Tuesday, July 5, 2016



“कश्यप भूमि” के समाज-सेवी : कश्यप बन्धु

डा0 शिबन कृष्ण रैणा

मान्यता है कि कश्यप ऋषि द्वारा बसाये जाने के कारण इस भूभाग का नाम कश्मीर पड़ा. अपनी अनुपम प्राकृतिक सुन्दरता के लिए विख्यात शारदापीठ कश्मीर ने समय-समय पर सूफी साधकों,कलावंतों,पुण्यात्माओं,विद्याव्यसनियों आदि के अलावा जिन सामाजिक कार्यकर्त्ताओं एवं उच्च कोटि की राजनीतिक सोच रखने वाले महानुभावों को जन्म दिया है, उनमें कश्यप बन्धु का नाम बडे़ गर्व एवं आदर के साथ गिनाया जा सकता है। कश्मीरी समाज को एक सार्थक एवं प्रयोजनकारी दिशा देने वाले इस प्रबुद्ध विचारक, निःस्वार्थ समाजसेवी एवं कवि-हृदय रखने वाले युगदृष्टा के योगदान को चिरकाल तक याद रखा जाएगा। उदारवादी दृष्टि, प्रगतिशील विचारधारा एवं समाज की हितचिंता के लिए तत्पर रहने वाले कश्यप बन्धु का योगदान कश्मीरी जनमानस एवं अस्मिता का एक ऐसा बहुमूल्य अध्याय है जो नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत तो है ही, पुरानी पीढ़ी के लिए भी गर्व का विषय है।

बहुत कम लोग जानते होंगे कि कश्यप बन्धु का वास्तविक नाम ताराचंद था। वे गीरु (नूरपोरा) में ठाकुर बठ के घर 24 मार्च, 1899 को पैदा हुए। यह वह समय था जब कश्मीर पर महाराजा प्रतापसिंह की हुकूमत का आखिरी दौर चल रहा था।

ताराचंद कश्यप बन्धु कैसे कहलाए? यह घटना जितनी ऐतिहासिक है उतनी ही महत्त्वपूर्ण भी। ताराचंद का प्रांरभिक जीवन अत्यन्त गरीबी में बीता। 1919 में बड़ी मुश्किल से आर्थिक विषमताओं के बावजूद उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली और नौकरी की तलाश शुरू की। इस बीच वे ‘बुलबल’ उपनाम से कविता भी करने लगे। अपने दिल का दर्द, ग़़म और गुस्सा तथा सामाजिक बदलाव की भावनाओं को वे कविता में कहने लगे। काफी प्रयत्नों के बाद उन्हें राजस्व विभाग में एक छोटी-मोटी नौकरी भी मिल गई जो उन्हें रास न आई। कश्मीर छोड़कर वे लाहौर चले गये और लाहौर को उन्होंने अपना कर्मस्थल बनाया। लाहौर उन दिनों आर्य समाज, ब्रह्मसमाज तथा अन्य राजनीतिक एवं धार्मिक आंदोलनों का प्रमुख केन्द्र बना हुआ था। ताराचंद को आर्यसमाज की विचारधारा ने बेहद प्रभावित किया और उन्होंने लाहौर में स्थित विरजानंद आश्रम में प्रवेश ले लिया। प्रवेश के दिन से ही उन्होंने मांस न खाने की शपथ ले ली और जीवन भर शाकाहारी बने रहे। उन दिनों विरजानंद आश्रम के प्राचार्य विश्वबन्धु जी हुआ करते थे। वे ताराचंद की योग्यता, लगन, परिश्रम एंव मानवप्रेम की भावनाओं को देख बहुत प्रभवित हुए और उन्हीं ने ताराचंद ‘बुलबुल’ को ‘कश्यप बन्धु’ नाम दिया और कश्मीरी समाज की सेवा करने की प्रेरणा दी। कश्मीरी के प्रसिद्ध विद्वान् एवं कवि अर्जुन देव मजबूर की कश्यप बन्धु जी से खासी निकटता रही है। अपने एक लेख में श्री मजबूर ने कश्यप बन्धु के व्यक्तित्व और कृतित्व के सम्बन्ध में बड़ी ही महत्वपूर्ण जानकारियाँ दी हैं। वे लिखते हैं - कश्मीरी समाज में व्याप्त बुरे रीति-रिवाजों के खिलाफ़ कश्यप बन्धु ने सोशल रिर्फाम की ज़़बरदस्त तहरीक़ शुरू की। विधवा-विवाह पर रोक, सामाजिक रीति-रिवाजों खास तौर पर विवाह आदि अवसरों पर फिज़ूलखर्ची आदि के विरुद्ध कश्यप बन्धु ने ‘मार्तंड’ और ‘केसरी’ अखबारों में लेख लिखकर इन सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध आवाज़ उठाई। चुनांचे उस ज़माने में सोशल रिफार्म के हक़ में लिखे गए कश्मीरी गीत (वनवुन) आज तक कश्मीरी महिलाओं को याद हैं। कुछ पंक्तयाँ देखिएः-

“त्रावि जू़ज, पूच़ नेरि वोडननिए
छु मुबारक दोति माहरेनिये...
छ़अनी सूठ बूठ, पकी बअन्य बअन्ये
छू मुबारक दोति महारेनिये....”


पुराना पहनावा छोड दे, उघडे सिर चलना
अब तू सीख ले,
धोती (साडी) वाली दुल्हिन री, तुझे हो मुबारिक!
सूट-बूट पहन ले तू
आगे बढ़ना सीख ले तू,
धोती (साड़ी) वाली दुल्हिन री,तुझे हो मुबारक!

कश्यप बन्धु के इस सुधारवादी आंदोलन का तत्कालीन जनता ने ख़ूब स्वागत किया। विधवाओं की शादियाँ हुईं। कश्मीरी पंडित लड़कियाँ घर की चार-दीवारियों से निकलकर स्कूल-कालेज जाने लगीं, सामाजिक रीतियों एवं प्रथाओं पर अपव्यय करने की प्रवृत्ति पर रोक लग गई आदि। ‘सोशल रिफार्म’ के नारे घर-घर गूंजने लगे और इस तरह कश्मीरी समाज बदलवा की ओर अग्रसर हुआ।

कश्यप बन्धु का राजनीतिक जीवन भी कम प्रशंसनीय नहीं रहा। नेतृत्व शक्ति, आत्मसम्मान, आत्मबल आदि भावनाएं उनके व्यक्तित्व में कूट-कूट कर भरी हुई थी, जिनका दिग्दर्शन उनके बाल्यकाल में ही हो जाता है। हिन्दी की कहावत ‘‘होनहार विरवां के होत चीकने पात’ उनके व्यक्तित्व पर पूरी तरह चरितार्थ होती है। श्री अर्जुनदेव मजबूर को कश्यप बन्धु द्वारा सुनाई गई वह घटना यहाँ पर उदधृत करना अनुचित न होगा जिसमें इस स्वाभिमानी बालक के दबंग व्यक्तित्व का सहसा परिचय मिलता है- ‘‘उन दिनों गवर्नमेंट हाई स्कूल, श्रीनगर में पंजाबी छात्र भी पढ़ते थे। कक्षा में वे आगे वाली सीटों पर बैठते और तब तक वे सीटें खाली रहतीं जब तक कि वे पंजाबी छात्र कक्षा में प्रवेश न करते। कश्मीरी छात्र यद्यपि समय से पूर्व ही कक्षा में आ जाते किन्तु उन्हें उन सीटों पर बैठने की इजाज़़त नहीं होती़ थी। इस बात ने ताराचंद के कोमल हृदय को आंदोलित किया और उसने इस नाइन्साफी के विरुद्ध छात्रों को एकत्र किया और बाकायदा एक आंदोलन छेड़़ दिया। बात प्रधानाध्यापक, शिक्षा अधिकारी आदि से होते हुए महाराजा तक पहुंच गई। एक बार तो ताराचंद ने महाराजा की गाड़़ी के सामने ही अपने आप को लिटा दिया...। आंदोलन की गंभीरता को देखते हुए अन्ततः विभाग ने छात्रों की मांग मान ली और आंदोलन समाप्त हो गया। ताराचंद की यह पहली राजनीतिक विजय थी और इस सिलसिले को उन्होंने जारी रखा---।

पूर्व में कहा जा चुका है कि लाहौर में अपने प्रवास के दौरान कश्यप बन्धु वहां की सामाजिक एवं राजनीतिक गतिविधियों से सक्रिय रूप से जुड़े रहे। लाहौर प्रवास के दौरान ही वे वहाँ रह रहे कश्मीरी मजदूरों की बदहाली को देखकर क्षुब्ध हो उठे। उन्होंने मज़दूरों को उनके अधिकार दिलाने व उन्हें सम्मान के साथ जीने की प्रेरणा देने के लिए एक ‘मज़दूर बोर्ड’ का गठन किया जिसके वे सचिव बने। इस बोर्ड को और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए वे प्रसिद्ध विचारक एवं शायर डा० इकबाल से भी सुझाव लेते रहे। इस बोर्ड के बारे मे लाहौर तथा देश के दूसरे समाचार पत्रों में ख़़बरें छपने लगीं और बोर्ड का एक ज़ोरदार अधिवेशन लुधियाना में आयोजित हुआ जिसमें मोतीलाल नेहरू ने कश्मीरियों के बारे में बड़़ा ही ओजस्वी भाषण दिया। इसी बोर्ड के मंच से ‘कश्मीर कश्मीरियों के लिए’ नारा पहली बार बुलंद हुआ। अपने लाहौर प्रवास के दौरान ही कश्यप बन्धु भगतसिंह की इन्कलाबी पार्टी में शामिल हो गए और सांडर्स केस के सिलसिले में उन्हें जेल भी हो गई। लाहौर में ही कश्यप बन्धु पत्रकारिता के क्षेत्र से जुड गए तथा ‘अख़बारे आम’, ‘बहारे कश्मीर’, ‘अख़बार-कश्मीरी’ आदि के संपादन मंडल में काम किया।

समय के साथ-साथ कश्यप बन्धु के बहुमुखी व्यक्तित्व ने एक नई करवट ली। अर्जुनदेव मजबूर अपने लेख में लिखते हैं ‘‘बीसवीं शती का तीसरा दशक कश्मीर के राजनीतिक इतिहास में विशेष महत्व रखता है। कश्मीर में एक तरफ मुस्लिम कांग्रेस की बुनियाद पड़ी और दूसरी तरफ यहाँ के कश्मीरी पंडितों ने सरकारी नौकरियों में भेदभाव तथा अन्य सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध लड़ने का बीड़ा उठाया। कश्यप बन्धु कश्मीर के हालात पर नज़र रखे हुए थे। चुनांचे प्रेमनाथ बज़ाज, शिवनारायण फोतेदार, जियालाल किलम, दामोदर भठ (हांजूरा) आदि कश्मीरी पंडित नेताओं ने कश्यप बन्धु को लाहौर से श्रीनगर आने का अनुरोध किया। कश्मीर आने से पूर्व कश्यप बन्धु की शादी एडवोकेट विष्णुदत्त की बेटी बिमला से लाहौर में ही आर्यसमाजी ढंग से बिल्कुल सादे तरीके से हो गई थी। कश्यप बन्धु के श्रीनगर लौटने पर ‘युवक सभा’ का गठन हुआ और सभा की गतिविधियों में कश्मीरी -पंडित नौजवानों से बढ़चढ़ कर हिस्सा लेना शुरू किया। शीतलनाथ, श्रीनगर इस सभा की गतिविधियों का केन्द्र बना। यह स्थान पहले जोगीबाग कहलाता था क्योंकि यहाँ पर बाहर से आने वाले जोगी, संन्यासी आदि ठहरते थे। अमरनाथ-यात्रा पर रवाना होने वाली ‘छड़ी मुबारिक’ भी पहले इसी जगह से रवाना होती थी।--- 1931 में कश्यप बन्धु कश्मीर के राजनीतिक और सामाजिक आकाश में पूरी चमक-दमक के साथ भास्वरित हो गए। पहली फरवरी, 1931 को ‘मार्तड’ शीर्षक से एक अख़़बार प्रकाशित हुआ जो युवकसभा का मुखपत्र था और इसके प्रथम संपादक होने का श्रेय कश्यप बन्धु को मिला।यह अख़बार पूरे उत्तरी भारत में बड़़ा ही लोकप्रिय हुआ। 1931 से लेकर 1969 तक यह अखबार बराबर प्रकाशित होता रहा। कश्यप बन्धु के सतत प्रयासों से इस अखबार ने कश्मीर के पत्रकारिता के इतिहास में नया कीर्तिमान स्थापित किया। कश्यप बन्धु के संपादकत्व में जो कश्मीरी लेखक ‘मार्तंड’ में बराबर छपते रहे, उनमें प्रमुख हैं- प्रेमनाथ परदेसी, मास्टर जिन्दा कौल, दीनानाथ नादिम, हज़रत महजूर कश्मीरी, अर्जुनदेव मजबूर, श्यामलाल वली, तीर्थ कश्मीरी, प्रो0 नंदलाल कौल तालिब, दीनानाथ अलमस्त कश्मीरी आदि।

अत्याचार के खि़लाफ़ आवाज़ उठाने वाले कश्यप बन्धु कई बार जेल गए। पूर्व में कहा जा चुका है कि सांडर्स हत्या केस के सिलसिले में वे लाहौर में गिरफ्तार हुए और बाद में छोड़़ दिए गए। इसी प्रकार रोटी एजिटेशन के सिलसिले में 1933-34 में जेल भेज दिए गय और बाद में छोड़ दिए गए। 1932 में कश्यप बन्धु शेख साहब से, जो उन दिनों जम्मू व कश्मीर मुस्लिम कांफ्रेस के अध्यक्ष थे, मिले। इस मुलाक़ात का उद्देश्य हिन्दुओं और मुस्लमानों का एक संयुक्त मंच तैयार करना था ताकि सभी समस्याओं का हल निकालने के लिए एक ज़ोरदार आंदोलन चलाया जाए तथा एक उत्तरदायित्वपूर्ण सरकार का गठन करने हेतु प्रक्रिया शुरू की जाए। अगस्त 1938 में ‘नेशनल डिमांड’ (कौमी मांग) का प्रवर्तन हुआ।..... युवक सभा के स्टेज पर बन्धु जी ने जब यह कहा कि हरिसिंह को अपनी फ़ौज जमा करने में एक दिन लगेगा तो मुझे अपनी फ़ौज इकट्ठा करने में घंटा-भर ही लगेगा, तो अगले ही दिन उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। अर्जुनदेव मजबूर के शब्दों में- ‘‘नेशनल डिमाण्ड’ ने फौरन एक ज़ोरदार तहरीक का रूप अखि़्तयार कर लिया। मैं खु़द उन दिनों श्रीनगर में ज़ेर-तालीम था। मुजाहिद मंजिल से लेकर अमीरा कदल तक जाने वाले जुलूस को मैं ने अपनी आँखों से देखा। इसमें सभी फि़रकों के लोग शामिल हुए थे और सभी का एक ही नारा था- ‘जि़म्मादाराना हकूमत जिन्दाबाद!’ लोग झूम-झूम कर बिस्मिल का यह शेर गाते जा रहे थे- ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-कातिल में है-‘-। इस तहरीक के सिलसिले में शेख़ साहब, मौलाना मसूदी, मिर्जा अफ़ज़ल बेग, बख़्शी गुलाम मुहम्मद, कश्यप बन्धु, जियालाल किलम, प्रेमनाथ बज़ाज़, शम्भुनाथ पेंशन और सरदार बुद्धसिंह को हिरासत में लिया गया--- सन् 1946 में ‘कुइट कश्मीर’ का नारा बुलंद हुआ और यह नारा एक ज़बर्दस्त तहरीक की वजह बना। कई रहन्नुमा गिरफ़्तार हए.... कश्यप बन्धु ने भी कई तकरीरें की़ और उन्हें गिरफ़्तार करके कठुआ की जेल में नज़रबन्द किया गया। 1947 में गाँधी जी और दूसरे कौमी लीडरों के दबाव की वजह से शेख साहब और बन्धु जी के अलावा दूसरे रहन्नुमाओं को भी रिहा कर दिया गया। कश्यप बन्धु 1931 से लेकर 1961 तक आठ साल तक कैद में रहे। शेख साहब के साथ वे भद्रवाह, रियासी और उधमपुर की जेलों में नज़रबंद रहे।

1947 में जब शेख मुहम्मद अब्दुल्ला प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो कश्यप बन्धु को ‘देहात सुधार’ का डायरेक्टर जनरल बना दिया गया। 9 अगस्त, 1953 में बन्धु जी शेख साहब के साथ गिरफ्तार कर लिये गये। बाद में बख़्शी साहब ने उन्हें अपने ग्रुप के साथ मिलाना चाहा किन्तु उन्होंने उनकी सारी पेशकशें ठुकरा दीं। 1964 में सादिक साहब की सरकार में वे सोनावारी ब्लाक के प्रोजेक्टर आफिसर बनाए गए। 1974 में जब शेख साहब दुबारा सत्ता में आए और कश्यप बन्धु को हाथ बंटाने को कहा तो बन्धु जी ने कहा कि अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ।

जीवन के आखिरी दिन कश्यप बन्धु ने अपने घर (गीरु) में ही बिताए जहां वे अक्सर किताबों का अध्ययन करते या फिर कुछ लिखते रहते। उनके बारे में प्रसिद्ध है कि जो भी उन्हें पत्र लिखता, उसका वे जवाब ज़रूर देते। श्रीनगर अब वे बहुत कम जाते। उनसे मिलने उनके मित्र और आम जन उनके घर पर ही आते। शेख़ साहब, उनकी बेगम, डा० फारूक अब्दुल्ला, गुलाम मोहम्मद शाह, मिर्ज़ा अफ़जल बेग आदि उनसे मिलने उनके घर कई बार गए। कश्यप बन्धु सबसे बडी आत्मीयता से मिलते।

महापुरुष जब इस दुनिया को अलविदा कहने वाले होते हैं तो प्रकृति भी उनके अभाव की पीड़़ा को भाँप जाती है। 18 दिसम्बर, 1985 को कश्यप बन्धु रोज़ की तरह अपने लिखने-पढ़ने के कार्य में व्यस्त थे। तभी एक व्यक्ति ने आकर सूचना दी कि गायें आज घास नहीं खा रहीं हैं, जाने उन्हें क्या हो गया हे ? इस पर बन्धु जी ने जवाब दिया- वे आज घास नहीं खाएंगी। सम्भवतः कहना वे यह छह रहे थे कि आज उनका मालिक आखि़री सफ़र पर रवाना होने वाले है और इसी रोज़ शाम के करीब आठ बजे कश्यप बन्धु की आत्मा परमात्मा में विलीन हो गई।

कश्यप बन्धु कश्मीर की सांझी संस्कृति के अग्रदूत, प्रगतिशील विचारों के पक्षधर तथा कश्मीरी पंडित-समुदाय के ऐसे जननायक थे जिनके जीवन की एक-एक घटना अपने आप में एक इतिहास है, एक दस्तावेज़़ है।

2/537 अरावली विहार,
अलवर 301001







दुबई में गुलमर्ग


सामान्यतया दुबई का तापमान गर्मी के मौसम में भारत के मैदानी इलाकों की तरह ही प्रायः 40 डिग्री के आस-पास रहता है। अधिकतम तापमान 48.5 (27 जुलाई 2012 को) रिकॉर्ड किया गया था। यहाँ बिजली कभी गुल नहीं होती, इसलिए अक्सर सभी घर, अपार्टमेंट, बड़े-बड़े भवन, मॉल, दुकानें, होटल आदि वातानुकूलित हैं। गर्मी तब महसूस होती है जब आप सड़क पर पैदल चलते हैं। वैसे, पैदल चलता कोई नहीं है। लगभग सभी के पास (मजदूरों/कामगारों को छोड़) वातानुकूलित कारें और आधुनिक सुविधाओं से लैस विदेशी गाड़ियाँ हैं। दिन में दुकानें अक्सर बंद रहती हैं, केवल सुबह-शाम खुलती हैं। शाम से लेकर देर रात तक दुकानों, मॉलों, होटलों में अच्छी-खासी गहमा-गहमा रहती है।

तपते रेगिस्तान की प्रचंड गर्मी को चुनौती देता एक दर्शनीय स्थान है यहाँ ‘स्की-दुबई’ जिसे देख हिमाचल के कुल्लू-मनाली और कश्मीर के गुलमर्ग की याद ताज़ा हो आती है। ठंडी-ठंडी बर्फानी हवाएं, हिम-मानव, रोप-वे, फिसलन-पट्टियाँ आदि देख-देखकर रोमांच तो होता ही है, जिन कलाकारों/इंजीनियरों ने इसे बनाया उनके अद्भुत कला-कौशल की प्रशंसा किए बिना नहीं रहा जाता। 22500 वर्गमीटर तक फैला, हिम से सना, यह स्की दुबई इतना बड़ा है कि इसमें करीबन 3 फुटबाल-मैदान समा जाएँ और ऊँचा इतना कि 25 माले का मकान खड़ा हो जाए। इतनी विशाल जगह और चारों तरफ बस बर्फ ही बर्फ।

हर रात यहाँ करीबन 30 टन बर्फ गिरती है। होता यह है कि हर रात शुद्ध शीतल पानी को पाइपों के माध्यम से छत पर बने फुव्वारों सरीखे ब्लोअर में डाला जाता है और न्यूनतम तापमान यानि कि -7 या -8 डिग्री तक बरकरार रख कर ब्लोअर से छोड़ा जाता है। बाद में यही पानी हिम में परिवर्तित होकर हिम-वर्षा के रूप में बिखरता है। सचमुच गजब का मानव–कौशल! जी हाँ। विश्व का सबसे बड़ा फ्रिज! अब आप चाहें यहाँ बर्फ के गोले बनाइए या अपने बच्चे का जन्मदिन मनाइए। विश्व का सर्वोपरि हिम-उद्यान आपके स्वागत के लिए सजा-संवरा तैयार खड़ा है।

दुबई में स्कीइंग और बर्फ़ पर होने वाले दूसरे खेलों का लुत्फ़ यहाँ उठाया जा सकता है। दुबई में दुनिया का सबसे बड़ा ‘इनडोर स्नो पार्क’ भी यहीं पर बनाया गया है। सुना है इसे बनाने में 27 करोड़ डॉलर से अधिक का ख़र्च आया है। इस पार्क में वह परत, जहाँ कभी रेत ही रेत हुआ करती थी, वह परत अब साल-भर कृत्रिम रूप से तैयार बर्फ़ से ढकी रहती है।
‘स्की दुबई’ नाम का ये पार्क 85 मीटर ऊँचा और 80 मीटर चौड़ा है। पार्क के अंदर तापमान -1 से -2 डिग्री सेल्सियस के बीच रखा गया है। जबकि बाहर का तापमान साधारण तौर पर दुबई में गर्मियों में 40 डिग्री सेल्सियस और सर्दियों में 25 डिग्री सेल्सियस हुआ करता है। पार्क में प्रवेश के लिए टिकट लेनी पडती है जो सस्ती नहीं है। स्नो-पार्क के अंदर कड़कती ठंड से बचने के लिए विशेष प्रकार के बने कपड़े-जूते आदि प्रबंधकों द्वारा दिए जाते
हैं.
http://hindi.webdunia.com/my-blog/dubai-kullu-manali-snowfall-weather-dubai-temperature-116070500072_1.html

Monday, July 4, 2016


दावे  और हकीकत 

आज 5 जुलाई २०१६ के 'जनसत्ता' में मेरा पत्र 


विस्थापित कश्मीरी पंडितों को घाटी में वापस बसाने की एक नई तजवीज सामने आई है। इस बार यह तजवीज किसी राजनीतिक दल के नेता या फिर सरकार ने पेश नहीं की है, बल्कि यह ‘प्रस्ताव’ एक टीवी चैनल की प्रतिष्ठित पत्रकार की तरफ से आया है। प्रस्ताव इस बात पर आधारित है कि यदि विस्थापित पंडित वादी में अपने मुस्लिम भाइयों/ परिवारों के साथ रहने लग जाएं तो वादी में अमन-चैन और सौहार्द की फिजा कायम होगी और कमोबेश कश्मीर-समस्या का भी निपटारा अपने आप हो जाएगा। एक मुसलिम परिवार के घर में ‘सौहार्द-बैठक’ आयोजित की गई जिसमें चुने हुए सहभागियों से भाईचारे, सुख-शांति और सौहार्द की बातें कहलवाई गर्इं। ‘कश्मीर डायरी’ नाम के इस कार्यक्रम को देख कर लगा कि यह प्रायोजित था। वास्तविकता से एकदम कोसों दूर! सीधी-सी बात है कि पंडितों को अगर वादी में भाईचारे और शांति-सद्भाव का माहौल दिखता तो वे 1990 में अपना घरबार छोड़ कर भागते ही क्यों? उन्हें जिहादी चुन-चुन कर मारते ही क्यों? गौर करने वाली बात यह है कि जिस वादी में आए दिन ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’, ‘हमें क्या चाहिए? आजादी’ आदि नारे लगते हों, जिस श्रीनगर शहर में हर शुक्रवार को पाकिस्तानी झंडे फहराए जाते हों, जहां के अलगाववादी नेता कश्मीर को भारत का अविभाज्य अंग मानने को तैयार न हों, जहां हर दूसरे-तीसरे दिन जिहादियों और सुरक्षाकर्मियों के बीच मुठभेड़ होती रहती हो, जहां के कट्टरपंथी नेता कश्मीरी पंडितों को अलग से बसाने और सैनिक कॉलोनियों का निर्माण करने के विरोध में धरने-प्रदर्शन करते हों, वहां पर पत्रकार महोदया पंडितों को यह पाठ पढ़ाएं कि वे वादी में आकर बहुसंख्यकों यानी मुसलिम भाइयों के साथ गले में बांहें डाल कर रहने का मन बनाएं, एक बचकानी और तर्कहीन अवधारणा ही समझी जाएगी। वादी में 1990 में पंडित-समुदाय के लोगों की संख्या साढ़े तीन लाख थी जो अब सिमट कर महज दस हजार के करीब रह गई है। बाकी के तीन लाख चालीस हजार कहां गए, क्योंकर गए, इससे पत्रकार का कोई लेना-देना नहीं। वे जम्मू और अन्य जगहों पर लू में तपते शरणार्थी शिविरों में अमानवीय परिस्थितियों में रह रहे कश्मीरी पंडितों के दुख-दर्द और उनकी त्रासद स्थितियों को देखने नहीं गर्इं बल्कि खुशनुमा मौसम में कश्मीर जाकर वहां के बहुसंख्यकों का आतिथ्य स्वीकार कर उनकी बातों को सामने लाना ज्यादा मुनासिब समझा। कौन नहीं जानता कि जिन महानुभावों ने विभोर होकर भाईचारे के विचार उक्त कार्यक्रम में रखे उन्हें घाटी में पूरी-पूरी सुरक्षा मिली हुई है। कश्मीर में रहने के उनके अपने-अपने हित हैं और पत्रकार ने अपने कार्यक्रम के पक्ष में इन बातों को बखूबी भुनाया।

शिबन कृष्ण रैणा, अलवर 


एक वैश्विक हकीकत

छल-छद्म अथवा धोखा-धड़ी से पैसा बनाना संभवतः एक वैश्विक हकीकत है.इस के पीछे, मेरी समझ में, जो मनोविज्ञान काम करता है वह है: कम मेहनत द्वारा अधिक लाभ कमाने अथवा “संग्रहवृति” की मानव की भावना. बड़ा बड़े स्तर पर अपने सम्बन्धों और साधनों के आधार पर यह कर्म करता है और छोटा अपने हिसाब से अपने सीमित साधनों और संपर्कों के आधार पर. मगर करते दोनों हैं.(यों, छोटे-मोटे अपवाद हो सकते हैं) 

यूएई से प्रकाशित आज के ‘गल्फ न्यूज़’ में कुछ ऐसी घटनाओं का हवाला दिया गया है जिन्हें ‘चीटिंग’ की श्रेणी में रखा जा सकता है. जनता को आगाह किया गया है कि वह ऐसे छल-छ्द्मियों से सावधान रहे ख़ास तौर पर आने वाले त्यौहार(ईद)को ध्यान में रखते हुए. यदि पाठकों के पास कुछ अनुभव हों तो उन्हें साझा करें. मैं ने भी एक अनुभव को साझा किया जो आगे दिया जा रहा है.

यूएई एक वैभवशाली देश है और साथ ही पर्यटन का प्रधान केंद्र भी.अतः ‘छल-छद्म’ की यह बीमारी इस देश में बाहर से आयी हुयी लगती है,यहाँ के स्थानीय लोग शायद ऐसा नहीं कर रहें. 



(Beware of street scams during Eid holidays.Gulf News Monday,July 4.2016.)

“Am reminded of exactly the same kind of incident around Apsara Departmental Store, Ajman nearly three weeks back. A car stopped by my side. One gentleman sat back in the driver’s seat while as the other one came out of the car. Polite in speaking and polished in appearance, I in the first instance thought that the second one would, perhaps, ask me for road direction or about some other location/address etc. But that was not to be. Instead, he emphasized that they were from Italy and had run short of money and wanted to sell off some suit pieces, which they had carried along from Italy. ‘Wonderful and high quality Italian fabric/cloth!’ the other one sitting in the driver’s seat exclaimed and seconded his partner’s statement. I smelt the rat. Just to get out of the situation skillfully, I offered them as little as 50 Dhs for a pack of five suit pieces, which was almost agonizing for them.(The original offers was 500 Dhs from these crooks.)
They could very easily understand my ploy as I could their’s. 

(Dr.Shiben Krishen Raina)


Saturday, July 2, 2016


कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार क्यों विचलित नहीं करते? 

डॉ. शिबन कृष्ण रैणा|


पिछले दिनों एक टीवी चैनल पर ‘कश्मीर डायरी’ नाम का कार्यक्रम देख मुझे लगा कि इस कार्यक्रम के बारे में मुझे कुछ कहना-लिखना चाहिए। इससे पहले कि मैं लिखने का मन बनाता, इसी कार्यकम के बारे में फेसबुक पर बड़ी ही सुंदर और सटीक पोस्ट पढ़ने को मिली। बात कुछ इस तरह से है:
जिस रिपोर्टर/एंकर ने इस कार्यक्रम को प्रस्तुत किया वह 1990 से ही, यानी जब से कश्मीरी पंडितों का वादी से विस्थापन हुआ, कश्मीर आती-जाती रही हैं और वहां के राजनीतिक-सामाजिक जीवन से जुड़े मसलों और अन्य आतंकी गतिविधियों को कवर करती रही हैं। पंडितों के दुख-दर्द और उनकी पीड़ाओं को कम और वादी में रह रहे बहुसंख्यकों पर हुई भारतीय सेना द्वारा की गई कथित ज्यादतियों का वर्णन अधिक।
भारत-विरोधी नारों, छाती पीटती औरतों, मारे गए जिहादियों की शव-यात्राओं, अलगाववादी नेताओं के देश और सेना-विरोधी बयानों आदि को इस रिपोर्टर ने खूब उजागर किया है। विडंबना देखिए। यह सब-कुछ उसे कश्मीर में दिखा, मगर भाईचारे के गीत गाने वाले कश्मीरी कवि पंडित सर्वानंद कौल ‘प्रेमी’ की जिहादियों द्वारा आंखें फोड़ने के बाद जघन्य हत्या कर दी गई और उसके बेटे समेत दोनों की लाशों को पेड़ पर लटकाया गया, यह बात उसको कवर करने लायक नहीं लगी।

मेरे सहपाठी रहे श्रीनगर दूरदर्शन के पूर्व निदेशक लस्सा कौल की उनके दफ्तर के बाहर की गई निर्मम हत्या या फिर स्वर्गीय बालकृष्ण गंजू की अपनी जान बचाते हुए चावल के ड्रम में आतंकियों द्वारा बर्बरतापूर्वक की गई हत्या आदि ऐसी जघन्य घटनाएं हैं जो इस रिपोर्टर को तनिक भी विचलित नहीं कर पाईं। पंडितों के साथ ऐसी अनेक हृदय-विदारक घटनाओं को इसने एक कान से सुना और दूसरे से निकाल दिया। इन घटनाओं पर कोई प्रतिक्रिया नहीं, कोई पैनल डिस्कशन नहीं और कोई जुम्बिश नहीं।

सूत्रों के अनुसार 1990 में पंडित-समुदाय की संख्या वादी में साढ़े तीन लाख थी जो अब सिमटकर मात्र दस हजार के करीब रह गई है। बाकी के तीन लाख चालीस हज़ार कहाँ गए, क्यों कर गए? इससे इनका कोई लेना-देना नहीं। वे जम्मू और अन्य जगहों पर लू में तपते शरणार्थी कैम्पों में अमानवीय परिस्थितियों में रह रहे कश्मीरी पंडितों के दुख-दर्द और उनकी त्रासद स्थितियों को देखने नहीं जातीँ, बल्कि आए दिन खुशनुमा मौसम में कश्मीर जाकर वहां के बहुसंख्यकों का आतिथ्य स्वीकार कर उनकी बातों को सामने लाना ज्यादा मुनासिब समझती हैं।

अभी हाल ही के अपने ‘कश्मीर-डायरी’ कार्यक्रम में इस महिला-एंकर (रिपोर्टर) ने एक नया शिगूफा छोड़ा। ’विस्थापित पंडित वादी में अपने मुस्लिम भाइयों/परिवारों के साथ रहें तो वादी में अमन-चैन और सौहार्द की फिजा कायम होगी'। एक मुस्लिम परिवार के घर में ‘सौहार्द-बैठक’ को आयोजित किया गया जिसमें चुने हुए सहभागियों से भाई-चारे, सुख-शांति और सौहार्द की बातें कहलवाई गईं, जिसे देखकर साफ़ लग रहा था कि यह ‘नाटक’ प्रायोजित ही नहीं एंकर के अपने मतलब के लिए था।

सीधी-सी बात है, पंडितों को अगर वादी में भाईचारे और शांति-सद्भाव का माहौल दीखता होता तो वे अपना घरबार छोड़कर भागते ही क्यों? उन्हें जिहादी मारते ही क्यों? गौर करने वाली बात यह है कि जिस वादी में आए दिन ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’, ’हमें क्या चाहिए? आज़ादी’ आदि के नारे लगते हों, जिस श्रीनगर शहर में हर शुक्रवार को पाकिस्तानी झंडे फहराए जाते हों, जहां के अलगाववादी नेता कश्मीर को भारत का अविभाज्य अंग मानने को तैयार न हों, जहां पर हर दूसरे-तीसरे दिन जिहादियों और सुरक्षाकर्मियों के बीच मुठभेड़ होती रहती हो, जहां के नेता कश्मीरी पंडितों को अलग से बसाने और सैनिक कॉलोनियों का निर्माण करने के विरोध में धरने-प्रदर्शन करते हों, वहां पर एंकर पंडितों को यह पाठ पढ़ाए कि वे वादी में आकर बहुसंख्यकों यानी मुस्लिम भाइयों के साथ गले में बाहें डालकर रहने का मन बनाएं, एक बचकानी और तर्कहीन अवधारणा लगती है। एंकरजी वहां पर रह सकती हैं। सुना है उनकी वहां पर करीबी रिश्तेदारियां हैं।

‘सौहार्द बैठक’ में सहभागी मट्टू साहब से जब एंकर ने पूछा कि ‘आप पहले दिल्ली में रहते थे, अब आपको यहां अपने मुस्लिम भाइयों के साथ रहना कैसा लगा रहा है?’ तो मट्टू साहब जवाब देते हैं: ‘वहां मैं छब्बीस वर्षों तक रहा बिलकुल असहाय-सा। खून के आंसू पीता रहा। अब यहां अपने मुस्लिम भाइयों के साथ रहना बहुत अच्छा लग रहा है।’ कहने की आवश्यकता नहीं कि मट्टू साहब अपने समय में जम्मू-कश्मीर के वन विभाग में ऊंचे ओहदे पर रहे हैं और श्रीनगर की पॉश कॉलोनी गोगजी बाग़ में उनका आलीशान बंगला है। ऊपर से उनका बेटा प्रो. अमिताभ मट्टू, जो पहले जम्मू विश्वविद्यालय के वीसी हुआ करते थे, आजकल महबूबा मुफ़्ती सरकार के सलाहकार हैं। कैबिनेट मंत्री का दर्जा मिला हुआ है। उनको और उनके परिवार को क्या गम है? पूरी सुरक्षा और चौकसी मिली हुयी है। 

वे लोग कश्मीर के खुशनुमा मौसम का आनंद लेते हुए ‘सौहार्द’ की बात नहीं करेंगे तो कौन करेगा? बैठक में भाग लेने वाले अन्य महानुभावों श्री संदीप मावाजी, जुनैदजी आदि के भी कश्मीर में रहने के अपने-अपने हित हैं जिन्हें एंकर ने बखूबी अपने पक्ष में बुलवाया। 

(लेखक भारत सरकार की विधि और न्याय मंत्रालय की हिंदी सलाहकार समिति के गैर-सरकारी सदस्य हैं)




Friday, July 1, 2016


दुबई में कुल्लू-मनाली (कश्मीर का गुलमर्ग)

सामान्यतया दुबई का तापमान गर्मी के मौसिम में भारत के मैदानी इलाकों की तरह ही प्रायः ४० डिग्री के आस-पास रहता है. अधिकतम तापमान ४८.५ (२७ जुलाई २०१२ को) रिकॉर्ड किया गया था. यहाँ बिजली कभी गुल नहीं होती, इसलिए अक्सर सभी घर,अपार्टमेंट,बड़े-बड़े भवन,मॉल,दुकानें,होटल आदि वातानुकूलित हैं.गर्मी तब महसूस होती है जब आप सड़क पर पैदल चलते हैं. वैसे,पैदल चलता कोई नहीं है. लगभग सभी के पास(मजदूरों/कामगारों को छोड़) वातानुकूलित कारें और आधुनिक सुविधाओं से लैस विदेशी गाड़ियाँ हैं. दिन में दुकानें अक्सर बंद रहती हैं,केवल सुबह-शाम खुलती हैं.शाम से लेकर देर रात तक दुकानों/मालों/होटलों में अच्छी-खासी गहमा-गहमा रहती है.

तपते रेगिस्तान की प्रचंड गर्मी को चुनौती देता एक दर्शनीय स्थान है यहाँ ‘स्की-दुबई’ जिसे देख हिमाचल के कुल्लू-मनाली और कश्मीर के गुलमर्ग की याद ताज़ा हो आती है. ठंडी-ठंडी बर्फानी हवाएं,हिम-मानव,रोप-वे,फिसलन-पट्टियाँ आदि देख-देख कर रोमांच तो होता ही है,जिन कलाकारों/इंजीनियरों ने इसे बनाया उनके अद्भुत कला-कौशल की प्रशंसा किये विना नहीं रहा जाता. २२५०० वर्गमीटर तक फैला, हिम से सना ,यह स्की दुबई इतना बड़ा है कि इसमें करीबन ३ फुटबाल-मैदान समा जाएँ और ऊँचा इतना कि २५ माले का मकान खड़ा हो जाए .इतनी विशाल जगह और चारों तरफ बस बर्फ ही बर्फ. हर रात यहाँ करीबन ३० टन बर्फ गिरती है. होता यह है कि हर रात शुद्ध शीतल पानी को पाइपों के माध्यम से छत पर बने फुव्वारों सरीखे ब्लॊवर में डाला जाता है और न्यूनतम तापमान यानि कि -७ या -८ डिग्री तक बरकरार रख कर ब्लॊवर से छॊड़ा जाता है. बाद में यही पानी हिम में परिवर्तित होकर हिम-वर्षा के रूप में बिखरता है. सचमुच गजब का मानव–कौशल! जी हाँ.विश्व का सबसे बडा फ्रिज! अब आप चाहें यहाँ बर्फ के गॊले बनाइये, या अपने बच्चे का जन्मदिन मनाइये. विश्व का सर्वॊपरि हिम-उद्यान आपके स्वागत के लिए सजा-संवरा तैयार खड़ा है. 

दुबई में स्कीइंग और बर्फ़ पर होनेवाले दूसरे खेलों का लुत्फ़ यहाँ उठाया जा सकता है. दुबई में दुनिया का सबसे बड़ा ‘इनडोर स्नो पार्क’ भी यहीं पर बनाया गया है.सुना है इसे बनाने में 27 करोड़ डॉलर से अधिक का ख़र्च आया है. इस पार्क में वह परत, जहाँ कभी रेत ही रेत हुआ करती थी, वह परत अब साल-भर कृत्रिम रूप से तैयार बर्फ़ से ढकी रहती है.

‘स्की दुबई’ नाम का ये पार्क 85 मीटर ऊँचा और 80 मीटर चौड़ा है. पार्क के अंदर तापमान -1 से -2 डिग्री सेल्सियस के बीच रखा गया है. जबकि बाहर का तापमान साधारण तौर पर दुबई में गर्मियों में 40 डिग्री सेल्सियस और सर्दियों में 25 डिग्री सेल्सियस हुआ करता है. पार्क में प्रवेश के लिए टिकट लेनी पडती है जो सस्ती नहीं है. स्नो-पार्क के अंदर कडकती ठंड से बचने के लिए विशेष प्रकार के बने कपड़े-जूते आदि प्रबंधकों द्वारा दिए जाते हैं.











१४ अगस्त,२०१५ को ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित मेरा पत्र 


सुनने में आया कि सरकार ने पिछले दिनों कुछेक खबरिया टीवी चैनलों को मीडिया की मर्यादाओं का सख्ती से पालन करने का निर्देश दिया। दरअसल, कुछ टीवी चैनल पूर्वग्रहों से ग्रस्त हैं। वे पक्ष कमजोर होते हुए भी बड़ी चालाकी से बहस या खबर का रुख अपने आकाओं के पक्ष में मोड़ने की कोशिश करते रहते हैं। खबर रूपी समोसे को आप दोने-पत्तल में भी परोस कर पेश कर सकते हैं और चांदी की प्लेट में भी। प्रश्न है कि मीडिया का मन रमता किसमें है? जब चैनल के एंकर या मालिक की अपनी प्रतिबद्धताएं और आत्मपरकता हावी हो जाती हैं तो समाचार के मूल प्रयोजन या उसकी असलियत का दब जाना स्वाभाविक है। मेरा सुझाव है कि सरकार ऐसे कुछ गैर-सरकारी चैनलों को बढ़ावा दे जो इन पूर्वग्रहग्रस्त चैनलों के पक्षपाती रवैए का प्रतिकार कर सकें। इससे फायदा यह होगा कि दर्शकों को बिना किसी पूर्वग्रह के साफ-सुथरी, बेलाग और निष्पक्ष जानकारियां मिल सकेंगी।