Tuesday, May 30, 2017


परिचर्चाः विस्थापन साहित्य का दर्द- डॉ० शिबन कृष्ण रैना/लेखनी मई-जून 


कौन नहीं जानता कि अशांति,विभ्रम और संशयग्रस्तता की स्थिति में किसी भी भाषा के साहित्य में उद्वेलन,विक्षोभ,चिन्ताकुलता और आक्रोश के स्वर अनायास ही परिलक्षित होते हैं। कश्मीरी के ‘विस्थापन साहित्य’ में भी कुछ इसी तरह का परिदृश्य नजर आता है।दरअसल, कश्मीर का ‘विस्थापन साहित्य’ कट्टर,क्रूर और गैर-राष्ट्रवादी ताकतों की राष्ट्रवादी ताकतों के साथ सीधी-सीधी जंग का प्रतिफलन है। बर्बर बहु-संख्याबल के सामने मासूम अल्पसंख्या-बल को झुकना पड़ा जिसके कारण ‘पंडित समुदाय’ भारी संख्या में कश्मीर घाटी से विस्थापित हुआ और पिछले लगभग तीन दशकों से अपनी अस्मिता और इज्जत की रक्षा के लिए संघर्षरत है।
माना जाता है कि कश्मीर घाटी से पंडितों का विस्थापन सात बार हुआ है। पहला विस्थापन १३८९ ई० के आसपास हुआ जब घाटी में विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा बलपूर्वक इस्लामीकरण के परिणामस्वरूप हजारों की संख्या में या तो पंडित हताहत हुए या फिर अपनी जान बचाने के लिए वे भाग खड़े हुए।इस बीच अलग-अलग कालावधियों में पाँच बार और पंडितों का घाटी से निष्कासन हुआ।सातवीं और आखिरी बार पंडितों का विस्थापन १९९० में हुआ। आंकड़े बताते हैं कि पाक-समर्थित जिहादियों के आतंक से त्रस्त होकर १९९० में हुए विस्थापन के दौरान तीन से सात लाख के करीब पंडित कश्मीर से बेघर हुए।
१९९० में हुए कश्मीरी पंडितों के घाटी से विस्थापन की कथा मानवीय यातना और अधिकार-हनन की त्रासद गाथा है। यह दुर्योग अपनी तमाम विडम्बनाओं और विसंगतियों के साथ आज हर चिन्तक, बुद्धिजीवी और जनहित के लिए प्रतिबद्ध रचनाकार के लिए चिन्ता और चुनौती का कारण बना हुआ है। विस्थापन की त्रासदी के बीच टूटते भ्रमों और ढहते विश्वासों को कन्धा देते हुए कश्मीर के रचनाकरों ने विस्थापितों के दुःस्वप्नों और उनकी स्मृतियों को व्यवस्था और जागरूक देश-वासियों के सामने रखकर विस्थापन से जनित स्थितियों और उनके दुष्प्रभावों को बड़ी मार्मिकता के साथ अपने रचना-कर्म में बयान किया है और ब्यान कर रहे हैं।
ध्यान से देखा जाय तो कश्मीर में आतंकवाद के दंश ने कश्मीरी जनमानस को जो पीड़ा पहुंचायी है, उससे उपजी हृदय-विदारक वेदना तथा उसकी व्यथा-कथा को साहित्य में ढालने के सफल प्रयास पिछले लगभग ढाई-तीन दशकों के बीच हुए हैं और अब भी हो रहे हैं।कई कविता-संग्रह, कहानी-संकलन,औपन्यासिक कृतियां आदि सामने आए हैं, जो कश्मीर में हुई आतंकी बर्बरता और उससे जनित एक विशेष जन-समुदाय(कश्मीरी पंडितों) के ‘विस्थापन’ की विवशताओं को बड़े ही मर्मस्पर्शी अंदाज में व्याख्यायित करते हैं। कहना न होगा कि पंडितों के घाटी से विस्थापन के कारणों और उससे जनित पंडित-समुदाय पर पड़े सामाजिक-सांस्कृतिक दुष्प्रभावों को लेकर देश में समय-समय पर अनेक परिचर्चाएं,संगोष्ठियाँ,आयोजन आदि हुए हैं परन्तु विस्थापन के दौरान कश्मीरी लेखकों द्वारा रचे गए साहित्य की सम्यक मीमांसा, उसका आलोचनात्मक अध्ययन आदि अधिक नहीं हुआ है। 
विस्थापन की त्रासदी भोगते रचनाकारों की सबसे बड़ी पीड़ा जो कभी उन्माद की हदें छूने लगती है, आतंकवाद से छूटे घर-संसार की पीड़ा है।घर मात्र जमीन का टुकड़ा या ईंट-सीमेंट का खांचा-भर होता तो कभी भी, कहीं पर भी बनाया जा सकता था। घर के साथ घर छूट जाने वाले की पहचान, स्मृतियों की भरी-पूरी जमीन और अस्मिता के प्रश्न जुड़े होते हैं। विस्थापितों से,दरअसल, जमीन का टुकड़ा ही नहीं छूटा, उनकी आस्था के केन्द्र वितस्ता, क्षीर-भवानी और डल झील भी छूट गये है। कश्मीर में बर्फ के तूदों (ढेर) के बीच मनती शिवरात्रि और वसंत की मादक गंध में सांस लेता ‘नवरोज-नवरेह’ भी था। घर छूटने का अर्थ मोतीलाल साकी’ के शब्दों में “वही जानता है, जिसने अपना घर खो दिया हो।“ बात १९९० के आसपास की है।घर से बेघर हुओं ने विकल्पहीन स्थितियों को स्वीकारते हुए भी उम्मीद नहीं छोड़ी थी, यह सोचकर कि एक दिन हालात सुधर जाएंगे और हम वापस अपने घरों को लौट जाएंगे। आखिर हम एक स्वतंत्र धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के नागरिक हैं। मगर, शंभूनाथ भट्ट ‘हलीम’ घर लौटने को विकल विस्थापितों से कहते हैं, “आतंकवाद ने वादी के आकाश और धरती के रंग बदल दिए हैं। वहां जाकर तुम क्या पाओगे? हमारी अपनी धरती अब हमारे लिए पराई हो गई है।’
पंडितों को वादी से खदेड़ने की साजिश में जिन छोटे-बड़े रहनुमाओं, साम्प्रदायिक तत्वों और पाक समर्थित जिहादियों/आतंकवादियों के हाथ रहे हैं, वे आज भी बेखटके वादी की सामासिक संस्कृति के परखच्चे उड़ाने में लगे हुये हैं और कहते हैं: “बट/पंडित तो सदा से भगोड़े रहे हैं।’ अग्निशेखर को भगोड़ा शब्द कचोटता है, वे लिखते हैं:
“आंखें फोड़ीं, बाहें काटीं, बेकसूर थे भागे पंडित,
किसको चिंता? लावारिस हैं, भागे पंडित।” 
महाराज कृष्ण भरत लिखते हैं-“मुझसे मिलने के लिए/किसी को खटखटाना नहीं होगा दरवाजा/केवल फटेहाल सरकारी तम्बू का पर्दा सरकाना होगा।’
घाटी में छूटे घरों को जिहादियों ने मलबे के ढेर में बदल दिया। चन्द्रकान्ता को जले हुए छान-छप्परों में “घर’ की शिनाख्त करते लगता है कि “घर की लाश टुकड़ों में बंट कर पूरी वादी में छितर गई है’। शशिशेखर तोषखानी अपनी गली के कीचड़ को भूल नहीं पाते, जो घर छोड़ते समय, मोहवश उनके पैरों से लिपट गई थी। ऐसे घर और गलियों को छोड़ना आसान नहीं था। तोषखानी कहते हैं
“कत्लगाहों के नक्शों में/हमारे सिर रखे जा रहे हैं/मील के निशानों की जगह/और कोई दिशा तय नहीं है यहां/मृत्यु के सिवा।’

विस्थापन अथवा जलावतनी की त्रासदी ने कवि ब्रजनाथ बेताब के मन-मस्तिष्क को बहुत गहरे तक आक्रांत कर दिया है। उनकी यह पीड़ा उनके रोम-रोम में समाई हुई है। घर-परिवार की सुखद स्मृतियों से लेकर आतंकवाद की आग तक की सारी क्रूर स्थितियां कवि की एक-एक पंक्ति में उभर-उभर कर सामने आती हैं। आतंकी विभीषिकाओं का कवि द्वारा किया गया वर्णन और उससे पैदा हुई सामाजिक असमानता/स्थितियां मन को यों आहत करती हैं-
‘मैं कवि नहीं हूं
न मेरी धरा के सीने में छिपा मेरा लहू
मेरी कविता है।
क्योंकि मैं अपने लहू को छिपाने का नहीं
लहू से धरा को सींचने का आदी रहा हूं।
यही मेरी विरासत,मेरी परंपरा है
जिसे निभाते निभाते मैं 
बहुसंख्यक होते हुए भी अल्पसंख्यक हो गया हूं।..’.

विस्थापन में रचना करते हिन्दी कवियों के महाराज कृष्ण संतोषी,अवतारकृष्ण राजदान, रतनलाल शान्त, उपेन्द्र रैणा, महाराज कृष्ण भरत, क्षमा कौल, चन्द्रकान्ता से लेकर सुनीता रैना,प्यारे हताश तक ढेरों नाम हैं, जिनकी रचनाओं में एक रची-बसी विरासत के ढहने और पहचान के संकट की पीड़ा है। भ्रष्ट राजनीति और अवसरवादी नेताओं की गैरजिम्मेदारियों और ढुलमुल नीतियों के प्रति आक्रोश है क्योंकि वे लोग जवाबदेह हैं कल्हण के स्वर्ग को रक्त-रंजित रणक्षेत्र बनाने के लिए। कश्मीरी-भाषी कवि “साकी’ के शब्दों में :
” आज वादी में दहशत का आलम है/डूलचू की पीढ़ी जवान हो गई है/लल्लद्यद और शेखुलआलम को आज कौन सुनेगा? /बडशाह की रूह कांप रही है/और वितस्ता का पानी बदरंग हो गया है।’
विस्थापितों के पास अतीत की स्मृतियां ही नहीं, वर्तमान के दंश भी हैं। शिविरों में पशुवत जीवन जीते संभ्रांत लोगों की दुर्दशा पर कवि उद्विग्न है। नयी पीढ़ी चौराहे-पर भौंचक्क खड़ी अपनी दिशा ढूंढ रही है। “साकी’ उन बच्चों के लिए चिंतित हैं, जो तम्बुओं में पलते हुए मुरझा गए हैं। वे कहते हैं:
“हमारे लोकतंत्र के नए अछूत हैं मारे-मारे फिरना /अब इनकी सजा है/ये, मां कश्मीर की बेबस बेचारी संतान हैं।’

इतिहास कहता है कि कश्मीरी पंडित अभिनवगुप्त, कल्हण,मम्मट और बिल्हण की संतानें हैं। इनके पूर्वजों को भरोसे/उदारता की आदत विरासत में मिली है। लेकिन,कुलमिलाकर इस बदलते समय में, भरोसे की आदत ने इन्हें ठगा ही है। विश्वासों की पुरानी इबारत, वक्त की आंधी में ध्वस्त हो गई है। कवयित्री चन्द्रकान्ता कहती हैं:
“तुम्हारे काम नहीं आएगी मेरे बच्चो भरोसे की वह इबारत, खुदा की हो या नेता की हो, खुद तुम्हें लिखनी होगी वक्त के पन्ने पर नयी इबारत।’

विस्थापित कश्मीरी लेखक जब घर छूटने या शरणार्थियों की पीड़ाओं को स्वर देता है, तो निजी पीड़ा की बात करते हुए भी उसकी संवेदनाएं वैश्विक होकर उन बेघर-बेजमीन लोगों के साथ जुड़ जाती हैं जिनकी व्यथा उससे भिन्न नहीं है, भले कारण भिन्न हों। वह चाहे गुजरात की त्रासदी हो, उड़ीसा या आन्ध्र का तूफान हो, तिब्बतियों-अफ्रीकियों या फिर फिलिस्तीनियों की पीड़ा हो, संवेदना के तार उन्हें एक दूसरे से जोड़ते हैं। तभी तो महाराजकृष्ण संतोषी कहते हैं कि 
‘अपने घर से विस्थापित होकर मैंने बिना यात्रा किए ही फिलिस्तीन को भी देखा और तिब्बत को भी।’
इन तमाम निराशाओं और अनिश्चितताओं के बावजूद रचनाकार हार नहीं मान रहा। राधेनाथ मसर्रत, वासुदेव रेह, शान्त, संतोषी, क्षमा कौल या चन्द्रकान्ता आदि सभी की उम्मीदें जीने का हौसला बनाए रखे हुए हैं। तोषखानी को भरोसा है कि,”फैलेगा हमारा मौन, नसों में रक्त की तरह दौड़ता हुआ….मांगेगा अपने लिए एक पूरी जमीन।’
‘शान्त’ वादी से दूर रहकर वादी के इतिहास को नए सिरे से रचना चाहता है- “अंधेरा है अभी, पर सूर्य जरूर निकलेगा।” और संतोषी कहता है, “इस बार सूर्य मेरी नाभि से निकलेगा।’
विस्थापन त्रासद होता है, खासतौर पर अपने ही देश में हुआ विस्थापन। वह लज्जास्पद भी होता है और आक्रोश का कारण भी। वह मानवीय यातना और मनुष्य के मूल अधिकारों से जुड़े बेचैन करने वाले प्रश्नों को जन्म देता हैं, जिन्हें रचनाकार स्वर देकर एक समानान्तर इतिहास रचता रहे है: कविताओं में भी, कहानियों में भी और “कथा सतीसर’, “पाषाण युग’ “दर्द पुर” आदि जैसे उपन्यासों में भी।
कश्मीरी लेखकों के ‘विस्थापन-साहित्य’ को मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है:१-हिंदी में लिखा गया विस्थापन साहित्य,२-अंग्रेजी में लिखा गया विस्थापन साहित्य और ३-उर्दू/कश्मीरी में लिखा गया विस्थापन साहित्य।
यहाँ पर मुख्यतया हिंदी में रचित कश्मीरी लेखकों द्वारा लिखित ‘विस्थापन-साहित्य’ को ही केंद्र में रखा गया है।इस चर्चा द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि चूंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है,इसलिए कश्मीरी लेखकों द्वारा रचित ‘विस्थापन-साहित्य’ अपने समय और समाज की विषमताओं, चिंताओं, दुरावस्थाओं, आकुलताओं आदि का बखूबी वर्णन करता है।इस वर्णन में भाव और शिल्प के स्तर पर मर्म को छूने वाली जिन अनुभूतियों से साक्षात्कार होता है,वे कश्मीरी साहित्य के साथ-साथ भारतीय/हिंदी साहित्य की भी बहुमूल्य निधि हैं। 
यहाँ पर प्रसंगवश यह कहना अनुचित न होगा कि कश्मीर में कुछेक ऐसे भी रचनाकार हैं जो यद्यपि ‘पंडित’ नहीं हैं किन्तु पंडितों के विस्थापन की त्रासदी से विक्षुब्द हैं।अपने पंडित भाइयों से विलग होने और खुद को असहाय पाने की पीड़ा इन रचनाकारों ने भोगी है।कश्मीरी कवि बशीर अत्तहर की कविता “कहाँ जाऊँ मैं?” इसका प्रमाण है:
‘तुम समझते हो तुम्हारे अस्तित्व को मैं लील गया
पर, उस प्रयास में मेरा अस्तित्व कहाँ गया
यह शायद तुम्हें मालूम नहीं।
मैंने कल ही एक नई मुहर बनवाई और
लगा दी ठोंककर हर उस चीज़ पर
जो तुम्हारी थी।
लेकिन यह ख़याल ही न रहा कि
उन कब्रिस्तानों का क्या करूँ
जो फैलते जा रहे हैं रोज-ब-रोज
और कम पड़ रहे हैं हर तरफ़ बिखरी लाशों को समेटने में!
बस, अब तो एक ही चिंता सता रही है हर पल,
तुम को चिता की आग नसीब तो होगी कहीं-न-कहीं 
पर, मेरी कब्र का क्या होगा मेरे भाई?’

कश्मीरी पंडितों की अपने ही देश में हुयी जलावतनी को लेकर मुझे कई सभा-गोष्ठियों में बोलने अथवा अपने आलेख पढने का अवसर मिला है।विस्थापन से जुडे कई कश्मीरी लेखकों की रचनाओं का ‘रिव्यु’ अथवा अनुवाद करने का अवसर भी मिला है।साहित्य अकादेमी,दिल्ली ने कई वर्ष पूर्व गिधर राठी के सम्पादन में “कश्मीर का विस्थापन सहित्य” पर जो विशेषांक निकाला था,उसमें मेरी भी दो-एक रचनाएँ सम्मिलित हैं।(इस गंभीर,हृदय-स्पर्शी और समय-सापेक्ष विषय पर अलग से एक पुस्तकाकार रचना तैयार करने की ज़रूरत है।इस काम को हाथ में लेने की मेरी योजना है।)
चंद्रकांता के अनुसार ‘कश्मीर की संत कवयित्री ललद्यद ने चौदहवीं शती में एक ‘वाख’ कहा था- “आमि पन सोदरस…।’ कच्चे सकोरों से ज्यों पानी रिस रहा हो, मेरा जी भी वैसे ही कसक रहा है, कब अपने घर चली जाऊं?’ आज ललद्यद का यही “वाख’, इक्कीसवीं सदी के इस भूमंडलीकरण के दौर में विस्थापित कश्मीरियों के अन्तर की हूक बनकर साहित्य में अभिव्यक्त हो रहा है। सिर्फ संदर्भ बदल गए हैं। संत कवयित्री ललद्यद ने यह ‘वाख’ आध्यात्मिक संदर्भों में कहा था, धरती पर उसका कोई घर नहीं था, लेकिन आम-जन ईंट-गारे से बने उस घरौंदे की बात करता है, जिसमें उसके स्वप्न, स्मृतियां और भविष्य दफन हो गए हैं। लेकिन हूक वही है जो नश्तर-सी अंतर में गड़ी है।‘ यों,ललद्यद ने यह भी कहा था:
“शिव/प्रभु थल-थल में विराजते हैं
रे मनुष्य! तू हिन्दू और मुसलमान में भेद न जान,
प्रबुद्ध है तो अपने आप को पहचान,
यही साहिब/ईश्वर से है तेरी पहचान।”

काल को महाबली कहा गया है।कोई आश्चर्य नहीं कि कश्मीर की इस महान आदि संत-कवयित्री योगिनी ललद्यद (१४ वीं शती) की वाणी में निहित सन्देश कश्मीरी जनमानस को उद्वेलित-अनुप्राणित कर घाटी में एक बार पुनः अमन-चैन का वातावरण स्थापित करने की प्रेरणा दे।

०००००००
डॉ० शिबन कृष्ण रैणा

(पूर्व-अध्येता,भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान,शिमला,
सीनियर फेलो,संस्कृति मंत्रालय,भारत सरकार, 
सदस्य,हिंदी सलाहकार समिति,विधि एवं न्याय मंत्रालय,भारत सरकार.)

२/५३७ अरावली विहार,
अलवर ३०१००१

Friday, May 12, 2017



आत्म-कथ्य / अन्तरंग 

वतन से दूरी ही मेरी साहित्य-साधना की मूल-प्रेरणा है



आत्म-कथ्य लिखना किसी भी लेखक के लिए चुनौती का काम है | कारण, अपने बारे में लिखना आसन तो लगता है किन्तु तभी सहसा दिमाग में एक बात और आती है कि ‘लिखने’ और ‘बखान’ में, यानी आत्म-कथ्य और आत्म-प्रचार में स्पष्ट सीमा-रेखा खिंच जानी चाहिए और उस रेखा को साफ-साफ उजागर करना ही एक सुलझे हुए लेखक की असली परख / पहचान है | अपने आत्म-कथ्य में मैं इस बात के प्रति विशेषतया सावधान रहा हूँ |

कश्मीर मेरी जन्म-भूमि है | जन्म हुआ था श्रीनगर (कश्मीर) के पुरुषयार (हब्बाकदल) मुहल्ले में संवत १९९९ में वैशाख शुक्ल पक्ष की सप्तमी को को Iईस्वी सन के हिसाब से यह तिथि २२ अप्रैल, १९४२ बैठती है | निम्न मध्यवर्गीय परिवार के तमाम अभावों और दबावों को विरासत में पाकर बचपन और किशोरावस्था के उद्धाम और बेफिक्री के दिनों को मैंने मन मारकर बिताया है | पिताजी की प्राइवेट नौकरी हमारे सात सदस्यीय परिवार के लिए तन ढकने और दो टाइम का साग-भात जुटाने के लिए काफ़ी न थी | माता जी कहती थी कि दुर्दिनों के हम ने कई-कई बार चावल का मांड पिया है और सत्तू खाया है | ‘जबरी स्कूल’ में ढाई आने फीस के जमा कराने के लिए भी हमें कई बार उधार लेना पड़ता था | बड़ी मौसी की हैसियत हम से कुछ ज्यादा ठीक थी, शायद सीमित परिवार के कारण | समय-असमय उसने हमारी बहुत मदद की है | कई बार माताजी ने मुझे उनके पास आलीकदल भेजा है और मैं तीन मील पैदल चलकर उनके यहाँ से कभी चावल, कभी आटा और कभी पांच-सात रूपये चुपचाप लाया हूँ |

नौकरी के सिलसिले में पिताजी लम्बे समय तक जम्मू में रहे | रेडक्रास के दफ्तर में उनकी नौकरी थी | सर्दियों में हम जम्मू चले जाते और गर्मियों में वापस श्रीनगर लौट आते | इस आव-जाही के कारण मेरी स्कूली शिक्षा दो जगह हुई | जम्मू में घास-मंडी स्कूल में तथा श्रीनगर में जबरी स्कूल (टंकीपोरा) तथा श्रीप्रताप हाई स्कूल में | सरकारी स्कूलों में जैसी पढाई और जैसा माहौल होता है, उसी को आत्मसात करता मैं दसवीं प्राप्त कर गया | यह बात १९५६ की है | दसवीं में मुझे अच्छे अंक मिले थे-प्रथम श्रेणी में सात या आठ ही घटते थे | कालेज में प्रवेश लेने ने लिए विषयों का सही चयन करना अनिवार्य था | मुझे याद है कि प्रवेश-फार्म भरते समय कालेज के एक अनुभवी प्रोफेसर साहब ने मेरे प्राप्तांक को ध्यान में रखते हुए मुझे विज्ञान-संकाय में जाने की सलाह दी थी क्योंकि आने वाले समय में रोजगार की दृष्टि से कला की तुलना में विज्ञान की संभावनाएं अच्छी थीI विषय न होने पर भी वे मुझे विज्ञान दिलवाने के पक्ष में थे | घर पर दो दिनों तक इस बात पर खूब विचार होता रहा की मैं विज्ञान लूँ य आर्टस | चूँकि पिताजी ज्यादातर जम्मू में रहते थे, अत: हमारे घर के सारे मुख्य निर्णय दादाजी लेते थे | दादाजी की अपनी विवशताएँ, अपने पूर्वाग्रह तथा स्थितियों को समझने की अपनी दृष्टि थी | वे हिन्दी-संस्कृत के अध्यापक तथा एक धर्म-परायण/कर्मकांडी ब्राह्मण थे | (कश्मीर ब्राह्मण मंडल के वे वर्षों तक प्रधान रहे |) विज्ञान जैसे पदार्थवादी विषय से उनका दूर का भी वास्ता न था | उन्होंने ज़ोर/तर्क देकर मुझे कला-संकाय में जाने को कहा क्योंकि उस स्थिति में हिन्दी-संस्कृत के विषयों को वे मुझे अच्छी तरह से पढ़ा सकते थे | आज सोचता हूँ कि यदि विज्ञान संकाय में प्रवेश ले लिया होता तो एक दूसरे ही रसहीन संसार में विचरण कर रहा होता मैं, और साहित्य व कला के अनूठे, कालजयी, यश-बहुल तथा रस-सिक्त संसार से एकात्म होकर आत्म-विस्तार की अनमोल सुखानुभूति से वंचित रह जाता |इसे मै दादाजी का पुण्य-प्रताप ही मानूँगा कि उन्होंने मुझ में हिन्दी के प्रति प्रेम को बढाया और यह उनकी ही दूरदृष्टि का परिणाम है कि मैं एम.ए. तक पढ़ पाया, अन्यथा मैट्रिक कर लेने के बाद पिताजी मुझे नौकरी पर लगवाने के पक्ष में थे |

कश्मीर विश्वविधालय में एम.ए. हिन्दी खुले संभवतः दो ही वर्ष हो गये थे जब मैंने १९६० में एम.ए. में प्रवेश लिया | उस समय विभाग में तीस लड़के-लडकियाँ तथा तीन प्रोफेसर थे | डॉ. हरिहरप्रसाद गुप्त विभाग के अध्यक्ष तथा डॉ. शशिभूषण सिंहल व डॉ. मोहिनी कौल प्राध्यापक हुआ करते थे | मैंने पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध दोनों में अधिकतम अंक प्राप्त कर १९६२ में एम.ए. हिन्दी प्रथम श्रेणी में प्रथम रहकर कियाI मुझे याद है हिन्दी विभाग में साहित्य परिषद या हिन्दी सेमिनार, जैसे एक मंच का निर्माण किया गया था जिसमें हर शनिवार को ‘गोष्ठी’ होती थी | इस गोष्ठी में छात्र-छात्राओं की स्वरचित कविताओं, गजलों, कहानियों, शोधपरक निबंधो का वाचन होता | समीक्षाएं भी होती और जमकर होतीं | एक वर्ष तक में इस हिन्दी-सेमिनार का छात्र-सचिव रहा और संभवतः गोष्ठियों का संचालन करते-करते, गुरुजनों की समीक्षाएं सुनते-सुनते तथा छात्र-लेखकों की रचनाएँ सुनते-सुनते मेरे भीतर का छिपा लेखक इतना प्रभावित और विलोड़ित हुआ कि मैं ने नियमत रूप से लिखने का अभ्यास करना प्रारंभ कर दिया | मैंने बहुत कुछ लिखा पर वह छपा नहीं | कश्मीर जैसे अहिन्दी प्रान्त में हिन्दी रचना का छपना-छपाना सरल कार्य न था | पूरे प्रान्त से ‘योजना’ नाम की एकमात्र सरकारी पत्रिका निकलती थी और उस पर वरिष्ठ लेखकों का दबाव अधिक था | हम नये लेखकों को भला कौन जानता?............... मुझे याद है मेरी पहली रचना ‘समाज और हम’ (जिसे मैंने हिन्दी-सेमिनार में पढ़ा था) १९६० में युवक (आगरा) में छपी थी मेरे फोटो के साथ | रचना छपवाने के लिए मेरे श्रद्धेय गुरूजी डॉ. शशिभूषण सिंहल ने मेरी मदद की थी | गुरूजी के सिफारिशी पत्र के साथ मैंने उक्त रचना संपादक को भेजी थी | यकीन मानिए जब डाक से पत्रिका मेरे पास आई और मैंने अपनी रचना सचित्र उसमें देखी तो मै इतना प्रसन्न हुआ, इतना प्रसन्न हुआ मानो कुले-जहाँ की खुदाई मिल गई हो | पूरे सात दिनों तक मेरी प्रसन्नता का ज्वर नही टूटा | इन सात दिनों के दौरान पत्रिका मेरे बगल में ही रही | उठते-बैठते, घूमते-फिरते, खाते-पीते- हर बार पलट-पलटकर अपनी रचना को देख लेता, मित्रों को दिखता और मन ही मन सुखामृत के घूँट पीता रहता |

रचना छाप तो गई | वाह-वाही भी मिली किंतु गुरुदेव डॉ. हरिहर प्रसाद गुप्त की मंशा कुछ और ही थी | मुझ में वे सम्भवतः उन तमाम संभावनाओं का पता लगा चुके थे जो आगे चलकर मुझे साहित्य के क्षेत्र में प्रतिष्ठापित करतीं | उनका आग्रह था कि मैं शुद्ध साहित्यिक विषयों, जैसे सूर, तुलसी, नई कविता, छायावाद, रस-निष्पति, साहित्य और समाज आदि विषयों का अध्ययन तो कर लूँ, मगर इन पर लिखने की जिद न पकडूँ | इन विषयों के अधिकारी लेखक हिन्दी जगत में बहुत हैं और इन विषयों के माध्यम से आगे बढ़ने की सम्भावना भी उतनी नहीं है जितनी कश्मीर सम्बन्धी विविध विषयों को आधार बनाने से है | इसमें उन्हें कश्मीर की सांस्कृतिक- साहित्यिक धरोहर को हिन्दी जगत तक पहुँचाने की आवश्यकता नजर आ रही थी और साथ ही संपर्क भाषा हिन्दी के माध्यम से देश की दो संस्कृतियों को मिलाने की वे बात सोच रहे थे | मेरे लिए उन्होंने साहित्य-साधना का नूतन मार्ग खोल दिया | मेहनत करके मैंने ‘कश्मीर की झीलें’ शीर्षक से एक सचित्र लेख ‘सरिता’ में प्रकाशनार्थ भेजा |....... दो तीन महीनों के बाद रचना छप गई नयनाभिराम गेट-अप के साथ | साठ रूपए पारिश्रमिक भी मिले | गुरूजी ने ठीक ही कहा था कश्मीर सम्बन्धी विषयों पर लिखने की बहुत जरूरत और गुंजाइश थी | ‘कश्मीर के प्रसिद्ध खंडहर’, ‘कश्मीरी संगीत’, ‘कश्मीरी कहावतें और पहेलियाँ’ आदि मैंने लेख लिखे | ये बातें १९६०-६१ की हैं |

कश्मीर की सुरम्य घाटी को मैंने नवम्बर १९६३ में छोड़ा | नही जनता था कि मातृभूमि को सदा-सदा के लिए छोड़ना पड़ेगा | विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से फेलोशिप मिली और पी.एच.डी. करने मैं कुरुक्षेत्र आया | इस बीच हमारे प्रोफेसर डॉ. शशिभूषण सिंहल कश्मीर से कुरुक्षेत्र विश्वविधालय में चले आए थे | वे मेरे शोध-कार्य के निर्देशक नियुक्त हुए | शोध का विषय था –‘कश्मीरी तथा हिन्दी कहावतों का तुलनात्मक अध्ययन |’ अपने पीछे माँ-बाप की छत्रच्छाया, भाई-बहनों का प्यार तथा बन्धु-बांधवों का सान्निध्य छोड़ अपनी राह स्वयं बनाने तथा अपनी मंजिल स्वयं तय करने के एकाकी अभियान पर चल पड़ा था मैं | घर और अपने परिवेश की सीमित-सी दुनिया को अलविदा कहकर मैंने एक नये परिवेश में प्रवेश किया था| मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैं घर से चला था तो मात्र पचास रूपए लेकर चला था | दादाजी ने चुपचाप अलग से दस का नोट मेरी जेब में डाल बालों पर हाथ फेरते हुए कहा था-हम से दूर जा रहे हो | एक बात का हमेशा ध्यान रखना बेटा, परदेश में हम लोग तुम्हारे साथ तो होंगे नहीं पर तुम्हारी मेहनत, लगन और मिलन-सरिता हरदम तुम्हारा साथ देगी | औरों के सुख में सुखी और उनके दुःख में दुःखी होना सीखना, सच्चा मानवधर्म यही है |

यहाँ पर इस बात का उल्लेख करना अनुचित न होगा कि एक समय में कश्मीर में हिन्दी के प्रचार तथा हिन्दी-लेखन के प्रति लोगों में बड़ा उत्साह और आदर-भाव था | क्रालखोड (हब्बाकदल) में हिन्दी साहित्य सम्मलेन का कार्यालय हुआ करता था और प्राय: हर इतवार की शाम को वहाँ हिन्दी से प्रेम रखने वाले उत्साही युवकों एवं वरिष्ठ लेखकों का मजमा जुड़ जाता था | बहसें होतीं, कवि-सम्मलेन आयोजित होते, साहित्यिक चर्चाएँ होतीं, पुस्तकों के विमोचन होते, कहानियाँ पढ़ी जाती आदि-आदि | यह बात इस शती के पाँचवें / छठे दशक की है | मैं कोई १५ वर्ष का रहा हूँगा | इन गोष्ठियों में सम्मिलित तो हो जाता किंतु पीछे वाली पंक्ति में बैठ (बिठा दिया) जाता | उस वक्त के कुछ बड़े नामों में सर्वश्री प्रो. काशीनाथ धर, प्रो. लक्ष्मीनारायण सपरू, श्रीकंठ तोषखानी, प्रो. पृथ्वीनाथ पुष्प, मोतीलाल चातक, द्वारिका नाथ गिगू, रतनलाल शांत, प्रेमनाथ प्रेमी, शशिशेखर तोषखानी, प्रो. लीलकंठ गुर्टू, हरिकृष्ण कौल, प्रो.चमनलाल सपरू, जानकी नाथ कौल ‘कमल’ आदि याद आ रहे हैं | कालान्तर में समय ने करवट ली और इसी के साथ कश्मीर में हिन्दी के ये प्रहरी और प्रेमी भी इधर-उधर बिखर गये |हाँ, माननीय प्रो. चमनलाल सपरू साहब आज भी हिन्दी के लिए कृतसंकल्प हैं और मेरे कार्य की प्रशंसा करते नहीं अधाते | मेरी पहली पुस्तक ‘कश्मीरी भाषा और साहित्य’ (सन्मार्ग प्रकाशन, दिल्ली १९७२) की विस्तृत भूमिका उन्हीं ने लिखी है | 

कुरुक्षेत्र विश्वविधालय में दो वर्ष की अवधि बिताने के साथ ही नौकरी के लिए तलाश शुरू होने लगी और मैंने इधर-उधर प्रार्थना पत्र भेजे | दो जगह मेरा चयन हुआ | दिल्ली के एक सांध्यकालीन कालेज में अस्थायी तौर तथा राजस्थान लोकसेवा आयोग, अजमेर द्वारा राजस्थान कालेज शिक्षा सेवा के लिए पक्के तौर पर | निर्णय मुझे लेना था | राजस्थान सरकार की नौकरी ही मरी नियति बनी क्योकि अस्थायी नौकरी स्वीकार करने का जोखिम उठाना मेरे बूते से बाहर था | जुलाई १९६६ से मैं राजस्थान के विभिन्न सरकारी कालेजों में अध्यापनरत हो गया | राजकीय कालेज भीलबाड़ा में मेरी प्रथम नियुक्ति हुई | एक वर्ष तक वहाँ पर रह लेने के बाद, लगभग दस वर्षों तक राजकीय कालेज, नाथद्वारा (उदयपुर) में रहा | १९७८ से राजकीय स्नातकोत्तर कला महाविधालय, अलवर में स्थानांतरित होकर आया | इस बीच १९७५-७६ में बर्ष के लिए भारत सरकार के पटियाला स्थित उत्तर क्षेत्रीय भाषा केंद्र में कश्मीरी के भाषा वैज्ञानिक अध्ययन, उसके व्याकरण और उसकी पाठ-साम्रगी का निकट से अनुशीलन करने का मुझे सुअवसर मिला | संत कवयित्री ललद्दद पर मैंने यहीं पर एक पुस्तक तैयार की जो भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनऊ से प्रकाशित हुई | इस पुस्तक की सुन्दर प्रस्तावना प्रसिद्ध हिन्दी विद्वान और पत्रकार श्री बनारसीदास चतुर्वेदी जी ने लिखी है |

प्रभु श्रीनाथ जी की प्रसिद्ध नगरी नाथद्वारा में बिताए दस वर्ष मेरे जीवन के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और दिशा-सूचक वर्ष रहे हैं | यही वे वर्ष हैं जिन्होंने मेरे भीतर के लेखक (साहित्य-सेवी) को एक सुनिश्चित आकार देना प्रारंभ किया और मेरे साहित्यिक-भविष्य की एक पक्की नींव डल गई | ये तमाम वर्ष मेरे लिए कठोर परिश्रम के वर्ष थे | अपनी जम्भूमि से सैकंडों मील दूर, उलझील और चिनारों की शीतल और पुलकन-भरी दुनिया से विलग, नर्म-नर्म बर्फ की छुअन से सदा के लिए विमुख होकर मैं वीर-वसुंधरा राजस्थान की प्रचंड गर्मी और लू से टक्कर लेता हुआ परदेस में लसने-बसने, अपने लिए एक जगह बनाने तथा अपने भविष्य को संवारने की चिन्ता में साधनारत था | अपनों से दूरी ने मन में जो रिक्तता और टीस पैदा की थी , वह मेरे लिए वरदान सिद्ध हुई | मैंने निश्चय किया कि मेरा प्रवास आजीविका जुटाने का प्रयास-मात्र नहीं होना चाहिए किंतु मुझे कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे मेरे भीतर की वियोगजन्य पीड़ा की क्षतिपूर्ति हो | सच पुछा जाए तो मातृभूमि (वेतन) से दूरी और तज्जन्य रिक्तता का भाव ही मेरी समस्त साहित्य-साधना की मूल-प्रेरणा हैं | कुछ-कुछ यही बात १९८३ में पटना के सचिवालय सभागार में विहार राजभाषा विभाग द्वारा आयोजित मेरे अभिनन्दन-समारोह में उस समय के विहार के मुख्य-सचिव ने कही थी | अपने समापन-भाषण में सचिव जी ने शायद ठीक ही कहा था कि रैणा जी अगर कश्मीर में होते तो इतना महत्त्वपूर्ण और उपयोगी कार्य न करते | दरअसल, अपने वतन से दूरी ने ही उन्हें इतना ठोस कार्य करने की प्रेरणा दी है |

इस बीच राजस्थान जैसे विशुद्ध हिन्दी प्रान्त में कार्य करने से मेरे हिन्दी के व्यावहारिक ज्ञान की सीमाएँ विस्तृत हो चुकी थीं | मैंने हिन्दी के रोजमर्रा के मुहावरे को आत्मसात कर लिया था, भाषा पर मेरी पकड़ मजबूत होती जा रही थी | हिन्दी भाषा और साहित्य के जानकारों / विद्वानों से दिनोंदिन मेरा सम्पर्क बढ़ता जा रहा था | सभा-गोष्ठियों में मेरी भागीदारी बढती जा रही थी ......| कश्मीर छोड़कर राजस्थान को अपना कार्यक्षेत्र बनाने का एक जबरदस्त फायदा मुझे यह हुआ कि भाषा और अभिव्यक्ति शैली में बहुत परिष्कार हुआ | मेरी पहली पुस्तकाकार रचना ‘कश्मीरी भाषा और साहित्य’ १९७२ में छपी | इसे मैंने लगभग दो वर्षों की मेहनत के बाद नाथद्वारा में तैयार किया था | सुप्रसिद्ध हिन्दी-संस्कृत विद्वान एवं सांसद (राजतरंगिनी के विख्यात भाष्यकार) डॉ. रघुनाथ सिंह ने लगभग अठारह वर्ष पूर्व राजस्थान में रहकर कश्मीरी साहित्य-संस्कृति पर मेरे निष्ठा पूर्ण लेखन को देखकर सुखद-आश्चर्य प्रकट किया था | (डॉ. सिंह पं. नेहरु के समय कश्मीर मामलों की संसदीय-समिति के सदस्य रहे हैं ) अपने १८ नवम्बर, १९७४ के हाथ से लिखे पत्र में उन्होंने मुझे लिखा था –“...... आप साहित्य की जो सेवा कर रहे हैं उससे कश्मीर और भारत उऋण नहीं हो सकते | विचित्र विपर्यय है-कहाँ कश्मीर का तुषार-मंडित देश और कहाँ राजस्थान की मरुभूमि | किंतु दोनों हैं उज्ज्वल-वर्ण – राजस्थान की ऊष्मा ने वीरों को उत्पन्न किया है और हिमालय भूमि में आसीन कश्मीर ने दार्शनिकों एवं महाकाव्यकारों को......” | नाथद्वारा प्रवास के दौरान ही मैंने कश्मीरी की लोकप्रिय रामायण ‘रामावचरित’ का सानुवाद लिप्यन्तरण किया | इस कार्य को पूरा करने में मुझे लगभग ५ वर्ष लगे | भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनऊ से प्रकाशित इस सेतु-ग्रंथ की सुन्दर प्रस्तावना डॉ. कर्णसिंह जी ने लिखी है | मेरे प्रयास की भूरि-भूरि प्रसंशा करते हुए उन्होंने लिखा........ “डॉ. शिबन कृष्ण रैणा ने अपने कठोर परिश्रम से भूल कश्मीरी भाषा की इस अमोल निधि ‘रामावतारचरित’ का देवनागरी लिपि में लिप्यान्तरण किया है और हिन्दी में इसका सुन्दर अनुवाद भी, अपने आप में प्रशंसनीय कार्य है |.... यों भी तो डॉ. रैणा हिन्दी के माध्यम से कश्मीरी भाषा और साहित्य की सेवा में संलग्न हैं, किंतु मुझे आशा है की वे समय-समय पर कश्मीरी के अनेक अनमोल रत्नों की छटा को प्रतिबिम्वित करने का अपना प्रयास जारी रखेंगे | मैं उनकी सफलता एवं स्वास्थ्य की कामना करता हूँ |”

मेरा जन्म चूंकि एक परम्परावादी हिन्दू ब्राह्मण-परिवार में हुआ, इसलिए ईश्वर के अस्तित्व मैं मेरा अविश्वास कभी नहीं रहा | पर मेरे मन ने यह कभी स्वीकार नहीं किया कि ईश्वर श्रम से बढ़कर है | श्रम के प्रति मेरे अटूट विश्वास ने ही मुझे भाग्यवादी नहीं बनाया हैं | हाँ, जब देखता हूँ कि इस संसार में ऐसे भी अनेक लोग हैं जो श्रम के प्रति उदासीन होते हुए भी सफलताएँ अर्जित कर रहे है तो मन को बड़ी तकलीफ होती है | तब श्रम पर से मेरी आस्था हिल जाती है और मैं न चाहते हुए भी प्रारब्ध, भाग्य, नियति ,कर्मों का फल, पूर्वजन्म के संस्कार आदि जैसी बातों पर विश्वास करने लग जाता हूँ | इसे आप मेरे मन की कमजोरी कह सकते हैं, अगर सच्चाई यही है | ‘कश्मीरी भाषा और साहित्य’ पुस्तक लिखते समय, कश्मीरी रामायण ‘रामावतारचरित’ का सानुवाद लिप्यन्तरण करते समय, कश्मीरी की श्रेष्ठ कहानियों का अनुवाद करते समय, केन्द्रीय सहित्य अकादमी के अंग्रेजी प्रकाशनों ‘ललद्दद’ और ‘हब्बाखातून’ का हिन्दी में अनुवाद करते समय, महजूर की कविताओं को हिन्दी में रूपांतरित करते समय या फिर भरतीय ज्ञानपीठ के लिए कश्मीरी का प्रतिनिधि संकलन तैयार करते समय, मैंने सच में, अपनी आँखों का रक्त पृष्ठों पर उतारा है | मन-मस्तिष्क के एक-एक तंतु को कठोर परिश्रम की यातना से गुजारा है, तब जाकर कहीं सृजन की पीड़ा झेलकर ये पुस्तकें सामने आ सकी हैं | ‘ललद्दद’ के अंग्रेजी से हिन्दी में किए गये अनुवाद को मैं अपनी मेहनत का अनूठा प्रसाद मानता हूँ | जिसने भी उसे पढ़ा, विभोर हो गया | एक समीक्षक ने तो यहाँ तक लिख दिया – “अनुवाद गजब का है | भाषा-शैली पुष्ट एन प्रांजल I हिन्दी के पाठकों के लिए इस दुर्लभ सामग्री को सुलभ करा कर रैणा जी बड़ा पुनीत एवं सार्थक कार्य किया है |.... यह पुस्तक इतिहासविदों, साधकों एवं साहित्यकारों के लिए समान रूप से उपयोगी है | “(प्रकर, दिसंबर, १९८१) ऐसा ही कुछ परम आदरणीय श्री विष्णु प्रभाकर जी ने मेरी अनुवादित/ सम्पादित पुस्तक ‘कश्मीर की श्रेष्ठ कहानियाँ’ (राजपाल एंड संज, दिल्ली) के बारे में लिखा-“कश्मीर की श्रेष्ठ कहानियाँ, की अधिकांश रचनाएँ पढ़ गया | कश्मीरी जीवन को नाना रूपों में रूपायित करती ये कहानियाँ बहुत सुन्दर हैं | सबसे अच्छी बात तो यह है कि ये अनुवाद लगती ही नहीं | मूल भावना भी उतनी ही सुरक्षित रह सकी है ..... मेरी हार्दिक बधाई लें |”

मेरी रचना-यात्रा के साक्षियों में मेरे गुरुजन, सुरुचि-संपन्न मित्र तथा वे सब हितैषी शामिल हैं जिन्होंने सच्चे मन से मेरी साहित्यिक उपलब्धियों पर प्रसन्नता व्यक्त की है | गुरुदेव डॉ. हरिहरप्रसाद गुप्त ने अपने एक पत्र में मुझे इलाहाबाद से लिखा था – “तुम्हारी उपलब्धियों पर मुझे गर्व है | शिष्य द्वारा गुरु को परास्त होते देख अपूर्व आनंद की प्राप्ति हो रही है – आगे बढ़ो और यशस्वी बनो.....|” मेरी जीवन-संगिनी हंसा का भी इस यात्रा में कम योगदान नहीं रहा है | हमारी शादी १४ जून, १९६७ को कश्मीर में हुई | एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में जन्मी मेरी धर्मपत्नी के दादाजी श्री हरभट्ट शास्त्री अपने समय के जाने माने कर्मकांडी, शैवाचार्य तथा संस्कृत के पंडित थे | अपने दादाजी से प्राप्त संस्कारों को अपने व्यक्तित्व में साकार करते हुए मेरी श्रीमती ने मेरे लेखन को मन ही मन आदर की दृष्टि से देखा है | स्वयं साहित्य की प्राध्यापिका होने की वजह से इस सारे कार्य की गुणवत्ता और महत्ता का उसे पूरा अंदाज है | कई-कई बार प्रेस में जाने से पहले मेरी रचनाएँ उसने पढ़ी हैं और बहुमूल्य सुझाव भी दिए हैं | हाँ, मेरी पुस्तकों/फाइलों/कागजों की अस्तव्यस्तता से वह तंग अवश्य हुई है और यही साहित्य के मामले में हमारे बीच छोटी-मोटी टकराहट का मुख्य मुददा रहा है | वह पुस्तकों को करीने से सजाने के पक्ष में रही है और मैं उन्हें ‘घोटने’ के पक्ष में | अध्-खुली किताबें, बेतरतीबी से बिखरे कागज, टेबिल के दाएं-बाएँ किताबों के छोटे-मोटे ढेर और उनके बीच में मैं | सच, मुझे यह सब बहुत अच्छा लगता है | कोई कागज या पत्र कहीं इधर-उधर चला जाए, फाइल कहीं दब जाए, किताब रैक में मिले नहीं- मुझे जाने क्यों उसे ढूँढ निकलने में बड़ा आनंद आता है |

मेरा साहित्यिक अवदान मुख्य रूप से एक अनुवादक के रूप में अधिक है | इसी लिए कई विज्ञ-साथियों ने मेरी साहित्य-सेवा को ‘सेतुकरण’ की संज्ञा दी है | १९९० में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने लखनऊ में मुझे ‘सौहादर्य-सम्मान’ से अलंकृत करते हुए प्रशस्ति पत्र में कुछ ऐसा ही कहा था – “डॉ. शिबनकृष्ण रैणा कश्मीर और हिन्दी भाषियों के बीच एक लक्ष्य प्रतिष्ठित साहित्यप्रेमी, अनुवादक और लेखक के रूप में जाने जाते है |... हिन्दी भाषियों को कश्मीरी साहित्य की ऊचाइयों से परिचित करने के लिए आपने असाधारण मेहनत की और उसकी अनेक रचनाएँ आज उन्हीं की सक्रियता से हिन्दी में उपलक्ष्य हैं | उनकी उल्लेखनीय, विशिष्ट और दीर्घकालीन हिन्दी सेवा और कश्मीरी जैसी आत्मीय भारतीय भाषा को राष्ट्रभाषियों के बीच पहुँचाने में अतुलनीय योगदान के लिए उत्तर-प्रदेश हिन्दी संस्थान उन्हें सौहार्द-सम्मान से सम्मानित करते हुए दस हजार रूपए की धनराशि भेंट करता हैं | यही बात 1983 में ताम्रपत्र प्रदान करते हुए बिहार सरकार के राजभाषा विभाग ने मेरे साहित्यिक अवदान के बारे में कही थी |२०१४ में भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने मुझे सीनियर फ़ेलोशिप(हिंदी) पदान की और २०१५ में भारत सरकार के विधि और न्याय मंत्रालय ने मुझे अपनी ‘हिंदी सलाहकार समिति’ का गैर-सरकारी सदस्य मनोनीत किया I केन्द्रीय हिंदी निदेशालय कि कई समितियों आदि में भी मुझे काम करने का सुअवसर मिला हैI

मैंने अनुवाद को हमेशा मूल के बराबर का ही प्रयास माना है | यह मौलिक सृजन से भी बढकर कष्टसाध्य कार्य है | अपनी पुस्तक ‘कश्मीरी की प्रतिनिधि कहानियाँ ‘(देवदार प्रकाशन, दिल्ली) में ‘ पूर्व-निवेदन’ के अंतर्गत मैंने इसी बात को रेखांकित करते हुए लिखा है – “अनुवाद मौलिक-सृजन से भी बढ़कर एक दुष्कर कार्य है | यह काम इतना जटिल, श्रमसाध्य और विरस है कि इससे होने वाली कोफ्त (यातना) का अंदाज वही लगा सकते हैं जिन्होंने अनुवाद का कार्य किया हो |........ अनुवाद तो, एक तरह से, योगी का परकाया प्रवेश है | वह पुनर्जन्म है, रचना का पुनर्सृजन ! वह द्वितीय श्रेणी का लेखन नहीं, मूल के बराबर का ही प्रयास है | सुन्दर, प्रभावशाली तथा पठनीय अनुवाद के लिए यह आवश्यक है कि अनुवाद भाषा-प्रवाह को कायम रखने के लिए, स्थानीय विम्बों तथा अन्य रूठ-प्रयोगों को बोधगम्य बनाने और वर्ण्य-विषय को अधिक ह्रदय-ग्राही बनाने के लिए मूल रचना में आये में नामक समान फेर-बदल कर वह ऐसा लम्बे-लम्बे वाक्यों को तोड़कर, उनमें संगति बिठाने के लिए उपनी ओर से दो-एक शब्द जोड़कर तथा अर्थ के बदले आशय पर ध्यान देकर, कर सकता है | इस संकलन की कहानियों का अनुवाद करते समय मैंने यही किया है | ऐसा न करता तो अनुवाद ‘अनुवाद’ न होकर ‘सरलार्थ’ बन जाता | मैंने प्रयत्न किया है कि प्रत्येक अनुवादित रचना अपने आप में एक ‘रचना’ का दर्जा प्राप्त करे......|”

पूर्व में कहा जा चुका है कि अनुवाद पिछले लगभग तीस-पैंतीस वर्षों से मेरी रुचि का विषय रहा है। अध्यापन-कार्य के साथ-साथ कश्मीरी, अंग्रेज़, उर्दू आदि भाषाओं से मैंने अनुवाद का काम खूब किया है। चूँकि मेरा कार्य अपनी तरह का पहला कार्य था, इसलिए साहित्य, विशेषकर अनुवाद के क्षेत्र में मुझे प्रतिष्ठा भी यथोचित प्राप्त हुई। अनुवाद-कार्य के दौरन मुझे लगा कि अनुवाद-विधा मौलिक लेखन से भी ज़्याद दुष्कर एवं श्रमसाध्य विधा है। (मैंने कुछ मौलिक कहानियाँ, नाटक आदि भी लिखे हैं) अनुवाद सम्बन्धी अपनी दीर्घकालीन सृजनयात्रा के दौरान मेरा वास्ता कई तरह की कठिनाइयों/समस्याओं से पड़ा जिनसे प्राय: हर अच्छे अनुवादक को जूझना पड़ता है। इन कठिनाइयों एवं समस्याओं के कई आयाम हैं जिन्हें इस प्रबन्ध मे6 यथास्थान‘भाषातत’ एवं ‘अर्थगत’ शीर्षकों के अंतर्गत विस्तार से समझाया गया है।
अनुवाद कार्य के दौरान मुझे लगा कि अपने अनुभवों को साक्षी बनाकर मुझे ऐसी कोई परियोजना हाथ में ले लेनी चाहिए जिसमें अनुवाद के सैद्धांतिक पक्षों की सम्यक् विवेचना हो तथा अनुवादकार्य में आने वाली कठिनाइयों/समस्याओं का विवेचन कर उनके निदान आदि पर भी सार्थक विचार हो। 1997 के प्रारम्भ में मैंने गम्भीरतापूर्वक इस परियोजना के प्रारूप पर विचार करना शुरू किया तथा इसी वर्ष के अंत में विधिवत इस परियोजना को आवश्यक पत्र/प्रपत्रों के साथ ‘भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान’ शिमला को विचारार्थ भिजवा दिया। सभी भारतीय भाषाओं का ज्ञान चूँकि मुझे नहीं था, इसलिए मैंने विषय सीमित कर परियोजना का शीर्षक रखा ‘भारतीय भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद की समस्याएँ: एक तुलनात्मक अध्ययन, कश्मीरी-हिन्दी के विशेष सन्दर्भ में’। एक मई 1999 को मैंने संस्थान में प्रवेश किया। एक नये, सुखद एवं पूर्णतया शांत/अकादमिक वातावरण में कार्य करने का यह मेरा पहला अवसर था जिसकी अनुभूति अपने आप में अद्भुत थी। लगभग ढाई वर्षों की अवधि में मैंने यह कार्य पूरा किया जिसका मुझे परम संतोष है।मेरा यह शोधकार्य संस्थान से प्रकाशित हो चुका हैI

मित्रों का कई बार आग्रह रहा कि मुझे अनुवाद के अलावा कुछ मौलिक भी लखना चाहिए | यह बात शायद वे इस लिए कह रहे थे कि मेरी कारयित्री प्रतिभा में कितनी ऊर्जा और दम है,वे यह देखना चाहते थे| यों, कश्मीरी भाषा, साहित्य, कला,संस्कृति आदि पर मैंने बीसियों शोधपरक/समीक्षात्मक लेख लिखे होंगे जो समय-समय पर देश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं, यथा-‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘सन्मार्ग’(कलकत्ता), ‘जनसत्ता’, ‘परिषद् पत्रिका’, (पटना), ‘शीराज़ा’’, आजकल’, आदि में छपे हैं | पर शायद यह मौलिक लेखन न था | मित्र चाहते थे कि मैं भी कहानियाँ /कविताएँ/ कविताएँ/ नाटक लिखूँ और मात्र ‘अनुवादक’ बन के न रह जाऊँ | मैंने चुनौती स्वीकार कर ली | भीतर मन में छटपटाहट तो थी ही, रचना की भाषा से भी मैंने साक्षात्कार कर लिया था और फिर साहित्य-शास्त्र का अध्येता/प्राध्यापक होने के कारण रचना की सृजन- प्रक्रिया के मूल एवं आवश्यक तत्वों की जानकारी भी मुझे थी | मैंने कहानी लिखने का प्रयास किया | ‘शतरंज का खेल’, ‘मोहपाश’, ‘अन्तराल’, ‘रिश्ते’, आदि मेरी ऐसी स्वरचित कहानियाँ हैं जिन्होंने मुझे और मेरे मित्रों को आश्वस्त कर दिया कि मौलिक सृजन करने की मेरी संभावनाएँ कम नही हैं | ये सभी कहानियाँ आकाशवाणी के जयपुर केंद्र से प्रसारित हो चुकी हैं तथा कुछेक तो ‘जनसत्ता’ ‘राजस्थान पत्रिका’,’शीराज़ा’ आदि में छपी हैं | पाठकों ने इन कहानियों को खूब सराहा | आकाशवाणी जयपुर केंद्र के लिए लिखे मेरे नाटक ‘हब्बाखातून’, ‘प्रे'म और प्रतिशोध,’ खानखानां रहीम’ आदि भी कम लोकप्रिय सिद्ध न हुए | ‘हब्बाखातून’ लिखने और उसके प्रसारित होने के बाद मुझे खुद लगा कि मै अच्छे संवाद लिख सकता हूँ | जिन्होंने भी इस नाटक को सुना, मुझे बधाई दी | मेरी स्वरचित कहानियों का एक संग्रह “मौन संभाषण तथा अन्य कहानियां’ राजस्थान साहित्य अकादमी के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित हो चुका हैI “दिनन के फेर” से एक नाटक-संकलन भी प्रकाशित हुआ हैI 

साहित्य सेवाओं के लिए मुझे केन्द्रीय हिन्दी विदेशालय (भारत सरकार), राजभाषा विभाग (पटना), उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, सिंध राष्ट्रभाषा प्रचार समिति(जयपुर), भारतीय साहित्य संगम (दिल्ली), राष्ट्रभाषा प्रचार समित, श्रीडूंगरगढ (बीकानेर),भारतीय अनुवाद परिषद्,दिल्ली आदि संस्थाओं ने ताम्रपत्रों, प्रशस्तिपत्रों तथा अभिनन्दन-पत्रों आदि से समय-समय पर सम्मानित किया है | दो-एक संस्थाओं ने ‘साहित्यश्री’ तथा ‘साहित्य-वागीश’ जैसी मानद उपाधियाँ भी प्रदान की हैं | सम्मान-प्राप्ति के इन हर्ष-दायक अवसरों के पीछे मेरे मन में अपूर्व आनंद का भाव अवश्य व्याप्त रहा है | दरअसल, सम्मान/पुरुस्कार जड़ता (शैथिल्य) को मिटाता है, मन में नव्य कर्मोत्साह का उदय/संचार करता है | यों सम्मान या पुरस्कार लेखक के लिए साध्य नहीं होते और होने भी नही चाहिए | उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के ‘सौहार्द्र सम्मान’ की सूचना मेरी श्रीमतीजी ने मुझे अल-सुबह स्थानीय दैनिक पढ़कर दी थीI तब मैं शायद सो ही रहा था |

कई साहित्यिक गोष्ठियों एवं सम्मेलनों में भाग लेने के लिए मैंने पिछले चार दशकों में देश के दूरस्थ अंचलों/स्थानों यथा, इम्फाल, वस्कोड़े-गामा, जगन्नाथपुरी, एर्नाकुलम, मद्रास, पयनूर, कटक, बैंगलूर, गुवहाटी, शिलांग, पटना, लखनऊ, उदयपुर, कन्याकुमारी, जलपाई गुडी,शांति-निकेतन.अमृतसर,हरिद्वार आदि जाने कितनी जगहों की यात्राएँ की है | इन यात्राओं से मेरा दृष्टिकोण व्यापक और चिन्तन पुष्ट हुआ है | इसी के साथ अपने देश की वैविध्यपूर्ण संस्कृति और देशवासियों के स्वभाव को भी निकट से दिखने का अवसर मिला है |



स्वर्गीय प्रभाकर माचवे जी ने बहुत पहले मुझे एक पत्र लिखा थे – ‘आप सशक्त लेखनी और उद्यमशील शोध-बुद्धि के मेधावी स्कालर हैं | आप अवश्य कश्मीरी के लिए हिन्दी में बहुत अच्छा कम करेंगे...| माचवे जी की ये पंक्तियाँ मुझे याद दिलाती हैं कि मुझे कश्मीरी के लिए बहुत अच्छा कम करने के अपने प्रयास में कमजोरी नहीं लानी है | आयु के बढ़ने के साथ-साथ घर-परिवार तथा अंदर-बाहर की जिम्मेदारियाँ भी बढती जाती है और लेखन के लिए समय निकाल पाना मुश्किल हो जाता है | फिर भी अपने जीवट पर मुझे विश्वास है | दो कार्य मेरे सामने हैं : - कश्मीरी संत कवि शेख्नूरुद्दीन वली के श्रुवों (पदों) का सानुवाद देवनागरी में लिप्यन्तरण तथा ‘कश्मीरी कहावत-मुहावरा कोश’ का प्रकाशन |