed in 1979, the Kashmir issue once again flared up.

During the 1980s, massive infiltrations from Pakistan were detected in the region, and India has since then maintained a strong military presence in Jammu & Kashmir to check these movements along the cease-fire line. India says that Pakistan has been stirring up violence in its part of Kashmir by training and funding “Islamic guerrillas” that have waged a separatist war since 1989-90 killing tens of thousands of people. Pakistan has always denied the charge, calling it an indigenous “freedom struggle.”

In 1999, intense fighting ensued between the infiltrators and the Indian army in the Kargil area of the western part of the state, which lasted for more than two months. The battle ended with India managing to reclaim most of the area on its side that had been seized by the infiltrators.

In 2001, Pakistan-backed terrorists waged violent attacks on the Kashmir Assembly and the Indian Parliament in New Delhi. This resulted in a war-like situation between the two countries, with Pakistani President General Pervez Musharraf asking his army to be “fully prepared and capable of defeating all challenges,” and the then Indian Prime Minister Atal Bihari Vajpayee said, “We don’t want war but war is being thrust upon us, and we will have to face it.”

Currently, the State of Jammu and Kashmir is under LG rule. As a matter of fact, history was created at midnight on Wednesday the 31 October 2019, with Jammu and Kashmir, part of the Union of India since 1947, ceasing to be a state. It was bifurcated into two Union Territories viz J&K and Ladakh. It is assumed that the Central government's decision and subsequent approval of Parliament to abrogate the special status given to Jammu and Kashmir under Article 370 and its bifurcation into two UTs was taken to reconstruct the map and future of the region by the centre in the light of protracted militancy and unabated unrest in the erstwhile State.

The plight of Pandits (Hindus)

The Pandits, who are the Hindu community of Kashmir and have an ancient and proud culture, have been amongst the most afflicted victims of the Pakistani-supported campaign of terrorism in Jammu and Kashmir. Their roots in the Kashmir Valley run very deep. They are the original inhabitants of this beautiful valley. Their number being small and peace-loving by nature, they have been the soft targets of terrorists. The entire population of 300,000 Kashmiri Pandits has been forced to leave their ancestral homes and property. Threatened with violence and intimidation by Muslim fundamentalists, they have been turned into refugees in their own country leaving behind their shops, farms, cattle and age-old memories. Jammu and Kashmir have become a target of Pakistan, sponsored by religion-based terrorism. The persecution by Muslim extremists of the Hindu minority and the systematic religion-based extremism of terrorist elements has resulted in the exodus of these Hindu/Pandits and other minorities from the Kashmir Valley to other parts of India. Fundamentalists and terrorists have also targeted and assassinated Muslim intellectuals and liberal Muslim leaders too, who spoke of Hindu-Muslim unity and brotherhood. Terrorist acts by Kashmiri militant groups have also taken place outside Jammu and Kashmir.

India claims most of the separatist militant groups are based in Pakistan and Pakistan-administered Kashmir (also known as Azad Kashmir). Some like the All Parties Hurriyat Conference and the Jammu and Kashmir Liberation Front (JKLF), demand an independent Kashmir. Other groups such as Lashkar-e-Taiba and Jaish-e-Mohammed favour a Pakistani-Kashmir. Of the larger militant groups, the Hizbul Mujahideen, a militant organization, is based in Pakistan-administered Kashmir. Sources report that Al-Qaeda too has a base in Pakistani Kashmir and is helping to foment terrorism in Jammu and Kashmir.

India is unwilling to lose even one additional inch of this land. New Delhi is also concerned that Kashmiri autonomy would set a precedent for breakaway movements in other Indian states (e.g., Punjab or Assam). To Pakistan, Kashmir is symbolic of its national ethos and commitment to protecting Muslim interests against Indian encroachment. It believes that the creation of a separate, strongly sectarian nation is incomplete without contiguous Kashmir. In brief, Kashmir is a target of externally sponsored religion-based terrorism. The aim is to divide people based on sectarian affiliation and undermine the secular fabric and territorial integrity of India.

However, as and now with time, the passion of the Jehad/movement which once had mass public support has started declining since it has turned out to be a movement run by those who are more interested in their gains. Confusion within the separatist groups has weakened the movement. The hard-liners led by Jamat-e-Islami advocate total merger of Jammu and Kashmir, with Pakistan whereas the soft liners led by J.K.L.F (Jammu and Kashmir Liberation Front) stands for total independence of J&K. This has given rise to a confusing and conflicting situation resulting in disillusionment, disarray and disinterest of the common man in Kashmir who has suffered a lot for the past 30 years and is not prepared to suffer any more.



Saturday, January 8, 2022









मेरी कहानियाँ : मेरे नाटक











डा० शिबन कृष्ण रैणा



















बाबूजी

हमारे पड़ोस में रहने वाले बाबूजी की उम्र यही कोई अस्सी के लगभग होनी चाहिए। इस उम्र में भी स्वास्थ्य उनका ठीक–ठाक है। ज़िंदगी के आख़िरी पड़ाव तक पहुँचते–पहुँचते व्यक्ति आशाओं–निराशाओं एवं सुख–दुख के जितने भी आयामों से होकर गुजरता है, उन सबका प्रमाण उनके चेहरे को देखने से मिल जाता है।

इक्कीस वर्ष की आयु में बाबूजी फौज में भर्ती हुए थे। अपने अतीत में डूबकर जब वे रसमग्न होकर अपने फौजी जीवन की रोमांचकारी बातों को सुनाने लगते हैं तो उनके साथ–साथ सुनने वाला भी विभोर हो जाता है। विश्व युद्ध की बातें, कश्मीर में कबाइलियों से मुठभेड़, नागालैंड, जूनागढ़ आदि जाने कहाँ–कहाँ की यादों के सिरों को पकड़कर वे अपने स्मृति कोष से बाहर बहुत दूर तक खींचकर ले आते हैं। ऐसा करने में उन्हें अपूर्व आनंद मिलता है।


एक दिन सुबह–सवेरे उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया। मैं समझ गया कि आज बाबूजी अपने फौजी जीवन का कोई नया किस्सा मुझे सुनाएँगे। एक बार तो इच्छा हुई कि मैं जाऊँ नहीं, मगर तभी बाबूजी ने हाथ के इशारे से बड़े ही भावपूर्ण तरीके से एक बार फिर मुझे बुलाया। यह सोचकर कि मैं जल्दी लौट आऊँगा, मैं कपड़े बदलकर उनके पास चला गया।


कमरे में दाखिल होते ही उन्होंने तपाक से मेरा स्वागत किया। चाय मँगवाई और ठीक मेरे सामने वाली कुर्सी पर बैठ गए। घुटनों तक लंबी नेकर पर बनियान पहने वे आज कुछ ज्यादा ही चुस्त–दुरुस्त लग रहे थे। मैंने कमरे के चारों ओर नजर दौड़ाई। यह कमरा शायद उन्हीं का था। दीवार पर जगह–जगह विभिन्न देवी–देवताओं के चित्र टँगे थे। सामने वाली दीवार के ठीक बीचोंबीच उनकी दिवंगत पत्नी का चित्र टँगा था। कुछ चित्र उनके फौजी–जीवन के भी थे। बाईं ओर की दीवार पर एक राइफल टँगी थी जिसको देखकर लग रहा था कि अब यह राइफल इतिहास की वस्तु बन चुकी है।


बाबूजी को अपने सामने एक विशेष प्रकार की मुद्रा में देखकर मुझे लगा कि वे आज कोई खास बात मुझसे करने वाले हैं तथा कोई खास चीज मुझे दिखाने वाले हैं। तभी सवेरे से ही उनकी आँखें मुझे ढूँढ़ रही थीं। इस बीच मेरा ध्यान सामने टेबल पर रखे विभिन्न बैजों, तमगों, प्रशस्तिपत्रों, मेडलों आदि की ओर गया जिन्हें इस समय बाबूजी एकटक निहार रहे थे।

इन मेडलों, प्रशस्तिपत्रों आदि का ज़िक्र उन्होंने मुझ से बातों–ही–बातों में पहले कई बार किया था, मगर इन्हें दिखाने का मौका कभी नहीं मिला था। आज शायद वे इन सबको मुझे दिखाना चाह रहे थे। गौरवान्वित भाव से वे कभी इन मेडलों को देखते तो कभी मुझे। हर तमग़े, हर बैज, हर प्रशस्तिपत्र आदि के पीछे अपना इतिहास था, जिसका वर्णन करते–करते बाबूजी, सचमुच, गदगद हो रहे थे। यह तमगा फलाँ युद्ध में मिला, यह बैज अमुक पार्टी में अमुक अंग्रेज अफसर द्वारा वीरताप्रदर्शन के लिए दिया गया आदि आदि।

बाबूजी अपनी यादों के बहुमूल्य कोष के एक–एक पृष्ठ को जैसे–जैसे पलटते जाते वैसे–वैसे उनके चेहरे पर असीम प्रसन्नता के भाव तिर आते। मेरे कंधे पर अपना दायाँ हाथ रखते हुए वे अचानक बोल पड़े, "और भी कई बैज व तमगे हैं, मगर बुढ़िया को ज्यादा यही पसंद थे।" बुढ़िया का नाम सुनते ही मैं चौंक पड़ा। पूछा, "कौन बुढ़िया?"

"अरे, वही मेरी पत्नी, जो पिछले साल भगवान को प्यारी हो गई। बड़ी नेक औरत थी वह। मुझे हमेशा कहती थी – निक्के के बाबू, ये तमग़े तुमको नहीं, मुझे मिले हैं। बेचारी घंटों तक इन पर पालिश मल–मलकर इन्हें चमकाती थी।"

मैंने बाबूजी की ओर नजरें उठाकर देखा। उनकी आँखें गीलीं हो गईं थीं। शब्दों को समेटते हुए वे आगे बोले, "बुढ़िया ज्यादातर गाँव में ही रही और मैं कभी इस मोर्चे पर तो कभी उस मोर्चे पर, कभी इस शहर में तो कभी उस शहर में। वाह! क्या डिसिप्लिन था। क्या रोबदाब था! अंग्रेज अफसरों के साथ काम करने का अपना अलग ही मज़ा होता था।"

कहते–कहते बाबूजी फिर यादों के समुद्र में डूब गए। इस बात का अंदाज लगाने में मुझे देर नहीं लगी कि बाबूजी आज कुछ ज्यादा ही भावुक हो गए हैं। पहले जब भी मैं उनसे मिला हूँ हमारी बातें पड़ोसी के नाते एक दूसरे का हाल–चाल जानने तक ही सीमित रही हैं। प्रसंगवश वे कभी–कभी अपने फौजी जीवन की बातें भी कह देते जिन्हें मैं अक्सर ध्यान से सुन लिया करता।

बाबूजी के बारे में मेरे पास जो जानकारी थी उसके अनुसार बाबूजी पहाड़ के रहने वाले थे। बचपन उनका वहीं पर बीता, फिर फौज में नौकरी की और सेवानिवृत्ति के बाद वर्षों तक अपने गाँव में ही रहे। पत्नी के गुजर जाने के बाद अब वे अपने बड़े बेटे के साथ इस शहर में मेरे पड़ोस में रहते हैं।

बड़े बेटे के साथ रहते–रहते उन्हें लगभग पाँच–सात साल हो गए हैं। बीच–बीच में महीने–दो महीने के लिए वे अपने दूसरे बेटों के पास भी जाते हैं। मगर जब से उनकी पत्नी गुजर गई, तब से वे ज्यादातर बड़े बेटे के साथ ही रहने लगे हैं।

इससे पहले कि मैं उनसे यह पूछता कि क्या ये बैज और मेडल दिखाने के लिए उन्होंने मुझे बुलाया है, वे बोल पड़े, "बुढ़िया को ये बैज और तमग़े अपनी जान से भी प्यारे थे। पहले–पहले हर सप्ताह वह इनको पालिश से चमकाती थी। फिर उम्र के ढलने के साथ–साथ दो–तीन महीनों में एक बार और फिर साल में एक बार। और वह भी हमारी शादी की सालगिरह के दिन।"

"सालगिरह के दिन क्यों?" मैंने धीरे–से पूछा।

मेरा प्रश्न सुनकर बाबूजी कुछ सोच में पड़ गए। फिर सामने पड़े मेडलों पर नजर दौड़ाते हुए बोले, "यह तो मैं नहीं जानता कि सालगिरह के ही दिन क्यों? मगर एक बात मैं जरूर जानता हूँ कि बुढ़िया पढ़ी–लिखी बिल्कुल भी नहीं थी। पर हाँ, जिंदगी की किताब उसने खूब पढ़ रखी थी। मेरी अनुपस्थिति में मेरे माँ–बाप की सेवा, बच्चों की देखरख, घर के अंदर–बाहर के काम आदि उस औरत ने अकेलेदम बड़ी लगन से निपटाए। आज पीछे मुड़कर देखता हूँ तो सहसा विश्वास नहीं होता कि उस बुढ़िया में इतनी समर्पण–भावना और आत्मशक्ति थी।"

कहते–कहते बाबूजी ने पालिश की डिबिया में से थोड़ी–सी पालिश निकाली और सामने रखे मेडलों और बैजों पर मलने लगे। वे गदगद होकर कभी मुझे देखते तो कभी सामने रखे इन मेडलों को।

मेडल और बैज धीरे–धीरे चमकने लगे।

मुझे लगा कि बाबूजी मुझसे कुछ और कहना चाह रहे हैं किंतु कह नहीं पा रहे हैं।

एक मेडल अपने हाथों में लेकर मैंने कहा, "लाइए बाबूजी, इस पर मैं पालिश कर देता हूँ।"

मेरे इस कथन से वे बहुत खुश हुए। शायद मेरे मुँह से वे भी यही सुनना चाहते थे। कुछ मेडलों की वे पालिश करने लगे और कुछ की मैं। इस बीच थोड़ा रुककर उन्होंने सामने दीवार पर टँगी अपनी पत्नी की तस्वीर की ओर देखा और गहरी–लंबी साँस लेकर बोले, "आज हमारी शादी की सालगिरह है। बुढ़िया जीवित होती तो सुबह से ही इन मेडलों को चमकाने में लग गई होती। ये मेडल उसे अपनी जान से भी प्यारे थे। जाते–जाते डूबती आवाज में मुझे कह गई थी – निक्के के बाबू, यह मेडल तुम्हें नहीं, मुझे मिले हैं। हाँ – मुझे मिले हैं। इन्हें संभालकर रखना– हमारी शादी की सालगिरह पर हर साल इनको पालिश से चमकाना।"

कहते–कहते बाबूजी कुछ भावुक हो गए। क्षणभर की चुप्पी के बाद उन्होंने फौजी अंदाज में ठहाका लगाया और बोले, "बुढ़िया की बात को मैंने सीने से लगा लिया। हर साल आज के ही दिन इन मेडलों को बक्से से निकालता हूँ, झाड़ता–पोंछता हूँ और पालिश से चमकाता हूँ। पालिश करते समय मेरे कानों में बुढ़िया की यह आवाज गूँजती है –

'निक्के के बाबू! ये मेडल तुमको नहीं, मुझे मिले हैं –

तुमको नहीं मुझे मिले हैं...।"

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रिश्ते

जिस दिन मिस्टर मजूमदार को पता चला कि उनका तबादला अन्यत्र हो गया है, उसी दिन से दोनों पति-पत्नी सामान समेटने और उसके बण्डल बनवाने, बच्चों की टी०सी निकलवाने, दूधवाले, अखबार वाले आदि का हिसाब चुकता करने में लग गए थे। पन्द्रह वर्षों के सेवाकाल में यह उनका चौथा तबादला था। सम्भवत: अभी तक यही वह स्थान था जहाँ पर मिस्टर मजूमदार दस वर्षों तक जमे रहे, अन्यथा दूसरी जगहों पर वे डेढ़ या दो साल से अधिक कभी नहीं रहे। मि० मजूमदार अपने काम में बड़े ही कार्यकुशल और मेहनती समझे जाते थे, किन्तु महकमा उनका कुछ इस तरह का था कि तबादला होना लाजि़मी था। वैसे प्रयास तो उन्होंने खूब किया था कि तबादला कुछ समय के लिए टल जाए किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली थी।

ऑफिस से मि० मजूमदार परसों रिलीव हुए थे। ‘लालबाग’ में उनकी विदाई पार्टी हुई और आज वे इस शहर को छोड़ रहे थे। उनके बच्चे सवेरे से ही तैयार बैठे थे। श्रीमती मजूमदार ने उन्हें पन्द्रह दिन पहले ही समझा दिया था कि अब उन्हें दूसरी जगह जाना है, अब वे वहीं पर पढ़ेंगे।

सारा सामान पैक हो चुका था। मि० मजूमदार अपनी श्रीमती जी से यह कहकर बाहर चले गए कि वे रिक्शा लेकर आते हैं, तब तक वे मां-साब, बुआ-साब आदि से एक बार और मिल लें।

गर्मी जोर की पड़ रही थी। मि० मजूमदार ने देखा कि ‘लालगेट’ पर कोई रिक्शेवाला खड़ा नहीं था। एक है जो बस स्टैण्ड तक चलने के बहुत ज्यादा पैसे मांग रहा है। मि० मजूमदार आगे बढ़े। शायद ‘सुन्दर-विलास’ पर कोई रिक्शा मिल जाए। ऑफस आते-जाते वक्त उन्हें वहाँ छायादार पेड़ों के नीचे दो-चार रिक्शे-वाले अक्सर मिल जाया करते थे। वे ‘सुन्दर-विलास’ की तरफ बढ़े और इसी के साथ उनकी यादाश्त दस वर्ष पीछे चली गई।

वे नए-नए इस शहर में आए थे और तब उन्हें यह शहर एक छोटा-सा, सुन्दर-सा कस्बा लगा था। देखते-ही-देखते इन दस वर्षों मेें इस कस्बे ने जैसे एक बड़ी छलांग लगाई हो और चारों तरफ फैलकर अपने आकार को बढ़ा लिया हो। बगल में एक बड़ा शहर स्थित था, शायद इसलिए। वैसे, इस नगर का अपना धार्मिक महत्त्व भी कम नहीं था। जब वे दस वर्ष पूर्व इस शहर में आए थे, तब यहाँ रिक्श्ेा नहीं चलते थे। बस-स्टैण्ड से शहर तक यात्रियों को लाने-लेजाने के लिए तांगे चलते थे। बस-स्टैण्ड भी शहर के ही भीतर ‘सुन्दर-विलास’ के निकट था।

‘सुन्दर-विलास’ का नाम आते ही मि० मजूमदार को लगा कि शायद उन्होंने ‘सुन्दर-विलास’ को पीछे छोड़ दिया है। वे पीछे मुड़े। एक रिक्शे वाला उनकी तरफ आया-

‘बस स्टैण्ड चलोगे ?’

‘चलेंगे, बाबूजी।’

‘पैसे बोलो ?’

‘कितनी सवारियाँ हैं, बाबूजी ?’

‘भई, मैं, मेरी श्रीमतीजी और दो छोटे बच्चे और थोड़ा-सा सामान।’

‘दस का नोट लगेगा।’

‘अरे, दस तो बहुत ज्य़ादा है। पांच ठीक हैं।’

‘नहीं बाबूजी, दस मेें एक पैसा भी कम न होगा। देख नहीं रहे, क्या गर्मी पड़ रही है।’

गर्मी वास्तव में बहुत $जोर से पड़ रही थी। मि० मजूमदार ने अब रिक्शा ढूंढऩे के लिए और आगे बढऩा उचित नहीं समझा। उन्हें चार बजे की बस पकडऩी थी। इस वक्त दो बज रहे थे। बड़ा-बड़ा सामान सवेरे ही उन्होंने रेल से बुक करा दिया था। केवल एक अटैची और थोड़ा-सा बिस्तर उनके साथ था। रिक्शे में बैठकर उन्होंने रिक्शेवाले से कहा-

‘ठीक है भाई, दे देंगे दस का नोट। थोड़ा सामान रखवाने में मदद करना हमारी।’

रिक्शा चल दिया। चलते-चलते रिक्शे वाला बोला- ‘बाबूजी, और सवारियाँ कहां से लेनी हंै ?’

‘भई, दूसरे मोड़ पर, तहसील के पास ‘सोनी-बंगले’ से।’

‘सोनी-बंगला’ कहते ही मि० मजूमदार फिर अतीत में खो गए।

प्रारम्भ में मकान न मिलने तक चार-पाँच दिन के लिए उन्हें एक धर्मशाला में रुकना पड़ा था। आफिस के सहयोगियों ने ज्वाइन करते ही कहा था-

‘भई मजूमदार ? यहाँ इस कस्बे में अच्छे मकान हंै ही नहीं। हमें देखो, बड़े ही रद्दी किस्म के मकानों में रहना पड़ रहा है। दो-पांच अच्छे मकान हैं भी, तो उन्हें अफसरों ने घेर रखा है। हाँ, तहसील के पास सोनी जी का बंगला है। चाहो तो उसमें कोशिश कर लो। सुना है बंगले का मालिक अपना मकान किसी को भी किराए पर नहीं देता है। मिस्टर मजूमदार उसी दिन ऑफिस से छूटकर सीधे ‘सोनी बंगले’ पर गए थे। बंगले पर उनकी भेंट एक बुजुर्ग-से व्यक्ति से हुई थी जिन्हें बाद में पूरे दस वर्षों तक वे ‘बा-साहब’ के नाम से पुकारते रहे। बा-साहब ने छूटते ही पहला प्रश्न किया था-

‘आप इधर के नहीं लगते हैं ?’

‘जी हां, मैं बाहर का हूँ। रो$जगार के सिलसिले में इस तरफ आ गया हूँ।’

‘आपका परिवार, बाल-बच्चे ?’

‘मकान मिल जाए तो उन्हें भी ले आऊँगा। विवाह इसी वर्ष हुआ है।’

‘खाते-पीते तो नहीं है ?’

मि० मजूमदार समझ गए थे कि उनका इशारा मांस-मदिरा के सेवन से है। तुरन्त जवाब दिया-

‘नहीं जी, बिल्कुल नहीं।’

‘ठीक है, आप कल शाम को आ जाना, मैं सोचकर बताऊँगा।’

और अगले दिन जब शाम को मजूमदार उनसे मिलने गए तो पता चला कि ‘बा-साब’ ने निर्णय उनके पक्ष में दिया है। फिलहाल एक कमरा और रसोई और बाद में दो कमरे। यह समाचार ‘बा-साब’ की पत्नी ‘मां-साब’ ने पर्दा करते हुए उन्हें दिया था।

‘बा-साब’ जवानी के दिनों में काफी मेहनती, लगनशील और जि़न्दादिल स्वभाव के रहे होंगे, यह उनकी बातों से पता चलता था। चांदी के ज़ेवर, खासकर मीनाकारी का उनका पुश्तैनी काम था। काम वे घर पर ही करते थे और इसके लिए उन्होंने पांच-छ: कारीगर भी रख छोड़े थे। यों ‘बा-साब’ के कोई कमी नहीं थी। तीन-चार मकान थे, खेत थे, समाज में प्रतिष्ठïा थी। थोड़ा-बहुत लेन-देन का काम भी करते थे। बस, अगर कमी थी तो वह थी सन्तान का अभाव। इस अभाव को ‘बा-साब’ भीतर-ही-भीतर एक तरह से पी-से गए थे। चाहते तो वे खूब थे कि उनका यह अभाव प्रकट न हो, किन्तु उनकी आँखों में उनके मन की यह पीड़ा जब-तक झलक ही पड़ती थी। एक दिन मि० मजूमदार जब ऑफिस से घर लौटे तो क्या देखते हैं कि घर के प्रांगण में बा-साब बॉलिंग कर रहे हैं और आशु मियां बल्ला पकड़े हुए हैं। बिटिया को फील्डिंग पर लगा रखा है। एक हाथ में धोती को थामे ‘बा-साब’ खिलाडिय़ों के अंदाज में बॉल फेंक रहे थे।

समय गु$जरता गया और इसी के साथ मकान मालिक व किराएदार का रिश्ता सिमटता गया और उसका स्थान एक माननीय रिश्ता लेता गया। एक ऐसा रिश्ता जिसमें आर्थिक दृष्टिकोण गौण और मानवीय दृष्टिकोण प्रबल हो जाता है। वैसे, इस रिश्ते को बनाने में मजूमदार दम्पति की भी खासी भूमिका थी क्योंकि सुदृढ़ रिश्ते एकपक्षीय नहीें होते। उनकी नींव आपसी विश्वास और त्याग की भावनाओं पर आश्रित रहती है। पिछले आठ-दस वर्षों में यह रिश्ता नितान्त सहज और आत्मीय बन गया था।

एक दिन ‘बा-साब’ मूड में थे। मि०मजूमदार ने पूछ ही लिया था-

‘बा-साब, उस दिन पहली बार जब मकान के सिलसिले में मैं आपके पास आया था, तो आपने बिना किसी परिचय या जान-पहचान के मुझे यह मकान कैसे किराए पर दे दिया ?’

बात को याद करते हुए बा-साब बोले थे-

‘आप यहाँ के नहीं थे, तभी तो मैंने आपको मकान दिया। आपको वास्तव में मकान की आवश्यकता थी, यह मैं भाँप गया था। अपना मकान मैंने आज तक किसी को किराए पर नहीं दिया, पर आपको दिया। इसलिए दिया, क्योंकि आपके अनुरोध में एक तड़प थी, एक कशिश थी जिसने मुझे अभिभूत किया। बाबू साहब, परिचय करने से होता है, पहले से कौन किसका परिचित होता है ?’

बा-साब अब इस संसार में नहीं रहे थे। गत वर्ष दमे के जानलेवा दौरे में उनकी हृदय-गति अचानक बन्द हो गई थी। मजूमदार की बाहों में उन्होंने दम तोड़ा था।

‘सोनी-बंगला आ गया साहब’, रिक्शेवाले की इस बात ने मि०मजूमदार को जैसे नींद से जगा दिया। उन्होंने न$जर उठाकर देखा। बंगले के गेट पर उनकी श्रीमतीजी, दोनों बच्चे, मां-साब और बुआ-साब खड़े थे। पड़ोस के मेनारिया साहब, बैंक मैनेजर श्रीमाली जी तथा शर्मा दम्पति भी उनमें शामिल थे। वातावरण भावपूर्ण था। विदाई के समय प्राय: ऐसा हो ही जाता है। बच्चों को छोड़ सबकी आँखें गीली थीं। मजूमदार ज़बरदस्ती अपने आँसुओं को रोके हुए थे। उन्हें लगा कि मां-साब उनसे कुछ कहना चाहती है। वे उनके निकट गए। मां-साब फफक-कर रो दी-

‘मने भूल मत जाज्यो। याद है नी, बा सा आपरी बावां में शान्त विया हा।’

मां-साब को दिलासा देकर तथा सभी से आज्ञा लेकर मि० मजूमदार रिक्शे में बैठ गए। मानवीय रिश्ते भी कितने व्यापक और कालातीत होते हैं, मि० मजूमदार सोचने लगे।

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मुलाकात

हमारे घर की बिल्कुल सामने वाली सडक़ के कोने वाला मकान बहुत दिनों तक खाली पड़ा रहा। मकान मालिक संचेती जी की चार वर्ष पूर्व नौकरी के सिलसिले में कहीं दूसरी जगह पर बदली हुई थी और तभी से उनका मकान एक अच्छा किराएदार न मिलने के कारण लगभग दो वर्षों तक खाली पड़ा रहा। संचेती जी चाहते थे कि एक ऐसे किरायेदार को मकान दिया जाए जो एकदम भला हो, जिसकी फैमली में ज्यादा सदस्य न हों और जो सुरुचि संपन्न हो ताकि मकान का बढिय़ा रख-रखाव हो सके। लम्बी प्रतीक्षा के बाद आखिरकार एक ऐसा परिवार उन्हें मिल ही गया जो उनकी अपेक्षाओं की कसौटी पर फिट बैठ गया और उन्होंने उन को अपना मकान किराए पर दे दिया। मकान संभालते वक्त संचेती जी मुझे बुला लाए और उस परिवार से मिलवाया। शायद यह सोचकर कि पड़ौसी होने के नाते मैं उनकी कुछ प्रारंभिक कठिनाइयों को दूर कर सकूं।

आगंतुक पड़ोसी मुझे निहायत ही शरीफ किस्म के व्यक्ति लगे। पति और पत्नी, बस। यही उनका परिवार था। अधेड़ आयु वाली इस दंपति ने अकेले दम कुछ ही महीनों में संचेती जी के मकान की काया पलट कर दी। बगीची में सुन्दर घास लगवाई, रंग-बिरंगी क्यारियाँ, क्रोटोन, गुलाब, बोनसाई आदि से सुसज्जित गमले...। खिड़कियों और दरवाजों पर चेरी कलर...। दो-चार विदेशी पेंटिंग्स बरामदे में टंगवाई तथा पूरे मकान को हल्के गुलाबी रंग से पुतवाया। देखते-ही-देखते संचेती जी के मकान ने कालोनी में अपनी एक अलग ही पहचान बना ली।

एक दिन समय निकालकर मैं और मेरी श्रीमती जी शिष्टïाचार के नाते उन आंगतुक पड़ोसी के घर मिलने के लिए गये। इस बीच हम बराबर यह आशा करते रहे कि शायद वे कभी हमसे मिलने को आएं, मगर ऐसा उन्होंने नहीं किया। कदाचित्ï अपने संकोची स्वभाव के कारण वे अभी लोगों से मिलना न चाहते हों, ऐसा सोचकर हम ने ही उनसे मिलने की पहल की। हमें अपने घर में प्रवेश करते देख वे प्रसन्न हुए। उनकी बातों से ऐसा लगा कि बहुत दिनों से वे लोग भी हम से मिलना चाह रहे थे, किन्तु मारे सकुचाहट के वे बहुत चाहते हुए भी हम से मिलने का मन नहीं बना पाते थे।....मेरा अनुभव रहा है कि बातचीत का प्रारंभिक दौर, प्राय: ऐसी मुलाकातों में, अपने-अपने परिचय, मोटी-मोटी उपलब्ïिधयों, बाल-बच्चों की पढ़ाई , उनकी नौकरियों या शादियों आदि से होता हुआ कालोनी की बातों अथवा मंहगाई और समकालीन राजनीतिक-सामाजिक दुरवस्था तक सिमटकर रह जाता है। ऐसी कुछ बातें हमारी पहली मुलाकात के दौरान हुई तो $जरूर, मगर एक खास बात जो मैंने नोट की, वह यह थी कि हमारे यह नए पड़ोसी मल्होत्रा साहब और उनकी पत्नी घूम-फिर कर एक ही बात की ओर बराबर हमारा ध्यान आकर्षित करने में लगे रहे कि उनका एकमात्र लडक़ा विदेश में है और किसी बड़ी कम्पनी में इंजीनियर है। वहीं उसकी पढ़ाई हुई और वहीं उसकी नौकरी लगी। साल-दो साल में एक-आध बार वे दोनों भी वहाँ कुछ महीनों के लिए जाते हैं। अमेरिका के वैभव, जीवन-शैली, मौसम, लोगों के श्रेष्ठï रहन-सहन आदि का आनंद-विभोर होकर वर्णन करते-करते उन्होंने अपने बेटे की योग्यताओं, उपलबिï्ïधयों व उसकी प्रतिभा का खुलकर बखान किया जिसे मैं और मेरी श्रीमती जी ध्यानपूर्वक सुनते गये। इस बीच मैंने पाया कि मल्होत्रा साहब ने ज्यादा बातें तो नहीं की, किन्तु उनकी श्रीमती जी बराबर बोलती रही। चूंकि यह हम लोगों की पहली मुलाकात थी, इसलिए शिष्टïाचार का निर्वाह करते हुए हमने उनकी सारी बातें धैर्यपूर्वक सुन ली और यह कहकर विदा ली कि फिर मिलेंगे- अब तो मिलना-जुलना होता ही रहेगा।

घर पहुँचकर मैं और मेरी श्रीमती जी कई दिनों तक इस बात पर विचार करते रहे कि विदेश में रहने की वजह से मल्होत्रा दंपति के व्यवहार में, उनकी बातचीत में और उनकी सोच व दृष्टिï में यद्यपि कुछ नयापन या खुलापन अवश्य आ गया है, मगर अपने पुत्र से बिछोह की गहरी पीड़ा ने उन्हें कहीं-न-कहीं भीतर तक आहत अवश्य किया है। कहने को तो ये दोनों अपने बेटे की बड़ाई जरूर कर रहे हैं, वहां के ऐशोआराम की जिन्दगी का बढ़चढ़ कर यशोगान ज़रूर कर रहे हैं, मगर यह सब असलियत को छिपाने, अपने मन की रिक्तता को ढकने व अवसाद को दबाने की गजऱ् से वे कह रहे हैं.......।

कई महीने गुजऱ गये। एक दिन मल्होत्रा साहब और उनकी पत्नी शाम के टाइम हमारे घर पर आए। इस बीच कभी मार्केट में या फिर आस-पड़ोस की किसी दुकान पर वे मुझे अक्सर मिल जाया करते। एक-दो बार हमने दिल्ली की यात्रा भी साथ-साथ की। रास्तेभर वे अपने विदेश के अनुभवों से मुझे अवगत कराते रहे। कल वे दोनों मुझे रेलवे-स्टेशन पर मिल गये थे और कह गये थे कि जल्दी ही वे हमारे घर आएंगे। एक खुशी का समाचार वे हमें देने वाले हैं.....।कुछ दिनों बाद वे हमारे घर आए और ड्रांइग-रूम में बैठते ही मल्होत्रा साहब ने एक सुन्दर-सा लिफाफा मुझे पकड़ाया....। इससे पहले कि मैं कुछ पूछूं, उनकी श्रीमतीजी बोल पड़ीं-

‘‘बेटे रवि की शादी अगले महीने की पांच तारीख को तय हुई है। यह उसी का कार्ड है।’’

‘‘अच्छा, फिक्स हो गई आपके बेटे की शादी ? रिश्ता कहां तय किया.....?’’ मैंने जिज्ञासा-भरे लहजे में पूछा। ‘‘वो-वोह जी, लडक़े ने अमेरिका में ही एक लडक़ी पसंद कर ली।..... उसी के आफिस में काम करती है.....।’’

‘‘मगर, मिसेज मल्होत्रा ! आप तो ज़ोर देकर कह रही थीं कि बेटे के लिए बहू मैं अपने देश में ही देखूँगी। विदेश में अच्छे दोस्त मिल सकते हैं, अच्छी पत्नियां नहीं।’’

मेरी बात सुनकर दोनों पति-पत्नी क्षणभर के लिए एक-दूसरे को देखने लगे...। मुझे लगा कि मेरी बात से वे दोनों तनिक दुविधा में पड़ गये हैं। बात इस बार मि. मल्होत्रा ने संभाल ली, बोले:-

‘‘ऐसा है जी, लडक़ी भी कम्प्यूटर इंजीनियर है। रवि के ही ऑफिस में काम करती है। मूलत: इंडियन ऑरिजन की है। कई पीढिय़ों से वो लोग अमेरिका में बस गये हैं.... बेटे की भी इस रिश्ते में खासी म$र्जी है- और फिर डेसटेनी भी तो बहुत बड़ी ची$ज है। ’’

चूंकि डेसटेनी यानी नियति की बात बीच में आ गई थी, इसलिए इस प्रसंग को और आगे बढ़ाना मैंने उचित नहीं समझा। बातों के दौरान मालूम पड़ा कि शादी अमेरिका में होगी क्योंकि लडक़ी के सारे परिजन वहीं पर रहते हैं। मल्होत्रा-दंपति अपने एक-आध परिजन के साथ वहाँ जाएंगे और शादी हो जाने के बाद यहां एक अच्छी-सी पार्टी देंगे।

इससे पहले कि मैं इस रिश्ते के लिए मल्होत्रा जी को बधाई देता और उनकी सुखद विदेश-यात्रा की कामना करता, मिसेज मल्होत्रा बोलीं-

‘‘भाई साहब, एक बार आप अमेरिका ज़रूर हो आएं। वाह, क्या देश है! क्या लोग हैं! जि़न्दगी जीने का म$जा अगर कहीं है तो अमेरिका में है- मौका लगे तो आप $जरूर हो आना.....।’’

मुझे बात की मंशा को पकडऩे में देर नहीं लगी। मुझे लगा कि श्रीमती मल्होत्रा अपने इस कथन के ज़रिए मुझे चित करना चाहती हैं। उसकी बात में एक ऐसे आभिजात्य कांपलेक्स की बू आ रही थी जिसके वशीभूत होकर व्यक्ति अपने को दूसरे से श्रेष्ठï समझने लगता है। मैंने तुरन्त प्रतिक्रिया व्यक्त की:

‘‘देखिए मैडम, विदेश में चाहे आप स्वर्ग भोग लें, मगर वह देश आपको दूसरे दर्जे का नागरिक ही मानेगा.... अपने देश जैसी उन्मुक्तता वहां कहां?....’’

मेरी बात सुनकर मिसेज मल्होत्रा ने जैसे मुझ से जिरह करने की ठान ली। इस बार वे अंग्रेजी-मिश्रित हिन्दी में बोली.....

‘‘व्ह्वïट डु यू मीन! माई सन गेट्ïस मोर देन थ्री लैक रूपीज़ एज़ सैलरी इन ए वेरी गुड कम्पनी... इतनी सैलरी उसको इंडिया में कौन देता?... ही इज वेरी ब्रिलियंट... कंपनी उसको छोड़ती नहीं है, सच ए जीनियस इ$ज ही... ‘व्ह्वïट इ$ज हियर इन दिस कंट्री...।’’

अभी तक मैं शांत भाव से उनसे बात कर रहा था। कहीं कोई कडुवाहट या उत्तेजना नहीं थी। मगर मिसेज मल्होत्रा के अंतिम कथन ने मुझे भीतर तक बैचेन कर डाला। मिस्टर मल्होत्रा मेरी बेचैनी भांप गये।

मेरी श्रीमती जी भी तनिक आशान्वित नजऱों से मुझे देखने लगी। उसे लग रहा था कि मैं ज़रूर प्रतिवाद करूँगा....। मेरे अन्दर भावों का समुद्र उफन रहा था, फिर भी संयत स्वर में मैंने कहा-

‘‘देखिए, कंपनी आपके बेटे पर कोई एहसान नहीं कर रही। आप का बेटा चूंकि सुयोग्य है, इसलिए उसे अच्छा पैसा दे रही है।..... सीधी-सी बात है। वह कंपनी को अपनी मेहनत और लगन से कमा कर दे रहा है, तभी बदले में कम्पनी उसे अच्छा वेतन दे रही है....। जिस दिन वह काम में कोताही करेगा, उसी दिन कंपनी उसको घर बिठा देगी।... और फिर आपका होनहार बेटा अपनी सेवाएं अपने देश को नहीं, विदेश को दे रहा है....। इस देश के लिए उसका क्या योगदान है भला?.... बुरा न माने तो आप दोनों के लिए भी उसका कोई योगदान नहीं है- वह ब्रिलियंट होगा, जीनियस होगा। अपने लिए।.... इस देश के लिए उसका होना या न होना बराबर है।’’

मुझे मुंह से सच्ची-तीखी बातें सुनकर दोनों पति-पत्नी सकते में आ गये। आज तक उनको शायद किसी ने भी इस तरह की खरी-खोटी बातें नहीं कही होंगी। मेरी बातें सुनकर मिस्टर मल्होत्रा खड़े हो गये....। मैंने बात का रुख मोड़ते हुए कहा-

‘‘ठीक है, आप हो आइए विदेश से। रिसेप्शन के समय हम सभी हाजिऱ होंगे.... मेरे लायक और कोई सेवा हो तो बता दें या अमेरिका से लिख भेजें.....।’’

मेरी इस बात ने निश्चित ही वातावरण को तनिक हल्का कर दिया और मल्होत्रा दंपति हम से विदा हुई।

अगले महीने शादी हो जाने के बाद मल्होत्रा दंपति बहू-बेटे को लेकर भारत आए। यहाँ कार्यक्रम के अनुसार उन्होंने एक अच्छी-सी पार्टी दी।... कुछ दिनों तक भारत में घूम लेने के पश्चात बेटा-बहू दोनों वापस अमेरिका चले जाने की तैयारी करने लगे। मेरी श्रीमतीजी को अपने मकान की चाबी संभालते हुए मल्होत्रा-दंपति कह गये कि अब वे भी साल-दो साल तक बेटे-बहू के पास रहेंगे। मकान मालिक को समझा दें कि किराये की चिंता बिल्कुल न करें। उनके खाते में वे वहीं से पैसा डाल दिया करेंगे....।

मुश्किल से तीन महीने गुजऱे होंगे। एक दिन मैंने देखा मल्होत्रा साहब के मकान की बिजली अन्दर से जल रही है। मैं भीतर चला गया। मल्होत्रा साहब अखबार पढ़ रहे थे। मुझे देख वे खड़े हो गये। मैंने हैरानी-भरे स्वर में पूछा-

‘‘अरे, आप अमेरिका से कब लौटे ? आप तो साल-दो साल में लौटने वाले थे.... यह अचानक! ’’

मेरी जिज्ञासा सही थी जिसको शान्त करने के लिए उन्हें माकूल जवाब देना था। इस बीच मैंने पाया कि हताशा उनके चेहरे पर अंकित है और मायूसी के अतिरिक्त उनके स्वर में कुछ प्रकंपन घुला हुआ है। वे बोले-

‘‘अजी, हम बुज़ुर्गों का वहां क्या काम! उस देश को तो हुनरमंद और फिट व्यक्ति चाहिए। फालतू लोगों को वहां रहने नहीं देते.....। हमको उन्होंने वापस भेज दिया...।’’

मिस्टर मल्होत्रा जब मुझ से बात कर रहे थे तो मैंने देखा कि मिसेज़ मल्होत्रा मुझसे न$जरें बचाकर बाथरूम में घुस गई।

0000

















उसका मंदिर

रो$ज की तरह आज भी राजरानी की आँख जल्दी खुल गई। $जरा-सी भी आहट किए बिना उसने दरवा$जा खोला और वह बाहर बरामदे में आ गई। कमरे में अंदर पड़े-पड़े उसका जी घुट रहा थ। गेट तक दो बार चक्कर काटकर वह बरामदे में लगी कुर्सी पर बैठ गई। पास पड़ोस के घरों के दरवा$जें खुलने लगे थे। सडक़पर इक्का-दुक्का दूधवाला या अखबार वाला गु$जरने लगा था। हावा में रातरानी की महक अभी भी व्याप्त थी। आसपास की बातों से बेखबर राजरानी किसी गहरी सोच में डूबी हुई थी।

यह शहर राजरानी के लिए नया न था। पिछले दस सालों से वह प्राय: हर साल यहाँ सर्दियों में दो-तीन महीनों के लिए अपने बड़े बेटे सुशील के पास आती थी। सुशील यहाँ एक कम्पनी में मुला$िजम था। कई जगह किराए के मकानों मेें रह लेने के बाद अब उसने अपना मकान बनवा लिया था और पिछले दो सालों से उसी में रह रहा था। कार भी उसने इसी वर्ष ले ली थी। अपने इस बेटे की तरक्की देखकर राजरानी बहुत प्रसन्न थी किंतु कभी-कभी मन-ही-मन सुशील की उन्नति की तुलना अपने छोटे बेटे उपेन्द्र से करती। अगरचे उपेन्द्र अपने बड़े भाई जितना संपन्न न था, फिर भी दोनों मियां-बीवी नौकरी करते थे। पुश्तैनी मकान था। दो बच्चों वाले छोटे-से परिवार की उनकी गृहस्थी बड़े आराम से चल रही थी। घर में उनके किसी तरह का कोई अभाव नहीं था। पर जब राजरानी इस शहर में अपने बड़े बेेटे सुशील के पास होती तो उसे अपने छोटे बेटे के घर में अभाव ही अभाव न$जर आते और वह कसी भी तरह से उन अभावों को दूर करने की उधेड़-बुन में लगी रहती। बड़ी बहू को सास की यह आदत अक्सर खटकती और वह कभी-कभी कह भी देती-

‘माताजी, आप तो केवल शरीर से हमारे पास होती हैं, अन्यथा मन तो आपका देवरजी और उसके परिवार के साथ होता है।’ इस पर राजरानी बहू के सिर पर हाथ फेरते हुए कहती - ‘बहू, तुम ऐसा क्यों सोचती हो ? मेरे लिए तो जैसा सुशील वैसा उपेन्द्र। हाँ, जिन हालात में उपेन्द्र इस वक्त रह रहा है, उसकी कल्पना करते ही मन उदास हो जाता है।’

दरअसल, सच भी यही था। उसका छोटा बेटा उपेन्द्र पिछले दो साल से अपने परिवार सहित जम्मू में विस्थापितों के लिए बने एक कैम्प में रह रहा था। दो साल पहले राजरानी और उपेन्द्र को थोड़ा-सा सामान लेकर रातोंरात श्रीनगर से भागकर जम्मू आना पड़ा था। विस्थापन की वह घटना राजरानी को एक दु:स्वप्न के समान आज तक याद थी। उसे याद आया कि जब आस-पास के लोग चुपचाप घर छोडक़र जाने लगे तो उसे तब कितना गुस्सा आया था। अपने बेटे-बहू को उसने समझाया भी था- ‘हमें यहाँ कोई डर नहीं है। ये सब लोग हमारे अपने हैं। यह मुहल्ला हमारा है, इसी मुहल्ले में हमारी कई पीढिय़ों ने जन्म लिया है और इसी मुहल्ले में हम सबने सुख-दु:ख के दिन बिताए हैं। होगा झगड़ा शहर में कहीं। इस मुहल्ले में कुछ नहीं होगा। मगर राजरानी को हक़ीक़त तब समझ में आई जब सारा मुहल्ला एक-एक कर खाली हो गया ओर आखिरकार एक दिन मुहल्ले के एक बुजुर्गवार के समझाने पर राजरानी और उसके बेटे को भी रातोंरात अपना घर-बार छोडक़र जम्मू आना पड़ा। लडक़ा सुशील चूंकि पहले से ही इस बड़े शहर (दिल्ली) में स्थाई तौर पर रह रहा था, इसलिए राजरानी अब उसके पास ही आ गई थी।

यहाँ पहुंचकर राजरानी को हमेशा इस बात की चिंता सताती रहती कि जाने उपेन्द्र और उसका परिवार कैम्प में कैसे रह रहा होगा ? सुना है, कैम्प में रहने वालों को सरकार सहायतार्थ राशन, कपड़े और नक़दी भी देती है। शिविरार्थी सरकारी मुलाजिम हुआ तो उसे पूरी तनख्वाह दी जाती है।

उपेन्द्र और उसकी पत्नी को भी पूरी तनख्वाह मिलती थी क्योंकि दोनों सरकारी मुला$िजम थे। एक बार तो राजरानी ने उपेन्द्र से कहा भी था कि चल तू भी दिल्ली, वहीं रह लेना भाई के पास। अब तो उसका अपना मकान हो गया है। मगर उपेन्द्र माना नहीं था। दरअसल, दिल्ली चले आने पर सरकार की ओर से उन दोनों पति-पत्नी को हर महीने जो वेतन मिलता था, सम्भवत: वह वहाँ नहीं मिलता।

राजरानी ने एक दिन सुशील से बातों ही बातों में कहा भी था-

‘बेटा $जरा उपेन्द्र को चिट्ïठी तो लिखना। बहुत दिनों से उसकी कोई चिट्ïठी नहीं आई। उसका हाल-चाल पूछना। कहना, किसी चीज़ की चिन्ता न करे। मन नहीं लगे तो कुछ दिनों के लिए चला आए यहां। बच्चों को भी साथ ले आए।’

मां का अन्तिम वाक्य सुनकर सुशील तनिक सोच में पड़ गया था।

मां ने पूछा था - ‘क्या बात है बेटा, किस सोच में पड़ गए ?’

‘कुछ नहीं माँ, यों ही।’

‘यों ही क्या ? लिख दे ना चिट्ïठी। कब से कह रही हूँ। तुझे तो अपने काम से फुर्रसत ही नहीं मिलती।’

इससे पहले कि सुशील कुछ कहता, उसकी पत्नी बीच में बोल पड़ी थी-

‘माताजी, इन्होंने चिट्ïठी कब की लिख दी होती। असल में बात यह है कि मेरे माता-पिता कुछ ही दिनों मेें जम्मू से यहाँ आ रहे हैं। कैम्प में रहते-रहते पिताजी की तबियत बिगड़ गई है। उन्होंने यहाँ आने को लिखा है। यहाँ बड़े अस्पताल में उनका इलाज चलेगा।’

‘तो क्या हुआ, वे लोग भी रह लेंगे। तुम लोगों के पास अपना मकान है। किस बात की कमी है ? राजरानी सहज भाव से बोली थी।’

‘माताजी, यह दिल्ली है। जितना बड़ा यह शहर है, उतने ही बड़े यहां के खर्चे भी होते हैं। और फिर इस मकान में कमरे भी तो कुल तीन हैं। इतने सारे लोग कैसे रह सकेंगे एक साथ। हर परिवार को एक-एक कमरा तो चाहिए।’

‘अरे, तुम मेरी चिन्ता मत करो। मैं बाहर बरामदे में खाट डालकर सो जाया करुँगी। निकल जाएँगे ये कष्ट के दिन भी,’ राजरानी ने समस्या का निदान सुझाते हुए कहा था और सुशील की तरफ आशा-भरी दृष्टि से देखने लगी थी।

सुशील नेे चुप्पी साध ली थी। बेटे की इस चुप्पी में उसकी विवशता साफ झलक रही थी। बेेटे की इस चुप्पी ने राजरानी के तन-मन में उदासी भर दी। उसके चेहरे का रंग फीका पड़ गया। उसे लगा जैसे उसका सिर घूम रहा है और वह धम्म से फर्श पर गिरने वाली है। शक्ति बटोरकर वह केवल इतना कह पाई थी-

‘अच्छा बेटा, जैसी तुम लोगों की म$र्जी।’

कुछ ही दिनों में बहू के माँ-बाप आदि जम्मू से आ गए। घर में अच्छी चहल-पहल रही। रिश्तेदारों की बातें, कैम्प की बातें, मौसम की बातें। राजरानी ये सारी बातें सुन तो लेती पर मन उसका कैम्प में पड़े अपने छोटे बेटे उपेन्द्र के साथ अटका रहता। आज भी उसे उपेन्द्र की बहुत याद आ रही थी। सुशील ने टोकते हुए कहा-

‘माँ, ऐसे गुमसुम-सी क्यों रहती हो ? चलो, आज तुम्हें मन्दिर घुमाकर लाते हैं। ये सब लोग भी चलेंगे।’ कार में जाएँगे और कार में ही लौंटेंगे। चलो जल्दी करो, कपड़े बदल लो।’

राजरानी कुछ नहीं बोली।

‘उठो ना माँ, कपड़े बदल लो।’ सुशील ने हाथ पकडक़र माँ को उठाना चाहा।

‘नहीं बेटा, मैं मन्दिर नहीं जाऊँगी।’ राजरानी गुमसुम-सी बोली।

‘मगर क्यों ?’

‘देखो बेटा, तुम इनको लेकर मन्दिर चले जाओ। लौटती बार मेरे लिए जम्मू का एक टिकट लेते आना। मैं भी कैम्प में ही रहूंगी वहां। सुना है, घाटी में हालात ठीक होने वाले हैं। शायद वापस जाना नसीब में लिखा हो।

‘यह एकाएक तुमने क्या सोच लिया माँ ?’

मैंने ठीक ही सोच लिया बेटा। मुझे अपने वतन, अपने घर की याद आ रही है। मैें वहीं जाना चाहती हूँ। मेरा टिकट ले आना।

‘माँ ? ’ सुशील के मँुह से बरबस ही निकल पड़ा।

‘मेरा टिकट ले आओगे तो समझ लेना मैंने मन्दिर के दर्शन कर लिये’ राजरानी सुशील को एकटक निहारते हुए बोली।

सुशील अवाक्ï-सा माँ को देखता रहा। दोनों की आँखें सजल थीं।

0000































अनकही बात

जाड़े की रात और समय लगभग बारह बजे। फोन की घंटी बजी। जाने क्यों एक क्षण के लिए मुझे लगा कि फोन अस्पताल से आया होगा। जब तक कि मैं फोन उठाऊँ, घंटी का बजना बंद हो गया। मैंने दिमाग पर $जोर डाला- क्या बात हो सकती है ? किस का फोन हो सकता है ? हो सकता है अस्पताल से ही हो। मगर, अभी दो घंटे पहले ही तो मैं अस्पताल से आया हूँ। सब ठीक था तब। स्वयं भारद्वाज साहब ने मुझसे कहा था-

‘बहुत देर हो गई है। अब आप घर जाएँ। भगवान ने चाहा तो कल मुझे छुट्टïी मिल जाएगी, फिर ढेर-सारी बातें करेंगे।’

फोन की घंटी फिर बज उठी। मैंने चोंगा उठाया। उधर से आवा$ज आई-

‘अंकल, मैं सुरेश बोल रहा हूँ।’

‘हां-हां बेटे, बोलो, क्या बात है ? सब ठीक है ना ? भारद्वाज साहब कैसे है ?’

‘अंकल, पापाजी नहीं रहे। वे हम सब को छोडक़र चले गए आप तुरन्त आएं अंकल। मैं एकदम अकेला पड़ गया हूँ। प्ली$ज अंकल, प्ली$ज।’

जाने मेरे अन्दर छिपे आत्मबल ने कैसे $जोर मारा। मैंने कहा-

‘तुम किसी बात की चिंता मत करो सुरेश। मैं अभी पन्द्रह-बीस मिनट के अन्दर-अन्दर अस्पताल पहुँच रहा हूँ। तब तक तुम घर वालों को सूचित कर दो।’

जल्दी-जल्दी कपड़े बदल कर मैंने अपना स्कूटर स्टार्ट किया। बाहर सर्द हवाएँ चल रही थीं। अस्पताल मेरे घर से आठ किलोमीटर दूर था। रास्ते भर भारद्वाज साहब की बातें मेरे जेहन में घूमती रही। दो-ढाई घंटे पहले जब मैं उनके पास बैठा था तो कौन जानता था कि वह मेरी उनसे आखिरी मुलाकात होगी। शरीर से कमज़ोर तो वे बहुत हो गए थे, मन भी उनका टूट-सा चला था। दमे की बीमारी ने उनको भीतर-ही-भीतर खोखला करके रख दिया था और फिर एक बड़ी बीमारी के नीचे दूसरे छोटे-मोटे रोग भी बेसाख्ता पल रहे थे। यह सब अचानक नहीं हुआ था। दस वर्ष पूर्व यदि कोई भारद्वाज साहब से मिलता तो अवश्य कहता कि वह किसी विनयशील प्रोफेसर से नहीं अपितु किसी पहलवान से मिल रहा है। जाड़े के दिनों में जब तक भारद्वाज साहब कोट नहीं पहनते तब तक कॉलेज का सारा स्टाफ यह मानने को तैयार ही नहीं होता कि सर्दियाँ आ गई हैं।

स्कूटर मेरा अंधेरे को चीरता हुआ शहर की सुनसान सडक़ों पर दौड़ लगा रहा था और मन मेरा भारद्वाज साहब के साथ बिताए पिछले बीस वर्षों की यादों को पुनर्जीवित करने मेें लगा हुआ था। एक के बाद एक घटना उभरती चलती गई और मुझे लगा जैसे भारद्वाज साहब मेरे साथ मेरे पीछे स्कूटर पर बैठे हुए हैं। अभी तीन दिन पहले की ही तो बात है। भारद्वाज साहब के पैरों में सूृजन आ गई थी। दमा भी बढ़ गया था। कई दिनों से वे अच्छी तरह से सो भी नहीं पाए थे। मैं उन्हें स्कूटर पर बिठाकर डॉक्टर को दिखाने के लिए अस्पताल ले गया था। कई तरह के टेस्ट हो जाने के बाद डॉक्टर ने सुझाव दिया था कि भारद्वाज साहब को कुछेक दिनों के लिए अस्पताल में भर्ती करा दिया जाए। पुराने दमे की बीमारी ने इनके हार्ट को प्रभावित किया है और लिवर भी कुछ खराब हो चुका है। भारद्वाज साहब इससे पूर्व कई बार बीमार पड़ चुके थे, कई बार उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था, कई बार रोग की पीड़ा को मन में दबाए उन्होंने गहरी तकलीफ में कई-कई दिन गुज़ारे थे। डॉक्टर ने जैसे ही भर्ती होने की बात कही, भारद्वाज साहब ने मेरी ओर कातर न$जरों से देखा। उनकी आँखों में मैंने एक अजीब तरह की रिक्तता पाई। मुझे लगा कि वे भीतर-ही-भीतर हिल-से गए हैं। अज्ञात भय उनकी आँखों में तिर आया था। मैंने दिलासा देते हुए कहा-

‘डॉक्टर साहब ठीक कह रहे हैं। चार-पाँच दिन की ही तो बात है। यहाँ अच्छी तरह से इलाज होगा और कुछ अन्य टेस्ट भी हो जाएंगे। घबराने की कोई बात नहीं है।’

मेरी बात सुनकर भारद्वाज साहब के होंठों पर हल्की-सी चिर-परिचित मुस्कान बिखर गई जिसका मतलब था कि वे अपने स्वभाव के अनुकूल हर स्थिति से समझौता करने के लिए तैयार हैं।

अस्पताल अभी दो किलोमीटर दूर था। सामने से आती हुई सर्द हवाओं के झोंकों से टकराता मेरा स्कूटर सडक़ पर भागे जा रहा था। भारद्वाज साहब की एक-एक बात मुझे इस वक्त बड़ी ही मूल्यवान, सारगर्भित और जीवन-दर्शन से आपूरित लग रही थी। आज शाम अस्पताल में मैं उनके पास लगभग दो घण्टे तक बैठा रहा। अपनी श्रीमती जी और पुत्री को उन्होंने शाम को ही यह कहकर घर भिजवा दिया था कि पड़ोस में हो रही शादी में वे सम्मिलित हों और कन्यादान देना न भूलें। बेटे सुरेश को तार देकर बुलाया गया था और अस्पताल में वही उनकी सेवा-सुश्रूषा कर रहा था। मेरे साथ भारद्वाज साहब ने खूब बातें की। ऐसी बातें जो शायद उन्होंने किसी से न की हों। घर-गृहस्थी की बातें, जीवन-संघर्ष की बातें, दोस्तों की बातें आदि-आदि। बातें करते-करते वे बीच में खाँस देते जिससे उनकी बेचैनी बढ़ जाती। मुझे लगा कि उन्हें ज्यादा बातें नहीं करनी चाहिए। मेरे मना करने पर भी वे बोलते गए। बातें करते समय वे अतीत में ऐसे खो गए मानो किसी अनन्त-मार्ग पर चल दिए हों। दम संभालकर वे बोले-

‘मेरे शरीर के यों दुर्बल हो जाने का कारण आप जानते हैं ?’

‘नहीं’, मैंने तत्काल उत्तर दिया।

‘’मैं ऐसा नहीं था। आपसे भी अच्छी सेहत थी मेरी। मगर, अब तो। कहकर उन्होंने एक लम्बा नि:श्वास छोड़ा। मुझे लगा कि वे कुछ कहना चाहते हैं। पहले भी कई बार ऐसे मौके आए थे जब वे इसी मुद्रा में होते और मुझे अपने जीवन की कोई अनकही बात सुनाने वाले होते। मगर जाने क्यों अगले ही पल वे प्रसंग बदल देते। आज मुझे लग रहा था कि वे अपनी वह बात कह डालेंगे जिसको सुनने के लिए मैं वर्षों से बचैन था।

अब तक मेरा स्कूटर अस्पताल के अहाते के अन्दर पहुँच चुका था। भारद्वाज साहब चिर-निद्रा में लेटे हुए थे। चेहरे पर परम शान्ति के भाव अंकित थे। आँखों को विश्वास नहीं हो रहा था कि वे सचमुच अब इस संसार में नहीं रहे। उनकी पत्नी और पुत्री दोनों उनके सिरहाने बैठी थीं। मुझे देखकर वे दोनों फफक-फफक कर रो पड़ीं। मैंने धैर्य बँधाते हुए कहा-

‘यह वक्त हिम्मत हारने का नहीं है। प्रभु की यही इच्छा थी। उसकी इच्छा के सामने किस की चल सकी है ?’

मेरी बात सुनकर वे दोनों कुछेक पलों के लिए सहज हो गई किंतु अगले ही पल दोनों एक-दूसरे को देखकर पुन: रोने लगीं। अभी तक मैं अपने को संयत किए बैठा था मगर उनके रोने की आवाज़ में जो दर्द था, उसने मुझे भी अभिभूत कर डाला। मैं भी अपने आँसुओं को दबा न सका। रोने की आवा$ज ने अस्पताल के परिवेश को चीरकर रख दिया। एक अजीब तरह के सन्नाटे ने जैसे पूरे वातावरण का जकड़ दिया हो। प्राइवेट अस्पतालों की व्यवस्था ऐसे मामलों में बड़ी चुस्त हो जाती है। अस्पताल वालों ने तुरन्त-फुरत मृत्यु-प्रमाण-पत्र बना दिया और इस फिराक मेें रहे कि जल्दी से जल्दी हम लोग भारद्वाज साहब के शव को घर ले जाएं।

अर्थी उठने तक भारद्वाज साहब के घर-परिवार व दूर-पास के सभी परिजन, मित्र-पड़ोसी आदि सभी एकत्र हो चुके थे। सभी भारद्वाज साहब की मिलनसारिता, सज्जनता और सहज स्वभाव की प्रशंसा कर रहे थे। सभी का मानना था कि भारद्वाज साहब जैसे नेक आदमी को अपने पास बुलाकर परमात्मा ने ठीक नहीं किया। कोई-कोई यह भी कह रह था कि जाना तो एक दिन सबको है, पर भारद्वाज साहब अपनी सारी जि़म्मेदारियों को पूरा करके गए, यह उनके अच्छे कर्मों का फल है। शवयात्रा चल दी। ‘राम नाम सत्य है’, ‘सत्य बोलो, गत्य है’ की आवाज से वातावरण गूँजने लगा। रास्ते-भर मैं भारद्वाज साहब से कल रात हुई उस बात पर विचार करने लगा जो उन्होंने केवल मुझसे कही थी। अपनी गिरती हुई सेहत के बारे में उन्होंने मुझसे कहा था-

‘देखो, एक बात आज तुम्हें बताता हूँ। यह बात आज तक मैंने किसी से नहीं कही, अपनी पत्नी से भी नहीं। तुम मेरे अनुज समान हो, तुम्हें यह बात कहता हूँ, तुम सुनोगे तो मेरे दिल का बोझ हल्का होगा।’

‘हॉ-हॉ, ज़रूर कहो भारद्वाज साहब, $जरूर कहो’, मैंने जिज्ञासा-भरे लहजे में कहा था।

‘मेरी बड़ी बेटी सुनीता को तो तुम जानते हो ना ?’

‘सुनीता, हाँ - जानता हूँ। वही ना जिसका रिश्ता चंडीगढ़ में हुआ है।’

‘हाँ-हाँ, वही’ कहकर भारद्वाज साहब कुछ क्षणों के लिए रुके और फिर गहरी साँस ली और बोले-

‘यह बिटिया मुझे बहुत प्यारी थी। पहली संतान थी, शायद इसलिए। मैं उसे अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करता था। म-मगर उसको मन-माफिक ससुराल नहीं मिली। भीतर-ही भीतर घुलती गई बेचारी- दोष उसका नहीं हमारा था जो जल्दबा$जी मेें रिश्ता तय कर दिया।’ कहते-कहते भारद्वाज साहब की आँखें भर आई थीं।

मैंने बात का रुख मोडऩे के अंजाद में कहा था-

‘सब कर्मों का फल है भारद्वाज साहब, इसमें भला आप-हम क्या कर सकते है ?’

‘नहीं नहीं, ऐसी बात नहीं है। रिश्ते खूब सोच-विचार करके ही तय किए जाने चाहिए। खात-तौर पर बेटी का रिश्ता। देखो, अपनी बेटियों के लिए जब रिश्ते ढूंढ़ों तो खूब सावधानी बरतना।’

शवयात्रा श्मशान पहुँच गई। चिता को अग्नि दे दी गई। कुछ ही देर में चिता को लाल-लाल लपटों ने घेर लिया और चिता धूँ-धूँ करके जलने लगी। चिता के जलने की सांय-सांय की आवा$ज में मुझे भारद्वाज साहब की वह बात गूँजती हुई सुनाई दी

‘अपनी बेटियों के लिए जब रिश्ते ढूंढों तो खूब सावधानी बरतना - खूब सावधानी बरतना, खूब सावधानी बरतना-खूब सावधानी. । । ।’

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नियति

बीस वर्षों की अवधि कोई कम तो नहीं होती। बीस वर्ष ? यानी पूरे दो दशक। बच्चे जवान हो जाते हैं, जवान प्रौढ़ और प्रौढ़ जीवन के आखिरी पड़ाव में पहुंचकर ‘क्या पाया, क्या खोया’ की दुविधा मन में पाले दिन-दिन धकियाते जाते हैं। झेलम ने अपना रुख तो नहीं बदला, पर हाँ इन बीस वर्षों में उसकी जन्मभूमि, उसके पैदाइशी नगर में काफी बदलाव आ गया है। जो खस्ताहाल मकान उसके मौहल्ले में खड़े थे, वे या तो नए बन गए हैं या फिर उन्हें दूसरों ने खरीद लिया है। दुकानों पर बैठने वाले परिचित चेहरे गायब-से हो गए हैं। उन पर अब कोई और ही बैठे न$जर आर रहे हैं। सडक़ें कहीं-कहीं चौड़ी हो चुकी हैं। कुछेक दुकानों ने तो स्थान और सामान दोनों बदल लिए हैं। जहाँ पहले अखबार-पत्रिकाएँ बिका करती थीं, वहाँ अब दूध डबलरोटी बिकती है। जहाँ पहले डाकघर हुआ करता था, वहाँ अब हलवार्ई की दुकान खुल गई है। डाकघर कहीं दूसरी जगह चला गया है। फल-सब्ïज़ी वाली दुकान अब ‘वीडियो-कार्नर’ में बदल गई है। एक और चौकाने वाला परिवर्तन इन बीस वर्षों में यह हो गया है कि उसके मोहल्ले की सडक़ पर कभी टै्रेफिक जाम नहीं होता था, मगर अबके उसने देखा कि आध-आध घंटे तक आगे सरकने को जगह नहीं मिलती है। दरअसल, बीस वर्षों में जनसंख्या बढ़ी तो खूब है, पर लोगों ने वाहन भी खूब खरीद लिए हैं।

रेलगाड़ी रात के घने-अंधियारे को चीरती हुई ते$ज गति से भागे जा रही थी। कंपार्टमेंट की बत्तियाँ सवारियों ने बुझा दी थीं। एक-एक करके सभी सो चुके थे। पर वह चाहकर भी नहीं सो पा रहा था। उसका साथ ठीक सामने वाली ऊपर की बर्थ पर लेटे एक अधेड़-से व्यक्ति दे रहे थे। वे सज्जन मुटापे के कारण बर्थ पर ठीक तरह से न लेट पाने की असुविधा भोग रहे थे और वह बीस वर्षों के बाद घर जाने और वहाँ से भारी मन लिए वापस लौट आने की मनोव्यथा में झूल रहा था। रेल की धड़धड़ाट के साथ ही उसकी स्मृति भी अतीत के आवरणों को चीरती हुई बीस वर्ष पीछे चली गई।

बीस वर्ष पहले जब वह घर से निकला था तो अनुभवों का विस्तृत आकाश उसके सामने था। तब घर और अपने परिवेश की सीमित-सी-दुनिया को अलविदा कहकर उसने नए परिवेश में प्रवेश किया था। उसे अच्छी तरह याद आया कि जब वह घर से चला था तो मात्र पचास रुपए लेकर चला था। दादाजी ने अलग से दस रुपए उसकी जेब में और डाल दिये थे और सर पर हाथ फेरते हुए समझाया था- ‘देखो बेटा, पहली बार घर से बाहर जा रहे हो। एक बात का हमेशा ध्यान रखना, बेटाï? परदेश में हम लोग तो तुम्हारे साथ होंगे नहीं, पर हाँ, तुम्हारी मेहनत, लगन और मिलन-सारिता हरदम तुम्हारा साथ देगी। औरों के सुख में सुखी और उनके दु:ख में दु:खी होना सीखना, यही सबसे बड़ा मानव-धर्म है।’

उसने महसूस किया कि गाड़ी किसी बड़े स्टेशन पर रुक गई है। कुछेक यात्री उतरे हैं और कुछेक चढ़े हैं। अनधिकृत रूप से चढ़े किसी यात्री को कंडक्टर ने बदसलूकी के साथ उतार दिया है। गाड़ी मामूली-सी सरसराहट के साथ फिर धड़धड़ाने लगती है।

यह उसके दादाजी की दूरदर्शिता ही थी कि वह आगे पढ़ पाया था अन्यथा उसके पिताजी मैट्रिक के बाद उससे नौकरी करवाने के पक्ष में थे। इंजीनियरिंग की डिग्री मिल जाने के बाद उसकी नौकरी बाहर लगी। बस तभी से वह बाहर है। दिन-पर-दिन बीतता गया और उसकी गृहस्थी भी बढ़ती गई। पहले आठ-दस सालों तक घर वालों से, दोस्तों से पत्रों का खूब आदान-प्रदान हुआ। वह भी विभोर होकर उनका उत्तर देता रहा। माता-पिता का हालचाल, दादाजी के समाचार, छोटे-भाई बहनों की बातें, पड़ोसियों की सूचनाएँ पत्रों में पाकर उसे लगता कि परदेश में रहकर भी वह अपने गाँव में ही है।

धीरे-धीरे एक अंतराल आया। घर से दूरी ने संबंधों में कडुवाहट घोल दी। अब पत्रों की संख्या घटने लगी। हालचाल कम और मतलब की बातें ज्य़ादा होने लगी। इस बीच दादाजी का स्वर्गवास हो चुका था। भई-बहनों की शादियाँ हो चुकी थीं। काका-ताऊ दूसरी जगहों पर चले गए थे। पड़ोसियों में कुछ थे और कुछ भगवान को प्यारे हो गए थे।

गाड़ी फिर रुक गई। इस बार शायद किसी ने चेन खींची थी, अन्यथा इस सुनसान जगह पर गाड़ी रुकने की कोई वजह न थी।

उसने धीमे से आँखें खोलीं। सामने वाली बर्थ पर अधलेटे-से वे भारी भरकम महाशय नीचे उतर आए थे। उन्होंने बत्ती जलाई। कम रोशनी में उनका चेहरा उसे अपने पिताजी के चेहरे जैसा दिखाई दिया। हां, बिल्कुल वैसा ही। वैसी ही रोबदार मूँछे, बाल भी वैसे ही। उस पर उड़ती-सी न$जर डालते हुए वे महाशय बाथरूम की तरफ बढ़ गए। उनके चेहरे पर भारी अवसाद की रेखाएँ साफ दिख रही थीं। उसे ध्यान आया डिप्रेशन के समय उसके पिताजी की मुखाकृति भी कुछ ऐसी ही हो जाती है। परसों की ही तो बात है। पिताजी की किसी बात पर जाने क्यों वह अपने को संयत न रख सका था। इन बीस-तीस वर्षों में हमेशा पिताजी ही बोलते रहे हैं और उसने एक आज्ञाकारी बालक या सिपाही की तरह उन्हें सुना है, पलटकर जवाब कभी नहीं दिया। पिताजी जब बात शुरू करते हैं तो अपने अनुभवों, संघर्षों और अभावों की आड़ में बहुत कुछ कह डालते हैं। उनकी सारी व्यथा ले-देकर यह होती है कि उनका लडक़ा उनसे दूर क्यों हो गया ? पास में रहता तो उनके सुख-दु:ख में काम आता। दरअसल, बुढ़ापे के अहसास ने उन्हें भीतर तक हिला दिया है। माना कि उनका सोचना गलत नहीं है, मगर इस परेशानी के लिए जि़म्मेदार कौन है ? समय, परिस्थितियों, अवसर आदि इनकी भी तो हमारी नियति को स्थिर करने में खासी भूमिका रहती है। इसी को तो आबोदाना कहते हैं। भाग्यवादी होते हुए भी पिताजी यह नहीं समझते। और फिर जब उसकी नौकरी बाहर लगी थी, तब बधाई का तार सबसे पहले पिताजी ने ही तो भेजा था। पर शायद, तब बात दूसरी थी ?

परसों की घटना उसे फिर याद आई। वे दोनों बातों ही बातों में असंयत हो उठे थे। ऐसा उन दोनों के बीच पहली बार हुआ था। पिताजी की आँखें लाल हो गई थीं। पहली बार किसी ने उनके गढ़ को फोडऩे का दु:साहस किया था। इस चुनौती की उन्होंने कभी कल्पना भी न की होगी। अगली सुबह उसे जाना था। रात को पिताजी बिल्कुल भी सो नहीं पाए थे, ऐसा उसे मां से मालूम पड़ा था। नहा-धोकर वह तैयार हो चुका था। सामान आदि भी बँध चुका था। टोकरी के लिए एक छोटा-सा ताला पिताजी कहीं से ढंूढक़र लाए थे। निकलते समय सकुचाते हुए उसने पिताजी से हाथ मिलाए तो गीली आँखों से बड़ी ही गम्भीर मुद्रा में उन्होंने उसके बालों पर हाथ फेरा। पोलिथिन का एक छोटा-सा बैग पकड़ाते हुए पिताजी बोले थे-

‘इसमें यहाँ की मौसमी सब्ïज़ी और फल हैं। कुछ नाश्ता भी रखा है। रास्ते में काम आएगा। पहुँचते ही चिट्ïठी भेजना। चिंता रहती है।’

भारी मन से सब से विदा लेकर वह चल दिया था।

गाड़ी गंतव्य पर पहुँचने ही वाली थी। उसने अपना सामान समेटा। पोलिथीन के बैग में हाथ डाला। दो मीठे कुलचे निकाले। चाय के साथ वे उसे और भी मीठे लगे। वह सोचने लगा, काश उस दिन वह तकरार न हुई होती- !!

इस बीच गाड़ी स्टेशन पर पहुंँच चुकी थी।

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अन्तर्विरोध

स्टेशन पहुँचने पर उसे मालूम पड़ा कि मद्रास जाने वाली सुपर-फास्ट गाड़ी लगभग पैंतालीस मिनट लेट है। उसने इधर-उधर न$जर दौड़ाई। उसे यह देखकर खुशी हुई कि नलिनी भीतर प्लेटफार्म पर नहीं है, अन्यथा उसे ढूंढने में खासी दिक्कत होती। अपने स्कूल की पाँच-छ: लड़कियों के साथ वह टिकट-घर के पास ही खड़ी एक अन्य अध्यापिका से बातें कर रही थी। टिकट शायद उसने अभी खरीदी नहीं थी।

नवीन को देख नलिनी को थोड़ा आश्चर्य हुआ। उसने शायद यह आशा नहीं की थी कि नवीन स्टेशन आएगा इस गर्मी में और वह भी साइकिल पर। नलिनी संजीदगी-भरे लहजे में बड़े ही अकृत्रिम भाव से बोल उठी-

‘स्कूल का बाबू कह गया था कि मैं खुद ही जल्दी स्टेशन पहुँचकर कन्सेशन बनवा दूंगा और साथ ही चपरासी भी आएगा सामान चढ़ाने को। देखो न, अभी तक कोई भी नहीं आया। मैं स्कूल से सीधे आ रही हूँ इन लड़कियों को लेकर। सच, बड़ी गलती हुई जो मैंने बड़ी बहनजी से लड़कियों के साथ जाने के लिए हाँ कर दी- ओफ! आज गर्मी भी तो बहुत पड़ रही हैै।’

नलिनी की इस बात ने नवीन को लगभग चार घंटे पीछे धकेल दिया। आज सवेरे से ही वह और उसकी दोनों बेटियाँ नलिनी के सामान को चैक करने, उसके लिए सफर का जरूरी सामान जुटाने तथा अन्य प्रकार की दूसरी तैयारियों में लगे हुए थे। आज दोपहर की गाड़ी से उसे अपने स्कूल की छात्राओं के साथ मद्रास जाना था। मद्रास में स्कूली छात्राओं का ‘गाइड्ïस’ का एक अखिल भारतीय शिविर लगने वाला था। यद्यपि नलिनी स्वयं गाइड कभी नहीं रही मगर चूँकि गर्मियों की छुट्टिïयों का म$जा दूसरी अध्यापिकाएं खराब नहीं करना चाहती थी, इसलिए उन्होंने जाने के लिए ‘ना’ कर दी थी। दो दिन पहले बड़ी बहन जी ने एक-एक करके सभी अध्यापिकाओं को, यहाँ तक कि स्वयं ‘गाइड्ïस’ की स्कूली-प्रभारी से अनुरोध किया था कि वह लड़कियों को साथ लेकर मद्रास चली जाए। मगर, किसी ने हाँ नहीं भरी। सभी ने अपनी-अपनी घरेलूु समस्याओं का रोना रोकर पिंड़ छुड़ाया था। नलिनी की सबसे बड़ी कमजोरी ‘ना’ न करने की रही है। इसी बात का फायदा उठाकर प्रधानाध्यापिका ने उससे ‘हाँ’ करवा ली थी। अपनी इस स्वभावगत कमज़ोरी का एहसास नलिनी को इन दो दिनों में बराबर होता रहा। बात-बात में वह बच्चों से कहती रही- ‘अच्छा रहता अगर मैंने ‘ना’ कह दी होती। सोचा था छुट्टिïयों में जमकर आराम करूँगी, मगर जाने क्यों यह परेशानी मोल की ?’

नवीन यह सब सोच ही रहा था कि इतने में स्कूल का बाबू सामने से आता हुआ दिखाई दिया। उसके हाथ में कुछ कागज़-पत्र थे। हड़बड़ाया-सा वह सीधा टिकट-काऊंटर पर गया। टिकट बाबू से बात करने के बाद वह नलिनी के पास आया-

‘कन्सेशन देने मेें टिकट-बाबू कुछ एतराज़ कर रहा है, कहता है- कन्सेशन-फार्म भरने में कुछ गलती रह गयी है। मैं भीतर जाता हूँ अपने एक परिचित से बात करने।’

नलिनी नवीन की तरफ देखने लगी। एक-आध क्षण के लिए उसे लगा कि अभी नलिनी दृढ़ स्वर में कहेगी की कोई जरूरत नहीं है। नियमपूर्वक कन्सेशन मिलता है तो ठीक, नहीं तो मैं नहीं जाऊँगी। गलती मेरी नहीं तुम और तुम्हारे कार्यालय की है। इस सबकी यातना मैं क्यों भुगतूँ भला ?’

मगर, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उल्टा, नलिनी ने उसी संजीदा स्वर में बाबू से कहा - ‘कोशिश कर लो भीतर जाकर, अगर कन्सेशन बन जाता है, तो क्या बुरा है ?’

सुनकर नवीन को भारी धक्का लगा। कहाँ तो घर से निकलते समय नलिनी बच्चों से बराबर कहती रही कि भगवान से प्रार्थना करना कि आज ट्रेन ही न आए और मेरी यात्रा कैंसल हो, और कहाँ बाबू से कहा जा रहा है कि भीतर जाकर किसी भी तरह से कन्सेशन बनवा लो। इस प्रकार के अन्तर्विरोध की कल्पना नवीन ने नलिनी के व्यक्तित्व में कभी नहीं की थी। उसे उसने एक आत्म-विश्वासी, संजीदा और अनुशासन-प्रिय महिला के रूप में ही देखा और परखा था। अपनी नौकरी के दौरान छोटे-मोटे बाबुओं, चपरासियों, अभिभावकों को उसने कभी मुँह नहीं लगाया था। उसके व्यक्तित्व की अपनी एक गरिमा थी, अपना एक अंदाज था। हर काम को सलीके से करने के लिए वह प्रसिद्ध थी।

कुछ ही देर में बाबू उत्वाहवद्र्धित हो भीड़ में से प्रकट हो गया। टिकटें बन गई थीं। गाड़ी आने में अब भी पन्द्रह मिनट शेष थे। नवीन नलिनी को पत्रिका दिलवाने के उद्ïदेश्य से बुक-स्टॉल तक ले गया। इस बीच उसे मौका मिल गया था कि वह उससे पूछे कि यात्रा पर न जाने का उसे जो अच्छा बहाना मिल गया था, उसे उसने क्यों कर गँवा दिया ?

‘देखो नवीन, ऐसा है कि सारा सामान पैक हो गया था। सारी लड़कियाँ स्टेशन पहुँच चुकी थीं, उनका समान भी आ गया था, एडवांस भी ले लिया था मैंने। अब न जाते तो अच्छा नहीं लगता।’ नलिनी ने सारी बातें स्टाल पर किसी पत्रिका के पृष्ठ उलटते-पलटते एक ही सांस में कह डाली।

‘‘पर तुम्हें ऐसे में बिना रिजरवेशन के कितनी तकलीफ होगी, उसका कुछ अंदाज़ है तुम्हें ?’ ’

‘‘मैं अकेले थोड़े ही जा रही हूँ। दूसरे स्कूल की टीचर्स भी तो जा रही हैं। वह देखो, मेरी एक परिचित टीचर भी जा रही है। रास्ता बातचीत करते कट जाएगा। और फिर अपने एक परिचित के नाम मेरी हेड-मिस्ट्रेस ने एक पत्र भी मुझे दिया है। वहाँ हमें कोई तकलीफ नहीं होगी।’’

यह सुनकर नवीन को बड़ा बुरा लगा। उसके मन में आया कि कह दे कि फिर सुबह बच्चों को झूठमूठ क्यों बहलाया था तुमने। क्यों मुझसे कहा कि तुम बड़ी बहनजी से ‘ना’ न कर सकी ? अब जबकि तुम ‘ना’ कर सकती थी, तुमने ‘ना’ क्यों नहीं की ? दरअसल, तुम जाना चाहती थी और तुम जा रही हो।

स्टेशन पर नवीन के एक परिचित उससे मिल गये। वे दोनों एक तरफ जाकर ऑफिस की कुछ बातें करने लगे। नलिनी अपनी लड़कियों के पास जाकर खड़ी हो गई......। गाड़ी आने में अब भी कुछ समय था। मित्र के जाने के बाद नवीन उस तरफ गया जहाँ नलिनी व उसकी लड़कियाँ ट्रेन का इंजतार कर रही थीं।

‘‘लगता है ट्रेन आने में अभी कुछ और टाइम लगेगा। अभी तो फाटक भी बंद नहीं हुआ है।’’ नवीन ने रुमाल से चेहरे का पसीना पोंछते हुए कहा।

‘‘स्कूल का चपरासी भी आ गया है। चढ़ा देगा सामान। कुछ पेरेंटस भी आ गये हैं। बाबूजी भी हैं। कोई दिक्कत नहीं होगी.....,’’ नलिनी सहज भाव से बोल उठी।

‘‘तो फिर मैं जाऊँ ?’’

‘‘हाँ-हाँ, और क्या। क्यों इस गर्मी में परेशान होते हैं। सोनू-मोनू घर में अकेली हैं। जाते ही उन्हें खूब प्यार करना।’ नलिनी यह सब कहने के लिये जैसे तैयार बैठी थी।

नवीन उम्मीद लगाए बैठा था कि वह कहेगी रुको अभी थोड़ा। गाड़ी आने के बाद चले जाना। मगर ऐसा उसने नहीं कहा।

साइकिल-स्टैण्ड से अपनी साइकिल उठाकर नवीन सीधे घर की ओर चल दिया।

अगले दिन सुबह स्कूल का बाबू नवीन के घर आ गया। नवीन समझ गया कि बाबू कल का समाचार देने आया होगा।

‘‘क्यों भई, कल फिर ट्रेन में जगह मिल गई थी न उनको ?’’ नवीन ने पूछा।

‘‘नही साहब, ट्रेन फुल थी.......बैठने को भी जगह नहीं थी......।’’

‘‘फिर ?’’

‘‘बस, खड़े-खड़े गई.....। अगले स्टेशन पर जगह मिल गई होगी।’’

‘‘अच्छा, पर तुम तो कहते थे कि सब ठीक हो जाएगा। चपरासी जगह रोक लेगा.... ।’’

‘‘ऐसा ही है साहब, इस गाड़ी में हमेशा ही रश रहता है।’’

‘‘चलो ठीक है, आगे जगह मिल गई होगी। कम-से-कम बाकी का सफर तो आराम से कटेगा.... । अच्छा, यह बताओ और क्या कह रही थी तुम्हारी मैडम ?’’ नवीन ने बात बनाई।

‘‘और कुछ नहीं, साहब। बस कह रही थी देखो ये गाड़ी के आने तक रुके भी नहीं। चले गये। हमेशा ऐसा ही करते हैं......।’’

नवीन के चेहरे पर सहसा गम्भीरता-सी छा गई। उसे लगा मानो उसकी सांस रुकने वाली है। भारी कदमों से वह बाबू को छोडऩे के लिए बाहर दरवा$जे तक आ गया और बहुत देर तक इस बात पर विचार करने लगा कि क्या सचमुच आज के इस जटिल जीवन में अन्तर्विरोध हमारे व्यक्तित्व और आचरण का अभिन्न हिस्सा तो नहीं बन रहा ?

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पछतावा

हमारे पड़ोस में रहने वाले आनंदीलाल जी सत्तर के करीब होंगे। काया दुर्बल है, अत: चलने-फिरने में दिक्कत महसूस करते हैं। सुबह-सुबह जब मैं बच्चों के साथ बैड-मिंटन खेलता हूँ तो वे मुझे धीमी चाल से चहल-कदमी करते हुए दिखाई पड़ते है। सिर झुकाए तथा वितृष्ण न$जरों को इधर-उधर घुमाते हुए वे भारी कदमों से मेरे सामने से निकलते हैं। क्षण-भर के लिए वे मुझ पर नजऱें गड़ाते हैं और फिर आगे बढ़ जाते हैं। उनकी छोटी-छोटी आँखों में मुझे अवसाद की गहरी परतें जमी हुई न$जर आती हैं। मैं सोचता हूँ कि शायद मंदिर जा रहे होंगे, किन्तु मंदिर के फाटक तक पहुँच जाने के बाद वे वापस मुड़ जाते हैं। मुझे वे ऐसे घूरते हैं मानो मैं कोई अपराधी होऊँ। उनकी तरफ देखकर मुझे ऐसा लगता है जैसे फटकार लगाकर मुझे कुछ कहना चाहते हों-

‘‘काल की चाल को कौन थाम सका है भाई ? योगी भी नहीं, महात्मा भी नहीं। अब भी वक्त है, चेत जा बाबू, चेत जा।’’

उनकी न$जरों की फटकार से बचने के लिए मैं अक्सर अपनी गर्दन मोड़ लेता हूँ और बच्चों के साथ खेल में लग जाता हूँ। आगे बढऩे के बाद वे एक बार फिर पीछे मुडक़र देखने लगते हैं, शायद यह जानने के लिए कि मैं भी उन्हें देख रहा हूँ कि नहीं।

हमारा यह मौन-संभाषण तब से चला आ रहा है जब से मैं और आनंदीलाल जी इस आवासीय कॉलोनी में रहने लगे हैं। हमारी ही लाइन में सात-आठ मकान पीछे उनका मकान है। एक दिन की बात है- आनंदीलाल जी अपनी दिनचर्या के मुताबिक मेरे मकान के सामने से निकले। दिनचर्या के तुमाबिक ही उन्होंने मेरे ऊपर नजऱें गड़ाई। उस दिन जाने ऐसा क्या हुआ कि वे देर तक मुझे देखते रहे। मैने भी न$जरें हटाई नहीं बल्कि आँखों ही आँखों में उनको आदरभाव के सथा अभिवादन पेश किया। मुझे लगा कि मेरे इस अभिवादन को पाने की शायद वे बहुत दिनों से प्रतीक्षा कर रहे थे। क्षण-भर में अपरिचय, संकोच और औपचारिकता की सारी दीवारें जैसे ढह गईं। हाथ के इशारे से उन्होंने मुझे अपनी ओर बुलाया। मैं चाहता तो उनके पास नहीं जाता, मगर मुझे लगा कि वे मुझे कुछ कहना चाहते हैं। शायद कई दिनों से वे इस अवसर की तलाश में थे। मैं सडक़ पार कर उनके पास पहुँचा। हाथ जोडक़र मैंने नमस्ते की। उन्होंने मेरे कन्धे पर अपना दायां हाथ रखा, जिसका मतलब था कि वे मुझे आशीर्वाद दे रहे हैं। इस बीच मेंने अनुभव किया कि उनकी छोटी-छोटी आँखों में अश्रु-कण तैरने लगे हैं। सांस उनकी फूली हुई है तथा टाँगें लर$ज रही हैं। इससे पहले कि मैं कुछ कहता, वे बोल पड़े-

‘तुम मास्टर हो, बच्चों को पढ़ाते हो ना ?

‘हाँ-हाँ, लडकों को पढ़ाता हूँ। कॉलेज का प्रोफेसर हूँ।’ मैंने बड़ी शालीनता से निवेदन किया।

मेरी बात सुनकर जैसे उनकी वाणी खुल-सी गई।

दूसरा हाथ भी मेरे कन्धे पर रखकर वे बोले-

‘प्रोफेसर साहब, अब भी वक्त है। चेत जाओ, चेत जाओ....।’

मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया कि आनंदीलाल जी कहना क्या चाहते हैं। मैंने अन्दा$ज लगाने की खूब कोशिश की, किन्तु नाकामयाबी ही हाथ लगी। मेरी उलझन को वे भांप गये, बोले-

‘घर आ जाओ कभी, सारी उलझन दूर हो जाएगी...।’

मुझे लगा कि मैं पकड़ा जा रहा हूँ और मेरी ज्ञान-गरिमा चकना-चूर होती जा रही है। मैं मन-ही-मन इस बूढ़े आदमी की आत्मविश्वास एवं जीवन-सार से भरी हुई बातों की प्रशंसा करने लगा। क्या मनोवैज्ञानिक दृष्टि है ।़ क्या आत्म-बल है ।़ ....कहीं ऐसा तो नहीं कि जीवन के निचोड़ से निकले किसी बहुमूल्य रहस्य अथवा तथ्य को यह शख्स मुझे बताना चाहता हो। पर मुझे ही क्यों,....कॉलोनी में और भी तो इतने सारे लोग रहते हैं। मेरी चुप्पी उन्होंने तोड़ी, बोले-

‘कोई मजबूरी नहीं है। म$र्जी हो तो आ जाना। तुम्हारे लेख मैं अखबार में पढ़ता रहूता हूँ’ यह कहकर वे हल्की-सी मुझकराहट के साथ आगे बढ़ गए। उनके आखिरी वाक्य ने मुझे भीतर तक गुदगुदा दिया। मेरे अनुवादों और कहानियों को यह आदमी अपनी भाषा में लेख कहता है। कोई बात नहीं। पढ़ता तो है। पड़ोसी होने के रिश्ते को लेखक-पाठक के रिश्ते ने और बल प्रदान किया। मैं उसी दिन शाम के वक्त आनंदीलाल जी के घर चला गया। दरवा$जा उन्होंने ही खोला। हल्की-सी मुस्कराहट के साथ उन्होंने मेरा स्वागत किया। हम दोनों आमने-सामने बैठ गए। काफी देर तक वे मुझे देखते रहे और मैं उन्हें। बीच-बीच में वे मामूली-सा मुस्करा भी देते। मौन-संभाषण जारी था। वे मुझे क्या चेताना चाह रहे थे, यह मैं आज जानना चाहता था। इस बीच मैंने महसूस किया कि वे बड़े सहज भाव से मेरी हर गतिविधि का अपनी अनुभवी न$जरों से बड़ी गहराई के साथ अध्ययन कर रहे हैं। मुझे अपने मित्त-भाषी स्वभाव पर दया आई। आनंदीलाल जी अब भी संयत-भाव से मुझे तके जा रहे थे और मंद-मंद मुस्कराए जा रहे थे। तभी उनकी श्रीमती जी ने प्रवेश किया। पानी के दो गिलास हमारे सामने रखकर वह भीतर चली गई। जाते-जाते उसने अपने पति को कुछ इस तरह से घूर कर देखा मानो कह रही हो कि मुझे चाय बनाने के लिए मत कहना, मुझ में अब वह ताकत नहीं रही।

पानी पीकर गिलास को जैसे ही मैंने नीचे रखा, आनंदीलाल जी बोल पड़े-

‘मन्दिर का मतलब मालूम है ?’

‘मैं कुछ सकपकाया। अचानक ऐसा सवाल उन्होंने दे मारा था मुझ पर कि में सकते मेें आ गया। शबï्ïदों को जमाते हुए मैंने कहा-

‘जहाँ भगवान की मूर्ति रहती है, जहाँ भक्तजन पूजा-अर्चना करते हैें, वह पवित्र-स्थान मन्दिर कहलाता है।’

‘न-न, यह सही उत्तर नहीं है’ वे ऐसे बोले मानो मेरी प्रोफेसरी का बल निकालने पर तुले हुए हों ।

तो फिर ? मैंने पूछा।

‘मन के अन्दर जो रहे, वह मन्दिर।’ कहकर वे हल्का-सा हंस दिए।

मन्दिर की यह परिभाषा सुनकर मेरे विस्मय की सीमा नहीं रही। सचमुच इस परिभाषा में दम था। वे एक बार फिर मुस्करा दिए मुझे देखकर, शायद यह सोचकर कि उन्होंने मुझे भिड़ते ही चित कर दिया था। मैंने पाया कि उनके चेहरे पर विजयोल्लास झलक रहा था। मेरी बेचैनी बढ़ गई। सोचने लगा कि यदि इन्होंने और कोई ऐसा ही निरुत्तर करने वाला प्रश्न ठोंक दिया तो मेरी प्रतिष्ठा खतरे में पड़ सकती है। मैंने विनत होकर पूछा-

‘वह आप चेत जाने की बात कह रहे थे ना।’

‘हां-हां कह रहा था, मगर पहले मेरे एक और प्रश्न का जवाब दो।’

मैें आनंदीलाल जी की तरफ जिज्ञासाभरी न$जरों से देखने लगा। मुझे लगा कि वे इस वक्त सचमुच यक्ष बने हुए हैं।

‘यह बताओ जीवन में गहन पछतावा कब होता है ?’

प्रश्न कोई कठिन नहीं था। मैंने तत्काल उत्तर दिया-

‘गलत काम करने पर पछतावा होता है।’

‘नहीं, इस बार भी तुम सही जवाब नहीं दे सके।’

‘तो सही जवाब क्या है ?’ मैंने झुंझलाते हुए कहा।

उन्होंने लम्बी-गहरी सांस ली। इधर-उधर न$जरें घुमाई और कहने लगे-

‘ममता किसी से मत रखो, अपनी संतान से भी नहीं। नहीं तो बुढ़ापे में पछताओगे। मैं तो पछता रहा हूँ। तुम चेत जाओ।’

आनंदीलाल जी अब इस संसार में नहीं रहे। उनकी धर्मपत्नी का भी पिछले महीने स्वर्गवास हो गया। मैंने आनंदीलाल जी के अतीत को जानने की कोशिश की तो मालूम पड़ा कि अपने समय के प्रतिष्ठित व्यापारियों में उनकी गणना थी। अपनी लगन और मेहनत से उन्होंने पुस्तक-प्रकाशन का कारोबार जमाया था। जब बच्चे बड़े हो गए तो उनको अपना कारोबार संभलाकर खुद चालीस वर्षों की थाकन को उतारने की गर्ज़ से घर पर रहने लगे। लडक़ों की शादियाँ हुई, घर-गृहस्थी नए आयाम और नए विस्तार लेती गई। कारोबार भी फैलता गया और एक दिन नौबत यह आ गई कि कारोबार का बंटवारा हो गया। तीनों लडक़े अलग हो गए और अलग-अलग रहने लगे। आनंदीलाल जी और उनकी पत्नी इस संसार में अकेले रह गए और उनके साथ रह गई उनके अतीत की यादें, जिन यादों को अपने सीने में संतोए जाने कितनी रातें उन्होंने करवटें बदल-बदल कर काटी होंगी, इसका अनुमान मैं अच्छी तरह लगा सकता हॅँ।

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मोहपाश

बिटिया ने जैसे ही सूचना दी कि सुनीता आण्टी आई है़, तो मैं समझ गया कि आज फिर कोई-न-कोई काम लेकर आई होंगी सुनीता जी। सुनीता मेरे ऑफिस में काम करती है और मेरे ही मुहल्ले में रहती है। छुट्टïी के दिन वह अक्सर हमारे घर आती है। मुझे वह भाई-साहब, भाई-साहब कहकर सम्बोधित करती है। जब भी वह घर आती है तो छोटा-मोटा काम साथ लेकर आती है। ‘भाई-साहब, वह एल०आई०सी० में मेरे लोन की एप्लीकेशन पहुँचा दी ना ?’ ‘अबके आप अपना बिजली का बिल जमा कराएँ तो मेरा भी करा देना।’ ‘वह मेरी विक्की कल पंचर हो गई, कल आपके साथ ही ऑफिस चलूंगी भाई-साहब’ आदि-आदि। मैं इन बातों को सुनने का आदी हो चुका हूँ। जहां तक बन पड़ता है मानवीय आधार पर कुछ काम कर देता हूँ, पर कुछ टालने भी पड़ते हैं।

आज भी सुनीता जी कोई काम लेकर आई होंगी, यह सोचकर मैं तनिक अनिच्छापूर्वक खड़ा हुआ। तब तक सुनीता जी मेरे सामने पहुँच चुकी थी-

‘आइए, आइए। कहिए कैसी हैं आप ? वो एल०आई० सी० का आपका काम मैंने करा दिया है.....बिजलीघर मैं कल जाऊँगा, मुझे भी अपनी फीस जमा करानी है।’

मुझे लगा कि मेरी बातों की ओर सुनीता जी का ध्यान नहीं है। वह किसी गहरी पीड़ा के बोझ तले जैसे कसमसा रही है। उसकी आँखों में मैने अवसाद की परतों को जमा हुआ पाया। घोर निराशा और कुंठा का भाव उसके चेहरे पर अंकित था।

मैंने फिर पूछा- ‘क्या बात है सुनीता जी ? आज आप बहुत उदास लग रही हैं। अमेरिका से कोई पत्र आया

क्या ?’

मेरी बात सुनकर वह क्षणभर के लिए रुकी। फिर जैसे शब्ïदों को ढूंढते हुए बोली-

‘हाँ, कल उनका पत्र आया था। भाई-साहब, उन्होंने डायवोर्स मांगा है मुझसे। अब आप ही बताएँ कि मैें क्या करूँ ?’

अंतिम वाक्य सुनते ही मेरी यादाश्त चार साल पीछे चली गई। यह उन दिनों की बात है जब सुनीता के पति मिस्टर विशाल नायक हमारे ऑफिस में साइंटिस्ट के पद पर चंडीगढ़ से ट्रांसफर होकर आए थे। सुनीता का तबादला भी बाद में यहीं हो गया था। दोनों को मैंने अपने ही मुहल्ले में एक फ्लैट किराए पर दिलावाया था। कुछ महीने साथ-साथ काम करने पर मुझे लगा था कि विशाल एक प्रतिभाशाली युवा -वैज्ञानिक है। मगर जितना वह सौम्य और विनम्र है उतना ही वह महत्वाकांक्षी भी है। उसके दिमाग में यह बात घर कर गई थी कि इस देश में वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की कोई कद्र नहीं है। रिसर्च और नौकरी का असली म$जा तो विदेश में है। विदेश यात्रा का ऑफिस में जब भी प्रसंग चलता, विशाल के अंग-अंग में एक रूमानियत-सी भर जाती। उसका मन मीठी कल्पनाओं में खो जाता। हमारे ऑफिस से कुछ वैज्ञानिक विदेश गए थे। लौटने पर उन्होंने वहाँ के जीवन का जैसा चित्ताकर्षक और लुभावना वर्णन किया था, उससे विशाल का रोम-रोम पुलकित हुआ था। उसने यह भी सुन रखा था कि विदेश जाने का मतलब है किस्मत का जाग उठना। बस, एक चाँस मिलना चाहिए। फिर कार होगी, बंगला होगा और, और अच्छा-खासा बैंक-बैलेन्स होगा।

विशाल विदेशगमन की सभी सम्भावनाओं का पता लगा चुका था। अभी तक उसे सफलता नहीं मिली थी। एक दिन ऑफिस में उसने मुझसे कहा था कि एक विदेशी प्रोफेसर मि० गिलबर्ट से उसकी कारसपांडेंस चल रही है। इस वर्ष के अन्त में कोई न कोई बात बन जाएगी। इस विदेशी प्रोफेसर से उसकी भेंट एक अतर्राष्ट्रीय सेमिनार में हुई थी। विशाल द्वारा सेमिनार में पढ़े गए शोधपत्र की सभी ने प्रशंसा की थी। स्वयं गिलबर्ट महोदय, जिन्होंने इस सेमिनार की अध्यक्षता की थी, ने विशाल के इस शोधपत्र की मुक्तकंठ से प्रशंसा की थी। विशाल ने सेमिनार की समाप्ति पर जलपान के दौरान प्रो० गिलबर्ट से विदेश जाकर अध्ययन करने की अपनी इच्छा व्यक्त की थी। प्रो० गिलबर्ट ने तत्काल यद्यपि कोई आश्वासन नहीं दिया था, फिर भी उसका बायोडेटा उन्होंने विचार के लिए रख लिया था। दो-तीन सप्ताह बाद उसे प्रो० गिलबर्ट का पहला पत्र प्राप्त हुआ था। पत्र पाकर विशाल की खुशियों की कोई सीमा न रही थी। वह पत्र उसने मुझे भी दिखाया था। छ: सात पंक्तियों वाले उस पत्र में केवल यह लिखा था कि अवसर मिलते ही उसे अध्ययनवृत्ति देकर बुलाया जाएगा। इस पत्र को विशाल ने दर्जनों बार पढ़ा था और सम्भवत: अपने दर्जनों मित्रों को दिखाया था। मित्रों ने उत्साह बढ़ाते हुए कहा था- ‘भई, विशाल तेरा काम हो गया समझो। ये विदेशी लोग जो कहते हंै, वह करके भी दिखाते हैं। और फिर प्रो० गिलबर्ट मामूली व्यक्ति नहीं हैं। स्पेस तकनॉलजी के इस वक्त अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के अधिकारी विद्वान हैं।’ ये बातें सुन-सुनकर विशाल का मन मयूर झूम-झूम उठाता।

इस बीच विशाल ने अनुभव किया कि उसकी पत्नी उसके विदेश जाने की बात पर हमेशा उदासीन रहती । विशाल की तरह न उसमें उत्साह है और न उमंग और न अधीरता ही। अपने पति के मुँह से सुनीता ने जाने कितनी बार सुना था- पासपोर्ट, वी$जा, एयर-टिकट, फारेन-एक्सचेंज आदि-आदि। सुनीता ने हर बार अपने पति से यही कहा था-

‘अगर इस सुन्दर गृहस्थी से ज्यादा तुम्हें अपने रिसर्च और कैरियर की चिन्ता है तो मैं तुम्हें नहीं रोकूंगी। तुम शायद नहीं जानते विशाल, घर साथ-साथ रहने से बनते-संवरते हैं, दूर-दूर रहकर नहीं। तब विशाल ने उसे खूब समझाया था कि वह सिर्फ एक-दो वर्ष के लिए ही तो जा रहा है, और फिर विदेश में रहकर वह जो रिसर्च करेगा उसका अपना अलग महत्व होगा। भाग्य ने साथ दिया तो वहाँ नौकरी भी मिल सकती है उसे और तब वह सुनीता को भी बुलवा लेगा। फिर उन जैसा सुखी परिवार और कोई न होगा।

विशाल की ये बातें सुनीता सुन तो लेती किन्तु जाने क्यों उसे लगता कि इस सब में विशाल का अपना स्वार्थ है और वह स्वार्थ है उसका अपना कैरियर। अन्यथा इस छोटी-सी गृहस्थी में जो सुख है वह अन्यत्र कहाँ ।़ एक दिन सुनीता ने तंग आकर कह दी दिया - ‘विशाल, सुख एक सापेक्षिक वस्तु है। तुम्हारे लिए जो सुख का कारण है, वह मेरे लिए परेशानी का कारण बन सकता है। क्या तुमने कभी सोचा भी है कि तुम्हारे जाने के बाद मैं कैसे रह लूंगी ? मेरी भी नौकरी है, दो बच्चे हैं, यह घर है। कभी-कभी अत्यधिक महत्वाकांक्षा की व्यक्ति को भारी कीमत चुकानी पड़ती है विशाल ।़ वह चाहे तुम चुकाओ या मैं- बात एक ही है।’

उन दिनों चूँकि विशाल के मन-मस्तिष्क पर विदेश जाने की हविश सनकपने की हद तक पहुँच चुकी थी, इसलिए उसने सुनीता की मर्मभरी बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। कुछ समय बाद उसके पास विदेश से आमन्त्रण आ गया। तैयार तो वह था ही, अत: जाने में कोई दिक्कत नहीं हुई।

विशाल को विदेश गए अब लगभग चार वर्ष हो गए थे। इन चार वर्षों में वह केवल एक बार, यानी पहले वर्ष घर आया था। वापस जाते वक्त उसने सुनीता से और मुझसे भी कहा था कि वह शीघ सुनीता का टिकट बनवाकर भेज रहा है मगर देखते-देखते तीन-चार वर्ष निकल गए, न एयर-टिकट ही आया और न विशाल ही।

सुनीता ने ये चार वर्ष किन तकलीफों में बिताए, यह मैं जानता हूँ। घर-दफ्तर की अनेक दुविधाओं को वह औरत अकेले दम इस आशा के साथ झेलती रही कि शीघ्र उसका दामन खुशियों से भर जाएगा। उसका पति उसके होठों से गायब हुई मुस्कान उसे फिर लौटा देगा। उसे अपने त्याग, अपने संघर्ष का फल अवश्य मिलेगा। मगर ऐसा कुछ भी न हुआ। मीठे फल के बदले उसे कडुवाहट से भरा $िजन्दगी का सबसे अनचाहा फल मिला- डायवोर्स।

सुनीता की डबड़बाई आँखों में मुझे उस मोहपाश की झलक दिखाई दी जिसने विदेश गमन के बहाने जाने कितने सुखी परिवारों की जड़ों को हिलाकर रख दिया है।









समर्पण

यह सही था कि उसके विवाह को अब लगभग पन्द्रह वर्ष हो चले थे और इस बीच उसके कोई संतान नहीं हुई थी। मगर उसकी समझ में यह भी उतना ही सही था कि संतान-प्राप्ति विवाह की चरम-परिणति नहीं हुआ करती। वह हमेशा सोचा करती- ‘सन्तान होने या न होने से ससुराल वाले अमूमन बहू को ही दोषी क्यों ठहराते हैं, अपने लडक़े को क्यों नहीं ? उसके सामने ऐसे भी उदाहरण थे जहाँ संतान-प्राप्ति के लिए पत्नियों ने स्वेच्छा से पतियों को दूसरा विवाह करने की अनुमति दे दी थी। क्यों नहीं पति भी ऐसा उदार दृष्टिकोण अपनी पत्नियों के बारे में अपनाते हैं ?’ सोचते-सोचते, कभी-कभी वह इस निष्कर्ष पर पहुँचती कि इस पुरुषप्रधान समाज में परंपरा से चली आ रही नारी के प्रति इस ज्यादती को आँखें मूँदकर स्वीकार करने का मतलब है लिखाई-पढ़ाई से अर्जित ज्ञान को नकार देना। ‘नहीं-नहीं’ अब और अधिक यह शोषण मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती।’ सास के तानें, झिड़कियाँ आदि सुन-सुनकर उसका कोमल हृदय पत्थर बन चुका था। पत्थर के पीछे कहीं कोई आद्र्रता यदि थी भी तो उसके पति की बेरुखी ने उसे भी सुखा दिया था। इन सारी बातों ने मोहिनी को एक कठोर निर्णय लेने को बाध्य किया था और वह पति से अलग रहने लगी थी। खूब दौड़-धूप के बाद ‘शिशु कल्याण केन्द्र’ में उसने छोटी-मोटी नौकरी कर ली थी। आज अपनी मेहनत, लगन और निष्ठा से वह उस केन्द्र की निदेशिका बन गई थी।

टेलीफोन की घंटी बजी। मोहिनी ने रिसीवर उठाया। ‘हां-हां, मोहिनी बोल रही हूँ। कौन ? रीता। अरे ।़ कब आई तुम शिमला से ? हाँ, बिल्कुल ठीक हँॅू। केन्द्र का काम ठीक चल रहा है। आ जाओ आज शाम को, खूब बातें होगी। ठीक है, शाम को छ: बजे, आना $जरूर।’

टेलीफोन रखते ही मोहिनी की यादाश्त आठ-दस साल पीछे चली गई। परिवार की परेशानी, ऊब और घुटन के उन दिनों में उसके धैर्य को अगर किसी ने टूटने से थामा तो वह उसकी सहेली रीता ही थी। उसी की वजह से उसे इस शिशु कल्याण-केन्द्र में नौकरी भी मिली थी। दोनों बचपन की सहेलियाँ थीं। दोनों एक ही स्कूल और एक ही कॉलेज में साथ-साथ पढ़ी थीं। रीता स्वभाव से जितनी मुखर थी, मोहिनी उतनी ही गंभीर, मित्तभाषी और आत्मकेन्द्रित। इस विरोधाभास के बावजूद दोनों में खूब मित्रता थी। शादी भी दोनों की एक ही साल हुई थी। संतान के बारे मेें रीता का भाग्य ने अच्छा साथ दिया था। चार साल के अन्तराल में ही रीता के दो बच्चे हुए थे और दोनों ही लडक़े। मगर, पन्द्रह वर्ष बीत जाने के बाद भी मोहिनी के कोई संतान नहीं हुई थी।

टेलीफोन की घंटी फिर बजी। शहर की एक प्रसिद्ध सामाजिक संस्था ने मोहिनी को अगले सप्ताह होने वाले अपने वार्षिक-उत्सव में सम्मानित करने का निर्णय लिया था। मोहिनी ने अत्यन्त विनम्र भाव से प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। टेलीफोन रखकर वह पुन: बीती यादों में खो गई। संतान न होने का अभिशाप वह प्रारम्भ में धैर्य से भोगती रही। ससुराल में हर यातना वह इस आशा के साथ सहन करती रही कि शायद निकट भविष्ट में उसकी मनोकामना पूरी हो जाए। मगर भगवान को यह मंजूर न था। दमनचक्र बढ़ता गया और उसकी सहनशक्ति जवाब देती गई। उसके मन और तन दोनों टूट चले थे। निराशा और अवसाद की पतली और हल्की रेखाएँ उसके चेहरे पर प्रकट होने लगी थीं। जिन आँखों ने सुन्दर-सुखद भविष्ट के सपने देखे थे, उनमें अब रिक्तता और हताशा तिरने लगी थी। आज उसकी सहेली बहुत दिनों के बाद उससे मिलने वाली थी। टेलीफोन की घंटी फिर बज उठी। मोहिनी ने चोंगा उठाया। ‘जी हाँ, शिशु कल्याण केन्द्र से मैं मोहिनी बोल रही हूँ। हाँ-हाँ केन्द्र की निदेशिका मोहिनी शर्मा। कहिए, आपको किससे काम है- क्या कहा ? मिस्टर रामनाथ शर्मा सीरियस हैं। अस्पताल से घर ले आए हैंं। ठीक है, मैं कोशिश करूंगी। हां-हां घर पर।’

टेलीफोन रखकर कुछ क्षणों के लिए मोहिनी के सामने अन्धेरा-सा छा गया। आज कई साल बाद उसके ससुराल वालों ने उसे टेलीफोन किया था। उसकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था कि वह क्या करें ? जिस पति ने उसके व्यक्तित्व, आकांक्षाओं और कोमल भावनाओं को भरी जवानी में निष्ठुरता के साथ जड़ बना दिया था, उसका वही पति आज जि़न्दगी और मौत के बीच झूल रहा है। नहीं-नहीं मुझे जाना चाहिए।

टैक्सी सडक़ पर दौड़ रही थी और मेाहिनी का मन तरह-तरह के ख्यालों में डूबा जा रहा था। पूरे पन्द्रह साल बाद वह अपनी ससुराल वालों से मिलने जा रही थी। ससुराल का एक-एक दृश्य उसकी आँखों के सामने उभरने लगा। ससुर जी के बाल तो अब तक सारे के सारे सफेद हो चुके होंगे। काफी बूढ़े भी हो गए होंगे। सच, उस घर में मेरी भावनाओं की कद्र केवल उन्हीं ने की थी। मोनू भैया भी अब काफी बड़े हो गए होंगे। सुना था कि पिछले साल उसकी शादी हो गई। कैसे चुपके-चुपके मेरे बैग में से टाफियाँ और इलायची चुरा कर खा जाया करता था। बड़ा ही नटखट और प्यारा लडक़ा था। बिल्कुल इन्हीं की तरह घुंघराले और काले बाल थे उसके। सास भी बहुत बूढ़ी हो गयी होगी। अब तो उनके चश्मे का नम्बर भी बदल गया होगा। चार दाढ़ें तो उन्होंने मेरे सामने ही उखड़वा ली थीं। क्या पता गुर्दे का आप्रेशन करवाया या नहीं। डॉक्टर ने कहा था गुर्दे में पथरी है। ओह।़ यह खुद कैसे होंगे ? कैसे प्यारे-प्यारे लाल होंठ थे इनके।़ मुझसे हमेशा कहते थे कि ये होंठ तेरी भौंहों के सामने कुछ भी नहीं है। भगवान करे वे ठीक हों। टैक्सी पूरी रफ्तार के साथ भागे जा रही थी और मोहिनी अपनी यादाश्त के बहुमूल्य कोष में संजोए कुछेक अलभ्य क्षणों का मन ही मन आनन्द लेने लगी। उसका हृदय धडक़ने लगा। चेहरा भी कुछ लाल हुआ। टैक्सी उसकी ससुराल के अहाते में घुसकर रुक गई। घर की दहलीज पर पाँव रखकर मोहिनी के $जेहन में एक-आध क्षण के लिए वह अनमोल दृश्य उभर आया जब वह शादी के बाद पहली बार दुल्हन बनकर इस घर में आयी थी। इन पन्द्रह सालों में इस घर के रंग-रूप में काफी परिवर्तन आ गया था। बाहर लॉन की जगह कुछ कमरे बन गए थे और सामने वाली सडक़ पर दुकानों की कतारें लग गई थीं। मोहिनी ने साड़ी को ठीक किया और धीरे-धीरे सीढिय़ाँ चढऩे लगी। उसे लगा जैसे प्रत्येक सीढ़ी उसकी आहट पहचानती हो। ऊपर वाली सीढ़ी पर पाँव रखते ही उसके कान जैसे खड़े हो गए। भीतर कमरे में उसे अपनी सहेली रीता की आवा$ज सुनायी दी। उसने आवाज को गौर से सुनने की कोशिश की। हाँ, बिल्कुल रीता की ही आवा$ज थी। उसका दिल बैठने लगा। रीता और यहाँ ।़ वह तो शाम को छ: बजे मुझसे मिलने वाली थी।

‘अरे बहू, तुम कब आई, चलो भीतर कमरे में चलो।’ मोहिनी क्षण-भर के लिए ठिठक-सी गई। बहुत दिनों बाद उसने अपने ससुर की परिचित आवाज़ सुनी। उसने अपने ससुर के चरण छूने चाहे, किन्तु अगले ही क्षण उसे वास्तविकता का ज्ञान हुआ। ससुर जी तो अब इस संसार में नहीं रहे थे। यह आवाज़ जैसे कहीं से तैर कर गूंजी थी। शादी के बाद मोहिनी जब भी पीहर से ससुराल आती तो ससुर जी प्राय: इसी अंदाज़ में और ऐसे ही बोलते थे। मोहिनी का गला भर आया। इस घर में केवल ससुर जी ने ही तो उसके दु:ख-दर्द को समझा था, मगर अपनी पत्नी के सामने वह हमेशा दबे रहे।

कमरे में प्रवेश करते ही मोहिनी की न$जर रीता पर पड़ी-

‘अरे, आ गई तुम ? आ जाओ, यहाँ बैठ जाओ। मेरे पास इस कुर्सी पर। मुझे यहाँ देखकर तुम्हें हैरानी हो रही होगी’ रीता ने खड़े होकर कहा।

मोहिनी की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। उसने कमरे में चारों ओर न$जर दौड़ाई। उसके पति उसे कहीं न$जर नहीं आये। हाँ, पलंग पर एक वृद्धा लेटी हुई थी- शायद वह उसकी सास थी जिसे बहुत कम दिखाई दे रहा था। ‘मगर, रीता यह सब क्या है, तुम यहाँ कैसे ? तुम तो आज शाम को मेरे यहाँ आने वाली थी- और वह - वह टेलीफोन। जल्दी बोलो - यह सब क्या है ?’

‘सब समझ जाओगी, थोड़ा ठहर जाओ,’ रीता ने बुजुर्गो की तरह उसे समझाते हुए कहा।

तभी भीतर से एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति कमरे में प्रविष्ट हुआ। मोहिनी का हृदय धक्ï से रह गया। वह उसके पति ही थे। वही चाल और वही कद काठी। हॉ, कनपटियाँ बिल्कुल सफेद हो चुकी थीं और आँखों पर चश्मा चढ़ गया था। मोहिनी के भीतर भावनाओं का पारावार उमड़ पड़ा। उसका बस चलता जो वह पतिदेव की गोदी में सिर रखकर फफक-फफक कर रो देती। समय ने दोनों को तोडक़र रख दिया था। दोनों अपनी-अपनी गलती समझ गए थे और दोनों एक-दूसरे को दुबारा पाना चाहते थे। इसके लिए अनुकूल भूमिका रची थी रीता ने। दरअसल, मोहिनी को उसके पति से मिलवाने के लिए रीता ने ही यह सारा नाटक रचा था। वह मोहिनी के पति से बराबर मिलती रही थी और उसे अपने कर्तव्य के प्रति सजग किया था। ग्लानि और पश्चाताप के वशीभूत होकर अंतत: मेेहिनी के पति को इस बात का अहसास हो चला था कि सुखद वैवाहिक जीवन के लिए संतान-प्राप्ति से बढक़र सद्ïभाव, सहयोग और समर्पण का महत्व है। दोनों एक-दूसरे को एकटक निहारते रहे। दोनों की आँखें सजल थीं। मन की गाँठें खुली रही थीं और एक नया सफर शुरू करने के लिए दोनों तैयार थे। उस दिन के बाद से वे दोनों तन-मन से शिशु कल्याण केन्द्र के विकास में लग गए।

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कमला ताई

अपनी डायरी पर मैंने जल्दी-से न$जर दौड़ाई ताकि यह देख लूं कि कहीं कोई काम रह तो नहीं गया। हर तरह से तसल्ली कर लेने के बाद मैंने माँ से कहा, ‘लो माँ, अब मैं पूरी तरह से फ्री हूँ। तुम जहाँ कहोगी वहाँ चलेंगे। फिर न कहना कि मुझे कोई कहीं नहीं ले जाता।’ माँ की यह शिकायत बिल्कुल सही थी। जब से पुराने शहर वाले घर को बेचकर हम शिवपुरा कॉलोनी के इस घर में रहने लगे थे, माँ पुराने शहर वाले अपने रिश्तेदारों और पड़ोसियों से मिलने को तरसती थी। माँ को कोई कमला ताई के यहां ले जाने को कहता तो माँ खुश होकर झटपट तैयार हो जाती। माँ की यह कमज़ोरी मुझे मालूम थी। मैंने पूछा - ‘कहो माँ, कहाँ चलें ? मामाजी के यहाँ या मौसी के यहाँ या फिर कमला ताई के यहाँ।’ कमला ताई का नाम सुनते ही माँ चिंहुक उठी, बोली- ‘हाँ-हाँ, कमला ताई के यहाँ चलते हंै।’ ‘तो फिर तैयार हो जा, मैं भी नहाकर तैयार हो जाता हूँ,’ मैंने मुस्करा कर कहा।

बाथरूम में घुसते ही मुझे कमला ताई के बाथरूप की याद आई। बचपन में हम लोग कमला ताई के बाथरूम में नहाने का बहाना ढूंढ़ते थे। पूरे मुहल्ले में सिर्फ उनके ही घर में ऐसा गुसलखाना था, जिसमें पानी गरम करने की मशीन लगी थी। गुसलखाने में लगी रंग-बिरंगी टाइलों को देख मन रोमांचित हो उठता था। ऐसा लगता था कि यह गुसलखाना नहीं बल्कि एक छोटा-सा जादूई महल है। कमला ताई के ससुर ने इस गुसलखाने को विलायत पढऩे गए अपने बेटे के लिए बनवाया था। बाथरूम पहले कई साल तक बेटे के विलायत से लौटने के इन्त$जार में बन्द पड़ा रहा। फिर एक दिन कमला ताई ने ससुर के सामने उसका ताला तोडक़र खोल दिया था। कमला ताई की वह रुपहली छवि अभी तक मेरे सामने है। रामचन्द्रजी के मन्दिर में लगी सीता जी की सुघड़ मूर्ति जैसी। गोल-गोल, गोरे-से चेहरे पर लम्बी सुतवां नाक जिसमें लाल नगीने वाली लौंग। पतले-पतले गुलाबी होंठ, गहरी काली कमान जैसी भौहें और बड़ी-बड़ी बादाम जैसी दिलकश आँखेें। मेरी माँ को छोड़ बाकी सभी उसे दर्पीली और अन्तर्मुखी कहते थे। माँ के साथ उसकी बहुत पटती थी। माँ कहती थी कि यह जिस वातावरण में पली-बड़ी है, उसी की वजह से ऐसा है, अन्यथा दिल की बड़ी सरल और सच्ची है। कमला ताई का पीहर काफी सम्पन्न था। पिता अपने समय के बहुत बड़े सरकारी ओहदेदार थे। कमला ताई ने उस जमाने में उघड़े मुंह स्कूल जाकर मैट्रिक तक पढ़ाई की थी।

यह उन्हीं दिनों की बात है जब कमला ताई के पिता की न$जर तहसीलदार पीताम्बरनाथ के होनहार बेटे द्वारिकानाथ पर पड़ी थी। घर पर मशविरा किया गया। निकट के सम्बन्धियों ने मना किया था कि पीताम्बरनाथ खुद तो अच्छे खानदान का है किन्तु द्वारिकानाथ उसका अपना नहीं, गेाद लिया हुआ बेटा है। पर पिता को उस गौर वर्ण, नीली आँखों वाले सुदर्शन ओैर प्रतिभाशाली युवक ने इस कद्र प्रभावित किया था कि उसमें उसे अपनी बेटी कमला के सुनहरे और सुखद भविष्य की झांकी दिखने लगी। पिता की बात को टालने का किसी को साहस न हुआ। एक महीने के अन्दर-अन्दर मंगनी हो गई और फिर ब्ब्ïयाह। ब्ïयाह के छ: महीने बाद ही द्वारिकानाथ उच्च शिक्षा के लिए विलायत चला गया। विलायत में पढ़ाई का सारा खर्चा उसके ससुर ने ही उठाया।

तीन साल तक सब ठीक-ठीक चलता रहा। विलायत से चिट्ïिठयाँ बराबर आती रहीं। फिर चिट्ïिठियों का आना बन्द हो गया। खोजबीन शुरू हुई। खूब पैसा खर्च किया गया, मगर कहीं से भी द्वारिकानाथ का अता-पता नहीं लग सका। पिता की निराशा बढ़ती गई। अपनी लाड़ली बेटी का दु:ख उससे सहा नहीं गया और इसी गम में एक दिन वे इस संसार से चल बसे। कमला ताई अपने पुत्र को लेकर मायके चली आई। उधर, पीताम्बरनाथ का सब-कुछ लुट चुका था। बेटा, बहू, पोता उनसे छिन गए थे। फिर भी उन्होंने आस नहीं छोड़ी थी। उन्होंने बैठक में अपने बेटे की तस्वीर लगा रखी थी। एक बड़ी-सी तस्वीर- काला चोगा पहने हुए तथा हाथ में प्रमाणपत्र लिए हुए। पीताम्बरनाथ इस तस्वीर को घंटों निहारते और बड़बड़ाते रहते - ‘वह आएगा, ज़रूर आएगा। मेरा मन कहता है - वह आएगा, आएगा।’ फिर एक दिन कमला ताई अचानक अपने बेटे का हाथ थामे अपनी ससुराल चली आई। दूसरे दिन से घर के कामकाज में ऐसे जुट गई, मानो वर्षों से वहाँ रह रही हो। पोते को पाकर बूढ़े पीताम्बरनाथ की खुशी का कोई ठिकाना न रहा। पोते को स्कूल ले जाना, घर पर पढ़ाना, कहानियाँ सुनाना - यही अब उसकी दिनचर्या थी।

कमला ताई का यों अचानक अपनी ससुराल चली आना काफी दिनों तक कानाफूसी का विषय बना रहा। कहा जाने लगा कि भाभियों से उसकी पटी न होगी। मगर सच्चाई उसने मेरी माँ को बता दी थी। पिता की मृत्यु के बाद उनके कागज-पत्रों में द्वारिकानाथ का पत्र पाया गया था, जिसमें उसने अपने ससुर से क्षमा मांगते हुए लिखा था कि उसने विलायत में दूसरी शादी कर ली है। दरअसल, कमला ताई के पिता को द्वारिकानाथ के दूसरे विवाह का पता लग चुका था, मगर उसने इस सच्चाई को अपनी बेटी से इसलिए छिपाए रखा कि कहीं उसका दिल न टूट जाए। कमला ताई को अब किसी का इन्तज़ार न था। अपनी जवानी के छ: सात वर्ष उसने यों ही गंवा दिये थे। उसने निश्चय किया कि उसे जीना है और अपने बूते पर जीना है, अपने बेटे के लिए जीना है। पीहर में रहते हुए वह कुछ कर नहीं सकती थी। वह ससुराल चली आई। ससुर से कहकर अपनी अधूरी पढ़ाई को पूरी करने की ठान ली। इण्टर करते ही शहर की एक सरकारी कन्याशाला में उसे नौकरी मिल गई। समय बीतता गया और इसी के साथ कमला ताई का दिल भी पत्थर से चट्ïटान बनता गया।

बैठक में रखी द्वारिकानाथ की तस्वीर देख वह कभी-कभी भावविभोर हो जाती और उसका ध्यान बंट जाता। एक दिन उसने उस तस्वीर को उतारकर मकान के पिछवाड़े बने स्टोर में रख दिया। पीताम्बरनाथ को तस्वीर के बारे में पूछने का साहस न हुआ।

पति की तस्वीर को उसने अपनी न$जरों से दूर तो कर दिया, मगर दूसरी जीती-जागती तस्वीर यानी बेटे का क्या करती ? वही नीली आँखें, वही गौर वर्ण, वही तीक्ष्ण बुद्धि। चालढाल और हावभाव भी वही, जैसे दूसरा द्वारिकानाथ हो। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया, उसकी प्रश्न-पूछती न$जरों का सामना करने में कमला ताई की हिम्मत जवाब देने लगी। कल का बातूनी और नटखट बच्चा अब तक समझदार और गभीर युवक बन गया थ। उसका नाम रखा गया था प्राणनाथ। समय को पंख लग गए। अपनी पत्नी के थोड़े दिन बाद ही पीताम्बरनाथ भी इस दुनिया से चल बसे। इस बीच प्राणनाथ एक ख्यातिवान बैरिस्टर बन गया था। कमला ताई अब भी नौकरी करती थी। उसका बेटा, बहू और वह स्वयं, यही उसका सीमित-सा संसार था।

पिछले साल कमला ताई के इस शान्त संसार में एक तूफान-सा आ गया। विलायत से अचानक द्वारिकानाथ की चिट्ïठी आई थी। चिट्ïठी उसने कमला ताई के नाम लिखी थी, जिसमें उसने अपनी गलती को स्वीकार करते हुए माफी मांगी थी। तीस वर्षों की अपनी रामकहानी संक्षेप में लिखने के बाद उसने अब स्थायी तौर पर घर आने की बात कही थी। उसे अब अपना घर याद आया था, अपनी पत्नी, बेटा, माँ-बाप याद आए थे। विलायती समाज में व्याप्त संबंधों की खोखलाहट पर भी उसने दबे स्वर मेें प्रकाश डाला था। जीवन के आखिरी दिन वह अपनी मातृभूमि, अपने वतन में बिताना चाहता था, ऐसा उसने स्पष्ट लिखा था।

चिट्ïठी पढक़र कमला ताई गहन विचारों में डूब गई। उसके सामने पति की तस्वीर उभर आई जो उसको अकेला छोडक़र विदेश चला गया था। पिछले तीस वर्ष उसने कैसे बिताए थे, यह या तो वह जानती थी या उसका भगवान्ï। उसके मन में आया कि वी चिट्ïठी फाड़ दे औेर उसकी चिंदियां बनाकर वापस पति को लौटा दे।

‘वाह ।़ खूब याद आई मेरी। मैं यहाँ मर रही थी या जी रही थी, इतने वर्षों तक कोई ख्याल नहीं आया। छोटे-से बच्चे को लेकर मैं यहां कैसे खटती रही, तुम क्या जानो! अब जब अकेले पड़ गए हो और बुढ़ापा सताने लगा है तो मेरी याद आई है, अपने वतन की याद आई है। वाह रे स्वार्थी इन्सान !’

वह उठी और स्टोर में रखी अपने पति की तस्वीर निकाल कर लाई। उसने तस्वीर को गौर से देखा। उसे लगा कि यह तस्वीर अब कुछ धुंधली-सी पड़ गई है। समय के लंबे अंतराल ने जिस तरह उसके रंग-रूप को मुरझा दिया था, उसी तरह इस तस्वीर में भी अब परिवर्तन होने लगा था। तस्वीर के कोने गल-से गए थे, कहीं-कहीं पर इसमें हल्की सफेद रेखाएँ उभर आई थीं और फ्रेम भी कई जगह उखड़ गया था। ऊपर के हिस्से मेें शायद एक-दो जगह दीमक भी लग गई थी।

उसने तस्वीर को अच्छी तरह साफ किया ओर झाड़-पोंछकर वापस बैठक की दीवार पर लगा दिया। उसी शाम एक संक्षिप्त-सा पत्र उसने अपने पति को लिख दिया - ‘इस जन्म में अब हमारा मिलना मुश्किल है - अब हम अगले जन्म में ही मिलेंगे।’

मां को लेकर जब मैं कमला ताई के यहाँ पहुँचा तो मैंने देखा कि वह बैठक की तस्वीर के सामने खड़ी है और एक कपड़े से उसे झाड़-पोंछ रही है।

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सिकन्दर

रात के ग्यारह बजे और ऊपर से जाड़ों के दिन। मैं बड़े म$जे में र$जाई ओढ़े निद्रा-देवी की शरण में चला गया था। अचानक मुझे लगा कि कोई मेरी र$जाई खींचकर मुझे जगाने की चेष्टा कर रहा है। अब आप तो जानते ही हैं कि एक तो मीठी नींद और वह भी तीन किलो वजनी रजाई की गरमाहट में सिकी नींद, कितनी प्यारी, कितनी दिलकश और म$जेदार होती है। मेरे मुँह से अनायास निकल पड़ा- ‘भई, क्या बात है ? यह कौन मेरी र$जाई खींच रहा है ? बड़ी मीठी नींद आ रही है’ कहते-कहते मैंने जोर की जम्हाई ली- ’तुम लोग मेरी इस प्यारी रजाई के पीछे क्यों पड़े हो ? परसों भी इसे ले गए थे और आज भी ले जाना चाहते हो। देखो, मुझे बड़ी अच्छी नींद आ रही है, जाकर कोई दूसरी र$जाई या कम्बल देख लो।’

इस बीच कमरे की बत्ती जली और मैंने देखा कि मेरी श्रीमती जी सामने खड़ी है। उसके चेहरे से भय और बेचैनी के भाव साफ टपक रहे थे। श्रीमती जी का बदहवासी-भरा चेहरा देखकर मेरी नींद की सारी कैफियत जिसमें खूब मिश्री घुली हुई थी, उडऩ-छूं हो गई। मैंने छूटते ही पहला प्रश्न किया-

‘गोगी की माँ, बात क्या है ? तुम इतनी नर्वस क्यों लग रही हो ? सब ठीक-ठीक तो है ना ?’

‘सब ठीक होता तो आपको जगाती ही क्यों भला ?’

‘पर हुआ क्या है, कुछ बताओगी भी ?’

‘अजी होना-जाना क्या है ? आपके प्ररम मित्र मुंशीजी बाहर गेट पर खड़े हैं। साथ में कॉलोनी के दो-चार जने और हैं। घंटी पर घंटी बजाए जा रहे हैं और आवाज़ï पर आवा$ज ठोंक रहे है। हो ना हो कॉलोनी मेें ज़रूर कोई लफड़ा हुआ है।’

मुंशीजी का नाम सुनते ही मैंने र$जाई एक ओर सरका दी और जल्दी-जल्दी कपड़े बदलकर मैं बाहर आ गया। श्रीमती जी भी मेरे पीछे-पीछे चली आई। बरामदे की लाइट जलाकर मैं गेट पर पहुँचा। क्या देखता हूँ कि मुंशीजी कम्बल ओढ़े बगल में कुछ दबाए आशा-भरी न$जरों से मेरेे बाहर निकलने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। मैंने पूछा-

‘क्या बात है मुंशीजी ? इस कडक़ती ठंड में आप और इस वक्त। और यह-यह आप बगल में क्या दबाए हुए हैं ?’ इससे पहले कि मुंशी जी मेरी बात का जवाब देते, उनके संग आए एक दूसरे व्यक्ति ने उत्तर दिया- ‘भाई साहब, इनकी बगल में ‘सिकंदर’ है। इस के गले मेें हड्ïडी अटक गई है, बेचारा दो घंटे से तडफ़ रहा है।’

मुझे समझते देर नहीं लगी। सिकन्दर का नाम सुनते ही मुझे उस सफेद-झबरे कुत् तेे का ध्यान आया जिसे दो वर्ष पहले मुंशीजी कहीं से लाए थे और बड़े चाव से पालने लगे थे। इससे पहले कि मैं कुछ कहता, मुंशीजी भर्राई आवाज़ में बोले-

‘भाई साहब, कुछ करिए नहीं तो यह बेचारा छटपटा कर मर जाएगा। देखिए तो, बड़ी मुश्किल से सांस ले पा रहा है। ऊपर से आँखें भी फटने को आ गई हैं इसकी।’

‘पर मुंशीजी, मैं कोई डॉक्टर तो नहीं हूँ जो मैं इसको ठीक कर दूँ। इसे तो तुरन्त अस्पताल, मेरा मतलब है वेटरनरी अस्पताल ले जाना चाहिए, वही इसका इलाज हो सकता हैं, मैंने सहानुभूति दिखाते हुए कहा।

‘इसीलिए तो हम आपके पास आए हैं। आप अपनी गाड़ी निकालें तो इसे इसी दम अस्पताल ले चलें। इसकी हालत मुझ से देखी नहीं जा रही’ मुंशीजी ने यह बात कुछ ऐसे कहीं मानो उनका कोई सगा-सम्बन्धी उनसे बिछुडऩे वाला हो।

प्रभु ने न जाने क्यों मुझे हद से ज्यादा संवेदनशील बनाया है। औरों के दु:ख में दुखी और उनके सुख में सुखी होना मैंने अपने दादाजी से सीखा है। मुंशी जी हमारे पड़ोस मेें ही रहते हैं। बड़े ही मन-मौजी और फक्कड़ किस्म के प्राणी हैं। खिन्नता या चिन्ता का भाव मैंने आज तक उनके चेहरे पर कभी नहीं देखा। मगर आज सिकन्दर के लिए वे जिस कद्र परेशान और अधीर लग रहे थे, उससे मेरा हृदय भी पसीज उठा और मैं यह सोचने पर विवश हो गया कि मानवीय रिश्तों की तरह पशु के साथ मनुष्य का रिश्ता कितना प्रगाढ़ और भावनापूर्ण होता है। मानवीय रिश्तों में, फिर भी, कपट या स्वार्थ की गंध आ सकती है, मगर पशु के साथ मानव का रिश्ता अनादिकाल से ही निच्छल, मैत्रीपूर्ण और बड़ा ही सहज रहा है।

मैंने मुंशी जी से कहा-

‘आप चिंता न करें। मैं अभी गाड़ी निकालता हूँ। भगवान ने चाहा तो सब ठीक हो जाएगा।’

सिकन्दर को लेकर हम सभी गाड़ी में बैठ गये। वेटरनरी अस्पताल लगभग पांच किलोमीटर दूर था। मैंने मुंशी जी से पूछा-

‘मुंशी जी, यह तो बताइए कि आपने अपने इस कुत्तेे का नाम ‘सिकन्दर’ कैसे रख लिया ? लोग तो अपने कुत्तोंं का नाम ज्य़ादातर अंग्रेज़ी तर्ज़ पर टॉनी, स्वीटी, पोनी, कैटी आदि रखते हैं। सिकन्दर नाम तो मैं ने पहली बार सुना है।’

मेरी बात का जवाब मुंशी जी ने बड़े गर्व-भरे लहजे में दिया-

‘भाई साहब, जब अंग्रेज यहाँ से चले गए तो हम अंग्रेजी नाम को क्यों अपनाएं ? अंग्रेजी नाम रखने का मतलब है अंग्रेजियत यानी विदेशी संस्कृति को बढ़ावा देना। मेरी बड़ी बिटिया ने मुझे पाँच-चार नाम सुझााए थे-

मोती, शेरू, भोला, हीरा, सिकन्दर आदि। मुझे सिकन्दर नाम अच्छा लगा और यही नाम इसको दिया।’

अस्पताल न$जदीक आ रहा था। इस बीच मैंने मुंशीजी से एक प्रश्न और किया-

‘अच्छा, यह बताइए कि यह हड्ïडी इस सिंकदर के गले में कैसे अटक गई ? आप तो एकदम शाकाहारी हैं।’

इस बात का जवाब मुंशी जी ने कुछ इस तरह दिया मानो उन्हें मालूम था कि मैं यह प्रश्न उनसे $जरूर पूछूंगा। वे बोले-

‘भाई साहब, अब आप से क्या छिपाऊँ ? आप सुनेंगे तो न जाने क्या सोचेेंगे! हुआ यह कि मेरी श्रीमतीजी ने आपकी श्रीमतीजी से यह कह रखा है कि जब भी कभी आपके घर में नानवेज बने तो बची-खुची हड्ïिडयाँ आप फेंका न करें बल्कि हमें भिजवा दिया करें - हमारे सिकन्दर के लिए। आज आपके यहाँ दोपहर मेें नानवेज बना था बना ?’

‘हां बना था’ मैंने कहा।

‘बस, आपकी भिजवाई हड्ïिडयों मे ंसे एक इस बेचारे के हलक में अटक गई।’ कहकर मुंशी जी ने बड़े प्यार से सिकन्दर की पीठ पर हाथ फेरा।

मुंशी जी की बात सुनकर अपराध-बोध के मारे मेरी क्या हालत हुई होगी, इस बात का अन्दाज़ अच्छी तरह लगाया जा सकता है। कुछ ही मिनटों के बाद हम अस्पताल पहुँचे। सौभाग्य से डॉक्टर ड्ïयूटी पर मिल गया। उसने सिकन्दर को हम लोगों की मदद से ज़ोर से पकड़ लिया और उसके मुंह के अन्दर एक लम्बा चिमटानुमा कोई औ$जार डाला। अगले ही क्षण हड्ïडी बाहर निकल आई और सिकन्दर के साथ-साथ हम सभी नेे राहत की सांस ली। अब तक रात के साढ़े बारह बज चुके थे।

‘घर पहुंचने पर श्रीमतीजी बोली- ‘क्योंजी, निकल गई हड्ïडी सिकन्दर की ?’

श्रीमती जी की बात सुनकर मुझे गुस्सा तो आया, मगर तभी अपने को संयत कर मैंने कहा-

‘कैसे नहीं निकलती, हड्ïडी गई भी तो अपने घर से ही थी।’

मेरी बात समझते श्रीमती जी को देर नहीं लगी। वह शायद कुछ स्पष्ट करना चाहती थी, मगर मेरी थकान और बोझिल पलकों को देख चुप रही।

दूसरे दिन अल-सुबह मुंशी जी सिकन्दर को लेकर मेरे घर आए ओर कल जो मैंने उनके लिए किया, उसके लिए मुझे धन्यवाद देने लगे।

मैंने सहजभाव से कहा-

‘मुंशी जी, इसमें धन्यवाद की क्या बात है ? कष्ट के समय एक पड़ौसी दूसरे पड़ौसी के काम नहीं आएगा, तो कौन आएगा ?’

मेरी बात सुनकर शायद उनका हौसला कुछ बढ़-सा गया। कहने लगे-

‘आप बुरा न मानें तो एक कष्ट आपको और देना चाहता हूँ।’

‘कहिए’ मैंने धीमे-से कहा।

‘वो-वोह- ऐसा है कि।’

‘मुंशी जी, संकोच बिल्कुल मत करिए। साफ-साफ बताइए कि क्या बात है ?’

‘ऐसा है भाई साहब, मैं और मेरी श्रीमतीजी एक महीने के लिए तीर्थयात्रा पर जा रहे हैं। हम ने सोचा कि क्यों न सिकन्दर को आपके यहाँ छोड़ चलें। आपका मन भी लगेगा, चौकसी भी होगी और सिकन्दर को खाने को भी अच्छा मिलेगा।’ मुंशीजी ने अपनी बात कुछ इस तरह रखी मानो उन्हें पक्का विश्वास हो कि मैं तुरन्त हाँ कह दूंगा।

मुंशी जी मेरा जवाब सुनने के लिए मुझे आशा-भरी नजऱों से ताकने लगे। इस बीच उन्होंने दो-एक बार सिकन्दर की पीठ पर हाथ भी फेरा जो मुझे देख बराबर गुर्राए जा रहा था। मैंने तनिक गम्भीर होकर उन्हें समझाया-

‘देखिए, मुंशी जी, आप तो जानते ही हैं कि हम दोनों पति-पत्नी नौकरी करते हैं। बच्चे भी बाहर ही रहते हैं। यहाँ सिकन्दर को रखेगा कौन ? औेर फिर बात एक-दो दिन की नहीं पूरे एक महीने की है। आप शायद नहीं जानते कि पशु विशेषकर कुत्ता बड़ा भावुक होता है - वेरी सेंटीमेंटल। मालिक की जुदाई का $गम उससे बर्दाश्त नहीं होता। आप का एक महीने का वियोग शायद यह निरीह प्राणी सहन न कर पाए और, और भगवान न करे कि...।

‘नहीं, नहीं -ऐसा मत कहिए। सिकन्दर से हम दोनों पति-पत्नी बेहद प्यार करते हैं। वह तो हमारे जीवन का एक अंग-सा बन गया है। उसके लिए हम तीर्थयात्रा का विचार छोड़ सकते हैं।’ मुंशीजी ने ये शब्द भाव-विभोर होकर कहे।

‘तब फिर आप ऐसा ही करें। तीर्थ यात्रा का आइडिया छोड़ दें और सिकन्दर की सेवा में जुट जाएँ। मैंने बात को समेटते हुए कहा।

मेरी बात सुनकर वे उठ खड़ेे हुए। सिकन्दर को एक बार फिर पुचकारकर जाते-जाते मुझ से कहने लगे-

‘भाई साहब, जब भी आपके घर में नानवेज खाना बने तो वो-वोह बची-खुची हड्ïिडयाँ आप $जरूर हमें भिजवा दिया करें।’

‘पर मुंशीजी, हड्ïडी फिर सिकन्दर के गले में अटक गई, तो ? ’

‘उस बात की आप फिक्र न करें- इस बार आपको नींद से नहीं जगाएँगे, किसी और पड़ौसी को कष्ट देंगे’ कहते हुए मुंशीजी सिकन्दर की चेन को थामे लम्बे-लबे डगे भरते हुए अपने घर की ओर चल दिए।

0000



















ममता

सूद साहब अपनेे फ्लैट में परिवार सहित रहते हैं। पति-पत्नी, दो लड़कियाँ और एक बूढ़ी माँ। माँ की उम्र अस्सी से ऊपर है। काया काफी दुबली हो चुकी है। कमर भी झुक गई है। वक्त के निशान चेहरे पर साफ तौर पर दिखते हैं। सूद साहब की पत्नी किसी सरकारी स्कूल में अध्यापिक ा हैं। दो बेटियों में से एक कॉलेज में पढ़ती है और दूसरी किसी कम्पनी में सर्विस करती है। माँ को सभी ‘‘अम्माजी’’ कहते हैं। मैं भी इसी नाम से उसे जान गया हूँ।

जब मैं पहली बार ‘‘डेलविला’’ बिल्डिंग में रहने को आया था, तो मेरे ठीक ऊपर वाले फ्लैट में कौन रहता है, इसकी जानकारी बहुत दिनों तक मुझे नहीं रही। सवेरे ऑफिस निकल जाता और सायं घर लौट आता। ऊपर कौन रहता है, परिवार में उनके कौन-कौन लोग हैं? आदि जानने की मैंने कभी कोशिश नहीं की। एक दिन सायंकाल को सूद साहब ने मेरा दरवा$जा खटखटाया, अन्दर प्रवेश करते हुए वे बढ़ी सहजता के साथ मेरे कन्धे पर हाथ रखते हुए बोले-

‘‘आप को इस फ्लैट में रहते हुए तीन महीने तो हो गए होंगे ?’’

‘‘हाँ, बस इतना ही हुआ होगा -। ’’ मैंने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया।

‘‘कमाल है! आपने हमसे मिलने की कोशिश भी नहीं की..... भई, हम आपके ऊपर रहते हैं - पड़ौसी हैं आपके.....। ’’

‘‘ वो, वोह - दरअसल, समय ही नहीें मिलता है। ऑफिस से आते-आते ही सात बज जाते हैं....।’’

‘‘अजी, ऑफिस अपनी जगह और मिलना-जुलना अपनी जगह.....। चलिए, आज डिनर आप हमारे साथ करें।’’, उन्होंने बढ़े ही आत्मीयतापूर्ण अंदाज में कहा। उनके इस अनुरोध को मैं टाल न सका।

खाना देर तक चलता रहा। इस बीच सूद साहब के परिवार वालों से परिचय हो गया। सूद साहब ने तो नहीं, हाँ उनकी पत्नी ने मेरे घर-परिवार के बारे में विस्तार से जानकारी ली। चूँकि मेरी पत्नी भी नौकरी करती है और इस नई जगह पर उनका मेरे साथ स्थायी तौर पर रहना संभव न था, इसलिए मैंने स्पष्टï किया-

‘‘मेरी श्रीमती जी यदाकदा ही मेरे साथ रह पाएगी और हाँ बच्चे बड़े हो गये हैं..... उनकी अपनी गृहस्थी है.... फिलहाल मैं अकेला ही रहूँगा......।’’

मुझे लगा कि मेरी इस बात से सूद दंपत्तित्त् को उतनी तकलीफ नहीं हुई जितनी कि उनकी बूढ़ी माँ को...। जब तक मैं खाना खा रहा था और अपने घर-परिवार आदि की बातें कर रहा था, अम्माजी बढ़े चाव से एकटक मुझे तके जा रही थी और मेरी बातों को ध्यान से सुन रही थी....। जैसे ही उसे मालूम पड़ा कि मैं अकेला ही रहूँगा और मेरी श्रीमतीजी कभी-कभी ही मेरे साथ रहा करेंगी तो मुझे लगा कि अम्माजी के चेहरे पर उदासी छा गई है। झुर्रियों भरे अपने चेहरे पर लगे मोटे चश्मे को ठीक करते हुए वे अपनी पहाड़ी भाषा में कुछ बुदबुदायी। मैं समझ गया कि अम्माजी मेरी श्रीमती जी के बारे में कुछ पूछ रही हैं, मैंने कहा-

‘‘हाँ अम्माजी, वोह भी सरकारी नौकरी करती हैं- यहाँ बहुत दिनों तक मेरे साथ नहीं रह सकती। हाँ, कभी-कभी आ जाया करेगी।’’

मेरी बात शायद अम्माजी ने पूरी तरह से सुनी नहीं, या फिर उनकी समझ में ज्यादा कुछ आया नहीं। श्रीमती सूद ने अपनी बोली में अम्माजी को मेरी बात समझायी जिसे सुनकर मुझे लगा कि अम्माजी का चेहरा सचमुच बुझ-सा गया है। आँखों में रिक्तता-सी झलकने लगी है तथा गहन उदासी का भाव उनके अंग-अंग से टपकने लगा है। वे मुझे एकटक निहारने लगी और मैं उन्हें। सूद साहब बीच में बोल उठे-

‘‘इसको तो कोई चाहिए बात करने को... दिन में हम दोनों और बच्चे तो निकल जाते हैं - यह रह जाती है अकेली - अब आप ही बताइए कि इसके लिए घर में आसन जमाए कौन बैठे ? कौन अपना काम छोड़ इससे रो$ज-रो$ज गप्पबा$जी करे ? वक्त है किस के पास ?....’’

सूद साहब की बात सुनकर मैंने महसूस किया कि अम्माजी कहीं भीतर तक हिल-सी गई हैं। अपने बेटे से शायद उसे मेरे सामने इस तरह की प्रतिक्रिया की आशा नहीं थी। श्रीमती सूद अपने पति की इस प्रतिक्रिया से मन ही मन पुलकित हुई। जहाँ अम्माजी के चेहरे पर निराशा एवं अवसाद की रेखाएँ खिंच आईं, वहीं श्रीमती सूद के चेहरे पर प्रसन्नता मिश्रित संतोष के भाव उभर आए।

कई महीने गु$जर गए। इस बीच मैं बराबर महसूस करता रहा कि अम्माजी किसी से बात करने के लिए हमेशा लालायित रहती। उन्हें मैं अक्सर अपने फ्लैट की बालकानी में बैठे हुए पाता- अकेली, बेबस। नजरों को इधर-उधर घुमाते हुए, कुछ ढूँढते हुए ! कुछ खोजते हुए!! पुरानी यादों के कोष को सीने में संजोए ! ..... किसी दिन मैं ऑफिस से जल्दी आता तो मुझे देखकर अम्माजी प्रसन्न हो जातीं, शायद यह सोचकर कि मैं उनसे कुछ बातें करूँगा ! एक आध बार तो मैंने ऐसा कुछ किया भी, मगर हर बार ऐसा करना मेरे लिए संभव न था.... दरअसल, अम्माजी से बात करने में भाषा की समस्या भी एक बहुत बड़ा कारण था।

इतवार का दिन था। मैं अपनेकमरे में बैठा अखबार पढ़ रहा था। दरवाज़े पर खटखट की आवाज सुनकर मैंने दरवा$जा खोला। सामने अम्माजी खड़ी थीं। छड़ी टिकाएँ वह कमरे में दाखिल हुई। साँस उसकी फूली हुई थी। कमरे में घुसते ही वह मुझसे बोली-

‘‘बेटा, तेरी बहू कब आएगी ?’’

अम्माजी के मुँह से अचानक यह प्रश्न सुनकर मैं तनिक सकपकाया। सोचने लगा, मैंने इसको पहले ही तो बता दिया है कि मेरी श्रीमती जी नौकरी करती है, जब उसको छुट्ïटी मिलेगी, तभी आ सकेगी - फिर यह ऐसा क्यों पूछ रही है ? पानी का गिलास पकड़ते हुए मैंने कहा-

‘‘ अम्माजी, अभी तो वह नहीं आ सकेगी, हाँ अगले महीने छुट्टïी लेकर पाँच-छ: दिनों के लिए वह ज़रूर आएगी। ’’

मेरी बात सुनकर अम्माजी कुछ सोच में डूब गई। शबïï्दों को समटते हुए अम्माजी टूटी-फूटी भाषा में बोली-

‘‘अच्छा तो चल मुझे सामने वाले मकान में ले चल। वहीं मेहरचंद की बहू से बातें करूँगी।’’

सहारा देते हुए अम्माजी को मैं सामने वाले मकान तक ले गया, रास्ते भर वह मुझे दुआएंँ देती रही,... जीता रह, लम्बी उम्र हो, खुश रह..... आदि-आदि।

जब तक सूद साहब और उनकी श्रीमतीजी घर में होते, अम्माजी कहीं नहीं जाती। इधर, वे दोनों नौकरी पर निकल जाते, उधर अम्माजी का मन अधीर हो उठता, कभी बालकानी में, कभी नीचे, कभी पड़ौस में, कभी इधर, तो कभी उधर।

एक दिन की बात है। तबियत ढीली होने के कारण मैं ऑफिस नहीं गया। ठीक दो बजे के आसपास अम्माजी ने मेरा दरवा$जा खटखटाया। चेहरा उनका बता रहा था कि वह बहुत परेशान है। तब मेरी श्रीमतीजी भी कुछ दिनों के लिए मेरे पास आई हुई थीं। अंदर प्रवेश करते हुए वह बोली-

‘‘बेटा, अस्पताल फोन करो- सूद साहब के बारे में पता करो कि अब वह कैसे हैं ? ’’

यह तो मुझे मालूम था कि दो चार दिन से सूद साहब की तबियत ठीक नहीं चल रही थी। गर्दन में मोच-सी आ गई थी और बुखार भी था। मगर उन्हें अस्पताल ले जाया गया है, यह मुझे मालूम न था। ऑफिस में भी किसी ने कुछ नहीं बताया। इससे पहले कि मैं कुछ कहता, अम्माजी मेरी श्रीमतीजी से रुआंसे स्वर में बोली-

‘‘बहू इनसे कहो ना फोन करे - पता करे कि सूद साहब कैसे हैं और कब तक आएँगे ?’’

श्रीमती मुझे देखने लगी और मैं उन्हें। अस्पताल में सूद साहब भर्ती हैं, मगर किस अस्पताल में हैं, किस वार्ड में हैं, और कब से भर्ती हैं ? जब तक यह न पता चले तो फोन कहाँ और किधर किया जाए? मैंने तनिक ऊँचे स्वर में अम्माजी से कहा-

‘‘अम्माजी अस्पताल का फोन नम्बर है आपके पास?’

मेरी बात शायद अम्माजी को पूरी तरह से समझ में नहीं आई। बोली-

‘‘सूद साहब अस्पताल में हैं। रात को ले गये बेटा, पता करो कैसे हैं? कब आएँगे? मैंने तो कल से कुछ भी नहीं खाया।’’

मेरे सामने एक अजीब तरह की स्थिति पैदा हो गई। न अस्पताल का नाम-पता, न फोन नम्बर, न और कोई जानकारी। मैं पता लगाऊँ तो कैसे ?

उधर अम्माजी अपने बेटे के बारे में हद से ज्य़ादा परेशान। कभी उठे, कभी बैठे, कभी रोए तो कभी कुछ बुदबुदाए। मैंने ऐसी एक-दो जगहों पर फोन मिलाएँ जहाँ से सूद साहब के बारे में जानकारी मिल सकती थी। पर मुझे सफलता नहीं मिली। विवश होकर मुझे अम्माजी से कहना पड़ा-

‘‘अम्माजी आप चिन्ता न करो। सब ठीक हो जाएगा। सूद साहब आते ही होंगे।’’ बड़ी मुश्किल से मेरी बात को स्वीकार कर अम्माजी भारी कदमों से ऊपर चली गई। जाते-जाते अम्माजी मेरी श्रीमतीजी से कहने लगी-

‘‘बहू, तुम भी मेरे साथ चलो ऊपर। मेरा मन लग जाएगा।’’

हम दोनों अम्माजी को सहारा देते हुए ऊपर चले गए। मेरी श्रीमतीजी से बात करते-करते अम्माजी टी. वी. के पास पहुँच गई और वहीं पर रखी सूद साहब की तस्वीर को ममता भरी नजरों से देखने लगी। तस्वीर पर चारों ओर हाथ फेर कर वह फिर बुदबुदायी-

‘‘फोन करो ना बेटा- सूद साहब अभी तक क्यों नहीं आए ?

बहुत समझाने के बाद भी जब अम्माजी ने फोन करने की $िजद न छोड़ी तो मुझे एक युक्ति सूझी। मैंने फोन घुमाया-

‘‘हैलो! अस्पताल से, अच्छा-अच्छा ..... यह बताइए कि सूद साहब की तबियत अब कैसी है ? क्या कहा- ठीक है..... एक घंटे में आ जाएँगे। - हाँ- हाँ - ठीक है -। दरअसल है, अम्माजी को बहुत चिंता हो रही थी। अच्छा, धन्यवाद ! ’’

फोन रखते ही मैंने अम्माजी से कहा- ‘‘अम्माजी, सूद साहब ठीक हंै, अब चिंता की कोई बात नहीं है। ’’

मेरी बात सुन कर अम्माजी का ममता-भरा चेहरा खिल उठा। उसने मुझे खूब दुआएँ दी। सुखद संयोग कुछ ऐसा बना कि सचमुच सूद साहब और उनकी श्रीमती जी एक घंटे के भीतर ही लौट आए।

कुछ दिन गु$जर जाने के बाद मैंने सूद साहब से सारी बातें कहीं। किस तरह अम्माजी उनकी तबियत को लेकर परेशान रही, कैसे अस्पताल फोन करने की बार-बार जि़द करती रही और फिर मैंने अपनी युक्ति बता दी जिसे सुनकर सूद साहब तनिक मुस्कराए और कहने लगे-

‘‘माँ की ममता के सामने संसार के सभी रिश्त-नाते सिमटकर रह जाते हैं- सौभाग्यशाली हैं वे जिन्हें माँ का प्यार लम्बे समय तक नसीब होता है।’’

सूद साहब की अंतिम पंक्ति सुनते ही मुझे मेरी माँ की याद आई और उसका ममता-भरा चेहरा देर तक आँखों के सामने घूमता रहा।

0000







श्रीभट्ट

(सुलतान जैनुलाबदीन 'बड़शाह' (1420-1470 ई) कश्मीर के एक बड़े ही लोकप्रिय, प्रजावत्सल एवं कलाप्रिय शासक हुए हैं। जनता आदर और प्यार से उन्हें 'बड़शाह' यानी बड़ा राजा के नाम से पुकारती थी। कहते हैं कि एक बार उनके शरीर पर छाती के ऊपर एक जानलेवा फोड़ा हुआ जिसका इलाज बड़े से बड़े हकीम और वैद्य भी न कर सके। ईरान, अफ़गानिस्तान, तुर्किस्तान आदि मुल्कों से नामवर हकीमों को बुलाया गया मगर वे सभी नाकाम रहे। तब कश्मीर के ही एक हकीम पंडित श्रीभट्ट ने अपनी समझदारी और अनुभव से 'बड़शाह' का इलाज किया और उनके फोड़े को ठीक कर उन्हें सेहत बख्शी। बादशाह सलामत ने इस एहसान के बदले में श्रीभट्ट के लिए शाही खज़ानों के मुंह खोल दिए और उन्हें कुछ मांगने के लिए अनुरोध किया। श्रीभट्ट ने जो मांगा वह कश्मीर के इतिहास का एक ऐसा बेमिसाल पन्ना है जिसपर समूची कश्मीरी पंडित बिरादरी को गर्व है।)
पात्र—
सुलतान जैनुलाबदीन 'बड़शाह' – 15 वीं शती के कश्मीर के लोकप्रिय शासक
पंडित श्रीभट्ट – प्रसिद्ध हकीम
शाहज़ादा हैदर – शाह सुलतान का बेटा
हकीम मंसूर – शाही हकीम
श्रीवर, सोम पंडित – प्रसिद्ध कवि एवं विद्वान
हलमत बेग – एक वयोवृद्ध दरबारी
रमज़ान खां, सुखजीवन लाल दो पड़ौसी एवं अन्य दरबारी














(कश्मीर की राजधानी नौशहरा के एक मौहल्ले की गली में दो पड़ौसी रमज़ान खां और सुखजीवनलाल बादशाह सलामत सुलतान जैनुलाबदीन की सेहत के बारे में आपस में बातचीत कर रहे हैं।)
रमज़ान शेख - अरे-रे! आज सवेरे-सवेरे कहां चल दिए सुखजीवन लाल?
सुखजीवनलाल -ओह-हो! तुम हो? रमज़ान शेख! अरे भाई . . .रात को नींद बिल्कुल भी नहीं आई। घरवाली भी रातभर करवटें ही बदलती रही। सोचा जल्दी उठकर दरिया में नहा के आऊं।


रमज़ान -
सुखजीवनलाल -

म-मगर नींद न आने का कोई सबब?
वाह! जैसे तुमको कुछ ख़बर ही नहीं। सुना है बादशाह सलामत की तबियत बिगड़ती ही जा रही है। सारे हकीमों और वैद्यों ने जवाब दे दिया है।


रमज़ान -

भाई, सुना तो मैंने भी था कि उनका इलाज करने के लिए ईरान, अफ़गानिस्तान और तुर्किस्तान से शाही हकीमों को बुलवाया गया है।


सुखजीवनलाल -

ठीक सुना था तुमने! मगर उन्होंने भी हाथ खड़े कर दिए और अपने-अपने मुल्कों को लौट गए। सुना है कि बादशाह सलामत का फोड़ा नासूर में बदल गया है। यह फोड़ा नहीं, ज़हरबाद है। एक जानलेवा फोड़ा- एक रिसता घाव! अब तो बस ऊपर वाले का ही सहारा है।


रमज़ान -

भाई सुखजीवन! तुमने बड़ी ही बुरी ख़बर सुनाई। मैं तो यही समझता था कि बादशाह सलामत ठीक हो गए होंगे। अल्लाह! अब क्या होगा! खुदावंदा! यह तू किस बात की सज़ा हमें दे रहा है? ऐसे नेक और रहमदिल बादशाह के साथ यह ज़्यादती क्यों? नहीं-नहीं सुखजीवन लाल, नहीं . . .ऊपर वाला इतना पत्थरदिल नही हो सकता। ज़रूर कोई रास्ता निकलेगा . . .ज़रूर।


सुखजीवनलाल -

हां-हां रमज़ान भाई, उम्मीद तो मैंने भी नहीं छोड़ी है। जाने क्यों मुझे लगता है कि कहीं न कहीं से उम्मीद की कोई किरण फूटेगी ज़रूर!!


रमज़ान -
सुखजीवनलाल -

आमीन मुम आमीन! अच्छा यह बताओ कि क्या शाही हकीम हज़रत मंसूर भी नाकाम रहे?
अरे भाई, उनकी बात ही क्या है? बताया न दूसरे मुल्कों के नामवर हकीम भी बादशाह सलामत के फोड़े को ठीक न कर सके और लौट गए!


रमज़ान -
सुखजीवनलाल -

ओफ! हां- भूल गया मै! बताया था तुमने . . .म-मगर अब क्या होगा?
बस दुआ करो। शायद हमारी दुआएं काम आ जाएं। बड़े बुजुर्गों ने ठीक ही कहा है - जब दवा काम न करे तो दुआ करो।


रमज़ान -

हां-हां। ठीक है। मैं भी अभी मस्जिद में जाकर बादशाह सलामत की सेहत के लिए दुआ मांगता हूं। नमाज़ का वक्त भी हो चला है . . .चलो चलो। खुदा ताला के दरबार पे आलीजाह की तंदरूस्ती के लिए दुआ मांगे।


सुखजीवनलाल -

ज़रूर ज़रूर! मैं भी नहा कर आता हूं।(दोनों चले जाते हैं)


दृश्य दो

(बादशाह जैनुलाबदीन रोग-शय्या पर लेटे हुए हैं। कमज़ोरी के मारे उनके अंग-अंग से थकावट झलक रही है। नज़रें उदास हैं और वे किसी गहरी सोच में डूबे हुए हैं। उनके ईदगिर्द उनका बेटा शाहजदा हैदर, शाही हकीम मंसूर, कुछेक व़जीर व दरबारी, रिश्तेदार वगैरह सिर झुकाएं खड़े हैं। बादशाह धीरे-से आंखे खोलते हैं। अपने सामने बेटे हैदर, हकीम मंसूर वगैरह को देख वे बहुत ही धीमी एवं लरजती आवाज़ में कहते हैं।)


बादशाह -

ओफ! अब यह दर्द सहा नहीं जाता बेटा हैदर। खुदाताला यह मुझे किस खता की सज़ा दे रहा है? मैंने तो हमेशा नेकी का दामन थामा था, फिर यह कहर क्यों? क्यों बेटा, क्यों? हकीम मंसूर साहब!!


मंसूर -
बादशाह -

आलीजाह!
क्या मैं अब कभी ठीक नहीं हो सकूंगा? सच-सच बोलना मंसूर क्या मेरा यह रिस्ता फोड़ा मेरी जान लेकर ही मानेगा? कश्मीर को इस दुनिया की जन्नत बनाने का मेरा ख्वाब क्या अधूरा ही रहेगा? बोलो मंसूर बोलो . . .!


मंसूर -

हुजूर-हिम्मत रखें। आप यों उदास न हों - खुदा साहब एक दरवाज़ा बंद करते हैं तो दस खोल देते हैं।मुझे तो . . .


बादशाह -

नहीं मंसूर नहीं। मुझे झूठी तसल्ली न दो। ओफ़! या अल्लाह! मारे दर्द के सारा बदन जैसे सुन्न हो गया है। हज़ारों-लाखों बिच्छुओं ने जैसे मेरी इस छाती को काट खाया हो!! पूरा बदन ऐंठता जा रहा है! हाय री तकदीर! जाने खुदाताला को क्या मंज़ूर है?


हैदर -

अब्बाजान! दिल छोटा न करें! पाक परवरदिगार पर भरोसा रखें। वहीं अब मददगार हैं। सारी रिआया आपकी सेहतयाबी और सलामती की दुआएं मांग रही है। हां अब्बा हुजूर! आप ज़रूर ठीक होंगे!
मंसूर - जी हां आलीजाह! मस्जिदों और दूसरी इबादतगाहों में आपकी सलामती के लिए दुआएं मांगी जा रही है। ग़रीबों और नातवानों में खैरात बांटी जा रही है . . .दरवेश, मुल्ला और फ़कीर रातदिन खुदाताला से आपकी सेहत की दुआएं मांग रहे हैं!


बादशाह -

(लंबा निःश्वास छोड़कर) हाय! अफ़सोस! एक छोटा-सा फोड़ा मेरी जान का दुश्मन बन जाएगा, कभी सोचा न था। बेटा हैदर! (कराह कर) अब तो दर्द सहा नहीं जाता ओफ़! ओह!


हैदर -

अब्बाजान! आप इस तरह से दिल छोटा करेंगे तो हम सब की रही-सही हिम्मत भी जाती रहेगी। हमें सब्र से काम लेना होगा अब्बू!!


बादशाह -

सब्र-सब्र!! कहां तक सब्र करूं? यहां तो मारे दर्द के जान निकल रही हैं- और तुम। अब सहा नहीं जाता बेटा . . .सच कह रहा हूं!!


हैदर -

अब्बाजान! (गले से लगता है)


(तभी श्रीवर और सोमपंडित प्रवेश करते हैं)


श्रीवर -
बादशाह -

महाराजाधिराज सुलतान जैनुलाबदीन 'बादशाह' की जय! आपका इकबाल बुलंद हो महाराज!
आओ, आओ श्रीवर! क्या ख़बर लाए हो(खांसते हुए) ओफ़! लगता है यह दर्द मेरी जान लेकर ही रहेगा।


श्रीवर -

ऐसा न कहिए महाराज! मैं और सोमपंडित अभी-अभी पूरी कश्मीर घाटी घूमकर आए हैं- मालूम पड़ा घाटी के उतर में विचारनाग के निकट एक पहुंचा हुआ हकीम श्रीभट्ट रहता है- उसके हाथों में शफा है महाराज!


सोमपंडित -

हां महाराज! मुश्किल से मुश्किल बीमारी को ठीक करने में श्रीभट्ट माहिर है। हम उन्हें अपने साथ ही लाए हैं। आपकी आज्ञा हो तो उन्हें अंदर बुलाया जाए!


बादशाह -

(कुछ सोचकर) ठीक है, बुलाओ उन्हें अंदर। देखें शायद उनके हाथों की शफा से मेरा दर्द दूर हो जाए। क्या नाम बताया तुमने उसका श्रीवर?


श्रीवर -
बादशाह -

पंडित श्रीभट्ट महाराज।
श्रीभट्ट! नाम से ही लगता है कि इस शख्स में कोई बात ज़रूर होगी। श्री का मतलब इकबाल, खूबसूरती, खुशकिस्मती है ना सोमपंडित?


सोमपंडित -
बादशाह -

हां महाराज! बिल्कुल सही फ़रमाया आपने।
खुदा करे मेरी उजड़ती दुनिया में भी खूबसूरती लौट आए - शायद श्रीभट्ट ऐसा कर सके!! जाओ . . .उसे अंदर ले आओ!


(श्रीवर और सोम पंडित महल के बाहर जाकर कुछ देर बार श्रीभट्ट को अपने साथ अंदर लिया लाते हैं)
दृश्य तीन
(मोहल्ले की गली में सुखजीवनलाल और रमज़ान खां आपस में बातें कर रहे हैं।)


सुखजीवनलाल:
रमज़ान:
सुखजीवनलाल:
रमज़ान:
सुखजीवनलाल:

अरे भाई वाह! सुना तुमने रमज़ान खां! कमाल हो गया - कमाल!!
क्या?क्या हो गया? बड़े खुश नज़र आ रहे हो!
बस कुछ मत पूछो - कमाल से भी बढ़कर कमाल हो गया। हां।
भाई कुछ बोलोगे भी या यों ही।
कमाल नहीं भाई, जादू। हां जादू!! साक्षात जादू। सात दिन में ही श्रीभट्ट ने वह कर दिखाया जो दूसरे हकीम तीन महीनों में भी न कर सके। सच में श्रीभट्ट के रूप मे ऊपर वाले ने कोई फ़रिश्ता भेजा था।


रमज़ान:

क्या? हमारे आलीजाह ठीक हो गए? तुम सच कहते हो सुखजीवन भाई?
और नहीं तो क्या . . .कौन सी दुनिया में रहते हो तुम? तुमने मुनादी नहीं सुनी? आज रात ज़ूनडब के शाही बाग में श्रीभट्ट का खुद महाराज वज़ीरों, दरबारियों और जनता की मौजूदगी में एक खास जलसे में अभिनंदन करेंगे और बहुत बड़ा इनाम भी देंगे।
रमज़ान - शुक्र है पाक परवरदिगार का कि हमारे ग़रीबपरवर आलीजाह ठीक हो गए। भाई सुखजीवन, यह ख़बर सुनकर सचमुच मेरा रोम-रोम खुशियों से भर गया है। मैं आज रात उस जलसे में ज़रूर हाज़िर हूंगा- तुम भी चलना।


सुखजीवनलाल:

हां-हां मैं भी जाऊंगा। दोनों चले चलेंगे साथ-साथ।





(जूनडब का शाही बाग प्रकाश में जगमगा रहा है। अपार जनसमूह के बीच सुलतान जैनुलाबदीन अपने तख्त पर शोभायमान हैं। उनके दाएं-बाएं नीचे की ओर वज़ीर, दरबारी और दूसरे अधिकारीगण बैठे हुए हैं। सारा माहौल खुशियों से भरा हुआ है। बहुत दिनों के बाद जनता अपने प्यारे महाराज के दर्शन कर कृतार्थ हो रही है। जनता में अपार उत्साह है और लोग आपस में बाते कर रहे हैं- 'वह देखों महाराज वहां पर बैठे हैं, उधर- हां उधर तख्त पर . . .' 'वो रहे श्रीभट्ट- वहां उस तरफ़ दरबारियों की अगली पंक्ति में दाईं ओर की छोर पर।' 'हां-हां, देख लिया। वाह! ऊपर वाले ने क्या नूर बख्शा है उनके चेहरे पर!' तभी बुजुर्गवार दरबारी हलमत बेग खड़े होकर जनता से मुखातिब होते हैं)


हलमत बेग:

साहिबे सदर और हाज़रीन! कश्मीर की अमनपसंद सरज़मीन पर आज आलीजाह एक फरिश्ते को अपने हाथों से प्यार और मोहब्बत का ऐसा नज़राना पेश करने वाले हैं जिसका कश्मीर की तवारीख़ में कोई सानी न होगा। ऐसा नायाब तोहफ़ा जिसकी मिसाल मिलना मुश्किल होगा।(जनता में जोश-खरोश-तालियां।) वह फरिश्ता है हकीम श्रीभट्ट। श्रीभट्ट ने वह काम किया है जिसकी जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है। (तालियां . . .) आलीजाह की जान बचाकर पंडित श्रीभट्ट ने न सिर्फ़ शाही खानदान पर बहुत बड़ा एहसान किया है बल्कि कश्मीर की अवाम और यहां के ज़र्रे-ज़र्रे को अपनी काबलियत का कायल बनाया है।(तालियां एवं आवाज़ें।) हकीम मंसूर और बेटा हैदर, तुम दोनों श्रीभट्ट को बाइज्ज़त आलीजाह के पास ले आओ।


बादशाह -

नहीं-नहीं हलमत बेग! मैं खुद उठकर श्रीभट्ट को बाइज्ज़त लिवा लाऊंगा। (तख्त से उठकर श्रीभट्ट के पास जाते है। उनके साथ शाहजदा हैदर और हकीम मंसूर हैं। तीनों बड़े अदब के साथ बारी-बारी से श्रीभट्ट को गले लगाकर उन्हें आहिस्ता-आहिस्ता तख्त के पास ले आते हैं। जनता में असीम उत्साह और जोश ठाठें मार रहा है। तालियों की आवाज़ से फिज़ाएं गूंज उठती हैं।


श्रीभट्ट -

बस आलीजाह, बस! मुझे और शर्मिंदा न करें। मैंने ऐसा कुछ नहीं किया जिसके लिए मुझे इतनी बड़ी इज्ज़त दी जा रही है।


बादशाह -

नहीं श्रीभट्ट, नहीं। तुम नहीं जानते कि तुमने कितना बड़ा काम किया है- तुम्हारे एहसान को मैं कभी भूल नहीं सकता! तुम को देखकर मुझे जो खुशी हो रही है उसे मैं बयान नहीं कर सकता। तुम्हारी काबलियत की माबदौलत ही नहीं बल्कि मेरी पूरी सलतनत कायल हो गई है। आज मैं तुम्हारा दामन बेपनाह दौलत से भर देना चाहता हूं, आओ मेरे दोस्त, आओ . . .मेरे साथ आओ।
(जनता में जोश और उत्साह -आवाज़ें)


श्रीभट्ट -

हुजूर! आलीजाह! यह तो आपका बुलंद इकबाल था जिसने इस नाचीज़ को कामयाबी की मंज़िल तक पहुंचाया।


बादशाह -

नहीं श्रीभट्ट नहीं। हम तुम्हारी काबलियत को कम करके नहीं आंक सकते। जिस हुन्नरमंदी से तुमने हमें नयी जान बख्शी है उसे भला हम कैसे भुला पाएंगे? सारे गै़र-मुल्कों हकीमों को तुमने दिखा दिया कि कश्मीर की सरज़मीन पर भी एक ऐसा हकीम मौजूद है जिसकी मिसाल वह खुद है।


श्रीभट्ट -

यह हु़जूर की ज़रानवाज़ी है। आपकी हौसला–अफ़ज़ाई के लिए मशकूर हूं आलीजाह। (झुककर सलाम करता है।)


बादशाह -

आओ इस तरफ़, इस तख़्त पर मेरे साथ बैठ जाओ। हां मेरे नज़दीक। आओ, और नज़दीक आओ। मेरे पास।
(श्रीभट्ट बादशाह के पास तख्त पर बैठ जाता है। जनता में भरपूर जोश है। तभी एक दरबारी सोने की मोहरों से भरा हुआ एक थाल लेकर आता है और श्रीभट्ट को पेश करना चाहता है।)


बादशाह -

पंडित श्रीभट्ट! यह एक छोटा-सा तोहफ़ा है। मैं जानता हूं कि दुनिया की कोई भी दौलत तुम्हारी ख़िदमत का बदला चुका नहीं सकती। मगर फिर भी मेरा दिल रखने के लिए इस नज़राने को तुम्हें मंज़ूर करना होगा। तुम मंजूर करोगे तो मेरे दिल को सकून मिलेगा। तुम चाहो तो कुछ और भी मांग सकते हो।
(जनसमूह में उत्साह/तालियां . . .सारे दरबारी, वज़ीर, अधिकारीगण आदि समवेत स्वरों में 'सुलतान जैनुलाबदीन की जय' आवाज़े बुलंद करते हैं। थोड़ी देर के लिए जयघोष से सारा वातावरण गूंज उठता है। फिर धीरे-धीरे खामोशी छा जाती है और श्रीभट्ट खड़े होकर निवेदन करते हैं।)


श्रीभट्ट -

आलीजाह! इन सोने की मोहरों को लेकर मैं क्या करूंगा? मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। बस, मैंने तो अपना फ़र्ज़ पूरा किया। जनता का भी तो फ़र्ज़ बनता है कि वह अपने राजा की सेवा करे।


बादशाह -

उसी फ़र्ज़ को निभाने की एवज़ में ही तो मैं तुम्हें इनाम देना चाहता हूं। तुम कुछ मांगोगे तो मेरे दिल का बोझ हल्का होगा।


श्रीभट्ट -
बादशाह -

आलीजाह!
ब्हां-हां! बोलो, अपने लिए नहीं तो मेरा दिल रखने के लिए तुम्हें ज़रूर कुछ मांगना पड़ेगा। मांगो क्या चाहते हो?।
(जनसमूह अशांत है। फुसफुसाहट)


श्रीभट्ट -
बादशाह -
श्रीभट्ट -
बादशाह -

आलीजाह! मेरी एक इल्तिजा है, एक दरख्वास्त है।
क्या चाहते हो? जल्दी बोलो मेरे दोस्त।
सोचता हूं आलीजाह! कहीं छोटे मुंह बड़ी बात न हो जाए।
बिल्कुल भी नहीं। तुम कुछ बोलो तो!!


श्रीभट्ट -

आलीजाह! मेरी दरख्वास्त है कि दूसरे फिरके की तरह ही मेरे फिरके के लोगों को भी सरकारी नौकरी पाने के लिए बराबरी के मौके दिए जाएं। इससे हु़ज़ूर की नेकदिली में चार चांद लग जाएंगे।


बादशाह -

खूब, बहुत खूब! श्रीभट्ट! आज तुमने सचमुच मेरी आंखें खोल दी। जो बात मेरे दरबारी, हुक्मरान और वज़ीर आज तक न कह सके, वह तुमने कह दी। बेशक! बादशाह का काम है अपनी अवाम में गै़र-बराबरी को ख़त्म कर बराबरी का दर्जा कायम करना! मेरे बु़जुर्गों ने अगर कोई ग़लत काम किया है, मैं उसे दोहराऊंगा नहीं! आज से ही मेरे मुल्क में फिरकावाराना गैरबराबरी का दर्जा .खत्म होगा। यह मेरा वादा रहा! म-मगर यह तो तुमने अपने लोगों के लिए मांगा है, अपने लिए भी तो कुछ मांगों श्रीभट्ट!


श्रीभट्ट -
बादशाह -
श्रीभट्ट -

मेरी एक दरख्वास्त और है आलीजाह!
बोलो - मैं अभी उसपर अमल करता हूं।
मेरे फिरके के लोगों को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक आज़ादी के साथ ख़ुदा की इबादत करने का मौका मिलना चाहिए . . .और-और . . .


बादशाह -

मैं समझ गया मेरे दोस्त! ज़रूर-ज़रूर ऐसा ही होगा! आज से हर फिरके को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक खुदा की इबादत करने का हक होगा। और आज ही मैं हुक्म देता हूं कि जिजया वसूली को भी ख़त्म कर दिया जाए। मेरे दोस्त! तुम कुछ और मांगना चाहो तो मांगो।


श्रीभट्ट -

ख़ौफ़ और दहशत से भागे हुए मेरी बिरादरी के बदकिस्मत लोगों को वापस बुलवाकर उन्हें बाइज्ज़त वादी-ए-कश्मीर में बसाया जाए और हर किसी को बगैर किसी भेदभाव के विद्या की दौलत पाने की छूट दी जाए। बस, मुझे और कुछ नहीं चाहिए आलीजाह!


बादशाह -

सुभान अल्लाह! भई वाह! श्रीभट्ट तुम तो सचमुच इंसान की शक्ल में फ़रिश्ते हो। तुमने अपनी कौम को ही नहीं अपने नाम को भी रोहानास कर दिया है। तुम्हारी यह कुर्बानी बताती है कि कच्चा इंसान वह है जो खुदग़र्जी से ऊपर उठकर समूची इंसानियत के हक में सोचता है- मरहब्बा। आफरीं तुम एक हकीम ही नहीं वर्ना इंसानियत की रोशनी से जगजगाते हुए एक चिराग़ हो।


श्रीभट्ट -

हुजूर! मेरे लिए यह चार बातें चार करोड़ मुहरों के बराबर हैं। आप मेरी इन चार मुरादों को पूरा करेंगे तो समझ लीजिए मुझे मेरा इनाम मिल गया।


बादशाह -

तसल्ली रखों मेरे दोस्त! तुम्हारी हर मुराद पूरी होगी! हमारे बु़जुर्गों ने अपनी गैर ज़िम्मेदाराना हरकतों से आपकी कौम पर जो ज्यादतियां की हैं, उस बदनुमा दाग़ को मैं दूर करके ही दम लूंगा। मैं खुद देख्रूंगा कि तुम्हारी हर मुराद जल्द-से-जल्द पूरी कर दी जाए-मगर, अब मेरी भी एक दरख़्वास्त है।


श्रीभट्ट -
बादशाह -

हु़जूर फ़रमाए! क्या ख़िदमत कर सकता हूं?
मैं तुम्हे अपने मुल्क का वज़ीर-ए-सेहत बनाना चाहता हूं ताकि अपनी काबलियत और इल्मोहुन्नर से तुम वतन के लोगों को खुशहाल रख सको। दुनयावी तकलीफ़ों और बीमारियों से उन्हें निजात दिला सको-। पह मेरी दिली ख्वाहिश है-


श्रीभट्ट -
बादशाह -

आलीजाह! इस नाचीज़ को आप बहुत एहमियत दे रहे हैं।
नहीं श्रीभट्ट नहीं। तुम्हें नहीं मालूम कि तुम क्या हो? आने वाली नस्लें तुम पर नाज़ करेगी। कश्मीर की तवारीख़ पर तुम हमेशा आफ़ताब की तरह चमकते रहोगे-
(गले से लगाते हैं और सुलतान अपनी उंगली में से हीरे की अंगूठी निकालकर श्रीभट्ट को पहनाते हैं। जन-समूह में अपार खुशी है। सारा वातावरण खुशियों से गूंज उठता है।)
संगीत धीरे-धीरे मद्धिम होता है।







हब्बाख़ातून











पात्र-परिचय:

यूसुफ शाह: कश्मीर के चक वंश (16वीं शती) का शाहज़ादा।

हब्बाखातून: एक ग्राम-युवती जो यूसुफ की रानी बनती है।अत्यन्त रूपवती तथा कंठ सुरीला।

अबदीराथर: हब्बाखातून का बाप।

सुखजीवन: अबदीराथर का पड़ौसी व पारिवारिक मित्र ।

संत.मसूद: एक पहुँचे हुए सूफी संत।

भगवानदास: अकबर का सेनापति ।

याकूब खाँ: यूसुफ का सहायक।

ज़ाकिर खाँ राजा भगवानदास का सहायक।

बच्ची





















यूसुफ: वाह! क्या दिलकश नजारा है....दूर-दूर तक फैले यह बर्फीले पहाड़।कलकल बहते यह झरने.....दोशीजा के दुपट्टे की तरह लहराते यह धान के हरे-भरे खेत .....चिनार के दरख्तों की यह लम्बी-लम्बी कतारें.......और, और वह गोल-गोल प्याले की शक्ल की छोटी-सी झील......। लगता है कुदरत की सारी कारीगरी यहीं पर सिमटकर आ गई हो। सच, याकूब खाँ, दिल करता है कि कुदरत के इस बेपनाह हुस्न को आंखों में बसा लूँ।

याकूब: वाकई हजूर, यह जगह बहुत ही खूबसूरत है।

यूसुफ: याकूब खाँ, कश्मीर की ऐसी कोई सैरगाह नहीं जिसको हमने न देखा हो.....म-मगर इस जगह की तो बात ही कुछ और है..........।

याकूब: शाहजादे का फरमाना बिल्कुल सही है।......हुजूर शायद नहीं जानते कि यह जगह कश्मीर की निहायत ही खूबसूरत सैरगाह पांपोर है जो जाफरान की खेती के लिए दूर-दूर तक मशहूर है ।.......

(तभी एक गीत की स्वर-लहरी फिज़ा में तैरती हुई शाहजादे के कानों में सुनाई पड़ती है. ..)

यूसुफ: याकूब खां, कुछ सुना तुमने?...... कैसी सुरीली और पुरकशिश आवाज है......। लगता है कोई दुखियारी कुदरत की इस कारीगरी से बेजार है......। सुनो, गौर से सुनो। कोई बुलबुल जैसे अपने दिल के दर्द को गीत की लड्डियों में पिरोकर हल्का कर रही है .......सुनो......सारी फिजाएँ जैसे गूंज रही हैं.......!

याकूब: वाकई हुजूर, यह गीत नहीं बल्कि मौसीकी का एक शाहकार है......मैं सोचता हूँ, जब गाने वाली की आवाज इतनी पुरअसर है तो फिर गाने वाली खुद कितनी हसीन होगी.......!!

यूसुफ: ठीक सोचा तुमने याकूब।......चलो, चलकर देखें यह मौसीकी का सोता कहाँ से फूट रहा है?

(हल्का संगीत...घोड़ों के टापों की आवाज फिर उभरती है जो धीरे-धीरे मखिम पड़ती है.... गीत की स्वर लहरी फिजा में पुनः गूंजती है......( ससुराल में सुखी नहीं हूँ मायके वालो! मेरा कुछ चारा करो....।

याकूब: हुजूर, वह देखिए, उधर । चिनार के उस दरख्त के नीचे वह औरत गाना भी गा रही है और लकड़ियाँ भी बीन रही है.......। पहनावे से बिल्कुल देहातिन लग रही है ......।

यूसुफ: माशा-अल्लाह। यह औरत तो वाकई हूर है......। कुदरत के इस दिलकश नज़ारे में इसकी मौजूदगी से चार चाँद लग रहे हैं......। याकूब खां, शहर के हुस्न में और देहात के हुस्न में क्या फर्क है, यह आज नजर आ रहा है मुझे । सच, ऐसा नायाब हुस्न इन आंखों ने पहले कभी नहीं देखा......।

(घोड़ों के चलने की आवाज जो थोड़ी देर बाद थम जाती है ....)

याकूब: ऐ औरत, कौन है तू और यहाँ क्या कर रही है?

(खामोशी) सुना नहीं, मैं पूछता हूँ कौन है तू और यहाँ क्या कर रही है?

हब्बा: मैं-मैं पास के गांव चंदहार की रहने वाली हूँ......। यहां रोज आती हूँ लकड़ियाँ बीनने........।

याकूब: अच्छा, तो तुम चंद्रहार(पांपोर) की रहने वाली हो.....।मालूम है तुम्हारे सामने

यह कौन खड़े? .......जानेगी भी कैसे? देहातिन जो ठहरी! ........

याकूब: यह इस मुल्क के शाहजादे सुलतान यूसुफशाह हैं......। सलाम करो इन्हें।

हब्बा: कुसूर माफ हो सरकार । मैं बिल्कुल भी नहीं जानती थी......। देहातन हूँ ना। ......शाहजादे को मेरा सलाम कुबूल हो......। अच्छा, अब मैं चलती---।

यूसुफ : रुको हमें तुमसे एक बात कहनी है ........।

हब्बा: ज-जल्दी कहिए सरकार, मुझे जाना है। मेरे घर वाले मेरी राह देख रहे होंगे......। यूसुफ: सुनो, तुम जो अभी-अभी यह गाना गा रही थी उसमें तुम्हारा दर्द झलक रहा था......। क्या सचमुच ससुराल वाले तुम्हारी कद्र नहीं करते हैं.....?

हब्बा: (आह भर कर) कद्र.......! इस दुनिया में कौन किस की कद्र करता है सरकार? सब तकदीर का खेल है।

यूसुफ: हम कुछ समझे नहीं......साफ साफ बताओ, तुम कहना क्या चाहती हो?

हब्बा: देखिए न हुजूर, आप घोड़े पर सवार होकर हुक्म चला रहे हैं और मैं ज़मीन पर खड़ी लकड़ियाँ बीन रही हूँ......यही तो है तकदीर का खेल.........!

यूसुफ: सुभान अल्लाह ........मर्हबा । कौन कहता है कि तुम देहातिन हो......ऐसी अक्लमंदी और दानाई तो मेरे वज़ीरों में भी नहीं है .......। अच्छा सुनो, तुम ने चौदहवीं के चांद को कलकल बहते झरने में नहाते हुए कभी देखा है ?

हब्बा: कलकल बहते झरने में चांद को.........।

यूसुफ: हां, चौदहवीं के दिलकश गोल-गोल चांद को जो अपने हुस्न की चांदनी से धरती के चप्पे-चप्पे को ठंडक पहुँचाता है।

हब्बा: हां-हां देखा है, बहुत बार देखा है। म-मगर आप ऐसा क्यों पूछ रहे हैं?

यूसुफ: हमामलिए पूछ रहे हैं कि तुमने अपने गांव का नाम और अपना काम तो बता दिया, मगर घर का नाम नहीं बताया........। ठीक है, इस बाबत हम अब ज्यादा इसरार भी नहीं करेंगे.....।

हब्बा: ओह, अपना नाम बताना तो मैं सचमुच भूल गई.....म-मेरा नाम......

यूसुफ: तुम्हारा नाम कुछ भी हो। मेरे लिए तुम वही गोल-गोल दिलकश चांद हो जिसके लकी चांदनी झरने की मौसीकी को और भी दिलफरेब बनाती है। ----

यूसुफ: हाय अल्लाह! आप तो शायरी करने लगे।

यूसुफ: ठीक कहा तुमने.......। मेरी बात वही समझ सकता है जो खुद शापर हो। सच, तुम्हारी यह मीठी आवाज और यह बेपनाह हुस्त दोनों बेश-कीमती ही नहीं, नायाब भी हैं .........।

हब्बा: नहीं-नहीं ......।मैं शायर नहीं हूँ......।मैं तो एक मामूली-सी देहातिन हूँ।अच्छा, अब जाती हूँ......।

यूसुफ: सुनो-सुनो.......चली गई।

याकूब: जाने दीजिए हुजूर, ऐसी देहातिनों को ज्यादा मुंह लगाना ठीक नहीं है.......। आपके महल में तो इस जैसी जाने कितनी हुस्नपरियाँ मौजूद हैं .....फिर इसमें ऐसी क्या खूबी है ......?

यूसुफ: नहीं याकूब नहीं, यह ऐसी-वैसी औरत नहीं लगती......। इसका भोलापन, इसकी पुरकशिश आवाज और बेपनाह हुस्न इस बात का सबूत है कि यह औरत कोई मामूली देहातिन नहीं है, बल्कि खुदा की नियामत है, उसकी कारीगरी की जीती-जागती तस्वीर है ........।

याकूब: लगता है, हुजूर उस औरत से कुछ ज्यादा ही मुतासिर हुए हैं......।

यूसुफ: हां याकूब, जब हमने उसे पहली नजर में देखा तो हमें लगा कि उसकी रूह

में एक फनकार समाया हुआ है,ऐसा फनकार जो हुस्न और मौसीकी का मुजस्मा हो.....। मैं इस औरत से दुबारा मिलना चाहता हूँ ..........।

याकूब: म-मगर हुजूर, आपके वालिद साहब इस औरत से आपका मिलना शायद पसंद नहीं करेंगे..........।

यूसुफ: (भावुक होकर) तुम जानते हो याकूब, इस दुनिया में अगर मैं किसी से बेहद प्यार करता हूँ तो वह है हुस्न और मौसीकी। इस औरत में यह दोनो बातें अपनी इंतहा पर हैं..........।

याकूब: इंतहा पर हैं ......?

युसुफ: हां, याकूब । अल्लाह की यह नियामत जंगल के मोर की तरह बेनामी की

जिन्दगी में नाचती रहे, यह हम गवारा नहीं करेंगे......।इसे हम गले का हार बनाकर अपने महल की जीनत बनायेंगे........। तुम जाकर इस औरत के मां-बाप का पता लगाओ...... जाओ, याकूब, अभी पता लगाओ......।

(संगीत)

(रानी हब्बा की ख्वाबगाह। हब्बा एक गीत की पंक्तियाँ गुनगुना रही हैं ..... गुलदस्ता सजाया है मैने तेरे लिए, इन अनार के फूलों का लुत्फ उठा ले....मैं हूँ धरती, तू आसमां है मेरा... सिरपोश है तू मेरे राज़ों का,शै हूँ इक प्यारी-सी, तू मेहमान मेरा प्यारा सा, इन अनार के फूलों का लुत्फ उठा ले...)

यूसुफ: (प्रवेश करते हुए, ताली बजाकर)...... सुभान अल्लाह। आफरी सदआफरी......... हब्बा: ओह आप!

यूसुफ: रुको मत हब्बा........गीत पूरा करो....... वाह क्या बोल हैं.......। गुलदस्ता सजाया है मैने तेरे लिए...... अनार के इन फूलों का लुत्फ उठा ले....... खूब, बहुत खूब!

हब्बा: हाय अल्लाह, आपने सारा गीत सुन लिया.......?

यूसुफ: सारा नहीं, अधूरा सुना है। जाइए, हम आपसे नहीं बोलते । आप हमारे गीतों को यों छिपछिपकर क्यों - सुनते हैं......?

यूसुफ: छिप-छिपकर.......!! ह-ह-ह-भई, तुम्हारी खूबसुरती और तुम्हारी आवाज को छुपछुपकर देखने-सुनने में ही तो लुत्फ है.......अच्छा छोड़ो...... यह बताओ, तुम्हें याद है करीब दो साल पहले तुम मुझे पांपोर की उस खूबसूरत सैरगाह में मिली थी........। हब्बा: (हंसते हुए) मेरे सरकार, मुझे सब कुछ याद है.....(भावुक होकर) उन बेशकीमती लम्हों को मैं कैसे भूल सकती हूँ?

यूसुफ: याद है, तुमने कहा था कि मैं घोड़े पर सवार होकर हुक्म चला रहा हूं और तुम जमीन पर खड़ी लकड़ियाँ बीन रही हो, यह तकदीर का खेल नहीं तो क्या है.......? हब्बा: (हंसते हुए) हां हां अच्छी तरह याद है, और आपने कहा था कि मैं आपके लिए वही गोल-गोल दिलकश चांद हूँ जिसके हुस्न की चाँदनी झरने की मौसीकी को और भी दिलफरेब बनाती है .......। (दोनों हंसते हैं ..........)

यूसुफ: सच हब्बा, मेरी दिली ख्वाहिश है कि तू गीतों की रानी बने और दुनिया तुझे मौसीकी की मल्लिका का एजाज़ बख्शे...........।

हब्बा: यकीन मानिए सरकार,आपकी ख्वाहिश जरूर पूरी होगी। आपकी खुशी में ही तो मेरी खुशी है।

यूसुफ: हब्बा! (प्यार करते हुए।)

हब्बा: मुझे इतना प्यार न दीजिए। सच कह रही हूं ..... इस दिल को मैं संभाल न पाऊँगी।आप इतना प्यार करेंगे तो मैं आंसुओं को रोक न सकूँगी। .....

यूसुफ़: नहीं, आँसू तुमने बहुत बहाए हैं..... अब तुम इस महल में आजाद बुलबुल की तरह चहकोगी और मैं तुम्हारी मीठी तान सुनूंगा.......।

हब्बा: आपने फिर शायरी शुरू कर दी.....। चलिए तैयार हो जाइए, आपको आज कई सारे काम करने हैं.............

यूसुफ़: कई सारे काम?

हब्बा: हां, वजीरों की मजलिस को खिताब करना है, दिल्ली के शंहशाह अकबर ने जो पैगाम भेजा है, उसका जवाब भेजना है । और, और ...... ईरान से मेरी तरबीयत के लिए जो शाही मौसीकार आपने बुलवाए हैं, सुना है कि वह कश्मीर पहुंच गये हैं। उनकी अगुआनी के लिए आपको खास इंतजाम करना है.........

यूसुफ: मगर, एक काम बताना तो तुम भूल ही गई........।

हब्बा: कौन सा काम .........?

यूसुफ: देखो, तुम एक शायरा हो।सारे जहाँ की बातों को तुम लफ्ज़ों में कैद करती हो, जरा सोचो कौनसा काम हो सकता है.........?

हब्बा: बताइए ना.......सच, मुझे कुछ भी याद नहीं आ रहा .......।

यूसुफ: अ-आज मेरे दिल की रानी हब्बा खातून की साल गिरह है...... आज और कोई काम नहीं होगा....... बस सालगिरह ......... देखो, तुम भले ही अपने आपको भूल जाओ मगर हम तुम्हारी हर बात,हर अदा को याद रखेंगे........।

हब्बा: हाय अल्लाह ! मैं तो सचमुच भूल ही गई थी कि आज मेरी सालगिरह है.......। (भावुक होकर) यूसुफ। जाने क्यों कभी-कभी मुझे डर-सा लगता है .....। सोचती हूं कि हमारी मुहब्बत को कहीं जमाने की नजर न लग जाये ......।

यूसुफ: हब्बा, सच्ची मुहब्बत जमाने की हर गर्दिश और हर दुशवारी को खुशी-खुशी सहन कर लेती है........।

हब्बा: सच, आपने मेरे लिए जो कुछ किया उसे मैं ताकयामत भूल नहीं सकती। मुझे कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया।......... मेरे सारे दुख दूर किए ........।जमीन के एक जर्रे को आफ्ताब की किरण बना दिया।.......खेतों में भटकने वाली एक किसान लड़की को महलों की रानी बना दिया ..........।(स्वर में भावुकता)

यूसुफ: अच्छा, अब उठो ...... सालगिरह मनाने की तैयारी करो ......मैंने हुक्म दे दिया है कि मुल्क के सभी नातवानों और अपाहिजों में मुफ्त खाना-कपड़ा बांटा जाए ...... मिश्री और इलायंची भी जगह-जगह बांट दी जाए........।

हब्बा: मिश्री और इलायची?

यूसुफ: हां-हां, मिश्री और इलायची, क्यों कहां खो गई तुम .........?

हब्बा: यूसुफ, मिश्री और इलायची का नाम सुनते ही जाने मेरी यादाश्त कहाँ चली

जाती है......। बहुत साल पहले की बात है ....... तब मैं छः साल की रही हूंगी। ........ मेरी सालगिरह का दिन था। मेरे बाबा अब्दीराथर जिन्दा थे तब।...... पड़ोस के सुखजीवन चाचा मेरे लिए मिश्री और इलायची लाये थे......मिश्री और इलायची लाये थे ....... मिश्री और ........॥

(फलैश प्रारम्भ)

(सालगिरह के अनुकूल माहौल।स्त्री, पुरुषों, बच्चों का समवेत स्वर। हास-परिहास ......)

सुखजीवन: मुबारक हो अब्दीराथर, बच्ची की सालगिरह मुबारक हो......। भई, कहाँ

छिपा रखा है चाँद के टुकड़े को? ....... थोड़ी मिश्री और इलायची लाया हूं। अपने हाथों से खिलाऊँगा बिटिया को.....।

(समवेत स्वरों में से एक स्वर उभरता है)

बच्ची: मैं यहाँ हूं चाचा (हंसती है) लाइए, मेरी मिश्री और इलायची.......।

सुखजीवन: ऐसे नहीं दूंगा ...... पहले मेरे पास आ.....।माथा तो चूम लूं अपनी लाड़ली

का......आ-आ इधर आ........हां, ऐसे ...... (चूमने की आवाज).........मुंह खोल अब......हां, यह लो........ आया न मजा? देख, अब इन मेहमानों .. को भी थोड़ी-थोड़ी मिश्री और इलायची खिला ...........।

बच्ची: सिर्फ मेहमानों को ....... आपको नहीं? (हंसी)

सुखजीवन: हां हां मुझे भी और अपने मां-बाप को भी.......।

बच्ची: अच्छा, पहले मैं थोड़ी सी और खा लूं, फिर सब को खिलाऊँगी.......

सुखजीवन: भाई, राथर, तुम सचमुच किस्मत वाले हो, यह बच्ची बड़ी होकर लाखों में

एक होगी ......। इसके माथे की लकीरें बताती हैं कि यह बच्ची तुम्हारा ही नहीं, अपने वतन का नाम रोशन करेगी........... यह बहुत बड़ी फनकार बनेगी। ..... सच, इस बच्ची की आवाज में आबशारों का संगीत है......।देख लेना मेरी बात गलत नहीं निकलेगी .......

अब्दीराथर: सुखजीवन, यह सब उस खुदाताला की मेहरबानी का नतीजा है ....... जानते " नहीं, तुम्हारी भाभी औलाद की खातिर कहाँ-कहाँ नहीँ भटकी।दरवेशों के दामन थामें, पीरों के पैर पकडे,मस्जिदों-मजारों में जाकर सजदे किये ...... तब कहीं जाकर यह कली खिली है ........। मैं तो इसे खुदावंद की रहमत ही। मानता हूँ।

सुखजीवन: राथर, मैं तुम्हारा पड़ौसी भी हूँ और दोस्त भी। ........ अब मेरी एक बात

सुन..........

राथर: कौनसी बात.........?

सुखजीवन: सुनो, अगर तुम इसे खुदा की रहमत का नतीजा मानते हो तो एक काम करो..........किसी पीर-औलिया के पास चलकर अपनी अकीदत का नजराना चढ़ाओ ........(थोड़ा रुककर)......इस बच्ची को भी साथ ले चलो.......। इसके लिए भी कुछ दुआएं मांगो। ....... देख लेना, इन दुआओं से बच्ची की जिन्दगी में बहार छा जायेगी। राधर: ऐसा कोई पीर-औलिया तुम्हारा नज़र में है?

रमुखजीवन: हां-हां सूफी संत ख्वाजा मसूद का नाम तो सुना होगा तुमने .......? राथर: हां-हां, वही ख्वाजा मसूद ना, जो अपनी दुआओं से दीन दुखियों का दुखदर्द दूर करते हैं।....... और, और एक मदरसा भी चलाते हैं........।

सुखजीवन: हां वही ......। झेलम के किनारे पांत-छोक के पास उनका आस्ताना है.....। कश्ती से जाना पड़ेगा ....... पूरा एक दिन लगेगा......।

राथर: ठीक है, तुम्हारी अगर यही मर्जी है तो हम कल ही चले चलते हैं। तुम कश्ती का इंतजाम करो ....... मैं बच्ची को तैयार करता हूँ.......।

(फलैश समाप्त)

यूसुफ: अच्छा, तो फिर तुम ख्वाजा मसूद के पास गई थी?

हब्बा: हां, मेरे बाबा और सुखजीवन चाचा कश्ती में बैठकर उनके आस्ताने पर गये थे .........।हाय, कितनी प्यारी थी उनकी दाढ़ी। ....... बर्फ की तरह सफेद-सफेद और नर्म-नर्म।उनकी आवाज में गजब की बुलन्दी और तासीर थी ....... तासीर थी.........।

(फ्लैश प्रारम्भ)

(संत ख्वाजा मसूद का मदरसा ...... बच्चे पढ़ रहे हैं....)

राथर: सलाम अलैकुम, पीर साहब।

मसूद: अलैकुम सलाम । खुदा के नेक बन्दो, इस फूल-सी बच्ची को लेकर तुम लोग कहाँ से आ रहे हो और कहाँ जा रहे हो?

सुखजीवन: हज़रत, हम लोग पांपोर गाँव से आए हैं। ........ हम दोनों की वहाँ खेती

है। ........ हम दोनों पड़ौसी हैं ....... अलग-अलग मजहब होने के बावजूद हम भाइयों की तरह रहते हैं .......।

मसूद: अल्लाह की रहमत के सामने दीन और मजहब कोई मायने नहीं रखते। उसके घर से सभी बराबरी का दर्जा लेकर आते हैं ........ऊंच-नीच, हिन्दु-मुसलमान, अमीर-गरीब ....... यह सब तो आदमी की अपनी फितरत का नतीजा है ...... हम सब एक ही खुदा के बंदे हैं ......।बरखुरदार, तुम दोनों भाई-भाई की तरह रहते हो इससे बढ़कर खुशी की बात और क्या हो सकती है? ........ अच्छा, यह बताओ यहां आने का तुम्हारा मकसद क्या है?

राथर: पीर साहब, खुदा की मेहरबानी से मेरे आंगन की वीरान बगिया बहुत सालों बाद महकी है........। खूब मन्नतों के बाद मेरे घर एक बच्ची हुई है .......। मेरी ख्वाहिश है कि इस बच्ची के सिर पर आप अपनी रहमत का हाथ फेरें और इसे दुआएं दे ......।

सुखजीवन: जी हां, गरीब नवाज, जैसे यह इसकी बेटी है, वैसे ही मेरी भी है ........। हम चाहते हैं कि आपकी दुआओं से इस बच्ची का हर दुख दूर हो और हर मुश्किल आसान हो .......। आप इस पर रहमत का हाथ फेरेंगे तो इसकी जिन्दगी केसर की तरह महकेगी और सूरज की तरह चमकेगी ......। बड़ी उम्मीदें लेकर आये हैं हम आपके पास.......।

मसूद: रहमत बरसाने वाला तो खुदा ताला है .......। हम तुम तो सिर्फ दुआ ही कर सकते हैं.......। उसकी झोली में कोई कमी नहीं है । नेक-पाक बन्दों पर वह निगेहबानी जरूर करते हैं.....। अच्छा, आओ तुम लोग यहां बैठो। यहां, हाँ इस तरफ ...... बच्ची को इस तख्तपोश पर बिठा दो........।

राथर: बेटी, पीर साहब को सलाम करो.......।

बच्ची: सलाम बाबा .......।हाय अल्लाह,आपकी दाढ़ी कितनी सफेद है। बिल्कुल बर्फ जैसी.......।

मसूद: (हंसते हुए) बेटी,यह दाढ़ी जिन्दगी के बहुत सारे उतार-चढाव और थपेड़े खा-खाकर सफेद हुई है........ इस चेहरे पर अब यही एक चीज तो बची है। ....... दांत कब के गिर चुके हैं और आंखों की बीनाई भी कमजोर हो चुकी है। ...... खैर, छोड़ो.......। अच्छा यह बताओ बेटी, तुमने कभी खूबसूरत गुल पर बैठी बुलबुल को चहकते देखा है?

बच्ची: गुल पर बैठी बुलबुल को?



मसूद: हाँ-हाँ, वही बुलबुल जो बहुत मीठा गाती है।

बच्ची: देखा है। कई बार देखा। हमारी फुलवाड़ी में कई बुलबुलें सुबह-सवेरे खूब चहकती हैं .......।

मसूद: बेटी, तेरी पेशानी बताती है कि तू गीतों की रानी बनेगी, बुलबुल की तरह चहकेगी और गुल की तरह महकेगी......।

बच्ची: सच, बाबा?

मसूद: हां, आने वाला जमाना तुझे सदियों तक याद रखेगा। ......मौसीकी के कद्रदानों की तू पुलकन और अपने महबूब के दिल की तू धडकन बनेगी....... तू सब को प्यारी लगेगी.......। सब की हबीब बनेगी। आज से तेरा नाम मैं हब्बा रखता हूँ....... मौसीकी की दुनिया में तू नई शान पैदा करे, तेरा नाम रोशन हो, खुदा से मेरी यही दुआ है ....... जा बेटी जा, खुदाताला तेरी निगेहबानी करेंगे, आवाज की दुनिया में तेरे गीत हमेशा गूंजते रहेंगे...... गूंजते रहेंगे।

(फलैश समाप्त)

यूसुफ: वाकई,ख्वाजा मसूद ने जो पेशनगोई की थी, वह सच निकल रही है.......। तुम्हारे मौसीकी के उस्तादों की भी यही राय है कि तुम एक दिन गीतों की रानी जरूर बनोगी।

हब्बा: सच यूसुफ, बचपन के वोह दिन भी कितने प्यारे थे, कितने मासूम और लुभावने.......।

यूसुफ: अच्छा उठो, अब बहुत देर हो गई है......सालगिरह मनाने की तैयारी करो....।

(हड़बड़ाते हुए याकूब खां का प्रवेश, उसकी आवाज में घबराहट है...)

याकूब: आलीजा-आलीजा.......।

यूसुफ: क्या बात है याकूब? तुम्हारी आवाज में इतनी घबराहट क्यों है?

याकूब: हुजूर, बहुत ही बुरी खबर है .....। मैंने महल का चप्पा-चप्पा छान मारा, पर आप नहीं मिले ....। गुस्ताखी माफ हो, मुझे आपकी ख्वाबगाह तक आना पड़ा---।

यूसुफ: कोई बात नहीं है, याकूब खां । तुम यह बताओ कि माजरा क्या है?

याकूब: हुजूर, अभी-अभी खबर मिली है कि मुगल फौजें राजा भगवानदास की अगुवाई में पीर पांचाल को पार कर बड़ी तेजी से आगे बढ़ रही हैं।

यूसुफ: क्या? फौजें आगे बढ़ रही हैं ...... इसका मतलब यह हुआ कि हमारे जवाब का अकबर ने इंतजार नहीं किया........।

याकूब: हां हुजूर.......फौजें कल सवेरे तक कश्मीर की वादीलें दाखिल हो जायेंगी ...... हमें कुछ करना होगा, आलीजा........।

यूसुफ: हूँ....... तो दिल्ली के शहंशाह अकबर ने एक बार फिर शेर की मांद में हाथ

डालने का खतरा मोल लिया है........। इस बार फैसला होकर रहेगा, याकूब। ईंट से ईंट न बजायी तो हमारा नाम नहीं ....। जाओ याकूब, अपने जांबाज सिपाहियों को जंग के लिए तैयार करो ......। हम जिरह-बख्तर पहनकर अभी आते हैं.......। हब्बा, तुम्हारी सालगिरह मेरे लिए जवांमर्दी का पैगाम लेकर आई है........ मुझे खुशी-खुशी रुखसत करो........।

हब्बा यूसुफ, मेरी आँख फड़क रही है........। कहीं ऐसा न हो कि यह हमारी आखिरी मुलाकात हो........।मेरी मानो तो मुझे भी अपने साथ ले चलो......यहाँ मैं तुम्हारे बगैर जिन्दा न रह सकूँगी..........।

यूसुफ: नहीं, हब्बा नहीं। तुम्हारी जगह जंग का मैदान नहीं, महलों की ख्वाबगाह है.....।दुश्मन ने घर की ड्योढ़ी पर आकर हमें ललकारा है...... उसे इसका माकूल जवाब मिलना ही चाहिए ....... मैं लौटूंगा और जीतकर लौटूंगा......। मेरा इंतज़ार करना ......। हमारी जीत का और तुम्हारी सालगिरह का जश्न एक-साथ मनेगा अब.......।

हब्बा (भावुक होकर) मेरे मालिक, यह आंखें तब तक खुली रहेंगी जब तक आप

आते नहीं हैं.......। मेरी मोहब्बत आपकी बाजुओं को कूवत बख्शे, आलाताला से यही दुआ है ........। मैं आपके लौटने का मरते दम तक इंतजार करूंगी ........मेरे सरताज,मरते दम तक इंतजार करूंगी....... मरते दम तक इंतजार ..........।

(संगीत)

(आदमियों का शोर, भीड़ का माहौल.)

एक आवाज: अरे-रे, यह देखो .......कोई भिखारिन गली में बेहोश पड़ी है .......।

दूसरी आवाज: हां-हां यह कल शाम से यहाँ पड़ी हुई है ........।

तीसरी आवाज: लगता है बचेगी नहीं........।

चौथी आवाज: हाँ-हाँ, बचेगी नहीं.........।

पहली आवाज: भई, कोई जाकर पानी तो ले आओ ........।

दूसरी आवाज: देखो-देखो, साँस अभी भी चल रही है।

सुखजीवन: हटो-हटो, पीछे हटो....... अरे, यह तो हब्बा है .........।

सभी आवाजें: क्या? यह हव्या है । इस मुल्क की रानी हब्बाखातून!

सुखजीवन: हाँ-हाँ, हब्बाखातून! इस गांव की बेटी। ....आप सब लोग जरा पीछे हट। मैं इसे अपने घर ले जाता हूँ...... भाईजान, थोडी मदद तो करना इसे उठाने में....., ऐसे-बस, बस-यह रहा मेरा घर......।(हांफते स्वर में) बेटी आंखे खोलो, आंखें खोलो बेटी। देखो कौन है तुम्हारे सामने......?हे भगवान! हब्बा की यह हालत! महलों की महारानी इन फटे पुराने कपड़ों में..........। नहीं-नहीं परमात्मा इतना कठोर नहीं हो सकता ....... ओफ! हब्बा बेटी, हब्बा, आँखें खोलो......।

हब्बा: (आवाज.में पीड़ा और सूनापन) क-कौन, कौन, उठा लाया मुझे यहाँ?

सुखजीवन: तुम बाहर गली में बेहोश पड़ी थी........मैं तुम्हें अन्दर अपने घर में ले आया हूँ बेटी। मुझे नहीं पहचाना? ....... अपने चाचा सुखजीवन को नहीं पहचाना? ........तुम्हारे बाप अब्दीराथर का दोस्त। तुम्हारा पड़ौसी सुखजीवन चाचा । ले बेटी, थोड़ा पानी पी ले.........। (पानी पीने की कोशिश)

हब्बा: (सिसकती आवाज में) सुखजीवन चाचा, जालिमों ने मेरा सब-कुछ लूट लिया चाचा, सब कुछ। उसे पकड़कर ले गये, ले गये चाचा। ........अब वह कभी नहीं आएगा.........। मेरा यूसुफ अब कभी नहीं आयेगा ....... बाप तो पहले ही खुदा को प्यारा हो गया था, अब महबूब भी छिन गया........।खुदा मुझे भी इस दुनिया से उठा लेता तो अच्छा रहता........।

सुखजीवन: म-मगर बेटी, यह सब हुआ कैसे ? सुलतान यूसुफशाह के महलों की रानी

हब्बाखातून भिखारिन के इस भेस में! ........ नहीं, नहीं इन आंखों को यकीन नहीं होता ......... जल्दी बताओ बेटी, मेरा दिल फटा जा रहा।

हब्बा: चाचा, मेरा यूसुफ दिल का राजा था....... फन और मौसीकी का आशिक था वह ..........। सियासत के दाँवपेच उसे कभी रास नहीं आए .......।

सुखजीवन: हां-हां बेटी, यूसुफशाह तो सचमुच दिल का राजा था ......फिर, फिर क्या

हुआ? आगे बोलो बेटी ........

हब्बा: कुछ गद्दार मुशीरों और मनसबदारों ने शंहशाह अकबर की शह पर बंगावत

कर दी .........।

सुखजीवन: अच्छा?

हब्बा: हां चाचा, मुगल सिपाहसालार राजा भगवानदास की अगुवाई में पाँच हजार घुड़सवार सिपाहियों ने कश्मीर पर धावा बोल दिया।

सुखजीवन: हाँ-हाँ इसके बारे में हमने सुना था।

हब्बा: चा-चा, मुजफराबाद के मुकाम पर जमकर जंग हुई ........खबर मिली कि दो दिन और दो रात तक तलवारें खनकती रहीं ......... झेलम का पानी खूब लाल हुआ, खूब लाल हुआ-खूब...........

(फ्लैश प्रारम्भ)

(युद्ध क्षेत्र ..... युद्ध जारी है- पृष्ठभूमि में युद्ध के अनुकूल शोर एवं वातावरण......)

भगवानदास: जाकिर खां, यूसुफ ऐसी जांबाज़ी से लड़ेगा, हमें मालूम नहीं था....... हमें

तो बताया गया था कि उसके पास ज्यादा फौजी ताकत नहीं है। मगर, मगर--- । यहां तो हमारी फौजों पर उसके जांबाज सिपाही कहर बरपा रहे हैं .......।

(युद्ध का शोर, चीख पुकार आदि)

जाकिर: हां, हुजूर, अगर यही हालत रही तो हमें मैदान छोड़ देना पड़ेगा.........।

भगवानदास: नहीं, मैदान छोड़ देने की नौबत हरगिज नहीं आनी चाहिए। इससे पहले कि हमारी फौजों का हौसला पस्त हो, हमें कोई तदबीर निकालनी होगी ........।

जाकिर: हुजूर, वह देखिए, उधर ......। दुश्मन का एक सिपाही हमारे दस-दस सिपाहियों से कैसे अकेले लोहा ले रहा है ........। देखिए हुजूर, झेलम का पानी कैसे लालम लाल हो गया है ........।

भगवानदास: तुम ठीक कह रहे हो जाकर खां, हमें फौरन कुछ करना चाहिए........।

यूसुफ की फौजें तो सचमुच कहर ढा रही हैं .......।

जाकिर: मेरे ख्याल में गनीमत इसी में है कि यूसुफ के पास सुलहनामा भिजवाया जाए.....।

भगवानदास: हां, यही ठीक रहेगा इस वक्त........। जाओ, जंग रोक देने का ऐलान करो और यूसुफ को बाइज्जत हमारे पास ले आओ............।

जाकिर: मगर हुजूर, उससे मिलकर हमें क्या हासिल होगा?

भगवानदास: हम उस शेर-दिल सुलतान को शहंशाह अकबर के पास ले जायेंगे और उसे माकूल हरजाना दिलवायेंगे.......। बादशाह सलामत को ऐसे जांबाजो से मिलकर बहुत खुशी होगी। ....... जाओ, यूसुफ तक हमारा यह पैगाम अभी पहुंचाओ ....... अभी ........। ।

(फ्लैश समाप्त)

चाचा: अच्छा, तो यूसुफ शहंशाह अकबर से मिलने दिल्ली गया?

हब्बा: हां चाचा।वह मुगल हाकिमों की बात पर यकीन कर सुलहनामें पर दस्तखत करने के लिए दिल्ली गया.......।

चाचा: फिर, फिर क्या हुआ.........?

हब्बा:(गहरी सांस लेकर) मगर, वह एक फौजी-चाल थी जिसे मेरा भोला-भाला यूसुफ समझ न पाया....... अकबर ने वादा-खिलाफी की और यूसुफ को दिल्ली पहुंचते ही गिरफ्तार कर बिहार की जेल में भिजवा दिया गया।अब वह कभी नहीं आयेगा, चाचा कभी नहीं आयेगा........।

सुखजीवन: हिम्मत रख बेटी, हिम्मत रख, तेरा यूसुफ जरूर आयेगा, जरूर आयेगा। हब्बा: (रोते हुए) दुश्मन की फौजों ने महल में जो जुल्म ढाए, उसे खुदा ही जानता है.........। मैं तो जान बचाती हुई मुश्किल से महल के पिछले दरवाजे से भेस बदलकर भाग निकली.........। दो दिन और दो रातें हो गई, पैदल चलते-चलते ........|

सुखजीवन: तू फिक्र न कर बेटी........। अब तू अपने गांव आ गई है.......। तेरा बाप

अगर आज जिन्दा नहीं है तो क्या हुआ? मैं तो हूँ तेरा सुखजीवन चाचा।

हब्बा: नहीं, चाचा, मेरी सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया है।

सुखजीवन: तू हिम्मत से काम ले बेटी, तेरा यूसुफ आयेगा और जरूर आयेगा.......। हब्बा: (खांसती है, आवाज डूबने लगती है.........) नहीं चाचा नहीं। मुझे झूठी तसल्ली मत दो........। देखो, देखो मेरी जिन्दगी की लौ अब बुझने वाली है........। याद है ना चाचा, तुम कहा करते थे कि मैं गीतों की रानी बनूंगी.........।

सुखजीवन: हां-हां बेटी, तेरी आवाज में तो अब भी वही जादू और मिठास है........। हब्बा (सिसककर) तुम नहीं जानते चाचा, तुम लोगों ने बचपन में जहाँ मेरी शादी की थी, वहां मेरी किसी ने कद्र नहीं की.......

सुखजीवन: म-मगर क्यों? हब्बा मैं दिन-भर खूब काम करती.......और रात को जब मैं गाने का रियाज करती तो मेरी सास और वह दोनों मेरे बाल पकड़कर मुझे खूब पीटते......... चाचा खूब पीटते, चाचा खूब पीटते.......।

सुखजीवन: मगर, वह लड़का दिखने में तो बड़ा शरीफ लगता था........।

हब्बा (रोते हुए) नहीं चाचा, नहीं.......। वह सब धोखा था.......। मैं सुबह से शाम तक घर के काम में लगी रहती....... नदी से पानी भर लाती....... ढेर सारे बर्तन मांजती, मनों धान कूटती। फिर भी तूत की बेंत से वह लोग मुझे पीटते....... चाचा, तब मैं रात-रात भर खूब रोती और अपने मायके वालों को याद करती........।

सुखजीवन: मत रो बेटी, मत रो.........।

हब्बा: तब एक दिन मेरी किस्मत ने करवट बदली........। लकड़ियां बीनने के लिए मैं जंगल गई हुई थी। अपने दिल का बोझ हल्का करने के लिए मैं एक गीत के बोल गुनगुना रही थी......."ससुराल में मैं सुखी नहीं हूं मायके वालों मेरा दुख दूर करो"...... तभी शाहजादा यूसुफशाह वहाँ से गुजरा।

सुखजीवन: हां-हां बेटी, फिर क्या हुआ? हब्बा। उसने मेरे दिल की आवाज को पहचाना, मेरे दर्द को समझा और मुझे गले का हार बनाया.......। (गहरी सांस लेकर) चाचा मेरा वही यूसुफ मुझसे बिछुड़ गया........ बिछुड़ गया........चाचा।

सुखजीवन: बेटी, बहुत दुख देखे हैं तुमने । अब तू मेरे पास रहेगी.......। अपने चाचा

के पास । तू गायेगी और मैं तेरे गीतों को कागज पर लिखूगा....... तू एक बार फिर बुलबुल की तरह चहकेगी........ तू गीतों की रानी बनेगी, जरूर बनेगी........।

हब्बा: (डूबती आवाज) चाचा, तुम आदमी नहीं फरिश्ते हो........। इतना प्यार तो मुझे मेरे बाप से भी नहीं मिला......। (आवाज लड़खड़ाती है..........) चाचा, सच्ची इन्सानियत किसी मजहब में कैद नहीं होती, यह मैंने आज जाना.......। काश दुनिया के सब लोग यह बात जान पाते।

सुखजीवन: बेटी हब्बा, आंखे खोलो........।

हब्बा: चा-चा वह देखो, मेरा यूसुफ मुझे बुला रहा है ....... देखो चाचा, घोड़े पर

बैठा वह मुझे अपने पास बुला रहा है ........।

सुखजीवन: नहीं हब्बा, नहीं, तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकती........।

हब्बा: चाचा, मुझे जोर से चूम लो....... वैसे ही जैसे मेरी सालगिरह पर तुमने मुझे चूमा था.........।

सुखजीवन (रोते हुए) बेटी.........!

हब्बा: मैं जा रही हूँ........चाचा, अपने यूसुफ के पास .......घोड़े पर बैठकर ।

सुखजीवन: नहीं बेटी-नहीं...........

हब्बा: मैंने कुछ गीत गाये हैं चाचा, उ-उन्हें संभाल कर र-खना। चा-चा।.........यही मेरी दौलत है ........काश, इस दुनिया में जंग नाम की कोई ... चीज नहीं होती ! अच्छा चा-चा !

सुखजीवन (रोते हुए) बेटी!































दिनन के फेर



पात्र-परिचय:

रहीम: सोलहवीं शती के हिन्दी के यशस्वी कवि। अकबर के नव-रत्नों में से एक, एक

शूरवीर सेनानायक।



तानसेन ।

बीरबल । (अकबर के नवरत्न)

आज़म कोका ।

शेख फैजी, आदि ।

महावत खाँ जहाँगीर के समय का एक प्रसिद्ध सेना-नायक।

शेरखाँ एक सिपाही।



निम्न दोहों का सस्वर पाठ होगा:

1. रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।

जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तरवारि ॥ 2. छमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात ।

का रहीम हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात॥ 3. पावस देख रहीम मन, कोयल साधी मौन । - अब दादुर वक्ता भये, हमें पूछि हैं कौन ॥ 4. रहिमन चुप वै बैठिए, देख दिनन के फेर ।

जब नीके दिन आईहैं, बनत न लगिहैं बेर॥



विवरणकार नं. 1:

ये दोहे मध्यकाल के ऐसे कवि के हैं जिसने मानवीय संवेदना और लोकानुभव को अपने काव्य में कुछ इस तरह से पिरोकर रख दिया था कि ये दोहे आज भी बड़े चाव से पढ़े और सुने जाते हैं । हिन्दी जगत् इस अनुभव-सिद्ध कवि को रहीम खानखानां के नाम से जानता है । नीति, ज्ञान और भक्ति की रसधारा से सिक्त रहीम का कृतित्व समूचे भारतीय साहित्य एवं इतिहास में अपनी एक अलग पहचान रखता है। आम जनता रहीम को नीतिपरक दोहे रचने वाले हिन्दी कवि के रूप में अधिक जानती है, लेकिन सच्चाई यह है कि रहीम एक संवेदनशील कवि ही नहीं, एक महान् व्यक्ति भी थे। विद्या और बुद्धि, सौन्दर्य और कलाप्रेम, शौर्य और पराक्रम के घनीभूत पुंज अब्दुर्रहीम खानखानां भारत के मध्यकालीन इतिहास और धर्मनिरपेक्ष परम्परा का एक ऐसा ख्यातिवान व्यक्ति है जिसने मज़हब से ऊपर उठकर मानवीय संवेदना को निकट से अनुभव किया तथा दरबारी जीवन में पले होकर भी जनजीवन से जुड़े रहने का भरसक यत्न किया। व्यक्तित्व की इस विशिष्टता ने रहीम के चरित्र को भारतीय इतिहास और , साहित्य में बेमिसाल बना दिया है।

विवरणकार नं. 2:

रहीम के पिता बैरम खाँ एक बहुत बड़े कबीले के सरदार थे और उनका जन्म बदख्शा (तुर्किस्तान) में हुआ था। वह सोलह साल की आयु से ही हुमायूं के साथ रहे और उन्हें दोबारा दिल्ली की राजगद्दी पर बिठाया। हुमायूं के मरने पर बैरम खाँ अकबर के अभिभावक बने और जिस साल हुमायूं का निधन हुआ। उसी साल यानी 17 दिसम्बर 1556 को लाहौर में अब्दुर्रहीम का जन्म हुआ। रहीम की माँ अकबर की मौसी थी। अकबर से रहीम का दूसरा रिश्ता भी था। बैरम खाँ की दूसरी शादी बाबर की नातिन सलीमा बैगम सुल्ताना से हुई थी। चुगलखोरों ने जब बैरम खाँ और अकबर के सम्बन्धों में फूट डाली तो बैरम खाँ ने विद्रोह किया। परास्त हो जाने पर शाही आदेश हुआ कि वे हज करने जायें। गुजरात पहुंचे ही थे कि पूरा डेरा लुट गया।

बैरम खाँ मुबारक खाँ नामक पठान के हाथों कत्ल हुए और जैसे-तैसे उनके वफ़ादार सेवक मुहम्मद अमीन दीवाना, बाबा जम्बूर और ख्वाजा मलिक चार साल के रहीम को लेकर कठिनाइयाँ झेलते हुए अहमदाबाद पहुंचे।

विवरणकार नं. 1:

ग्यारह अगस्त 1561 ई.को अकबर ने रहीम को आगरा बुलाया और उसके पालन-पोषण का भार अपने ऊपर ले लिया। रहीम की शिक्षा का विशेष प्रबंध किया गया। रहीम ने अरबी, फारसी, तुर्की, संस्कृत और हिन्दी में दक्षता प्राप्त कर ली........। इन भाषाओं में वह कविता भी करने लगे.........।"मआसिरे रहीमी" में अब्दुल बाकी लिखते हैं.......ग्यारह वर्ष की उम्र में बिना गुरू की सहायता के रहीम ने काव्य-रचना प्रारम्भ कर दी थी।

समझदार होने पर अकबर ने इन्हें मिर्जा की उपाधि से विभूषित किया और अपनी धाय माहम अनगा की पुत्री महबानू से इनका विवाह करा दिया। इस प्रकार शाही खानदान ने इनका वही सम्बन्ध हो गया जो इनके पिता बैरम खाँ का था। सहृदय कवि होने के साथ-साथ रहीम एक शूरवीर सेना नायक, एक कुशल प्रशासक, परले दर्जे के दानवीर और कवित्त रस के मतवाले थे। जंग के मैदान में अपनी शमशीर के जौहर दिखाने का मौका रहीम को पहली बार अगस्त 1573 ई. में मिला। गुजरात में विद्रोह की सूचना पाकर जब अकबर ने गुजरात की तरफ कूच किया तो अपनी मध्य-भाग की सेना की कमान उसने सोलह वर्षीय किशोर अब्दुर्रहीम खाँ को सौंपी........।

संगीत

रहीम आपने मुझे याद किया, आलीजाह?

अकबर हां, रहीम खां । अभी-अभी खबर मिली है कि गुजरात में हालात ठीक नहीं

है। मिर्जाओं ने फिर बगावत कर दी है........।

रहीम हुजूर, यह खबर मुगलिया- सल्तनत के लिए ठीक नहीं है, इससे पहले

कि साँप जहर उगल दे, उसके फन को कुचल देना लाज़िमी है।

अकबर इसीलिए हमने तुम्हें रात के इस आखिरी पहर में बुलाया है। वक्त कम

है ......कल मशरिक में उगते सूरज के साथ ही हमारी फौजें यहाँ से कूच

: करेंगी......फौज की बीच के हिस्से की कमान तुम संभालोगे........।

रहीम ज़िहे नसीब।आपने मुझे इस काबिल समझा, मेरी जवांमर्दी पर भरोसा किया,

यह मेरी खुशकिस्मती है जहाँपनाह ! यकीन मानिए दुश्मन को धूल चटाने

में आपका यह खादिम कोई कसर बाकी नहीं छोड़ेगा..........।

अकबर रहीम खाँ, हम जानते हैं कि यह तुम्हारी पहली जंग है.........। बहुत बड़ी

जिम्मेदारी हम तुम पर लाद रहे हैं।

रहीम हुजूर ऐसा न कहें........मुगलिया सल्तनत की हिफाज़त करना, उसे शैतान

की नजरों से बचाए रखना मेरा अव्वलीन फर्ज बनता है।

अकबर बिरादर रहीम खां, अगरचे हमें तुम्हारी जवांमर्दी और कूवतेबाजू पर पूरा

भरोसा है, फिर भी हमारा दिल नहीं मान रहा। अपनी फौज की हौसला

अफजाई के लिए हम भी साथ में चलेंगे......।

रहीम जैसी जहाँपनाह की मर्जी।

विवरणकार नं. 2:-...

और फिर 23 अगस्त 1573 को सुबह सूर्य की पहली किरण के साथ ही तेज भागने वाली सांडनियों पर सवार होकर मुगल फौजें गुजरात के लिए रवाना हो गईं.......। शत्रु की बीस हजार की सेना का अकबर की तीन हजार की फौज ने डटकर मुकाबला किया........।रहीम की तलवार बिजली की चमक की तरह दुश्मन की कतारों को चीरती चली गई.........। शत्रु पक्ष में खलबली मच गई और वह मैदान छोड़ भाग खड़ा हुआ....... अकबर की मस्सर्रत का कोई ठिकाना न रहा। उसने रहीम की पीठ थपथपाई और इनाम के तौर पर गुजरात में पाटन की जागीर बख्श दी......जिस भूमि पर पिता का वध हुआ था, वही रहीम के भाग्योदय की जमीन बन गई।

विवरणकार नं. 1:

इसके बाद हर लड़ाई, हर जंग रहीम के माथे पर जीत का सेहरा बांधती चली गई और इसकी एवज़ में उसे एजाज़ पर एजाज़ मिलते गये.......। (जंग की आवाजे.....पृष्ठभूमि में)

जहांपनाह ! जंग के मैदान से खबर मिली है कि अब्दुर्रहीम ने मेवाड़ में शाहबाज़ खां की मदद से कुंभलनेर और उदयपुर पर फतह हासिल कर ली है.......। (जंग की आवाजें जारी रहेंगी) .. ........आलीजाह! अभी-अभी खबर मिली है कि अब्दुर्रहीम ने बीजापुर

अफजाई के लिए हम भी साथ में चलेंगे......। ीम जैसी जहाँपनाह की मर्जी।

रहीम

विवरणकार नं. 2:

और फिर 23 अगस्त 1573 को सुबह सूर्य की पहली किरण के साथ ही तेज भागने वाली सांडनियों पर सवार होकर मुगल फौजें गुजरात के लिए रवाना हो गईं....... । शत्रु की बीस हजार की सेना का अकबर की तीन हजार की फौज ने डटकर मुकाबला किया........।रहीम की तलवार बिजली की चमक की तरह दुश्मन की कतारों को चीरती चली गई.........। शत्रु पक्ष में खलबली मच गई और वह मैदान छोड़ भाग खड़ा हुआ.......| अकबर की मस्सर्रत का कोई ठिकाना न रहा। उसने रहीम की पीठ थपथपाई और इनाम के तौर पर गुजरात में पाटन की जागीर बख्श दी......जिस भूमि पर पिता का वध हुआ था, वही रहीम के भाग्योदय की जमीन बन गई।

विवरणकारनं. 1:

इसके बाद हर लड़ाई, हर जंग रहीम के माथे पर जीत का सेहरा बाँधती चली गई और इसकी एवज़ में उसे एजाज़ पर एजाज़ मिलते गये.......।

(जंग की आवाजें.....पृष्ठभूमि में)

जहांपनाह ! जंग के मैदान से खबर मिली है कि अब्दुर्रहीम ने मेवाड़ में शाहबाज़ खां की मदद से कुंभलनेर और उदयपुर पर फतह हासिल कर ली है .......। (जंग की आवाजें जारी रहेंगी) ... ........

आलीजाह! अभी-अभी खबर मिली है कि अब्दुर्रहीम ने बीजापुरऔर गोलकुंडा की फौजों को करारी मात दे दी है और अब उनकी फौजें अहमदनगर और बरार की तरफ बढ़ रही हैं .......। (युद्ध की आवाजें बदस्तूर जारी.......।)

बादशाह सलामत! बहुत बड़ी खुशखबरी है ......। फरजंद-ए-बैरम खां रहीम ने सिंध में मुगलिया सल्तनत का परचम फहरा दिया है। खबर है मुलतान पर भी शाही फौजों का कब्जा हो गया है ......।

(आवाजें मद्धिम.....हल्का संगीत)

अकबरP आओ, अब्दुर्रहीम आओ। हम तुम्हारी ही राह देख रहे थे।

रहीम: जहांपनाह! आपके हुक्म के मुताबिक मैंने शुमाल से जनूब तक फैले सारे

बागियों के सर कलम कर दिए हैं। दुश्मन का नामोनिशान हिन्दुस्तान की पाक सरज़मीं से नेस्तनाबूद कर दिया, आलीजाह।।

अकबर: शाबाश, बिरादर शाबाश! हमें तुमसे यही उम्मीद थी। जंग के मैदान से

तुम्हारी फतह का पैगाम हम बड़ी बेसब्री के साथ सुनते थे।

रहीम यह शांहशाहे हिन्द जलालुद्दीन अकबर की ज़रा-नवाज़ी है..

अकबर नहीं, रहीम नहीं। हमें सचमुच तुम पर नाज़ है.......काजीसाहब।

काज़ी हुकुम आलीजाह।

अकबर रहीम खाँ के जंगी कारनामों से हम बहुत खुश हैं । इन्होंने मुगलिया सल्तनत

का नाम रोशन किया है.......। इन्हें आज ही खानखाना का लक्ब और पाँच हज़ारी मनसब अता फरमाया जाए। हां......शाहज़ादा सलीम की जो अतालिकी खाली हुई है, वह भी इन्हें बख्श दी जाए.......। अजमेर की सूबेदारी और रणथम्भौर का किला भी इन्हें सौगात के तौर पर दिया जाए।

(संगीत) विवरणकारनं.2:

अब रहीम खानखानां कहलाने लगे........। अकबर के शासनकाल में इन्हें भरपूर सम्मान और ऊंचे-ऊंचे पद मिले.......। शौर्य और पराक्रम के धनी तो वे थे ही. काव्यरस में भी उनकी पकड़ और समझ अद्भुत थी। एक दिन की बात है। अकबर ने अदबी महफिल बुलाई थी।

(संगीत)

होशियार, खबरदार शहंशाहे-ज़मा, सल्तनते मुगलियाके आफ़ताब,ताजदारे हिन्द, जलालुद्दीन अकबर तशरीफ ला रहे हैं........

तस्लीमात अर्ज है ........खुश आमदेदं आलीजाह, खुश आमदेद।.......

अकबर तशरीफ रखिए हज़रात, तशरीफ रखिए। (कुछ रुककर) आज की इसमाहाना अदबी महफिल का आगाज़ अगर तानसेन की पुरकशिश आवाज़ से

किया जाए, तो कैसा रहे?

एक सभासद् सोने पर सुहागा हो जाए जहांपनाह, सोने पर सुहागा.......। हजूर, यह तो,आपने हमारे दिल की बात कह दी........।

अन्य सभासद् हाँ-हाँ, आलीजाह, तानसेन इस महफिल की शुरूआत करें तो समां बंध

जाए। कुछ वक्त थम जाए तो कुछ सरूर छा जाए।

(हल्की-हल्की-आवाजें)

अकबर तानसेन!

तानसेन हां महाराज।

अकबर तुम तैयार हो न? तानसेन

महाराजाधिराज ।आपका आदेश सर आंखों पर.......आप आदेश दें तो मैं वही पद सुनाऊँ जिसकी पिछली बार आपने खूब प्रशंसा की थी.......। वही पद महाराज, जसुदा बार-बार यों भाखै.......।

अकबर वाह ! खूब, बहुत खूब। आज वाकई यह महफिल जमेगी। इसी बहाने हमें

आज अपने दरबारियों की दिमागी ताकत और जेहनी कूवत का भी अन्दाज़ा हो जायेगा। देखें इस पद का हमारे दानिशवर दरबारी क्या मतलब निकालते हैं ? ........गाओ, तानसेन, गाओ।

(मिलीजुली आवाजें दरबारियों की...)

तानसेन जो हुकुम महाराज........।

(लम्बा आलाप) दरबारियों द्वारा वाह-वाही....... जसदा बार-बार यों भाखै, है कोऊ ब्रज में हितू हमारो चलत गोपालहिं राखै ....

(लगभग 1 मिनट तक आलापऔर गायन.....बीच-बीच में दरबारियों द्वारा वाह वाही......)

अकबर सुभान अल्लाह। मर्हबा। भई वाह । तानसेन, आज तुम्हारी आवाज़ की कशिश ने न सिर्फ हमें बल्कि कुले-कायनात को मदहोश करके रख दिया.......। हमें तुम पर नाज़ है तानसेन, भरपूर नाज़ है।

तानसेन यह आपकी उदारता है महाराज, आपकी महानता है।

अकबर आज हमारी इस अदबी महफिल का एक दूसरा ही रंग होगा.......। हम सबके लिए यह बायसे फ़न है कि आज हमारे बीच बहुत दिनों के बाद .फैजी, आजम कोका, बीरबल और तानसेन जैसे आलिम-फ़ाजिल, शायर और फ़नकार एक-साथ मौजूद हैं.......।

एक दरबारी- गुस्ताखी माफ हो आलीजाह, दरबार में खानखाना रहीम भी मौजूद हैं......वह देखिए, उधर मगरिब की जानिब आजम कोका की बगल में बैठे हैं।

अकबर ओह-वाकई खानखानां भी तशरीफ फरमा रहे हैं.......। अब तो और भी मज़ा आएगा......। हाँ, तो शेख फैजी साहब, सबसे पहले आप बतायें कि इस पद में जो बार-बार लफ्ज़ का इस्तेमाल हुआ है ........। फैजी (बीच में) हां आलीजाह । हुआ है ........।

अकबर आप यह बताएं कि इस लफ्ज़ के क्या मानी हैं?

फैजी जहांपनाह ।मानी बिल्कुल साफ हैं........यशोदा बार-बार यानी रो-रोकर यह रट लगा रही है कि क्या ब्रज में हमारा ऐसा कोई मददगार है जो गोपाल को जाने से रोक दे.......।

(हल्की-हल्की आवाजें)

अकबर बीरबल, तुम्हारा क्या सोचना है? बीरबल हुजूर, बार-बार का यहाँ पर मतलब है द्वार-द्वार । यानी हुजूर, यशोदा द्वार द्वार जाकर पुकार रही है कि ऐसा कोई हितैषी ब्रज में है जो मेरे गोपाल को रोक ले?

(आवाजें वाह-वाही की.......)

अकबर खानें आजम कोका। आपका क्या ख्याल है? कोका जहाँपना, बार का मतलब है दिन । यानी यशोदा हर दिन यही रट लगाती है कि.........।

अकबर अच्छा, तानसेन । तुम ही बताओ कि बार-बार का इस पद में क्या मतलब तानसेन महाराज, मतलब एकदम स्पष्ट है ......। बार-बार का मतलब यहां पर पुनः

पुनः से है........।

(हल्की-हल्की आवाजें)

अकबर ठीक है-हां-(रुककर) भई खानखानां आप चुप क्यों बैठे हैं? लड़ाइए दिमाग, बताइए तो कि बार-बार के इस पद में क्या मानी हैं?

रहीम हुजूर, गुस्ताखी माफ हो तो एक बात कहूँ।

अकबर ज़रूर कहो खानखानां । ज़रूर कहो। रहीम जहां पनाह, मेरे दिमाग में इस लफ्ज़ का कुछ और ही मतलब घूम रहा है।

अकबर कौन सा मतलब ? यही तो हम जानना चाहते हैं।

रहीम आलीजाह। शेख फैजी फारसी के नामवर शायर हैं। दिल का दुखड़ा हल्का करने के सिवा इन्हें और कुछ भी नहीं सूझता, इसलिए बार-बार का मतलब इन्होंने रोने से लगाया है। (हल्की-हल्की आवाजें) रही बात बीरबल की। हुजूर, वह द्वार-द्वार घूमने वाले ब्राह्मण हैं, इसलिए बार-बार का मतलब अगर उन्होंने द्वार-द्वार लगाया तो इसमें इनका क्या कसूर?

(आवाजें)

अकबर अच्छा तो खाने-आजम कोका ने जो मानी निकाले हैं, क्या वह भी दुरुस्त

नहीं?

रहीम गुस्ताखी माफ हो आलीजाह । कोका का वास्ता इल्मे नजूमी से है। इसलिए उन्हें सितारों की गर्दिश, दिन और वार के अलावा भला और क्या सूझ सकता है?.......यही वजह है कि इन्होंने बार-बार का मतलब दिन-दिन यानी हर दिन किया है ........।

(आवाजें)

अकबर वाह! बहुत खूब ।खानखाना हम तो समझते थे कि तुम फ़क्त शमशीर चलाना

जानते हो, अब मालूम पड़ा कि तुम्हारा दिमाग भी खूब तेज़ चलता है । बताओ बार-बार का तुमने क्या मतलब लगाया है?

रहीम हुजूर, इस पद में बार-बार का मतलब है बाल-बाल । यानी माता यशोदा का बाल-बाल या रोम-रोम पुकार रहा है कि कोई तो मिले जो मेरे गोपाल को ब्रज में रोक ले........। अकबर आफरी-सदआफरीं, खानखानां । आज तुमने एक बार फिर हमारे दिल को जीत लिया। पहले अपनी बहादुरी और जवांमर्दी से जीता था, आज अपनी दिमागी कूवत और दानिशवरी से जीत लिया।आज हम सचमुच फ़न महसूस कर रहे हैं कि हमारे दरबार में एक से बढ़कर एक दानिशवर, शायर, . . आलिम, फ़ाज़िल और शायर मौजूद हैं। हमारा यह दरबार आप जैसे जगमग करते सितारों से हमेशा शादयाब रहे , अल्लाह ताला से यही दुआ है........।

विवरणकार नं. 2:

विद्वानों, फकीरों और शेखों को प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से हजारों रूपये, अशर्फियाँ और धन-सम्पति खानखानां देता था- कवियों और गुणियों का तो मानो वह मां-बाप था। उनके पास जो भी जाता था उसे लगता मानो अपने घर आया हो और इतना धन पाता था कि उसे बादशाह के दरबार में जाने की आवश्यकता नहीं होती थी......। एक दिन की बात है एक गरीब ब्राह्मण खानखानां की ड्योढ़ी पर पहुंचा। दारोगा ने अन्दर जाने से रोका........ दारोगा अरे-रे, बाबा। तुम अन्दर कहां घुसे जा रहे हो? ......जानते नहीं, यह खानखानां का महल है.......?

ब्राह्मण जानत हूँ दारोगाजी, अच्छी तरह से जानत हूँ।गरीब बामन हूँ।सहायता के

वास्ते आया हूँ। जाके मालिक से कहियो कि तुम्हारा साढू मिलने आया है।

दारोगा अरे बाबा, तुम होश में तो हो? मालूम भी है कि तुम क्या कह रहे हो?

ब्राह्मण हां-हां, खूब मालूम है .....। तुम तो बस जाकर मेरा सन्देश सरस्वती के पुत्र,कवियों के अधीश्वर, गुणियों के पारखी खानखानां से कहि दो.....।

दारोगा अजीब सरफिरा ब्राह्मण है। खुद भी पिटेगा, मुझे भी पिटवायेगा। (ओफ -

ओ! खानखानां तो घूमते हुए इधर ही आ रहे हैं ........

खानखानां (निकट पहुंचकर) क्या बात है अशरफ ख़ा? शक्ल से खुदा-दोस्त दिखने

वाला यह बन्दा कौन है? –

दारोगा हुजूर, मैंने इसे बहुत समझाया। कहता है गरीब ब्राह्मण हूँ।मदद चाहिए।

हुजूर, ऊपर से कहता है कि खानखानां का साढ़ू हूँ।

खानखानां ह-ह-ह। खूब, बहुत खूब। (लम्बा निःश्वास छोड़ते हुए.....) अशरफ

खाँ, इस नेक-पाक बंदे ने सही बात कही है.......। खुशहाली और बदहाली दो बहनें हैं। पहली हमारे घर है तो दूसरी इसके घर में । इसी नाते यह हमारे साढू हुए। इसे खासा घोड़ा और दो लाख अशर्फियाँ देकर विदा करो.....।

(हल्का संगीत)

विवरणकार नं.1:

ऐसे सहज और जिन्दादिल थे खानखानां । जिन्दादिली का यह आलम था कि एक-एक शेर, एक-एक कविता पर लाखों लुटा देते थे।कहते हैं अपनी प्रशसां में लिखे एक छंद पर खानखानां ने गंग कवि को 36 लाख रुपये दिये थे...।

अब्दुर्रहीम खानखानां अकबर के नवरत्नों में से एक थे। युद्धवीर तो वे थे ही, दानवीर भी कम न थे। .....उनकी दारवीरता के किस्से सर्वप्रसिद्ध हैं ......। चूंकि वे खुद हिन्दी के रसज्ञ कवि थे, इसलिए हिन्दी के कवियों से घिरे रहते और समय-समय पर उन्हें पुरस्कृत भी करते...... इतिहासकार - अब्दुल बाकी ने लिखा है कि रहीम ने जितना हिन्दी कवियों को पुरस्कृत ।

एक बार रहीम की दानशीलता की प्रशंसा में गंग कवि ने यह दोहा लिखकर भेना:

सीखे कहां नवाबजू ऐसी देनी दैन

ज्यों-ज्यों कर ऊँचो करो, त्यों-त्यों नीचे नैन।

रहीम ने अत्यन्त विन्रमता पूर्वक उत्तर दिया देनदार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन। लोग भरम हम पर धरै, याते नीचे नैन।

विवरणकार नं. 2:

27 अक्टूबर 1605 को अकबर की मृत्यु के बाद शाहजादा सलीम जहांगीर के नाम से मुगलिया सल्तनत के तख्त पर बैठा। इस समय खानखानां की आयु 41 वर्ष की थी। जहांगीर ने उन्हें अपने पद पर रहने दिया। युवावस्था में खानखानां यश और शौर्य की चरम-सीमा पर पहुंचे किन्तु वृद्धावस्था में एक के बाद एक आपदाएं उन्हें घेरती रहीं जो इस बूढ़े सिपाहसालार को तोड़ती गईं।

विवरणकारनं. 1:

देखा जाए तो रहीम की जिन्दगी अपने आप में एक दुखान्त नाटक है । उतारचढ़ावों से भरपूर उनके जीवन में सुख और दुःख अन्त समय तक आँख मिचौनी खेलते रहे । सन् 1618 में युवा पुत्र मिर्जा ऐरच जिसकी योग्यता और वीरता को देख अकबर ने बहादुर और शाहनवाज खाँ की उपाधि दी थी और जिसे खानखानां का प्रतिरूप माना जाता था, अति मदिरापन से मर गया। दूसरे ही वर्ष छोटा बेटा रहमानदाद तेज बुखार में ही शत्रु से लड़ने चला गया। जीतकर लौटा तो हवा खा गया और मर गया। जहांगीर ने "तुण्के जहांगीरी" में लिखा है....... खानखानां का यह जवान बेटा खूब लायक था। अपनी तलवार के जौहर उसने खूब दिखाए......। उसकी मौत का जब मुझे गम हुआ तो उसके बूढ़े बाप के दिल पर क्या गुजरी होगी? अभी शाहनवाज खां का जख्म ही न भरा था कि यह दूसरा घाव लगा.......।

विवरणकार नं. 2:

खानखानां की दुशवारियाँ दिनों दिन बढ़ती ही चली गईं। विपत्तियों और दुर्भाग्य ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। मुगलिया सल्तनत में नूरजहां के बढ़ते प्रभाव के फलस्वरूप खानखानां का वर्चस्व धीरे-धीरे कम होने लगा। नूरजहां छोटे शाहजादे शहरयारको गद्दी पर बिठाना चाहती थी। परिस्थितिवश खानखानां को पहले शाहजहाँ और फिर परवेज़ का साथ देना पड़ा। नतीजा यह निकला कि खानखानां दोनों नूरजहां और शाहजहां की आँखों में खटकने लगे......। घटनाचक और तेजी से घूमा......। जहांगीर की आज्ञा से खानखानां के पुत्र दाराब खां का सिर कटवाकर अभागे पिता के पास भेज दिया गया। इस निर्मम घटना के पीछे महत्त्वाकांक्षी व सत्ता-लोलुप महावत खां की खासी भूमिका रही........।



महावत ह-ह-ह।अब आयेगी अक्ल ठिकाने खानखानां की......।बड़ागरूर हो गया

था उस बूढ़े शेर को.......। लख्ते-जिगर के कटे सिर को थाली में आँखें फाड़े देखेगा, तो कलेजा मुंह को आएगा.......ऊँह, बड़ा उचका-उचका फिरता था दरबार में। अपने को कवि कहता था, शायर......। फारसी दां......हिन्दीदा.....पाजी कहीं का.....।ह-ह-ह-शेरखां, महावत खां एक तीर से दो शिकार करना खूब जानता है.....ह-ह-ह। ।

शेरखां हुजूर, बादशाह सलामत अपने चहेते सिपाहसालार खानखानां के बेटे को कत्ल कराएँगे, यह मैंने कभी नहीं सोचा था।........

महावत शेरखाँ हम ने कहा न महावत खां एक तीर से दो शिकार करना खब जानता

है.......। शहंशाह आलम जहांगीर को पूरा यकीं हो गया था कि खानखानां और उसका बेटा दाराब खां खुर्रम की मदद कर रहे हैं........

शेरखां हुजूर। शहंशाह आलम के कान में यह बात आपने ही तो डाली होगी?......हे-हैं-हें।

महावत शेरखां, तवारीख गवाह है कि बड़ी-बड़ी सल्तनों को हथियाने में कान भरने के हथियार ने बड़ा काम किया है।

शेरखां वह तो ठीक है हुजूर, म-मगर इस सबसे हमें क्या हासिल होने वाला है?

हावत शेरखाँ । उस दिन शाही दरबार में नूरजहां की मौजूदगी में मेरी जो बेइज्जती

की गई, उसे मैं अब तक भूला नहीं हूं.....। बदले की आग मेरे खून का कतरा-कतरा सुखा रही है .....। शेरखां, शाही दरबार से मैं बदला लेकर

रहूंगा....... खानखानां का बेटा तो नाहक बलि का बकरा बना है।

शेरखां म-मगर हुजूर, इतनी बड़ी सल्तनत से आप अकेले दम लोहा कैसे ले सकेंगे? महावत जिसकी ताकत का हमें खतरा था उसे तो तरकीबसे हमने रास्ते से हटा लिया,

शेर खाँ.......। शेर खां हु-हुजूर, आपका मतलब खानखानां और उसके बेटे दाराब से.......?

महावत हां, खूब समझे......इस कांटे को निकालना जरुरी हो गया था। अब रास्ता ।बिल्कुल आसान हो गया है .....। बस, मुनासिब मौके की तलाश है....।

शेरखां हुजूर, सुना है शंहशाहे आलम अगले हफ्ता कश्मीर जा रहे हैं। मौका अच्छा है हुजूर, क्यों न वहाँ किसी पड़ाव पर उन पर अचानक धावा बोल दिया जाए.......। महावत शी-ई-ई। दीवारों के भी कान होते हैं। ऐसे मनसूबे बयान नहीं किए जाते, आंखें से समझाए जाते हैं......। अच्छा, जल्दी करो। परवेज़ के खेमे के पास ही उस बूढ़े खानखानां का तम्बू है, जहां वह कैद है। जाकर उसे यह थाली दे आओ। कहना हुजूर ने तरबूज़ भेजा है।

शेरखां जो हुकूम सरकार।

संगीत

शेरखां: तस्लीम अर्ज करता हूँ, खानखानां ।

खानखानां आओ, शेरखाँ, आओ। मुगलिया सल्तनत के इकबाल की कोई खबर सुनाओ......। शाहंशाहे आलम कैसे हैं? मलिकाए नूरजहाँ कैसी है? शाहज़ादा खुर्रम क्या अब भी हम से नाराज़ है?

(कुछ क्षणों के लिए चुप्पी)

खानखानां तुम गर्दन झुकाए चुप क्यों हो शेर खाँ? बोलो, क्या बात है? मेरा दिल डूबाजा रहा है।

शेरखां हुजूर! खबर अच्छी नहीं है । बादशाह सलामत और खुर्रम की फौजों में कई बार मुठभेड़ें हुईं है । आपके फरज़दं दाराबखाँ ने बंगाल में खुर्रम की फौजों का साथ दिया था, मगर शाही फौजों के हाथों शिकस्त खा गये......।

खानखानां शिकस्त खा गये?

शेरखां हां, हुजूर । उन्हें बंदी बनाकर आगरा लाया गया है। बादशाह ने आपके लिए यह तरबूज भेजा है......। थाली से यह सरपोश आप खुद हा हटाएं......। अच्छा हुजूर । मैं चलता हूं। शिकारगाह में महावत खाँ मेराइंतजार कर रहे हैं.......।

खानखानां बादशाह सलामत ने मेरे बेटे की शिकस्त पर मुझे यह तरबूज भेजा है ? हैह-ह- बलिहारी वक्त के फेर की। देखें तो कैसा तरबूज भेजा है-यह क्या?. (स्वर में पीड़ा) यह तो मेरे दाराब का कटा हुआ सिर है । नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। (सिसकियाँ) बादशाह सलामत इतने संगदिल नहीं हो सकते। (रोते हुए) दाराब, बेटे दाराब। तुम भी इस बूढ़े बाप को छोड़कर ..... चले गये.......। या अल्लाह ! यह मुझे तू किस गुनाह की सजा दे रहा है?मैं तो हमेशा सच्चाई की राह पर चला हूँ।.......मुहब्बत और इन्सानियत का .ताउम्र कायल रहा हूँ। फिर यह जुल्म क्यों? मेरे मौला, इस बुढ़ापे में क्या यही दुख देखने के लिए तुमने मुझे जिन्दा रखा था? खुदावंदा, अब और इम्तिहान न ले। मैं टूट जाऊँगा। मेरे मौला! रही-सही हिम्मत भी काफूर हो जायेगी (रोते हुए) बेटे दाराब! तू अपने वतन के लिए शहीद हुआ है, यह तरबूज़ नहीं,शहीदी का तोहफा है - देख बेटा, देख ।इस बूढ़े बाप के आँसू तेरे मुर्दा सिर को कैसे नहला रहे हैं?...... एक लम्हे के लिए आंखे खोल दाराब......! एक लम्हे के लिए ........।

(संगीत) विवरणकार नं. 1:-...

और इस तरह यह बूढ़ा शेर जिन्दगी के आखिरी पड़ाव पर अपने को हर तरफ से असहाय और परवश पाने लगा। मित्र शत्रु बन गये और अपने बेगाने हो गये। खानखानां इस घटना-चक्र को दिनन के फेर और वक्त की गर्दिश मान मौन होकर देखते - रहे.......।

(संगीत)

विवरणकारनं.2:

तभी समय ने करवट बदली। नूरजहाँ की युक्ति से महावत खाँ अशक्त होकर भाग खड़ा हुआ। खानखानां ने निवदेन किया कि इस नमक हराम को दंडित करने का काम उसे सौंपा जाए।खानखानां एक बार फिर जहांगीर के विश्वासपात्र बन गये। उन्हें सात हजारी मनसब, खिलअत, तलवार, जड़ाऊ जीन सहित घोड़ा और खासा हाथी देकर जहांगीर ने उनका सम्मान किया तथा अजमेर का सूबा भी जागीर में दे दिया।

विवरणकार.1:- .

72 वर्ष की आयु को प्राप्त कर एक दिन जीवट वाला यह कद्दावर तुर्क लाहौर में अस्वस्थ हो गया। दिल्ली पहुंचने तक दुर्बलता इतनी बढ़ गई कि सन् 1627 में वह इस जहां से प्रस्थान कर गये......।

खानखानां को हुमायूं के मकबरे के पास गाड़ा गया। उसके मकबरे पर " अंकित किया गया ख़ान सिपाहसालार।

विवरणकार नं. 2:

हिन्दू-मुस्लिम साझी संस्कृति के पोषक और उन्नायक रहीम खानखानां की कविता सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष कविता है। भारतीय संस्कृति और धार्मिक चेतना से वे इतना घुलमिल गये थे कि उनके तुर्क होने की बात मिथ्या सी लगती है। हिन्दुओं

के कृष्ण-सुदामा, भृगु-विष्णु, शिव-गंगा आदि पौराणिक आख्यानों के माध्यम से रहीम ने नीति एवं ज्ञान के जो सुन्दर उपदेश दिए हैं, वे सच में मुक्ता-मणियाँ हैं ।

विवरणकार नं. 1:

डॉ. विद्या निवास मिश्र के अनुसार रहीम एक ऐसा व्यक्तित्त्व है जो मानो अनुभव का भरा प्याला हो और छलकने के लिए लालायित हो। वंश के हिसाब से विदेशी पर हिन्दुस्तान की मिट्टी का ऐसा नमक हलाल कि अपना मस्तिष्क चाहे अरबीफारसी या तुर्की को दिया हो, मगर हृदय ब्रजभाषा, अवधि, खड़ी बोली और संस्कृत को दिया। सारा जीवन राजकाज में बीता और बात उसने आम आदमी के जीवन की।

विवरणकार नं. 2:

रहीम खानखानां की कुल मिलाकर ग्यारह रचनाएं प्रसिद्ध हैं ।इनके लगभग 300 दोहे दोहावली में संगृहीत हैं । दोहों में ही रचित इनकी स्वतन्त्र कृति नगर शोभा है। 142 दोहों की इस कृति में विभिन्न जातियों की स्त्रियों का श्रृंगारिक वर्णन है । बरवै छंद रहीम का प्रिय छंद था। इस छंद में इन्होंने गोपी-विरह-वर्णन किया है । संस्कृतऔर हिन्दी की मिश्रित शैली में रचित इन की एक और कृति मदनाष्टक है । इसका वर्ण्य विषय कृष्ण की रास-लीला है । रहीम को ज्योतिष का भी खासा ज्ञान था।संस्कृत, फारसी और हिन्दी मिश्रित भाषा में इनका खेटकौतुक-जातकम् नाम का ज्योतिष-ग्रन्थ बड़ा प्रसिद्ध ग्रन्थ है।

विवरणकार नं. 1:

हिन्दुस्तान की सरज़मीन पर जन्मा यह मस्त मौला और कद्दावर तुर्क धर्मनिरपेक्षता के पक्षधरों और संवेदनशील हृदय रखने वाले कवियों के लिए चिरकाल तक प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा।

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