Sunday, November 6, 2016



गीतों की रानी हब्बाखातून 

डॉ० शिबन कृष्ण रैणा


संगीत-साम्राज्ञी हब्बाखातून (1554-1609) कश्मीरी काव्य-जगत की एक ऐसी अप्रतिम विभूति हैं, जिनके गीतों से लगभग पांच दशक पहले तक कश्मीर की फिजाएं गूंजती रहती थीं। हब्बाखातून का वास्तविक या बचपन का नाम ‘जून’ था। वे एक ग्रामबाला थीं, जिनकी सुंदरता और पुरकशिश आवाज लाजवाब थी। कालांतर में माता-पिता ने अज़ीज़ लोन नाम के एक युवक से उनकी शादी तय कर दी। दुर्भाग्य से वह रिश्ता बहुत दिनों तक चल नहीं सका। जून के साथ न तो अज़ीज़ की रुचियां मेल खाती थीं और न ही विचार। ससुराल-पक्ष से भी कोई सहानुभूति नहीं मिली। ऐसे में अवसादजन्य पीड़ा से संतापित उस नवविवाहिता का भाव-प्रवण मन कराह उठा और वह मायके वालों से फरियाद करने लगी- ‘चार कर म्योन मालिन्यो...!’ यानी, ‘ससुराल में मैं सुखी नहीं हूं, मायके वालो! मेरा कष्ट निवारो...! नमक छिड़कते हैं सभी, मुझे संभालो मायके वालो! मेरा कष्ट निवारो...!’
एक दिन खेत में काम करते वक्त हब्बाखातून शायद अपने दिल का दर्द हल्का करने के लिए इस गीत की पंक्तियां गुनगुना रही थीं। तभी वहां से सजे हुए घोड़े पर सवार सुंदर परिधान में सुसज्जित एक नवयुवक गुजरा, जिसे इस दर्द-भरे गीत के मधुर बोलों ने बरबस अपनी ओर आकर्षित किया और वह उस ग्राम बाला पर मुग्ध हुआ। वह नवयुवक और कोई नहीं, कश्मीर के सिंहासन का वारिस शहजादा यूसुफशाह चक था। क्षण भर में ही ‘चंद्रहार’ गांव की रूपसी कश्मीर के भावी नरेश के दिल की रानी बन गई। हब्बा ने शहजादे का मौन प्रणय-निवेदन स्वीकार कर लिया और 1570 ई में वे खेतों से निकल कर राजमहल में आ गर्इं। राजमहल में कदम रखने के बाद हब्बाखातून का व्यक्तित्व निखर उठा। शहजादा यूसुफशाह अगरचे एक कुशल प्रशासक सिद्ध न हुआ, लेकिन तबियत से खुद वह एक सुरुचिसंपन्न और कलाप्रेमी व्यक्ति था। उसने हब्बा की तरबियत के लिए विदेशों से प्रसिद्ध संगीतशास्त्री बुलाए। अपनी कला को निखारने में कवयित्री को यहां हर तरह की प्रेरणा और सुविधा मिली।
एक ग्रामबाला और राजरानी के अलावा एक संगीतज्ञ और कवयित्री के गुणों का सुंदर-सजीव सम्मिश्रण हब्बाखातून के कृतित्व में देखने को मिलता है। कवयित्री के भावपूर्ण उद्गार ‘वचन’ कहलाते हैं, जिनके माध्यम से हब्बा के कोमल और संवेदनशील व्यक्तित्व को कश्मीरी काव्य और संस्कृति में एकाकार हुए देखा जा सकता है। महल के रमणीक वातावरण में रह कर हब्बा ने प्रेम और समर्पण से आपूरित बड़ी ही सुंदर रचनाएं रचीं जो उनके भावप्रवण मन का द्योतन करती हैं- ‘गुलदस्ता सजाया है मैंने तेरे लिए, इन अनार-पुष्पों का आनंद ले ले/ मैं धरती तू आकाश है मेरा, आवरण तू मेरे रहस्यों का/ मैं एक व्यंजन, अतिथि तू प्यारा, इन अनार पुष्पों का आनंद ले ले...!’
हब्बाखातून ने जब महल में प्रवेश किया, कश्मीरी भाषा और साहित्य की स्थिति संतोषजनक नहीं थी। फारसी भाषा के बढ़ते प्रभाव के कारण लोकभाषा कश्मीरी में साहित्य-रचना करना प्रतिष्ठा के विरुद्ध समझा जाता था। हब्बाखातून का यह कश्मीरी भाषा और कविता पर बहुत बड़ा उपकार है कि उन्होंने फारसी के राजकीय प्रभाव की चिंता किए बिना कश्मीरी में ही काव्य-रचना की, जिससे इस भाषा को फलने-फूलने का अवसर मिला और साथ ही कश्मीरी काव्य-परंपरा की छोटी-सी धारा को, जो कवयित्री के लगभग एक सौ वर्ष पूर्व तक लुप्तप्राय हो चुकी थी, काल के गर्भ में विलीन होने से बचाया। कश्मीरी के प्रसिद्ध विद्वान अमीन कामिल साहब ने इसी बात को यों रखा है- ‘एक ऐसे वक्त में जबकि फारसी जबान के प्रभाव की वजह से कश्मीर के तमाम शायर अपनी मादरी जबान की तरफ आंख उठा कर भी नहीं देखते थे, बल्कि इसमें साहित्य-सृजन करना प्रतिष्ठा के विरुद्ध मानते थे, हब्बाखातून के गीत जहां कश्मीरी जबान की जिंदगी के प्रेरणास्रोत बन गए, वहीं आम लोगों, खासकर औरतों में लोकप्रिय होकर उनके दिलों को गम बर्दाश्त करने की कूवत भी बख्शते रहे।’
1585 ई में मुगल सेनाओं ने सिपहसालार राजा भगवानदास की अगुवाई में कश्मीर की ओर कूच किया। यूसुफ की जांबाज फौज ने शक्तिशाली मुगल सेना का डट कर मुकाबला किया। राजा भगवानदास की बातों में आकर यूसुफ शहंशाह अकबर के साथ संधि करने के लिए राजी हो गया। हालांकि बेटे याकूब ने बहुत समझाया कि इसमें कोई चाल नजर आ रही है। इसके बाद यूसुफ लौट कर नहीं आया। कहा जाता है कि उसे बंदी बना कर बिहार में बसोक (बिस्वक) नामक स्थान पर रखा गया, जहां सात वर्ष बाद उसका निधन हो गया।
यूसुफ से बिछुड़ जाने के बाद हब्बाखातून के जीवन में जो घोर वीरानी और खालीपन छाया, उससे जनित वियोग की दारुण पीड़ा ने उन मर्मांतक गीतों को जन्म दिया जो उन्हें गीतों की रानी का दरजा देते हैं। इन गीतों में कवयित्री के शोकाकुल मन की वितृष्णा, खिन्नता और उद्वेग्जनित पीड़ा के दर्शन होते हैं- ‘मां-बाप ने बड़ा किया, दूध औ मिश्री खिला कर/ खूब पुचकारा, खूब नहलाया, अब मुसाफिर बन दर-दर डोलती जाऊं/ हाय, किसी का भी यौवन व्यर्थ न जाए।’ कहते हैं कि यूसुफ के कश्मीर छोड़ने के बीस वर्ष बाद तक हब्बाखातून जीवित रहीं और आखिरकार प्रेम की पीर और अधूरे ख्वाबों की कसक को अपनी आंखों में संजो कर वह दीवानी-विरहिणी इस संसार से चल बसी। उनकी कब्र श्रीनगर के निकट ‘पांतछोक’ नामक स्थान पर स्थित बताई जाती है। कश्मीर की इस लाडली/ महान कवयित्री की याद में भारतीय नौ-सेना के एक जहाज का नाम ‘हब्बाखातून’ रखा गया है।

Thursday, October 6, 2016


कला और संवेदना 

(जनसत्ता,६ अक्टूबर,२०१६)

पहले के ज़माने में कलाएं स्वान्तः सुखाय होती थीं।अब वे धनोपार्जन का कारगर माध्यम बन गयी हैं।पाकिस्तानी कलाकार अपना देश छोड़ कर हमारे देश में आकर अगर यहाँ फिल्मों में काम करते हैं तो कोई मानवता या भाईचारे का संदेश देने के लिए यहां नहीं आते हैं,बल्कि पैसा कमाने के लिए यहाँ आते हैं और मोटी रकमें कमाकर वापस अपने देश चले जाते हैं।जो संस्थाएं या फिल्म कम्पनियां उन्हें यहाँ बुलाती हैं उनके भी अपने हित होते हैं।जिन दिनों उड़ी/कश्मीर की त्रासदी हुयी,ये सारे पाकिस्तानी कलाकार हमारे देश में थे।विश्व के सभ्य समाज ने ऊड़ी-त्रासदी की कड़े शब्दों में निंदा की मगर मजाल है पाकिस्तानी कलाकारों ने सार्वजनिक तौर पर इस त्रासद घटना की मज़म्मत में दो शब्द भी बोले हों।

ये सच है कि कला की दुनिया से जुड़े लेखकों,गायकों,संगीतकारों या फिर अभिनेताओं आदि की अपनी एक अलग दुनिया होती है और वे देश या समाज में हो रहे ऊहापोह से अपने को दूर रखने में ही अपना भला समझते हैं।मगर हमें यह नही भूलना चाहिए कि कलाओं का समाज के सुखदुख से चोलीदामन का साथ होता है।समाज है तो कलाकार है,समाज नही तो कलाकार का क्या वजूद?संवेदनहीनता कला की पहचान नहीं है,उसका संदेश सार्वभौमिक होता है,आत्मकेंद्रित नहीं।मानवीय सरोकारों से दूर निजी हितों और स्वार्थों से प्रेरित कला मात्र व्यवसाय कहलायेगी,कला नहीं।

Tuesday, September 20, 2016

पूंजपतियों के साहबज़ादे

उड़ी(कश्मीर) में हमारे बीस जांबाज़ सैनिकों की शहादत को केंद्र में रखकर हमारे मित्र डॉ० जीवनसिंह जी ने बड़ी ही महत्वपूर्ण और उद्वेलित करने वाली टिप्पणी की है: “रोजी-रोटी ही वजह है कि गरीब किसानों के बेटे ही सीमाओं के प्रहरी बनते हैं और अपना जीवन बलिदान करते हैं।नेता का बेटा तो प्रधान मंत्री या मुख्य मंत्री बनने के लिए पैदा हुआ है।जैसे पूँजीपति का बेटा पूँजीपति बनता है और नौकरशाह का नौकरशाह।इस रहस्य का जिस रोज सही खुलासा हो जायगा और किसान अपनी जाति की दलदल से बाहर निकल कर सच में ही किसान -मजदूर की राजनीति करेगा तो बात ही कुछ और होगी।“
बात विचारणीय है।हालांकि सेना में भर्ती कठिन परीक्षाओं के बाद ही होती है,फिर भी यह सत्य है कि नेताओं या पूंजपतियों के साहबज़ादे सेना में कम ही जाते हैं।यह गरीब किसान या मज़दूर का बेटा ही है जो ‘हर-हर महादेव’ कहता हुआ दुश्मन पर टूट पड़ता है।मारता है और मरता भी है।सेना और मौत ऐसे दो शब्द हैं जो एकदूसरे से दूर नहीं हैं।सेना में अपनी संतान को भेजने के लिये माँ-बाप में लोहे का कलेजा होना चाहिए।ठीक कहा डॉ० साहब।नेता का बेटा तो प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बनने के लिये ही पैदा हुआ है।---इज़राइल के प्रधानमंत्री का चित्र आँखों के सामने उभर रहा है जहाँ वे अपने बेटे के सेना में शामिल होने पर उसे गले लगाकर,पीठ थपथपाते हुए आशीर्वाद देते हैं।हमारे यहाँ ऐसा होना सुई में से ऊंट निकालने के समान है।

Friday, September 16, 2016

हिंदी के प्रसिद्ध सम्पादक/आलोचक/लेखक प्रभाकर श्रोत्रिय नहीं रहे.मैं इनसे दो-तीन बार मिला हूँ जब वे ज्ञानपीठ के निदेशक थे. एक बार की मुलाक़ात बहुत दिनों तक याद रहेगी. किसी मीटिंग के सिलसिले में मुझे ज्ञानपीठ के दफ्तर जाना पड़ा. मित्रवर जुगमंदिर तायल भी इसबार मेरे साथ होलिए. मीटिंग हो जाने के बाद हम ने प्रभाकरजी से अलग से उनके चैम्बर में मिलने का मन बनाया.संयोग से उस दिन ज्ञानपीठ का स्टाफ उनको विदाई देने वाला था. (प्रभाकरजी ने निजी कारणों से ज्ञानपीठ को छोड़ने का मन बना लिया था.) हम दोनों से वे खूब आत्मीयता से मिले. ज्ञानोदय के ताज़ा अंक हमको भेंट किये.चाय मंगवाईआदि. इस सब में समय लगा.इस बीच उनके निजी सहायक ने दो बार उन्हें सूचना दी कि विदाई केलिए सारा स्टाफ नीचे एकत्र है और बाहर से कुछ अतिथिगण भी पधार गये हैं और बहुत देरसे इंतज़ार कर रहे हैं.हमने भी शिष्टाचारवश इजाजत मांगनी चाही,मगर यह उनका बडप्पन और लेखकों के प्रति मान-सम्मान का भाव था कि उन्होंने हमें यह अहसास होने नहीं दिया कि वे जल्दी में हैं .उल्टा सहायक को कहा: 'मेरे कुछ मेहमान मुझसे मिलने के लिए दूरसे आये हैं,मुझे कुछ समय लग सकता है.' आज की तारीख में साहित्यिक बिरदारी के ऐसे कद्रदानों का मिलना असम्भव नहीं तो कठिन ज़रूर है. विनम्र श्रद्धांजलि!

Wednesday, September 14, 2016



कश्मीरी साहित्य में राष्ट्रीय काव्य-चेतना 


डॉ० शिबन कृष्ण रैणा

पूर्व अध्येता,भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान,शिमला,
सीनियर फेलो,संस्कृति मंत्रालय,भारत सरकार, 


कविता प्राचीनकाल से ही मानव की भावाभिव्यक्ति का प्रधान माध्यम रही है | सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ-साथ उसके रूप-विन्यास, भाव-लोक, अभिव्यक्ति-शैली आदि में परिवर्तन-परिष्कार होता रहा है | सहृदय व्यक्ति अपने परिवेश के प्रति सजग होकर जब चिन्तन-मनन करता है तो प्रतिक्रिया-स्वरुप उसके विहृल मन से नि:सृत होने वाले उद्वार या भाव कविता बन जाते हैं | ऐसी कविता युग-बोध की साक्षी बनकर अपने समय की चेतना को रूपायित करती है | किसी भी भाषा की काव्यचेतना अपने युग के संदर्भों से विलग नहीं हो सकती | मोटे तौर पर काव्यचेतना से तात्पर्य कवि-चिन्तन के उस रूप से है जो सामयिक बोध से आवेष्ठित होकर कवि की सोच, उसकी दृष्टि तथा सर्जन-शक्ति को रूपायित करता है |


भारत एक बहु भाषा-भाषी देश है। बाईस प्रमुख भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त इस देश में लगभग 1652 बोलियां या उपभाषाएं बोली जाती हैं।प्रायः प्रत्येक भाषाक्षेत्र की अपनी भौगोलिक एवं परिवेशगत विशिष्टिता होते हुए भी अपनी एक पृथक्, स्वस्थ, सुदीर्घ एवं समृद्ध साहित्यिक-सांस्कृतिक परंपरा है । इस परंपरा में भारतीय धर्म-दर्शन, विद्या-बुद्धि, चिंतन और कलाओं की परमोत्कृष्ट संपदा समायोजित है। दूसरे शब्दों में भारतीय मनीषा और विचारणा इन्हीं भाषाओं के साधकों, रचनाधर्मियों एवं सर्जकों की समेकित अभिव्यक्ति है,जिसे हम प्रकारांतर से ‘भारतीयता’ या ‘भारतीय-अस्मिता’ भी कहते हैं। दरअसल, मौटे तौर पर हमारे देश में अनादिकाल से एक ही विचारधारा, एक ही जीवन-दर्शन तथा एक ही महान् आदर्श का प्रचार-प्रसार था । कालांतर में किन्हीं राजनीतिक परिवर्तनों के कारण विभिन्न प्रदेशों में उनका विशिष्ट स्वरूप स्थिर हो गया । इस विशिष्टता के होते हुए भी उनके मूल में एक ही सांस्कृतिक सूत्र विद्यमान रहा । इस अन्तर्व्यापी सांस्कृतिक सूत्र की महिमा पर श्री आर.आर. दिवाकर लिखते हैं ‘But inspite of these political and other vicissitudes,what has persisted like mighty river Ganga,is the silken thread of Indian culture which is still binding the varied people of the whole India,from Kashmir to Cape-Comorin and Kutch to Assam’(India Through Ages Page 26) अर्थात् ‘‘राजनीतिक तथा अन्य प्रकार के उलट-फेरों के होते हुए भी भगवती गंगा के समान पवित्र एवं शाश्वत हमारी भारतीय संस्कृति का रेशमी धागा आज भी कश्मीर से कन्याकुमारी तक तथा कच्छ से असम तक इस देश के भिन्न-भिन्न लोगों को एकसूत्र में बॉंधे हुए है ।’’ इस अविच्छिन्न सूत्र के कई आयाम हैं जिनका अन्वेषण हिन्दी के सन्दर्भ में विभिन्न भारतीय भाषाओं में उपलब्ध साहित्य की संपदा के अध्ययन से किया जाना संभव है।

यह भारतीय संस्कृति या अस्मिता की विशिष्टता ही है कि प्रायः समस्त भारतीय भाषाओं के साहित्य का आदिकाल संतवाणी या भक्तिप्रधान काव्य से युक्त है। इस काल के प्रत्येक संत/भक्त कवि ने जो रचना की,उसकी भाषा भले ही भिन्न रही हो पर कथ्य के स्तर पर उस में अद्भुत साम्य/एकसूत्रता दृष्टिगोचर होती है। भाषा-साहित्य के स्तर पर भारतीय साहित्य में इस तरह की एकरूपता सचमुच अभिनन्दनीय है। एकसूत्रता का यह प्रभाव भारतीय मनीषा एवं सृजनशीलता में व्याप्त आंतरिक अखंडता एवं भावनात्मक एकता को रेखांकित करता है।चाहे बंगला के चण्डीदास हों या गुजराती के नरसिंह मेहता, मराठी के संत ज्ञानेश्वर हों या तमिल के कंबन या आलवार भक्तिन आंडाल, तेलुगु के पोतन हों या मलयालम के तुंजन,असमिया के माधव कंदली हों या कश्मीरी की संत कवयित्राी लल्लद्यद या शेख नूरुद्दीन वली/नुंद ऋषि या फिर हिन्दी के कबीर,दादू,नानक,रैदास आदि।ये सभी कवि अपनी-अपनी भाषाओं के आदिकाल के अत्यन्त प्रतिष्ठित एवं कृती रचनाकार हैं जिनका काव्य संतवाणी से मुखरित है और ज्ञान,सदाचार,धर्म,दर्शन आदि की अन्तःसलिला से इन भाषओं का साहित्य रससिक्त है।

भारतीय भाषाओं के साहित्यों में मध्यकाल में कथ्य की विविधता या फिर प्रतिपाद्य विषयों की अधिकता के कारण एकात्मकता के तंतु बिखरे हुए अवश्य मिलते हैं किन्तु आधुनिककाल में,विशेषकर भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन के आसपास से, ये सम्बन्ध पुनः संगठित और एकनिष्ठ होते हुए दिखाई पड़ते हैं। परिस्थितियां और परिवेश भिन्न होते हुए भी काव्य-चेतना के स्तर पर समस्त भारतीय भाषाओं में रचित इस काल की रचनाओं की अभिव्यक्ति में उल्लेखनीय समानता मिलती है।घ्यान से देखा जाए तो भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम के महायज्ञ में जहां देश के बड़े-बड़े नेता,समाज-सेवी,देशभक्त आदि आहुतियां दे रहे थे, वहीं विभिन्न भारतीय भाषाओं के कवि एवं लेखक भी अपनी क़लम की ताक़त से इस राष्ट्र्-व्यापी जन-आंदोलन को मज़बूत कर रहे थे। टैगोर(बंगला),भारती(तमिल),गोपबन्धुदास(उड़िया), जोश मलीहाबादी(उर्दू), श्रीश्री(तेलुगु), वीरसिंह(पंजाबी), भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, मैथिली शरण गुप्त व माखनलाल चतुर्वेदी(हिन्दी), गुलाम अहमद महजूर, अब्दुल अहद आज़ाद व दीना नाथ नादिम(कश्मीरी)आदि, ऐसे कुछ रचनाकार हैं, राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में जिनके योगदान ने समूचे भारतीय साहित्य को ऊर्जा प्रदान कर स्वतन्त्रता-संग्राम के महायज्ञ में मंत्रोच्चार का कार्य किया।

अन्य भारतीय भाषाओं की तरह कश्मीरी भाषा में भी राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ी काव्यचेतना की मुखरता साफ तौर पर देखने को मिलती है। इतना ज़रूर है कि राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा की अनुवर्त्ती बनकर यह चेतना ‘देसी आंदोलन’ के रूप में अधिक मुखर रही।स्वातन्त्रयपूर्व रची हिन्दी कविता की तरह ही कश्मीरी कविता में भी राष्ट्रीयता एवं जनचेतना की अनुगूंज सुनाई पड़ती है। बीसवीं शती के प्रारम्भ में कश्मीर सिक्खों के दौर से गुज़र कर डोगरा शासकों की सामंती शासन-व्यवस्था की जकड़ में आ चुका था और जम्मू व कश्मीर राज्य की स्थापना भी हो चुकी थी।उधर, अंग्रेज़ी शिक्षा और सभ्यता तथा भारतीय नवोन्मुष का प्रभाव इस भू-भाग में भी परिलक्षित होने लगा था। कालांतर में रेज़ीडेंटशाही के दमनचक्र के विरुद्ध कश्मीरियों ने कमर कस ली और अपने ऊपर हो रही ज़्यादतियों का विरोध किया। राजनीतकि व सामाजिक दृष्टि से पराभूत तत्कालीन कश्मीरी जनमानस में नवचेतना का संचार किया गुलाम अहमद महजूर, अब्दुल अहद आज़ाद,नूर मुहम्मद रोशन, दीनानाथ नादिम, अर्जुन देव मजबूर आदि कवियों ने। हिन्दी में जो कार्य साहित्य के मोर्चे से सर्वश्री भारतेन्दु हरिश्चन्द्रु,मैथिलीशरण गुप्त,माखनलाल चतुर्वेदी,बालकृष्ण शर्मा नवीन,सुभद्रा कुमारी चौहान, सोहनलाल द्विवेदी आदि कर रहे थे, वही कार्य कश्मीरी में महजूर,आज़ाद,रोशन,नादिम आदि कर रहे थे। राजनीति के मोर्चे पर जहां शेख अब्दुल्ला आदि नेताओं की अगुआई में डोगरा शासकों के सामंती वर्ग को चुनौती देता हुआ राजनीतिक आंदोलन तीव्र हो चला, वहीं साहित्य के मोर्चे पर महजूर,आज़ाद,नादिम आदि ने जनजागरण व राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत सुन्दर कविताएं लिखीं।‘नया कश्मीर’ ज़िदाबाद का नारा घर-घर गूंजने लगा।शायर-ए-कश्मीर ‘महजूर’ ने इकबाल के ‘सारे जहां से अच्छा---’ की तर्ज़ पर ‘गुलशन वतन छु म्योनुय..’/गुलशन है वतन मेरा..’, ‘वलो हो बागवानो...’ओ बागबान,आओ...’ आदि कविताओं में अपने मन व समय के अन्तर्संघर्षों को वाणी दी। 1938 की सांकेतिक क्रांति के उद्घेषक के रूप में ‘महजूर’ ने प्रतीकों के माध्यम से स्वाधीनता की बात कही-

रे बागवान! तू नव-बहार की शान पैदा कर,

खिलें गुल, पंख फैलाए बुलबुल-

ऐसा तू सामान पैदा कर। 

तूफान ला, भूकंप ला या फिर तू

गर्जन पैदा कर---। 

‘महजूर’ ने देशभक्ति से ओतप्रोत जो कविताएं लिखीं उन्हें पढ़ व सुनकर कश्मीरी जनता में नई उमंग व स्फूर्ति का संचार हुआ। ‘नोव कश्मीर’ कविता में महजूर ने ‘नए कश्मीर’ के सपनों को यों संजोया-

कांटे करेंगे बाग की रखवाली

ताकि फूलों को तोड़कर न ले जाए कोई,

भेद मिट जाएगा-

छोटे- बड़ेकमज़ोर-ताक़तवर का 

सभी एकसमान होंगे, और

आदमी इंसान बन जाएगा।

महज़बदारों के हथियार खोल दिए जाएंगे

ताकि एक-दूसरे के साथ लड़ते-मरते न रहें,और

मज़हब मात्रा एक चिह्न रह जाएगा। 



आगे चलकर ‘महजूर’ की कविता में उद्वेलन एवं क्रांति के स्वर गूंज उठे।वे निर्भय हाकेर कहने लगे-

रे भूख से पीड़ित मज़दूर!

तू गफ़लत की नींद से जाग,

उठ और अपने पैरों पर खड़ा होना सीख।

जु़ल्म ने तुझ को पौरुषहीन बना दिया है-

देख,इंकलाब का प्रकाश लेकर नया सूरज

पूर्व से उगा है.....।



हिन्दी में राष्ट्र् कवि मैथिलीशरण गुप्त की कविता में भी कुछ ऐसे ही तेवर देखने को मिलते हैं-

धरती हिलाकर नींद भगा दे

वज्रनाद से व्योम जगा दे

दैव,और कुछ लाग लगा दे। (स्वदेश संगीत)



अब्दुल अहद ‘आजाद’(1913-1988) नाम के साथ कश्मीरी-कविता का एक ऐसा दौर जुड़ा हुआ है जिसमें राष्ट्रीय संचेतना, देशभक्ति तथा जनजागरण के स्वर गूँजते मिलते हैं | ‘आजाद’ जब तक जीवित रहे तब तक हाकिमों की ताना-शाही देखते-झेलते रहे | वे जिधर भी नजर दौड़ाते उधर जनता शोषण के पंजों में जकड़ी दीख पड़ती | समाज का प्रत्येक सदस्य चाहे वह किसान हो य मजदूर, सरकारी कर्मचारी हो या कोई कारीगर--ज़माने का मारा हुआ था|उधर सम्पूर्ण देश पर अंग्रेजी शासक जुल्म ढा रहे थे और इधर आजाद की मातृभूमि-कश्मीर का और भी बुरा हाल था |अंग्रेज अधिकारी दिखावे के लिए कश्मीर की जनता का उद्धार करने के लिए यहाँ आते किंतु यहाँ पहुँचकर वे हाकिम-वर्ग से मिलकर सैर-सपाटे तथा खाने-पीने में लग जाते | बेचारी जनता के दुःख-दर्द को समझने वाला कोई न था | ‘आजाद’ कश्मीरियों की यह बेबसी देखकर जार-जार रोया | उसने जनता को आह्वान किया: यदि ज़िन्दा रहना चाहते हो तो दिलों में जोश पैदा करो, गफलत की नींद से जाग उठो | अपने पैरों पर खुद बड़ा होना सीखों, जुल्म और अन्याय एक दिन मिटकर रह जायेगे और वह दिन बहुत जल्द आने वाला है जब तुम अपने मुल्क के मालिक होगे | मेरे देशवासियों, गरीब का खून रंग अवश्य लायेगा और वह तूफान व बाढ़ की तरह जलिमों को बहाकर ले जायगा| न सूदखोर रहेंगे और न सरमायादार:-

आसि दोह अनकरीब दीद वुछन खोशनसीब,

नेरि यि खुनि गरीब जोश दीवान आशकार,

वोयि यि तूफान जन त्रावि पथर जालिमन,

फेरिकोहन जंगलन नेरि करान लूरअ पार,

रुद्ध कति सूदखोर रोजि यि सरमायदार,---------

‘आजाद’ ने आततायियों को कभी नहीं कोसा | वे जानते थे की जनता मूक गाय की तरह अन्याय सह रही है, अत: मूलतः दोषी वही है | जनता में (हुब्ब-वतन) देशप्रेम की कमी है, तभी अन्याय करने वालों को निरीह जनता पर अत्याचार करने का सुअवसर मिल रहा है |’ जनता के दिलों से देशप्रेम की भावना बर्फ के समान ठंडी पड़ गई है | अपनी ही लापरवाही से उनका सर्वस्व लुटा जा रहा है | अब नींद से जागो रे देशवासियों! हमारी धरती को स्वर्ग कहा जाता है किंतु अफ़सोस, हमारी जिन्दगी दिनोदिन जलील होती जा रही है | हाकिमों के लिये खूनपसीना एक कर के हम उन्हें सुख-सुविधा का सामान सुलभ करते हैं लेकिन बदले में वे हमारी बोटी-बोटी नोच रहे है | यह धरती बडशाह, कल्हण, सरफी जैसे सपूतों की है, उस धरती की यह दुर्दशा| गैर-मुल्की शासन के चंगुल से मुक्त होना, जातियों के जुल्म का अन्त करना तथा जनता के दिलों में देशप्रेम को जगाना – यही मेरी तमन्ना है, यही मेरी आरजू है और यही मेरा पैगाम है:-

शीन खोत सर्द वुछान छुस व तिम सीनअ गअमत्य,

हा वतन दारो वुनि न्यंदरि गछख ना बेदार,

माल चोन जायि सपुन जुव ति मा गछि जाये,

कल्हण, गनी, तअ सरफी सअराब करियेम आबन,

सुय आब सानि बापय जहर हिलाल आसिहा,

आजाद बनुन जुल्म गालुन, वहम करुन दूर,

यी म्योन हवस, यी छु सदा, यी छु म्योन मुदा | -----



कवि इतना कुछ कहने पर संतुष्ट नहीं दिखता | वह आगे कहता है:-

युस डयकअ अलरावी अरशस फर्शहयय वक्त नियाज,

सुय डयकअ दरवाजनअय प्यठ क्याजि त्रिवुश, ती पज्या,

बस मारुनोतुय वे जोनुय प्यंड परुन मेरास व मुल्क,

जिन्दगी हुन्द खून नाहक बारि योवुय, तीपज्या-----||

(रे देशवासी, तेरे सजदा-ए-नियाजमंदी से तो आस्मानो जमीन

हिल सकते थे किंतु हाय अफ़सोस, तूने वह सजदा गैर-मुल्की

हाकिमों की दहलीज़ पर नजर किया | तू ने अपनी जिन्दगी का

लक्ष्य केवल मौत समझ रखा है तया अपने कर्तव्यों को भूल रहा

है | इन कर्तव्यों से विमुख होकर तू मानवता का हनन कर रहा

है, क्या यही उचित है?)

मजहब की दीवार इन्सान को इन्सान से जुदा करे- यह आजाद को कदापि मानी नहीं था | ‘हम सभी एक हैं, हम सब का एक खुदा है, हम सब एक ही धरती-माँ की सन्तान हैं- फिर यह भेदभाव क्यों:-

येमि यकसानिक हालि मअदाना,

कुसछु पनुन त कुसछु बेगाना म्योन,

यूथ मेनिश हयोद्तअ तुयुय मुसलमाना,

गोश थव बोज अफसानअ म्योन,

दीन म्योन मिलचार ,धर्मयकसाना,

यूथ मेनिश कैबा तुथुय बुतखाना,

गोश थव बोज अफसानअ म्योन----------||

मेरे लिये कोई भी अपना-पराया नहीं है 

न मेरे लिये कोई हिन्दू है और न कोई मुसलमान,

मेरा धर्म ‘मिलजुल कर रहने’ का धर्म है 

जैसे मेरे लिये मस्जिद पवित्र है, वैसे ही मंदिर भी |

देश की युवा-पीढी को आजाद ने विशेष रूप से ख़बरदार किया | उन्हीं पर देश के उज्ज्वल भविष्य की आशा टिकी हुई है | बस, उन्हें अच्छे नेता मिल जाय तो देश की काया पलट जाय | “नौजवानों, उठो और अपने ज़ोर-बाजू से अपनी मुश्किलें आसन करो | एक बात याद रखना, नेताओं के चक्कर में पड़कर उनका अन्धानुकरण कभी मत करना | कहीं वह मौकापरस्त तुम्हें चारागाह में ले जाने के बजाय किसी बीहड़ वन में न ले जाएँ- यह ध्यानपूर्वक देख लेना :-

च वोय रोज इस्तादअ पन्यन कोठयन प्यठ,

पंजन्य न्याय पानअ अंजरावू नवजबानो,

ब्रोठ्मिस पतअ- पतअ पकवन्य तीरे,

पानअ ति ब्रोठकुन नजारअ कर,

दखयि मन्ज मा गजख नमहंजी वीरो,

पजि शमशीरे गिन्दुना कर--------||

आजाद ने जब देखा कि जनता के दिलों में देशप्रेम की भावना का द्रुतगति से संचार नहीं हो पा रहा है और हाकिमवर्ग अपना जुल्म बराबर ढा रहा है तो उन्होंने अत्यंत ओजस्वी वाणी में इन्कलाब का नारा लगाया | वे ज़ोर-ज़ोर से पुकारने लगे:-

पान पनुन परजनाव छाव पनुन लोलबाग,

दाग-गुलामी मिटाव हावपनुन दिलदिमाग,

चान्य खयालन बनाव्य खवाजअ, अमीर वडय नवाब,

इन्कलाब अन इन्कलाब, इन्कलाब अन इन्कलाब,

सजदि कमन छुख करान खोफ कहनिद छुख मरान,

लोल छुख बागरान, ब्रांडअकनयन सोन जरान,

आसि त्युहुन्द खून सोरख छुय वे रगनमंच आब,

इन्कलाब अन इन्कलाब, इन्कलाब अन इन्कलाब --------||

(रे देशवासी, तू अपने आप को पहचान 

अपने दिल-दिमाग से काम लेकर गुलामी का दाग मिटा दे |

तू इन्कलाब ला, इन्कलाब ला|

तू किन के सामने झुकता है ?

और किन के खौफ से डरता है ?

अपने खून पसीने को एक करके

तू जिनके लिये नींव बना रहा है

वे तुझे हेय समझते हैं 

रे पौरुषहीन, उठ-इन्कलाब ला, इन्कलाब ला)

आजाद के अन्य देशभक्ति गीतों में ‘म्योन वतन’ मेरा वतन, ‘हा वतन दारो हो’ रे देशवासी, ‘नग्माए बैदारी ‘जागरण-गीत, ‘इन्कलाब’, ‘शायर-लीडर-कौम’ , ‘सुभाषचंद्र बोस’ ‘महात्मागान्धी’ , ‘नाल-ए-बडशाह’ ‘शिकवा-ए-कश्मीर’ ‘सरमायादारी’ आदि काफ़ी प्रसिद्ध हैं |

१९४७ का वर्ष कश्मीर के इतिहास में विशेष महत्त्व रखता है | इस वर्ष कश्मीर की सुरम्य घाटी पर पाकिस्तान द्वारा समर्पित कबाइलियों का आक्रमण हुआ, जिस के परिणामस्वरूप घाटी के अनेक देशभक्तों ने एकत्र होकर पाकिस्तानी हमले का साहित्यक मोर्चे से मुकाबला करने के लिए कल्चरल फ्रग्टे नाम की एक अदबी अजुमन गठित की |इस अंजुमन के सदस्य थे कश्मीर के विभिन्न प्रगतिशील युवा लेखक कर्मठ समाज सेवी तथा विचारणीय चिन्तक आदि | सभी ने देश भक्ति की भावना से ओतप्रोत साहित्य की संरचना की | सन १९४७ के एक वर्ष पूर्व कश्मीर के नवगठित राजनीतिक दल नेशनल कान्फ्रेंस ने वर्षों से चली आ रही सामन्तशाही डोगरा शासन के विरूद्ध अभियान छेड़ दिया था और इस से पूर्व मई १९४६ ई. में इस अभियान के अंतर्गत “कश्मीर छोड़ो” आन्दोलन ने एक व्यापक ने एक व्यापक एवं अग्र रूप धारण कर लिया था |

इस आन्दोलन के पीछे चूंकि स्वदेश प्रेम की भावना तथा प्रगतिशील तत्व कम कर रहे थे इसलिए कबादली हमले तक घाटी में ऐ ऐसा जोशीला एवं तनावपूर्ण माहौल बन चुका था, जिस को कल्चरल प्रान्टे के साहित्यकारों ने एक अनुकूल एवं सामयिक पृष्ठभूमि के रूप में – आत्मसात कर लिया | इस दौरान जो साहित्य रचा गया उस का व्यापक ध्येय जनता जो देश प्रेम का पाठ पढ़ाकर उसे आर्थिक एवं राजनीतिक दोनों प्रकार की दासता के बन्धनों से मुक्त कराता रहा इस दौर की मुख्य साहित्यिक प्रवृति राष्ट्रीय प्रगतिवादी रही जो कश्मीरी साहित्य में सन १९५३ के आसपास तक व्याप्त रही |

आततायियों को मुंहतोड़ उत्तर देने के लिए जिस साहित्यक मोर्चे | कल्चरल फ्रग्ट का गठन किया गया | उस के सक्रीय सदस्य थे | सर्वश्री दोनानाथ नादिम, नूर मुहम्मद रोशन, गुलाम अहमद फाजिल, नन्दलाल अम्बारदार, अलमस्त कश्मीरी अर्जुनदेव मजबूर, प्रेमनाथ प्रेमी आदि |

ये सभी कवि ह्रदय रखते थे | सभी ने देश की स्वतंत्रता अखंडता, मान मर्यादा तथा धर्म निरपेक्षता की रक्षा हेतु ओजस्वी वाणी में दुश्मन को ललकारा | सभी का एक नारा था |

हमला आवर ख़बरदार,

हम कश्मीरी हैं तैयार,

नादिम साहब इस मोर्चे के अगुआ सिद्ध हुए | उन के प्रत्येक आह्वान ने जनता में नवीन स्फूर्ति एवं मनोबल का संचार किया | व्यापक जन-जागरण उन का विश्वास था | विश्वमैत्री उन की आस्था थी तथा मानवतावाद उन का सम्बल था:

बढ़ना है,

बढ़ना है मुझ जुमहैरियत के मशविरों पर,

नजर मेरी है कश्मीर के रहबरों पर

सारी दुनिया को विश्वमैत्री ले मुझे एक है बनाना

कि मुझ में जोश- -जवानी है,

जोश- -जवानी है ...........|

नूर मुहम्मद रोशन ने नादिम के साथ स्वर में स्वर मिलाकर नये कश्मीर के सपने अपनी कविता ‘वतन आजाद थावुन छुम’ में यों संजोया 

मुझे अपने वतन को आजाद करना है तथा एक नया

कश्मीर बनाना है | ऐस आराम छोड़कर जंग के लिए

मौर्चा तैयार करना है | अपने दुश्मन को मुझे मिटा

देना है और एक नया कश्मीर बनाना है | गुलामी

की जंजीरों को तोड़ डालना है तथा अपनी

जवानी के दम से अपनी तकदीर को संवारना है |

यहां पर इसी काल के हिन्दी कवियों की कुछ कविताओं के उदाहरण देना अनुचित न होगा जो राष्ट्रीय-चेतना से ओतप्रोत कविताएं लिख रहे थे और जिनका वर्ण्य-विषय लगभग वही था जो कश्मीरी कवियों का रहा -

1- किस के आगे हाथ पसारें

कौन हमें है देने वाला?

अपनी छिनी हुई आज़ादी

भारत खुद ही लेने वाला। ) जगन्नाथप्रसाद मिलिंद)

2-ले अंगड़ाई उठ हिले धरा

कर निज स्वर में निनाद

तू शैल विराट्! हुंकार भरे

फट जाए कुहा,भागे प्रमाद। (रामधारीसिंह दिनकर)

3-प्राण प्रेम का खेल हो चुका अब आकर्षणहीन पुराना

ब्रज की बंशी छोड़ हमें अब कुरुक्षेत्र का शंख बजाना। (हरिकृष्ण प्रेमी)

4-मेरी जां न रहे, मेरा सर न रहे,

समां न रहे, न ये साज रहे |

फकत हिन्द मेरा आजाद रहे

माता के सर पर ताज रहे |(माधव शुक्ल)

ऊपर दिए गए उदाहरणों का ध्यान से अध्ययन करने पर इस सुखद निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि हिन्दी और कश्मीरी में प्रत्यक्षतया भाषा-भेद होते हुए भी दोनों भाषाओं में कथ्य के स्तर पर आशातीत आंतरिक समानता है और यह समानता उनके अन्तर सम्बन्धों को न केवल प्रमाणित करती है अपितु पुष्ट भी करती है।

बीसवीं शताब्दी के आरंभिक पचास वर्षों में रचित हिन्दी और कश्मीरी कविता की चेतना का तुलनात्मक अध्ययन करने के पश्चात इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है की दोनों में भाव और शिल्प के स्तर पर काफ़ी समानता है | बढती हुई राजनीतिक चेतना ने दोनों भाषाओँ के कवियों को आत्मोत्सर्ग की प्रेरणा और पराधीनता को अभिशाप मानकर स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिए दोनों ने अपनी कविताओं के माध्यम से नवचेतना व नवजागरण की भावनाओं को वाणी दी |

एक बात और। हिन्दी की बढ़ती हुई लोकप्रियता (इलैक्ट्र्निक मीडिया की बदौलत) ने कश्मीरी- भाषी समुदाय को अपनी भाषा में हिन्दी के अनेक शब्दों का व्यवहार करने की यथेष्ट प्रेरणा दी है।ऐसा हिन्दी के दबाव के कारण नहीं वरन् उसकी हर क्षेत्र में बढ़ती हुर्ह व्यावहारिक उपयोगिता के कारण है। संरचना एवं व्याकरणिक दृष्टि से भी चूंकि हिन्दी और उर्दू में कोई विशेष अन्तर नहीं है,इसलिए यहां के भाषा-भाषियों में हिन्दी के प्रति कोई दुराग्रह भी नहीं है।रूप, जनता, राजनीति, भारत, प्रधानमंत्राी, युद्ध, देश, भाषा,अध्यक्ष, विधान सभा आदि ऐसे अनेक शब्द हैं जो इधर, कश्मीरी भाषियों की ज़ुबान पर चढ़ गए हैं और इन शब्दों का अपनी भाषा में प्रयोग करते समय जन-सरोकारों से सम्बन्ध रखने वाला शिक्षित कश्मीरी भाषी न केवल अपने को मुख्यधारा से जुड़ा हुआ पाता है, अपितु इन शब्दों का प्रयोग करने पर आनन्दित भी होता है।यहां पर मैं कश्मीरी के प्रसिद्ध साहित्यकार श्री अमीन कामिल की उन पंक्तियों को उद्धृत करना चाहूंगा जो उन्होंने आज से लगभग ४० वर्ष पहले एक इण्टरव्यू के दौरान मुझ से कही थीं-‘हम तो नहीं,पर हमारी संतान को अब हिन्दी सीखनी चाहिए क्योंकि यही वह भाषा है जो हमें और हमारे बच्चों को समूचे देश के साथ जोड़ सकती है--’। कामिल साहब के कथन में जो सहमति का भाव दर्ज है, वह निश्चित रूप से किसी दबाव या विवशता का सूचक नहीं है, अपितु हिन्दी की बढ़ती हुई लोकप्रियता एवं उसकी सर्वग्राह्यता के कारण है। एक सूचना के अनुसार आज कश्मीर में,राजनीतिक अफ़रा-तफ़री के बावजूद, वहां के विश्वविद्यालय में हिन्दी का अध्ययन-अध्यापन हो रहा है, हिन्दी में शोधकार्य हो रहा है, विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग से ‘वितस्ता’ नाम की हिन्दी पत्रिका निकल रही है,कई टीवी चेनलों के लिए कश्मीरी युवक और पत्रकार प्रभावशाली ढंग से हिंदी में रिपोर्टिंग करते हैं आदि-आदि।

कश्मीर और कश्मीर का विस्थापन-साहित्य 

कश्मीरी साहित्य में राष्ट्रीय संचेतना के प्रसंग में कश्मीरी की उस अत्याधुनिक कव्य- प्रवृत्ति के लिए ज़िम्मेदार उन कारणों पर विचार करना अनुचित न होगा जिनके फलस्वरूप विगत तीन दशकों के दौरान धरती का स्वर्ग कहलाने वाली कश्मीर-भूमि में साहित्यिक फिजायें विषाक्त हुयी हैं। विश्व में फैलते आतंकी साए और बढ़ते इस्लामीकरण ने जहाँ विश्व के कई सारे देशों को भयाक्रांत कर दिया है, वही कश्मीर भी इस मज़हबी जुनून की कुत्सित और भयावह छाया से अछूता नहीं रह सका है।एक समुदाय (इस्लाम-परस्तों) द्वारा दूसरे समुदाय(कश्मीरी पंडितों/हिन्दुओं) को निर्ममता और बलपूर्वक अपने पैदाइशी वतन से खदेड़े जाने की बदौलत यह शांतिप्रिय और सहनशील समुदाय अपने ही देश में दर-दर भटकने को विवश हुआ।दरअसल, यह कट्टर,क्रूर और गैर राष्ट्रवादी ताकतों की राष्ट्रवादी ताकतों के साथ सीधी-सीधी जंग थी।बहु-संख्याबल के सामने अल्पसंख्या-बल को झुकना पड़ा जिसके कारण ‘पंडित समुदाय’ भारी संख्या में कश्मीर घाटी से विस्थापित हुआ और पिछले तीन दशकों से अपनी अस्मिता और इज्जत की रक्षा के लिए संघर्षरत है।विस्थापन के दौरान इस आतंकित किन्तु शांतिप्रिय समुदाय के रचनाकारों ने अपने रोष-आक्रोश और व्यथा-कथा को जो वाणी दी ,वह भाव और शिल्प की दृष्टि से ‘कश्मीरी विस्थापन साहित्य’ की बेमिसाल थाती है।यहाँ पर कश्मीरी पंडितों के मनो-विषाद से परिपूरित इस बहुमूल्य साहित्य की चर्चा करना अनुचित न होगा।

माना जाता है कि कश्मीर घाटी से पंडितों का विस्थापन सात बार हुआ है। पहला विस्थापन १३८९ ई० के आसपास हुआ जब घाटी में विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा बलपूर्वक इस्लामीकरण के परिणामस्वरूप हजारों की संख्या में या तो पंडित हताहत हुए या फिर अपनी जान बचाने के लिए वे भाग खड़े हुए।इस बीच अलग-अलग कालावधियों में पाँच बार और पंडितों का घाटी से निष्कासन हुआ।सातवीं और आखिरी बार पंडितों का विस्थापन १९९० में हुआ। आंकड़े बताते हैं कि पाक-समर्थित जिहादियों के आतंक से त्रस्त होकर १९९० में हुए विस्थापन के दौरान तीन से सात लाख के करीब पंडित कश्मीर से बेघर हुए।

१९९० में हुए कश्मीरी पंडितों के घाटी से विस्थापन की कथा मानवीय यातना और अधिकार-हनन की त्रासद कथा है। यह दुर्योग अपनी तमाम विडम्बनाओं और विसंगतियों के साथ आज हर चिन्तक, बुद्धिजीवी और जनहित के लिए प्रतिबद्ध रचनाकार के लिए उद्वेलन और चुनौतियां का कारण बना हुआ है। विस्थापन की त्रासदी के बीच, टूटते भ्रमों और ढहते विश्वासों को कन्धा देते हुए कश्मीर के रचनाकरों ने विस्थापितों के स्वप्नों और उनकी स्मृतियों को व्यवस्था और जागरूक देश-वासियों के रू-ब-रू रखकर विस्थापन से जनित स्थितियों और उनके दुष्प्रभावों को बड़ी मार्मिकता के साथ अपने रचना-कर्म में दर्ज किया है और दर्ज कर रहे हैं।

ध्यान से देखा जाय तो कश्मीर में आतंकवाद के दंश ने कश्मीरी जनमानस को जो पीड़ा पहुंचायी है, उससे उपजी हृदय-विदारक वेदना तथा उसकी व्यथा-कथा को साहित्य में ढालने के सफल प्रयास पिछले लगभग ढाई-तीन दशकों के बीच हुए हैं और अब भी हो रहे हैं।कई कविता-संग्रह, कहानी-संकलन,औपन्यासिक कृतियां आदि सामने आए हैं, जो कश्मीर में हुई आतंकी बर्बरता और उससे जनित एक विशेष जन-समुदाय(कश्मीरी पंडितों) के ‘विस्थापन’ की विवशताओं को बड़े ही मर्मस्पर्शी अंदाज में व्याख्यायित करते हैं। कहना न होगा कि पंडितों के घाटी से विस्थापन के कारणों और उससे जनित पंडित-समुदाय पर पड़े सामाजिक-सांस्कृतिक दुष्प्रभावों को लेकर देश में समय-समय पर अनेक परिचर्चाएं,संगोष्ठियाँ,आयोजन आदि हुए हैं परन्तु विस्थापन के दौरान कश्मीरी लेखकों द्वारा रचे गए साहित्य की सम्यक मीमांसा, उसका आलोचनात्मक अध्ययन आदि अधिक नहीं हुआ है। प्रस्तुत आलेख में विस्थापन के दौरान कश्मीरी पंडितों द्वारा लिखे गये साहित्य का आकलन और विश्लेषण करना अभीष्ट है।

विस्थापन की त्रासदी भोगते रचनाकारों की सबसे बड़ी पीड़ा जो कभी उन्माद की हदें छूने लगती है, आतंकवाद से छूटे घर-संसार की पीड़ा है। घर मात्र जमीन का टुकड़ा या ईंट-सीमेंट का खांचा भर होता तो कभी भी, कहीं पर भी बनाया जा सकता था. घर के साथ हमारी पहचान, स्मृतियों की भरी-पूरी जमीन और अस्मिता के प्रश्न जुड़े होते हैं. विस्थापितों से.दरअसल, जमीन का टुकड़ा ही नहीं छूटा, उनकी आस्था के केन्द्र वितस्ता, क्षीर भवानी और दल झील भी छूट गईं है। वहां बर्फ के तूदों (ढेर) के बीच मनती शिवरात्रि और वसंत की मादक गंध में सांस लेता "नवरोज' भी था। घर छूटने का अर्थ मोतीलाल साकी' के शब्दों में- "वही जानता है, जिसने अपना घर खो दिया हो। बात १९९० के आसपास की है।घर से बेघर हुओं ने विकल्पहीन स्थितियों को स्वीकारते हुए भी उम्मीद नहीं छोड़ी थी, यह सोचकर कि एक दिन हालात सुधर जाएंगे और हम वापस अपने घरों को लौट जाएंगे। आखिर हम एक स्वतंत्र धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के नागरिक हैं। मगर, शंभूनाथ भट्ट "हलीम' घर लौटने को विकल विस्थापितों से कहते हैं, "आतंकवाद ने वादी के आकाश और धरती के रंग बदल दिए हैं। वहां जाकर तुम क्या पाओगे? हमारी अपनी धरती अब हमारे लिए पराई हो गई है।'

पंडितों को वादी से खदेड़ने की साजिश में जिन छोटे-बड़े रहनुमाओं, साम्प्रदायिक तत्वों और पाक समर्थित जिहादियों/आतंकवादियों के हाथ रहे हैं, वे आज भी बेखटके वादी की सामासिक संस्कृति के परखच्चे उड़ाने में लगे हुये हैं और कहते हैं: "बट /पंडित तो सदा से भगोड़े रहे हैं।' अग्निशेखर को भगोड़ा शब्द कचोटता है, वे लिखते हैं:

"आंखें फोड़ीं, बाहें काटीं, बेकसूर थे भागे पंडित,

किसको चिन्ता नदियां सूखीं, लावारिस हैं, भागे पंडित।'' 

महाराज कृष्ण भरत लिखते हैं-"मुझसे मिलने के लिए/किसी को खटखटाना नहीं होगा दरवाजा/केवल फटेहाल सरकारी तम्बू का पर्दा सरकाना होगा।'

घाटी में छूटे घरों को जिहादियों ने मलबे के ढेर में बदल दिया। चन्द्रकान्ता को जले हुए छान-छप्परों में "घर' की शिनाख्त करते लगता है कि "घर की लाश टुकड़ों में बंट कर पूरी वादी में छितर गई है'। शशिशेखर तोषखानी अपनी गली के कीचड़ को भूल नहीं पाते, जो घर छोड़ते समय, मोहवश उनके पैरों से लिपट गई थी। ऐसे घर और गलियों को छोड़ना आसान नहीं था। तोषखानी कहते हैं:

"कत्लगाहों के नक्शों में/हमारे सिर रखे जा रहे हैं/मील के निशानों की जगह/और कोई दिशा तय नहीं है यहां/मृत्यु के सिवा।'

विस्थापन की त्रासदी ने कवि ब्रजनाथ बेताब के मन-मस्तिष्क को बहुत गहरे तक आक्रांत कर दिया है। उनकी यह पीड़ा उनके रोम-रोम में समाई हुई है। घर-परिवार की सुखद स्मृतियों से लेकर आतंकवाद की आग तक की सारी क्रूर स्थितियां कवि की एक-एक पंक्ति में उभर-उभर कर सामने आती हैं। आतंकी विभीषिकाओं का कवि द्वारा किया गया वर्णन और उससे पैदा हुई सामाजिक असमानता/स्थितियां मन को यों आहत करती हैं-

मैं कवि नहीं हूं

न मेरी धरा के सीने में छिपा मेरा लहू

मेरी कविता है।

क्योंकि मैं अपने लहू को छिपाने का नहीं

लहू से धरा को सींचने का आदी रहा हूं।

यही मेरी विरासत,मेरी परंपरा है

जिसे निभाते निभाते मैं 

बहुसंख्यक होते हुए भी अल्पसंख्यक हो गया हूं।...

विस्थापन में रचना करते हिन्दी कवियों के महाराज कृष्ण संतोषी,अवतारकृष्ण राजदान, रतनलाल शान्त, उपेन्द्र रैणा, महाराज कृष्ण भरत, क्षमा कौल, चन्द्रकान्ता से लेकर सुनीता रैना,प्यारे हताश तक ढेरों नाम हैं, जिनकी रचनाओं में एक रची-बसी विरासत के ढहने और पहचान के संकट की पीड़ा है। भ्रष्ट राजनीति और अवसरवादी नेताओं की गैरजिम्मेदारियों और ढुलमुल नीतियों के प्रति आक्रोश है क्योंकि वे लोग जवाबदेह हैं कल्हण के स्वर्ग को रक्त-रंजित रणक्षेत्र बनाने के लिए। कश्मीरी-भाषी कवि "साकी' के शब्दों में :

" आज वादी में दहशत का आलम है/डूलचू की पीढ़ी जवान हो गई है/लल्लद्यद और शेखुलआलम को आज कौन सुनेगा?/बडशाह की रूह कांप रही है/और वितस्ता का पानी बदरंग हो गया है।'

विस्थापितों के पास अतीत की स्मृतियां ही नहीं, वर्तमान के दंश भी हैं। शिविरों में पशुवत जीवन जीते संभ्रांत लोगों की दुर्दशा पर कवि उद्विग्न है। नयी पीढ़ी चौराहे-पर भौंचक्क खड़ी अपनी दिशा ढूंढ रही है। "साकी' उन बच्चों के लिए चिंतित हैं, जो तम्बुओं में पलते हुए मुरझा गए हैं। वे कहते हैं:

"ये हमारे लोकतंत्र के नए अछूत हैं/ राहों में मारे-मारे फिरना/अब इनकी सजा है/ये मां कश्मीर की बेबस बेचारी संतान हैं।'

इतिहास कहता है कि कश्मीरी पंडित अभिनवगुप्त, कल्हण,मम्मट और बिल्हण की संतानें हैं। इनके पूर्वजों को भरोसे/उदारता की आदत विरासत में मिली है। लेकिन,कुलमिलाकर इस बदलते समय में, भरोसे की आदत ने इन्हें ठगा ही है। विश्वासों की पुरानी इबारत, वक्त की आंधी में ध्वस्त हो गई है। चन्द्रकान्ता कहती हैं:

"तुम्हारे काम नहीं आएगी मेरे बच्चो! भरोसे की यह भुरभुरी इबारत/खुदा की हो या नेता की/तुम्हें लिखनी है वक्त के पन्नों पर/खुद ही नयी इबारत।'

विस्थापन भोगते रचनाकार अपने तीखे, तुर्श अनुभवों और वैचारिक उद्वेलनों के बीच, आज जो साहित्य रच रहे हैं, वह उनके निजी या वादी के सीमित परिवेश की समस्याओं से जुड़ा होने के साथ, जीविका के लिए घर से दूर, देश-विदेश में भटकते उन कश्मीरियों की भी पीड़ा है, जो उम्रभर की भटकन के बाद अपने पुरखों की धरती पर लौटने की उम्मीद और अधिकार से भी वंचित रह गए। कश्मीरी लेखक जब घर छूटने या शरणार्थियों की पीड़ाओं को स्वर देता है, तो निजी पीड़ा की बात करते हुए भी उसकी संवेदनाएं वैश्विक होकर उन बेघर-बेजमीन लोगों के साथ जुड़ जाती हैं जिनकी व्यथा उससे भिन्न नहीं है, भले कारण भिन्न हों। वह चाहे गुजरात की त्रासदी हो, उड़ीसा या आन्ध्र का तूफान हो, तिब्बतियों-अफ्रीकियों या फिर फिलिस्तीनियों की पीड़ा हो, संवेदना के तार उन्हें एक दूसरे से जोड़ते हैं। तभी तो महाराज संतोषी कहते हैं कि 

"अपने घर से विस्थापित होकर मैंने बिना यात्रा किए ही फिलिस्तीन को भी देखा और तिब्बत को भी।'

इन तमाम निराशाओं और अनिश्चितताओं के बावजूद रचनाकार हार नहीं मान रहा। राधेनाथ मसर्रत, वासुदेव रेह, शान्त, संतोषी, क्षमा कौल या चन्द्रकान्ता आदि सभी की उम्मीदें जीने का हौसला बनाए रखे हुए हैं। तोषखानी को भरोसा है कि,"फैलेगा हमारा मौन, नसों में रक्त की तरह दौड़ता हुआ....मांगेगा अपने लिए एक पूरी जमीन।'

"शान्त' वादी से दूर रहकर वादी के इतिहास को नए सिरे से रचना चाहता है- "अंधेरा है अभी, पर सूर्य जरूर निकलेगा।" और संतोषी कहता है, "इस बार सूर्य मेरी नाभि से निकलेगा।'

विस्थापन त्रासद होता है, खासतौर पर अपने ही देश में हुआ विस्थापन। वह लज्जास्पद भी होता है और आक्रोश का कारण भी। वह मानवीय यातना और मनुष्य के मूल अधिकारों से जुड़े बेचैन करने वाले प्रश्नों को जन्म देता हैं, जिन्हें रचनाकार स्वर देकर एक समानान्तर इतिहास रचता रहे है: कविताओं में भी, कहानियों में भी और "कथा सतीसर', "पाषाण युग' "दर्द पुर" आदि जैसे उपन्यासों में भी।

कश्मीरी लेखकों के 'विस्थापन-साहित्य' को मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है:१-हिंदी में लिखा गया विस्थापन साहित्य,२-अंग्रेजी में लिखा गया विस्थापन साहित्य और ३-उर्दू/कश्मीरी में लिखा गया विस्थापन साहित्य।

प्रस्तुत आलेख में मुख्यतया हिंदी में रचित कश्मीरी लेखकों द्वारा लिखित 'विस्थापन-साहित्य' को केंद्र में रखा गया है।इस अध्ययन द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि चूंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है,इसलिए कश्मीरी लेखकों द्वारा रचित 'विस्थापन-साहित्य' अपने समय और समाज की विषमताओं, चिंताओं, दुरावस्थाओं, आकुलताओं आदि का बखूबी वर्णन करता है।इस वर्णन में भाव और शिल्प के स्तर पर मर्म को छूने वाली जिन अनुभूतियों से साक्षात्कार होता है,वे कश्मीरी साहित्य के साथ-साथ भारतीय/हिंदी साहित्य की भी बहुमूल्य निधि हैं। 

यहाँ पर प्रसंगवश यह कहना अनुचित न होगा कि कश्मीर में कुछेक ऐसे भी रचनाकार हैं जो यद्यपि 'पंडित' नहीं हैं किन्तु पंडितों के विस्थापन की त्रासदी से विक्षुब्द हैं।अपने पंडित भाइयों से विलग होने और खुद को असहाय पाने की पीड़ा इन रचनाकारों ने भोगी है।कश्मीरी कवि बशीर अत्तहर की कविता "कहाँ जाऊँ मैं?" इसका प्रमाण है:

तुम समझते हो तुम्हारे अस्तित्व को मैं लील गया
पर, उस प्रयास में मेरा अस्तित्व कहाँ गया
यह शायद तुम्हें मालूम नहीं।
मैंने कल ही एक नई मुहर बनवाई और
लगा दी ठोंककर हर उस चीज़ पर
जो तुम्हारी थी।
लेकिन यह ख़याल ही न रहा कि
उन कब्रिस्तानों का क्या करूँ
जो फैलते जा रहे हैं रोज-ब-रोज
और कम पड़ रहे हैं हर तरफ़ बिखरी लाशों को समेटने में!
बस, अब तो एक ही चिंता सता रही है हर पल,
तुम को चिता की आग नसीब तो होगी कहीं-न-कहीं 

पर, मेरी कब्र का क्या होगा मेरे भाई?



कश्मीरी पंडितों के विस्थापन को लेकर मुझे कई सभा-गोष्ठियों में बोलने अथवा अपने आलेख पढने का अवसर मिला है।विस्थापन से जुडे कई कश्मीरी लेखकों की रचनाओं का 'रिव्यु' अथवा अनुवाद करने का अवसर भी मिला है।साहित्य अकादेमी,दिल्ली ने कई वर्ष पूर्व गिधर राठी के सम्पादन में "कश्मीर का विस्थापन सहित्य" पर जो विशेषांक निकाला था,उसमें मेरी भी दो-एक रचनाएँ सम्मिलित हैं। मुझे लगा कि पंडितों की विस्थापन की इस त्रासदी से जुड़े साहित्य को न केवल एकत्र किया जाय अपितु उसका निरपेक्ष-भाव से कश्मीर की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में अध्ययन भी किया जाय।प्रस्तुत आलेख मेरी इसी संकल्पना पर आधारित है।

कश्मीर की संत कवयित्री ललद्यद ने चौदहवीं शती में एक "वाख' कहा था- "आमि पन सोदरस...।' कच्चे सकोरों से ज्यों पानी रिस रहा हो, मेरा जी भी वैसे ही कसक रहा है, कब अपने घर चली जाऊं?' आज ललद्यद का यही "वाख', इक्कीसवीं सदी के इस भूमंडलीकरण के दौर में विस्थापित कश्मीरियों के अन्तर की हूक बनकर साहित्य में अभिव्यक्त हो रहा है। सिर्फ संदर्भ बदल गए हैं। संत कवयित्री ललद्यद ने यह "वाख' आध्यात्मिक संदर्भों में कहा था, धरती पर उसका कोई घर नहीं था, लेकिन आम-जन ईंट-गारे से बने उस घरौंदे की बात करता है, जिसमें उसके स्वप्न, स्मृतियां और भविष्य दफन हो गए हैं। लेकिन हूक वही है जो नश्तर-सी अंतर में गड़ी है। यों,ललद्यद ने यह भी कहा था:

"शिव/प्रभु थल-थल में विराजते हैं

रे मनुष्य! तू हिन्दू और मुसलमान में भेद न जान,

प्रबुद्ध है तो अपने आप को पहचान,

यही साहिब/ईश्वर से है तेरी पहचान।"



काल को महाबली कहा गया है।कोई आश्चर्य नहीं कि कश्मीर की इस महान आदि संत-कवयित्री योगिनी ललद्यद (१४ वीं शती) की वाणी में निहित सन्देश कश्मीरी जनमानस को उद्वेलित-अनुप्राणित कर घाटी में एक बार पुनः अमन-चैन का वातावरण स्थापित करने की प्रेरणा दे।

अंत में यहां पर यह उल्लेखनीय है कि हिन्दी समन्वय और एकता की भाषा है।इस ने प्रायः सभी भारतीय भाषाओं से सामंजस्य स्थापित कर अपने स्वरूप को संवर्द्धित किया है।भारतीय भाषाओं को अपने साथ लेकर चलने की और जनसाधारण का अभिव्यक्ति माध्यम बनने की उसकी क्षमता अद्भुत है।अपनी इसी विशेषता के कारण, कुछ अपवादों को छोड़कर, वह समूचे देश में उत्तर से दक्षिण तक तथा पूर्व से पश्चिम तक जन-जन की भावाभिव्यक्ति का सहज माध्यम बनी हुई है। आशा की जानी चाहिए कि भविष्य में भारतीय भाषाओं से अपने भावपूर्ण सम्बन्धों के आधार पर उसका व्यक्तित्व और निखरेगा।







पहली कश्मीरी फिल्म ‘मेहंदी रात’ कैसे बनी?


मूल लेखक पुष्कर भान


प्रस्तुतकर्त्ता एवं रूपान्तरकार: डॉ० शिबन कृष्ण रैणा


हाँ, तो बात यों शुरू होती है। एक दिन प्राणकिशोर (मेरा अभिन्न मित्र) मुझ से बोला, ‘पुष्कर, सुना तुम ने ? कश्मीरी में एक फिल्म बनने वाली है।'

‘क्यों भई, कल तक तो भेजा ठीक था तुम्हारा, यह रात-भर में ही कैसे फिर गया ?' उसकी बात पर आश्चर्य प्रगट करते हुए मैंने पूछा।

'सच कह रहा हैं यार ! निक्के (बेटे) की कसम।'

‘भई, मुझे तो विश्वास नहीं हो रहा। भला कौन कश्मीरी में फिल्म बनाने का जोखम उठाएगा ?'

'सुनो, कल बम्बई से एम० आर० सेठ आ रहे हैं। वह मुझसे बातचीत करने वाले हैं। साथ में लोन और संतोष भी होंगे। संतोष फिल्म के लिए गीत लिखेगा और लोन डायलॉग ।'

मैं मन-ही-मन सोचने लगा कि प्राणकिशोर से कैसे कहूँ कि क्या मुझे भी इस फिल्म में काम करने का मौका मिलेगा ?

दिल कर रहा था कि कह दूँ ' भई, मुझे पैसा-वैसा कुछ भी नहीं चाहिए, बस एक चांस मिल जाए। यह स्वर्ण अवसर हाथ से निकलना नहीं चाहिए।‘

जब से फिल्म बनने की सूचना मिली, सच कह रहा हूँ, मेरी भूख जाने कहाँ उड़नछू हो गई? दफ्तर के काम से भी दिल उकता गया। दिमाग पर फिल्म का भूत कुछ इस तरह से छा गया है कि मुझे लोन और संतोष फिल्मी दुनिया की दो महान् हस्तियाँ नजर आने लगी । रात-दिन बस यही विचार दिल-दिमाग में चक्कर काटता रहा कि क्या मेरा फोटो भी सिनेमा-हाल के बाहर टाँगा जाएगा ? क्या मेरा नाम भी स्क्रीन पर जाएगा ? 

मैने अपने हमदम, अपने दोस्त सोमनाथ साधू को स्थिति से परिचित कराया। यह भाई भी मेरी ही तरह फिल्म में काम पाने के लिए बेचैन हो रहा था। हम आपस में बातें कर ही रहे थे कि सामने से प्राणकिशोर आता हुआ दिखाई दिया', ‘भई, कल तुम दोनों अपनी-अपनी फोटो-कापी लेते आना। उन्हें बम्बई भेजना है और हाँ सुनो पुष्कर, विलन का रोल करोगे क्या ?”

उसका इतना कहना ही था कि मैं ने उसी क्षण क्रूर खलनायकाना अन्दाज में अपनी भौंहें कस लीं, ‘विलन का ही सही, मगर चांस जरूर मिल जाना चाहिए।'

‘शुआर-शुआर, वाय नॉट ।' उसकी इस फिरंगी भाषा ने मुझे तनिक निराश-सा कर दिया । लगा, वह आना-कानी कर रहा है। मगर, मेरी निराशा उस दिन आशा में बदल गई जब प्राणकिशोर ने हम दोनों से कहा, ‘फोटोग्राफ अप्रूव्ड'। आज उसकी फिरंगी भाषा बहुत मीठी लग रही थी मुझे।
०००००
अहादू होटल (श्रीनगर का एक प्रसिद्ध होटल) का कमरा । बम्बई के सेठजी, फिल्म के मुख्य अभिनेता, डायलॉग राइटर लोन, एसोशिएट डायरेक्टर प्राणकिशोर, फिल्म के गीतकार जी० आर० संतोष तथा गीतों को संगीत देने वाले मोहनलाल’ ऐमा ।सभी पूरे दम-खम के साथ कुसियों पर विराजमान हैं। लोन बार-बार कालीनॉस-स्माइल दे रहा है। वास्तव में, यह ऐसा हथियार है जिसने बड़े-बड़ों को सरंडर करवाया है। संतोष पाइप चूस रहा है और बीच-बीच में उसके सिरे को गाल से सटाकर लोन की नकल कर रहा हैं। प्राणकिशोर को फ़क्त फिरंगी भाषा बोलने की झक सवार हो गई। एक-आध बार तो उसने बैरे को डाँट भी पिलाई, 'यू डोंट हैव प्रांप्ट सविस टुडे । व्हॉट द हेल इज दिस ?' बेचारा बैरा हेल को बेल समभ बैठा और विनम्रतापूर्वक बोला, ‘जनाब, अभी-अभी पावर ऑफ हो गया है। नहीं तो बजती थी ।' मोहनलाल ऐमा सेठजी को मीठी-मीठी बातों में फुसलाकर आश्वासनों के भण्डार लुटाता रहा।

सेठ वास्तव में सेठ था। धन का स्रोत, करोड़ों का मालिक । मगर, फिर भी विनम्र और मित्तभाषी । छोटा-मोटा बकरा जैसा ।सादा भेस, दिखावा कहीं नहीं।

मैं सोचने लगा कि यह धनी-मानी लोग भी कितने सीधे-साधे होते हैं। इतने में सेठजी ने मुखारविन्द खोला। मुंह क्या खोला, मोती लुटाए। दायीं ओर के होंठ कुछ जुडे-हुए-से और बायीं ओर के होंठ शब्दों की निकासी करते हुए:

"हाँ,तो साहब मैं भूल ही गया आपका नाम ।' सेठजी ने मुझे देखकर कहा।

'पुष्करनाथ !' मैंने भौंहें तीरकमानी अन्दाज में तानकर जवाब दिया । कहने को तो मैं ने अपना नाम कह दिया, मगर मेरा सारा शरीर पसीने से तर हो गया था। नथुने अपने-आप फड़कने लगे और होंठ हरकत करने लगे । डर इस बात का था कि कहीं सेठजी मुझे रिजेक्ट न कर दें। 

मगर, ऐसा कुछ भी न हुआ । मुझे और साधू दोनों को फिल्म में ले लिया गया। इसी बीच सेठजी का हाथ जेब में गया और उन्होंने कांट्रक्ट-फार्म बाँटे। सबने दस्तखत कर दिये । एक-एक हजार एडवांस। विश्वास नहीं हो रहा था कि फिल्म की दौलत हमारी जेबों में है । सेठजी ने सबसे बिदा ली। फिल्मी-दुनिया की महान् हस्तियां अहद्-हॉटल के कमरे से शाही डग भरते हुए बाहर निकल आयीं । सभी के दिमाग में यह बात घूमने लगी कि आज सारी दुनिया उनकी क़िस्मत पर रश्क करेगी । यहां तक कि साधू और मैं काफी देर तक एक-दूसरे से बात करने से कतराते रहे यह सोचकर कि बात पहले कौन करे। कोई भी अपने आप को छोटा जताना नहीं चाहता था ।

फिल्म के लिए स्क्रिप्ट तैयार हो गई और डायलॉग भी बन गये। फिल्म के लिए साजो-सामान भी मय अमले के बम्बई से आ गया। टंगमर्ग (कश्मीर का एक प्रसिद्ध प्राकृतिक स्थान) में डाक-बंगला एकटरों के लिए बुक करा लिया गया। एक विंग एक्ट्रेसों के लिए और दूसरी एक्टरों के लिए। और इसी के साथ 'फ्लाइग रानी' ( सेठजी की गाड़ी) भी कार्यक्षेत्र में उतर गई। जिस रंग की कार थी उसी रंग का सूट भी आज सेठ मनाराम जी ने पहन रखा था । कार का काम था मनाराम, कैमरा मैन और सन्तोख सिंह को शहर से टंगमर्ग और टंगमर्ग से शहर लान और ले जाना । यों तो प्राय: हर गाड़ी में धूल खिड़कियों से अन्दर घुसती है मगर इस गाड़ी का आलम दूसरा था। यद्यपि इसकी खिड़कियां इनटेक्ट थीं, मगर इस कार में सफर करते समय सवारी की पैंट की जेबों से धूल उड़ती थी, जो इसके फर्श के किसी छेद से मौका पाकर भभकती थी। यह ‘फ्लाइंग रानी' के ड्राइवर नजीर खान का ही बूता था कि वह इस हालत में भी उसे ढोए जा रहा था। बड़ा ही दिलबर और दिलदार ड्राइवर था । कभी वह रानी को घसीटता और कभी रानी उसको और कभी दोनों समझौता करके लम्बी नींद सो जाते ।

इघर, टंगमर्ग के डाक-बंगले में रौनक आ गई। सभी एक्टरों का एक ही घर । साथ-साथ खाना-पीना, सोना-खेलना, उठना-बैठना ’ ’ । आधों को ‘कड़क-पराठे' पसन्द तो आधों को फ्राई-आमलेट पसन्द । कुछ मीट के पक्ष में तो कुछ साग-भाजी के पक्ष में । एक सप्ताह के बाद खबर मिली कि टंगमर्ग और उसके आस-पास के इलाके में मांस और मुर्गों का अकाल पड़ गया है। मुर्गों का ऐसा सफाया हुआ कि मारे खौफ के मुर्गियों ने अण्डे देना बन्द कर दिया। टंगमर्ग के निवासी तोबा करने लगे कि हे राम, यह कौन-सी भुक्खड़-पार्टी यहाँ आन पड़ी है। धीरे-धीरे दूसरी चीजें भी बाजार से ग़ायब होने लगी । खुदा ही जानता है कि यह टंगमर्ग के हवा-पानी का असर था या कि हम लोगों की मानसिक कमजोरी कि हर कोई मरना भूल खूब छककर सेठ का माल उड़ाने लगा ।

एक दिन की बात है। टंगमर्ग के नाले पर शूटिंग हो रही थी। साधू और मैं मेक-अप किए हुए हैं। बड़े-बूढ़ कह गये हैं-‘कर्महीन खेती करे, बलद मरे या सूखा पड़े।‘ साधू को सिग्रेट पीने की तलब जोरों से उठी। बोला, ‘यार, एक सिग्रेट तो देना।'

“मेरे पास चार-मीनार है”

‘चलेगा ।'

‘चलो, जरा उधर हटकर पीते हैं। यहाँ सभी लोग देख रहे हैं।' मैं ने उसे एक बड़े पत्थर की आड़ में चारमीनार की सिग्रेट पकड़ायी। मगर, हाय री किस्मत । माचिस न उसके पास और न ही मेरे पास। अब क्या हो ? साधू भूल गया कि वह मेक-अप किए हुए है। घुस गया दर्शकों में: 'भाई साहब, आपके पास माचिस होगी क्या? भाई साहब ने साधू को ऊपर से नीचे गौर से देखा। फिर हँसी का पटाखा छोडकर फब्ती कसी, ‘अरे-रे, इन मंगते कश्मीरी एक्टरों को तो देखो । माचिस तक नहीं खरीद सकते। शायद बेगार ली जा रही है इन से ।' भाई साहब के साथ-साथ और भी दूसरे लोग ठठाकर हँस दिए। साधू अपनासा मुहं लेकर फुर्ती से लौट आया।

०००००

मागाम( स्थान-विशेष) में शूटिंग चल रही थी । सभी ने अपने-अपने कपड़े उतार कर फिल्मी परिधान पहन रखा था ।

"कपड़ों को आस-पास के पेड़ों पर टाँग दिया गया था । लगता था जैसे गाँव में कोई मेला लगा हुआ हो। मैं मेक-अप करवा रहा था कि अचानक मेरी नजर सामने गई। क्या देखता हूँ कि एक भाई मेरे कोट के इर्द-गिर्द पतंगे की तरह मेंडरा रहे हैं। मैं सकपकाया । सोचने लगा कि कहीं यह भाई मेरा कोट पार न कर जाए। वह घूर-घूर कर मेरे कोट को देखने लगा। मैं समझ गया कि कोट की शमत आ गई है। मैं मेक-अप अधूरा छोड़कर उस भाई के पास नंगे पाँव : दौड़ता हुआ गया: 

'क्या बात है बरखुरदार ?

'अजी, मैं पूछ रहा हूँ कि कितने में दे रहे हो यह कोट?' वह बड़े रोब के साथ बोला।

मैं ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और खीझकर जवाब दिया, 'अठारह रुपए में।'

‘नहीं, अठारह ज्यादा हैं। नौ जंचते हों तो कर दो इसे मेरे हवाले ।'

'अठारह से एक कौड़ी भी कम नहीं होगी ।'

‘हूँ' वह कुछ संजीदा होकर बोला।‘दरअसल, महगाई ने सब को मार डाला है।तुम्हारे सर की कसम, पिछले वर्ष इसी मेले में, ऐसा ही कोट मैं ने सिर्फ साढ़े आठ रुपए में खरीदा था - - - - - । हां, तो बोलो, क्या इरादा है?' मैं अब अपने गुस्से को रोक न सका बमक पड़ा, 'अबे ओ भड़वे, क्या समझ रखा है तू ने मुझ को ? मैं एक्टर हूँ,फिल्मी एक्टर । यहाँ यह शूटिंग चल रही है, कोई कबाड़-मेला नहीं लगा है। गेट

आउट । ये हमारे पहनने के कपड़े हैं, नीलामी के कपड़ नहीं।'

वह भाई वहाँ से तब हटा जब उसके किसी दोस्त ने उसे समझाया, ‘अरे-रे, यह तो वास्तव में, एक्टर हैं भाई। कश्मीरी फिल्म के एक्टर।'

शूटिंग चलती गई और फिल्म बनती।

०००००

टंगमर्ग की जानलेवा सर्दी और शूटिंग थी नाइट की । सीन था मेरे मरने का। मैं रजाई में दुबका पड़ा हूँ। दो तकिए मेरी गर्दन के नीचे हैं। 'काँगड़ी' बिस्तर में हैं। मेरे इर्दगिर्द फिल्म के तीन पात्र: हीरो ओमकार ऐमा, हीरोइन मोखतअ और हीरो का भाई सोमनाथ साधू । तीनों मेरे मरने का बेचैनी के साथ इन्तजार कर रहे हैं।

‘अरे, ओ! अब तो मर जा जल्दी-जल्दी । मारे सर्दी के हम ठिठुर गये हैं । खुद तो बड़े मज़े से रजाई में दुबके हुए हो । कुछ हमारा भी तो खयाल करो।'

जितना मुझ से बन पड़ा, उन्हें परेशान किया। बहुत देर के बाद मरा मैं । 

“साहब, बेड टी । बैरा अली हर रोज़ अलसुबह दरवाजे पर दस्तक देकर पुकारता। सभी बेदार होते हुए भी गहरी नींद का स्वाँग रचते । हर कोई इसी प्रतीक्षा में रहता कि दरवाजा पहले कौन खोले। उस रात सन्तोष हमारे ही कमरे में सोया था । उसने रज़ाई साँप की केंचुली की तरह ओढ़ रखी थी ।

'हजूर, बेड टी ।' बैरा अब दरवाजा जोर-जोर से खटखटाने लगा ।

सन्तोष झल्लाया, 'हाय री किस्मत ! नींद के भी लाले पड़ गये यहाँ। नहीं चाहिए यह सुसरी बेड टी । ’ हुं, हमारे पुरखों ने तो कभी दिन की चाय तक नहीं पी होगी!’

मगर, साधू से नहीं रहा गया । मुस्तैदी के साथ बिस्तर से उठ खड़ा हुआ और दूरबाजा खोलकर बैरे से बोला, ‘ओ, बैरे मियाँ, ठहरना तो भई । यह सन्तोष क्या जाने कि बेड-टी किसे कहते हैं? बेड टी तो फिल्मी एक्टरों के लिए एक जरूरी चीज़ है।'

संतोष ने रज़ाई से मुंह निकाल कर कहा, ‘नहीं पिऊँगा, कभी नहीं।'

‘पीनी पड़ेगी,ज़रूर पीनी पड़ेगी ।‘

‘बिल्कुल नहीं, हरगिज नहीं।'

'तो फिर क्यों सोये हम एक्टरों के साथ ?’ नहीं, यह नहीं चलेगा।'

खैर, बहुत कहा-सुनी के बाद सन्तोष को ब्रेड-टी पीनी ही पड़ी। 

यहां पर सूरजनारायण तिक्कू के बारे में कुछ कहना मैं जरूरी समझता हूं' । यह मात्र एक ऐसा व्यक्ति था जो हमारे हँसी-मजाक में खुलकर शरीक होता था। बम्बई से आई हुयी यूनिट (पार्टी) के सभी लोग उसकी बातों में ख़ूब रस लेते थे। खुद सेठ साहब भी । यहाँ तक कि सेठजी ने उन्हें अन्य कामों के अलावा किचन की मैनेजरी

भी उन्हें सौप दी थी । मैनेजरी क्या सौंपी, चील को मांस सँभलाया । नतीजा यह हुआ कि किचन में दस मुर्गे बीस टांगों समेत प्रवेश करते तो उधर से यही मुर्गे केवल नौ टाँगे लेकर निकलते। देखते-ही-देखते सूरजनारायण ने वह सेहत बनायी, वह सेहत बनाई कि उसके चहरे पर नजर नहीं टिकने लगी ।

एक दिन की बात है। सेठजी को किसी जरूरी काम से बम्बई जाना पड़ा। ‘फ्लाइंग रानी' की खिड़की से सर बाहर निकाल कर उन्होंने सूरजनारायण से कहा, 'सूरजजी, मेरे पीछे खाने-पीने के मामले में किसी को कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए।' सूरज बोला, सेठ साहब, आप बेफिक्र रहें। जब हम हैं तो फिर क्या ग़म है। सिर्फ मुर्गा पकेगा।'

सेठ कुछ दिनों के बाद लौटकर आगये और सूरज ने घर जाने के लिए छुट्टी मांगी।गया तो वह चार दिन की छुट्टी लेकर मगर लौट आया दूसरे दिन ही।

' 'क्यों भई, तुम इतनी जल्दी लौट कर कैसे आ गये ? घरवाली ने भगा दिया क्या ?'

हम में से एक ने चुटकी ली। 

‘नहीं तो ।'

‘फिर?’

'अरे भई, अब कहूँ भी तो क्या कहूँ। इस टंगमर्ग ने मेरी तो आदत ही बिगाड़ दी। घर पहुंचा तो वही कड़म का साग, वही दाल और वही बैंगन। माथे को पीटकर मुंह से निकल पड़ा, सूरज, लानत है ऐसे मुकद्दर पर । कहां मुर्ग-मुसल्लम और कहां

यह साग-भाजी । चल वापस टंगमर्ग के किचन मे ।'

०००००

आउटडोर शूटिंग । ग्रामीण मेक-अप में ऐमा और साधू को लाल-चौक के बीच में से होकर दिन-दहाडे गुजरना था। सीन यह था कि ये दोनों गाँव से आये हुए हैं और विलन की तलाश में हैं। कमरा होटल में फिक्स किया गया था। दोनों बड़ी मजे के साथ लोगों के बीच में से होते हुए गुजर रहे थे। किसी को भी इसका ध्यान न था कि शूटिंग चल रही है। इसी बीच एक जोरदार आवाज हुई, 'अरे-रे, कश्मीरी एक्टर ! वह देखो।' जाने किस मरदूद की गिद्ध-दृष्टि ने उन्हें भीड़ में पहचान लिया था। ऐमा तो जान बचाता हुआ होटल के अन्दर घुस गया, मगर साधू को लोगों ने घेर लिया।

'अरे, देखो तो इस एक्टर को एक बोलT । ‘छीन लो यार इसका यह कम्बल’, दूसरा बोला।

‘दिलीप कुमार को भी पीछे छोड़ दिया बच्चू ने', तीसरा बोला ।

बस फिर क्या था लगे लोग उसका कम्बल खींचने। साधू गिड़गिड़ाकर मिन्नतें करने लगा, 'य-यह मेरी कम्बल नहीं है भाई लोगो। मु-मुझे जाने दो। लो कान पकड़ता हूँ ।उस वक्त साधू की हालत देखने लायक थी ।

समय बीतता गया और फिल्म बनती गयी और अन्त में बह दिन भी आया जब फिल्म का आखिरी शॉट शाही-चश्मे में लेना निश्चित हुआ। इस शॉट तक पहूँचते-पहुँचते हालत यह हो गई थी कि सेठ मनाराम की जेब की तरह हमारा भी धैर्य चुक चुका था । रिकॉर्डिंग वैन मय अमले के वापस मुबंई, कैमरा मय साउण्ड बाक्स व ट्रैक के वापस मुंबई को, रिफ्लेक्टर भी वापस मुंबई को--- । संक्षेप में, कड़की के आलम में सेठजी ने यूनिट के अधिकांश आदमियों को एक-एक करके वापस अपने-अपने घर रवाना कर दिया। इन सबका काम मैं ने, प्राणकिशोर ने, ओमकर ऐमा ने और सूरज पूरा किया। मुझे याद है कि सिग्रेट के डिब्बे की चाँदी से सूरज ने रिफ्लेक्टर बनाए बड़ी मुश्किल से।प्राणकिशोर ने कहीं से एक कैमरा कबाड़ लिया । आखिरी जिन्दाबाद। और फिल्म पूरी हो गयी ।

सेठ खुश हो गया कि चलो जैसे-तैसे उसकी फिल्में पूरी हो गई। मगर हम नहीं।'जो ज़िन्दगी हम सब ने मिलकर टंगमर्ग में गुजारी थी, उसको पीछे छोड़ते समय हम सब के दिल दर्द करने लगे। ऐसा लगा जैसे मां से उसके बेटे को कोई जबर्दस्ती जुदा कर रहा हो। सभी बिदा होते समय बार-बार टंगमर्ग के डाकबंगले को निहारने लगे। " प्राणकिशोर और सूरज इस विदाई वेला में भी नजरे बचाकर डाकबंगले के किचन को कातर नजरों से देखे जा रहे थे । 

Monday, September 12, 2016

हिंदी दिवस पर विशेष 

हिंदी दिवस निकट आ रहा है।तरह-तरह के कार्यक्रम होंगे:भाषण,परिचर्चाएं,पुरस्कार वितरण आदि।भावुकतावश हिंदी की बड़ाई और अंग्रेजी की अवहेलना की जायगी।गत साठ-सत्तर सालों से यही होता आ रहा है। दरअसल,जिस रफ़्तार से हिंदी के विकास-विस्तार हेतु सरकारी या गैर सरकारी संस्थाएं कार्यरत हैं, उससे दुगनी रफ्तार से अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है।ख़ास तौर पर अच्छा रोज़गार दिलाने के मामले में हिंदी अभी सक्षम नहीं बन पायी है।हमारी नई पीढ़ी का अंग्रेज़ी की ओर प्रवृत्त होने का एक प्रमुख कारण यह भी है कि हिंदी में उच्च ज्ञान-विज्ञान को समेटने वाला साहित्य बिल्कुल भी नहीं है।अगर अनुवाद के ज़रिये कुछ आया भी हो तो वह एकदम बेहूदा और बोझिल है।जब तक अपनी भाषा में हम मौलिक चिंतन नहीं करेंगे और हिंदी में मौलिक पुस्तकें नहीं लिखी जाएंगी,तब तक अंग्रेजी के ही मुहताज रहेंगे।आज भी संघ लोक सेवा आयोग या फिर हिंदी क्षेत्रों के विश्वविद्यालयों के प्रश्नपत्र अंग्रेजी में बनते हैं और उनके अनुवाद हिंदी में होते हैं।पाद-टिप्पणी में साफ़ लिखा रहता है कि विवाद की स्थिति में अंग्रेजी पाठ को ही सही मान लिया जाय।यानी हिंदी विद्वानों का देश में टोटा पड़ गया है जो उनसे प्रश्नपत्र नहीं बनवाये जाते! विज्ञान अथवा तकनोलॉजी से जुड़े विषयों की बात तो समझ में आती है मगर कला और मानविकी से जुड़े विषयों के प्रश्नपत्र तो मूल रूप से हिंदी में बन ही सकते हैं।हिंदी को जब तक सीधे-सीधे 'ज़रूरत' से नहीं जोड़ा जाता तब तक अंग्रेजी की तरह उसका वर्चस्व और वैभव बढ़ेगा नहीं।

Wednesday, August 31, 2016


On Teachers Day 5th September

Qualities of a Good Teacher 

Dr.S.K.Raina,


Formerly Fellow IIAS Shimla.(India)



The role of a teacher in society is both significant and valuable. It has far-reaching influence on the society he lives in and no other personality can have an influence more profound than that of a teacher. Students are deeply influenced by the teacher’s love and affection, his character, his competence, and his moral commitment. A popular teacher becomes a model for his students. The students try to follow their teacher in his manners, costumes, etiquette, style of conversation and his get up. He is their ideal.He can lead them anywhere. During their early education, the students tend to determine their aims in life and their future plans, in consultation with their teachers. Therefore, a good and visionary teacher can play a prominent role in making the future of his students while as a corrupt teacher can only harm his students much more seriously than a class of corrupt and perverted judiciary, army, police, bureaucracy, politicians or technocrats. A corrupt and incompetent teacher in not only a bad individual, but also an embodiment of a corrupt and incompetent generation. A nation with corrupt teachers is a nation at risk; every coming day announces the advent of its approaching destruction.


The importance of a teacher as an architect of our future generations demands that only the best and the most intelligent and competent members of our intelligentsia be allowed to qualify for this noble profession. It is unfortunate to find that generally the worst and the most incapable people of the society find their way into this profession. Anyone who fails to find an opening in any other walk of life, gets into this profession and recklessly plays with the destiny of the nation. An important reason for this is understood to be the poor salaries of our primary and secondary teachers which are no better than that of clerks. A large number of our teachers is , therefore, frustrated and disinterested. They have to go for part-time jobs to meet their basic needs. Again, the teaching profession also does not enjoy due respect in the society. The primary and secondary teachers are particularly at a disadvantage. Their status is lower than that of doctors, engineers, advocates, civil servants; even lower than that of semi literate and illiterate traders. It would therefore require great commitment for an intelligent individual, however fond of education and training he may be, to forsake the career of a doctor or engineer in favour of teaching. Therefore, while selecting good teachers, it must be borne in mind that better opportunities, prospects and perks are offered to the teachers.



When we speak of good teachers it means that a teacher must be a model of faith and piety and should have a fairly good knowledge . A teacher should consider it his duty to educate and train his students and should feel responsible for it. He should feel that his students have been entrusted to him and he should avoid any breach of the trust the society has reposed in him. He should be a sociable person with his roots in the society. People should take him as their well-wisher and a sincere friend who cares for their children. It should be ascertained at all cost that a candidate for this profession has a natural acumen and aptitude for teaching. He should actively participate in the social activities in a positive way. He should know the art of teaching with a deep insight into child psychology.


He should always deal with the students in a just manner. He should not lose his self-control on mistakes his students may commit, and instead he should respect their feelings and ego, and should try to understand and resolve their difficulties with grace while keeping his cool. He should be able to smile in the face of bitter criticism on his opinions, and should not feel ashamed or humiliated to accept his mistakes wholeheartedly. He should be proud of his culture, his national dress and his national language. He should be a missionary, a mentor, a reformer and a guide besides being a dedicated tutor. In other words, he should be a perfect teacher and a perfect educationist.


While highlighting the role of a teacher in the society, it is imperative to involve the role of parents, too, in the process of character building of the students. In the past, parents and teachers both used to make the best of their efforts to provide an atmosphere to their children congenial to the development of higher virtues and morals. But the gross social change over the last fifty years, large scale urbanization, ruthless competition for financial gains, and heavy preoccupation in everyday life deplete all time and energy from the parents, leaving behind little time or energy for them to monitor their children.


Whatever time they have at their disposal is consumed by newspapers, television and other recreations. As a result, the younger generation hardly gets any opportunity to share ideas with their elders or to enter into a meaningful discussion. On the other hand, this idea is gaining ground among us that education is not meant to build up better human beings, but only to get better jobs. Consequently, the students’ minds are obsessed with better jobs and dreams for higher social status. It is, therefore, duty of the parents, too, to take active interest in the day-to-day progress of their children both in and outside the institution and apprise them of the real meaning of education.



Wednesday, August 24, 2016

My Letter in Gulf News(UAE)dated 25th August,2016


They fought gallantly


Malik, Sindhu and Karmakar of India brought glory to their country in the Rio Olympics. These athletes deserve to be applauded for their achievements, as they overcame social ills — exploitation, abuse, discrimination, sexism, authoritarianism and maliciousness. These are things that women in sports usually have to cope with. These women have broken all previous Olympic records for their country. The larger message is that India’s daughters are a pride and joy and they must be celebrated. More so in the face of the struggles women have to endure in every sphere of life in India. The limits placed on them by patriarchal notions serve to distance them from the sporting arena. That is why it is heartening to see them respond with a never-say-die attitude. A lesson for those who believe that wrestling and other sports are largely not suitable for women.

Hopefully, Rio 2016 should prove to be a turning point for Indian society. It has given Indian women the dignity and power to compete with a male-dominated society. These women are the conquerors that we, as a society, desperately need. In a country where only a handful of male cricketers have mattered, Karmakar, Malik and Sindhu fought gallantly for the nation on the world stage and their role needs to be abundantly praised.

From Dr Shiben Krishen Raina





कश्मीर का सच 

कश्मीर का मामला इन दिनों तूल पकड़ रहा है,ख़ास तौर पर जब से कुख्यात आतंकी बुरहान वानी को सुरक्षा बलों द्वारा मार गिराया गया।एक महीने से भी ज्यादा हो गया है और कश्मीर अभी भी अशांत बना हुआ है।केंद्र और राज्य सरकारें दोनों स्थिति को सामान्य बनाने हेतु भरसक यत्न कर रही हैं।कोशिश यह की जा रही है कि विभिन्न पक्षों के बीच वार्ता द्वारा कोई समाधान निकाला जाए।जैसा कि होता है ऐसे उलझे हुए मामलों में प्रायः सत्तारूढ़ दल अपनी पूर्ववर्ती सरकार पर दोषारोपण करते हुए कहता है कि समस्या हम पर थोपी गयी है।समय रहते अगर पुरानी सरकार ने कड़े कदम उठाए होते और जिहादी-अलगाववादी गतिविधियों पर लगाम कसी होती तो आज कश्मीर में हालात इतने बिगड़े हुए न होते।कहने की आवश्यकता नहीं कि कश्मीर में जब-जब सरकार बदलती है, लगभग यही आरोप सरकारें एक-दूसरे पर लगाती आयी हैं।सत्ता में रहने या सत्ता हासिल करने के लिए ये आरोप-प्रत्यारोप कश्मीर की राजनीति का हिस्सा बन चुके हैं।

इसी तरह का एक आरोप १९९० में कश्मीर के हुक्मरानों द्वारा गवर्नर श्री जगमोहन पर लगाया गया था कि कश्मीर से पंडितों के विस्थापन में श्रीजगमोहन की विशेष भूमिका रही है।हालाँकि इस आक्षेप का न तो कोई प्रमाण था और न कोई दस्तावेज़, मगर फिर भी इस आरोप को तब मीडिया ने खूब उछाला था। कहने का तात्पर्य यह है कि राजनीति में रहने के लिए,अपनी राजनीति चमकाने के लिए या फिर जैसे-तैसे खबरों में छाये रहने के लिए आरोप गढना-मढ़ना अब हमारी राजनीति का चलन हो गया है।जिन्होंने जगमोहन की पुस्तक“माय फ्रोजेन टरबुलंस इन कश्मीर” पढ़ी हो,वे बता सकते हैं कि पंडित वादी से पलायन करने को क्यों मजबूर हुए थे? जगमोहन ने तो सीमित साधनों और विपरीत परिस्थितियों के चलते घाटी में विकराल रूप लेती आतंककारी घटनाओं को खूब रोकना चाहा था, मगर उस समय के स्थानीय प्रशसन और केंद्र की उदासीनता की वजह से स्थिति बिगडती चली गयी थी।जब आतंकियों द्वारा निर्दोष पंडितों को मौत के घाट उतारने का सिलसिला बढ़ता चला गया तो जान बचाने का एक ही रास्ता रह गया था उनके पास और वह था घरबार छोड़कर भाग जाना।

लगभग छब्बीस साल हो गये हैं पंडितों को बेघर हुए ।इनके बेघर होने पर आज तक न तो कोई जांच-आयोग ही बैठा,न कोई स्टिंग ऑपरेशन ही हुआ और न ही संसद में या संसद के बाहर इनकी त्रासद-स्थिति पर कोई बहसबाज़ी ही हुयी।इसके विपरीत ‘आज़ादी चाहने’ वाले अलगाववादियों और जिहादियों/जुनूनियों को सत्ता-पक्ष और मानवाधिकार के सरपरस्तों ने हमेशा सहानुभूति की नजर से ही देखा।पहले भी यही हो रहा था और आज भी यही हो रहा है। काश,अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की तरह कश्मीरी पंडितों का भी अपना कोई वोट-बैंक होता, तो आज स्थिति दूसरी होती!
इधर, सुनने में यह भी आया है कि जो सरकार अलगाववादियों से किसी भी हालत में वार्ता करने कों तैयार नहीं थी, वह अब दबाव में आ गयी है और वाजपेयीजी के ‘इंसानियत, कश्मीरियत और जमहूरियत’ वाले सूत्र से प्रेरणा लेकर बढ़ते दबाव के मद्देनजर विपक्ष के साथ-साथ अलगाववादियों आदि के साथ भी वार्ता करने कों तैयार हो गयी है हालांकि इस सूत्र में ‘आज़ादियत’ और ‘पाकिस्तानियत’ को भी जोड़ने की मांग उठ रही है! 

शिबन कृष्ण रैणा
अलवर 







Sunday, August 21, 2016

(MY LETTER IN TODAY’S (AUG.19,2016) GULF NEWS-UAE

Modi emphasised achievements

Indian Prime Minister Narendra Modi’s Independence Day speech from the Red Fort in New Delhi, India addressed that social unity is a distinctive feature of our society and how we are all part of one family. We all have to fight against social evils and have to support social justice for which our great leaders like Mahatma Gandhi and B. R. Ambedkar always stood for. Modi further emphasised that violence is a global threat. India will not tolerate terrorism and Maoism. He also said: “Violence and cruelty have no place in India.”

We need to rise above divisions of caste and creed. India’s values, more especially the idea of ‘unity in diversity’ have kept this country together. Making a reference to neighbouring country Pakistan, the Prime Minister said: “I say to our neighbours, ‘Let’s fight poverty, by fighting our own people we will destroy ourselves, only by fighting poverty together will we prosper.’”

He also appealed to the youth of the country to shun the path of violence and join the mainstream, saying they have not achieved anything by taking the path of terror and extremism. Other issues that Modi covered in his speech were related to his government’s good governance and the progress of various government schemes, improvements in agriculture, women empowerment, financial growth and the new Goods and Services Tax (GST).

From Dr Shiben Krishen Raina

Alwar, India

http://gulfnews.com/your-say/letters/verdict-offers-peace-of-mind-1.1881831

Thursday, August 11, 2016

कश्मीर के अलगाववादी 

सुना है कश्मीर में अलगाववादियों को सरकार सुरक्षा प्रदान करती है। यानी जो देशविरोधी गतिविधियों में संलिप्त हैं, उन्हें सरकार की तरफ से प्रश्रय मिला हुआ है। क्या यह कोई चाणक्य या विदुर नीति है या फिर कोई मजबूरी? विडंबना देखिए, एक तरफ हम इन अलगाववादियों की बदज़ुबानी भी सह रहे हैं और दूसरी तरफ सरकारी खर्चे से इन देश-दुश्मनों को सुरक्षा भी मुहैया करा रहे हैं। विश्व में शायद ही किसी देश में ऐसा होता हो!

एक सूक्ति है: 'दुर्जन की वंदना पहले और सज्ज्न की तदनंतर।' कश्मीर में जो हो रहा है उसको यदि इस सूक्ति के निहितार्थ के संदर्भ में देखें तो सहसा इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि अलगाववादियों को सुरक्षा देने के पीछे मन्तव्य यह है कि 'आप अपना काम करते रहो और हमें अपना काम करने दो। मतलब यह कि हमें सरकार चलाने दो और बदले में हम आपके हितों की रक्षा करेंगे।' यह मौन-स्वीकृति आज से नहीं पिछले अनेक वर्षों से प्रदेश-सरकार में दोनों पक्षों के बीच रही है। अब इस ‘स्वीकृति’ को भेदना संभवतः प्रदेश और केंद्र की नई सरकारों के लिए असंभव तो नहीं, मुश्किल ज़रूर पड़ रहा है।

एक सूचना के मुताबिक कश्मीर में अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा पर सालाना औसतन 112 करोड़ रुपए खर्च होते हैं। इस खर्च में उनकी दिल्ली यात्राएं भी शामिल रहती हैं। केन्द्रीय गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार जम्मू-कश्मीर सरकार ने इन अलगाववादियों के रखरखाव, सुरक्षा, यात्रा तथा स्वास्थ्य आदि पर पिछले सालों के दौरान 560 करोड़ रुपए खर्च किए हैं। 

एक अन्य आंकड़े के अनुसार इन अलगाववादियों के पोषण में सरकार प्रतिमाह लगभग 10 करोड़ रुपए खर्च करती है। सुनने में यह भी आया है कि अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा में निजी अंगरक्षकों के रूप में लगभग 500 और उनके आवासों पर सुरक्षा गार्ड के रूप में लगभग 1000 जवान तैनात किए गए हैं। पूरे प्रदेश में के 22 जिलों में लगभग 670 व्यक्तियों को विशेष सुरक्षा दी गई है। इनमें से 294 गैर सूचीकृत लोग हैं। इन गैर सूचीकृत व्यक्तियों में अलगावादियों को भी शामिल किया गया है।सुरक्षा प्राप्त लगभग 480 लोगों को पांच साल में 708 वाहन उपलब्ध कराए गए। सूचना यह भी है कि 500 पीएसओ और 950 राज्य पुलिस के जवान इनकी सुरक्षा में लगे रहते हैं जिससे इन्हें आतंकवादियों से बचाया जा सके और ये अलगाववादी सुरक्षित रहकर मज़े से कश्मीर के लोगों को भारत सरकार और सुरक्षा बलों के विरुद्ध भड़काते र

समय आ गया है जब सरकारी खर्च से किसी को सुरक्षा देने के मानक तय हों। कश्मीर में शायद ये मानक अलगाववादियों ने तय कर लिए हैं। टैक्स देने वालों की गाढ़ी कमाई का पैसा इस तरह से बर्बाद न हो, इस पर विचार करने की सख्त ज़रूरत है।
































































मज़बूत और बहादुर सेना


सेना में भर्ती के कुछ नियम हैं जिनका पालन कड़ाई से होता है और होना भी चाहिए।इन नियमों के साथ कोई समझौता नहीं।शारीरिक क्षमता/परीक्षण,जिसमें लंबी दौड़ को एक निश्चित समय सीमा के भीतर पूरा करना,निर्धारित मानकों के अनुसार कद-काठी,न्यूनतम शैक्षिक योग्यता आदि जिसके पास है वह सेना में भर्ती हो सकता है,चाहे वह फिर किसी भी धर्म,जाति,समुदाय अथवा वर्ग का क्यों न हो?आज की तारीख में यही एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें आरक्षण नहीं है और होना भी नहीं चाहिए। सेना में भर्ती का प्रधान आधार होता है बौद्धिक कौशल और फिटनेस।आरक्षित अथवा दलित वर्ग से भी अगर कोई इन शर्तों को पूरा करता है तो भर्ती के सर्वथा योग्य है।मज़बूत और बहादुर सेना के लिए भर्ती के नियमों का मज़बूती से पालन होना बहुत ज़रूरी है।

आज ११ अगस्त,२०१६ के 'जनसत्ता'(चौपाल) में मेरा छोटा-सा सारगर्भितपत्र.

एक सूक्ति है: 'दुर्जन की वंदना पहले और सज्ज्न की तदनंतर।' कश्मीर में जो हो रहा है, उसको यदि इस सूक्ति के निहितार्थ के संदर्भ में देखें तो सहसा इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि अलगाववादियों को सुरक्षा देने के पीछे मन्तव्य यह है कि 'आप अपना काम करते रहो और हमें अपना काम करने दो।मतलब यह कि हमें सरकार चलाने दो और बदले में हम आपके हितों की रक्षा करेंगे।' यह मौन-स्वीकृति आज से नहीं पिछले अनेक वर्षों से प्रदेश-सरकार में दोनों पक्षों के बीच रही है।अब इस ‘स्वीकृति’ को भेदना संभवतः प्रदेश और केंद्र की नई सरकारों के लिए असंभव नहीं तो,मुश्किल ज़रूर पड़ रहा है।

शिबन कृष्ण रैणा
अलवर