Friday, July 5, 2019



मेरे नगपति, मेरे विशाल! 

नगपति हिमालय सचमुच विशाल है।इसका आकार-प्रकार विशाल,इसकी भव्यता विशाल,इसकी संस्कृति विशाल और इसका अतीत भी विशाल। भारतीय साहित्य और जीवन में हिमालय का बड़ा महत्व है। कालिदास ने इसे 'नगाधिराज कहा तो ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के लेखक रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने ‘मेरे नगपति, मेरे विशाल’ से इसे संबोधित किया।हिमालय अपनी विविधता में महान है बाहरी रूप में भी और भीतरी रूप में भी। एक ओर जहाँ यह पर्वतराज अपनी बहुमूल्य वनस्पति, जंगलों की समृद्धि, पशु-पक्षियों, खनिज-संपदा, पर्वतों-श्रेणियों एवं नदियों से संपन्न है तो आत्मिक रूप से अध्यात्म-चिन्तन,ज्ञान-मुक्ति और परमार्थ-दर्शन के लिए भी साधकों, मनस्वियों, चिन्तकों और ऋषियों-मुनियों को प्रश्रय देता रहा है।सचमुच, हिमालय भारत देश का ही नहीं,समूचे विश्व का गौरव है। इसमें हमें विशेष रूप से भारत और समूची भारतीय संस्कृति की विराटता एवं औदात्य के एकसाथ दर्शन होते हैं।इसीलिए भारत और हिमालय दोनों संभवतः एक-दूसरे के पर्याय-से बन गए हैं।सदियों से अपने धवल रूप में मौनद्रष्टा प्रहरी की भांति खड़ा यह पर्वतराज भारतीय संस्कृति एवं जनजीवन में होने वाले परिवर्तनों का युगों-युगों से साक्षी रहा है। एक तरह से यह भारतीय संस्कृति का अविच्छिन्न अंग बन गया है।भारतीय साहित्य, कला, धर्म, दर्शन आदि में हिमालय का जो प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष प्रभाव दिखाई देता है, वह इस बात को सिद्ध करता है कि ‘नगपति’ हिमालय हमारी आस्थाओं,हमारी मान्यताओं और हमारी सांस्कृतिक धरोहर का बहुमूल्य प्रतीक है। 

भौगोलिक सर्वेक्षण के अनुसार हिमालय पर्वत की चौड़ाई कश्मीर में 400 किमी एवं अरुणाचल प्रदेश में 150 किमी के करीब है।हिमालय की पर्वतीय श्रृंखला के उत्तरी भाग को हिमाद्रि या आन्तरिक हिमालय कहा जाता है । इसकी औसत ऊँचाई 6,000 मीटर है ।दूसरे शब्दों में हिमालय विश्व की सर्वाधिक ऊँची पर्वत-श्रृंखला है । माउण्ट एवरेस्ट, इस पर्वत-श्रेणी की सबसे ऊँची चोटी है, जिसकी ऊँचाई 8,848 मी है । यह विश्व कीं भी सर्वाधिक ऊँची पर्वत-चोटी है । हिमाद्रि अर्थात् आन्तरिक हिमालय का अधिकतर हिस्सा बर्फ से ढका रहता है । हिमाद्रि के दक्षिणी भाग को हिमाचल या निम्न हिमालय कहा जाता है । इसकी ऊँचाई 3,700 मी से लेकर 4,500 मी के बीच तथा चौडाई 50 किमी है ।इसी क्षेत्र में कश्मीर की अनुपम घाटी तथा हिमाचल के काँगडा एवं कुल्लू की घाटियाँ स्थित हैं । कवि जयशंकर प्रसाद ने इन पंक्तियों के माध्यम से इसी हिमालय की ऊँची चोटी का उल्लेख करते हुए भारत भूमि के वीर सुपुत्रों का देश को स्वतन्त्र कराने के लिए आह्वान किया था: 

”हिमाद्रि तुंग श्रुंग से 

प्रबुद्ध शुद्ध भारती 

स्वयं प्रभा समुज्जवला 

स्वतन्त्रता पुकारती ।” 

माना जाता है कि हिमालय पर्वत-श्रृंखला की उत्पत्ति प्राचीनकाल के टैथिस सागर में हुई थी । इस सागर में सन्निहित तलछट भूगर्भीय हलचलों के फलस्वरूप धीरे-धीरे ऊपर उठ चले, जिससे विश्व के इस विशालतम पर्वत की उत्पत्ति प्रारम्भ हुई । इसके निर्माण की प्रक्रिया दीर्घ काल तक चलती रही । वैज्ञानिकों के अनुसार, इसको वर्तमान स्वरूप तक पहुँचने में लगभग सात करोड वर्ष लगे । 

हिमालय हमारे लिए आराध्य-स्वरूप है। यह उत्तर में खड़े हमारे प्रमुख प्रहरी का कार्य करता है तो वहीं यह भारत की अधिकाँश नदियों का स्रोत है। इन नदियों से निर्मित घाटियाँ कृषि के लिए सर्वाधिक उपयुक्त होती है । गंगा नदी एवं इसका बहाव क्षेत्र इसका सबसे अच्छा उदाहरण है ।हिमालय से निसृत होकर आनेवाली नदियों में इंडस तथा ब्रह्मपुत्र सबसे बड़े हैं। इंडस नदी की पाँच उपशाखाएं है, झेलम, चिनाब, रावी, बियास और सतलज। इसके अतिरिक्त भागीरथी, अलकनन्दा, सरस्वती आदि नदियाँ भी उल्लेखनीय हैं। हिमालय पर्वत-श्रृंखला में पन्द्रह हजार से अधिक ग्लेशियर हैं, जो बारह हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हैं। पूरी हिमालय पर्वत-श्रृंखला लगभग पाँच लाख वर्ग किलोमीटर में फैली हुयी है । 

काश्मीर हिमालय की वृहत्तम घाटी है। काश्मीर घाटी अपनी दिव्य छटा और शोभाश्री के लिए विश्वविख्यात तो है ही, साथ ही विश्वविख्यात केसर,सेब,नाशपाती,बादाम,अखरोट,खूबानी,आड़ू,गिलास(चेरी)आदि फल हिमालय के आंचल में बसी धरती का स्वर्ग कहलाने वाली कश्मीर घाटी में ही पैदा होते हैं।धार्मिक दृष्टि से देखें तो प्रसिद्ध त्रिक/शैव दर्शन का आविर्भाव भी हिमालय के इसी अंचल में हुआ बताया जाता है।और तो और कश्मीर-शैव-दर्शन के प्रतिपादक शैव-आचार्य अभिनवगुप्त भी यहीं पर अवतरित हुए थे। माना तो यह भी जाता है की बौद्ध-दर्शन के विश्वविख्यात दार्शनिक नागार्जुन ने भी स्वाध्याय के लिए इसी पुण्यभूमि को चुना था।कल्हण,बिल्हण,’काव्यप्रकाश’ के प्रणेता मम्मटाचार्य,’ध्वन्यालोक’ के रचियता आनंदवर्धन आदि संस्कृत के कवि और काव्यशास्त्री भी इसी पावन-धरती की देन हैं। 

हिमालय-क्षेत्र का प्राकृतिक सौन्दर्य भी अन्यतम है। ऊँचे-ऊँचे हिमाच्छादित पर्वत-शिखर, कल-कल रव करती नदियाँ, झरनें, स्फटिक शिलायें,मनोहर ढलानों पर बने क्यारीनुमा खेत, हरे-घने वन आदि इस महापर्वत के शोभालंकार हैं। दूसरे शब्दों में हिमालय धरती की समग्र शोभा का अनुपम कोषागार है, जो सदैव अपनी प्राकृतिक सुषमा से मंडित रहता है। प्राकृतिक वैभव यहाँ बिखरा पड़ा है । वन-संपदा भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।देवदार, चीड़ आदि के ऊँचे-ऊँचे पेड़ यहाँ की शोभा बढ़ाते हैं । ये पेड़ जगंली जीव-जंतुओं की शरणस्थली भी हैं ।कितने ही जानवर यहाँ निवास करते हैं । भालू, रीछ, हाथी, बंदर, याक, जेबरा, गेंडा, चीता हिरन सब यहाँ स्वयं को सुरक्षित अनुभव करते हैं । उधर पेड़ों पर पक्षियों का कलरव सुनाई देता है तो इधर छोटी-छोटी नदियाँ, ऊँचे पहाड़, गहरी खाइयाँ, पेड़, पशु, पक्षी आदि मिलकर अद्‌भुत प्राकृतिक दृश्य उपस्थित करते हैं । 

हिमालय का आर्थिक और लोकोपयोगी महत्व भी कम नहीं है।इसके कई क्षेत्रों में जलाशयों का निर्माण कर उनका उपयोग सिचाई एवं जल-विद्यूत उत्पादन के लिए किया जाता है । इसके अलावा हिमालय में कई प्रकार की वनस्पतियाँ तथा जीव-जन्तु पाए जाते हैं । हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों के वनों से हमें ईंधन, चारा, कीमती लकड़ियाँ एवं विभिन्न प्रकार की औषधियाँ प्राप्त होती हैं इतना ही नहीं हिमालय हम भारतवासियों को अडिग होकर निरन्तर अपने कर्म-पथ पर चलते रहने कीं प्रेरणा भी देता है । 

कवि सोहनलाल द्विवेदी के शब्दों में- 

”खडा हिमालय बता रहा है 

डरो न आँधी पानी में । 

खडे रही तुम अविचल होकर 

सब संकट तूफानी में । 

हिमालय पर्वत-श्रृंखला प्राचीनकाल से ही योगियों एवं ऋषियों की भी तपोभूमि रही है । हिन्दुओं के अनेक तीर्थ; जैसे-हरिद्वार, बद्रीनाथ, केदारनाथ, ऋषिकेश इत्यादि हिमालय पर्वत-श्रृंखला में ही स्थित हैं । श्रीराम शर्मा आचार्य ने ‘हिमालय की यात्रा’ नामक यात्रा वृनान्त में हिमालय की शोभा का बडा ही सुन्दर एवं सजीव वर्णन किया है । हमारे प्राचीन शास्त्र भी इस पर्वत श्रृंखला के गुणगान से भरे हुए हैं । 

संस्कृत का यह श्लोक इसका प्रमाण है: 

”हिमालय समारम्भ यावत् इंदु सरोवरम् । 

तं देवनिर्मितं देशं हिंदुस्तान प्रचक्षते ।” 

इसका अर्थ है: “हिमालय पर्वत से प्रारम्भ होकर हिन्द महासागर तक फैले हुए हिन्दुस्तान देश की रचना ईश्वर ने की है ।“ 

हिमालय पर्वत का सांस्कृतिक-धार्मिक महत्व प्राचीन काल से चला आ रहा है। ऐसी मान्यता है के देवों के देव महादेव का निवास हिमालय पर्वत में ही है।उमा(पार्वती) का भी यह निवास माना जाता है। इस विशाल पर्वतों के बीच बहुत सारे धार्मिक स्थल बने हुए हैं: जैसे बदरीनाथ , केदारनाथ , अमरनाथ और हेमकुंट आदि हैं। यहां हिमालय के प्रमुख पर्वत-शिखर हैं: कैलास, मैनाक, गन्धमादन, इन्द्रकील, सुमेरू, क्रौंचपर्वत, एवरेस्ट (गौरी-शंकर), कारकोरम आदि। ये पर्वत अपनी विशालता और विराटता के कारण विदेशी आक्रमणकारियों केलिए अलंध्य हैं। शैलराज हिमालय का सबसे प्रमुख पर्वत है कैलास। यह पर्वत समुद्र तल से 23,000 फुट ऊँचाई पर स्थित सदा हिम से आच्छादित एक धवलिम शिखर है यह । पुराणों में कैलास पर्वत को विशेष महत्व दिया गया है। कैलास पर्वत को रजतश्रृंग एवं देवाधिदेव महादेव का वास स्थान भी बताया गया है। भारतीयों का विश्वास है कि कैलास पर्वत के उत्तर भाग की ओर स्वर्णमय मेरु पर्वत स्थित है। हिमगिरि के स्वर्णिम वर्ण के कारण ये पर्वत हेमगिरि भी कहलाता है। हिमालय का यह श्रेष्ठ पर्वत कैलास अपनी अनन्त वैभव एवं संपन्नता की दृष्टि से भी अद्वितीय है। कैलास पर्वत पर विश्वकर्मा द्वारा बनायी गयी कुबेर की नगरी है अलकापुरी। हिमालय के इस प्रमुख पर्वत का उल्लेख कालिदास के मेघदूत में मिलता है। 

महाभारत के अनुसार पांडवों ने कैलास की यात्रा की थी।सौगन्धिक पुष्प लाने के लिए भीम कैलास के पास कुबेर के पुष्पोद्यान में पहुँचे थे। कैलास पर्वत पर कुबेर के निवास स्थान के पास यक्ष, राक्षस, किन्नर एवं गन्धर्व रहते हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि हनुमान श्रीराम के ध्यान में कैलास पर्वत पर वास करते हैं।हिमालय पर्वत से ही रामभक्त हनुमान मूर्छित लक्ष्मण के लिए संजीवनी बूटी लेकर आये थे।इस रोचक प्रसंग पर यहाँ प्रकाश डालना अनुचित न होगा।:”हनुमानजी द्वारा पर्वत उठाकर ले जाने का प्रसंग वाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड में मिलता है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार रावण के पुत्र मेघनाद ने ब्रह्मास्त्र चलाकर श्रीराम व लक्ष्मण सहित समूची वानर सेना को घायल कर दिया। अत्यधिक घायल होने के कारण जब श्रीराम व लक्ष्मण बेहोश हो गए तो मेघनाद प्रसन्न होकर वहां से चला गया। उस ब्रह्मास्त्र ने दिन के चार भाग व्यतीत होते-होते 67 करोड़ वानरों को घायल कर दिया था।हनुमानजी, विभीषण आदि कुछ अन्य वीर ही उस ब्रह्मास्त्र के प्रभाव से बच पाए थे। जब हनुमानजी घायल जांबवान के पास पहुंचे तो उन्होंने कहा – इस समय केवल तुम ही श्रीराम-लक्ष्मण और वानर सेना की रक्षा कर सकते हो। तुम शीघ्र ही हिमालय पर्वत पर जाओ और वहां से औषधियां लेकर आओ, जिससे कि श्रीराम-लक्ष्मण व वानर सेना पुन: स्वस्थ हो जाएं।जांबवान ने हनुमानजी से कहा कि- हिमालय पहुंचकर तुम्हें ऋषभ तथा कैलाश पर्वत दिखाई देंगे। उन दोनों के बीच में औषधियों का एक पर्वत है, जो बहुत चमकीला है। वहां तुम्हें चार औषधियां दिखाई देंगी, जिससे सभी दिशाएं प्रकाशित रहती हैं। उनके नाम मृतसंजीवनी, विशल्यकरणी, सुवर्णकरणी और संधानी है।हनुमान तुम तुरंत उन औषधियों को लेकर आओ, जिससे कि श्रीराम-लक्ष्मण व वानर सेना पुन: स्वस्थ हो जाएं। जांबवान की बात सुनकर हनुमानजी तुरंत आकाश मार्ग से औषधियां लेने उड़ चले। कुछ ही समय में हनुमानजी हिमालय पर्वत पर जा पहुंचे। वहां उन्होंने अनेक ऋषियों के आश्रम देखे।हिमालय पहुंचकर हनुमानजी ने कैलाश तथा ऋषभ पर्वत के दर्शन भी किए। इसके बाद उनकी दृष्टि उस पर्वत पर पड़ी, जिस पर अनेक औषधियां चमक रही थीं। हनुमानजी उस पर्वत पर चढ़ गए और औषधियों की खोज करने लगे। उस पर्वत पर निवास करने वाली संपूर्ण महाऔषधियां यह जानकर कि कोई हमें लेने आया है, तत्काल अदृश्य हो गईं। यह देखकर हनुमानजी बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने वह पूरा पर्वत ही उखाड़ लिया, जिस पर औषधियां थीं। 

कुछ ही समय में हनुमान उस स्थान पर पहुंच गए, जहां श्रीराम-लक्ष्मण व वानर सेना बेहोश थी। हनुमानजी को देखकर श्रीराम की सेना में पुन: उत्साह का संचार हो गया। इसके बाद उन औषधियों की सुगंध से श्रीराम-लक्ष्मण व घायल वानर सेना पुन: स्वस्थ हो गई। उनके शरीर से बाण निकल गए और घाव भी भर गए। इसके बाद हनुमानजी उस पर्वत को वापस लेकर गये।तुलसी कृत ‘रामचरितमानस’ में इस प्रसंग को दूसरे रूप में वर्णित किया गया है: गोस्वामी तुलसीदास द्वारा चरित श्रीरामचरितमानस के अनुसार रावण के पुत्र मेघनाद व लक्ष्मण के बीच जब भयंकर युद्ध हो रहा था, उस समय मेघनाद ने वीरघातिनी शक्ति चलाकर लक्ष्मण को बेहोश कर दिया। हनुमानजी उसी अवस्था में लक्ष्मण को लेकर श्रीराम के पास आए। लक्ष्मण को इस अवस्था में देखकर श्रीराम बहुत दु:खी हुए।तब जांबवान ने हनुमानजी से कहा कि लंका में सुषेण वैद्य रहता है, तुम उसे यहां ले आओ। हनुमानजी ने ऐसा ही किया। सुषेण वैद्य ने हनुमानजी को उस पर्वत और औषधि का नाम बताया और हनुमानजी से उसे लाने के लिए कहा, जिससे कि लक्ष्मण पुन: स्वस्थ हो जाएं। हनुमानजी तुरंत उस औषधि को लाने चल पड़े। जब रावण को यह बात पता चली तो उसने हनुमानजी को रोकने के लिए कालनेमि दैत्य को भेजा कालनेमि दैत्य ने रूप बदलकर हनुमानजी को रोकने का प्रयास किया, लेकिन हनुमानजी उसे पहचान गए और उसका वध कर दिया। इसके बाद हनुमानजी तुरंत औषधि वाले पर्वत पर पहुंच गए, लेकिन औषधि पहचान न पाने के कारण उन्होंने पूरा पर्वत ही उठा लिया और आकाश मार्ग से उड़ चले। अयोध्या के ऊपर से गुजरते समय भरत को लगा कि कोई राक्षस पहाड़ उठा कर ले जा रहा है। यह सोचकर उन्होंने हनुमानजी पर बाण चला दिया। 

हनुमानजी श्रीराम का नाम लेते हुए नीचे आ गिरे। हनुमानजी के मुख से पूरी बात जानकर भरत को बहुत दु:ख हुआ। इसके बाद हनुमानजी पुन: श्रीराम के पास आने के लिए उड़ चले। कुछ ही देर में हनुमान श्रीराम के पास आ गए। उन्हें देखते ही वानरों में हर्ष छा गया। सुषेण वैद्य ने औषधि पहचान कर तुरंत लक्ष्मण का उपचार किया, जिससे वे पुन: स्वस्थ हो गए। 

जहां वाल्मीकि रचित रामायण के अनुसार हनुमान जी पर्वत को पुनः यथास्थान रख आए थे वही तुलसीदास रचित रामचरितमानस के अनुसार हनुमान जी पर्वत को वापस नहीं रख कर आए थे, उन्होंने उस पर्वत को वही लंका में ही छोड़ दिया था। श्रीलंका के सुदूर इलाके में श्रीपद नाम का एक पहाड़ है। मान्यता है कि यह वही पर्वत है, जिसे हनुमानजी संजीवनी बूटी के लिए उठाकर लंका ले गए थे। इस पर्वत को एडम्स पीक भी कहते हैं। यह पर्वत लगभग 2200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। श्रीलंकाई लोग इसे रहुमाशाला कांडा कहते हैं। इस पहाड़ पर एक मंदिर भी बना है। 











हिमालय भारत के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है ।यदि हिमालय न होता तो भारत के अधिकांश उत्तरी भाग में मरुभूमि होती । यह हिमालय ही है जो पूर्वी तथा दक्षिणी आर्द्र मानसूनी हवाओं को रोककर भारत के उत्तरी राज्यों में वर्षा कराता है । इससे इन राज्यों में भरपूर फसल होती है । इन राज्यों की सभी नदियाँ वर्षा ऋतु में जलप्लावित रहती हैं । वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद भी गंगा, यमुना जैसी बड़ी नदियों में जल रहता है । इसमें भी हिमालय का योगदान है । हिमालय की ऊँची चोटियों की बर्फ सूर्य की गर्मी से पिघलकर इन नदियों में जल के रूप में आती रहती है । इस तरह हिमालय सूखे होठों की प्यास शांत करने वाला साक्षात देवता बन जाता है । 

हिमालय हमारी शान है । इसकी शान में मानव खलल डाल रहा है । वह यहाँ के वनों को नष्ट कर रहा है । वह उद्‌योगों के फैलाव से यहाँ की नदियों तथा अन्य प्राकृतिक स्थलों को गंदा कर रहा है । अवैध रूप से शिकार हो रहे हैं जो जगंली जीवों के जीवन के लिए घातक हैं । ग्रीन हाऊस गैसों के निरंतर प्रसार से तापमान में वृद्धि हो रही है जिसके प्रभाव से यहाँ की बर्फ पिघल रही है । इन सबके बारे में हमें जागरूक होना पड़ेगा । लोगों को हिमालय की रक्षा के लिए उपयुक्त कदम उठाने होंगे । 

कुलमिलाकर यह विशाल नगपति भौगोलिक दृष्टि से असंख्य पर्वतों, नदियों, वन-संपदा तथा खनिजों को अपने में समेटकर हमारे सम्मुख अनंतकाल से खड़ा है। देश-विदेश से तीर्थ यात्री एवं पर्यटक इसके दर्शन के लिए आते हैं। हिमालय के रमणीय स्थान, यहाँ मनाए जानेवाले पर्व एवं त्योहार आदि रंग-बिरंगे दृश्य अवश्य ही इन्हें खींच लाते हैं। हिमालय असंख्य तीर्थों को धारण कर एक ओर धार्मिक महत्व का प्रतिपादन करता है तो दूसरी ओर तपस्वियों की साधना-भूमि होकर आध्यात्मिक महत्व पर बल देता है। पौराणिक घटनाओं का साक्षी हिमालय स्वयं सच्चरित्रता का साक्षी बनकर हमारी संस्कृति की रक्षा करता है। वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण एवं महाभारत में इसके उदाहरण पाए जाते हैं। 

हिमालय प्राकृतिक वैभव बिखरा पड़ा है । यहाँ प्रकृति अपने अनमोल खजाने मुक्त हस्त से लुटाती है । हिमाच्छादित पर्वत अद्‌भुत समाँ बाँध देते हैं । प्रात:कालीन सूर्य की किरणों से इनकी शोभा और भी निखर आती है । देखने वाले ठगे से रह जाते हैं । थोड़े नीचे की ओर चलें तो वनप्रांत आरंभ हो जाते हैं । देवदार, चीड़ आदि के ऊँचे-ऊँचे पेड़ यहाँ की शोभा बढ़ाते हैं । ये पेड़ जगंली जीव-जंतुओं की शरणस्थली हैं । कितने ही जानवर यहाँ निवास करते हैं । भालू, रीछ, हाथी, बंदर, याक, जेबरा, गेंडा, चीता हिरन सब यहाँ स्वयं को किसी हद तक सुरक्षित अनुभव करते हैं । उधर पेड़ों पर पक्षियों का कलरव सुनाई देता है । छोटी-छोटी नदियाँ, ऊँचे पहाड़, गहरी खाइयाँ, पेड़, पशु, पक्षी आदि मिलकर अद्‌भुत प्राकृतिक दृश्य उपस्थित करते हैं ।हिमालय की तराई में अनेक गाँव और शहर बसे हैं । पहाड़ी लोग भेड़-बकरियाँ बड़ी संख्या में पालते हैं । इन पालतू पशुओं के लिए हिमालय में चारागाह होता है । स्थानीय लोग हिमालय से कई प्रकार की जड़ी-बूटियाँ प्राप्त करते हैं । हिमालय के वनों से कीमती लकड़ियाँ, गोंद तथा पत्ते प्राप्त होते हैं । लकड़ियों की बहुतायत लकड़ी के ढलवाँ घर बनाने में मदद करती है । इन वनों से दियासलाई की लकड़ी तथा कागज बनाने की लुगदी भी प्राप्त होती है । 

अंत में, भारत के निर्भीक प्रहरी ‘मेरे नगपति,मेरे विशाल!’(हिमालय) ने राष्ट्र-रक्षक के रूप में हमारी सीमा को सदियों से सुरक्षित रखा है।हिमालय हमारी सांस्कृतिक धरोहर का पतीक ही नहीं हमारी भौगोलिक,प्राकृतिक आध्यात्मिक, धार्मिक, नैतिक और राष्ट्रीय स्मिता का अग्रदूत भी है।