Monday, January 21, 2019



लगभग उन्नतीस साल हो गए हैं कश्मीरी पंडितों को बेघर हुए। इनके बेघर होने पर आज तक न तो कोई जांच-आयोग बैठा, न कोई स्टिंग आपरेशन हुआ और न संसद या संसद के बाहर इनकी त्रासद-स्थिति पर कोई सार्थक बहसबाजी ही हुई। इसके विपरीत ‘आजादी चाहने’ वाले अलगाववादियों और जिहादियों/जुनूनियों को सत्ता-पक्ष और मानवाधिकार के सरपरस्तों ने हमेशा सहानुभूति की नजर से देखा। पहले भी यही हो रहा था और आज भी यही हो रहा है। सर्वोच्च न्यायलय ने भी पंडितों की उस याचिका पर विचार करने से मना कर दिया जिस में पंडितों पर हुए अत्याचारों की जांच करने के लिए गुहार लगाई गयी थी। ऐसे में दिल के किसी कोने से यह आवाज़ निकलना स्वाभाविक है कि "काश, अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की तरह कश्मीरी पंडितों का भी अपना कोई वोट-बैंक होता तो आज स्थिति दूसरी होती!" लगभग उन्नतीस सालों के विस्थापन की पीड़ा से आक्रांत/बदहाल यह जाति धीरे-धीरे अपनी पहचान और अस्मिता खो रही है। कौन जानता है आने वाले समय में उपनामों को छोड़ इस जाति की अपनी कोई पहचान बाकी रहेगी भी या नहीं!

आज कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडित नहीं के बराबर हैं। अगर हैं भी तो वे किसी मजबूरी के मारे वहां पर रह रहे हैं और उनकी संख्या नगण्य है। वादी से खदेड़े जाने के बाद ये लोग शरणार्थी शिविरों (जम्मू और दिल्ली में) या फिर देश के दूसरे स्थानों पर रह रहे हैं। माना जाता है कि 3 लाख के करीब कश्मीरी पंडित जिहादियों के जोर-जब्र की वजह से घाटी से भागने पर विवश हुए। कभी साधन-सम्पन्न रहे ये हिंदू/पंडित आज सामान्य आवश्यकताओं के मोहताज हैं। उन्हें उस दिन का इंतज़ार है जब वे ससम्मान अपने घर वापस जा सकें।

केंद्र और राज्य सरकारें पंडितों को कश्मीर में बसाने और कश्मीर समस्या को सुलझाने के लिए भरसक प्रयत्न कर रही हैं। कोशिश यह की जा रही है कि विभिन्न पक्षों के बीच वार्ता-संवाद से कोई समाधान निकाला जाए। जैसा कि होता है, ऐसे उलझे हुए मामलों में प्राय: सत्तारूढ़ दल अपनी पूर्ववर्ती सरकार पर दोषारोपण करते हुए कहता है कि समस्या हम पर थोपी गई है। समय रहते अगर पूर्ववर्ती सरकारों ने कड़े कदम उठाए होते और जिहादी-अलगाववादी गतिविधियों पर लगाम कसी होती तो आज कश्मीर में हालात इतने बिगड़े हुए न होते। कहने की आवश्यकता नहीं कि कश्मीर में जब-जब सरकार बदलती है, लगभग यही आरोप सरकारें एक-दूसरे पर लगाती आई हैं। सत्ता में रहने या सत्ता हासिल करने के लिए ये आरोप-प्रत्यारोप कश्मीर की राजनीति का हिस्सा बन चुके हैं।

इसी तरह का एक आरोप 1990 में कश्मीर के हुक्मरानों ने गवर्नर जगमोहन पर लगाया था कि कश्मीर से पंडितों के विस्थापन में उनकी विशेष भूमिका रही है। हालांकि इस आक्षेप का न तो कोई प्रमाण था और न कोई दस्तावेज, मगर फिर भी इस आरोप को तब मीडिया ने खूब उछाला था। कहने का तात्पर्य यह है कि राजनीति में रहने के लिए, अपनी राजनीति चमकाने के लिए या फिर जैसे-तैसे खबरों में छाए रहने के लिए आरोप गढ़ना-मढ़ना अब हमारी राजनीति का चलन हो गया है। जिन्होंने जगमोहन की पुस्तक ‘माय फ्रोजेन टरबुलंस इन कश्मीर’ पढ़ी हो, वे बता सकते हैं कि कश्मीरी पंडित वादी से पलायन करने को क्यों मजबूर हुए थे। जगमोहन ने तो सीमित साधनों और विपरीत परिस्थितियों के चलते घाटी में विकराल रूप लेती आतंककारी घटनाओं को खूब रोकना चाहा था, मगर उस समय के स्थानीय प्रशासन और केंद्र की उदासीनता की वजह से स्थिति बिगड़ती चली गई थी। जब आतंकियों द्वारा निर्दोष पंडितों को मौत के घाट उतारने का सिलसिला बढ़ता चला गया तो जान बचाने का एक ही रास्ता रह गया था उनके पास और वह था घरबार छोड़कर भाग जाना।

दरअसल, किसी भी जाति के अस्तित्व के लिए तीन शर्तों का होना परमावश्यक है। पहली, उसका भौगोलिक आधार अर्थात उसकी अपनी सीमाएं, क्षेत्र या भूमि। दूसरी, उसकी सांस्कृतिक पहचान और तीसरी, अपनी भाषा और साहित्य। ये तीनों किसी भी ‘जाति’ के मूलभूत तत्त्व होते हैं। अमेरिका या इंग्लैंड में रह कर आप अपनी संस्कृति का गुणगान या संरक्षण तो कर सकते हैं, मगर वहां अपना भौगोलिक आधार तैयार नहीं कर सकते। यह आधार तैयार हो सकता है अपने ही देश में और ‘पनुन कश्मीर’ (अपना कश्मीर) की अवधारणा इस दिशा में उठाया गया सही कदम है। सारे विस्थापित/गैर-विस्थापित कश्मीरी पंडित जब एक ही जगह रहने लगेंगे तो भाषा की समस्या तो सुलझेगी ही, सदियों से चली आ रही कश्मीर की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा की भी रक्षा होगी। लगता तो यह एक दूर का सपना है, मगर क्या मालूम यह सपना कभी सच भी हो जाए।

शिबन कृष्ण रैणा 

अरावली विहार,अलवर 



Friday, January 18, 2019


कश्मीरी पंडितों का काला दिवस १९ जनवरी,१९९० 


कश्मीरी पंडितों के घाटी से जबरन विस्थापन के लगभग उन्नती वर्ष 19 जनवरी,2019 को पूरे हुए।इस बीच न 'पनुन कश्मीर'(अपना कश्मीर)की अवधारणा साकार हुई और न पंडितों की घरवापसी का सपना पूरा हो सका।पण्डितों को वापस घाटी में बसाने की सरकार की पहल भी कोई रंग नहीं लाई।बदहाली से जूझते,अपने ज़ख्मों को सहलाते तथा कर्मनिष्ठ बन इस देशभक्त कौम ने इन उन्नतीस वर्षों के दौरान दुनिया को दिखा दिया कि प्रभु उनकी मदद करते हैं जो अपनी मदद खुद करते हैं।कश्मीरी पंडितों के मुद्दे को मात्र वोटों के लिए भुनाने की बात आहिस्ताआहिस्ता साफ होती जा रही है।कश्यप ऋषि की संतानें विपरीत परिस्थितियों में जीना खूब जानती है।यही इस देशप्रेमी समुदाय का सम्बल और सहारा है। यहाँ पर इस बात को रेकांकित करना लाजिमी है कि जब तक कश्मीरी पंडितों की व्यथा-कथा को राष्ट्रीय स्तर पर उजागर नहीं किया जाता तब तक इस धर्म-परायण,कर्तव्यनिष्ठ और राष्टभक्त कौम की फरियाद को व्यापक समर्थन प्राप्त नहीं हो सकता।इस के लिए परमावश्यक है कि सरकार इस समुदाय के किसी जुझारू,कर्मनिष्ठ और सेवाभावी नेता को राज्यसभा में मनोनीत करे ताकि पंडितों के दुःखदर्द को देश तक पहुँचाने का उचित और प्रभावी माध्यम इस समुदाय को मिले।अन्य मंचों की तुलना में देश के सर्वोच्च मंच से उठाई गयी समस्याओं की तरफ जनता और सरकार का ध्यान तुरंत जाता है। 

यदि सरकार इस तरह का कोई निर्णय लेती है तो निश्चित ही कश्मीरी पंडित समुदाय की व्यथा-कथा को वाणी मिलेगी और पंडित समाज को लगेगा कि सरकार सच में उनकी हितैषी है और उनके दुखदर्द की पैरवी करने वाला कोई जुझारू नेता देश की सर्वोच्च अदालत/संसद में बैठा हुआ है।

शिबन कृष्ण रैणा