Thursday, December 7, 2017



कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मणिशंकर अय्यर ने प्रधानमंत्री के लिये 'नीच' शब्द का प्रयोग कर खुद अपने को और पार्टी को परेशानी में डाल दिया है।. हुआ यों कि गुजरात चुनाव के पहले चरण के प्रचार के आखिरी दिन कांग्रेस के नेता मणिशंकर अय्यर ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर एक विवादित बयान दिया.मणिशंकर अय्यर ने कहा, "मुझे लगता है कि ये आदमी बहुत नीच किस्म का आदमी है, इसमें कोई सभ्यता नहीं है, और ऐसे मौके पर इस किस्म की गंदी राजनीति करने की क्या आवश्यकता है?"

दरअसल, मणिशंकर अय्यर का यह बयान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस बयान पर आया था जिसमें उन्होंने कहा था कि राष्ट्र निर्माण में बाबा साहब आंबेडकर की भूमिका को हमेशा कमतर करने का प्रयास किया गया. लेकिन यह प्रयास नाकाम रहा क्योंकि जिस एक ख़ास परिवार के लिए ये सब किया गया, उससे ज्यादा लोगों के ऊपर बाबा साहब आंबेडकर का प्रभाव रहा है. बाद में प्रधानमन्त्री मोदी ने ट्वीट किया, "मुझे कांग्रेस के एक बुद्धिमान नेता ने 'नीच' कहा. ये कांग्रेस की मानसिकता है. उनकी अपनी भाषा है और हमारा अपना काम है. लोग उन्हें अपने वोटों से इसका जवाब देंगे."

वैसे यह पहला मौका नहीं है जब मणिशंकर अय्यर अपने विवादित बयानों के लिए सुर्ख़ियों में रहे हैं. पहले भी वे प्रधानमंत्री के लिए 'चायवाला'आदि कह चुके हैं।दिसंबर 2013 में अय्यर ने नरेंद्र मोदी को 'जोकर' बताया था और कहा था कि उन्हें न इतिहास पता है, न अर्थशास्त्र और न ही संविधान की जानकारी है. जो मुंह में आता है, बोलते रहते हैं. अय्यर एक बार प्रतिबंधित आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के संस्थापक हाफिज सईद को 'हाफिज साहब' भी कह चुके हैं. इतना ही नहीं उन्होंने पाकिस्तानी टीवी चैनल पर साक्षात्कार के दौरान सुझाव दिया था कि भारत और पाकिस्तान के बीच शांति केवल तब संभव है जब मोदी सरकार गिर जाए. उन्होंने पाकिस्तान से भाजपा सरकार को गिराने में मदद करने को भी कहा था.और तो और 2014 के चुनाव से ऐन पहले भी अय्यर ने मोदी को चायवाला कहकर बुलाया था जिसे चुनाव में कांग्रेस की हार की एक बड़ी वजह माना गया. कांग्रेस सम्मेलन-स्थल पर उन्होंने कहा था कि मोदी पीएम बनने से रहे, वह चाहे तो सम्मेलन स्थल के बाहर चाय की दुकान लगा सकते हैं.

दरअसल, अय्यर अपने अमर्यादित बोलों और अपवचनों से अपनी पार्टी के लिए अपयश मोल ले रहे थे। पार्टी का हित कम और अहित ज्यादा कर रहे थे.शायद तभी स्थिति की गंभीरता को देखते हुए और पार्टी की छवि के हित में कांग्रेस हाई कमान ने मणिशंकर अय्यर को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से आनन-फानन में निलंबित करजवाब तलब किया है ।मगर अपने अवांछित वचनों से अय्यर पार्टी को जो नुकसान पहुंचा गए, उसकी भरपाई होना मुश्किल है।कौन नहीं जानता कि ज़ुबाँ से निकला शब्द और कमान से निकला तीर वापस नहीं आते।एक कहावत ठीक ही कहती है: ‘पहले तौल फिर बोल.’



Monday, October 30, 2017



सतीसर से कश्मीर


कहते हैं कि मुग़ल बादशाह जहांगीर जब पहली बार कश्मीर पहुंचे तो उनके मुंह से सहसा निकल पड़ा: “गर फिरदौस बर रूए ज़मीन अस्त,हमीं असतो,हमीं असतो,हमीं अस्त”।अर्थात् “जन्नत अगर पूरी कायनात में कहीं पर है, तो वह यहीं है, यहीं है, यहीं है।“

भारत का मुकुटमणि,धरती का स्वर्ग, यूरोप का स्विट्ज़रलैंड, कुदरत की कारीगरी और अकूत ख़ूबसूरती का खजाना:पहाड़,झीलें,वनस्पति,हरियाली,महकती पवन... ऐसा लगता है मानो पूरा-का-पूरा ‘स्वर्ग’ धरती पर उतर आया हो! यह नजारा है कश्मीर की धरती का।तभी तो इसे धरती का ‘स्वर्ग’ कहा जाता है।
कश्मीर घाटी का नाम कश्मीर कैसे पड़ा? इसके पीछे एक दिलचस्प कहानी है.
कश्मीर को कश्मीरी भाषा में कशीर तथा इस भाषा को का’शुर कहते हैं।‘कश्मीर’ शब्द के कशमीर,काश्मीर,काशमीर आदि पर्यायवाची भी मिलते हैं। इन में से सवार्धिक प्रचलित शब्द कश्मीर ही है।इस शब्द की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक मत हैं।

हजारों सैंकड़ों साल पहले कश्मीर में नाग जाति के लोग रहते थे | पौराणिक गाथाओं के अनुसार इन नागों का राजा प्रजापति कश्यप का पुत्र नीलनाग था | यह तब की बात है जब सारा कश्मीर जलमग्न था | केवल ऊपरी भागों अथवा पर्वतीय स्थानों पर नाग जाति के लोग रहते थे | पानी में डूबा सारा भू-भाग सतीसर कहलाता था | इसी सतीसर में जलोदभव (जलदभू) नाम का विशालकाय दैत्य रहता था | अपनी कठोर तपस्या से ब्रह्मा को प्रसन्न कर जलदभू को तीन वर प्राप्त हुए थे | एक, जब तक वह जल में है, कोई इसे मार नही सकता | दो,अतुलनीय शक्ति और पराक्रम व तीन मायावी शक्ति की प्राप्ति | उस क्रूर दैत्य ने आसपास की पहाड़ियों पर रहने वाले नागों का जीवन नरकतुल्य बना दिया था | वह उनको पीडाएं पहुंचाता, भक्षण करता आदि-आदि |

जलदभू की क्रूरता से दुखी होकर नागों के राजा नीलगान ने तीर्थयात्रा पर निकले कश्यप ऋषि से जलदभू के अत्याचारों की करुण-कथा वर्णित की | तब नीलनाग को साथ लेकर कश्यप ब्रह्मलोक में गए | वहां से ब्रह्मा, बिष्णु, महेश के साथ वे सतीसर की ओर चल पड़े | कहा जाता है कि उनका अनुगमन अन्य देवताओं और असुरों ने भी किया | सभी अपने-अपने वाहनों पर सवार होकर चल दिए | सुर और असुर दोनों की सेनाएं भी सतीसर पहुँच गई | सेनाओं के गगनभेदी स्वर ने जलदभू दैत्य को सतर्क कर दिया | वह जल में छिप गया | जल में उसे अमरत्व प्राप्त था | उसे जल से बाहर निकालना आवश्यक हो गया | तब ब्रह्मा, विष्णु और शिव हरिपुर के निकट नौबंधन के निकट पहुंच कर कौंसर-नाग के तीन शिखरों के बीच वाले शिखर पर शिव, दक्षिण में विष्णु व उत्तर शिखर पर ब्रह्मा ने अपना-अपना स्थान ग्रहण किया | जलदभू चूंकि जल में सुरक्षित था, अत: टस-से-मस नहीं हुआ | तब युक्ति से कम लिया गया | सतीसर के पानी को बाहर निकालने की बात सोची गई | नीलमत पुराण के अनुसार भगवान विष्णु ने बलभद्र की सहायता से हल के प्रहार द्वारा बारहमूला के निकट(आधुनिक बारामूला) पहाड़ को तोड़ दिया| पानी वेग से निकलने लगा | तब जलदभू ने माया का खेल रच कर अंधकार का सृजन किया | घोर अंधकार से नौबंधन डूब गया | शिव ने सूर्य और चन्द्र को अपने हाथों में लिया | अंधकार दूर हो गया | तब विष्णु और जलदभू दैत्य का युद्ध हुआ | दैत्य खूब पराक्रम के साथ लड़ा | पानी के निकल जाने के कारण वह कीचड़ में धंसा रहा | भीषण युद्ध के पश्चात भगवन ने चक्र द्वारा जलोदभव का सिर धड से अलग कर दिया |

दैत्य के मारे जाने व जल के निकल जाने से सतीसर सुन्दर घाटी (स्वर्ग) में बदल गया | देवता स्वर्ग के समान सुन्दर इस रमणीक प्रदेश को देख आनंदित हुए और प्रत्येक ने अपनी-अपनी रुचि के अनुसार यहां रमण किया व देवियों ने विभिन्न नदियों का रूप धारण किया | तब कश्यप ने, जिनके प्रयासों से इस भू-भाग का उद्धार हुआ, विष्णु से कहा, ‘अब यह प्रदेश मानव जाति के रहने योग्य हो गया है, आप आशीर्वाद दे तो यहां मनुष्यों को बसाने की व्यवस्था की जाए | नाग जाति के लोगों ने मनुष्यों के साथ रहना स्वीकार नहीं किया जिस पर कश्यप ऋषि ने रुष्ट होकर शाप दे दिया: “ अब तुम पिशाचों के साथ रहोगे |”

शनै: शनै: आसपास के मैदानी क्षेत्रों से अनेक लोग कश्मीर आने लगे | कृषि द्वारा वे अपना भरण-पोषण करते, खेती करते, फसल उगाते और उपज को अपने साथ ले जाकर सर्दियों में छह महीनों के लिए वापस मैदानी इलाकों में चले जाते | घाटी में सर्दियों में इन छह महीनों के लिए पिशाच लोग आकर रहने लगते | वर्षों तक यही क्रम चलता रहा |

एक बार जब अपनी-अपनी उपज लेकर कश्मीरवासी सर्दियों के आने पर मैदानी क्षेत्रों की ओर प्रस्थान करने लगे तो उनका एक साथी चंद्रदेव जो संभवतः बुढ़ापे के कारण अशक्त और जीवन से उदासीन हो चुका था, पीछे रह गया | उधर पिशाचराज निकुंभ अपने दलबल सहित कश्मीर आया | चंद्रदेव को देख पिशाच उसे यातनाएं देने लगे | बड़ी कठिनाई से पिशाचों से जन बचा कर उसने नागों के राजा नीलनाग के यहां शरण ली | उस समय नीलनाग का आवास सतीसर के निकट वह स्थान था, जहां पर भगवन ने हल के प्रहार से सतीसर का सारा पानी बाहर निकाल दिया था | चंद्रदेव ने देखा कि नीलनाग सिंहासन पर विराजमान हैं और सैकड़ों नाग-नागिनें उनकी सेवा में दत्तचित्त हैं | चंद्रदेव नीलनाग के पैरों में गिरा और उसकी प्रशंसा में एक-दो श्लोक रचे | नीनाग प्रसन्न हुआ और उसे कोई भी वार मांगने को कहा | चंद्रदेव इसी अवसर की तलाश में था | उसने कश्मीर वासियों की कठिनाइयों का करुण वर्णन किया-कैसे छह मास के लिए उन्हें विवशतापूर्वक कश्मीर छोड़ना पड़ता है, कैसे सर्दियों के छह मास के दौरान पिशाच उनके घरों, खेतों , वृक्षों आदि को तहस-नहस कर डालते हैं आदि-आदि | कश्मीरियों को पूरे एक वर्ष के लिए घाटी में रहने की अनुमति प्रदान की जाए |

नीलनाग ने चंद्रदेव की बात मान ली और कश्मीर में स्थाई रूप से रहने की स्वीकृति प्रदान की | साथ में इस बात का स्मरण भी कराया कि कश्मीर वासियों को यहां रहने के लिए निर्धारित रीति-रिवाजों, कृत्यों, अनुष्ठानों का पालन करना होगा | आने वाले छह महीनों तक चंद्रदेव नीलनाग के साथ रहा | चैत्र मास में लोग मैदानी क्षेत्रों से कश्मीर आने लगे | कुछ दिनों में उनका राजा वीरयोधन भी आ गया | चंद्रदेव को जीवितावस्था में पाकर उन सब के आश्चर्य की सीमा न रही | उन्हें पक्का विश्वास था कि सर्दियों में पिशाचों ने चंद्रदेव की बोटी-बोटी नोच ली होगी | तब चंद्रदेव ने उनकों सारी कहानी विस्तार से समझाई और यह भी बताया कि घाटी में स्थायी रूप से रहने के लिए उन्हें नीलनाग द्वारा निर्दिष्ट कतिपय धार्मिक कृत्यों का अनुपालन करना होगा | यह सुनकर सभी लोग हर्षित हो उठे |



उन्होंने स्थाई रूप से अपने घर, मंदिर, गांव आदि बनाए | नीलनाग द्वारा बताए गए विधान की पलना का उन्होंने प्रण किया | यक्षों, नागों व अन्य देवी शक्तियों की संतुष्टि के लिए वे विभिन्न पर्व और त्यौहार मानने लगे | ‘गाड बत्त’, ‘खेचरी-मावस’ आदि कृत्य इसी विधान के सूचक हैं और आज तक कश्मीरियों द्वारा मनाए जाते हैं | इस तरह सतीसर कश्मीर कहलाया और कश्मीर में मानव संस्कृति का विकास हुआ |चूंकि यह सत्कार्य कश्यप की कृपा से संपन्न हुआ था इसलिए ‘कशिपसर’,‘कश्यपुर,’‘कश्यपमर’आदि नामों से यह घाटी प्रसिद्ध हो गई। एक अन्य मत के अनुसार कश्मीर ‘क’ व ‘समीर’ के योग से बना है।‘क’ का अर्थ है जल और ‘समीर’ का अर्थ है हवा।
जलवायु की श्रेष्ठता के कारण यह घाटी ‘कसमीर’ कहलायी और बाद में ‘कसमीर’ से कश्मीर शब्द बन गया।एक अन्य विद्वान के अनुसार कश्मीर ‘कस’ और ‘मीर’ शब्दों के योग से बना है।‘कस’ का अर्थ है स्रोत तथा ‘मीर’ का अर्थ है पर्वत।चूंकि यह घाटी चारों ओर से पर्वतों से घिरी हुई है तथा यहां स्रोतों की अधिकता है, इसलिए इसका नाम कश्मीर पड़ गया।कुछ विद्वान् ‘कश्मीर’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘काशगर’ तथा ‘कश’ आदि से मानते हैं । उक्त सभी मतों में से कश्यप ऋषि से सम्बन्धित मत अधिक समीचीन एवं व्यावहारिक लगता है।

Tuesday, September 19, 2017



मृणाल पांडे का हालिया ट्वीट मीडिया और अन्यत्र चर्चा का विषय बना हुआ है।मेरी एक पुस्तक "कश्मीरी कवयित्रियाँ और उनका रचना संसार' की मृणालजी ने बड़ी सुंदर प्रस्तावना लिखी है।बहुत पहले 'वामा' के कार्यालय में इनसे दो-एक बार मिला भी हूँ।सौम्य, शालीन और विदूषी!!इनका मैं सम्मान करता आ रहा हूँ।मगर यह क्या कि जब आप सत्ता से लाभ का पद भोग रही थीं, तब सब ठीक था।नई सरकार के आते ही और पद से च्युत होते ही आप शालीनता को ताक पर रखकर खुन्नस निकालने पर उतर आयीं।पूर्व में भी इनके लेखों की ‘टोन’ सत्ता से उऋण होने की ज़्यादा रही है।सत्ता के नए दौर में भी इनको अपने पद पर बरकरार रखा जाता तब शायद ऐसी भाषा का प्रयोग न करतीं।दरअसल,जिनकी सुख-सुविधाएं छिन गईं हैं, वे गरिया ज़्यादा रहे हैं।मग़र वे नहीं समझते कि काल की गति बड़ी न्यारी होती है।समय सब का और समय के अधीन सब।जन्म-दिन जैसे महत्वपूर्ण और शुभ अवसर पर बधाई देने के बदले:चिरायु और उत्तम स्वास्थ्य की कामना करने के बदले, आप किसी को वैशाख- नंदन/गधा कह दें,तो उस व्यक्ति को और उसके चाहने वालों को कैसा लगेगा? इस मानसिकता को देश के एक नागरिक की धृष्टता की पराकाष्ठा नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे?असहमति प्रकट करने के और भी कई तरीके अथवा अवसर हो सकते थे।अभिव्यक्ति की आज़ादी का मतलब यह नहीं कि आप कुछ भी कह दें।घोर विरोधी पत्रकारों ने भी इस अशोभनीय ट्वीट की निंदा की है।

वैसे,मृणालजी ने जैसा ट्वीट किया है क्या अपने समय में पद पर रहते हुए वैसा ट्वीट वे अपने समय के पीएम,सीएम, आरजी,सीपी,आईएम इत्यादि पर लिखने का दुःसाहस कर सकती थीं?सौ बात की एक बात! सत्ता-सुख जिनका छिना है वे सभी हवा में तलवारें चला रहे हैं।

शिबन कृष्ण रैणा

अलवर 





Saturday, September 2, 2017




कश्मीर के योगीश्वर:स्वामी नन्दबब

डा०शिबन कृष्ण रैणा

कश्मीर, जिसे देवभूमि भी कहा जाता है, प्राचीनकाल से विद्या-बुद्धि, धर्म-दर्शन तथा साहित्य-संस्कृति का प्रधान केन्द्र रहा है। इस भूखण्ड को 'ऋश्य-व'आर' भी कहते है क्योंकि यहां की अद्भुत एवं समृद्ध दार्शनिक परंपरा के दर्शन हमें इस भू-भाग में आविर्भूत अनेक साधु-संतों,सूफियों,मस्त-मलंगों,तपीश्वरों,जोगियों वीतरागियों सिद्ध पुरुषों आदि के रूप में हो जातें है। कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसे ही स्वनामधन्य महापुरुषों की श्रेण्य-परंपरा में स्वामी नन्द बब का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। कुछ वर्ष पूर्व माता वैष्णो देवी के दर्शन कर लौटती बार जम्मू में कुछ घंटे रुकने का सुयोग बना। जहां मैं रुका वही आसपास नन्द बब का स्मारक/मन्दिर है,यह जानकर मेरी इच्छा इस मन्दिर को देखने की हुई।'लाले दा बाग' में (अखनूर रोड पर स्थित) इस सुन्दर मन्दिर को देख मन-प्राण पुलकित हुए। संयोग से उसी दिन नन्द बब की स्मृति में एक हवन आयोज्य था। अत: उस दिन भक्त जनों की अच्छी-खासी भीड़ भी जुड़ी हुई थी। कश्मीरी परंपरानुसार मोगल चाय, कुलचे प्रसाद आदि को मैं और मेरे परिवार के सदस्यों ने सादर ग्रहण किया। मन्दिर में जब नन्द बब की मूर्ति के मै ने दर्शन किए तो मेरी आंखें उन्हें एकटक निहारती रही----- मेरी स्मृति काल की परतों को चीरती हुई लगभग ६० वर्ष पीछे चली गई।----देखते ही देखते नन्द बब की छवि मेरी आंखें के सामने तिरने लगी। पुरुषयार हब्बाकदल श्रीनगर-कश्मीर में स्थित हमारे घर पर नन्द बब यदा-कदा आया करते थे। पूरे मुहल्ले में हमारे घर का आंगन तनिक बड़ा था जिस में प्रवेश करते ही नन्द बब इधर से उधर तथा उधर से इधर चक्कर काटने लग जाते । देखते-ही-देखते मुहल्ले भर के लोग हमारे आंगन में एकत्र हो जाते जिन में बच्चों की संख्या अधिक होती। कुछ उन्हें श्रद्धा की दृष्टि से,कुछ कुतूहल की दृष्टि से तथा कुछ विस्मय की दृष्टि से देखने लग जाते। भौहें उनकी तनी हुई होतीं। कभी आकाश की ओर दृष्टि घुमाते तो कभी सामने वाले की ओर। कागज की पुर्जी पर कुछ लिखकर वे बुदबुदाते जिसे समझ पाना कठिन होता। मेरे दादा जी उनकी खुदा-दोस्ती से शायद वाकिफ थे इस लिए उन्हें पर्याप्त आदर देते। नन्द बब भी दादाजी के प्रति सम्मान का भाव रखते। दोनों के बीच मौन-संभाषण होता और इस प्रकिया में नन्द बब दाएं-बाएं इधर-उधर तथा उपर-नीचे देखकर दादाजी को कागज की एक पुर्जी थमाकर निकल जाते। सभी कहते कि नन्द बाबा का दर्शन देना किसी महत्वपूर्ण धटना का सूचक है।

नन्द बब जिसे कश्मीरी जनता नन्दमोत यानी नन्द मस्ताना या नन्द मलंग के नाम से अधिक जानती है,का पहनावा एकदम विचित्र था। ऐसा पहनावा जो ज़्यादातर जोगी फकीर,मस्त-मौला किस्म के लोग पहनते है।कद-काठी लम्बी, गठीला शरीर, दमकता चेहरा, गले में दाएं-बाएं जनेऊ,सिर पर हैट, कोट-पेंट,कमरबन्द,माथे पर लम्बा तिलक हाथ में छड़ी, कमरवन्द के साथ वगल में लटकती एक छुरी व टीन का वना डिब्बा/(नोर)।चाल मस्तानी-फुर्तीली। भाषा-बोली अनबूझी,आंखें कभी स्थिर तो कभी अस्थिर।रूहानियत के उस कलन्दर के लिए सभी बराबर थे। जाति-भेद की संकीर्णताओं से मुक्त उस पूतात्मा के लिए हिन्दू-मुस्लमान सभी समान थे। उसके लिए सभी प्रभु की संतानें थी। न कोई ऊंचा और न कोई नीचा।कहते हैं एक झोली उनके कंधे पर सदैव लटकती रहती जिसमें श्रीमद्भगवद् गीता, गुरु ग्रंथ साहब, बाइबिल, कुरान शरीफ आदि पवित्र ग्रन्थ रहते। हर जाति के लोगों से वे प्यार करते तथा हर धर्म के लोग उनसे मुहब्बत करते। वे भक्तों के और भक्त उनके।

उपलब्ध सूचनाओं के अनुसार नन्द बब का जन्म पौष कृष्ण पक्ष दशमी संवत् 1953 मंगलवार तदनुसार एक अप्रेल 1897,शनिवार को हुआ था।उनको पिता का नाम शंकर साहिब तथा माता का नाम यम्बरज़ल था । दस अक्टूबर १९७३ को नंदबब दिल्ली के एक अस्पताल में ब्रह्मलीन हुए । पुष्करनाथ बठ द्वारा रचित 'नन्द ज्योति' नामक पुस्तक में नन्द बब की अन्तिम यात्रा का बड़ा ही मार्मिक वर्णन मिलता है: 'उनका पार्थिव शरीर हवाई जहाज के जरिए उनके भक्त जनों ने श्रीनगर लाया। यहां चोटा-बाजार के शिवालय मन्दिर में उनके शव को बड़े आदर से लोगों ने आखिरी दर्शन के लिए रखा। सारे शहर तथा गांव में समाचार फैल गया। हिन्दू-मुस्लमान अपनी छातियां पीटते हाथों में फूल/आखिरी नजराना लेकर बबजी के दर्शन करके इधर-उधर खड़े होकर रोते-विलखते थे।पूरा शहर लोगों से उमड़ पड़ा। बबजी का आखिरी श्राद्ध तथा क्रिया-कर्म इसी मन्दिर में हुआ। इसके बाद एक मिलिट्री गाड़ी, जिसे फूलों से सजाया गया था, में नन्द बब के शव को रखा गया। यहां से शव-यात्रा शुरू हुई जिसमें हजारों लोग (हिन्दू-मुस्लमान) शामिल हुए।श्मशान घाट पहुंचकर जब इनके शव को चिता पर रखा गया और मुखाग्नि दी गई तो उपस्थित जन समुदाय जोर-जोर से रोने लगा।रोती आवाजें चारो ओर से गूंजने लगी.’स्वामी नन्द बब की जय’, ‘स्वामी नन्द वव की जय’. ,’नन्द बब अमर हैं’, ‘नन्द बब अमर है.!’

नन्द बब की दिव्यता उनकी रूहानियत उनकी सिद्ध-शक्ति उनकी करामातों आदि का विवरण सर्वविदित है। वे असहायों के सहायक, दीन-दुखियों के दु:ख-भंजक,अनाथों के नाथ तथा मानव-वन्धुता के उपासक थे। कहते है कि उनकी भविष्य-वाणियां अटल एवं अचूक होती थीं।जो भी उनके पास सच्चे मन से फरियाद लेकर जाता था, नन्द बब उसकी मुराद पूरी कर देते थे। ऐसी अनेक घटनाएं कथाएं करामातें आदि इस मस्त-मौला के जीवनचरित के साथ जुड़ी हुई है जिन सब का वर्णन करना यहां पर संभव नहीं है। केवल दो का उल्लेख कर नन्द बब की महानता का अन्दाज लगाया जा सकता है।एक दिन एक नौजवान बब के पास साइकिल पर आया। बब की नजरें ज्यों ही इस नौजवान पर पड़ी उस ने इस को कमरे में बंद कर दिया और बाहर से ताला लगा दिया और बबजी कही चले गए। बब के जाने के वाद नौजवान ने घर वालों से खूव मिन्नत की कि उसे छुड़ाया जाए और आखिर काफी अनुनय-विनय के बाद घर वालों का हृदय पसीजा और उन्होंने उस नौजवान को छोड़ दिया। उधर कुछ देर बाद ही नन्द बब लौट आए और नौजवान को कमरे में न देखकर चिंतित हो उठे। उनके मुंह से अचानक निकल पड़ा: 'विचोर मूद गव जान मरग!'अर्थात् वेचारा मारा गया,भरी जवानी में मारा गया! ये शब्द वे बार-बार दोहराने लगे । तभी बाहर से आकर किसी शख्स ने यह समाचार बब जी को दिया कि जो नौजवान उनके यहां से कुछ देर पहले निकला था, उसका ‘मगरमल बाग’ के निकट सेना की एक द्रक के साथ एक्सीडेण्ट हो गया और घटना-स्थल पर ही उस नौजवान की मौत हो गई। समाचार सुनकर सारे घर में सन्नाटा छा गया। ‘काश! नौजवान ने मेरी वात मानी होती और वह बाहर न गया होता’-बब जी मन में साचे रहे थे।

एक दूसरी घटना इस प्रकार से है। एक व्यक्ति स्वामी जी के पास आशीर्वाद के लिए आया। उसकी पत्नी एक असाध्य रोग से पीडित थी। शायद कैसर था उसे। सारे डाक्टरों ने उसे जवाब दे दिया था। अब आखिरी सहारा नन्द बब का था। बब के सामने उस व्यक्ति ने अपनी व्यथा-कथा अश्रुपूरित नेत्रों से कही जिसे सुनकर स्वामीजी का हृदय पसीजा और उन्होंने उस व्यक्ति की मुसीबत को दूर करने का मन बनाया। स्वामीजी ने कागज के टुकड़े पर कुछ लिखा और कहा कि वह जाकर कश्मीर के ही एक अन्य (परम संत) भगवान् गोपीनाथजी से तुरन्त मिले। स्वामी नन्द बब भगवान गोपी नाथ जी को वहुत मानते थे।वह व्यक्ति भगवान गोपी नाथ जी के पास गया जो उस वक्त साधना में लीन थे। थोड़ी दर वाद जव उस व्यक्ति ने नन्द बब द्वारा दिये गए उस कागज़ को गोपीनाथ जी महाराज को दिखाया तो वे झट बोले कि यह काम तो वे खुद भी कर सकते थे,तुम्हें यहां किस लिए भेजा?उस व्यक्ति की चिन्ता वढ़ गई।भगवान गोपी नाथ जी उस व्यक्ति से कुछ नहीं बोले अपितु दमादम हुक्का पीते रहे। वह व्यक्ति भी वही पर जमा रहा। थोड़ी देर वाद भगवान गोपी नाथ उठ खड़े हुए और अपने फिरन/चोले की जेब में से थोड़ी-सी राख को निकालकर कागज में लपटेकर उस व्यक्ति से कहा कि इसे वह अपनी पत्नी को खिला दे,ईश्वर ने चाहा तो सब ठीक हो जाएगा।प्रभु की लीला देखिए कि उस राख रूपी प्रसाद को ग्रहण कर कुछ ही दिनों में उस व्यक्ति की पत्नी स्वस्थ हो गई। उस व्यक्ति की पत्नी का इलाज कश्मीर के सुप्रसिद्ध डाक्टर अली मुहम्मद जान कर रहे थे। जब उन्होंने देखा कि उनका रोगी जो एक असाध्य और भयंकर रोग से जूझ रहा था, एक मस्त-मौला फकीर की करामात से ठीक हुआ तो डाक्टर साहव के मन में भी स्वामी नन्द बब एवं भगवान गोपी नाथ जी से मिलने की इच्छा जागृत हुई। खुदा-दोस्त फकीरों की करामातों को देख डाक्टर साहव मन ही मन खूब चकित हुए और उनकी प्रशंसा करने लगे।

नन्द बब का स्मारक अपनी पूरी दिव्यता के साथ ‘लाले का बाग़’ मुठी (जम्मू) में अवस्थित है तथा कश्मीरी समाज की समूची सारूंकृतिक धरोहर का साक्षी वनकर उसकी अतीतकालीन आध्यात्मिक समृद्धि की पताका को बड़े ठाठ से फहरा रहा है। यहां पर स्व० स्वामी श्री चमनलाल जी वामजई का नामोल्लेख करना अनुचित न होगा जिनकी सतत प्रेरणा एवं सहयेग से उक्त स्मारक की स्थापना संभव हो सकी है। आज उन्हीं की बदौलत मंदिरों वाले इस जम्मू शहर में एक और 'मन्दिर' अपनी पूरी भव्यता,गरिमा तथा शुचिता के साथ कश्मीर मण्डल की रूहानियत को साकार कर रहा है। सच में, नन्द बब जैसे खुदा-दोस्तों का आविर्भाव मानव-जाति के लिए वरदान-स्वरूप होता है और शारदापीठ कश्मीर को इस बात का गर्व प्राप्त है कि उसकी धरती पर नन्द बब जैसे योगीश्वर अवतरित हुए हैं।

२/५३७

अरावली विहार,

अलवर,(राजस्थान) ३०१००१

Saturday, July 15, 2017


GOLDEN JUBILEE: FAR FROM THE MADDING CROWD

I had never imagined that our Fiftieth (Golden Jubilee) wedding anniversary will be celebrated in Ajman(UAE) though there were options: either in India(Bengaluru) where my elder daughter Anjali lives, In Male(Maldives) where my younger daughter Aparna lives or in Ajman where my son Ashish lives. Children had to take the decision and finally choice fell upon Ajman. Both my wife and I were slightly hesitant to propose anything from our side till the afternoon of date 14th June,2017 approached and both of us were overjoyed to see the celebration going off so well and so immaculately planned. It was only after the celebration was over, we came to know that all the three(children) were in constant touch with each other for the last two months planning things and seeking each other’s advice and guidance. Our well-wishers and friends were contacted both in India and abroad and their Video and Text-messages procured. The room where the jubilee-celebration was to be solemnized was decorated beautifully with a big cake and other eatables lying on the center table. Arrangements to live-telecast the occasion on YouTube were made by grandson Aryaman along with his younger brother Ayaan. Son Ashish and his wife Roma were too busy in giving the final shape to the function: arranging the gifts, receiving the guests, adjusting the music system, decorating the walls etc. etc. While the party was on in the back ground of light Indian music, cameras and lights blinkering and atmosphere of gaiety all around, I started thinking in my mind: we the couple celebrating our 50th wedding anniversary certainly deserve to celebrate. We have managed to survive a half century of life's ups and downs together. Not many people make it through the first five years, let alone ten times that number. We have left a legacy that can't be measured in terms of material possessions. We have given our kids the best of ourselves and made them aware enough to realize their duty towards their Mom and Dad.

Spending half a century in love, togetherness, commitment and strength with one person is a wonderful experience and an unmatched gift of married life. No other gift can match this rare and invaluable gift.

https://youtu.be/6i5HGgeyNTEhttps://youtu.be/6i5HGgeyNTE

Dr.Shiben Krishen Raina
Writer,Translator and Professor,
Currently in Ajman(UAE)

DR.S.K.RAINA

(डॉ० शिबन कृष्ण रैणा)
Member,Hindi Salahkar Samiti,Ministry of Law & Justice
(Govt. of India)
SENIOR FELLOW,MINISTRY OF CULTURE
(GOVT.OF INDIA)
2/537 Aravali Vihar(Alwar)
Rajasthan 301001
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Saturday, July 8, 2017

Advantages of Mobiles


Broadly speaking, each and every technology has its own merits and demerits and use of mobile phone is no exception. When you take its positive role into consideration, more especially its impact on students, the use of a mobile phone has far-reaching benefits and advantages. Fact of the matter is that mobile phones came into existence for emergency purposes. If students have a mobile phone, then it’s easy for them to contact anyone when the need arises. For instance, if a student has some problem in school, or in the street after school, he/she can contact their parents immediately. Likewise, a student with a phone can contact police at any harmful and challenging situation, or contact fire brigade if they find fire somewhere, or even they can call any useful department stores or buying-shops as per needs. So, the mobile phone is one of the best solutions for any emergency situations. That is one of the most constructive uses of mobile phone.

Now take the question of mobiles as knowledge benefactors. Our parents and grandparents had no mobiles. They studied and got knowledge only from their teachers, prescribed course books etc. Things have changed now. Internet helps us much more than olden days. Previously, the library would help the students to gain some extra knowledge and now the whole library is in the students’ pocket in the form of a mobile phone which serves more or less as a great knowledge treasure/reservoir. You can search anything by the stroke of your fingers and get the great explanations and answers with the help of this cute device ie mobile phone. Here also students are advised to surf more good stuff on their phones rather than waste their precious time on depraved and unreadable stuff. Needless to mention here, through mobile phones one can search lots of good stuff, but at the same time he can search lots of bad stuff as well. Survey says that nowadays almost all the students are addicted to porn videos and some other porn activity websites. That’s really bad. That is why we see lots of student addicted to consuming of cigarettes and drugs etc. and thus becoming a focus of bad habits and eventually a threat to society. What our these none-too-matured students see on these harmful sites, they try to imitate in their real life. This is one of the major flaws for the rise of this mobile technology. Parents need to constantly check and keep on close vigil on their children who use their mobiles either during night hours or when their parents are away to work. Pass wording and asking the children to use and surf the mobile phone in their presence will definitely solve the problem. 

For elders, also the excessive use of mobile phone may not be fruitful and desirable in the sense that it, in the long run, it makes the user mobile-dependent. Survey says that modern mobile-user is all the time terribly addicted to watching of Face Book, Mails, You Tube, Instagram, Twitter. Whats App and other social networking sites. This diminishes the ability of actual human communication and sociability resulting in a void in our modern-day society. Thus, the excessive use of mobile phones not only hamper the routine study of students and elders both but add to their distraction for other worthy social pursuits. Needless to mention here, it is more or less also a major cause of eye-disease spreading there days all over.

In short, excess of everything is bad. So use of mobile phone, too, should be limited to the extent it suits our time, suffices our immediate needs and makes us intelligent and aware enough about the work we are interested in.





Wednesday, June 28, 2017



जुनैद की हत्या को लेकर कविताबाज़ों ने कविताएं लिखना शुरू कर दिया: असहिष्णुता बढ़ गयी है,देश बदनाम हो रहा है,क्योंकि तू जुनैद था,हम शर्मिंदा हैं,वायदा झूठा निकला, जुनैद को मारो आदि-आदि।हत्या किसी की भी हो या कोई भी करे,एक जघन्य अपराध है।कानून को तुरंत इस बारे में कार्रवाई करनी चाहिए।रही बात ऐसे अवसरों पर लेखकों/कवियों की नैतिक ज़िम्मेदारी की।उसके लिए निवेदन है कि अगर एक समुदाय विशेष के लिए ही हमारा कवि आंसू बहाने लग जाय और दूसरे समुदाय के लिये चुप्पी साध ले, तो यह कवि का दोगलापन ही कहलायेगा।मैं बात कर रहा हूँ कश्मीर की बेटी सरला भट की।एक कविता कश्मीर की इस लाडली बेटी पर भी लिखी जानी चाहिए।वही सरला भट जिसके साथ हैवानों ने वह किया जिसको बयान नहीं किया जा सकता।गूगल में सब दर्ज है । कवि लोग सरला के साथ हुए पिशाचपन को पढ़ें और मेरी बात का समर्थन करें।इस हैवानियत और दरिंगी को उजागर करने वाली एक ‘जुनैद-टाइप’ सशक्त कविता लिखें ताकि मैं कविता लिखने वालों की कलम को सलाम कर सकूँ ।कविता का शीर्षक रखें "क्योंकि वह सरला थी"।
हालांकि ऐसा करने से सरला भट वापस नहीं आ सकती, मगर इतना भरोसा कश्मीरी पण्डित समुदाय को अवश्य हो सकता है कि उसके सुख-दुःख में भी आंसू बहाने वाले,कविताएं लिखने वाले आदि इस धर्म-निरपेक्ष देश में मौजूद हैं।

शिबन कृष्ण रैणा



अलवर


Dr.ShibenKrishen Raina




With the growing concept of globalization, the urge for exchange of knowledge in the fields of science, technology, history, culture, literature and other allied fields, has become a compelling factor to prompt knowledge-seekers to explore and be aware of human knowledge around them. Language barriers have been cracked! Thanks to the art of Translation. It is through translation we know about all the developments in communication and technology and keep abreast of the latest discoveries in the various fields of knowledge, and also have access through translation to the literature of several languages and to the different events happening around the world. Therefore, good translators need to be patronized since they are the real cultural ambassadors of their respective languages representing the best of their languages.

Dr.ShibenKrishen Raina is a well-known educationist, teacher, writer and a translator. He is more known as a distinguished translator having a long experience in the field of translating from Kashmiri, Urdu and English into Hindi. His contribution to the Art of Translation is immense. Besides other translated works to his credit,his translated work comprising of translation and transliteration of famous Kashmiri Ramayana “RamavtarCharit” is a valuable contribution to the field of Hindi literature. This monumental and pioneering work,aptly foreworded by Dr.Karan Singh Ji and published from Bhuvan Vani Trust, Lucknow, has earned Dr.Raina a cash-award and Tamra-Patra from the Bihar Rajya Bhasha Vibhag, Govt.of Bihar in 1975. Dr.Raina was Fellow at the Indian Institute of Advanced Study, Rashtrapati Nivas, Shimla during 1999-2001,where he worked on the Problems of Translation. The work has already been published by IIAS, Shimla. 

Winner of several academic awards and distinctions, Dr.Raina has around one hundred papers and fourteen books to his credit. His books have been published by publishers like: Bhartiya Jnanpith, Rajpal & Sons, Hindi Book Centre, Sahitya Academi,Dehi , J&K Cultural Academy etc. He is associated with a number of literary and cultural bodies of the country.Happily for him, some of his books were released by India’s former President Dr. Shankar Dayal Sharma, former Prime Minister Mrs. Indira Gandhi and former Governor of Rajasthan Mr.Bali Ram Bhagat etc.

In 1996-97 Dr.Raina was the recipient of first translation award instituted by Rajasthan Sahitya Academy,Udaipur while in 1972 the Government of India’s Central Hindi Directorate awarded him prize and certificate of merit in recognition of his services to Hindi language and literature as a non-Hindi speaking writer.This apart, he has also been honoured with ‘Sahitya Shree’, ‘Sahitya Vageesh’ and ‘Sahitya Gaurav’ by various literary organizations of the country. In 1990, he received ‘TamraPatra’ and cash award from Uttar Pradesh Hindi Sansthan for his valuable services to Hindi literature.

Dr.Raina obtained first class first M.A(Hindi) degree from Kashmir University in the year 1962 followed by a PhD degree on UGC Fellowship from Kuruskshetra Univeristy.He was selected as lecturer in Hindi by Rajasthan Public Service Commission,Ajmer in the year 1966 and eventually rose to the positions of Head of Hindi Department,Vice Principal/Principal etc. Dr.Raina holds a post-graduate degree in English Language and Literature,too,from Rajasthan University.

Currently Dr.Raina is a Senior Fellow(Hindi) with Ministry of Culture,Govt. of India. Recently,he was nominated as a non-official Member of Hindi Salahkar Samiti of Ministry of Law and Justice (Govt. of India) for a term of three years.

Dr.Shiben Krishen Raina’s translated works go a long way in strengthening the cultural and emotional bonds of our country. His beautiful translations of Kashmiri fiction,poetry and prose have been widely appreciated and earned him a big name in the translation world. Its through his translated works that the readers more especially the Hindi readers have come to know about the niceties of Kashmiri literature.May it be the Kashmiri poetess Lal Ded, mystic poet Nund Rishi, Habba Khatoon, Mahjoor, Dina Nath Nadim, Akhtar Mohi-ud-Din, Amin Kamil, Rahman Rahi,Bansi Nirdosh or many other luminaries of Kashmiri literature, Dr. Raina has very dedicatedly and immaculately translated the best of these litterateurs into Hindi and thus proved himself to be a bridge between the two langauges.

Translators have rightly been called as Cultural Ambassadors and Dr. Raina, rightly so has earned this eminence for himself. Moreover, a new expression has been coined for Dr.Shiben Krishen Raina for his excellent and outstanding contribution to Kashmiri-Hindi as a translator by his admirers to describe him as a ‘high-voltage literary transformer’.

Dr.S.K.Raina’s published works include ‘Kashmiri Bhasha Aur Sahitya’, ‘Kashmir ki Shresth Kahaniyan’, ‘Pratinidhi Sankalan:Kashmiri’, ‘Kashmiri Ramayan:RamavtarCharit’, ‘Lal-Ded’, ‘Habba-Khatoon’, Mahjoor’, ‘Kashmiri Kavitriyan aur Unka Rachna Sansaar’, ‘Paidayishi Ghulam’(Collection of Bansi Nirdosh’s short stories) etc.

Apart from his literary pursuits, Dr.Shiben Krishen Raina has been a good swimmer, a decent player of chess and badminton.During his college days when he was merely fifteen,he had the proud privilege of crossing the Dal-Lake of Kashmir and earned a citation in the college magazine. He was Secretary, District Chess Association,Alwar during early Eighties.

2/537(HIG)

AravaliVihar,Rajasthan Housing Board,

Alwar 301001(Rajasthan)


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Thursday, June 22, 2017



अम्माजी


सूद साहब अपने फ्लैट में परिवार सहित रहते हैं। पति-पत्नी, दो लड़कियाँ और एक बूढ़ी माँ। माँ की उम्र अस्सी से ऊपर है। काया काफी दुबली हो चुकी है। कमर भी झुक गई है। वक्त के निशान चेहरे पर साफ तौर पर दिखते हैं। सूद साहब की पत्नी किसी सरकारी स्कूल में अध्यापिक हैं। दो बेटियों में से एक कॉलेज में पढ़ती है और दूसरी किसी कम्पनी में सर्विस करती है। माँ को सभी ‘‘अम्माजी’’ कहते हैं। मैं भी इसी नाम से उसे जान गया हूँ।

जब मैं पहली बार ‘‘डेलविला’’ बिल्डिंग में रहने को आया था, तो मेरे ठीक ऊपर वाले फ्लैट में कौन रहता है, इसकी जानकारी बहुत दिनों तक मुझे नहीं रही। सवेरे इंस्टिट्यूट निकल जाता और सायं घर लौट आता। ऊपर कौन रहता है, परिवार में उनके कौन-कौन लोग हैं? आदि जानने की मैंने कभी कोशिश नहीं की। एक दिन सायंकाल को सूद साहब ने मेरा दरवाजा खटखटाया, अन्दर प्रवेश करते हुए वे बढ़ी सहजता के साथ मेरे कन्धे पर हाथ रखते हुए बोले-

‘‘आप को इस फ्लैट में रहते हुए तीन महीने तो हो गए होंगे?’’

‘‘हाँ, बस इतना ही हुआ होगा ।’’ मैंने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया।

‘‘कमाल है! आपने हमसे मिलने की कोशिश भी नहीं की..... भई, हम आपके ऊपर रहते हैं, पड़ौसी हैं आपके.....। ’’

‘‘ वो, वोह, दरअसल, समय ही नहीं मिलता है। इंस्टिट्यूट से आते-आते ही सात बज जाते हैं...।’’

‘‘अजी, इंस्टिट्यूट अपनी जगह और मिलना-जुलना अपनी जगह.....। चलिए, आज डिनर आप हमारे साथ करें।’’, उन्होंने बढ़े ही आत्मीयतापूर्ण अंदाज में कहा। उनके इस अनुरोध को मैं टाल न सका।

खाना देर तक चलता रहा। इस बीच सूद साहब के परिवार वालों से परिचय हो गया। सूद साहब ने तो नहीं, हाँ उनकी पत्नी ने मेरे घर-परिवार के बारे में विस्तार से जानकारी ली। चूँकि मेरी पत्नी भी नौकरी करती है और इस नई जगह पर उनका मेरे साथ स्थायी तौर पर रहना संभव न था, इसलिए मैंने स्पष्टï किया-

‘‘मेरी श्रीमती जी यदाकदा ही मेरे साथ रह पाएगी और हाँ बच्चे बड़े हो गये हैं... उनकी अपनी गृहस्थी है.... फिलहाल मैं अकेला ही रहूँगा......।’’

मुझे लगा कि मेरी इस बात से सूद दंपत्तित्त् को उतनी तकलीफ नहीं हुई जितनी कि उनकी बूढ़ी माँ को...। जब तक मैं खाना खा रहा था और अपने घर-परिवार आदि की बातें कर रहा था, अम्माजी बढ़े चाव से एकटक मुझे तके जा रही थी और मेरी बातों को ध्यान से सुन रही थी....। जैसे ही उसे मालूम पड़ा कि मैं अकेला ही रहूँगा और मेरी श्रीमतीजी कभी-कभी ही मेरे साथ रहा करेंगी तो मुझे लगा कि अम्माजी के चेहरे पर उदासी छा गई है। झुर्रियों भरे अपने चेहरे पर लगे मोटे चश्मे को ठीक करते हुए वे अपनी पहाड़ी भाषा में कुछ बुदबुदायी। मैं समझ गया कि अम्माजी मेरी श्रीमती जी के बारे में कुछ पूछ रही हैं, मैंने कहा-

‘‘हाँ अम्माजी, वोह भी सरकारी नौकरी करती हैं- यहाँ बहुत दिनों तक मेरे साथ नहीं रह सकती। हाँ, कभी-कभी आ जाया करेगी।’’

मेरी बात शायद अम्माजी ने पूरी तरह से सुनी नहीं, या फिर उनकी समझ में ज्यादा कुछ आया नहीं। श्रीमती सूद ने अपनी बोली में अम्माजी को मेरी बात समझायी जिसे सुनकर मुझे लगा कि अम्माजी का चेहरा सचमुच बुझ-सा गया है। आँखों में रिक्तता-सी झलकने लगी है तथा गहन उदासी का भाव उनके अंग-अंग से टपकने लगा है। वे मुझे एकटक निहारने लगी और मैं उन्हें। सूद साहब बीच में बोल उठे-

‘‘इसको तो कोई चाहिए बात करने को... दिन में हम दोनों और बच्चे तो निकल जाते हैं - यह रह जाती है अकेली - अब आप ही बताइए कि इसके लिए घर में आसन जमाए कौन बैठे? कौन अपना काम छोड़ इससे रोज-रोज गप्पबाजी करे ? वक्त है किस के पास ?....’’

सूद साहब की बात सुनकर मैंने महसूस किया कि अम्माजी कहीं भीतर तक हिल-सी गई हैं। अपने बेटे से शायद उसे मेरे सामने इस तरह की प्रतिक्रिया की आशा नहीं थी। श्रीमती सूद अपने पति की इस प्रतिक्रिया से मन-ही-मन पुलकित हुई। जहाँ अम्माजी के चेहरे पर निराशा एवं अवसाद की रेखाएँ खिंच आईं, वहीं श्रीमती सूद के चेहरे पर प्रसन्नता मिश्रित संतोष के भाव उभर आए।

कई महीने गुजर गए। इस बीच मैं बराबर महसूस करता रहा कि अम्माजी किसी से बात करने के लिए हमेशा लालायित रहती। उन्हें मैं अक्सर अपने फ्लैट की बालकानी में बैठे हुए पाता- अकेली, बेबस। नजरों को इधर-उधर घुमाते हुए, कुछ ढूँढते हुए ! कुछ खोजते हुए!! पुरानी यादों के कोष को सीने में संजोए ! ..... किसी दिन मैं इंस्टिट्यूट से जल्दी आता तो मुझे देखकर अम्माजी प्रसन्न हो जातीं, शायद यह सोचकर कि मैं उनसे कुछ बातें करूँगा !एक आध बार तो मैंने ऐसा कुछ किया भी, मगर हर बार ऐसा करना मेरे लिए संभव न था.... दरअसल, अम्माजी से बात करने में भाषा की समस्या भी एक बहुत बड़ा कारण था।

इतवार का दिन था। मैं अपने कमरे में बैठा अखबार पढ़ रहा था। दरवाज़े पर खटखट की आवाज सुनकर मैंने दरवाजा खोला। सामने अम्माजी खड़ी थीं। छड़ी टिकाएँ वह कमरे में दाखिल हुई। साँस उसकी फूली हुई थी। कमरे में घुसते ही वह मुझसे बोली-

‘‘बेटा, तेरी बहू कब आएगी?’’

अम्माजी के मुँह से अचानक यह प्रश्न सुनकर मैं तनिक सकपकाया। सोचने लगा, मैंने इसको पहले ही तो बता दिया है कि मेरी श्रीमती जी नौकरी करती है, जब उसको छुट्ïटी मिलेगी, तभी आ सकेगी फिर यह ऐसा क्यों पूछ रही है? पानी का गिलास पकड़ते हुए मैंने कहा-

‘‘ अम्माजी, अभी तो वह नहीं आ सकेगी, हाँ अगले महीने छुट्टी लेकर पाँच-छ: दिनों के लिए वह ज़रूर आएगी। ’’

मेरी बात सुनकर अम्माजी कुछ सोच में डूब गई। शब्दों को समटते हुए अम्माजी टूटी-फूटी भाषा में बोली-

‘‘अच्छा तो चल मुझे सामने वाले मकान में ले चल। वहीं मेहरचंद की बहू से बातें करूँगी।’’

सहारा देते हुए अम्माजी को मैं सामने वाले मकान तक ले गया, रास्ते भर वह मुझे दुआएं देती रही,... जीता रह, लम्बी उम्र हो, खुश रह..... आदि आदि।

जब तक सूद साहब और उनकी श्रीमतीजी घर में होते, अम्माजी कहीं नहीं जाती। इधर, वे दोनों नौकरी पर निकल जाते, उधर अम्माजी का मन अधीर हो उठता, कभी बालकानी में, कभी नीचे, कभी पड़ौस में, कभी इधर, तो कभी उधर।

एक दिन की बात है। तबियत ढीली होने के कारण मैं इंस्टिट्यूट नहीं गया। ठीक दो बजे के आसपास अम्माजी ने मेरा दरवा$जा खटखटाया। चेहरा उनका बता रहा था कि वह बहुत परेशान है। तब मेरी श्रीमतीजी भी कुछ दिनों के लिए मेरे पास आई हुई थीं। अंदर प्रवेश करते हुए वह बोली-

‘‘बेटा, अस्पताल फोन करो- सूद साहब के बारे में पता करो कि अब वह कैसे हैं? ’’

यह तो मुझे मालूम था कि दो चार दिन से सूद साहब की तबियत ठीक नहीं चल रही थी। गर्दन में मोच-सी आ गई थी और बुखार भी था। मगर उन्हें अस्पताल ले जाया गया है, यह मुझे मालूम न था। इंस्टिट्यूट में भी किसी ने कुछ नहीं बताया। इससे पहले कि मैं कुछ कहता, अम्माजी मेरी श्रीमतीजी से रुआंसे स्वर में बोली-

‘‘बहू इनसे कहो ना फोन करे,पता करे कि सूद साहब कैसे हैं और कब तक आएँगे ?’’

श्रीमती मुझे देखने लगी और मैं उन्हें। अस्पताल में सूद साहब भर्ती हैं, मगर किस अस्पताल में हैं, किस वार्ड में हैं, और कब से भर्ती हैं ? जब तक यह न पता चले तो फोन कहाँ और किधर किया जाए? मैंने तनिक ऊँचे स्वर में अम्माजी से कहा-

‘‘अम्माजी अस्पताल का फोन नम्बर है आपके पास?’

मेरी बात शायद अम्माजी को पूरी तरह से समझ में नहीं आई। बोली-

‘‘सूद साहब अस्पताल में हैं। रात को ले गये बेटा, पता करो कैसे हैं? कब आएँगे? मैंने तो कल से कुछ भी नहीं खाया।’’

मेरे सामने एक अजीब तरह की स्थिति पैदा हो गई। न अस्पताल का नाम-पता, न फोन नम्बर, न और कोई जानकारी। मैं पता लगाऊँ तो कैसे ?

उधर अम्माजी अपने बेटे के बारे में हद से ज्य़ादा परेशान। कभी उठे, कभी बैठे, कभी रोए तो कभी कुछ बुदबुदाए। मैंने ऐसी एक-दो जगहों पर फोन मिलाएँ जहाँ से सूद साहब के बारे में जानकारी मिल सकती थी। पर मुझे सफलता नहीं मिली। विवश होकर मुझे अम्माजी से कहना पड़ा-

‘‘अम्माजी आप चिन्ता न करो। सब ठीक हो जाएगा। सूद साहब आते ही होंगे।’’ बड़ी मुश्किल से मेरी बात को स्वीकार कर अम्माजी भारी कदमों से ऊपर चली गई। जाते-जाते अम्माजी मेरी श्रीमतीजी से कहने लगी-

‘‘बहू, तुम भी मेरे साथ चलो ऊपर। मेरा मन लग जाएगा।’’

हम दोनों अम्माजी को सहारा देते हुए ऊपर चले गए। मेरी श्रीमतीजी से बात करते-करते अम्माजी टी.वी. के पास पहुँच गई और वहीं पर रखी सूद साहब की तस्वीर को ममता भरी नजरों से देखने लगी। तस्वीर पर चारों ओर हाथ फेर कर वह फिर बुदबुदायी-

‘‘फोन करो ना बेटा, सूद साहब अभी तक क्यों नहीं आए ?

बहुत समझाने के बाद भी जब अम्माजी ने फोन करने की जिद न छोड़ी तो मुझे एक युक्ति सूझी। मैंने फोन घुमाया-

‘‘हैलो! अस्पताल से, अच्छा-अच्छा ..... यह बताइए कि सूद साहब की तबियत अब कैसी है ? क्या कहा- ठीक है..... एक घंटे में आ जाएँगे। - हाँ- हाँ - ठीक है -। अच्छा, धन्यवाद ! ’’

फोन रखते ही मैंने अम्माजी से कहा- ‘‘अम्माजी, सूद साहब ठीक हैं, अब चिंता की कोई बात नहीं है।’’

मेरी बात सुन कर अम्माजी का ममता-भरा चेहरा खिल उठा। उसने मुझे खूब दुआएँ दी। सुखद संयोग कुछ ऐसा बना कि सचमुच सूद साहब और उनकी श्रीमती जी एक घंटे के भीतर ही लौट आए।

कुछ दिन गुजर जाने के बाद मैंने सूद साहब से सारी बातें कहीं। किस तरह अम्माजी उनकी तबियत को लेकर परेशान रही, कैसे अस्पताल फोन करने की बार-बार जि़द करती रही और फिर मैंने अपनी युक्ति बता दी जिसे सुनकर सूद साहब तनिक मुस्कराए और कहने लगे-

‘‘माँ की ममता के सामने संसार के सभी रिश्त-नाते सिमटकर रह जाते हैं- सौभाग्यशाली हैं वे जिन्हें माँ का प्यार लम्बे समय तक नसीब होता है।’’



सूद साहब की अंतिम पंक्ति सुनते ही मुझे मेरी माँ की याद आई और उसका ममता-भरा चेहरा देर तक आँखों के सामने घूमता रहा।

Friday, June 16, 2017

Our 50th marriage anniversary



Below is the link of our 50th marriage anniversary (Golden Jubilee) function celebrated in UAE(Ajman) on 14th June, 2017 in the company of son Ashish and his family. Thanks to all those who made this function so memorable for us. Video messages and voice calls received on this occasion from relatives, friends and other near and dear ones will always be stored in our memory and shall go a long way in inspiring us. Thanks once again.

https://youtu.be/6i5HGgeyNTE

Tuesday, June 13, 2017

हिन्दी का अखिल भारतीय स्वरूप 



मित्रों, १४ सितम्बर को यानि आज के दिन प्रति वर्ष हम लोग हिन्दी दिवस मनाते हैं, जगह-जगह गोष्ठियां होती हैं, हिन्दंी सप्ताह और पखवाडे मनाये जाते हैं आदि-आदि। अहिन्दी प्रदेशों में जिस उत्साह के साथ इस दिवस को मनाया जाता है, उसी उत्साह के साथ हिन्दी प्रदेशों में भी इस दिवस को मनाया जाता है। लगभग ५० वर्ष हो गये हमें इस प्रकार की संगोष्ठियां करते-करते तथा इस तरह की चर्चाएं करते-करते। मेरी हार्दिक कामना है कि वह दिन जल्दी आ जाए जब हमें इस तरह के कार्यक्रम व आयोजन न करने पडंें। मेरा मन सचमुच भारी जो जाता है जब मैं इस बात की कल्पना करने लगता हूुं कि जाने और कितने वर्षों तक हमें हिन्दी के लिए दिवस, सप्ताह और पखवाडे मनाने होंगे। कब तक हमें हिन्दी को उसका सम्मान और उचित स्थान दिलाने के लिए इन्तजार करना होगा, कब तक स्वाधीन भारत में विदेशी भाषा के आतंक को झेलना होगा आदि-आदि ऐसे कुछ प्रश्न जिन पर आज इस संगोठी में हमें विचार करना होगा।

दोस्तो, स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद हमारे देश के नेताओं, विचारकों और हित-चिंतकों ने एक सपना देखा था कि एक राष्ट््रगीत, एक राष्ट्र्ध्वज आदि की तरह ही इस देश की एक राष्ट््रभाषा हो ! संविधान-निर्माताओं ने हिन्दी को राष्ट््रभाषा का दर्जा भी दिया। मगर हम सभी जानते हैं कि यह सब होते हुए भी, ५०वर्ष बीत जाने के बाद भी, हिन्दी को अभी तक अखिल भारतीय भाषा, जिसे हम कभी-कभी सम्पर्क-भाषा भी कहते हैं, का दर्जा प्राप्त नहीं हुआ है और इसके लिए उसे बराबर संघर्ष करना पड रहा है। इस गतिरोध का आखिर कारण क्या है? क्या भारत की जनता को 'एक भाषा, एक राष्ट्र्` वाली बात में अब कोई दिलचस्पी नहीं रही, क्या सरकार या व्यवस्था की नज़र में राष्ट््रभाषा की अस्मिता का प्रश्न महज फाईलोंे तक सीमित रह गया है, क्या हमारे हिन्दी प्रेमियों एवं हिन्दी सेवियों को कहीं किसी उदासीनता के भाव ने घेर लिया है, आदि कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके उत्तरों की तलाश हमें इस राष्ट््रीय संगोष्ठी में करनी होगी। यह सब मैं इस लिए कह रहा हूं क्योंकि पूरे पांच दशक बीत गये हैं और हम अनकरीब ही २१वीं शताब्दी में प्रवेश करने वाले हैं, मगर हिन्दी को अभी तक राष्ट््रीय स्तर पर सम्मानजनक स्थान दिलाने में पूरी तरह से कामयाब नहीं हुए हैं।

बन्धुओं, हिन्दी के सेवा-कार्य, लेखन कार्य तथा अध्ययन-अध्यापन कार्य से मैं पिछले तीन दशकों से भी ज्यादा समय से जुडा हुआ हॅंू। मेरे जेह़न में इस समय कई बातें उभर रही हैं जो हिन्दी को अखिल भारतीय स्वरूप प्रदान करने में बाधक सिद्ध हो रही हैं। बातें कई हैं, मगर मैं यहंा पर अपनी बात मात्र एक विशेष बात तक ही सीमित रखूंगा।

देखिए, किसी भी भाषा का विस्तार या उसकी लोकप्रियता या उसका वर्चस्व तब तक नहीं बढ़ सकता जब तक कि उसे 'ज़रूरत` यानि 'आवश्यकता` से नही ंजोड़ा जाता। यह 'ज़रूरत` अपने आप उसे विस्तार देती है और लोकप्रिय बना देती है। हिन्दी को इस 'जरूरत` से जोड़ने की आवश्यकता है। मुझे यह कहना कोई अच्छा नहीं लग रहा और सचमुच कहने में तकलीफ भी हो रही है कि हिन्दी की तुलना में 'अंग्रेजी` ने अपने को इस 'ज़रूरत` से हर तरीके से जोड़ा है। जिस निष्ठा और गति से हिन्दी और गैर-हिन्दी प्रदेशों में हिन्दी प्रचार-प्रसार का कार्य हो रहा है, उससे दुगुनी रफतार से अंग्रेजी माध्यम से ज्ञान-विज्ञान के नये नये क्षितिज उदघारित हो रहे हैं जिनसे परिचित हो जाना आज हर व्यक्ति के लिए लाज़िमी हो गया है। मेरे इस कथन से यह अर्थ कदापि न निकाला जाए कि मैं अंग्रेजी की वकालत कर रहा हूं। नहीं, बिल्कुल नहीं। मैं सिर्फ यह रेखांकित करना चाहता हूं कि अंग्रेेजी ने अपने को जरूरत से जोड़ा है। अपने को मौलिक चिंतन, मौलिक अनुसंधान व सोच तथा ज्ञान-विज्ञान के अथाह भण्डार की संवाहिका बनाया है जिसकी वजह से पूरे विश्व में आज उसका वर्चस्व अथवा दबदबा है। हिन्दी अभी 'जरूरत` की भाषा नहीं बन पाई है। आज इस संगोष्ठी में हमें इसका जवाब ढूंढना होगा कि क्या कारण है अब तक उच्च अध्ययन, खासतौर पर विज्ञान और तकनालॉजी, चिकित्साशास्त्र आदि के अध्ययन के लिए हम स्तरीय पुस्तकें तैयार नहीं कर सके हैं। क्या कारण है कि सी०डी०एम० और एन०डी०ए० ;ब्वउइपदमक क्ममिदबम ैमतअपबमेद्ध प्रतियोगिताओं के लिए हिन्दी को एक विषय के रूप में सम्मिलित नहीं करा सके हैें। क्या कारण है कि ठंदा विपिबमते की परीक्षा में अंग्रेजी एक विषय है, हिन्दी नहीं है। ऐसी अनेक बातें हैं जिनका उल्लेख किया जा सकता है। यह सब क्यों हो रहा है --? अनायास हो रहा है या जानबूझकर किया जा रहा है, इन बातों पर खुलकर चर्चा होनी चाहिए।

मित्रों, मैं यह रेखांकित करना चाहता हू्रं कि मेरी बातों से कदापि यह निष्कर्ष न निकाला जाए कि हिन्दी के सुन्दर भविष्य के बारे में मुझ मंे कोई निराशा है। नहीं, ऐसी बात नहीं है। उसका भविष्य उज्ज्वल है। वह धीरे-धीरे अखिल भारतीय स्वरूप ले रही हे। मगर इसके लिए हम हिन्दी प्रेमियों को अभी बहुत काम करना है। एक जुट होकर युद्ध स्तर पर राष्ट््रभाषा हिन्दी की स्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष करना है। यहां पर मैं जोर देकर कहना चाहूंगा कि हिन्दी की स्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष करना है। यहां पर मै जोर देकर कहना चाहूंगा कि हिन्द्र प्रचार-प्रसार या उसे अखिल भारतीय स्वरूप देने का मतलब हिन्दी के विद्वानों,लेखकों,कवियों या अध्यापकों की जमात तैयार कना नहीं है। जो हिन्दी से सीधे-सीधे आजीविका या अन्य तरीकों से जुडे हुए हैं, वे तो हिन्दी के अनुयायी हैं ही। यह उनका कर्म है, उनका नैतिक कर्तव्य है कि वे हिन्दी का पक्ष लें। मैं बात कर रहा हूं ऐसे हिन्दी वातावरण को तैयार करने की जिसमें भारत देश के किसी भी भाषा-क्षेत्र का किसान, मजदूर, रेल में सफर करने वाला हर यात्री,अलग अलग काम धन्धों से जुडा आम जन हिन्दी समझे और बोलने का प्रयास करे। टूटी-फूटी हिन्दी ही बोले- मगर बोले तो सही। यहां पर मैं दूरदर्शन और सिनेमा के योगदान का उल्लेख करना चाहूंगा जिसने हिन्दी को पूरे देश में लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कुछ वर्ष पूर्व जब दूरदर्शन पर 'रामायण` और 'महाभारत` सीरियल प्रसारित हुए तो समाचार पत्रों के माध्यम से सुनने को मिला कि दक्षिण भारत के कतिपय अहिन्दी भाषी अंचलों में रहने वाले लोगों ने इन दो सीरियलों को बढे चाव से देखा क्येांकि भारतीय संस्कृति के इन दो अद्भुत महाकाव्यों को देखना उनकी भावनागत जरूरत बन गई थी और इस तरह अनजाने में ही हिन्दी सीखने का उपक्रम भी किया। बन्धुओं, हम ऐसा ही एक सहज, सुन्दर और सौमनस्यपूर्ण माहौल बनाना चाहते हैं जिसमें हिन्दी एक ज़रूरत बने और उसे जन-जन की वाणी बनने का गौरव प्राप्त हो। जय भारत / जय हिन्दी.

डा० शिबन कृष्ण रैणा
पूर्व अध्येता,भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान,शिमला
सितम्बर 18, 2006

indinest.com/nibandh/n19.htm





Thursday, June 8, 2017



कबीर जयंती पर विशेष 


कबीर की याद 


(मेरा यह आलेख बहुत पहले देश की एक प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशित हुआ था जिसे आज मित्रों के लिए पुनः अपनी वाल पर डाल रहा हूँ)

कबीर भक्तिकालीन भारतीय साहित्य और समाज के ऐसे युगचेता कवि थे जिनकी हैसियत आज भी एक जननायक से कम नहीं है। अपने समय के समाज में परंपरा और शास्त्र के नाम पर प्रचलित रूढ़ियों, धर्म के नाम पर पल रहे पाखंड-आडंबर, सामाजिक शोषण-असमानता जैसी कई बुराइयों के वे घोर विरोधी थे और इनके विरुद्ध डट कर बोले।

कबीर समाज में व्याप्त शोषक-शोषित का भेद मिटाना चाहते थे। जातिप्रथा का विरोध करके वे मानवजाति को एक-दूसरे के समीप लाना चाहते थे। पथभ्रष्ट समाज को उचित मार्ग पर लाना उनका प्रधान लक्ष्य था। वे कथनी के स्थान पर करनी, प्रदर्शन के स्थान पर आचरण को महत्त्व देने वाले थे। कबीर का एक अहम उद्देश्य था विभिन्न धर्मों में व्याप्त वर्णवादी-व्यवस्था को तोड़ना।

उन्होंने एक जाति और एक समाज का स्वरूप प्रतिष्ठापित करने का प्रयास किया और साथ ही जाति-प्रथा के मूलाधार वर्णाश्रम व्यवस्था पर भी गहरी चोट की। कर्तव्य-भावना की प्रतिष्ठा पर उन्होंने खूब जोर दिया। कहा जा सकता है कि कबीर का समूचा समाजशास्त्रीय चिंतन भारतीय संस्कृति और साहित्य की अनमोल थाती है।

आज के जागरूक लेखक को कबीर की निर्भीकता, सामाजिक अन्याय के प्रति उनके तीव्र विरोध की भावना और उनके स्वर की सहज सच्चाई और स्पष्टवादिता से प्रेरणा लेने की जरूरत है। कबीर की वाणी में अपने समाज और व्यवस्था के प्रति जो अस्वीकार का स्वर दिखाई देता है, वही इस फक्कड़ कवि को प्रासंगिक बनाता है और वर्तमान से जोड़ता है।

कबीर जैसे संत कवि के बारे में बहुत कुछ कहा/लिखा जा सकता है। उनका एक दोहा है जो मुझे उम्र के इस पड़ाव पर उनका मुरीद बनाने से नहीं रोक पा रहा:

सुख में सुमिरन ना किया, दुख में करते याद।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥

इस दोहे के अर्थ को मात्र भक्ति/अध्यात्म के संदर्भ में न देखकर हर तरह की मतलबपरस्ती के संदर्भ में देखें, तो कितना सामयिक/प्रासंगिक लगता है यह!
शिबन कृष्ण रैणा, अलवर

http://www.jansatta.com/chopal/jansatta-editorial-memory-of-saint-kabir/28580/



Tuesday, May 30, 2017


परिचर्चाः विस्थापन साहित्य का दर्द- डॉ० शिबन कृष्ण रैना/लेखनी मई-जून 


कौन नहीं जानता कि अशांति,विभ्रम और संशयग्रस्तता की स्थिति में किसी भी भाषा के साहित्य में उद्वेलन,विक्षोभ,चिन्ताकुलता और आक्रोश के स्वर अनायास ही परिलक्षित होते हैं। कश्मीरी के ‘विस्थापन साहित्य’ में भी कुछ इसी तरह का परिदृश्य नजर आता है।दरअसल, कश्मीर का ‘विस्थापन साहित्य’ कट्टर,क्रूर और गैर-राष्ट्रवादी ताकतों की राष्ट्रवादी ताकतों के साथ सीधी-सीधी जंग का प्रतिफलन है। बर्बर बहु-संख्याबल के सामने मासूम अल्पसंख्या-बल को झुकना पड़ा जिसके कारण ‘पंडित समुदाय’ भारी संख्या में कश्मीर घाटी से विस्थापित हुआ और पिछले लगभग तीन दशकों से अपनी अस्मिता और इज्जत की रक्षा के लिए संघर्षरत है।
माना जाता है कि कश्मीर घाटी से पंडितों का विस्थापन सात बार हुआ है। पहला विस्थापन १३८९ ई० के आसपास हुआ जब घाटी में विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा बलपूर्वक इस्लामीकरण के परिणामस्वरूप हजारों की संख्या में या तो पंडित हताहत हुए या फिर अपनी जान बचाने के लिए वे भाग खड़े हुए।इस बीच अलग-अलग कालावधियों में पाँच बार और पंडितों का घाटी से निष्कासन हुआ।सातवीं और आखिरी बार पंडितों का विस्थापन १९९० में हुआ। आंकड़े बताते हैं कि पाक-समर्थित जिहादियों के आतंक से त्रस्त होकर १९९० में हुए विस्थापन के दौरान तीन से सात लाख के करीब पंडित कश्मीर से बेघर हुए।
१९९० में हुए कश्मीरी पंडितों के घाटी से विस्थापन की कथा मानवीय यातना और अधिकार-हनन की त्रासद गाथा है। यह दुर्योग अपनी तमाम विडम्बनाओं और विसंगतियों के साथ आज हर चिन्तक, बुद्धिजीवी और जनहित के लिए प्रतिबद्ध रचनाकार के लिए चिन्ता और चुनौती का कारण बना हुआ है। विस्थापन की त्रासदी के बीच टूटते भ्रमों और ढहते विश्वासों को कन्धा देते हुए कश्मीर के रचनाकरों ने विस्थापितों के दुःस्वप्नों और उनकी स्मृतियों को व्यवस्था और जागरूक देश-वासियों के सामने रखकर विस्थापन से जनित स्थितियों और उनके दुष्प्रभावों को बड़ी मार्मिकता के साथ अपने रचना-कर्म में बयान किया है और ब्यान कर रहे हैं।
ध्यान से देखा जाय तो कश्मीर में आतंकवाद के दंश ने कश्मीरी जनमानस को जो पीड़ा पहुंचायी है, उससे उपजी हृदय-विदारक वेदना तथा उसकी व्यथा-कथा को साहित्य में ढालने के सफल प्रयास पिछले लगभग ढाई-तीन दशकों के बीच हुए हैं और अब भी हो रहे हैं।कई कविता-संग्रह, कहानी-संकलन,औपन्यासिक कृतियां आदि सामने आए हैं, जो कश्मीर में हुई आतंकी बर्बरता और उससे जनित एक विशेष जन-समुदाय(कश्मीरी पंडितों) के ‘विस्थापन’ की विवशताओं को बड़े ही मर्मस्पर्शी अंदाज में व्याख्यायित करते हैं। कहना न होगा कि पंडितों के घाटी से विस्थापन के कारणों और उससे जनित पंडित-समुदाय पर पड़े सामाजिक-सांस्कृतिक दुष्प्रभावों को लेकर देश में समय-समय पर अनेक परिचर्चाएं,संगोष्ठियाँ,आयोजन आदि हुए हैं परन्तु विस्थापन के दौरान कश्मीरी लेखकों द्वारा रचे गए साहित्य की सम्यक मीमांसा, उसका आलोचनात्मक अध्ययन आदि अधिक नहीं हुआ है। 
विस्थापन की त्रासदी भोगते रचनाकारों की सबसे बड़ी पीड़ा जो कभी उन्माद की हदें छूने लगती है, आतंकवाद से छूटे घर-संसार की पीड़ा है।घर मात्र जमीन का टुकड़ा या ईंट-सीमेंट का खांचा-भर होता तो कभी भी, कहीं पर भी बनाया जा सकता था। घर के साथ घर छूट जाने वाले की पहचान, स्मृतियों की भरी-पूरी जमीन और अस्मिता के प्रश्न जुड़े होते हैं। विस्थापितों से,दरअसल, जमीन का टुकड़ा ही नहीं छूटा, उनकी आस्था के केन्द्र वितस्ता, क्षीर-भवानी और डल झील भी छूट गये है। कश्मीर में बर्फ के तूदों (ढेर) के बीच मनती शिवरात्रि और वसंत की मादक गंध में सांस लेता ‘नवरोज-नवरेह’ भी था। घर छूटने का अर्थ मोतीलाल साकी’ के शब्दों में “वही जानता है, जिसने अपना घर खो दिया हो।“ बात १९९० के आसपास की है।घर से बेघर हुओं ने विकल्पहीन स्थितियों को स्वीकारते हुए भी उम्मीद नहीं छोड़ी थी, यह सोचकर कि एक दिन हालात सुधर जाएंगे और हम वापस अपने घरों को लौट जाएंगे। आखिर हम एक स्वतंत्र धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के नागरिक हैं। मगर, शंभूनाथ भट्ट ‘हलीम’ घर लौटने को विकल विस्थापितों से कहते हैं, “आतंकवाद ने वादी के आकाश और धरती के रंग बदल दिए हैं। वहां जाकर तुम क्या पाओगे? हमारी अपनी धरती अब हमारे लिए पराई हो गई है।’
पंडितों को वादी से खदेड़ने की साजिश में जिन छोटे-बड़े रहनुमाओं, साम्प्रदायिक तत्वों और पाक समर्थित जिहादियों/आतंकवादियों के हाथ रहे हैं, वे आज भी बेखटके वादी की सामासिक संस्कृति के परखच्चे उड़ाने में लगे हुये हैं और कहते हैं: “बट/पंडित तो सदा से भगोड़े रहे हैं।’ अग्निशेखर को भगोड़ा शब्द कचोटता है, वे लिखते हैं:
“आंखें फोड़ीं, बाहें काटीं, बेकसूर थे भागे पंडित,
किसको चिंता? लावारिस हैं, भागे पंडित।” 
महाराज कृष्ण भरत लिखते हैं-“मुझसे मिलने के लिए/किसी को खटखटाना नहीं होगा दरवाजा/केवल फटेहाल सरकारी तम्बू का पर्दा सरकाना होगा।’
घाटी में छूटे घरों को जिहादियों ने मलबे के ढेर में बदल दिया। चन्द्रकान्ता को जले हुए छान-छप्परों में “घर’ की शिनाख्त करते लगता है कि “घर की लाश टुकड़ों में बंट कर पूरी वादी में छितर गई है’। शशिशेखर तोषखानी अपनी गली के कीचड़ को भूल नहीं पाते, जो घर छोड़ते समय, मोहवश उनके पैरों से लिपट गई थी। ऐसे घर और गलियों को छोड़ना आसान नहीं था। तोषखानी कहते हैं
“कत्लगाहों के नक्शों में/हमारे सिर रखे जा रहे हैं/मील के निशानों की जगह/और कोई दिशा तय नहीं है यहां/मृत्यु के सिवा।’

विस्थापन अथवा जलावतनी की त्रासदी ने कवि ब्रजनाथ बेताब के मन-मस्तिष्क को बहुत गहरे तक आक्रांत कर दिया है। उनकी यह पीड़ा उनके रोम-रोम में समाई हुई है। घर-परिवार की सुखद स्मृतियों से लेकर आतंकवाद की आग तक की सारी क्रूर स्थितियां कवि की एक-एक पंक्ति में उभर-उभर कर सामने आती हैं। आतंकी विभीषिकाओं का कवि द्वारा किया गया वर्णन और उससे पैदा हुई सामाजिक असमानता/स्थितियां मन को यों आहत करती हैं-
‘मैं कवि नहीं हूं
न मेरी धरा के सीने में छिपा मेरा लहू
मेरी कविता है।
क्योंकि मैं अपने लहू को छिपाने का नहीं
लहू से धरा को सींचने का आदी रहा हूं।
यही मेरी विरासत,मेरी परंपरा है
जिसे निभाते निभाते मैं 
बहुसंख्यक होते हुए भी अल्पसंख्यक हो गया हूं।..’.

विस्थापन में रचना करते हिन्दी कवियों के महाराज कृष्ण संतोषी,अवतारकृष्ण राजदान, रतनलाल शान्त, उपेन्द्र रैणा, महाराज कृष्ण भरत, क्षमा कौल, चन्द्रकान्ता से लेकर सुनीता रैना,प्यारे हताश तक ढेरों नाम हैं, जिनकी रचनाओं में एक रची-बसी विरासत के ढहने और पहचान के संकट की पीड़ा है। भ्रष्ट राजनीति और अवसरवादी नेताओं की गैरजिम्मेदारियों और ढुलमुल नीतियों के प्रति आक्रोश है क्योंकि वे लोग जवाबदेह हैं कल्हण के स्वर्ग को रक्त-रंजित रणक्षेत्र बनाने के लिए। कश्मीरी-भाषी कवि “साकी’ के शब्दों में :
” आज वादी में दहशत का आलम है/डूलचू की पीढ़ी जवान हो गई है/लल्लद्यद और शेखुलआलम को आज कौन सुनेगा? /बडशाह की रूह कांप रही है/और वितस्ता का पानी बदरंग हो गया है।’
विस्थापितों के पास अतीत की स्मृतियां ही नहीं, वर्तमान के दंश भी हैं। शिविरों में पशुवत जीवन जीते संभ्रांत लोगों की दुर्दशा पर कवि उद्विग्न है। नयी पीढ़ी चौराहे-पर भौंचक्क खड़ी अपनी दिशा ढूंढ रही है। “साकी’ उन बच्चों के लिए चिंतित हैं, जो तम्बुओं में पलते हुए मुरझा गए हैं। वे कहते हैं:
“हमारे लोकतंत्र के नए अछूत हैं मारे-मारे फिरना /अब इनकी सजा है/ये, मां कश्मीर की बेबस बेचारी संतान हैं।’

इतिहास कहता है कि कश्मीरी पंडित अभिनवगुप्त, कल्हण,मम्मट और बिल्हण की संतानें हैं। इनके पूर्वजों को भरोसे/उदारता की आदत विरासत में मिली है। लेकिन,कुलमिलाकर इस बदलते समय में, भरोसे की आदत ने इन्हें ठगा ही है। विश्वासों की पुरानी इबारत, वक्त की आंधी में ध्वस्त हो गई है। कवयित्री चन्द्रकान्ता कहती हैं:
“तुम्हारे काम नहीं आएगी मेरे बच्चो भरोसे की वह इबारत, खुदा की हो या नेता की हो, खुद तुम्हें लिखनी होगी वक्त के पन्ने पर नयी इबारत।’

विस्थापित कश्मीरी लेखक जब घर छूटने या शरणार्थियों की पीड़ाओं को स्वर देता है, तो निजी पीड़ा की बात करते हुए भी उसकी संवेदनाएं वैश्विक होकर उन बेघर-बेजमीन लोगों के साथ जुड़ जाती हैं जिनकी व्यथा उससे भिन्न नहीं है, भले कारण भिन्न हों। वह चाहे गुजरात की त्रासदी हो, उड़ीसा या आन्ध्र का तूफान हो, तिब्बतियों-अफ्रीकियों या फिर फिलिस्तीनियों की पीड़ा हो, संवेदना के तार उन्हें एक दूसरे से जोड़ते हैं। तभी तो महाराजकृष्ण संतोषी कहते हैं कि 
‘अपने घर से विस्थापित होकर मैंने बिना यात्रा किए ही फिलिस्तीन को भी देखा और तिब्बत को भी।’
इन तमाम निराशाओं और अनिश्चितताओं के बावजूद रचनाकार हार नहीं मान रहा। राधेनाथ मसर्रत, वासुदेव रेह, शान्त, संतोषी, क्षमा कौल या चन्द्रकान्ता आदि सभी की उम्मीदें जीने का हौसला बनाए रखे हुए हैं। तोषखानी को भरोसा है कि,”फैलेगा हमारा मौन, नसों में रक्त की तरह दौड़ता हुआ….मांगेगा अपने लिए एक पूरी जमीन।’
‘शान्त’ वादी से दूर रहकर वादी के इतिहास को नए सिरे से रचना चाहता है- “अंधेरा है अभी, पर सूर्य जरूर निकलेगा।” और संतोषी कहता है, “इस बार सूर्य मेरी नाभि से निकलेगा।’
विस्थापन त्रासद होता है, खासतौर पर अपने ही देश में हुआ विस्थापन। वह लज्जास्पद भी होता है और आक्रोश का कारण भी। वह मानवीय यातना और मनुष्य के मूल अधिकारों से जुड़े बेचैन करने वाले प्रश्नों को जन्म देता हैं, जिन्हें रचनाकार स्वर देकर एक समानान्तर इतिहास रचता रहे है: कविताओं में भी, कहानियों में भी और “कथा सतीसर’, “पाषाण युग’ “दर्द पुर” आदि जैसे उपन्यासों में भी।
कश्मीरी लेखकों के ‘विस्थापन-साहित्य’ को मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है:१-हिंदी में लिखा गया विस्थापन साहित्य,२-अंग्रेजी में लिखा गया विस्थापन साहित्य और ३-उर्दू/कश्मीरी में लिखा गया विस्थापन साहित्य।
यहाँ पर मुख्यतया हिंदी में रचित कश्मीरी लेखकों द्वारा लिखित ‘विस्थापन-साहित्य’ को ही केंद्र में रखा गया है।इस चर्चा द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि चूंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है,इसलिए कश्मीरी लेखकों द्वारा रचित ‘विस्थापन-साहित्य’ अपने समय और समाज की विषमताओं, चिंताओं, दुरावस्थाओं, आकुलताओं आदि का बखूबी वर्णन करता है।इस वर्णन में भाव और शिल्प के स्तर पर मर्म को छूने वाली जिन अनुभूतियों से साक्षात्कार होता है,वे कश्मीरी साहित्य के साथ-साथ भारतीय/हिंदी साहित्य की भी बहुमूल्य निधि हैं। 
यहाँ पर प्रसंगवश यह कहना अनुचित न होगा कि कश्मीर में कुछेक ऐसे भी रचनाकार हैं जो यद्यपि ‘पंडित’ नहीं हैं किन्तु पंडितों के विस्थापन की त्रासदी से विक्षुब्द हैं।अपने पंडित भाइयों से विलग होने और खुद को असहाय पाने की पीड़ा इन रचनाकारों ने भोगी है।कश्मीरी कवि बशीर अत्तहर की कविता “कहाँ जाऊँ मैं?” इसका प्रमाण है:
‘तुम समझते हो तुम्हारे अस्तित्व को मैं लील गया
पर, उस प्रयास में मेरा अस्तित्व कहाँ गया
यह शायद तुम्हें मालूम नहीं।
मैंने कल ही एक नई मुहर बनवाई और
लगा दी ठोंककर हर उस चीज़ पर
जो तुम्हारी थी।
लेकिन यह ख़याल ही न रहा कि
उन कब्रिस्तानों का क्या करूँ
जो फैलते जा रहे हैं रोज-ब-रोज
और कम पड़ रहे हैं हर तरफ़ बिखरी लाशों को समेटने में!
बस, अब तो एक ही चिंता सता रही है हर पल,
तुम को चिता की आग नसीब तो होगी कहीं-न-कहीं 
पर, मेरी कब्र का क्या होगा मेरे भाई?’

कश्मीरी पंडितों की अपने ही देश में हुयी जलावतनी को लेकर मुझे कई सभा-गोष्ठियों में बोलने अथवा अपने आलेख पढने का अवसर मिला है।विस्थापन से जुडे कई कश्मीरी लेखकों की रचनाओं का ‘रिव्यु’ अथवा अनुवाद करने का अवसर भी मिला है।साहित्य अकादेमी,दिल्ली ने कई वर्ष पूर्व गिधर राठी के सम्पादन में “कश्मीर का विस्थापन सहित्य” पर जो विशेषांक निकाला था,उसमें मेरी भी दो-एक रचनाएँ सम्मिलित हैं।(इस गंभीर,हृदय-स्पर्शी और समय-सापेक्ष विषय पर अलग से एक पुस्तकाकार रचना तैयार करने की ज़रूरत है।इस काम को हाथ में लेने की मेरी योजना है।)
चंद्रकांता के अनुसार ‘कश्मीर की संत कवयित्री ललद्यद ने चौदहवीं शती में एक ‘वाख’ कहा था- “आमि पन सोदरस…।’ कच्चे सकोरों से ज्यों पानी रिस रहा हो, मेरा जी भी वैसे ही कसक रहा है, कब अपने घर चली जाऊं?’ आज ललद्यद का यही “वाख’, इक्कीसवीं सदी के इस भूमंडलीकरण के दौर में विस्थापित कश्मीरियों के अन्तर की हूक बनकर साहित्य में अभिव्यक्त हो रहा है। सिर्फ संदर्भ बदल गए हैं। संत कवयित्री ललद्यद ने यह ‘वाख’ आध्यात्मिक संदर्भों में कहा था, धरती पर उसका कोई घर नहीं था, लेकिन आम-जन ईंट-गारे से बने उस घरौंदे की बात करता है, जिसमें उसके स्वप्न, स्मृतियां और भविष्य दफन हो गए हैं। लेकिन हूक वही है जो नश्तर-सी अंतर में गड़ी है।‘ यों,ललद्यद ने यह भी कहा था:
“शिव/प्रभु थल-थल में विराजते हैं
रे मनुष्य! तू हिन्दू और मुसलमान में भेद न जान,
प्रबुद्ध है तो अपने आप को पहचान,
यही साहिब/ईश्वर से है तेरी पहचान।”

काल को महाबली कहा गया है।कोई आश्चर्य नहीं कि कश्मीर की इस महान आदि संत-कवयित्री योगिनी ललद्यद (१४ वीं शती) की वाणी में निहित सन्देश कश्मीरी जनमानस को उद्वेलित-अनुप्राणित कर घाटी में एक बार पुनः अमन-चैन का वातावरण स्थापित करने की प्रेरणा दे।

०००००००
डॉ० शिबन कृष्ण रैणा

(पूर्व-अध्येता,भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान,शिमला,
सीनियर फेलो,संस्कृति मंत्रालय,भारत सरकार, 
सदस्य,हिंदी सलाहकार समिति,विधि एवं न्याय मंत्रालय,भारत सरकार.)

२/५३७ अरावली विहार,
अलवर ३०१००१

Friday, May 12, 2017



आत्म-कथ्य / अन्तरंग 

वतन से दूरी ही मेरी साहित्य-साधना की मूल-प्रेरणा है



आत्म-कथ्य लिखना किसी भी लेखक के लिए चुनौती का काम है | कारण, अपने बारे में लिखना आसन तो लगता है किन्तु तभी सहसा दिमाग में एक बात और आती है कि ‘लिखने’ और ‘बखान’ में, यानी आत्म-कथ्य और आत्म-प्रचार में स्पष्ट सीमा-रेखा खिंच जानी चाहिए और उस रेखा को साफ-साफ उजागर करना ही एक सुलझे हुए लेखक की असली परख / पहचान है | अपने आत्म-कथ्य में मैं इस बात के प्रति विशेषतया सावधान रहा हूँ |

कश्मीर मेरी जन्म-भूमि है | जन्म हुआ था श्रीनगर (कश्मीर) के पुरुषयार (हब्बाकदल) मुहल्ले में संवत १९९९ में वैशाख शुक्ल पक्ष की सप्तमी को को Iईस्वी सन के हिसाब से यह तिथि २२ अप्रैल, १९४२ बैठती है | निम्न मध्यवर्गीय परिवार के तमाम अभावों और दबावों को विरासत में पाकर बचपन और किशोरावस्था के उद्धाम और बेफिक्री के दिनों को मैंने मन मारकर बिताया है | पिताजी की प्राइवेट नौकरी हमारे सात सदस्यीय परिवार के लिए तन ढकने और दो टाइम का साग-भात जुटाने के लिए काफ़ी न थी | माता जी कहती थी कि दुर्दिनों के हम ने कई-कई बार चावल का मांड पिया है और सत्तू खाया है | ‘जबरी स्कूल’ में ढाई आने फीस के जमा कराने के लिए भी हमें कई बार उधार लेना पड़ता था | बड़ी मौसी की हैसियत हम से कुछ ज्यादा ठीक थी, शायद सीमित परिवार के कारण | समय-असमय उसने हमारी बहुत मदद की है | कई बार माताजी ने मुझे उनके पास आलीकदल भेजा है और मैं तीन मील पैदल चलकर उनके यहाँ से कभी चावल, कभी आटा और कभी पांच-सात रूपये चुपचाप लाया हूँ |

नौकरी के सिलसिले में पिताजी लम्बे समय तक जम्मू में रहे | रेडक्रास के दफ्तर में उनकी नौकरी थी | सर्दियों में हम जम्मू चले जाते और गर्मियों में वापस श्रीनगर लौट आते | इस आव-जाही के कारण मेरी स्कूली शिक्षा दो जगह हुई | जम्मू में घास-मंडी स्कूल में तथा श्रीनगर में जबरी स्कूल (टंकीपोरा) तथा श्रीप्रताप हाई स्कूल में | सरकारी स्कूलों में जैसी पढाई और जैसा माहौल होता है, उसी को आत्मसात करता मैं दसवीं प्राप्त कर गया | यह बात १९५६ की है | दसवीं में मुझे अच्छे अंक मिले थे-प्रथम श्रेणी में सात या आठ ही घटते थे | कालेज में प्रवेश लेने ने लिए विषयों का सही चयन करना अनिवार्य था | मुझे याद है कि प्रवेश-फार्म भरते समय कालेज के एक अनुभवी प्रोफेसर साहब ने मेरे प्राप्तांक को ध्यान में रखते हुए मुझे विज्ञान-संकाय में जाने की सलाह दी थी क्योंकि आने वाले समय में रोजगार की दृष्टि से कला की तुलना में विज्ञान की संभावनाएं अच्छी थीI विषय न होने पर भी वे मुझे विज्ञान दिलवाने के पक्ष में थे | घर पर दो दिनों तक इस बात पर खूब विचार होता रहा की मैं विज्ञान लूँ य आर्टस | चूँकि पिताजी ज्यादातर जम्मू में रहते थे, अत: हमारे घर के सारे मुख्य निर्णय दादाजी लेते थे | दादाजी की अपनी विवशताएँ, अपने पूर्वाग्रह तथा स्थितियों को समझने की अपनी दृष्टि थी | वे हिन्दी-संस्कृत के अध्यापक तथा एक धर्म-परायण/कर्मकांडी ब्राह्मण थे | (कश्मीर ब्राह्मण मंडल के वे वर्षों तक प्रधान रहे |) विज्ञान जैसे पदार्थवादी विषय से उनका दूर का भी वास्ता न था | उन्होंने ज़ोर/तर्क देकर मुझे कला-संकाय में जाने को कहा क्योंकि उस स्थिति में हिन्दी-संस्कृत के विषयों को वे मुझे अच्छी तरह से पढ़ा सकते थे | आज सोचता हूँ कि यदि विज्ञान संकाय में प्रवेश ले लिया होता तो एक दूसरे ही रसहीन संसार में विचरण कर रहा होता मैं, और साहित्य व कला के अनूठे, कालजयी, यश-बहुल तथा रस-सिक्त संसार से एकात्म होकर आत्म-विस्तार की अनमोल सुखानुभूति से वंचित रह जाता |इसे मै दादाजी का पुण्य-प्रताप ही मानूँगा कि उन्होंने मुझ में हिन्दी के प्रति प्रेम को बढाया और यह उनकी ही दूरदृष्टि का परिणाम है कि मैं एम.ए. तक पढ़ पाया, अन्यथा मैट्रिक कर लेने के बाद पिताजी मुझे नौकरी पर लगवाने के पक्ष में थे |

कश्मीर विश्वविधालय में एम.ए. हिन्दी खुले संभवतः दो ही वर्ष हो गये थे जब मैंने १९६० में एम.ए. में प्रवेश लिया | उस समय विभाग में तीस लड़के-लडकियाँ तथा तीन प्रोफेसर थे | डॉ. हरिहरप्रसाद गुप्त विभाग के अध्यक्ष तथा डॉ. शशिभूषण सिंहल व डॉ. मोहिनी कौल प्राध्यापक हुआ करते थे | मैंने पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध दोनों में अधिकतम अंक प्राप्त कर १९६२ में एम.ए. हिन्दी प्रथम श्रेणी में प्रथम रहकर कियाI मुझे याद है हिन्दी विभाग में साहित्य परिषद या हिन्दी सेमिनार, जैसे एक मंच का निर्माण किया गया था जिसमें हर शनिवार को ‘गोष्ठी’ होती थी | इस गोष्ठी में छात्र-छात्राओं की स्वरचित कविताओं, गजलों, कहानियों, शोधपरक निबंधो का वाचन होता | समीक्षाएं भी होती और जमकर होतीं | एक वर्ष तक में इस हिन्दी-सेमिनार का छात्र-सचिव रहा और संभवतः गोष्ठियों का संचालन करते-करते, गुरुजनों की समीक्षाएं सुनते-सुनते तथा छात्र-लेखकों की रचनाएँ सुनते-सुनते मेरे भीतर का छिपा लेखक इतना प्रभावित और विलोड़ित हुआ कि मैं ने नियमत रूप से लिखने का अभ्यास करना प्रारंभ कर दिया | मैंने बहुत कुछ लिखा पर वह छपा नहीं | कश्मीर जैसे अहिन्दी प्रान्त में हिन्दी रचना का छपना-छपाना सरल कार्य न था | पूरे प्रान्त से ‘योजना’ नाम की एकमात्र सरकारी पत्रिका निकलती थी और उस पर वरिष्ठ लेखकों का दबाव अधिक था | हम नये लेखकों को भला कौन जानता?............... मुझे याद है मेरी पहली रचना ‘समाज और हम’ (जिसे मैंने हिन्दी-सेमिनार में पढ़ा था) १९६० में युवक (आगरा) में छपी थी मेरे फोटो के साथ | रचना छपवाने के लिए मेरे श्रद्धेय गुरूजी डॉ. शशिभूषण सिंहल ने मेरी मदद की थी | गुरूजी के सिफारिशी पत्र के साथ मैंने उक्त रचना संपादक को भेजी थी | यकीन मानिए जब डाक से पत्रिका मेरे पास आई और मैंने अपनी रचना सचित्र उसमें देखी तो मै इतना प्रसन्न हुआ, इतना प्रसन्न हुआ मानो कुले-जहाँ की खुदाई मिल गई हो | पूरे सात दिनों तक मेरी प्रसन्नता का ज्वर नही टूटा | इन सात दिनों के दौरान पत्रिका मेरे बगल में ही रही | उठते-बैठते, घूमते-फिरते, खाते-पीते- हर बार पलट-पलटकर अपनी रचना को देख लेता, मित्रों को दिखता और मन ही मन सुखामृत के घूँट पीता रहता |

रचना छाप तो गई | वाह-वाही भी मिली किंतु गुरुदेव डॉ. हरिहर प्रसाद गुप्त की मंशा कुछ और ही थी | मुझ में वे सम्भवतः उन तमाम संभावनाओं का पता लगा चुके थे जो आगे चलकर मुझे साहित्य के क्षेत्र में प्रतिष्ठापित करतीं | उनका आग्रह था कि मैं शुद्ध साहित्यिक विषयों, जैसे सूर, तुलसी, नई कविता, छायावाद, रस-निष्पति, साहित्य और समाज आदि विषयों का अध्ययन तो कर लूँ, मगर इन पर लिखने की जिद न पकडूँ | इन विषयों के अधिकारी लेखक हिन्दी जगत में बहुत हैं और इन विषयों के माध्यम से आगे बढ़ने की सम्भावना भी उतनी नहीं है जितनी कश्मीर सम्बन्धी विविध विषयों को आधार बनाने से है | इसमें उन्हें कश्मीर की सांस्कृतिक- साहित्यिक धरोहर को हिन्दी जगत तक पहुँचाने की आवश्यकता नजर आ रही थी और साथ ही संपर्क भाषा हिन्दी के माध्यम से देश की दो संस्कृतियों को मिलाने की वे बात सोच रहे थे | मेरे लिए उन्होंने साहित्य-साधना का नूतन मार्ग खोल दिया | मेहनत करके मैंने ‘कश्मीर की झीलें’ शीर्षक से एक सचित्र लेख ‘सरिता’ में प्रकाशनार्थ भेजा |....... दो तीन महीनों के बाद रचना छप गई नयनाभिराम गेट-अप के साथ | साठ रूपए पारिश्रमिक भी मिले | गुरूजी ने ठीक ही कहा था कश्मीर सम्बन्धी विषयों पर लिखने की बहुत जरूरत और गुंजाइश थी | ‘कश्मीर के प्रसिद्ध खंडहर’, ‘कश्मीरी संगीत’, ‘कश्मीरी कहावतें और पहेलियाँ’ आदि मैंने लेख लिखे | ये बातें १९६०-६१ की हैं |

कश्मीर की सुरम्य घाटी को मैंने नवम्बर १९६३ में छोड़ा | नही जनता था कि मातृभूमि को सदा-सदा के लिए छोड़ना पड़ेगा | विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से फेलोशिप मिली और पी.एच.डी. करने मैं कुरुक्षेत्र आया | इस बीच हमारे प्रोफेसर डॉ. शशिभूषण सिंहल कश्मीर से कुरुक्षेत्र विश्वविधालय में चले आए थे | वे मेरे शोध-कार्य के निर्देशक नियुक्त हुए | शोध का विषय था –‘कश्मीरी तथा हिन्दी कहावतों का तुलनात्मक अध्ययन |’ अपने पीछे माँ-बाप की छत्रच्छाया, भाई-बहनों का प्यार तथा बन्धु-बांधवों का सान्निध्य छोड़ अपनी राह स्वयं बनाने तथा अपनी मंजिल स्वयं तय करने के एकाकी अभियान पर चल पड़ा था मैं | घर और अपने परिवेश की सीमित-सी दुनिया को अलविदा कहकर मैंने एक नये परिवेश में प्रवेश किया था| मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैं घर से चला था तो मात्र पचास रूपए लेकर चला था | दादाजी ने चुपचाप अलग से दस का नोट मेरी जेब में डाल बालों पर हाथ फेरते हुए कहा था-हम से दूर जा रहे हो | एक बात का हमेशा ध्यान रखना बेटा, परदेश में हम लोग तुम्हारे साथ तो होंगे नहीं पर तुम्हारी मेहनत, लगन और मिलन-सरिता हरदम तुम्हारा साथ देगी | औरों के सुख में सुखी और उनके दुःख में दुःखी होना सीखना, सच्चा मानवधर्म यही है |

यहाँ पर इस बात का उल्लेख करना अनुचित न होगा कि एक समय में कश्मीर में हिन्दी के प्रचार तथा हिन्दी-लेखन के प्रति लोगों में बड़ा उत्साह और आदर-भाव था | क्रालखोड (हब्बाकदल) में हिन्दी साहित्य सम्मलेन का कार्यालय हुआ करता था और प्राय: हर इतवार की शाम को वहाँ हिन्दी से प्रेम रखने वाले उत्साही युवकों एवं वरिष्ठ लेखकों का मजमा जुड़ जाता था | बहसें होतीं, कवि-सम्मलेन आयोजित होते, साहित्यिक चर्चाएँ होतीं, पुस्तकों के विमोचन होते, कहानियाँ पढ़ी जाती आदि-आदि | यह बात इस शती के पाँचवें / छठे दशक की है | मैं कोई १५ वर्ष का रहा हूँगा | इन गोष्ठियों में सम्मिलित तो हो जाता किंतु पीछे वाली पंक्ति में बैठ (बिठा दिया) जाता | उस वक्त के कुछ बड़े नामों में सर्वश्री प्रो. काशीनाथ धर, प्रो. लक्ष्मीनारायण सपरू, श्रीकंठ तोषखानी, प्रो. पृथ्वीनाथ पुष्प, मोतीलाल चातक, द्वारिका नाथ गिगू, रतनलाल शांत, प्रेमनाथ प्रेमी, शशिशेखर तोषखानी, प्रो. लीलकंठ गुर्टू, हरिकृष्ण कौल, प्रो.चमनलाल सपरू, जानकी नाथ कौल ‘कमल’ आदि याद आ रहे हैं | कालान्तर में समय ने करवट ली और इसी के साथ कश्मीर में हिन्दी के ये प्रहरी और प्रेमी भी इधर-उधर बिखर गये |हाँ, माननीय प्रो. चमनलाल सपरू साहब आज भी हिन्दी के लिए कृतसंकल्प हैं और मेरे कार्य की प्रशंसा करते नहीं अधाते | मेरी पहली पुस्तक ‘कश्मीरी भाषा और साहित्य’ (सन्मार्ग प्रकाशन, दिल्ली १९७२) की विस्तृत भूमिका उन्हीं ने लिखी है | 

कुरुक्षेत्र विश्वविधालय में दो वर्ष की अवधि बिताने के साथ ही नौकरी के लिए तलाश शुरू होने लगी और मैंने इधर-उधर प्रार्थना पत्र भेजे | दो जगह मेरा चयन हुआ | दिल्ली के एक सांध्यकालीन कालेज में अस्थायी तौर तथा राजस्थान लोकसेवा आयोग, अजमेर द्वारा राजस्थान कालेज शिक्षा सेवा के लिए पक्के तौर पर | निर्णय मुझे लेना था | राजस्थान सरकार की नौकरी ही मरी नियति बनी क्योकि अस्थायी नौकरी स्वीकार करने का जोखिम उठाना मेरे बूते से बाहर था | जुलाई १९६६ से मैं राजस्थान के विभिन्न सरकारी कालेजों में अध्यापनरत हो गया | राजकीय कालेज भीलबाड़ा में मेरी प्रथम नियुक्ति हुई | एक वर्ष तक वहाँ पर रह लेने के बाद, लगभग दस वर्षों तक राजकीय कालेज, नाथद्वारा (उदयपुर) में रहा | १९७८ से राजकीय स्नातकोत्तर कला महाविधालय, अलवर में स्थानांतरित होकर आया | इस बीच १९७५-७६ में बर्ष के लिए भारत सरकार के पटियाला स्थित उत्तर क्षेत्रीय भाषा केंद्र में कश्मीरी के भाषा वैज्ञानिक अध्ययन, उसके व्याकरण और उसकी पाठ-साम्रगी का निकट से अनुशीलन करने का मुझे सुअवसर मिला | संत कवयित्री ललद्दद पर मैंने यहीं पर एक पुस्तक तैयार की जो भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनऊ से प्रकाशित हुई | इस पुस्तक की सुन्दर प्रस्तावना प्रसिद्ध हिन्दी विद्वान और पत्रकार श्री बनारसीदास चतुर्वेदी जी ने लिखी है |

प्रभु श्रीनाथ जी की प्रसिद्ध नगरी नाथद्वारा में बिताए दस वर्ष मेरे जीवन के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और दिशा-सूचक वर्ष रहे हैं | यही वे वर्ष हैं जिन्होंने मेरे भीतर के लेखक (साहित्य-सेवी) को एक सुनिश्चित आकार देना प्रारंभ किया और मेरे साहित्यिक-भविष्य की एक पक्की नींव डल गई | ये तमाम वर्ष मेरे लिए कठोर परिश्रम के वर्ष थे | अपनी जम्भूमि से सैकंडों मील दूर, उलझील और चिनारों की शीतल और पुलकन-भरी दुनिया से विलग, नर्म-नर्म बर्फ की छुअन से सदा के लिए विमुख होकर मैं वीर-वसुंधरा राजस्थान की प्रचंड गर्मी और लू से टक्कर लेता हुआ परदेस में लसने-बसने, अपने लिए एक जगह बनाने तथा अपने भविष्य को संवारने की चिन्ता में साधनारत था | अपनों से दूरी ने मन में जो रिक्तता और टीस पैदा की थी , वह मेरे लिए वरदान सिद्ध हुई | मैंने निश्चय किया कि मेरा प्रवास आजीविका जुटाने का प्रयास-मात्र नहीं होना चाहिए किंतु मुझे कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे मेरे भीतर की वियोगजन्य पीड़ा की क्षतिपूर्ति हो | सच पुछा जाए तो मातृभूमि (वेतन) से दूरी और तज्जन्य रिक्तता का भाव ही मेरी समस्त साहित्य-साधना की मूल-प्रेरणा हैं | कुछ-कुछ यही बात १९८३ में पटना के सचिवालय सभागार में विहार राजभाषा विभाग द्वारा आयोजित मेरे अभिनन्दन-समारोह में उस समय के विहार के मुख्य-सचिव ने कही थी | अपने समापन-भाषण में सचिव जी ने शायद ठीक ही कहा था कि रैणा जी अगर कश्मीर में होते तो इतना महत्त्वपूर्ण और उपयोगी कार्य न करते | दरअसल, अपने वतन से दूरी ने ही उन्हें इतना ठोस कार्य करने की प्रेरणा दी है |

इस बीच राजस्थान जैसे विशुद्ध हिन्दी प्रान्त में कार्य करने से मेरे हिन्दी के व्यावहारिक ज्ञान की सीमाएँ विस्तृत हो चुकी थीं | मैंने हिन्दी के रोजमर्रा के मुहावरे को आत्मसात कर लिया था, भाषा पर मेरी पकड़ मजबूत होती जा रही थी | हिन्दी भाषा और साहित्य के जानकारों / विद्वानों से दिनोंदिन मेरा सम्पर्क बढ़ता जा रहा था | सभा-गोष्ठियों में मेरी भागीदारी बढती जा रही थी ......| कश्मीर छोड़कर राजस्थान को अपना कार्यक्षेत्र बनाने का एक जबरदस्त फायदा मुझे यह हुआ कि भाषा और अभिव्यक्ति शैली में बहुत परिष्कार हुआ | मेरी पहली पुस्तकाकार रचना ‘कश्मीरी भाषा और साहित्य’ १९७२ में छपी | इसे मैंने लगभग दो वर्षों की मेहनत के बाद नाथद्वारा में तैयार किया था | सुप्रसिद्ध हिन्दी-संस्कृत विद्वान एवं सांसद (राजतरंगिनी के विख्यात भाष्यकार) डॉ. रघुनाथ सिंह ने लगभग अठारह वर्ष पूर्व राजस्थान में रहकर कश्मीरी साहित्य-संस्कृति पर मेरे निष्ठा पूर्ण लेखन को देखकर सुखद-आश्चर्य प्रकट किया था | (डॉ. सिंह पं. नेहरु के समय कश्मीर मामलों की संसदीय-समिति के सदस्य रहे हैं ) अपने १८ नवम्बर, १९७४ के हाथ से लिखे पत्र में उन्होंने मुझे लिखा था –“...... आप साहित्य की जो सेवा कर रहे हैं उससे कश्मीर और भारत उऋण नहीं हो सकते | विचित्र विपर्यय है-कहाँ कश्मीर का तुषार-मंडित देश और कहाँ राजस्थान की मरुभूमि | किंतु दोनों हैं उज्ज्वल-वर्ण – राजस्थान की ऊष्मा ने वीरों को उत्पन्न किया है और हिमालय भूमि में आसीन कश्मीर ने दार्शनिकों एवं महाकाव्यकारों को......” | नाथद्वारा प्रवास के दौरान ही मैंने कश्मीरी की लोकप्रिय रामायण ‘रामावचरित’ का सानुवाद लिप्यन्तरण किया | इस कार्य को पूरा करने में मुझे लगभग ५ वर्ष लगे | भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनऊ से प्रकाशित इस सेतु-ग्रंथ की सुन्दर प्रस्तावना डॉ. कर्णसिंह जी ने लिखी है | मेरे प्रयास की भूरि-भूरि प्रसंशा करते हुए उन्होंने लिखा........ “डॉ. शिबन कृष्ण रैणा ने अपने कठोर परिश्रम से भूल कश्मीरी भाषा की इस अमोल निधि ‘रामावतारचरित’ का देवनागरी लिपि में लिप्यान्तरण किया है और हिन्दी में इसका सुन्दर अनुवाद भी, अपने आप में प्रशंसनीय कार्य है |.... यों भी तो डॉ. रैणा हिन्दी के माध्यम से कश्मीरी भाषा और साहित्य की सेवा में संलग्न हैं, किंतु मुझे आशा है की वे समय-समय पर कश्मीरी के अनेक अनमोल रत्नों की छटा को प्रतिबिम्वित करने का अपना प्रयास जारी रखेंगे | मैं उनकी सफलता एवं स्वास्थ्य की कामना करता हूँ |”

मेरा जन्म चूंकि एक परम्परावादी हिन्दू ब्राह्मण-परिवार में हुआ, इसलिए ईश्वर के अस्तित्व मैं मेरा अविश्वास कभी नहीं रहा | पर मेरे मन ने यह कभी स्वीकार नहीं किया कि ईश्वर श्रम से बढ़कर है | श्रम के प्रति मेरे अटूट विश्वास ने ही मुझे भाग्यवादी नहीं बनाया हैं | हाँ, जब देखता हूँ कि इस संसार में ऐसे भी अनेक लोग हैं जो श्रम के प्रति उदासीन होते हुए भी सफलताएँ अर्जित कर रहे है तो मन को बड़ी तकलीफ होती है | तब श्रम पर से मेरी आस्था हिल जाती है और मैं न चाहते हुए भी प्रारब्ध, भाग्य, नियति ,कर्मों का फल, पूर्वजन्म के संस्कार आदि जैसी बातों पर विश्वास करने लग जाता हूँ | इसे आप मेरे मन की कमजोरी कह सकते हैं, अगर सच्चाई यही है | ‘कश्मीरी भाषा और साहित्य’ पुस्तक लिखते समय, कश्मीरी रामायण ‘रामावतारचरित’ का सानुवाद लिप्यन्तरण करते समय, कश्मीरी की श्रेष्ठ कहानियों का अनुवाद करते समय, केन्द्रीय सहित्य अकादमी के अंग्रेजी प्रकाशनों ‘ललद्दद’ और ‘हब्बाखातून’ का हिन्दी में अनुवाद करते समय, महजूर की कविताओं को हिन्दी में रूपांतरित करते समय या फिर भरतीय ज्ञानपीठ के लिए कश्मीरी का प्रतिनिधि संकलन तैयार करते समय, मैंने सच में, अपनी आँखों का रक्त पृष्ठों पर उतारा है | मन-मस्तिष्क के एक-एक तंतु को कठोर परिश्रम की यातना से गुजारा है, तब जाकर कहीं सृजन की पीड़ा झेलकर ये पुस्तकें सामने आ सकी हैं | ‘ललद्दद’ के अंग्रेजी से हिन्दी में किए गये अनुवाद को मैं अपनी मेहनत का अनूठा प्रसाद मानता हूँ | जिसने भी उसे पढ़ा, विभोर हो गया | एक समीक्षक ने तो यहाँ तक लिख दिया – “अनुवाद गजब का है | भाषा-शैली पुष्ट एन प्रांजल I हिन्दी के पाठकों के लिए इस दुर्लभ सामग्री को सुलभ करा कर रैणा जी बड़ा पुनीत एवं सार्थक कार्य किया है |.... यह पुस्तक इतिहासविदों, साधकों एवं साहित्यकारों के लिए समान रूप से उपयोगी है | “(प्रकर, दिसंबर, १९८१) ऐसा ही कुछ परम आदरणीय श्री विष्णु प्रभाकर जी ने मेरी अनुवादित/ सम्पादित पुस्तक ‘कश्मीर की श्रेष्ठ कहानियाँ’ (राजपाल एंड संज, दिल्ली) के बारे में लिखा-“कश्मीर की श्रेष्ठ कहानियाँ, की अधिकांश रचनाएँ पढ़ गया | कश्मीरी जीवन को नाना रूपों में रूपायित करती ये कहानियाँ बहुत सुन्दर हैं | सबसे अच्छी बात तो यह है कि ये अनुवाद लगती ही नहीं | मूल भावना भी उतनी ही सुरक्षित रह सकी है ..... मेरी हार्दिक बधाई लें |”

मेरी रचना-यात्रा के साक्षियों में मेरे गुरुजन, सुरुचि-संपन्न मित्र तथा वे सब हितैषी शामिल हैं जिन्होंने सच्चे मन से मेरी साहित्यिक उपलब्धियों पर प्रसन्नता व्यक्त की है | गुरुदेव डॉ. हरिहरप्रसाद गुप्त ने अपने एक पत्र में मुझे इलाहाबाद से लिखा था – “तुम्हारी उपलब्धियों पर मुझे गर्व है | शिष्य द्वारा गुरु को परास्त होते देख अपूर्व आनंद की प्राप्ति हो रही है – आगे बढ़ो और यशस्वी बनो.....|” मेरी जीवन-संगिनी हंसा का भी इस यात्रा में कम योगदान नहीं रहा है | हमारी शादी १४ जून, १९६७ को कश्मीर में हुई | एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में जन्मी मेरी धर्मपत्नी के दादाजी श्री हरभट्ट शास्त्री अपने समय के जाने माने कर्मकांडी, शैवाचार्य तथा संस्कृत के पंडित थे | अपने दादाजी से प्राप्त संस्कारों को अपने व्यक्तित्व में साकार करते हुए मेरी श्रीमती ने मेरे लेखन को मन ही मन आदर की दृष्टि से देखा है | स्वयं साहित्य की प्राध्यापिका होने की वजह से इस सारे कार्य की गुणवत्ता और महत्ता का उसे पूरा अंदाज है | कई-कई बार प्रेस में जाने से पहले मेरी रचनाएँ उसने पढ़ी हैं और बहुमूल्य सुझाव भी दिए हैं | हाँ, मेरी पुस्तकों/फाइलों/कागजों की अस्तव्यस्तता से वह तंग अवश्य हुई है और यही साहित्य के मामले में हमारे बीच छोटी-मोटी टकराहट का मुख्य मुददा रहा है | वह पुस्तकों को करीने से सजाने के पक्ष में रही है और मैं उन्हें ‘घोटने’ के पक्ष में | अध्-खुली किताबें, बेतरतीबी से बिखरे कागज, टेबिल के दाएं-बाएँ किताबों के छोटे-मोटे ढेर और उनके बीच में मैं | सच, मुझे यह सब बहुत अच्छा लगता है | कोई कागज या पत्र कहीं इधर-उधर चला जाए, फाइल कहीं दब जाए, किताब रैक में मिले नहीं- मुझे जाने क्यों उसे ढूँढ निकलने में बड़ा आनंद आता है |

मेरा साहित्यिक अवदान मुख्य रूप से एक अनुवादक के रूप में अधिक है | इसी लिए कई विज्ञ-साथियों ने मेरी साहित्य-सेवा को ‘सेतुकरण’ की संज्ञा दी है | १९९० में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने लखनऊ में मुझे ‘सौहादर्य-सम्मान’ से अलंकृत करते हुए प्रशस्ति पत्र में कुछ ऐसा ही कहा था – “डॉ. शिबनकृष्ण रैणा कश्मीर और हिन्दी भाषियों के बीच एक लक्ष्य प्रतिष्ठित साहित्यप्रेमी, अनुवादक और लेखक के रूप में जाने जाते है |... हिन्दी भाषियों को कश्मीरी साहित्य की ऊचाइयों से परिचित करने के लिए आपने असाधारण मेहनत की और उसकी अनेक रचनाएँ आज उन्हीं की सक्रियता से हिन्दी में उपलक्ष्य हैं | उनकी उल्लेखनीय, विशिष्ट और दीर्घकालीन हिन्दी सेवा और कश्मीरी जैसी आत्मीय भारतीय भाषा को राष्ट्रभाषियों के बीच पहुँचाने में अतुलनीय योगदान के लिए उत्तर-प्रदेश हिन्दी संस्थान उन्हें सौहार्द-सम्मान से सम्मानित करते हुए दस हजार रूपए की धनराशि भेंट करता हैं | यही बात 1983 में ताम्रपत्र प्रदान करते हुए बिहार सरकार के राजभाषा विभाग ने मेरे साहित्यिक अवदान के बारे में कही थी |२०१४ में भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने मुझे सीनियर फ़ेलोशिप(हिंदी) पदान की और २०१५ में भारत सरकार के विधि और न्याय मंत्रालय ने मुझे अपनी ‘हिंदी सलाहकार समिति’ का गैर-सरकारी सदस्य मनोनीत किया I केन्द्रीय हिंदी निदेशालय कि कई समितियों आदि में भी मुझे काम करने का सुअवसर मिला हैI

मैंने अनुवाद को हमेशा मूल के बराबर का ही प्रयास माना है | यह मौलिक सृजन से भी बढकर कष्टसाध्य कार्य है | अपनी पुस्तक ‘कश्मीरी की प्रतिनिधि कहानियाँ ‘(देवदार प्रकाशन, दिल्ली) में ‘ पूर्व-निवेदन’ के अंतर्गत मैंने इसी बात को रेखांकित करते हुए लिखा है – “अनुवाद मौलिक-सृजन से भी बढ़कर एक दुष्कर कार्य है | यह काम इतना जटिल, श्रमसाध्य और विरस है कि इससे होने वाली कोफ्त (यातना) का अंदाज वही लगा सकते हैं जिन्होंने अनुवाद का कार्य किया हो |........ अनुवाद तो, एक तरह से, योगी का परकाया प्रवेश है | वह पुनर्जन्म है, रचना का पुनर्सृजन ! वह द्वितीय श्रेणी का लेखन नहीं, मूल के बराबर का ही प्रयास है | सुन्दर, प्रभावशाली तथा पठनीय अनुवाद के लिए यह आवश्यक है कि अनुवाद भाषा-प्रवाह को कायम रखने के लिए, स्थानीय विम्बों तथा अन्य रूठ-प्रयोगों को बोधगम्य बनाने और वर्ण्य-विषय को अधिक ह्रदय-ग्राही बनाने के लिए मूल रचना में आये में नामक समान फेर-बदल कर वह ऐसा लम्बे-लम्बे वाक्यों को तोड़कर, उनमें संगति बिठाने के लिए उपनी ओर से दो-एक शब्द जोड़कर तथा अर्थ के बदले आशय पर ध्यान देकर, कर सकता है | इस संकलन की कहानियों का अनुवाद करते समय मैंने यही किया है | ऐसा न करता तो अनुवाद ‘अनुवाद’ न होकर ‘सरलार्थ’ बन जाता | मैंने प्रयत्न किया है कि प्रत्येक अनुवादित रचना अपने आप में एक ‘रचना’ का दर्जा प्राप्त करे......|”

पूर्व में कहा जा चुका है कि अनुवाद पिछले लगभग तीस-पैंतीस वर्षों से मेरी रुचि का विषय रहा है। अध्यापन-कार्य के साथ-साथ कश्मीरी, अंग्रेज़, उर्दू आदि भाषाओं से मैंने अनुवाद का काम खूब किया है। चूँकि मेरा कार्य अपनी तरह का पहला कार्य था, इसलिए साहित्य, विशेषकर अनुवाद के क्षेत्र में मुझे प्रतिष्ठा भी यथोचित प्राप्त हुई। अनुवाद-कार्य के दौरन मुझे लगा कि अनुवाद-विधा मौलिक लेखन से भी ज़्याद दुष्कर एवं श्रमसाध्य विधा है। (मैंने कुछ मौलिक कहानियाँ, नाटक आदि भी लिखे हैं) अनुवाद सम्बन्धी अपनी दीर्घकालीन सृजनयात्रा के दौरान मेरा वास्ता कई तरह की कठिनाइयों/समस्याओं से पड़ा जिनसे प्राय: हर अच्छे अनुवादक को जूझना पड़ता है। इन कठिनाइयों एवं समस्याओं के कई आयाम हैं जिन्हें इस प्रबन्ध मे6 यथास्थान‘भाषातत’ एवं ‘अर्थगत’ शीर्षकों के अंतर्गत विस्तार से समझाया गया है।
अनुवाद कार्य के दौरान मुझे लगा कि अपने अनुभवों को साक्षी बनाकर मुझे ऐसी कोई परियोजना हाथ में ले लेनी चाहिए जिसमें अनुवाद के सैद्धांतिक पक्षों की सम्यक् विवेचना हो तथा अनुवादकार्य में आने वाली कठिनाइयों/समस्याओं का विवेचन कर उनके निदान आदि पर भी सार्थक विचार हो। 1997 के प्रारम्भ में मैंने गम्भीरतापूर्वक इस परियोजना के प्रारूप पर विचार करना शुरू किया तथा इसी वर्ष के अंत में विधिवत इस परियोजना को आवश्यक पत्र/प्रपत्रों के साथ ‘भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान’ शिमला को विचारार्थ भिजवा दिया। सभी भारतीय भाषाओं का ज्ञान चूँकि मुझे नहीं था, इसलिए मैंने विषय सीमित कर परियोजना का शीर्षक रखा ‘भारतीय भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद की समस्याएँ: एक तुलनात्मक अध्ययन, कश्मीरी-हिन्दी के विशेष सन्दर्भ में’। एक मई 1999 को मैंने संस्थान में प्रवेश किया। एक नये, सुखद एवं पूर्णतया शांत/अकादमिक वातावरण में कार्य करने का यह मेरा पहला अवसर था जिसकी अनुभूति अपने आप में अद्भुत थी। लगभग ढाई वर्षों की अवधि में मैंने यह कार्य पूरा किया जिसका मुझे परम संतोष है।मेरा यह शोधकार्य संस्थान से प्रकाशित हो चुका हैI

मित्रों का कई बार आग्रह रहा कि मुझे अनुवाद के अलावा कुछ मौलिक भी लखना चाहिए | यह बात शायद वे इस लिए कह रहे थे कि मेरी कारयित्री प्रतिभा में कितनी ऊर्जा और दम है,वे यह देखना चाहते थे| यों, कश्मीरी भाषा, साहित्य, कला,संस्कृति आदि पर मैंने बीसियों शोधपरक/समीक्षात्मक लेख लिखे होंगे जो समय-समय पर देश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं, यथा-‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘सन्मार्ग’(कलकत्ता), ‘जनसत्ता’, ‘परिषद् पत्रिका’, (पटना), ‘शीराज़ा’’, आजकल’, आदि में छपे हैं | पर शायद यह मौलिक लेखन न था | मित्र चाहते थे कि मैं भी कहानियाँ /कविताएँ/ कविताएँ/ नाटक लिखूँ और मात्र ‘अनुवादक’ बन के न रह जाऊँ | मैंने चुनौती स्वीकार कर ली | भीतर मन में छटपटाहट तो थी ही, रचना की भाषा से भी मैंने साक्षात्कार कर लिया था और फिर साहित्य-शास्त्र का अध्येता/प्राध्यापक होने के कारण रचना की सृजन- प्रक्रिया के मूल एवं आवश्यक तत्वों की जानकारी भी मुझे थी | मैंने कहानी लिखने का प्रयास किया | ‘शतरंज का खेल’, ‘मोहपाश’, ‘अन्तराल’, ‘रिश्ते’, आदि मेरी ऐसी स्वरचित कहानियाँ हैं जिन्होंने मुझे और मेरे मित्रों को आश्वस्त कर दिया कि मौलिक सृजन करने की मेरी संभावनाएँ कम नही हैं | ये सभी कहानियाँ आकाशवाणी के जयपुर केंद्र से प्रसारित हो चुकी हैं तथा कुछेक तो ‘जनसत्ता’ ‘राजस्थान पत्रिका’,’शीराज़ा’ आदि में छपी हैं | पाठकों ने इन कहानियों को खूब सराहा | आकाशवाणी जयपुर केंद्र के लिए लिखे मेरे नाटक ‘हब्बाखातून’, ‘प्रे'म और प्रतिशोध,’ खानखानां रहीम’ आदि भी कम लोकप्रिय सिद्ध न हुए | ‘हब्बाखातून’ लिखने और उसके प्रसारित होने के बाद मुझे खुद लगा कि मै अच्छे संवाद लिख सकता हूँ | जिन्होंने भी इस नाटक को सुना, मुझे बधाई दी | मेरी स्वरचित कहानियों का एक संग्रह “मौन संभाषण तथा अन्य कहानियां’ राजस्थान साहित्य अकादमी के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित हो चुका हैI “दिनन के फेर” से एक नाटक-संकलन भी प्रकाशित हुआ हैI 

साहित्य सेवाओं के लिए मुझे केन्द्रीय हिन्दी विदेशालय (भारत सरकार), राजभाषा विभाग (पटना), उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, सिंध राष्ट्रभाषा प्रचार समिति(जयपुर), भारतीय साहित्य संगम (दिल्ली), राष्ट्रभाषा प्रचार समित, श्रीडूंगरगढ (बीकानेर),भारतीय अनुवाद परिषद्,दिल्ली आदि संस्थाओं ने ताम्रपत्रों, प्रशस्तिपत्रों तथा अभिनन्दन-पत्रों आदि से समय-समय पर सम्मानित किया है | दो-एक संस्थाओं ने ‘साहित्यश्री’ तथा ‘साहित्य-वागीश’ जैसी मानद उपाधियाँ भी प्रदान की हैं | सम्मान-प्राप्ति के इन हर्ष-दायक अवसरों के पीछे मेरे मन में अपूर्व आनंद का भाव अवश्य व्याप्त रहा है | दरअसल, सम्मान/पुरुस्कार जड़ता (शैथिल्य) को मिटाता है, मन में नव्य कर्मोत्साह का उदय/संचार करता है | यों सम्मान या पुरस्कार लेखक के लिए साध्य नहीं होते और होने भी नही चाहिए | उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के ‘सौहार्द्र सम्मान’ की सूचना मेरी श्रीमतीजी ने मुझे अल-सुबह स्थानीय दैनिक पढ़कर दी थीI तब मैं शायद सो ही रहा था |

कई साहित्यिक गोष्ठियों एवं सम्मेलनों में भाग लेने के लिए मैंने पिछले चार दशकों में देश के दूरस्थ अंचलों/स्थानों यथा, इम्फाल, वस्कोड़े-गामा, जगन्नाथपुरी, एर्नाकुलम, मद्रास, पयनूर, कटक, बैंगलूर, गुवहाटी, शिलांग, पटना, लखनऊ, उदयपुर, कन्याकुमारी, जलपाई गुडी,शांति-निकेतन.अमृतसर,हरिद्वार आदि जाने कितनी जगहों की यात्राएँ की है | इन यात्राओं से मेरा दृष्टिकोण व्यापक और चिन्तन पुष्ट हुआ है | इसी के साथ अपने देश की वैविध्यपूर्ण संस्कृति और देशवासियों के स्वभाव को भी निकट से दिखने का अवसर मिला है |



स्वर्गीय प्रभाकर माचवे जी ने बहुत पहले मुझे एक पत्र लिखा थे – ‘आप सशक्त लेखनी और उद्यमशील शोध-बुद्धि के मेधावी स्कालर हैं | आप अवश्य कश्मीरी के लिए हिन्दी में बहुत अच्छा कम करेंगे...| माचवे जी की ये पंक्तियाँ मुझे याद दिलाती हैं कि मुझे कश्मीरी के लिए बहुत अच्छा कम करने के अपने प्रयास में कमजोरी नहीं लानी है | आयु के बढ़ने के साथ-साथ घर-परिवार तथा अंदर-बाहर की जिम्मेदारियाँ भी बढती जाती है और लेखन के लिए समय निकाल पाना मुश्किल हो जाता है | फिर भी अपने जीवट पर मुझे विश्वास है | दो कार्य मेरे सामने हैं : - कश्मीरी संत कवि शेख्नूरुद्दीन वली के श्रुवों (पदों) का सानुवाद देवनागरी में लिप्यन्तरण तथा ‘कश्मीरी कहावत-मुहावरा कोश’ का प्रकाशन |