Sunday, December 26, 2021



अपनों का अपनों से लगाव बना रहे(नववर्ष संदेश)

डा० शिबन कृष्ण रैणा

नव-वर्ष यानी नया साल! जो था सो बीत गया और जो काल के गर्भ में है, वह हर पल, हर क्षण प्रस्फुटित होने वाला है। यों देखा जाए तो परिवर्तन प्रकृति का आधारभूत नियम है। तभी तो दार्शनिकों ने इसे चिरंतन सत्य की संज्ञा दी है। इसी नियम के अधीन काल-रूपी पाखी के पंख लग जाते हैं और वह स्वयं तो विलीन हो जाता है किन्तु अपने पीछे छोड़ जाता है काल के सांचे में ढली विविधायामी आकृतियां। कुछ अच्छी तो कुछ बुरी। कुछ रुपहली तो कुछ कुरूप।काल का यह खेल या अनुशासन अनन्त समय से चला आ रहा है।

हम सभी अनेक प्रकार की कमजोरियों से भरे हुए हैं। यह दावा करना बिल्कुल गलत होगा कि हमारे अन्दर कोई अवगुण नहीं है। नये वर्ष में हमें अपने संकल्पों में एक संकल्प यह भी जोड़ लेना चाहिए कि मैं अपने किसी एक अवगुण-विशेष को समाप्त करूँगा। जैसे: मैं अपने क्रोध को नियंत्रित करूँगा। मैं आलस्य से मुक्त होऊँगा।मुझे अपने अन्दर के ईर्ष्या के भाव को समाप्त करना है।वाणी में मिठास पैदा करनी है आदि-आदि। साथ ही 2022 में विनम्रता के महत्व को और भी अच्छी तरह से जानना होगा। विनम्रता एक श्रेष्ठ गुण है। इस गुण से शत्रु को भी मित्र बनाया जा सकता है। गीता में भी विनम्रता के बारे में बताया गया है। जिनके स्वभाव में विनम्रता होती है, वे सभी के प्रिय होते हैं। ऐसे लोगों को हर स्थान पर सम्मान मिलता है।

आइए नयी ऊर्जा, आशा और उत्साह के साथ नववर्ष का स्वागत करें। हर ओर नया और सकारात्मक देखें। सभी चेहरों को नयी नजर से देखें। हर चीज में नयापन तलाशें। अपने आस-पास को नयी प्रेरणा और नयी आशा-उमंग से देखें। नयी राह की ओर देखें। नये सपने देखें, नए मार्ग बनाएं और उन पर चलना शुरू करें। इच्छा-शक्ति को प्रबल करें। पाखंड का त्याग करें। भरोसा करें, भरोसे के लायक बनें। विश्वास करें, विश्वास जीतें। अपनी गरिमा समझें और दूसरों की अहमियत को समझें। लाख कोशिश के बाद भी मानव मस्तिष्क में स्मृतियां शेष रह ही जाती हैं। फिर भी कोशिश करें कि मात्र अच्छी स्मृतियां ही शेष रहें।इसी के साथ अपनी स्मृतियों से पूर्वाग्रहों को मुक्त करें।यह कठिन तपस्या है, फिर भी प्रयास करें। स्मृतियों को बोझ न बनने दें। स्मृतियों को प्रेरक बनाएं। अच्छी यादें प्रेरणा देती हैं, सुख देती हैं। दुखदायी स्मृतियों को मिटा दें। जिन दुर्गुणों को पिछले वर्ष झेला, उन्हें आज भूल जाएं। हम नये वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं।अतः यह कामना करें कि सब कुछ नया हो। सब कुछ अच्छा हो। हर ओर शुभ हो। हर काम का शुभ आरंभ हो। नए वर्ष में यह भी कामना करें कि युवाओं के लिए रोजगार का मार्ग प्रशस्त हो। व्यापार में चल रही मंदी समाप्त हो। किसानों के लिए सकारात्मक माहौल बने। स्वच्छ भारत बने। कला-संस्कृतियों की रक्षा हो। शहरी-ग्रामीण जीवन स्तर, अमीर-गरीब के बीच खाई चौड़ी न हो और सब के सम्मान और जीवन की रक्षा हो।

इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए हम एक-दूसरे को शुभकामनाएं दें ताकि आने वाला नया वर्ष सबके लिए सुख-समृद्धि के ढेरों अवसर लेकर आए। प्रत्येक वर्ष नए साल के अवसर पर हम सभी को आशा होती है कि नव-वर्ष हमारे लिए काफी अच्छा साबित हो।हम सभी के लिए नया साल नई उम्मीदों, नई इच्छाओं, नई आशाओं तथा नई संभावनाओं को तलाशने का एक सुंदर अवसर होता है।नए साल में हमें यह भी कोशिश करनी चाहिए कि हम पुराने साल में की गई गलतियों को न दोहराएं। बीते वर्ष में की गई गलतियों तथा असफलताओं से सीख लेते हुए हमें जिन्दगीं में आगे कदम बढ़ाना चाहिए तथा अपनी सफलता सुनिश्चित करने की कोशिश करनी चाहिए।

बदलते वक्त के साथ बदलें।जमाने के साथ चलें। बदलती तकनीक के साथ बदलें। अपटूडेट रहें ताकि फूहड़ न कहलाएं।नई सुबह इस नए साल में हमारे स्वागत के लिए तैयार खड़ी है। उसका गर्मजोशी के साथ बाहें फैलाकर स्वागत करें और ईश्वर से प्रार्थना करें:

अपनों का अपनों से लगाव बना रहे
आसमां छु लें, पर जमीं पर पाँव डटे रहें,

इस प्रार्थना पर विचार करना हे प्रभु,
सबके सपनों को तू साकार करना प्रभु।

Saturday, December 25, 2021



अमरनाथ तीर्थ

भारतवर्ष तीर्थों की पवित्र भूमि है। इस धरा पर शायद ही कोई ऐसा प्रांत होगा जहाँ तीर्थस्थल न हों। ये तीर्थस्थल दीर्घकाल से आस्था एवं विश्वास के प्रमुख केंद्र रहे हैं। कश्मीर प्रांत में स्थित 'अमरनाथ' नामक तीर्थस्थल का विशेष महत्व है। कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ में इस तीर्थ को ‘अमरेश्वर’ बताया गया है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में स्थित शिव के द्वादश ज्योतिर्लिगों: सोमनाथ, मल्लिकार्जुन, महाकालेश्वर, ॐकारेश्वर, केदारनाथ, भीमाशंकर, काशी-विश्वनाथ आदि के अतिरिक्त ‘अमरनाथ’ का विशेष महत्व है। शिव के प्रमुख स्थलों में अमरनाथ अन्यतम है। अत: अमरनाथ को तीर्थो का तीर्थ कहा जाता है।

अमरनाथ हिन्दुओं का एक प्रमुख तीर्थस्थल है। यह जम्मू-कश्मीर राज्य के श्रीनगर शहर के उत्तर-पूर्व में 141 किलोमीटर दूर समुद्र तल से 3,888 मीटर (12756 फुट) की ऊंचाई पर स्थित है। इस गुफ़ा की लंबाई (भीतर की ओर गहराई) 19 मीटर और चौड़ाई 16 मीटर है। यह गुफ़ा लगभग 150 फीट क्षेत्र में फैली है और गुफ़ा 11 मीटर ऊंची है तथा इसमें हज़ारों श्रद्धालु समा सकते हैं। प्रकृति का अद्भुत वैभव अमरनाथ गुफ़ा, भगवान शिव के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। एक पौराणिक गाथा के अनुसार भगवान शिव ने पार्वती को अमरत्व का रहस्य (जीवन और मृत्यु के रहस्य) बताने के लिए इस गुफ़ा को चुना था। मृत्यु को जीतने वाले मृत्युंजय शिव अमर हैं, इसलिए 'अमरेश्वर' भी कहलाते हैं। जनसाधारण 'अमरेश्वर' को ही अमरनाथ कहकर पुकारते हैं।शिव-भक्त इसे बाबा अमरनाथ या बर्फानी-बाबा भी कहते हैं।

अमरनाथ हिंदी के दो शब्द “अमर” अर्थात “अनश्वर” और “नाथ” अर्थात “भगवान” को जोड़ने से बनता है। एक पौराणिक कथा के अनुसार जब देवी पार्वती ने भगवान शिव से अमरत्व के रहस्य को प्रकट करने के लिये कहा, जो वे उनसे लंबे समय से छिपा रहे थे। तब यह रहस्य बताने के लिये भगवान शिव, पार्वती को हिमालय की इस गुफा में ले गए, ताकि उनका यह रहस्य कोई भी ना सुन पाये और यही भगवान शिव ने देवी पार्वती को अमरत्व का रहस्य बताया था।
40 मीटर ऊँची अमरनाथ गुफा में पानी की बूंदों के जम जाने की वजह से पत्थर की एक सुंदर मूर्ती बन जाती है। हिन्दू धर्म के लोग इस बर्फीली मूर्ति को शिवलिंग मानते है। कहा जाता है की भगवान शिव पहलगाम (बैल गाँव) में नंदी और बैल को छोड़ गए थे। चंदनवाड़ी में उन्होंने अपनी जटाओ से चन्द्र को छोड़ा था। और शेषनाग सरोवर के किनारे उन्होंने अपना साँप छोड़ा था। महागुनास (महागणेश पहाड़ी) पर्वत पर उन्होंने भगवान गणेश को छोड़ा था। पंजतारनी पर उन्होंने पाँच तत्व- धरती, पानी, हवा, आग और आकाश छोड़ा था। और इस प्रकार दुनिया की सभी चीजो का त्याग कर भगवान शिव ने वहाँ तांडव नृत्य किया था और अंत में भगवान शिव देवी पार्वती के साथ पवित्र गुफा अमरनाथ आये थे।
इस यात्रा का सबसे अच्छा समय गुरु पूर्णिमा और श्रावण पूर्णिमा के समय में होता है। जम्मू-कश्मीर सरकार ने श्रद्धालुओ की सुख-सुविधाओ के लिये रास्ते भर में सभी सुविधाए उपलब्ध करवाई है। ताकि भक्तगण आसानी से अपनी अमरनाथ यात्रा पूरी कर सके। लेकिन कई बार यात्रियों की यात्रा में बारिश बाधा बनकर आ जाती है। जम्मू से लेकर पहलगाम (7500 फीट) तक की बस सेवा भी उपलब्ध है। पहलगाम में श्रद्धालु अपने सामन और कपड़ो के लिये कई बार कुली भी रखते है। वहाँ हर कोई यात्रा की तैयारिया करने में ही व्यस्त रहता है। इसीके साथ सूरज की चमचमाती सुनहरी किरणे जब पहलगाम नदी पर गिरती है, तब एक महमोहक दृश्य भी यात्रियों को दिखाई देता है। कश्मीर में पहलगाम मतलब ही धर्मगुरूओ की जमीन।
अधिकारिक तौर पे, यात्रा का आयोजन राज्य सरकार श्री अमरनाथ यात्रा बोर्ड के साथ मिलकर करती है। सरकारी एजेंसी यात्रा के दौरान लगने वाली सभी सुख-सुविधाए श्रद्धालुओ को प्रदान करती है, जिनमे कपडे, खाना, टेंट, टेलीकम्यूनिकेशन जैसी सभी सुविधाए शामिल है।

गुफा के रास्ते में बहुत सी समाजसेवी संस्थाए श्रद्दालुओ को खाना, आराम करने के लिये टेंट या पंडाल की व्यवस्था करते है। यात्रा के रास्ते में 100 से भी ज्यादा पंडाल लगाये जाते है, जिन्हें हम रात में रुकने के लिये किराये पर भी ले सकते है। निचले कैंप से पंजतारनी (गुफा से 6 किलोमीटर) तक की हेलिकॉप्टर सुविधा भी दी जाती है।



इतिहासकारों का विचार है कि अमरनाथ यात्रा हज़ारों वर्षों से चली या रही है तथा अमरनाथ-दर्शन का महत्त्व पुराणों में भी मिलता है। बृंगेश सहिंता, नीलमत पुराण, कल्हण की राजतरंगिनी आदि में इस तीर्थ का बराबर उल्लेख मिलता है। नीलमत पुराण में अमरेश्वर के बारे में दिए गए उल्लेख से पता चलता है कि इस तीर्थ के बारे में छठी-सातवीं शताब्दी में भी लोगों को जानकारी थी। कश्मीर के महान् शासकों में से एक था 'जैनुलबुद्दीन' (1420-70 ईस्वी), जिसे कश्मीरी लोग प्यार से ‘बड़शाह’ कहते हैं, खते हैं कि उसने भी अमरनाथ गुफ़ा की यात्रा की थी।(इस बारे में इतिहासकार जोनराज ने उल्लेख किया है।) अकबर के इतिहासकार अबुल-फ़जल (16वीं शताब्दी) ने आइना-ए-अकबरी में उल्लेख किया है कि अमरनाथ एक पवित्र तीर्थस्थल है। गुफ़ा में बर्फ़ का एक बुलबुला बनता है जो थोड़ा-थोड़ा करके 15 दिन तक रोजाना बढता रहता है और दो गज से अधिक ऊंचा हो जाता है। चन्द्रमा के घटने के साथ-साथ वह भी घटना शुरू कर देता है और जब चांद लुप्त हो जाता है तो शिवलिंग भी विलुप्त हो जाता है। स्वामी विवेकानन्द ने 1898 में 8 अगस्त को अमरनाथ गुफ़ा की यात्रा की थी और बाद में उन्होंने उल्लेख किया कि मुझे लगा कि बर्फ़ का लिंग स्वयं शिव हैं। मैंने ऐसी सुन्दर, इतनी प्रेरणादायक कोई चीज़ नहीं देखी और न ही किसी धार्मिक-स्थल का इतना आनन्द लिया।

अमरनाथ की यात्रा श्रीनगर स्थित दशमी अखाड़ा से पंचमी तिथि को प्रारम्भ होती है और पहलगाम में रुकती है और पुन: द्वादशी तिथि को प्रस्थान प्रारम्भ होता है। श्रावण मास में पवित्र हिमलिंग के दर्शनार्थ लाखों लोग भिन्न-भिन्न प्रदेशों से यहाँ आते हैं। गुफा में ऊपर से बर्फ के पानी की बूंदें यत्र-यत्र गिरती रहती हैं और यहीं पर एक ऐसा स्थान है, जहाँ इन बूंदों से लगभग दस फुट ऊँचा शिवलिंग बनता है। चंद्रमा के घटने-बढने के साथ ही इस हिमलिंग का आकार भी परिवर्तित होता है, जो श्रावण पूर्णिमा को अपने पूर्ण रूप में आ जाता है तथा अमावस्या तक धीरेधीरे छोटा हो जाता है। विस्मय का विषय यह है कि गुफा में सामान्यतः कच्ची बफ ही दिखाई देती है जो भुरभुरी होती। है लेकिन यह शिवलिंग ठोस बर्फ का बना होता है। मुख्य हिम शिवलिंग से कुछ दूरी पर गणेश, भैरव तथा पार्वती के पृथक्-पृथक् हिमलिंग रूप भी दृष्टिगत होते हैं।

अमरनाथ की गुफा तक पहुँचने के लिए सामान्यतः दो मार्ग हैं, प्रथम पहलगाम मार्ग और दूसरा सोनमर्ग-बालटाल मार्ग पहलगाम या बालटाल किसी भी मार्ग से गुफा तक पहुँचा जा सकता है। पहलगाम अथवा सोनमर्ग से आगे की यात्रा पैदल ही करनी पड़ती है। पहलगाम मार्ग अपेक्षाकृत सुविधाजनक है जबकि बालटाल मार्ग अमरनाथ की गुफा से मात्र 14 किलोमीटर की दूरी पर है, लेकिन यह मार्ग अत्यंत दुर्गम है। सामान्यतः यात्री पहलगाम मार्ग से अमरनाथ यात्राइसी मार्ग के प्रयोग हेतु प्रेरित करती है।

पहलगाम से अमरनाथ की दूरी 45 किलोमीटर है। इस यात्रा मार्ग में चंदनबाड़ी, शेषनाग तथा पंचतरणी तीन प्रमुख रात्रि पड़ाव हैं। प्रथम पड़ाव चंदनबाड़ी है, जो पहलगाम से 12.8 किलोमीटर की दूरी पर है। तीर्थयात्री पहली रात यहीं पर बिताते हैं। दूसरे दिन पिस्सू घाटी की चढ़ाई प्रारम्भ होती है। चंदनबाड़ी से 13 किलोमीटर दूर शेषनाग में अगला पड़ाव है। यह चढ़ाई अत्यंत दुर्गम है। यहीं पर पिस्सू घाटी के दर्शन होते हैं। पूरी यात्रा में पिस्सू घाटी का मार्ग बहुत कठिन है। पिस्सू घाटी समुद्र तल से 11,120 फुट की ऊँचाई पर है। इसके पश्चात् यात्री शेषनाग पहुँचते हैं। लगभग डेढ़ किलोमीटर लम्बाई में फैली हुई झील अत्यंत सुंदर है। तीर्थयात्री रात्रि में यहीं विश्राम करते हैं। तीसरे दिन यात्रा पुनः आरम्भ होती है। इस यात्रा मार्ग में बैववैल टॉप एवं महागुणास दरें को पार करना पड़ता है। महागुणास से पंचतरणी का पूरा रास्ता उतरावयुक्त है। छोटी-छोटी पाँच नदियों के बहने के कारण यह स्थान पंचतरणी नाम से प्रसिद्ध हुआ है। पंचतरणी से अमरनाथ की पवित्र गुफा 6 किलोमीटर की दूरी पर है। गुफा के समीप पहुँचकर पड़ाव डाल दिया जाता है तथा प्रात:काल पूजन इत्यादि के पश्चात् पंचतरणी वापस लौटा जाता है। अंततः प्रात:काल शिव के हिमलिंग स्वरूप के दर्शनोपरांत अद्भुत आनंद की प्राप्ति होती है।

जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका हैं कि शिव ने पार्वती को अमरत्व का उपदेश इसी गुफा में दिया था। जब वे उन्हें कथा सुना रहे थे तो उस समय कपोतद्वय(दो कबूतर)भी वहीं आसपास मौजूद थे जिन्होंने यह उपदेश सुन। श्रद्धालु इन्हें अमरपक्षी कहते हैं जो शिव द्वारा पार्वती को दिए गए अमरत्व के उपदेश को सुनकर अमर हो गए। आज भी जिन श्रद्धालुओं को ये कपोतद्वय दिखाई देते हैं, तो ऐसा माना जाता है कि उन्हें शिव-पार्वती ने अपने प्रत्यक्ष दर्शन दिए हैं। प्रतिवर्ष सम्पन्न होने वाली इस पुण्यशालिनी यात्रा से अनेक पुण्य फलों की प्राप्ति होती है। ऐसा माना जाता है कि अमरनाथ दर्शन और पूजन से महापुण्य प्राप्त होता है।

शास्त्रों में इंद्रिय निग्रह पर विशेष बल दिया गया है जिससे मुक्ति की प्राप्ति होती है। भृगीश संहिता में इसी प्रकार का संकेत प्राप्त होता है जिसके अनुसार अमरनाथ यात्रा निग्रह के बिना ही मुक्ति प्रदान करने वाली है। अत: यात्राक्रम में आने वाली परिस्थितियों तथा गंतव्य स्थल पर पहुँचकर होने वाले हर्ष-विषाद मिश्रित अनेकविध अनुभवों के कारण तीर्थयात्री को विविध प्रकार के सांसारिक कष्टों का बोध होता है तथा साथ ही शिव के हिमलिंगरूप के दर्शन से उसका हृदय इतना संयमित हो जाता है कि इंद्रिय निग्रह किए बिना ही उसे मुक्ति प्राप्त होती है।

भृगीश संहिता में यह भी कहा गया है कि अमरेश्वर शिव के दर्शन अत्यंत पुण्यशाली है। वे अपने भक्तों के समस्त भवरोगों यथा-आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक दु:खों का समूल नाश करते



आमरनाथ-यात्रा से संबंधित एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि यह यात्रा पारस्परिक सद्भाव के प्रचार का कार्य भी करती है। विभिन्न प्रांतों से शिव के दर्शनार्थ आने वाले लोगों में परस्पर समभाव की भावना विकसित होती है, विभिन्न भाषा-भाषी लोगों में परस्पर वार्तालाप होता है, भाईचारे की भावना का विकास होता है और विभिन्न प्रांतों की भौगोलिक जानकारी का आदान-प्रदान होता है।अत: अमर नाथ तीर्थ को तीर्थाटन के अतिरिक्त श्रद्धा,ज्ञान एवं भक्ति के समुच्चय के रूप में माना जा सकता है।

Friday, December 17, 2021



Arabic Language, a Bridge Between Civilizations’ (Gulf News 17th December,20)



There seem to be no two opinions on the recent finding by UNESCO that hundreds of languages and dialects around the world are threatened to disappear because of enforced illiteracy and migration. Findings reveal that almost half of the globe’s 6,700 languages and dialects are disappearing because people have stopped using them. In other words, parents and elders of these languages may no longer pass on these languages to their children, and in the process, the languages might wither away, leaving no signs of their existence for future generations.

Reasons for this upheaval in languages are manifold. Educational disadvantages including migration and other manifestations, eventually lead to the possibility of a culture and its language being weakened almost to the point of disappearance and obscurity. More than this is the massive influence of the English language exerting on languages smaller or bigger. English has become a global language and its utility is immense and unquestionable. It connects the people of the world, while regional or other national languages are not. English is the language for global communication. The modern world is firmly connected by technology and by globalization, and the English language is a means to that. The more people reach out to each other the more they need a common language for communication. English fills up the slot for its ease of learning and for already being a global language spoken across continents. Companies are becoming more international, and English is considered an essential skill for more and more jobs. There are some organizations that now conduct all their business in English, no matter where in the world they are based. If you want the best-paid opportunities, learning English is virtually essential. Languages other than English might be a source of just preserving our social and cultural identities.