Saturday, May 28, 2022





अनुवाद : स्वरूप और संवेदना















डा० शिबन कृष्ण रैणा





























दो शब्द

अनुवाद पिछले लगभग तीस वर्ष से मेरी रुचि का विषय रहा है। अध्यापन-कार्य के साथ-साथ कश्मीरी, अंग्रेज़, उर्दू आदि भाषाओं से मैंने अनुवाद का काम खूब किया है। चूँकि मेरा कार्य अपनी तरह का पहला कार्य था, इसलिए साहित्य, विशेषकर अनुवाद के क्षेत्र में मुझे प्रतिष्ठा भी यथोचित प्राप्त हुई। अनुवाद-कार्य के दौरन मुझे लगा कि अनुवाद-विधा मौलिक लेखन से भी ज़्याद दुष्कर एवं श्रमसाध्य विधा है। (मैंने कुछ मौलिक कहानियाँ, नाटक आदि भी लिखे हैं) अनुवाद सम्बन्धी अपनी दीर्घकालीन सृजनयात्रा के दौरान मेरा वास्ता कई तरह की कठिनाइयों/समस्याओं से पड़ा जिनसे प्राय: हर अच्छे अनुवादक को जूझना पड़ता है। इन कठिनाइयों एवं समस्याओं के कई आयाम हैं जिन्हें इस प्रबन्ध मे6 यथास्थान ‘भाषातत’ एवं‘अर्थगत’ शीर्षकों के अंतर्गत विस्तार से समझाया गया है।

अनुवाद कार्य के दौरान मुझे लगा कि अपने अनुभवों को साक्षी बनाकर मुझे ऐसी कोई परियोजना हाथ में ले लेनी चाहिए जिसमें अनुवाद के सैद्धांतिक पक्षों की सम्यक् विवेचना हो तथा अनुवादकार्य में आने वाली कठिनाइयों/समस्याओं का विवेचन कर उनके निदान आदि पर भी सार्थक विचार हो। 1997 के प्रारम्भ में मैंने गम्भीरतापूर्वक इस परियोजना के प्रारूप पर विचार करना शुरू किया तथा इसी वर्ष के अंत में विधिवत इस परियोजना को आवश्यक पत्र/प्रपत्रों के साथ ‘भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान’ शिमला को विचारार्थ भिजवा दिया। सभी भारतीय भाषाओं का ज्ञान चूँकि मुझे नहीं था, इसलिए मैंने विषय सीमित कर परियोजना का शीर्षक रखा ‘भारतीय भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद की समस्याएँ: एक तुलनात्मक अध्ययन, कश्मीरी-हिन्दी के विशेष सन्दर्भ में’। एक मई 1999 को मैंने संस्थान में प्रवेश किया। एक नये, सुखद एवं पूर्णतया शांत/अकादमिक वातावरण में कार्य करने का यह मेरा पहला अवसर था जिसकी अनुभूति अपने आप में अद्भुत थी। लगभग ढाई वर्षों की अवधि में मैंने यह कार्य पूरा किया जिसका मुझे परम संतोष है।

संस्थान के पूर्व निदेशक प्रो. मृणाल मिरी एवं वर्तमान निदेशक प्रो. विनोदचन्द्र श्रीवास्तव दोनों के प्रति मैं आभारी हूँ जिन्होंने इस कार्य को पूरा करने में मेरी हर संभव सहायता की। स्वयं अनुवाद-प्रेमी होने के कारण प्रो. श्रीवास्तव ने मेरे कर्मोत्साह को खूब बढ़ाया और मार्गदर्शन भी किया।

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विषय-प्रवेश प्रवेश
अनुवादकर्म राष्ट्रसेवा का कर्म है। यह अनुवादक ही है जो दो संस्कृतियों, राज्यों, देशों एवं विचारधाराओं के बीच 'सेतु' का काम करता है। और तो और यह अनुवादक ही है जो भौगोलिक सीमाओं को लांघकर भाषाओं के बीच सौहार्द, सौमनस्य एवं सद्भाव को स्थापित करता है तथा हमें एकात्मकता एवं वैश्वीकरण की भावनाओं से ओतप्रोत कर देता है। इस दृष्टि से यदि अनुवादक को समन्वयक, मध्यस्थ, संवाहक, भाषायी-दूत आदि की संज्ञा दी जाए तो कोई अत्युक्ति न होगी। कविवर बच्चन जी, जो स्वयं एक कुशल अनुवादक रहे हैं, ने ठीक ही कहा है कि अनुवाद दो भाषाओं के बीच मैत्री का पुल है। वे कहते हैं-"अनुवाद एक भाषा का दूसरी भाषा की ओर बढ़ाया गया मैत्री का हाथ है। वह जितनी बार और जितनी दिशाओं में बढ़ाया जा सके, बढ़ाया जाना चाहिए .।" (साहित्यानुवाद: संवाद और संवेदना, पृ० 85)

इससे पूर्व कि अनुवाद के स्वरूप, उसके महत्त्व, आदर्श अनुवादक के गुण, अनुवादप्रक्रिया, अनुवाद-कार्य में आने वाली कठिनाइयों आदि पर विचार किया जाए, अनुवाद की विकासयात्रा पर, संक्षेप में, चर्चा करना अनुचित न होगा। भाषा के आविष्कार के बाद जब मानव समाज का विकास-विस्तार होता चला गया और सम्पर्कों एवं आदान-प्रदान की प्रक्रिया को अधिक फैलाने की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी, तो अनुवाद ने जन्म लिया। प्रारम्भ में अनुवाद की परम्परा निश्चित रूप से मौखिक ही रही होगी। इतिहास साक्षी है कि प्राचीन काल में जब एक राजा दूसरे राजा पर आक्रमण करने को निकलता था, तब अपने साथ ऐसे लोगों को भी साथ लेकर चलता था जो दुभाषिए का काम करते थे। यह अनुवाद का आदिम रूप था। साहित्यिक-गतिविधि के रूप में अनुवाद को बहुत बाद में महत्त्व मिला। दरअसल, अनुवाद के शलाकापुरुष वे यात्री रहे हैं, जिन्होंने देशाटन के निमित्त विभिन्न देशों की यात्राएँ कीं और जहाँ-जहाँ वे गये, वहाँ-वहाँ की भाषाएँ सीखकर उन्होंने वहाँ के श्रेष्ठ ग्रंथों का अपनी-अपनी भाषाओं में अनुवाद किया। चौथी शताब्दी के में उत्तरार्द्ध में फाहियान नामक एक चीनी यात्री ने 25 वर्षों तक भारत में रहकर संस्कृत भाषा, culture which is still binding the varied people of the whole India, from Kashmir to Cape-comorin and Kutch to Assam. अर्थात् "राजनीतिक तथा अन्य प्रकार के उलट फेरों के होते हुए भी भगवती गंगा के समान पवित्र एवं शाश्वत हमारी भारतीय संस्कृति का रेशमी धागा आज भी कश्मीर से कन्याकुमारी तक तथा कच्छ से असम तक इस देश के भिन्न-भिन्न लोगों को एकसूत्र में बाँधे हुए है। "

आज देश के सामने यह प्रश्न चुनौती बनकर खड़ा है कि बहुभाषाओं वाले इस देश की साहित्यिक-सांस्कृतिक धरोहर को कैसे अक्षुण्ण रखा जाए? देशवासी एक-दूसरे के निकट आकर आपसी मेलजोल और भाईचारे की भावनाओं को कैसे आत्मसात करें? वर्तमान परिस्थितियों में यह और भी आवश्यक हो जाता है कि देशवासियों के बीच सामंजस्य और सद्भाव की भावनाएँ विकसित हों ताकि प्रत्यक्ष विविधता के होते हुए भी हम अपनी सांस्कृतिक समानता एवं सौहार्दता के दर्शन कर अनेकता में एकता की संकल्पना को मूर्त्त रूप प्रदान कर सकें। भाषायी सद्भावना इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। सभी भारतीय भाषाओं के बीच सद्भावना का माहौल बने, वे एक-दूसरे से भावनात्मक स्तर पर जुड़ें और उनमें पारस्परिक आदान-प्रदान का संकल्प दृढ़तर हो, यही भारत की भाषायी सद्भावना का मूलमन्त्र है। इस पुनीत एवं महान् कार्य के लिए सम्पर्कभाषा हिन्दी के विशेष योगदान को हमें स्वीकार करना होगा। यही वह भाषा है जो सम्पूर्ण देश को एकसूत्र में जोड़कर राष्ट्रीय एकता के पवित्र लक्ष्य को साकार कर सकती है। स्वामी दयानन्द ने ठीक ही कहा था, "हिन्दी के द्वारा ही सारे भारत को एकसूत्र में पिरोया जा सकता है।" यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि हिन्दी को ही भाषायी सद्भावना की संवाहिका क्यों स्वीकार किया जाए? कारण स्पष्ट है। हिन्दी आज एक बहुत बड़े भू-भाग की भाषा है। इसके बोलने वालों की संख्या अन्य भारतीय भाषा-भाषियों की तुलना में सर्वाधिक है। लगभग 50 करोड़ व्यक्ति यह भाषा बोलते हैं। इसके अलावा अभिव्यक्ति, रचना-कौशल, सरलता-सुगमता एवं लोकप्रियता की दृष्टि से भी वह एक प्रभावशाली भाषा के रूप में उभर चुकी है और उत्तरोत्तर उसका प्रचार-प्रसार बढ़ता जा रहा है। अत: देश की भाषायी सद्भावना एवं एकात्मकता के लिए हिन्दी भाषा के बहुमूल्य महत्त्व एवं वर्चस्व को हमें स्वीकार करना होगा। "

भाषायी सद्भावना की जब हम बात करते हैं तो 'अनुवाद' की तरफ हमारा ध्यान जाना स्वाभाविक है। दरअसल, अनुवाद वह साधन है जो 'भाषायी सद्भावना' की अवधारणा को न केवल पुष्ट करता है अपितु भारतीय साहित्य एवं अस्मिता को गति प्रदान करने वाला एक सशक्त और आधारभूत माध्यम है। यह एक ऐसा अभिनन्दनीय कार्य है जो भारतीय साहित्य की अवधारणा से हमें परिचित कराता है तथा हमें सच्चे अर्थों में भारतीय बनाकर क्षेत्रीय संकीर्णताओं एवं परिसीमाओं से ऊपर उठाकर' भारतीयता' से साक्षात्कार कराता है। देश की साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत के दर्शन, अनुवाद से ही संभव है। आज यदि



सुब्रह्मण्य भारती, महाश्वेता देवी, उमाशंकर जोशी, विजयदान देथा, कुमारन् आशान्, वल्लत्तोल, ललाद, हब्बाखातून, सीताकान्त महापात्र, टैगोर आदि भारतीय भाषाओं के इन यशस्वी लेखकों की रचनाएँ अनुवाद के ज़रिए हम तक नहीं पहुँचती, तो भारतीय साहित्य सम्बन्धी हमारा ज्ञान कितना सीमित, कितना क्षुद्र होता, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।



पूर्व में कहा जा चुका है कि विविधताओं से युक्त भारत जैसे बहुभाषा-भाषी देश में एकात्मकता की परम आवश्यकता है और अनुवाद साहित्यिक धरातल पर इस आवश्यकता की पूर्ति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने में सक्षम है। अनुवाद वह सेतुबन्ध है जो साहित्यिक आदान-प्रदान, भावनात्मक एकात्मकता, भाषा-समृद्धि, तुलनात्मक अध्ययन तथा राष्ट्रीय सौमनस्य की संकल्पनाओं को साकार कर हमें वृहत्तर साहित्य-जगत् से जोड़ता है। डॉ॰ जी॰ गोपीनाथ लिखते हैं-"भारत जैसे बहुत भाषा-भाषी देश में अनुवाद की उपादेयता स्वयंसिद्ध है। भारत के विभिन्न प्रदेशों के साहित्य में निहित मूलभूत एकता के स्वरूप को निखारने (दर्शन करने) के लिए अनुवाद ही एकमात्र अचूक साधन है। इस तरह अनुवाद द्वारा मानव की एकता को रोकने वाली भौगोलिक और भाषायी दीवारों को ढहाकर विश्वमैत्री को और भी सुदृढ़ बना सकते हैं।

आने वाली शताब्दी अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृति की शताब्दी होगी और सम्प्रेषण के नये-नये माध्यमों व आविष्कारों से वैश्वीकरण के नित्य नये क्षितिज उद्घाटित होंगे। इस सारी प्रक्रिया में अनुवाद की महती भूमिका होगी। इससे "वसुधैव कुटुम्बकम्" की उपनिषदीय अवधारणा साकार होगी। इस दृष्टि से सम्प्रेक्षण-व्यापार के उन्नायक के रूप में अनुवादक एवं अनुवाद की भूमिका निर्विवाद रूप से अति महत्त्वपूर्ण सिद्ध होती है। में

अनुवाद एक दुष्कर कर्म है। इस काम को करने में जो कोफ्त होती है, उसका अन्दाज़ वही लगा सकते हैं जिन्होंने अनुवाद का काम किया हो। कई तरह की समस्याएँ इसे मौलिक सृजन से भी बढ़कर एक श्रमसाध्य और कठिन रचना-प्रक्रिया का रूप प्रदान करती हैं। रिचर्ड्स का यहाँ तक कहना है कि "ब्रह्माण्ड में अनुवाद सबसे जटिल कार्यों में से एक है"" अनुवाद के लिए मात्र दो भाषाओं का ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं होता, अपितु दो भाषाओं की विशिष्टताओं, व्यवस्थाओं, अर्थभेद, समतुल्य भाषिक प्रतीकों की स्थिति के साथ-साथ उन भाषायी क्षेत्रों के भौगोलिक परिवेश, सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों, ऐतिहासिक परम्पराओं आदि की जानकारी होना ही नितान्त आवश्यक है। इससे पूर्व कि भारतीय भाषाओं से हिन्दी में, विशेषकर कश्मीरी से हिन्दी में अनुवाद की समस्या पर विचार किया जाए, उचित यह होगा कि सर्वप्रथम अनुवाद की प्रकृति, यथा-उसके अर्थ, परिभाषा, महत्त्व आदि पर सम्यक् विचार किया जाए। विवेचन की सुविधा की दृष्टि से अनुवाद सम्बन्धी उन महत्वपूर्ण धारणाओं का विश्लेषण अपेक्षित है जो संस्कृत, अंग्रेज़ी व हिन्दी के विद्वानों ने अनुवाद के सम्बन्ध में प्रस्तुत की हैं।

अनुवाद: अर्थ, परिभाषा, महत्त्व आदि

संस्कृत मत

'अनुवाद' शब्द 'वद्' धातु से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है 'बोलना'। 'वद्' धातु में 'घ' प्रत्यय जुड़ने तथा अनु उपसर्ग लगने से अनुवाद शब्द बना है। अनु' पीछे', 'बाद में', 'पुनः' आदि के अर्थ का द्योतक है। इस प्रकार अनुवाद का मूल अर्थ है पुन:कथन या पूर्वकथित बात का उल्लेख।

शब्दकल्पद्रुम में अनुवाद शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ इस प्रकार निर्दिष्ट है:

अनुवाद: पु. + (अनु+वद्+घञ) पुनरुक्तिः। उक्तस्य पुनः कथ्थनं।' संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में अनुवाद को इस प्रकार परिभाषित किया गया है:

"अनुवाद-(पुं.) अनु+वद्+घञ। पुनरुक्ति। व्याख्या करने के लिए या उदाहरण देने के लिए अथवा पुष्ट करने के लिए किसी अंश को बार-बार पढ़ना। किसी ऐसे विषय का, जिसका निरूपण हो चुका हो, व्याख्या रूप में या प्रमाण रूप में पुन:-पुन: कथन, समर्थन। सूचना, भाषान्तर, उल्था, तर्जुमा।'s

संस्कृत की उपर्युक्त परिभाषाओं से 'अनुवाद' शब्द का अर्थ 'दुहराना', 'पुन:कथन', 'आवृत्ति', 'समर्थन' आदि सिद्ध होता है। ध्यान से देखा जाए तो इनमें से कोई भी अर्थ आज के अनुवाद शब्द का सही अर्थ प्रतिपादित नहीं करता। यों ये अर्थ 'अनुवाद' के आज के प्रचलित अर्थ से ज़्यादा दूर भी नहीं कहे जा सकते। 'अनुवाद' वास्तव में, पुन:कथन ही है और आज के सन्दर्भ में वह किसी के कथन का 'पुन:कथन' है। मोटे तौर पर वह एक भाषा में कही गई बात का किसी दूसरी भाषा में पुन:कथन है और उसका यही अर्थ आज सर्वप्रचलित है।"

अंग्रेजी मत

अंग्रेजी में अनुवाद के लिए 'ट्रांसलेशन' शब्द प्रचलित है। एन एटिमालॉजिकल डिक्शनरी ऑफ द इंग्लिश लैंग्वेज कोश में इस शब्द की व्युत्पत्ति व अर्थ इस प्रकार दिये गये हैं:? ट्रांसलेट : टु ट्रांसफर, मूव टु अनदर प्लेस, टु टेंडर इन टु अनदर लैंग्वेज।

ट्रांस : (ले.) अक्रास

लेटअस : (ले.) कैरिड, बोर्न । ....

अंग्रेजी के एक अन्य कोश द ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ऑफ इंग्लिश एटिमालॉजी में इस शब्द का अर्थ इस प्रकार दिया गया है:

ट्रांसलेट : (अ) रिमूव फ्राम वन प्लेस टु अनदर।

(ब) टर्न फ्रामं वन लैंग्वेज इन टु अनदर।

संक्षेप में, ट्रांस का अर्थ है 'पार' और 'लेट्स' का अर्थ है-'ले जाना'। इस प्रकार 'ट्रासलेट' का अर्थ हुआ ' पार ले जाने की क्रिया'। भाषा के संदर्भ में 'ट्रांसलेट' से अभिप्राय है एक भाषा का पाठ दूसरी भाषा में ले जाना।

ऑक्सफोर्ड अंग्रेजी शब्दकोश में लगभग यही बात कही गई है":

ट्रांसलेट : एक्सप्रेस द सेन्स ऑफ (वर्ड सेन्टेन्स, बुक) इन और इन टु अनदर लैंग्वेज (एज ट्रांसलेटिड होमर इनटु इंग्लिश फ्राम द ग्रीक)। अनुवादविज्ञानी श्री जे०सी० कैटफोर्ड ने अनुवाद की जो परिभाषा दी है, वह द्रष्टव्य है-" अनुवाद एक भाषा की मूलपाठ सामग्री (सो. भा) का दूसरी भाषा (ल.भा.) में समानार्थक सामग्री का स्थानापन्न है। ""

डॉ० सेमुअल जॉनसन के अनुसार, एक भाषा से दूसरी भाषा में भावार्थ का परिवर्तन ही अनुवाद है। इसी क्रम में प्रसिद्ध विद्वान् नाइडा का कथन है-"अनुवाद का सम्बन्ध प्रथम अर्थ में और दूसरे शैली में स्त्रोत भाषा के सन्देश का लक्ष्य भाषा में निकटतम, स्वाभाविक तथा समतुल्य सामग्री प्रस्तुत करने से है।" (To translate is to change into another language retaining the sense)

अनुवाद सम्बन्धी उपर्युक्त अंग्रेजी परिभाषाओं से सिद्ध होता है कि अनुवाद मुख्य रूप से एक भाषा के मूलपाठ का दूसरी भाषा में अन्तरण है।

हिन्दी मत

हिन्दी में अनुवाद शब्द के अनेक पर्यायवाची मिलते हैं, यथा-भाषान्तर, रूपान्तर, उल्था आदि। भारतीय भाषाओं में अनुवाद के लिए अनुवाद व अन्य पर्याय मिलते हैं, जैसेअनुवाद (असमिया), अनुवाद, तर्जुमा (बंगला), अनुवाद (गुजराती), भाषान्तर, अनुवाद (कन्नड़), तर्जमअ (कश्मीरी), विवर्तनम्, तर्जुमा (मलयालम), भाषान्तर (मराठी), अनुवाद (उड़िया), अनुवाद (पंजाबी), तर्जमो, अनुवाद (सिन्धी), अनुवादम (तेलुगु), तर्जमा (उर्दू) आदि।"



हिन्दी शब्दकोशों में 'अनुवाद' का वही अर्थ दिया गया है जो संस्कृत कोशों में दर्ज है। मानक हिन्दी कोष के प्रथम खण्ड में अनुवाद शब्द की व्युत्पति/अर्थ इस प्रकार दिया गया



अनुवाद: पुं. (सं. अनु+ वद्+ घञ प्रत्यय)



(1) किसी को कही हुई बात फिर से कहना (दोहराना)



(2) तर्कशास्त्र में ऐसी बात बार-बार या कई रूपों में कहना जो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बिल्कुल ठीक हो।



(3) एक भाषा में लिखी हुई चीज़ या कही हुई बात को दूसरी भाषा में कहने या लिखने की क्रिया। भाषान्तर, उल्था, तर्जुमा 112

हिन्दी शब्द सागर में 'अनुवाद' का अर्थ यों दिया गया है:



(1) पुनरुक्ति, पुनः कथन, दोहराना।



(2) भाषान्तर, उल्था, तर्जुमा।"



प्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक डॉ० भोलानाथ तिवारी ने अनुवाद की परिभाषा भाषावैज्ञानिक तरीके से इस प्रकार दी है-'" भाषा ध्वन्यात्मक प्रतीकों की व्यवस्था है और अनुवाद है इन्हीं प्रतीकों का प्रतिस्थापन अर्थात् एक भाषा के प्रतीकों के स्थान पर दूसरी भाषा के निकट (कथनत: और कथ्यतः) समतुल्य और सहज प्रतीकों का प्रयोग।''''



** अनुवाद-चिंतक श्री आनंद प्रकाश खेमाणी ने अनुवाद को यों परिभाषित किया हैअनुवाद वह प्रक्रिया है जिसमें समानार्थी शब्दों के माध्यम से एक भाषा में व्यक्त किये गये विचारों को यथासंभव, यथातथ्य रूप में दूसरी भाषा में स्थानान्तरित किया जाता है।

डॉ० आदिनाथ सोनटके अनुवादकर्म को मौलिक सृजनात्मक कर्म के सन्निकट मानते हुए उसकी परिभाषा यों करते हैं: "निष्कर्षत: अनवाद मूल की रसाभिव्यक्ति, भावाभिव्यक्ति, अर्थाभिव्यक्ति, शैली सम्प्रेषण, संस्कृति प्रतिबिम्बन की निकटतम समतुल्य और सहज प्रति-प्रतीकन की नवसर्जनात्मक चैतन्यशील प्रक्रिया है। ''""

ऊपर अनुवाद सम्बन्धी संस्कृत, अंग्रेज़ी एवं हिन्दी परिभाषाओं का उल्लेख किया गया है। इन परिभाषाओं का सम्यक विश्लेषण करने के उपरान्त यह निष्कर्ष सामने आता है कि 'अनुवाद' 'अनु+वद' से विकसित हुआ शब्द है जिसका अर्थ है, पुन:कथन या दोहराना। वर्तमान सन्दर्भ में अनुवाद से तात्पर्य है एक भाषा में कहे गये भाव या विचार को, उसी प्रभावी ढंग से दूसरी भाषा में कहना या लिखना। भाषावैज्ञानिक दृष्टि से अनुवाद का मतलब है एक भाषा की ध्वन्यात्मक प्रतीक-योजना को दूसरी भाषा की समतुल्य ध्वन्यात्मक-प्रतीक योजना में ढालना या प्रतिस्थापित करना ।

कुल मिलाकर एक भाषा में कहे गए मन्तव्य को पूर्ण सावधानी एवं एकाग्रता के साथ दूसरी भाषा में मूल की आत्मा की रक्षा करते हुए कहना/लिखना अनुवाद है।

अनुवाद का महत्त्व

पूर्व में कहा जा चुका है कि अनुवाद राष्ट्र एवं साहित्य-सेवा का एक अभिनन्दनीय कर्म है और उसका महत्त्व निर्विवाद रूप से असंदिग्ध है। संचार माध्यमों के उत्तरोत्तर विकास, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में हो रही नित्य-नवीन प्रगति, विश्वबन्धुत्व की सुदृढ़ता की संकल्पना आदि के लिहाज़ से इस कर्म का विशिष्ट महत्त्व सदैव रहा है और रहेगा। भारत जैसे बहुभाषी देश के लिए अनुवादकर्म के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता। यह कार्य न केवल दो भाषाओं की भावधाराओं या दो जातीय संस्कृतियों को परस्पर जोड़ता है, अपितु उनमें अन्तर्निहित सांस्कृतिक/साहित्यिक सूत्रों को एकात्मकता अथवा विविधता को भी

उजागर करता है। वस्तुतः अनुवाद वह साधन है जिसके द्वारा दो भाषाओं की सांस्कृतिक चेतनाओं, जीवन पद्धतियों एवं विचारधाराओं को एक दूसरे के निकट ला कर राष्ट्रीय एकता के पुनीत संकल्प को पुष्ट किया जा सकता है। अनेकता में एकता के भाव को चरितार्थ करने में अनुवाद की विशिष्ट भूमिका से इन्कार नहीं किया जा सकता।

अनुवाद का क्षेत्र बहुविस्तृत है। भूमंडल पर साहित्य, कला, प्रौद्योगिकी, चिकित्साशास्त्र, अर्थशास्त्र, धर्म-दर्शन, अर्थशास्त्र, समाजविज्ञान, राजनीतिकविज्ञान, गणित आदि ज्ञानविज्ञान के इन क्षेत्रों में जो उल्लेखत्तीय प्रगति हुई है उसका विवरण हम तक अनुवाद के माध्यम से ही पहुँचता है/पहुँच रहा है/पहुँच सकता है। इन सभी क्षेत्रों में अनुवाद का सबसे बड़ा योगदान साहित्य के क्षेत्र में है। प्रस्तुत प्रबन्ध में मुख्य रूप से, साहित्य-अनुवाद से सम्बन्धित विचारणाओं एवं उससे जुड़ी समस्याओं का अध्ययन करना ही अभीष्ट है।

आज जब हमारे देश में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त हो चुका है तथा सम्पर्क भाषा के रूप में वह देश के विभिन्न प्रदेशों के बीच सम्प्रेषण एवं वैचारिक आदान-प्रदान का एक सशक्त माध्यम बन चुकी है, आवश्यकता इस बात की है कि सभी भारतीय भाषाओं में रचित सुरुचिपूर्ण एवं पठनीय/श्रेष्ठ साहित्य को हिन्दी अनुवाद द्वारा प्रकाश में लाकर देश में साहित्यिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान का एक सौमनस्यपूर्ण माहौल तैयार किया जाए। इस दिशा में सुन्दर प्रयास हुए हैं और हो रहे हैं। विभिन्न भारतीय भाषाओं से हिन्दी में हुए अनुवादकार्य के फलस्वरूप जो कठिनाइयाँ/समस्याएँ अनुवादकों को पेश आई हैं या आती हैं, उनका वर्णन यथास्थान आगे किया जाएगा। यहाँ पर साहित्य-अनुवाद के महत्त्व पर और विचार करना अनुचित न होगा।



अनुवाद के महत्त्व को रेखांकित करते हुए हिन्दी विद्वान् श्री रामचन्द्र वर्मा लिखते हैं अनुवादों की सहायता से पाठकों का ज्ञान बढ़ता है और उनकी आँखें खुलती हैं। वे देखते हैं कि अन्यान्य भाषा-भाषी कैसे अच्छे-अच्छे स्वतंत्र तथा मौलिक ग्रन्थ लिखते हैं और उन्हें देखकर उनमें भी मौलिक ग्रन्थ लिखने की स्पर्धा उत्पन्न होती है, जिससे स्वतंत्र साहित्य के निर्माण में बहुत सहायता मिलती है ... 17

श्री वर्मा आगे लिखते हैं: आधुनिक युग में तो अनुवाद का महत्त्व और भी अधिक बढ़ गया है और अनुवाद कार्य की गिनती भी कला में होने लगी है। आधुनिक स्वतंत्र भारत में एकता स्थापन में उसका स्थान महत्त्वपूर्ण माना जाने लगा है और वह संस्कृति के प्रसार तथा समृद्धि का बहुत बड़ा साधन बन गया है। जो सीमायें देशों और समाजों को एक-दूसरे से अलग करती हैं, उन्हें तोड़कर सब को एक करने और विविधता में एकता लाने का यह बहुत बड़ा साधन समझा जाने लगा है। "

तुलनात्मक अध्ययन, साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं भाषिक आदान-प्रदान आदि की दृष्टि से अनुवाद का महत्त्व यथेष्ट है। यहाँ पर, संक्षेप में इन बिन्दुओं पर विचार करना अनुचित न होगा।

तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से महत्त्व

तुलनात्मक अध्ययन मानव के सीमित ज्ञान को एक आयाम देता है तथा वह अपने देश, काल, भाषा एवं व्यक्तिगत अहं को त्याग कर निर्लिप्त भाव से मानव-मूल्यों को परखने लगता है। पाश्चात्य विचारक एवं विद्वान् मैक्समूलर ने स्पष्टतया कहा है कि "सभी प्रकार के उच्चतर ज्ञान का उपार्जन तुलना से हुआ है और वह तुलना पर ही आश्रित है" "



भारतीय साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन के सन्दर्भ में अनुवाद की महत्ता स्वयंसिद्ध है। पाठक या शोधकर्त्ता एक साथ कई भाषाओं का ज्ञाता नहीं हो सकता। दो या दो से अधिक भाषाओं के साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए उसे अनुवाद की ही शरण में जाना पड़ता है। आज देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों के भाषा-विभागों में तुलनात्मक अध्ययन की सुविधा उपलब्ध है और वह अध्ययन मुख्यतः उस आधारभूत सामग्री पर आधारित है जो अनुवाद के माध्यम से विद्यार्थियों/शोधकर्मियों तक पहुँचती है। इस सम्बन्ध में डॉ० सी०एच० रामुलु के विचार उल्लेखनीय हैं: "विश्वविद्यालयों में हिन्दी में अनुवाद को तुलनात्मक अध्ययन का अनिवार्य अंग मानने की नितान्त आवश्यकता है। इससे अनुवाद का दायित्व बढ़ जायेगा। यदि विश्वविद्यालयों और शोध-संस्थाओं में उत्तम कोटि का तुलनात्मक अनुसंधान करना हो, तो अनुवाद भी उत्तम होना चाहिए.. ।' 1920)



साहित्यिक-सांस्कृतिक एवं भाषिक आदान-प्रदान की दृष्टि से महत्त्व



देश की साहित्यिक-सांस्कृतिक एकता को पुष्ट करने तथा देशवासियों में एकात्मकता का भाव जगाने में अनुवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। भारत की विभिन्न भाषाओं के साहित्य में अभिव्यक्त भावधाराओं, जीवन शैलियों, विचार-पद्धतियों आदि से परिचित कराने में अनुवाद एक उपयोगी साधन है। अपने महत्त्वपूर्ण निबन्ध "भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता" में डॉ० नगेन्द्र ने लिखा है: "भारतीय वाङ्मय भारतीय भाषाओं में अभिव्यक्त एक ही विचार है। भारत के विभिन्न साहित्यों में विद्यमान समान तत्त्वों एवं प्रवृत्तियों का विधिवत अध्ययन पहली आवश्यकता है। भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए सांस्कृतिक एकता का आधार अनिवार्य है और सांस्कृतिक एकता का स्थायी आधार है साहित्य। इस अन्तःसाहित्यिक शोध प्रणाली के द्वारा अनेक लुप्त कड़ियाँ अनायास ही मिल जाएंगी, अगणित जिज्ञासाओं का सहज ही समाधान हो जाएगा और उधर भारतीय चिंतनधारा एवं रागात्मक चेतना की अखंड एकता का उद्घाटन हो सकेगा " |



ध्यान से देखा जाए तो भारतीय साहित्य एक इकाई है और उसका समेकित अस्तित्व है जो भारतीय जीवन, संस्कृति और कला में अन्तर्व्याप्त एकता के सूत्रों को अभिव्यक्त करता है। अनुवाद द्वारा इन सूत्रों का रेखांकन बड़े ही सुन्दर और प्रभावी ढंग से किया जा सकता

साहित्यिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान की दृष्टि से अनुवादकर्म की उपयोगिता पर आचार्य नंददुलारे वाजपेयी के विचार उल्लेखनीय हैं। वे साहित्यिक सौहार्द एवं राष्ट्रीय चेतना के विकास के लिए अनुवाद को एक सशक्त साधन मानते हैं। वे कहते हैं: "उत्तम प्रकार की साहित्यिक कृतियों का प्रकाशन और अनुवाद आपको उत्तर भारत में भी अधिक महत्त्व देगा। इस प्रकार उत्तर भारत की हिन्दी की कृतियाँ मलयालम और अन्य भाषाओं में पढ़ी जाएंगी और अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के साहित्य से हिन्दी भाषी भी परिचित होंगे। ''22



आदान-प्रदान की प्रक्रिया एक चिरन्तन प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया भौगोलिक सीमाओं को लांघकर एकात्मकता की ओर प्रवृत्त होती है। इससे व्यक्ति में नया सीखने एवं आत्मसात् करने की इच्छा जागती है। "इस प्रक्रिया से ही मनुष्य सुसंस्कृत, सुबुद्ध एवं समृद्ध हो सकता है। भाषा के क्षेत्र में भी इस प्रक्रिया का कम महत्त्व नहीं है। प्रत्येक भाषा की अपनी सीमाएँ होते हुए भी कोई भी भाषा अपने आपको सीमाबद्ध नहीं कर सकती। अनेकानेक दिशाओं से तथा स्त्रोतों से वह प्रभावित होती रहती है। अनुवाद के प्रवाह से भाषिक समृद्धि होती है। अनुवाद के माध्यम से नये शब्दों का प्रवेश होकर शब्द-सम्पदा में वृद्धि होती है। नये शब्द जैसे-जैसे व्यवहत होते जाते हैं, वे उसी भाषा का अभिन्न अंग बन जाते हैं। भाषा की अभिव्यंजना क्षमता समृद्ध करने के लिए अनुवाद महत्त्वपूर्ण उपादान है''123



कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि साहित्यिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान, भाषिक समृद्धि, वैचारिक समन्वयन आदि के लिए अनुवाद एक अति महत्त्वपूर्ण विधा है।



मौलिक सृजन और अनुवाद



अनुवाद को मौलिक सृजन की कोटि में रखा जाय या नहीं, यह बात हमेशा चर्चा का विषय रही है। अनुवादकर्म में रत अध्यवसायी अनुवादकों का मत है कि अनुवाद दूसरे दर्जे का लेखन नहीं, अपितु मूल के बराबर का ही सृजनधर्मी प्रयास है। बच्चन जी के विचार इस संदर्भ में द्रष्टव्य हैं-'मैं, अनुवाद को यदि मौलिक प्रेरणाओं से एकात्मक होकर किया गया हो, मौलिक सृजन से कम महत्त्व नहीं देता। अनुभवी ही जानते हैं कि अनुवाद मौलिक सृजन से अधिक कितना कठिन-साध्य होता है। मूल कृति से रागात्मक सम्बन्ध जितना अधिक होगा, अनुवाद का प्रभाव उतना ही बढ़ जायगा। वस्तुत: सफल अनुवादक वही है जो अपनी दृष्टि भावों/कथ्य/आशय पर रखे। साहित्यानुवाद में शाब्दिक अनुवाद सुन्दर नहीं होता। एक भाषा का भाव या विचार जब अपने मूल भाषा-माध्यम को छोड़कर दूसरे भाषा-माध्यम से एकात्म होना चाहेगा तो उसे अपने अनुरूप शब्दराशि संजोने की छूट देनी ही होगी। यहीं पर अनुवादक की प्रतिभा काम करती है और अनुवाद मौलिक सृजन की कोटि में आ जाता है।" (साहित्यानुवाद, संवाद और संवेदना, पृ० 85) मेरा भी यही मानना है कि अनुवाद एक तरह से पुनस्सृजन ही है और साहित्यिक अनुवाद में अनुवाद को

स्वीकार्य/पठनीय बनाने के लिए हल्का-सा फेरबदल करना ही पड़ता है।



यहाँ पर अपने मत की पुष्टि में दो-एक उदाहरण देना अनुचित न होगा। अंग्रेज़ी का एक वाक्य है: Small insects are crawling on the floor हिन्दी में इस वाक्य का अनुवाद यों हो सकता है-1. छोटे कीड़े फर्श पर रेंग रहे हैं। 2. छोटे-छोटे कीड़े फर्श पर रेंग रहे हैं। पहला अनुवाद शब्दानुवाद कहलाएगा और दूसरा साहित्यिक या भावानुवाद। दूसरा उदाहरण लें: Small leaves are falling from the tree. हिन्दी में इस वाक्य का अनुवाद इस तरह से हो सकता है-1. छोटे पत्ते वृक्ष/पेड़ से गिर रहे हैं। 2. नन्हीं पत्तियाँ वृक्ष/पेड़ से गिर रही हैं। 3. नन्हीं-नन्हीं पत्तियाँ पेड़/वृक्ष से गिर रही हैं। इन तीनों वाक्यों में पहला शब्दानुवाद, दूसरा भाव/साहित्यिक अनुवाद तथा तीसरा सृजनात्मक अनुवाद कहलाएगा। हिन्दी अनुवादों के उक्त विभिन्न रूपों में अंग्रेज़ी के प्रथम वाक्य का दूसरा रूप तथा दूसरे वाक्य का तीसरा रूप अपेक्षाकृत अधिक सुन्दर/सजीव बन पड़ा है। 'छोटे' व 'नन्हीं' की पुनरुक्ति ने अनुवाद के सौन्दर्य को निश्चित रूप से बढ़ाया है। मूलपाठ में यद्यपि इन दो शब्दों की पुनरावृत्ति नहीं थी, क्योंकि अंग्रेज़ी भाषा की यह प्रकृति नहीं है, मगर हिन्दी अनुवाद में अतिरिक्त शब्द जोड़ देने से अनुवाद में कलात्मकता के साथ-साथ स्वाभाविकता खूब आ गई है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि साहित्यिक अनुवादों में सृजनात्मक तत्व की खासी भूमिका रहती है।



अनुवाद एक श्रमसाध्य और कठिन रचना-प्रक्रिया है। वह मूल रचना का अनुकरण मात्र नहीं वरन् पुनर्जन्म होता है। वह द्वितीय श्रेणी का लेखन नहीं, मूल के बराबर का ही दमदार प्रयास है। इस दृष्टि से मौलिक सृजन और अनुवाद की प्रक्रिया प्राय: एकसमान है। दोनों के भीतर अनुभूति पक्ष की सघनता रहती है। अनुवादक जब तक कि मूल रचना की अनुभूति, आशय और अभिव्यक्ति के साथ तदाकार नहीं हो जाता तब तक सुन्दर एवं पठनीय अनुवाद की सृष्टि नहीं हो पाती। इसलिए अनुवादक में सृजनशील प्रतिभा का होना अनिवार्य है। मूल रचनाकार की तरह अनुवादक भी कथ्य को आत्मसात् करता है, उसे अपनी चित्तवृत्तियों में उतारकर पुन: सृजित करने का प्रयास करता है तथा अपने अभिव्यक्तिमाध्यम के उत्कृष्ट उपादानों द्वारा उसको एक नया रूप देता है। इस प्रक्रिया में अनुवादक की सृजनप्रतिभा या कारयित्रीप्रतिभा मुखर रहती है। अनुवाद में अनुवादक की कारयित्रीप्रतिभा के महत्व को सभी अनुवादविज्ञानियों ने स्वीकार किया है। इसी कारण अनुवादक को भी एक सर्जक ही माना गया है और उसकी कला को सर्जनात्मक कला। फिज़्ज़ेराल्ड द्वारा उमर खय्याम की रुबाइयों के अनुवाद को इस सन्दर्भ में उद्धृत किया जा सकता है। विद्वानों का मानना है कि यह अनुवाद खय्याम की काव्यप्रतिभा की अपेक्षा फिज़्ज़ेराल्ड की निजी प्रतिभा का उत्कृष्ट नमूना है। स्वयं फिज़्ज़ेराल्ड ने अपने अनुवाद के बारे में कहा है कि मरे हुए पक्षी के स्थान पर दूसरा जीवित पक्षी अधिक अच्छा है (मरे हुए बाज़ की अपेक्षा एक जीवित चिड़िया ज्यादा अच्छी है) कहना वे यह चाहते हैं कि अगर मैंने

रुबाइयों का शब्दश:/यथावत् अनुवाद किया होता तो उसमें जान न होती, वह मरे हुए पक्षी की तरह प्राणहीन अथवा निर्जीव होता। अपनी प्रतिभा उँडेलकर फिज्ज़ेराल्ड ने रुबाइयों के अनुवाद को प्राणमय एवं सजीव बना दिया है।



जिस प्रकार मूल रचनाकार का लेखन 'जीवन और जगत्' के प्रति उसकी 'मानसिक प्रतिक्रिया' होता है, और वह अपनी अनुभूति (प्रतिक्रिया) को शब्दों के माध्यम से कलात्मक रूप में अभिव्यक्त करता है, ठीक उसी प्रकार अनुवादक भी मूल कृति को पढ़कर स्पन्दित होता है और अपनी उस अनुभूति (प्रतिक्रिया) को वाणी देता है। इस संदर्भ में डॉ० आदिनाथ सोनटक्के के विचार उल्लेखनीय हैं: "अनुवादक को भी जब कोई रचना प्रभावित करती है, तब वह भी अन्तर्बाह्य अभिभूत हो उठता है। यहाँ तक तो अनुवादक और अन्य पाठक की मनोदशा समान-सी होती है किन्तु अनुवादक अपनी आनन्दानुभूति में अन्यों को भी सहभागी करने का इच्छुक होने के कारण अनुवाद करने को विवश हो उठता है, जैसे सर्जक अपने भाव-स्पंदन को शब्दांकित करता है। स्रष्टा कथ्य को मन में घोलता रहता है। अनुवादक भी अनुवाद सामग्री को लक्ष्य भाषा में उतारने के लिए घुटता है। एक-एक शब्द का चयन करते समय श्रेष्ठ अनुवादकों को कितना आत्मसंघर्ष करना पड़ता है, यह सर्वविदित है एक प्रकार से अनुवादक अन्तः स्फूर्ति एवं अन्तः प्रेरणा से जब ओत-प्रोत होगा, तब उसकी रचना चैतन्यदायी तथा प्राणवान् होगी। 24 ...



मूल रचनाकार की तरह ही अनुवादक को आत्मविलोपन कर मूलकथ्य की आत्मा से साक्षात्कार करना पड़ता है। इसके लिए उसकी सृजनात्मक प्रतिभा उसका मार्गदर्शन करती है। अनुवादचिन्तक तीर्थ बसन्त जी ने सृजनात्मक साहित्य और अनुवाद पर सुन्दर विचार व्यक्त किये हैं। वे कहते हैं: "सृजनात्मक साहित्य में और अनुवाद में अन्तर है भी और नहीं भी। सृजनशील लेखक अपने भाषा चातुर्य से यथार्थ का अनुकरण करता है। उसे अपने जीवन में संसार से जो अनुभव प्राप्त होता है, उसको अपनी कला के माध्यम से अपनी भाषा में प्रस्तुत करता है और अनुवादक उसी अनुकृति का अनुकरण करता है। दोनों ही नकल करते हैं, परन्तु एक अपने भावों को भाषा में उतारता है और दूसरा अपने मन में किसी दूसरे के भावों को प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न भावों का तर्जुमा करता है। प्रकार नरगिस का फूल सरोवर में अपनी प्रतिच्छाया देखकर प्रफुल्लित होता है, उसी प्रकार अनुवादक भी अपने व्यक्तित्व की प्रतिच्छाया को दूसरे की कला में पाकर अनुवाद करने को विवश हो उठता है। उसकी कला स्वयं प्रकाशित होते हुए भी किसी ऐसे व्यक्तित्व पर निर्भर करती है, जिसने उसके सुप्त भावों को जागृत किया है। ''26 जिस



यह सही है कि अनुवाद पराश्रित होता है। वह नूतन सृष्टि नहीं अपितु सृजन का पुनस्सृजन होता है। इस दृष्टि से अनुवादकर्म को मौलिकसृजन की कोटि में रखने के मुद्दे पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। तभी कुछ विद्वान् इस कर्म को 'अनुसृजन' की संज्ञा देना अधिक उचित समझते हैं। मगर चूँकि दोनों मूल सर्जक और अनुवादक अनुभव, भाषा और

अभिव्यक्ति कौशल के स्तर पर एक सी रचना प्रक्रिया से गुजरते हैं, अत: अनुवाद कार्य को मौलिक सृजन न सही, उसे मौलिक सृजन के बराबर का सृजन व्यापार समझा जाना चाहिए।



अनुवाद की प्रक्रिया



अनुवाद की प्रक्रिया अपने आप में एक संश्लिष्ट कार्य व्यापार है। मौलिक सृजन की तरह ही अनुवादक अनुवाद करते समय सृजन के विभिन्न सोपानों से गुजरता है और अन्ततः एक उत्कृष्ट अनूदित कृति का निर्माण करता है। इस सारी प्रक्रिया में उसके चिन्तन-मनन की खासी भूमिका रहती है। प्रसिद्ध अनुवादविज्ञानी नाइडा ने 'चिन्तन-मनन' की इस स्थिति को अनुवाद प्रक्रिया के सन्दर्भ में तीन सोपानों में यों विभाजित किया है: 1. विश्लेषण (Analysis) 2. अन्तरण (Transfer) 3. पुनर्गठन (Rearrangement)



अनुवाद करते समय अनुवादक को क्रमशः उक्त तीनों प्रक्रियाओं से होकर गुज़रना पड़ता है। सर्वप्रथम अनुवादक स्रोतभाषा के पाठ का चयन कर उसमें निहित संदेश या आशय का विश्लेषण करता है। इस दौरान वह स्रोतभाषा के मूलपाठ का अर्थग्रहण करता है। अर्थग्रहण कर लेने के पश्चात् वह लक्ष्य भाषा में उसे अन्तरित करने की प्रक्रिया में आता है और लक्ष्य भाषा में उसके स्वरूप को निर्धारित कर लेता है। इसके बाद वह लक्ष्य भाषा के स्वरूप प्रकृति/स्वभाव के अनुसार उस कथ्य को पुनगर्ठित करता है और इस तरह अनुवाद अपने परिसज्जित (finished) रूप में पाठक के समक्ष पहुँचता है। पुनर्गठन अनुवाद प्रक्रिया का अतीव महत्वपूर्ण पक्ष है। दरअसल, हर भाषा की अपनी एक विशिष्ट कथन-शैली या अभिव्यक्ति-प्रणाली होती है। स्रोतभाषा के पाठ को लक्ष्य भाषा के संस्कार के साथ सफलतापूर्वक जोड़ते हुए एक नया/पठनीय पाठ तैयार करना, सचमुच, अनुवादक के लिए एक चुनौती भरा काम है। यह काम वह अनूदित पाठ के सृजक की हैसियत से थोड़ी-बहुत छूट लेकर कर सकता है। इसके लिए वह पद्य में लिखी मूलकृति का अनुवाद गद्य में कर सकता है, लम्बे-लम्बे वाक्यों को तोड़कर अनुवाद कर सकता है, व्याकरणिक संरचना में फेर-बदल कर सकता है, आदि-आदि। इस सारी प्रक्रिया में अनुवादक को इस बात का विशेष ध्यान रखना होता है कि मूल पाठ के संदेश/आशय में कोई फर्क न आने पाए। (अनुवाद-प्रक्रिया डा० रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव, पृ० 23)।


स्रोतभाषा/मूल सामग्री



लक्ष्य भाषा/अनूदित सामग्री



विश्लेषण/परिज्ञान



अन्तरण/अर्थग्रहण व निर्धारण



पुनर्गठन/लक्ष्य भाषा की प्रकृति के अनुसार



प्रसिद्ध अनुवादक डा० एन० ई० विश्वनाथ अय्यर ने अनुवाद प्रक्रिया को जिन तीन चरणों, यथा-अर्थग्रहण, मन में भाषान्तरण और लिखित अनुवाद, में विभक्त किया है, वे प्रकारन्तर से नाइडा के वर्गीकरण से मिलते-जुलते हैं। मूलत: अनुवाद प्रक्रिया के अन्तर्गत अनुवादक को दो तरह के पाठों से गुज़रना पड़ता है, 1. पहला पाठ, जो स्रोतभाषा के रूप में उसके सामने पहले से ही होता है, जिसका रचयिता कोई और होता है और उसके पाठक भी कोई और होते हैं। सर्वप्रथम अनुवादक का इसी पाठ से साक्षात्कार होता है। उसक पहला काम मूलपाठ/कृति में निहित संदेश/आशय को अच्छी तरह समझना होता है। दूसरे चरण में वह मूलकृति के समझे हुए संदेश/आशय को न केवल भाषान्तरित करता है अपितु एक नये पाठ के रूप में प्रस्तुत भी करता है। इस सारी प्रक्रिया में अनुवादक का कई तरह के दबावों से गुज़रना स्वाभाविक है। एक ओर उसे मूल कृति में निहित संदेश/आशय क लक्ष्यभाषा में उपलब्ध भाषाविधान में ढालना पड़ता है और दूसरी ओर अनूदित पाठ की संरचना कुछ इस प्रकार से करनी पड़ती है कि वह मूलपाठ के समतुल्य बन कर पाठक के लिए सहज सम्प्रेष्य/बोधगम्य हो सके। संरचना की इस प्रक्रिया को नाइडा कुछ इस तरह का मानते हैं: 'जिस तरह विभिन्न आकार के बक्सों के सामान को उनसे भिन्न आकार वाले बक्सों में फिर से जमाया जाए।' चूंकि अनुवादक मूलपाठ का रचयिता नहीं है इसलिए सम्प्रेषण-व्यापार की कई समस्याओं से उसे जूझना पड़ता है। उसके सामने त मूलपाठ का 'प्रारूप'/फारमैट मात्र होता है जिसके समानान्तर उसे लक्ष्य भाषा में एक नया/अंतरित पाठ तैयार करना होता है। लक्ष्य भाषा के पाठकवर्ग की अपेक्षाओं एवं भाषिक मानसिकता का उसे पूरा ध्यान रखना पड़ता है। लक्ष्य भाषा की प्रकृति, स्वभाव, संस्का आदि के अनुरूप उसे अनूदित पाठ को सजाना/संवारना पड़ता है।



अनुवाद प्रक्रिया के जिन विभिन्न चरणों या सोपानों की ओर ऊपर इंगित किया गया है वे सहज होते हुए भी समस्यापूर्ण हैं। दरअसल, एक भाषा द्वारा जो अर्थ व्यंजित होता है उसे दूसरी भाषा में उसी रूप में व्यंजित कर पाना हमेशा सम्भव नहीं होता। होता यह है कि जब एक भाषा की संकल्पना को दूसरी भाषा में अन्तरित किया जाता है, तो अनुवाद समरूप (identical) न होकर समतुल्य (equivalent) होता है। तब ऐसी भी स्थिति अ जाती है कि अनूदित पाठ में कुछ छूट जाता है, कुछ अतिरिक्त जुड़ जाता है या कुछ मूल में से अलग होकर मूलकथ्य को प्रेषित करता है। इस प्रकार अनुवादक को (न चाहते हुए भी) मूलपाठ तथा अनूदित पाठ में संतुलन बनाए रखने के लिए समझौते करने पड़ते हैं। (अनुवाद का व्याकरण, पृ॰ 132) डॉ० भोलानाथ तिवारी का यह कथन कि अनुवाद करते समय 'न कुछ छोड़ो, न कुछ जोड़ो' साहित्यानुवाद में प्राय: कारगर सिद्ध नहीं होता। सुन्दर, सरस एवं पठनीय अनुवाद के लिए यह आवश्यक है कि अनुवादक मूल में' आटे में नमक समान फेरबदल करे। इससे उसका अनुवाद अधिक संगत, स्वाभाविक एवं सहज बनेगा। हाँ, एक बात अवश्य है कि इस सारी प्रक्रिया में मूल की आत्मा की रक्षा करना अनुवादक के लिए अत्यन्त अनिवार्य है। अनुवाद के अच्छे/बुरे होने के प्रश्न को लेकर भी कई तरह की भान्तियाँ प्रचलित हैं। आरोप यह लगाया जाता है कि मूल की तुलना में अनुवाद अपूर्ण रहता है, अनुवाद में मूल के सौन्दर्य की रक्षा नहीं हो पाती, अनुवाद दोयम दर्जे का काम है आदि-आदि। अनुवादकर्म पर लगाए जाने वाले उक्त आरोप मुख्यतः अनुवादक की अयोग्यता के कारण हैं। 'अनुवाद में मूलभाव सौन्दर्य तथा विचार सौष्ठव की रक्षा तो हो सकती है परन्तु भाषा सौन्दर्य की रक्षा इसलिए नहीं हो पाती क्योंकि भाषाओं में रूपरचना तथा प्रयोग की रूढ़ियों की दृष्टि से भिन्नता होती है। ध्यान से देखा जाय तो अनुवाद के दौरान मूल के कुल सौन्दर्य में जितनी हानि होती है, उससे भी कहीं अधिक मूल का सौन्दर्य सुरक्षित रहता है और हानि की खासी भरपाई होती है। मौलिक लेखन के बाद ही अनुवाद होता है, अत: निश्चित रूप से यह क्रम की दृष्टि से दूसरे स्थान पर है। परन्तु इसका यह मतलब नहीं कि गुणवत्ता की दृष्टि से भी वह दूसरे स्थान पर है। जिस प्रकार मौलिक लेखन बढ़िया भी हो सकता है और घटिया भी, उसी प्रकार अनुवाद भी घटिया/बढ़िया हो सकता है। उक्त आरोपों से अनुवाद कार्य का महत्व कम नहीं होता।' (अनुवाद और पारिभाषिक शब्दावली, डा० कृष्ण कुमार गोस्वामी, पृ० 6) पूर्व में कहा जा चुका है कि अनुवादक दो भाषाओं को न केवल जोड़ता है अपितु उनमें संजोई ज्ञानराशि को एक-दूसरे के निकट लाता है। अनुवादक अन्य भाषा की ज्ञान-सम्पदा को लक्ष्य भाषा में अन्तरित करने में शास्त्रीय ढंग से कहाँ तक सफल रहा है, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि लक्ष्य भाषा के पाठकों का अनुवाद द्वारा एक नई कृति से परिचित होना है। मूल रचना का स्वल्प परिचय पूर्ण अज्ञान से बेहतर है। गेटे की वे पंक्तियाँ यहाँ पर उद्धृत करने योग्य हैं जिनमें उन्होंने कार्लाइल को लिखा था, 'अनुवाद की अपूर्णता के बारे में तुम चाहे कुछ भी कहो, परन्तु सच्चाई यह है कि संसार के व्यावहारिक कार्यों के लिए उसका महत्व असाधारण और बहुमूल्य है।'



अनुवाद प्रक्रिया एवं उससे जुड़े अन्य व्यावहारिक पक्षों पर ऊपर जो चर्चा की गई है, वह अनुवाद कला की बारीकी को वैज्ञानिक तरीके से समझने के लिए है। दरअसल, यह अनुवादक की निजी भाषिक क्षमताओं, अनुभव एवं प्रतिभा पर निर्भर है कि उसका अनुवाद कितना सटीक, सहज और सुन्दर बनता है।

अनुवादः कला या विज्ञान



अनुवाद कला है या विज्ञान, यह प्रश्न भी साहित्य-संसार में बराबर उठता रहा है। ध्यान से देखा जाय तो विज्ञान किसी भी विषय का व्यवस्थित तथा विशिष्ट ज्ञान होता है। विज्ञान में न तो विकल्प की गुंजाइश रहती है और न फेरबदल की। उसके परिणाम सार्वकालिक एवं सार्वदेशिक होते हैं। इसके विपरीत कला चूंकि मानव-संवेदना या अनुभूति से जुड़ी हुई वस्तु है और अनुभूति या संवेदना के स्तर पर हर व्यक्ति की मानसिकता अलग-अलग होती है, अतः कला विज्ञान की भाँति तथ्यपरक नहीं होती। उसमें कल्पना, आत्माभिव्यक्ति, स्वानुभूति आदि का विशेष पुट रहता है, और इसी आधार पर कला और विज्ञान में एक विभाजन रेखा खिंच जाती है। जहाँ तक अनुवाद का प्रश्न है, उस पर विवेचन या उसकी सैद्धान्तिक चर्चा विज्ञान के अन्तर्गत आती है, किन्तु अनुवाद विशेषतया साहित्यिक अनुवाद की प्रक्रिया कला के अन्तर्गत ही आती है। किसी साक्षात्कार में कविवर बच्चन जी ने एक प्रत्याशी से पूछा: 'अनुवाद कला है या विज्ञान'। प्रत्याशी ने उत्तर दिया: 'यह अनुवाद करने वाले पर निर्भर करता है। यदि वह अनुवाद को कला समझकर अनुवाद करता है तो वह कला है, यदि विज्ञान समझकर करता है तो विज्ञान है।' बच्चन जी ने पूछा='उदाहरण देकर बात को समझाओ।' प्रत्याशी ने उत्तर दिया-'आपने शेक्सपीयर का अनुवाद किया है। अनुवाद करते समय यदि आपको मौलिक कविता लिखने जैसी अनुभूति हुई तो उस स्थिति में अनुवाद कला है। यदि आपने शब्द के बदले शब्द रखा है, जो प्राय: कम्प्यूटर करता है, तो उस हालत में अनुवाद विज्ञान है।'



कहना न होगा कि एक अच्छा अनुवाद एक कलाकृति ही होता है। अनुवादविज्ञानी डा० गार्गी गुप्त अनुवाद को कला मानते हुए कहती हैं: "ललित साहित्य के अनुवाद के लिए यंत्रों की कोई सार्थकता है ही नहीं। उसके लिए तो मानवीय कला तथा लेखनी की अपेक्षा है। भाव तथा प्रसंग के अनुसार शब्दों का चयन करना और अपनी भाषा के अनुकूल अभिव्यक्ति में इस प्रकार बैठाना कि संपूर्ण अनूदित कृति मूल की ही तरह 'कलाकृति' प्रतीत हो, इसी में अनुवादक की सार्थकता है और तभी अनुवाद को एक कला माना जा सकता है।" (अनुवाद के सांस्कृतिक-ऐतिहासिक पक्ष, पृ० 37 )



कुछ विद्वान् वास्तविक अनुवाद करने की पूर्व पीठिका को, जो अनुवादक के मस्तिष्क में चिन्तन के रूप में रहती है, वैज्ञानिक कार्यविधि के अन्तर्गत रखते हैं। उनका मानना है कि अनुवादकर्म एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है क्योंकि अनुवादक स्रोत भाषा (Source language) और लक्ष्यभाषा (Target language) की ध्वनि, शब्द, रूप, वाक्य, अर्थ आदि सम्बन्धी समानताओं-असमानताओं को समतुल्यता की कसौटी के आधार पर विश्लेषित करता है जिसमें उसकी वैज्ञानिक दृष्टि प्रबल रहती है। यही कारण है कि योरोप में 'अनुवाद को प्रायोगिक भाषाविज्ञान (Applied linguistics) के अन्तर्गत रखा गया है तथा अनुवाद

प्रकारों को स्थिर किया है। डॉ० तिवारी" ने गद्य-पद्यत्व, साहित्यिक विधा, विषय व प्रकृति के आधार पर, डॉ. गोपीनाथन* ने विषय वस्तु व प्रकृति के आधार पर तथा डॉ० श्रीवास्तव” ने माध्यम, प्रक्रिया और पाठ के आधार पर अनुवाद के विभिन्न प्रकारों को निर्धारित किया



अनुवाद के सम्बन्ध में उपर्युक्त विद्वानों द्वारा किया गया वर्गीकरण यद्यपि अनुचित नहीं है, फिर भी विषय-निरूपण की सरलता व स्पष्टता की दृष्टि से इन में अनावश्यक विस्तार एवं दुरूहता अधिक है। अनुवादकर्म को सीधे-सीधे दो प्रकारों में बाँटा जा सकता है। (1) मूल सापेक्ष और (2) मूल निरपेक्ष। इस आधार पर अनुवाद के निम्नलिखित पाँच प्रकार निर्धारित किए जा सकते हैं



(1) शाब्दिक अनुवाद (2) आशु अनुवाद (3) भावानुवाद (4) रूपान्तरण (5) छायानुवाद



इनमें शाब्दिक व आशु अनुवाद मूल सापेक्ष अनुवाद की कोटि में तथा शेष मूल निरपेक्ष अनुवाद की कोटि में रखे जा सकते हैं।



शाब्दिक अनुवाद



शब्द और अनुवाद से बने अनुवाद के इस प्रकार का अर्थ है मूल रचना का शब्दश: अनुवाद। इस तरह का अनुवाद शब्द-केन्द्रित होता है। कभी-कभी मूल की शब्दाभिव्यक्ति का क्रम भी ज्यों का त्यों ही रहता है। इस प्रकार के अनुवाद में प्राय: मूलपाठ का यथासंभव अनुगमन किया जाता है। विज्ञान, विधि, प्रौद्योगिकी आदि विषयों की पुस्तकों के अनुवाद में अनुवाद के इस प्रकार (रूप) का अनुसरण करना ठीक है, किन्तु साहित्यानुवाद में यह विधि कामयाब नहीं हो सकती। सर्जनात्मक साहित्य, विशेषकर व्यंजना/ध्वनिप्रधान साहित्य के अनुवाद के शब्दानुवाद की क्षमताएँ सीमित हो जाती हैं। लक्षणापूर्ण एवं मुहावरेदार अभिव्यक्तियों में तो इस तरह का अनुवाद एकदम अपूर्ण रहता है। करने का प्रयास किया जाय तो सन्दर्भित अर्थ एवं अर्थच्छवियाँ नष्ट हो जाती हैं और अनुवाद कृत्रिम, अस्वाभाविक एवं बेजान लगता है। शब्दानुवाद की मुख्य कमियों को डॉ० भोलानाथ तिवारी ने यों स्पष्ट किया है:30



(1) स्रोत भाषा तथा लक्ष्य भाषा आदि शब्दार्थ, विशिष्ट प्रयोग, मुहावरे तथा वाक्य रचना आदि की दृष्टि से बहुत समान हों, तब तो शब्दानुवाद बहुत घटिया नहीं होता, किन्तु दोनों में यदि उक्त दृष्टियों से असमानता हो तो असमानता जितनी ही अधिक होगी, शब्दानुवाद उतना ही घटिया होगा।



(2) शब्दानुवाद में अनुवादक के बहुत सतर्क रहने पर भी प्रायः स्रोत भाषा का प्रभाव स्पष्ट रहता है। मूल की उस गंध के कारण अनुवाद की भाषा प्राय: कृत्रिम तथा निष्प्राण हो

जाती है तथा उसमें मूल रचना का प्रवाह नहीं रह जाता, जो बढ़िया अनुवाद के लिए अनिवार्यतः आवश्यक है।



(3) यन्त्रवत् शब्दानुवाद कभी-कभी पूर्णतः अबोधगम्य तथा हास्यास्पद हो जाता है। ऊपर कहा जा चुका है कि शाब्दिक या शब्दानुवाद की शैली ऐसे विषयों में उपयुक्त रहती है जहाँ विषय-प्रतिपादन की सामग्री अतिविशिष्ट होती है। ऐसी सामग्री मुख्यतः सिद्धान्तपरक, तथ्यात्मक एवं विचारप्रधान होती है। उसमें अनुवादक को 'न जोड़ना, न तोड़ना' वाले सिद्धान्त का निर्वाह बड़ी ज़िम्मेदारी से करना पड़ता है। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो मूल की तथ्यपरकता में फर्क पड़ने का खतरा बना रहता है। इस अनुवाद शैली के अन्तर्गत मुख्यतः ज्ञान-विज्ञान, प्रौद्योगिकी, विधि, सरकारी कामकाज आदि के क्षेत्र आते हैं।



आशु अनुवाद



दुभाषिये द्वारा तत्काल किए जाने वाले अनुवाद को आशु-अनुवाद की संज्ञा दी जा सकती है। इस प्रकार के अनुवाद की आज की राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों में बड़ी अहमियत है। एक ख्यातिप्राप्त राजनेता या समाजविज्ञानी द्वारा किसी समारोह, प्रेसकांफ्रेन्स या बैठक में अपनी भाषा में व्यक्त विचारों को तुरन्त दूसरी भाषा में ढालकर प्रस्तुत करने का काम दुभाषिया 'आशु-अनुवाद' के माध्यम से ही करता है। दुभाषिये को तत्काल, कम-से-कम समय में बिना कोश आदि की सहायता के मूल वक्ता की बात को यथातथ्य दूसरी भाषा में कहनी होती है। उसे न परिष्कार के लिए अवकाश होता है और न ही सुधार के लिए। अत: इस दृष्टि से 'आशु-अनुवाद' का काम बड़ा ही उत्तरदायित्वपूर्ण होता है। इस प्रकार के अनुवाद में दुभषिये का दोनों भाषाओं में पारंगत होना अत्यावश्यक है। आशु-अनुवाद' मूल सापेक्ष अनुवाद का एक बेहतरीन उदाहरण है।



भावानुवाद



भावानुवाद अनुवादकला की सर्वत्र प्रचलित शैली या विधि है। साधारणतया जब मूल का शब्दानुवाद करना असंभव या कठिन हो जाता है, तब इस शैली का अनुसरण करना पड़ता है। कहना न होगा कि शब्दानुवाद की सीमाओं को भावानुवाद पाट देता है। मोटे तौर पर इस शैली में शब्द या वाक्य के अस्तित्व पर मुख्य रूप से ध्यान न देकर अर्थपक्ष या मूलपाठ के भाव/विचार पक्ष पर ध्यान केन्द्रित कर अनुवाद किया जाता है। इसे कभी-कभी 'सेन्स फॉर

जाने वाले कुशल अन्तरण की वजह से अनुवाद के इस मूल निरपेक्ष प्रकार का प्रयोग मुख्यतः सर्जनात्मक सामग्री में अधिक उपयोगी एवं सार्थक सिद्ध होता है।



भावानुवाद के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए डॉ० भोलानाथ तिवारी लिखते हैंभावानुवाद का सबसे बड़ा लाभ यह है कि लक्ष्य भाषा में स्रोत भाषा की अभिव्यक्तियों की गंध नहीं आ पाती, अनुवाद मूल का यन्त्रवत् अनुसरण नहीं रह जाता और उसमें मौलिक रचना जैसा सहज प्रवाह आ जाता है। शब्दानुवादक प्राय: शुद्ध भाषान्तरकार के रूप में ही हमारे सामने आता है किन्तु भावानुवादकार कारयित्री प्रतिभा वाले लेखक (क्रिएटिव राइटर) के रूप में हमारे सामने आता है। ''।



भावानुवाद शैली पर सबसे बड़ा आरोप यह लगता है कि इस प्रकार के अनुवाद में अनुवादक का निज का व्यक्तित्व, उसका अभिव्यक्ति कौशल एवं नैपुण्य प्रमुख रहता है। चूंकि इस प्रकार के अनुवाद में अनुवादक कभी-कभी मूल कृति से कुछ छूट ले लेता है या उसे छूट लेने की इच्छा होती है, इसलिए उसका अनुवाद एक तरह से उसकी अपनी रचना बन जाता है। इस प्रक्रिया में मूल रचनाकार का सृजनात्मक व्यक्तित्व गौण और अनुवादक का व्यक्तित्व प्रबल हो जाता है।



आदर्श अनुवाद के सम्बन्ध में डॉ० भोलानाथ तिवारी लिखते हैं-"आदर्श अनुवाद वह है जो शब्दानुवाद तथा भावानुवाद दोनों पद्धतियों को यथावसर अपनाते हुए मूल भाव के साथ-साथ यथाशक्ति मूल शैली को भी अपने में उतार लेता है और साथ ही लक्ष्य भाषा की सहज प्रकृति को भी अक्षुण्ण बनाए रखता है। 32



रूपान्तरण



रूपान्तरण का शाब्दिक अर्थ है रूप को बदलना। अंग्रेजी में इसे 'एडेपटेशन' कहते हैं। अनुवादक या रूपान्तरण अनुवाद के इस प्रकार में मूल को अपनी रुचि, सुविधा तथा आवश्यकतानुसार बदलकर लक्ष्य भाषा में रखता है। इसमें मूल कथ्य एक विधा के रूप में परिवर्तित होकर सामने आता है। रूपान्तरण को यद्यपि अनुवाद का पर्यायवाची माना जाता है, किन्तु दोनों में तात्त्विक अन्तर है। रूपांतरण जहाँ दोनों भाषाओं में सम्भव है, वहाँ अनुवाद एक भाषा से दूसरी भाषा में किया जाने वाला कार्य है। कहानी, उपन्यास आदि को नाटक के रूप में, या नाटक, एकांकी आदि को गीति-नाट्य के रूप में या फिर लोककथा को नाटकीय शैली में प्रस्तुत करने की कला रूपांतरण कहलायेगी। अपनी आवश्यकता के अनुसार इसके अनुवादक/रूपान्तरणकार पात्रों के नामों, देशकाल या वातावरण आदि में परिवर्तन करने के लिए स्वतन्त्र रहता है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने शेक्सपीयर के 'मर्चेण्ट ऑफ वेनिस' का अनुवाद 'दुर्लभ बन्धु' अर्थात् 'वंशपुर का महाजन' नाम से किया था। इसमें कथा को पूरी तरह भारतीय बना दिया गया है। 'वंशपुर' को वेनिस 'ऐन्टोनियो' को अनन्त, 'बसोनियो' को 'बसंत' तथा 'पोर्शिया' को 'पुरश्री' नाम दे दिये गये हैं।



रूपान्तरण के सम्बन्ध में डॉ० एन० ई० विश्वनाथ अय्यर के विचार उल्लेखनीय हैं। वे लिखते हैं-" एक भाषा की कृति को अन्य भाषा की धरती पर इस प्रकार रोप देना कि वह विदेशी न ज्ञात हो सके, रूपान्तरकार की पहली समस्या है। इसके लिए रूपान्तरणकार को न केवल दोनों भाषाओं का ज्ञान होना आवश्यक है, अपितु मूल कृति में चित्रित स्थान की परम्परा, प्रथा, आचरण और सामाजिक मान्यताओं आदि का ज्ञान भी उतना ही आवश्यक है जितना अपने स्थान और अपने जनों का...। रूपान्तर वस्तुतः प्रतिरोपण है। पौधे को विदेशी धरती से उखाड़कर निजी धरती पर अपनी धरती और जलवायु के अनुरूप ढाल लेना है। इसके लिए अत्यन्त कुशल, कोमल, सावधानीपूर्ण और ममतामय देखभाल की आवश्यकता है।”



उल्लेखनीय है कि रूपान्तरण अब एक साहित्यिक विधा बन चुकी है। रेडियोरूपान्तरण, नाट्य-रूपान्तरण आदि शब्दों का आधार रूपान्तरण ही है। रेडियो, दूरदर्शन आदि संचार माध्यमों में रूपान्तरण का विशेष महत्त्व है।



छायानुवाद



मूल निरपेक्ष अनुवाद की श्रेणी में आने वाले अनुवाद का मतलब है 'मूल का भाव लेकर अनुवाद करना।' मूल रचना को पढ़ लेने के बाद अनुवादक ने जो समझा या जो अनुभव किया, उसके मन पर जो प्रभाव पड़ा, उसके सन्दर्भ में वह मूलपाठ का लक्ष्य भाषा में जो अनुवाद करता है, वह छायानुवाद है। इस प्रकार के अनुवाद में मूल की छायामात्र होती है। मूलपाठ का अनुकूलन लक्ष्यभाषा की सामाजिक/सांस्कृतिक स्थितियों के अनुरूप किया जाता है।



छायानुवाद के बारे में अनुवादचिन्तक राजेन्द्र द्विवेदी का मत है "इस प्रकार के अनुवाद मूल की बात कह देते हैं और अनुवाद न लगकर मौलिक कृति बन जाते हैं। ये अनुवाद मूल की बात तो कहते हैं, पर बाकी सब परिधान और परिवेश अनुवाद की भाषा की स्थानीय संस्कृति का रहता है। पाठक मूल रचना की अपरिचित संस्कृति के ब्यौरों की गहरी जानकारी से बोझिल नहीं होता। अनुवाद में प्रवाह और प्राञ्जलता आ जाती है क्योंकि अनुवादक को कुछ मौलिक रचना करने की गुंजाइश रहती है।" ....



ऊपर अनुवाद के उन बहु प्रचलित प्रकरों (रूपों) पर विचार किया गया जिन्हें विभिन्न अनुवादक आज अपना रहे हैं। सभी रूप अपनी जगह ठीक हैं और स्थिति व आवश्यकतानुसार उनकी सार्थकता है।




आदर्श अनुवादक के गुण एवं अनुवादक के लिए सहायक साधन



प्रायः अनुवादक को दो भाषाओं व दो संस्कृतियों के बीच भाषायी दूत या संवाहक माना जाता है। यह अनुवादक ही है जो दो भाषाओं के बीच पुल का काम करता है तथा उसी की बदौलत विश्व-समाज संसार की श्रेष्ठ रचनाओं एवं श्रेष्ठ ज्ञान से परिचित एवं लाभान्वित होता है। एक तरह से अनुवादक के प्रयासों से ही अंचल/प्रदेश विशेष का साहित्य सार्वदेशिक/सार्वप्रदेशिक बन जाता है और सुधी पाठकों में समेकित राष्ट्रीय साहित्य की समझ पैदा होती है। मनुष्य के दृष्टिकोण को व्यापक एवं उदार बनाने में अनुवादक का योगदान यथेष्ट है। एक अच्छे/आदर्श अनुवादक में ऐसे गुणों/विशेषताओं का होना अपेक्षित है, जिससे उसका अनुवाद पठनीय एवं उत्तम बने। विद्वानों ने इन गुणों का अपने-अपने तरीके से निरूपण किया है।



कुशल एवं आदर्श अनुवादक के लिए अपेक्षित गुणों (योग्यताओं) को इस प्रकार क्रमबद्ध किया जा सकता है:



(1) स्रोत और लक्ष्य भाषा पर समान रूप से अच्छा अधिकार



(2) विषय का पर्याप्त ज्ञान



(3) मूल लेखक के उद्देश्यों की जानकारी (6) मूल के प्रति निष्ठा



(4) मूल रचना के अन्तर्निहित भावों की समझ



(5) सन्दर्भानुकूल अर्थ-निश्चयन की योग्यता



(7) सौन्दर्यपूर्ण साहित्यिक दृष्टि की प्रबलता



ऊपर आदर्श अनुवादक के लिए अपेक्षित जिन गुणों की चर्चा की गई है, सार रूप में उन पर सम्यक् विचार करना अनुचित न होगा।



भाषा ज्ञान



स्रोत भाषा एवं लक्ष्य भाषा पर अच्छा अधिकार होना अनुवादक के लिए अत्यन्त आवश्यक है। स्रोत भाषा की सामग्री का सटीक अर्थ समझ में आना पर्याप्त है, किन्तु उसके अन्तरण के लिए लक्ष्यभाषा पर पूरा अधिकार होना ज़रूरी है। दरअसल, अर्थग्रहण से उसकी अभिव्यक्ति अधिक कठिन होती है। अनुवादक के भाषा ज्ञान के बारे में जैनेन्द्र जी लिखते हैं: “जरूरी है कि अनुवादक दोनों भाषाओं से परिचित हो। लेकिन जो उससे भी ज्यादा जरूरी है, वह यह है कि जिस भाषा में अनुवाद होना हो, अनुवादक उस भाषा को जानताबूझता ही न हो, बल्कि उसमें रहता-सहता भी हो। मूल भाषा के अच्छे परिचय से भी काम चल सकता है, लेकिन उसमें (अनुवाद में) काम करने वाली भाषा तो जीवन की होनी चाहिए। 34

दूसरी मूल शर्त है कि अपनी भाषा पर उसे अच्छा अधिकार हो और नये विचारों की अभिव्यक्ति के लिए नये शब्द और शब्दावली गढ़ने की योग्यता हो। तीसरी आवश्यकता मूल रचना की भाषा की ऐसी गहरी जानकारी है कि वह उसकी जटिलताओं, लक्षणाओं, बारीकियों व गहनता को भली प्रकार समझ सके। चौथी यह कि मूल रचना जिस युग और विषय से सम्बन्धित है, उस युग के जीवन, भाषा और उस विषय की महत्त्वपूर्ण जानकारी से अनुवादक परिचित हो और अन्तिम किन्तु सबसे बड़ी शर्त यह है कि अनुवादक में साहित्यिक अनुवाद की योग्यता, रुचि और दिलचस्पी हो। अगर यह नहीं है तो अन्य तमाम शर्तों की पूर्णता भी सकल अनुवाद को सुरक्षा नहीं दे सकती। 1738



अनुवाद के लिए जब सहायक साधनों की हम चर्चा करते हैं तो, इस बात की ओर हमारा ध्यान जाना स्वाभाविक है कि अनुवाद करते समय अनुवादक किन साधनों अथवा उपकरणों (Tools) का प्रयोग करता है, कौन-से उपकरण उसके अनुवाद-कार्य की प्रक्रिया को सरल एवं प्रभावी बनाते हैं तथा इन सहायक साधनों की उपलब्धि किस तरह संभव है। इसमें सन्देह नहीं कि अनुवाद विधा अब एक वैज्ञानिक रूप ले रही है। पिछले तीस-चालीस वर्षों के दौरान इस विधा में आशातीत बढ़ोत्तरी हुई है। अनुवाद कार्य के लिए अब द्विभाषा कोश, समान्तर कोश, पर्यायवाची कोश तथा अन्य प्रकार के भाषिक कोश इस समय उपलब्ध हैं। पूर्व में इस तरह के साधनों (उपकरणों) का अभाव था। भ्रमण आदि तथा पठन-पाठन से भी अनुवादक की दृष्टि खुलती है तथा वह भाषा के व्यावहारिक एवं लोक प्रचलित प्रयोगों से परिचित हो जाता है। देशाटन द्वारा अनुवादक अपनी अनुभव राशि में वृद्धि करता है, अंचल विशेष की सांस्कृतिक, सामाजिक एवं साहित्यिक विशेषताओं से परिचित हो जाता है और इस तरह उसके अनुवाद कर्म को लाभ पहुँचता है। अनूदित सामग्री को लक्ष्य भाषा के किसी सुरुचि सम्पन्न पाठक को सुनाने से भी बड़ा लाभ होता है। सुधी श्रोता कभी-कभी भूलों या कमियों की ओर अनुवादक का ध्यान आकर्षित कर सकता है जिनके बारे में अनुवादक सोच भी न सकता था। निरन्तर परिष्कार एवं परीक्षण से भी अनूदित सामग्री में सुन्दरता आना स्वाभाविक है।
बहुत लम्बे समय से अनुवाद कार्य से जुड़े रहने के कारण मैंने अनुवाद कर्म की पीड़ा को झेलते हुए उसके संरचनात्मक पहलू को निकटता से आत्मसात् किया है। मेरा मानना है कि "सुन्दर, सरस, प्रभावशाली तथा पठनीय अनुवाद के लिए यह आवश्यक है कि अनुवादक भाषा-प्रवाह को कायम रखने के लिए, स्थानीय बिम्बों व रूढ़ प्रयोगों को बोधगम्य बनाने के लिए तथा वर्ण्य विषय को हृदयग्राही बनाने हेतु मूल रचना में आटे में नमक समान फेर बदल करे। यह कार्य वह लम्बे-लम्बे वाक्यों को तोड़कर, उनमें संगति बिठाने के लिए अपनी ओर से दो-एक शब्द जोड़कर तथा "अर्थ" के बदले "आशय" पर अधिक बल देकर, कर सकता है। ऐसा न करने पर अनुवाद 'अनुवाद' न होकर मात्र 'सरलार्थ' बनकर रह जाता है। साहित्यिक अनुवाद तभी अच्छे लगते हैं जब अनूदित रचना
अपने आप में एक 'रचना' का दर्जा प्राप्त करे। यहाँ पर मैं यह रेखांकित करना चाहूँगा कि अच्छे अनुवादक के लिए स्वयं एक अच्छा लेखक होना बहुत ज़रूरी है। अच्छा लेखक होना उसे एक अच्छा अनुवादक बनाता है और अच्छा अनुवादक होना उसे एक अच्छा लेखक बनाता है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, पोषक हैं।














































अनुवाद का सौन्दर्य

अनुवाद को मौलिक सृजन की कोटि में रखा जाए या नहीं, यह बात हमेशा चर्चा का विषय रही है । अनुवाद-कर्म में रत अध्यवसायी अनुवादकों का मत है कि अनुवाद दूसरे दरजे का लेखन नहीं, बल्कि मूल के बराबर का ही सृजनधर्मी प्रयास है । बच्चन जी के विचार इस संदर्भ में दृष्टव्य है – “मैं अनुवाद को, यदि वह मौलिक प्रेरणाओं से एकात्मा होकर किया गया हो, मौलिक सृजन से कम महत्व नहीं देता । अनुभवी ही जानते हैं कि अनुवाद मौलिक सृजन से भी अधिक कितना कठिन-साध्य होता है । मूल कृति से रागात्मक संबंध जितना अधिक होगा, अनुवाद का प्रभाव उतना ही बढ़ जाएगा । दरअसल, सफल अनुवादक वही है जो अपनी दृष्टि, भावों, कथ्य और आशय पर रखे । साहित्यानुवाद में शाब्दिक अनुवाद सुंदर नहीं होता । एक भाषा का भाव या विचार जब अपने मूल भाषा-माध्यम को छोड़कर दूसरे भाषा-माध्यम से एकात्म होना चाहेगा, तो उसे अपने अनुरूप शब्द-राशि संजोने की छूट देनी ही होगी । यहीं पर अनुवादक की प्रतिभा काम करती है और अनुवाद मौलिक सृजन की कोटि में आ जाता है ” ।

दरअसल, अनुवाद एक श्रमसाध्य और कठिन रचना-प्रक्रिया है । यह मूल रचना का अनुकरण-मात्र नहीं, बल्कि पुनर्जन्म होता है । यह द्वितीय श्रेणी का लेखन नहीं, मूल के बराबर का ही दमदार प्रयास है । इस दृष्टि से मौलिक सृजन और अनुवाद की रचना-प्रक्रिया आमतौर पर एक समान होती है । दोनों के भीतर अनुभूति पक्ष की सघनता रहती है । अनुवादक तब तक मूल रचना की अनुभूति, आशय और अभिव्यक्ति के साथ तदाकार नहीं हो जाता, तब तक सुंदर और पठनीय अनुवाद की सृष्टि नहीं हो पाती । इसलिए अनुवादक में सृजनशील प्रतिभा का होना अनिवार्य है । मूल रचनाकार की तरह अनुवादक भी कथ्य को आत्मसात करता है, उसे अपनी चित्तवृत्तियों में उतार कर फिर से सृजित करने का प्रयास करता है और अपने अभिव्यक्ति-माध्यम के उत्कृष्ट उपादानों द्वारा उसे एक नया रूप देता है । इस सारी प्रक्रिया में अनुवादक की सृजन प्रतिभा मुखर रहती है । अनुवाद में अनुवादक की प्रतिभा के महत्व को सभी अनुवाद-विज्ञानियों ने स्वीकार किया है । इसी कारण अनुवादक को एक सर्जक ही माना गया है और उसकी कला को सर्जनात्मक कला ।

इसी संदर्भ में फिट्जेराल्ड द्वारा उमर खैयाम की रुवाइयों के अनुवाद को देखा जा सकता है । विद्वानों का मानना है कि यह अनुवाद खैयाम की काव्य-प्रतिभा की अपेक्षा फिट्जेराल्ड की निजी प्रतिभा का उत्कृष्ट नमूना है । खुद फिट्जेराल्ड ने अपने अनुवाद के बारे में कहा है कि एक मरे हुए पक्षी के स्थान पर दूसरा जीवित पक्षी अधिक अच्छा है (मरे हुए बाज की अपेक्षा एक जीवित चिड़िया ज्यादा अच्छी है ) । कहना वे यह चाहते थे कि अगर मैंने रुबाइयों का शब्दश: या यथावत अनुवाद किया होता तो उसमें जान न होती, वह मरे हुए पक्षी की तरह प्राणहीन या निर्जीव होता । अपनी प्रतिभा उड़ेल कर फिट्जेराल्ड ने रुबाइयों के अनुवाद को प्राणमय और सजीव बना दिया ।

अनुवाद के अच्छे या बुरे होने को लेकर कई तरह की भ्रांतिया प्रचलित है । आरोप लगाया जाता है कि मूल की तुलना में अनुवाद अपूर्ण रहता है, अनुवाद में मूल के सौंदर्य की रक्षा नहीं हो पाती, अनुवाद दोयम दरजे का काम है, आदि । अनुवाद-कर्म पर लगाए जाने वाले ये आरोप मुख्य रूप से अनुवादक की अयोग्यता के कारण हैं । अनुवाद में मूल भाव-सौंदर्य और विचार-सौष्टव की रक्षा तो हो सकती है, पर भाषा-सौंदर्य की रक्षा इसलिए नहीं हो पाती क्योंकि भाषाओं में रूप-रचना और प्रयोग की रूढ़ियों की दृष्टि से भिन्नता होती है । सही है कि मौलिक लेखन के बाद ही अनुवाद होता है, इसलिए निश्चित रूप से वह क्रम की दृष्टि से दूसरे स्थान पर है । लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि गुणवत्ता की दृष्टि से भी वह दूसरे स्थान पर है । जिस प्रकार मौलिक लेखन बढ़िया हो सकता है और घटिया भी, उसी प्रकार अनुवाद भी । आरोपों से अनुवाद-कार्य का महत्व कम नहीं होता।

सच पूछा जाए तो अनुवादक का महत्व इस रूप में है कि वह दो भाषाओं को न केवल जोड़ता है, बल्कि उनमें संजोई ज्ञानराशि को एक-दूसरे के निकट लाता है । अनुवादक अन्य भाषा की ज्ञान-संपदा को लक्ष्य भाषा में अंतरित करने में शास्त्रीय ढ़्ग से कहां तक सफल रहा है, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना दूसरी भाषा के पाठकों का अनुवाद द्वारा एक नई कृति से परिचित होना । मूल रचना का स्वल्प परिचय पूर्ण अज्ञान से बेहतर है । गेटे की पंक्तियां यहां उद्धृत करने योग्य है, जिनमें उन्होंने कार्लाइल को लिखा था – ‘ अनुवाद की अपूर्णता के बारे में तुम चाहे जितना भी कहो, पर सच्चाई यह है कि संसार के व्यवहारिक कार्यों किए लिए उसका महत्व असाधारण और बहुमूल्य है ।‘ यानी यह अनुवादक की निजी भाषिक क्षमताओं, लेखन-अनुभव और प्रतिभा पर निर्भर है कि उसका अनुवाद कितना सटिक, सहज और सुंदर बन पाया है ।

मेरा मानना है कि एक अच्छे अनुवादक के लिए एक अच्छा लेखक होना भी बहुत जरूरी है । एक अच्छा लेखक होना उसे एक अच्छा अनुवादक बना देगा ।



अनुवाद राष्ट्र-सेवा का कर्म है

(राजस्थान साहित्य अकादमी के प्रथम अनुवाद-पुरस्कार से सम्मानित,भारतीय अनुवाद परिषद, दिल्ली द्वारा द्विवागीश पुरस्कार से समादृत, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, बिहार राजभाषा विभाग, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय तथा देश की अन्य कई महत्वपूर्ण साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा डॉ० रैणा को उनके योगदान के लिए पुरस्कृत-सम्मानित किया जा चुका है। अंग्रेजी, कश्मीरी तथा उर्दू से डा0 रैणा पिछले ३० वर्षों से निरन्तर अनुवाद-कार्य करते आ रहे हैं और अब तक इनकी चैदह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनकी सर्वत्र प्रशंसा हुई है। डॉ० रैणा भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, राष्ट्रपति निवास, शिमला में अध्येता भी रहे हैं, जहाँ उन्होंने ‘भारतीय भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद की समस्याएँ’ विषय पर शोधकार्य किया है.यह कार्य संस्थान से प्रकाशित हो चुका है.सम्प्रति डॉ०रैणा संस्कृति मंत्रालय,भारत सरकार के सीनियर फेलो हैं. प्रसिद्ध अनुवादक,शिक्षाविद एवं लेखक डॉ०शिबनकृष्ण रैणा से प्रो० जीवनसिंह की अनुवादकला पर विस्तृत बातचीत के कुछ अंश यहाँ पर प्रस्तुत हैं.)

प्रश्न०: आपको अनुवाद की प्रेरण कब और कैसे मिली ?

उ०: १९६२ में कश्मीर विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिन्दी) कर लेने के बाद मैं पी-एच.डी. करने के लिए कुरुक्षेत्र विश्ववि़द्यालय आ गया (तब कश्मीर विश्वविद्यालय में रिसर्च की सुविधा नहीं थी) यू.जी.सी. की जूनियर फेलोशिप पर ‘कश्मीरी तथा हिन्दी कहावतों का तुलनात्मक अध्ययन’ पर शोधकार्य किया। 1966 में राजस्थान लोक सेवा आयोग से व्याख्याता हिन्दी के पद पर चयन हुआ।प्रभु श्रीनाथजी की नगरी नाथद्वारा मैं लगभग दस वर्षों तक रहा.यहाँ कालेज-लाइब्रेरी में उन दिनों देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाएँ : धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नवनीत, कादम्बिनी आदि आती थीं.। इन में यदा-कदा अन्य भारतीय भाषाओं से हिन्दी में अनुवादित कविताएँ/कहानियाँ/व्यंग्य आदि पढ़ने को मिल जाते। मुझे इन पत्रिकाओं में कश्मीरी से हिन्दी में अनुवादित रचनाएँ बिल्कुल ही नहीं या फिर बहुत कम देखने को मिलती। मेरे मित्र मुझसे अक्सर कहते कि मैं यह काम बखूबी कर सकता हूँ क्योंकि एक तो मेरी मातृभाषा कश्मीरी है और दूसरा हिन्दी पर मेरा अधिकार भी है। मुझे लगा कि मित्र ठीक कह रहे हैं। मुझे यह काम कर लेना चाहिए। मैं ने कश्मीरी की कुछ चुनी हुई सुन्दर कहानियों/कविताओं/लेखों/संस्मरणों आदि का मन लगाकर हिन्दी में अनुवाद किया। मेरे ये अनुवाद अच्छी पत्रिकाओं में छपे और खूब पसन्द किए गए। कुछ अनुवाद तो इतने लोकप्रिय एवं चर्चित हुए कि अन्य भाषाओं यथा कन्नड़, मलयालम, तमिल आदि में मेरे अनुवादों के आधार पर इन रचनाओं के अनुवाद हुए और उधर के पाठक कश्मीरी की इन सुन्दर रचनाओं से परिचित हुए। मैंने चूंकि एक अछूते क्षेत्र में प्रवेश करने की पहल की थी, इसलिए श्रेय भी जल्दी मिल गया।

प्रश्न०: अब तक आप किन-किन विधाओं में अनुवाद कर चुके हैं ?

उ0: मैंने मुख्य रूप से कश्मीरी, अंग्रेजी और उर्दू से हिन्दी में अनुवाद किया है। साहित्यिक विधाओं में कहानी, कविता, उपन्यास, लेख, नाटक आदि का हिन्दी में अनुवाद किया है।

प्रश्न० आप द्वारा अनुवादित कुछ कृतियों के बारे में बताएंगे ?

उ0: मेरे द्वारा अनुवादित कृतियाँ, जिन्हें मैं अति महत्वपूर्ण मानता हूँ और जिनको आज भी देख पढ़कर मुझे असीम संतोष और आनंद मिलता है, ‘प्रतिनिधि संकलन:कश्मीरी’(भारतीय ज्ञानपीठ)१९७३, ‘कश्मीरी रामायण: रामावतार चरित्र’ (भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनऊ)१९७५ ‘कश्मीर की श्रेष्ठ कहानियाँ’ (राजपाल एण्ड संस दिल्ली)१९८० तथा ‘ललद्यद’ (अंगे्रजी से हिन्दी में अनुवाद, साहित्य अकादमी, दिल्ली) १९८१ हैं। ‘कश्मीर की श्रेष्ठ कहानियाँ’ में कुल 19 कहानियाँ हैं। कश्मीरी के प्रसिद्ध एवं प्रतिनिधि कहानीकारों को हिन्दी जगत के सामने लाने का यह मेरा पहला सार्थक प्रयास है। प्रसिद्ध कथाकार विष्णु प्रभाकर ने मेरे अनुवाद के बारे में मुझे लिखा :‘ये कहानियाँ तो अनुवाद लगती ही नहीं हैं, बिल्कुल हिन्दी की कहानियाँ जैसी हैं. आपने, सचमुच, मेहनत से उम्दा अनुवाद किया है।’

प्रश्न०: अपनी अनुवाद-प्रक्रिया पर कुछ प्रकाश डालिए।

उ0: अनुवाद प्रक्रिया से तात्पर्य यदि इन सोपानों/चरणों से है, जिनसे गुजर कर अनुवाद/अनुवादक अपने उच्चतम रूप में प्रस्तुत होता है, तो मेरा यह मानना है कि अनुवाद रचना के कथ्य/आशय को पूर्ण रूप से समझ लेने के बाद उसके साथ तदाकार होने की बहुत जरूरत है। वैसे ही जैसे मूल रचनाकार भाव/विचार में निमग्न हो जाता है। यह अनुवाद-प्रक्रिया का पहला सोपान है। दूसरे सोपान के अन्तर्गत वह ‘समझे हुए कथ्य’ को लक्ष्य-भाषा में अंतरित करे, पूरी कलात्मकता के साथ। कलात्मक यानी भाषा की आकर्षकता, सहजता एवं पठनीयता के साथ। तीसरे सोपान में अनुवादक एक बार पुनः रचना को आवश्यकतानुसार परिवर्तित/परिवर्धित करे। मेरे विचार से मेरे अनुवाद की यही प्रक्रिया रही है।

प्रश्न०: अनुवाद के लिए क्या आपके सामने कोई आदर्श अनुवादक रहे ?

उ0: आदर्श अनुवादक मेरे सामने कोई नहीं रहा। मैं अपने तरीके से अनुवाद करता रहा हूँ और अपना आदर्श स्वयं रहा हूँ। दरअसल आज से लगभग 30-35 वर्ष पूर्व जब मैंने इस क्षेत्र में प्रवेश किया, अनुवाद को लेकर लेखकों के मन में कोई उत्साह नहीं था, न ही अनुवाद कला पर पुस्तकें ही उपलब्ध थीं और न ही अनुवाद के बारे में चर्चाएँ होती थीं। इधर, इन चार दशकों में अनुवाद के बारे में काफी चिंतन-मनन हुआ है। यह अच्छी बात है।

प्रश्न०: क्या आप मानते हैं कि साहित्यिक अनुवाद एक तरह से पुनर्सृजन है ?

उ0: मैं अनुवाद को पुनर्सृजन ही मानता हूँ, चाहे वह साहित्य का हो या फिर किसी अन्य विधा का। असल में अनुवाद मूल रचना का अनुकरण नहीं वरन् पुनर्जन्म है। वह द्वितीय श्रेणी का लेखन नहीं, मूल के बराबर का ही दमदार प्रयास है। मूल रचनाकार की तरह ही अनुवादक भी तथ्य को आत्मसात करता है, उसे अपनी चित्तवृत्तियों में उतारकर पुनः सृजित करने का प्रयास करता है तथा अपने अभिव्यक्ति-माध्यम के उत्कृष्ट उपादानों द्वारा उसको एक नया रूप देता है। इस सारी प्रक्रिया में अनुवादक की सृजन-प्रतिभा मुखर रहती है

प्रश्न०: अनुवाद करते समय किन-किन बातों के प्रति सतर्क रहना चाहिए ?

उ.०: यों तो अनुवाद करते समय कई बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए जिनका विस्तृत उल्लेख आदर्श अनुवाद/अनुवन्दक जैसे शीर्षकों के अन्तर्गत ‘अनुवादकला’ विषयक उपलब्ध विभिन्न पुस्तकों में मिल जाता है। संक्षेप में कहा जाए तो अनुवादक को इन बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए। (1) उसमें स्रोत और लक्ष्य भाषा पर समान रूप से अच्छा अधिकार होना चाहिए। (2) विषय का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए। (3) मूल लेखक के उद्देश्यों की जानकारी होनी चाहिए। (4) मूल रचना के अन्तर्निहित भावों की समझ होनी चाहिए। (5) सन्दर्भानुकूल अर्थ-निश्चयन की योग्यता हो। एक बात मैं यहाँ पर रेखांकित करना चाहूंगा और अनुवाद-कर्म के सम्बन्ध में यह मेरी व्यक्तिगत मान्यता है। कुशल अनुवादक का कार्य पर्याय ढूंढ़ना मात्र नहीं है, वह रचना को पाठक के लिए बोधगम्य बनाए, यह परमावश्यक है। सुन्दर-कुशल, प्रभावशाली तथा पठनीय अनुवाद के लिए यह ज़रूरी है कि अनुवादक भाषा-प्रवाह को कायम रखने के लिए, स्थानीय बिंबों व रूढ़ प्रयोगों को सुबोध बनाने के लिए तथा वर्ण्य-विषय को अधिक हृदयग्राही बनाने हेतु मूल रचना में आटे में नमक के समान फेर-बदल करे। यह कार्य वह लंबे-लंबे वाक्यों को तोड़कर, उनमें संगति बिठाने के लिए अपनी ओर से एक-दो शब्द जोड़कर तथा ‘अर्थ’ के बदले ‘आशय’ पर अधिक जोर देकर कर सकता है। ऐसा न करने पर ‘अनुवाद’ अनुवाद न होकर मात्र सरलार्थ बनकर रह जाता है।

प्रश्न०: मौलिक लेखन और अनुवाद की प्रक्रिया में आप क्या अंतर समझते हैं ?

उ.०: मेरी दृष्टि में दोनों की प्रक्रियाएं एक-समान हैं। मैं मौलिक रचनाएं भी लिखता हूँ। मेरे नाटक, कहानियाँ आदि रचनाओं को खूब पसन्द किया गया है। साहित्यिक अनुवाद तभी अच्छे लगते हैं जब अनुवादित रचना अपने आप में एक ‘रचना’ का दर्जा प्राप्त कर ले। दरअसल, एक अच्छे अनुवादक के लिए स्वयं एक अच्छा लेखक होना भी बहुत अनिवार्य है। अच्छा लेखक होना उसे एक अच्छा अनुवादक बनाता है और अच्छा अनुवादक होना उसे एक अच्छा लेखक बनाता है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, पोषक हैं।

प्रश्न०: भारत में विदेशों की तुलना में अनुवाद की स्थिति के विषय में आप क्या सोचते हैं ?

उ०: पश्चिम में अनुवाद के बारे में चिन्तन-मनन बहुत पहले से होता रहा है। कहने की आवश्यकता नहीं कि जिस तरह ज्ञान-विज्ञान एवं अन्य व्यावहारिक क्षेत्रों में पश्चिम बहुत आगे है, उसी तरह ‘अनुवाद’ में भी वह बहुत आगे है। वहाँ सुविधाएं प्रभूत मात्रा में उपलब्ध हैं, अनुवादकों का विशेष मान-सम्मान है। हमारे यहाँ इस क्षेत्र में अभी बहुत-कुछ करना शेष है।

प्रश्न०: भारत में जो अनुवाद कार्य हो रहा है, उसके स्तर से आप कहाँ तक सन्तुष्ट हैं ? इसमें सुधार के लिए आप क्या सुझाव देना चाहेंगे।

उ.०: साहित्यिक अनुवाद तो बहुत अच्छे हो रहे हैं। पर हाँ, विभिन्न ग्रन्थ- अकादमियों द्वारा साहित्येत्तर विषयों के जो अनुवाद सामने आए हैं या आ रहे हैं, उनका स्तर बहुत अच्छा नहीं है। दरअसल, उनके अनुवादक वे हैं, जो स्वयं अच्छे लेखक नहीं हैं या फिर जिन्हें सम्बन्धित विषय का अच्छा ज्ञान नहीं है। कहीं-कहीं यदि विषय का अच्छा ज्ञान भी है तो लक्ष्य भाषा पर अच्छी/सुन्दर पकड़ नहीं है। मेरा सुझाव है कि अनुवाद के क्षेत्र में जो सरकारी या गैर सरकारी संस्थाएं या कार्यालय कार्यरत हैं, वे विभिन्न विधाओं एवं विषयों के श्रेष्ठ अनुवाद का एक राष्ट्रीय -पैनल तैयार करें। अनुवाद के लिए इसी पैनल में से अनुवादकों का चयन किया जाए। पारिश्रमिक में भी बढ़ोतरी होनी चाहिए।

प्रश्न० आप अनुवाद के लिए रचना का चुनाव किस आधार पर करते हैं ?

उ.०: देखिए, पहले यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि हर रचना का अनुवाद हो, यह आवश्यक नहीं है। वह रचना जो अपनी भाषा में अत्यन्त लोकप्रिय रही हो, सर्वप्रसिद्ध हो या फिर चर्चित हो, उसी का अनुवाद वांछित है और किया जाना चाहिए। एक टी.वी. चैनल पर मुझसे पूछे गए इसी तरह के एक प्रश्न के उत्तर में मैंने कहा था - ‘प्रत्येक रचना/पुस्तक का अनुवाद हो, यह ज़रूरी नहीं है। हर भाषा में, हर समय बहुत-कुछ लिखा जाता है। हर चीज़ का अनुवाद हो, न तो यह मुमकिन है और न ही आवश्यक! मेरा मानना है कि केवल अच्छी एवं श्रेष्ठ रचना का ही अनुवाद होना चाहिए। ऐसी रचना जिसके बारे में पाठक यह स्वीकार करे कि सचमुच अगर मैंने इसका अनुवाद न पढ़ा होता तो निश्चित रूव से एक बहुमूल्य रचना के आस्वादन से वंचित रह जाता।

प्रश्न0: : अनुवाद से अनुवाद के बारे में आप की क्या राय है?

उ0:: प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो की वह पंक्ति याद आती है जिसमें वह कहता है कि कविता में कवि मौलिक कुछ भी नहीं कहता,अपितु नकल की नकल करता है।‘फोटो-स्टेटिंग’ की भाषा में बात करें तो जिस प्रकार मूल प्रति के इम्प्रेशन में और उस इम्प्रेशन के इम्प्रेशन में अन्तर रहना स्वाभाविक है,ठीक उसी प्रकार सीधे मूल से किए गये अनुवाद और अनुवाद से किए गये अनुवाद में फर्क रहेगा।मगर,सच्चाई यह है कि इस तरह के अनुवाद हो रहे हैं।तुर्की,अरबी,फ्रैंच,जर्मन आदि भाषाएं न जानने वाले भी इन भाषाओं से अनुवाद करते देखे गए हैं।इधर,कन्नड़,मलयालम,गुजराती,तमिल,बंगला आदि भारतीय भाषाओं से इन भाषाओं को सीधे-सीधे न जानने वाले भी अनुवाद कर रहे हैं।ऐसे अनुवाद अंग्रेज़ी या हिन्दी को माध्यम बनाकर हो रहे हैं।यह काम खूब हो रहा है।



प्रश्न : अनुवाद-कार्य के लिए अनुवाद-प्रशिक्षण एवं उसकी सैद्धान्तिक जानकारी को आप कितना आवश्यक मानते हैं?

उ : सिद्धान्तों की जानकारी उसे एक अच्छा अनुवाद-विज्ञानी या जागरूक अनुवादक बना सकती है,मगर प्रतिभाशाली अनुवादक नहीं।मौलिक लेखन की तरह अनुवादक में कारयित्री प्रतिभा का होना परमावश्यक है।यह गुण उसमें सिद्धान्तों के पढ़ने से नहीं,अभ्यास अथवा अपनी सृजनशील प्रतिभा के बल पर आसकेगा। यों,अनुवाद-सिद्धान्तों का सामान्य ज्ञान उसे इस कला के विविध ज्ञातव्य पक्षों से परिचय अवश्य कराएगा।



प्रश्न०: अनुवाद में स्रोत भाषा के प्रति मूल निष्ठता के बारे में आपकी क्या राय है ?

उ.०: मूल के प्रति निष्ठा-भाव आवश्यक है। अनुवादक यदि मूल के प्रति निष्ठावान नहीं रहता, तो निश्चित रूप से ‘पापकर्म’ करता है। मगर, जैसे हमारे यहाँ (व्यवहार में) ‘प्रिय सत्य’ बोलने की सलाह दी गई है, उसी तरह अनुवाद में भी अनुवाद में भी प्रिय लगने वाला फेर-बदल स्वीकार्य है। दरअसल, हर भाषा में उस देश के सांस्कृतिक, भौगोलिक तथा ऐतिहासिक सन्दर्भ प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में रहते हैं और इन सन्दर्भों का भाषा की अर्थवत्ता से गहरा संबंध रहता है। इस अर्थवत्ता को ‘भाषा का मिज़ाज’ अथवा भाषा की प्रकृति कह सकते हैं। अनुवादक के समक्ष कई बार ऐसे भी अवसर आते हैं जब कोश से काम नहीं चलता और अनुवादक को अपनी सृजनात्मक प्रतिभा के बल पर समानार्थी शब्दों की तलाश करनी पड़ती है। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि भाषा और संस्कृति के स्तर पर मूल कृति अनुवाद कृति के जितनी निकट होगी, अनुवाद करने में उतनी ही सुविधा रहेगी। सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक दूरी जितनी-जितनी बढ़ती जाती है, अनुवाद की कठिनाइयाँ भी उतनी ही गुरुतर होती जाती हैं। भाषा, संस्कृति एवं विषय के समुचित ज्ञान द्वारा एक सफल अनुवादक उक्त कठिनाई का निस्तारण कर सकता है।

प्रश्न०: आप किस तरह के अनुवाद को सबसे कठिन मानते हैं और क्यों ?

उ.०: अनुवाद किसी भी तरह का हो पर अपने आप में एक दुःसाध्य/श्रमसाध्य कार्य है। इस कार्य को करने में जो कोफ़्त होती है, उसका अन्दाज़ वहीं लगा सकते हैं जिन्होंने अनुवाद का काम किया हो। वैसे मैं समझता हूँ कि दर्शन-शास्त्र और तकनीकी विषयों से संबंधित अथवा आंचलिकता का विशेष पुट लिए पुस्तकों का अनुवाद करना अपेक्षाकृत कठिन है। गद्य की तुलना में पद्य का अनुवाद करना भी कम जटिल नहीं है।

प्रश्न०: लक्ष्य भाषा की सहजता को बनाए रखने के लिए क्या-क्या उपाय सुझाना चाहेंगे ?

उ.०: सुन्दर-सरस शैली, सरल-सुबोध वाक्य गठन, निकटतम पर्यायों का प्रयोग आदि लक्ष्य भाषा की सहजता को सुरक्षित रखने में सहायक हो सकते हैं। यों मूल भाषा के अच्छे परिचय से भी काम चल सकता है लेकिन अनुवाद में काम आने वाली भाषा तो जीवन की ही होनी चाहिए।

प्रश्न०: किसी देश की सांस्कृतिक चेतना को विकसित करने में अनुवाद की क्या भूमिका है ?

उ०: अनुवाद-कर्म राष्ट्र सेवा का कर्म है। यह अनुवादक ही है जो भाषाओं एवं उनके साहित्यों को जोड़ने का अद्भुत एवं अभिनंदनीय प्रयास करता है। दो संस्कृतियों, समाजों, राज्यों, देशों एवं विचारधाराओं के बीच ‘सेतु’ का काम अनुवादक ही करता है। और तो और, यह अनुवादक ही है जो भौगोलिक सीमाओं को लांघकर भाषाओं के बीच सौहार्द, सौमनस्य एवं सद्भाव को स्थापित करता है तथा हमें एकात्मकता एवं वैश्वीकरण की भावना से ओतप्रोत कर देता है। इस दृष्टि से यदि अनुवादक को समन्वयक, मध्यस्थ, सम्वाहक, भाषायी-दूत आदि की संज्ञा दी जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। कविवर बच्चन जी, जो स्वयं एक कुशल अनुवादक रहे हैं, ने ठीक ही कहा है कि अनुवाद दो भाषाओं के बीच मैत्री का पुल है। वे कहते हैं - ‘अनुवाद एक भाषा का दूसरी भाषा की ओर बढ़ाया गया मैत्री का हाथ है। वह जितनी बार और जितनी दिशाओं में बढ़ाया जा सके, बढ़ाया जाना चाहिए ...।’

प्रश्न०: अनुवाद मनुष्यजाति को एकदूसरे के पास लाकर हमारी छोटी दुनिया को बड़ा बनाता है।इसके बावजूद यह दुनिया अपने-अपने छोटे अहंकारों से मुक्त नहीं हो पाती-इसके कारण क्या हैं?आप इस बारे में क्या सोचते हैं?

उ०: देखिए,इसमें अनुवाद/अनुवादक कुछ नहीं कर सकता। जब तक हमारे मन छोटे रहेंगे,दृष्टि संकुचित एवं नकारात्मक रहेगी,यह दुनिया हमें सिकुड़ी हुई ही दीखेगी ।मन को उदार एवं बहिर्मुखी बनाने से ही हमारी छोटी दुनिया बड़ी हो जाएगी।

प्रश्न०: अच्छा,यह बताइए कि कश्मीर की समस्या का समाधान करने में कश्मीरी-हिन्दी एवं कश्मीरी से हिन्दीतर भारतीय भाषाओं में अनुवाद किस सीमा तक सहायक हो सकते हैं?

उ०: कश्मीर में जो हाल इस समय है ,उससे हम सभी वाकिफ़ हैं।सांप्रदायिक उन्माद ने समूची घाटी के सौहार्दपूर्ण वातावरण को विषाक्त बना दिया है। कश्मीर के अधिकांश कवि,कलाकार,संस्कृतिकर्मी आदि घाटी छोड़कर इधर-उधर डोल रहे हैं और जो कुछेक घाटी में रह रहे हैं उनकी अपनी पीड़ाएं और विवशताएं हैं। विपरीत एवं विषम परिस्थितियों के बावजूद कुछ रचनाकार अपनी कलम की ताकत से घाटी में जातीय सद्भाव एवं सांप्रदायिक सौमनस्य स्थापित करने का बड़ा ही स्तुत्य प्रयास कर रहे हैं। मेरा मानना है कि ऐसे निर्भिक लेखकों की रचनाओं के हिन्दी अनुवाद निश्चित रूप से इस बात को रेखांकित करेंगे कि बाहरी दबावों के बावजूद कश्मीर का रचनाकार शान्ति चाहता है और भईचारे और मानवीय गरिमा में उसका अटूट विश्वास है और इस तरह एक सुखद वातावरण की सृष्टि संभव है।ऐसे अनुवादों को पढ़कर वहां के रचनाकार के बारे में प्रचलित कई तरह की बद्धमूल/निर्मूल स्थापनाओं का निराकरण भी हो सकता है।इसी प्रकार कश्मीरी साहित्य के ऐसे श्रेष्ठ एवं सर्वप्रसिद्ध रचनाकारों जैसे,लल्लद्यद,नुंदऋषि,महजूर,दीनानाथ रोशन,निर्दोष आदि, जो सांप्रदायिक सद्भाव के सजग प्रहरी रहे हैं, की रचनाओं के हिन्दी अनुवाद कश्मीर में सदियों से चली आरही भाईचारे की रिवायत को निकट से देखने में सहायक होंगे।



अनुवाद हमें राष्ट्रीय ही नहीं अन्तर्राष्ट्रीय भी बनाता है



आज जब वैश्वीकरण की अवधारणा उत्तरोत्तर बलवती होती जा रही है,सूचना प्रौद्योगिकी ने व्यक्ति के दैनंदिन जीवन को एकदूसरे के निकट लाकर खड़ा कर दिया है,क्षितिजों तक फैली दूरियां सिमट गयी हैं,ऐसे में अनुवाद की महिमा और उपयोग की तरफ हमारा ध्यान जाना स्वाभाविक है.अनुवाद वह साधन है जो हमें भैगोलिक सीमाओं से उस पार ले जाकर हमें दूसरी दुनिया के ज्ञान-विज्ञान, कला-संस्कृति,साहित्य-शिक्षा आदि की विलक्षणताओं से परिचित कराता है.दूसरे शब्दों में दुनिया में ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रों में हो रही प्रगति या अन्य गतिविधियों का परिचय हमें अनुवाद के माध्यम से ही मिल जाता है.दरअसल,यह अनुवादक ही है जो दो संस्कृतियों, राज्यों, देशों एवं विचारधाराओं के बीच ‘सेतु’ का काम करता है। और तो और यह अनुवादक ही है जो भौगोलिक सीमाओं को लांघकर भाषाओं के बीच सौहार्द, सौमनस्य एवं सद्भाव को स्थापित करता है तथा हमें एकात्माकता एवं वैश्वीकरण की भावनाओं से ओतप्रोत कर देता है। इस दृष्टि से यदि अनुवादक को समन्वयक, मध्यस्थ, संवाहक, भाषायी-दूत आदि की संज्ञा दी जाए तो कोई अत्युक्ति न होगी। कविवर बच्चन जी, जो स्वयं एक कुशल अनुवादक रहे हैं, ने ठीक ही कहा है कि अनुवाद दो भाषाओं के बीच मैत्री का पुल है। वे कहते हैं- ”अनुवाद एक भाषा का दूसरी भाषा की ओर बढ़ाया गया मैत्री का हाथ है। वह जितनी बार और जितनी दिशाओं में बढ़ाया जा सके, बढ़ाया जाना चाहिए-)साहित्यानुवाद: संवाद और संवेदना, डा० आरसू पृ० ८५ )



भाषा के आविष्कार के बाद जब मनुष्य-समाज का विकास-विस्तार होता चला गया और सम्पर्कों एवं आदान-प्रदान की प्रक्रिया को अधिक फैलाने की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी, तो अनुवाद ने जन्म लिया । प्रारम्भ में अनुवाद की परंपरा निश्चित रूप से मौखिक ही रही होगी । इतिहास साक्षी है कि प्राचीनकाल में जब एक राजा दूसरे राजा पर आक्रमण करने को निकलता था, तब अपने साथ ऐसे लोगों को भी साथ लेकर चलता था जो दुभाषिए का काम करते थे । यह अनुवाद का आदिम रूप था ।साहित्यिक-गतिविधि के रूप में अनुवाद को बहुत बाद में महत्त्व मिला । दरअसल, अनुवाद के शलाका-पुरुष वे यात्री रहे हैं, जिन्होंने देशाटन के निमित्त विभिन्न देशों की यात्राऍं कीं और जहां-जहां वे गये, वहां-वहांकी भाषाएं सीखकर उन्होंने वहॉं के श्रेष्ठ ग्रंथों का अपनी-अपनी भाषाओं में अनुवाद किया । चौथी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में फाहियान नामक एक चीनी यात्री ने २५ वर्षों तक भारत में रहकर संस्कृत भाषा, व्याकरण, साहित्य, इतिहास, दर्शनशास्त्र आदि का अध्ययन किया और अनेक ग्रंथों की प्रतिलिपियां तैयार कीं । चीन लौटकर उसने इनमें से कई ग्रंथों का चीनी में अनुवाद किया । कहा जाता है कि चीन में अनुवादकार्य को राज्य द्वारा प्रश्रय दिया जाता था तथा पूर्ण धार्मिक विधि-विधान के साथ अनुवाद किया जाता था । संस्कृत के चीनी अनुवाद जापान में छठी-सातवीं शताब्दी में पहुंचे और जापानी में भी उनका अनुवाद हुआ ।



प्राचीनकाल से लेकर अब तक अनुवाद ने कई मंजिलें तय की हैं । यह सच है कि आधुनिककाल में अनुवाद को जो गति मिली है, वह अभूतपूर्व है । मगर, यह भी उतना ही सत्य है कि अनुवाद की आवश्यकता हर युग में, हर काल में तथा हर स्थान पर अनुभव की जाती रही है। विश्व में द्रुतगति से हो रहे विज्ञान और तकनॉलजी तथा साहित्य, धर्म-दर्शन, अर्थशास्त्र आदि ज्ञान-विज्ञानों में विकास ने अनुवाद की आश्वयकता को बहुत अधिक बढ़ावा दिया है ।



आज देश के सामने यह प्रश्न चुनौती बनकर खड़ा है कि बहुभाषओं वाले इस देश की साहित्यिक-सांस्कृतिक धरोहर को कैसे अक्षुण्ण रखा जाए ? देशवासी एक-दूसरे के निकट आकर आपसी मेलजोल और भाई-चारे की भावनाओं को कैसे आत्मसात् करें ? वर्तमान परिस्थितियों में यह और भी आवश्यक हो जाता है कि देशवासियों के बीच सांमजस्य और सद्भाव की भावनाऍं विकसित हों ताकि प्रत्यक्ष विविधता के होते हुए भी हम अपनी सांस्कृतिक समानता एंव सौहार्दता के दर्शन कर अनकेता में एकता की संकल्पना को मूर्त्त रूप प्रदान कर सकें । भाषायी सद्भावना इस दिशा में एक महती भूमिका अदा कर सकती है। सभी भारतीय भाषाओं के बीच सद्भावना का माहौल बने, वे एक-दूसरे से भावनात्मक स्तर पर जुड़ें और उनमें पारस्परिक आदान-प्रदान का संकल्प दृढ़तर हो, यही भारत की भाषायी सद्भावना का मूलमंत्र है। इस पुनीत एवं महान् कार्य के लिए सम्पर्क भाषा हिन्दी के विशेष योगदान को हमें स्वीकार करना होगा। यही वह भाषा है जो सम्पूर्ण देश को एकसूत्र में जोड़कर राष्ट्रीय एकता के पवित्र लक्ष्य को साकार कर सकती है। स्वामी दयानन्द ने ठीक ही कहा था, ”हिन्दी के द्वारा ही सारे भारत को एकसूत्र में पिरोया जा सकता है।’’ यहॉं पर यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि हिन्दी को ही भाषायी सद्भावना की संवाहिका क्यों स्वीकार किया जाए ? कारण स्पष्ट है। हिन्दी आज एक बहुत बड़े भू-भाग की भाषा है। इसके बोलने वालों की संख्या अन्य भारतीय भाषा-भाषियों की तुलना में सर्वाधिक है। लगभग ५० करोड़ व्यक्ति यह भाषा बोलते हैं। इसके अलावा अभिव्यक्ति, रचना-कौशल, सरलता-सुगमता एंव लोकप्रियता की दृष्टि से भी वह एक प्रभावशाली भाषा के रूप में उभर चुकी है और उत्तरोत्तर उसका प्रचार-प्रसार बढ़ता जा रहा है। अत: देश की भाषायी सद्भावना एवं एकात्माकता के लिए हिन्दी भाषा के बहुमूल्य महत्त्व को हमें स्वीकार करना होगा।

भाषायी सद्भावना की जब हम बात करते हैं तो ‘अनुवाद’ की तरफ हमारा ध्यान जाना स्वभाविक है। दरअसल, अनुवाद वह साधन है जो ‘भाषायी सद्भावना’ की अवधारणा को न केवल पुष्ट करता है अपितु भारतीय और अंतर्देशीय साहित्य एवं अस्मिता को गति प्रदान करने वाला एक सशक्त और आधारभूत माध्यम भी है। यह एक ऐसा अभिनन्दनीय कार्य है जो भारतीय साहित्य के अलावा विश्व साहित्य की अवधारणा से हमें परिचित कराता है तथा हमें सच्चे अर्थों में भारतीय होने के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय भी बनाता है। आज यदि विश्व के ख्यातनामा रचनाकारों मिल्टन,पोप,गोर्की,शेख सादी,काजी नज़रउल इस्लाम,इकबाल,सुब्रह्मण्य भारती , महाश्वेता देवी, उमाशंकर जोशी , विजयदान देथा, कुमारन् आशान् , वल्लत्तोल, ललद्यद, हब्बाखातून, सीताकान्त माहापात्र, टैगोर आदि विश्व और भारतीय भाषाओं के इन यशस्वी लेखकों की रचनाऍं अनुवाद के ज़रिए हम तक नहीं पहुंचती, तो भारतीय साहित्य सम्बन्धी हमारा ज्ञान कितना सीमित,कितना क्षुद्र होता, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

पूर्व में कहा जा चुका है कि विविधताओं से युक्त भारत जैसे बहुभाषा-भाषी देश में एकात्मकता की परम आवश्यकता है और अनुवाद साहित्यिक धरातल पर इस आवश्यकता की पूर्ति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने में सक्षम है। अनुवाद वह सेतु है जो साहित्यिक आदान-प्रदान, भावनात्मक एकात्मकता, भाषा समृद्धि, तुलनात्मक अध्ययन तथा राष्ट्रीय सौमनस्य की संकल्पनाओं को साकार कर हमें वृहत्तर साहित्य-जगत् से जोड़ता है। अनुवाद-विज्ञानी डॉ० जी० गोपीनाथन लिखते हैं- ‘भारत जैसे बहुभाषा -भाषी देश में अनुवाद की उपादेयता स्वयंसिद्ध है। भारत के विभिन्न प्रदेशों के साहित्य में निहित मूलभूत एकता के स्परूप को निखारने (दर्शन करने) के लिए अनुवाद ही एकमात्र अचूक साधन है। इस तरह अनुवाद द्वारा मानव की एकता को रोकने वाली भौगोलिक और भाषायी दीवारों को ढहाकर विश्वमैत्री को और भी सुदृढ़ बना सकते हैं।’

आने वाली शताब्दी अन्तरराष्ट्रीय संस्कृति की शताब्दी होगी और सम्प्रेषण के नये-नये माध्यमों व आविष्कारों से वैश्वीकरण के नित्य नए क्षितिज उद्घाटित होंगे । इस सारी प्रक्रिया में अनुवाद की महती भूमिका होगी । इससे ”वसुधैव कुटुम्बकम्’’ की उपनिषदीय अवधारणा साकार होगी । इस दृष्टि से सम्प्रेषण-व्यापार के उन्नायक के रूप में अनुवादक एवं अनुवाद की भूमिका निर्विवाद रूप से अति महत्त्वूपर्ण सिद्ध होती है ।

अनुवाद-कर्म से जुड़े अनुवादक को यदि “भाषायी-राजदूत” की संज्ञा से विभूषित किया जाय तो कोई अत्योक्ति न होगी.





अनुवाद एक पुल है

हर भाषा का अपना एक अलग मिज़ाज होता है,अपनी एक अलग प्रकृति होती है जिसे दूसरी भाषा में ढालना या फिर अनुवादित करना असंभव नहीं तो कठिन ज़रूर होता है।भाषा का यह मिज़ाज इस भाषा के बोलने वालों की सांस्कृतिक परम्पराओं,देशकाल-वातावरण,परिवेश,जीवनशैली,रुचियों,चिन्तन-प्रक्रिया आदि से निर्मित होता है।अंग्रेजी का एक शब्द है ‘स्कूटर’। चूंकि इस दुपहिये वाहन का आविष्कार हमने नहीं किया,अतः इससे जुड़ा हर शब्द जैसे: टायर,पंक्चर,सीट,हैंडल,गियर,ट्यूब आदि को अपने इसी रूप में ग्रहण करना और बोलना हमारी विवशता ही नहीं हमारी समझदारी भी कहलाएगी । इन शब्दों के बदले बुद्धिबल से तैयार किये संस्कृत के तत्सम शब्दों की झड़ी लगाना स्थिति को हास्यास्पद बनाना है।आज हर शिक्षित/अर्धशिक्षित/अशिक्षित की जुबां पर ये शब्द सध-से गये हैं।स्टेशन,सिनेमा,बल्ब,पावर,मीटर,पाइप आदि जाने और कितने सैंकड़ों शब्द हैं जो अंग्रेजी भाषा के हैं मगर हम इन्हें अपनी भाषा के शब्द समझकर इस्तेमाल कर रहे हैं।समाज की सांस्कृतिक परम्पराओं का भाषा के निर्माण में महती भूमिका रहती है। हिंदी का एक शब्द लीजिये: खडाऊं।अंग्रेजी में इसे क्या कहेंगे?वुडन स्लीपर? जलेबी को राउंड-राउंड स्वीट्स?सूतक को अनहोली टाइम?च्यवनप्राश को च्वन्ज़ टॉनिक?आदि-आदि।कहने का तात्पर्य यह है कि हर भाषा के शब्दों की चूंकि अपनी निजी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और परम्पराएँ होती है, अतः उन्हें दूसरी भाषा में हू-ब-हू उसी रूप में ढालने में या उनका समतुल्य शब्द तलाश करने में बड़ी दिक्कत रहती है ।अतः ऐसे शब्दों को उनके मूल रूप में स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है। टेक्निकल को तकनीकी बनाकर हमने उसे लोकप्रिय कर दिया। रिपोर्ट को रपट किया । अलेक्जेंडर सिकंदर बना।एरिस्टोटल अरस्तू हो गया और रिक्रूट रंगरूट में बदल गया। कई बार भाषाविदों का काम समाज भी करता चलता है। जैसे मोबाइल को चलितवार्ता और टेलीफोन को दूरभाष भी कहा जाता है। यों,भाषाविद् प्रयास कर रहे होंगे कि इन शब्दों के लिए कोई सटीक शब्द हिंदी में उपलब्ध हो जाए, मगर जब तक इनके लिए कोई सरल शब्द निर्मित नहीं होते हैं तब तक मोबाइल/टेलेफोन को ही गोद लेने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए।हिंदी की तकनीकी,वैज्ञानिक और विधिक शब्दावली को समृद्ध करने के लिए यह अति आवश्यक है कि हम सरल अनुवाद की संस्कृति को प्रोत्साहित कर मूल भाषा के ग्राह्य शब्दों को भी स्वीकार करते चलें। अनुवाद एक पुल है, जो दो दिलों को, दो भाषिक संस्कृतियों को जोड़ देता है।अनुवाद के सहारे ही विदेशी या स्वदेशी भाषाओं के अनेक शब्द हिंदी में आ सकते हैं और नया संस्कार ग्रहण कर सकते हैं। कोई भाषा तभी समृद्ध होती है जब वह अन्य भाषाओं के शब्द भी ग्रहण करती चले। हिंदी भाषा में आकर अँगरेज़ी,उर्दू-फ़ारसी अथवा अन्य भाषाओँ के कुछ शब्द समरस होते चलें तो यह खुशी की बात है और हमें इसे स्वीकार करना चाहिए।बहुत पहले मेरे एक मित्र ने अपने पत्र के अंत में मुझे लिखा था : “आशा है आप चंगे होंगे?” आप आनंदपूर्वक/सानंद या सकुशल होंगे के बदले पंजाबी शब्द ‘चंगे’ का प्रयोग तब मुझे बेहद अच्छा लगा था।



अनुवाद-कर्म

अनुवाद को मौलिक सृजन की कोटि में रखा जाए या नहीं, यह बात हमेशा चर्चा का विषय रही है। अनुवाद-कर्म में रत अध्यवसायी अनुवादकों का मत है कि अनुवाद दूसरे दरजे का लेखन नहीं, बल्कि मूल के बराबर का ही सृजनधर्मी प्रयास है। बच्चन जी के विचार इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं– “मैं अनुवाद को, यदि वह मौलिक प्रेरणाओं से एकात्मा होकर किया गया हो, मौलिक सृजन से कम महत्व नहीं देता। अनुभवी ही जानते हैं कि अनुवाद मौलिक सृजन से भी अधिक कितना कठिन-साध्य होता है । मूल कृति से रागात्मक संबंध जितना अधिक होगा, अनुवाद का प्रभाव उतना ही बढ़ जाएगा। दरअसल, सफल अनुवादक वही है जो अपनी दृष्टि, भावों, कथ्य और आशय पर रखे । साहित्यानुवाद में शाब्दिक अनुवाद सुंदर नहीं होता। एक भाषा का भाव या विचार जब अपने मूल भाषा-माध्यम को छोड़कर दूसरे भाषा-माध्यम से एकात्म होना चाहेगा, तो उसे अपने अनुरूप शब्द राशि संजोने की छूट देनी ही होगी। यहीं पर अनुवादक की प्रतिभा काम करती है और अनुवाद मौलिक सृजन की कोटि में आ जाता है ” ।

दरअसल, अनुवाद एक श्रमसाध्य और कठिन रचना-प्रक्रिया है। यह मूल रचना का अनुकरण-मात्र नहीं, बल्कि पुनर्जन्म होता है । यह द्वितीय श्रेणी का लेखन नहीं, मूल के बराबर का ही दमदार प्रयास है । इस दृष्टि से मौलिक सृजन और अनुवाद की रचना-प्रक्रिया आमतौर पर एक समान होती है । दोनों के भीतर अनुभूति पक्ष की सघनता रहती है। अनुवादक तब तक मूल रचना की अनुभूति, आशय और अभिव्यक्ति के साथ तदाकार नहीं हो जाता, तब तक सुंदर और पठनीय अनुवाद की सृष्टि नहीं हो पाती। इसलिए अनुवादक में सृजनशील प्रतिभा का होना अनिवार्य है। मूल रचनाकार की तरह अनुवादक भी कथ्य को आत्मसात करता है, उसे अपनी चित्तवृत्तियों में उतार कर फिर से सृजित करने का प्रयास करता है और अपने अभिव्यक्ति-माध्यम के उत्कृष्ट उपादानों द्वारा उसे एक नया रूप देता है । इस सारी प्रक्रिया में अनुवादक की सृजन प्रतिभा मुखर रहती है। अनुवाद में अनुवादक की प्रतिभा के महत्व को सभी अनुवाद-विज्ञानियों ने स्वीकार किया है । इसी कारण अनुवादक को एक सर्जक ही माना गया है और उसकी कला को सर्जनात्मक कला।

इसी संदर्भ में फिट्जेराल्ड द्वारा उमर खैयाम की रुवाइयों के अनुवाद को देखा जा सकता है । विद्वानों का मानना है कि यह अनुवाद खैयाम की काव्य-प्रतिभा की अपेक्षा फिट्जेराल्ड की निजी प्रतिभा का उत्कृष्ट नमूना है। खुद फिट्जेराल्ड ने अपने अनुवाद के बारे में कहा है कि एक मरे हुए पक्षी के स्थान पर दूसरा जीवित पक्षी अधिक अच्छा है (मरे हुए बाज की अपेक्षा एक जीवित चिड़िया ज्यादा अच्छी है )। कहना वे यह चाहते थे कि अगर मैंने रुबाइयों का शब्दश: या यथावत अनुवाद किया होता तो उसमें जान न होती, वह मरे हुए पक्षी की तरह प्राणहीन या निर्जीव होता। अपनी प्रतिभा उड़ेल कर फिट्जेराल्ड ने रुबाइयों के अनुवाद को प्राणमय और सजीव बना दिया ।

अनुवाद के अच्छे या बुरे होने को लेकर कई तरह की भ्रांतिया प्रचलित है । आरोप लगाया जाता है कि मूल की तुलना में अनुवाद अपूर्ण रहता है, अनुवाद में मूल के सौंदर्य की रक्षा नहीं हो पाती, अनुवाद दोयम दरजे का काम है, आदि । अनुवाद-कर्म पर लगाए जाने वाले ये आरोप मुख्य रूप से अनुवादक की अयोग्यता के कारण हैं । अनुवाद में मूल भाव-सौंदर्य और विचार-सौष्टव की रक्षा तो हो सकती है, पर भाषा-सौंदर्य की रक्षा इसलिए नहीं हो पाती क्योंकि भाषाओं में रूप-रचना और प्रयोग की रूढ़ियों की दृष्टि से भिन्नता होती है । सही है कि मौलिक लेखन के बाद ही अनुवाद होता है, इसलिए निश्चित रूप से वह क्रम की दृष्टि से दूसरे स्थान पर है । लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि गुणवत्ता की दृष्टि से भी वह दूसरे स्थान पर है । जिस प्रकार मौलिक लेखन बढ़िया हो सकता है और घटिया भी, उसी प्रकार अनुवाद भी । आरोपों से अनुवाद-कार्य का महत्व कम नहीं होता।

सच पूछा जाए तो अनुवादक का महत्व इस रूप में है कि वह दो भाषाओं को न केवल जोड़ता है, बल्कि उनमें संजोई ज्ञानराशि को एक-दूसरे के निकट लाता है । अनुवादक अन्य भाषा की ज्ञान-संपदा को लक्ष्य भाषा में अंतरित करने में शास्त्रीय ढ़्ग से कहां तक सफल रहा है, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना दूसरी भाषा के पाठकों का अनुवाद द्वारा एक नई कृति से परिचित होना । मूल रचना का स्वल्प परिचय पूर्ण अज्ञान से बेहतर है । गेटे की पंक्तियां यहां उद्धृत करने योग्य है, जिनमें उन्होंने कार्लाइल को लिखा था – ‘ अनुवाद की अपूर्णता के बारे में तुम चाहे जितना भी कहो, पर सच्चाई यह है कि संसार के व्यवहारिक कार्यों किए लिए उसका महत्व असाधारण और बहुमूल्य है।‘ यानी यह अनुवादक की निजी भाषिक क्षमताओं, लेखन-अनुभव और प्रतिभा पर निर्भर है कि उसका अनुवाद कितना सटिक, सहज और सुंदर बन पाया है ।

मेरा मानना है कि एक अच्छे अनुवादक के लिए एक अच्छा लेखक होना भी बहुत जरूरी है। एक अच्छा लेखक होना उसे एक अच्छा अनुवादक बना देगा।



हिन्दी में अनुवादित कश्मीरी साहित्य



राष्ट्रभाषा हिन्दी की सार्थकता और प्रासंगिकता इस बात में भी है कि वह सम्पर्क भाषा के रूप में सभी भारतीय भाषाओं में रचित सुरुचिपूर्ण एवं पठनीय श्रेष्ठ साहित्य को अनुवाद के माध्यम से सामने लाकर देश में साहित्यिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान का एक सुखद और सौमनस्यपूर्ण माहौल तैयार करे। इस दृष्टि से विचार करें तो अनुवाद का महत्त्व निर्विवाद है । दरअसल, अनुवाद वह साधन और कारगर माध्यम है जिसके द्वारा दो संस्कृतियों, दो भाषाओं के साहित्यों तथा दो भावधाराओं को निकट लाकर राष्ट्रीय एकता के पुनीत संकल्प को सुदृढ़ किया जा सकता है तथा विभिन्न भाषाओं के साहित्य में सन्निहित सांस्कृतिक और बौद्धिक मूल-चेतना की आंतरिक समानता अथवा अखंडता के दर्शन किए जा सकते हैं ।

अनुवाद-कार्य, सच में, हमें भारतीय बनाता है तथा भारतीय साहित्य की अवधारणा को पुष्ट करने में सहायता करता है। आज यदि रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरतचन्द्र, सुब्रह्मण्यम भारती, बंकिम चन्द्र, मामा वरेरकर, बुद्धदेव बसु, महाश्वेता देवी, बेन्द्रे, उमाशंकर जोशी, विमल मित्र, अमृता प्रीतम, हब्बाखातून, ललद्यद, गोपीनाथ मोहन्ती, सीताकान्त महापात्र आदि भारत की प्रादेशिक भाषाओं के इन महान साहित्यकारों की रचनाएं अनुवाद के माध्यम से हम तक न पहुंचती, तो भारतीय साहित्य सम्बन्धी हमारा ज्ञान कितना सीमित और क्षुद्र होता, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। यों अगर ध्यान से देखा जाए तो वेदपुराण, गीता, रामायण-महाभारत आदि भारतीय वाङ्मय के ज्ञानगर्भित ग्रन्थ भी अनुवाद के जरिए ही सामान्य पाठक के अध्ययन अथवा समझ की पहुंच के भीतर आ सके हैं या आ सकते हैं ।

विभिन्न भारतीय भाषाओं में रचे गए या रचे जा रहे समूचे साहित्य को हिन्दी में अनुवादित करना व्यावहारिक दृष्टि से यद्यपि संभव नहीं है, तथापि इन भाषाओं में रचित चर्चित,पठनीय और उत्कृष्ट साहित्य को हिन्दी अनुवाद द्वारा एक वृहतर पाठक-समुदाय तक पहुंचाना संभव है और इस दिशा में बंगला, मराठी, गुजराती से हिन्दी में अनुवाद करने के सार्थक प्रयास हुए हैं । अनुवाद-कर्म की महता को प्रेमचंद जैसे महारथियों ने न केवल स्वीकार किया था अपितु स्वयं इस कर्म में संलग्न भी हुए थे । संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि अनुवाद-कार्य के माध्यम से देश की श्रेष्ठ सोच और समझ को जानने का हमें सुअवसर मिल जाता है और भारतीय साहित्य सम्बन्धी हमारी जानकारी में इजाफा होता है ।

अन्य भारतीय भाषाओं की तरह कश्मीरी से हिन्दी में हुए या हो रहे अनुवादकार्य की एक दीर्घ परंपरा है । हिन्दी में कश्मीरी की कौन-सी रचना कब पहली बार अनूदित हुई, यह कहना यद्यपि कठिन है, तथापि यह सही है कि कश्मीरी रचनाओं का हिन्दी से पूर्व या तो अंग्रेजी में या फिर उर्दू में अनुवाद होता रहा । कश्मीर के प्रसिद्ध शायर गुलाम अहमद महजूर (1887-1952) की कविता अंग्रेजी माध्यम से ही कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘माडर्न रिव्यू में पढ़ी थी और भाव-विभोर होकर महजूर को लिखा था: “आप तो कश्मीरी के वर्डसवर्थ हैं ।” दरअसल, कश्मीरी से हिन्दी में अनुवाद कार्य को कश्मीर में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के साथ ही बल मिला । घाटी में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति का गठन, हिन्दी साहित्य सम्मेलन की शाखा का निर्माण, 1960 के आसपास कश्मीर विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग की स्थापना आदि कुछ ऐसे प्रभावी/सहायक कारक हैं जिनकी प्रेरणा से कश्मीर जैसे अहिन्दी प्रांत में हिन्दी प्रेमियों की एक ऐसी मण्डली तैयार हो गई जिनके लिए हिन्दी न केवल आजीविकोपार्जन का साधन रही, वरन् हिन्दी उनकी भावाभिव्यक्ति तथा लेखन का माध्यम भी बन गई ।

उन दिनों कश्मीर में साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक माहौल हर दृष्टि से स्वस्थ तथा सुखद था और अमीन कामिल जैसे प्रख्यात कश्मीरी साहित्यकार जो हमेशा कश्मीर में कश्मीरी और उर्दू के पक्षधर रहे, भी मानने लगे थे कि:“हम तो नहीं, पर हमारी संतान को अब हिन्दी सीखनी चाहिए क्योंकि यही वह भाषा है जो हमें समूचे देश से जोड़ सकती है ।”

कश्मीर में हिन्दी-प्रेमियों या लेखकों की प्रबुद्ध और उत्साही मंडली में सर्वश्री पृथ्वी नाथ पुष्प, श्री जानकी नाथ कौल कमल, प्रो० काशीनाथ धर, प्रो० चमनलाल सपरू, श्री शशि शेखर तोषखानी, श्री नीलकंठ गुर्टू, डॉ० मोहिनी कौल, श्री पृथ्वी नाथ मधुप, प्रो० रतन लाल शांत, मोहन निराश, प्रो० हरिकृष्ण कौल, प्रमोदजी, शंभुनाथ पारिमू,प्रेमनाथ प्रेमी, अर्जुन देव मजबूर, प्रो० लक्ष्मीनारायण सपरू, त्रिलोकी नाथ गंजू आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । कालांतर में समय ने करवट ली और इसी के साथ कश्मीर में हिन्दी के ये सजग प्रहरी/प्रेमी इधर-उधर बिखर गये । दरअसल, यह कश्मीर में हिन्दी को समर्पित एक ऐसी टीम थी जिसमें ज्यादातर वे लोग शामिल थे जो आयु और अनुभव की दृष्टि से वरिष्ठ थे । धीरे-धीरे समय गुजरने के साथ-साथ वरिष्ठ साथियों के समानांतर दूसरा वर्ग तैयार होने लगा जिसने कश्मीर में हिन्दी के प्रचार-प्रसार का बीड़ा उठाया । ये लोग थे सर्व श्री अवतार कृष्ण राजदान, संजना कौल, अग्निशेखर, उपेन्द्र रैणा, डॉ० भूषणलाल कौल, राज रैणा, श्रीमती विमला मुशी, क्षमा कौल, महाराज कृष्ण संतोषी,क्षमा कौल,गौरीशंकर रैणा आदि । उपरोक्त दोनों सूचियों के नाम पूर्णतः हिन्दी के प्रति समर्पित लोग थे, हिन्दी जिनकी आजीविका का मुख्य साधन थी । कश्मीरी से हिन्दी में कृतसंकल्प होकर अनुवाद-कार्य करने के महत्त्वपूर्ण कार्य में जो लेखक सन्नद्ध रहे, उनमें श्री पृथ्वीनाथ पुष्प, डॉ० शशि शेखर तोषखानी, डॉ० रतनलाल शांत, श्री पृथ्वी नाथ ‘मधुप', श्री अग्नि शेखर, श्री अवतार कृष्ण राजदान, प्रो० हरिकृष्ण कौल, श्री अर्जुनदेव मजबूर और इन पंक्तियों के लेखक के नाम उल्लेखनीय हैं ।

कश्मीर से बाहर हिन्दी माध्यम से कश्मीरी भाषा-साहित्य पर कार्य/अनुवाद-कार्य करने वाले विद्वानों की सूची अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण, प्रभावशाली एवं ध्यानाकर्षक है । इस में प्रमुख हैं श्रीमती तारा तिक्कू (पूर्व संपादिका, “भाषा' दिल्ली) श्री शंभुनाथ भट्ट ‘हलीम' (दिल्ली), श्री नंदलाल चत्ता (दिल्ली), श्री जानकीनाथ भान (दिल्ली), श्री गोपीनाथ कौशिक (जम्मू), डॉ० शिबन कृष्ण रैणा,(राजस्थान), डॉ० जियालाल हण्डू (चंडीगढ़), डॉ० ओमकार कौल आदि ।अध्ययन कि दृष्टि से कश्मीरी से हिन्दी में हुए अनुवाद-कार्य को प्रमुखतः दो भागों में विभाजित किया जा सकता है:

(1) पुस्तकाकार अनुवाद ।

(2) स्फुट अनुवाद ।

कश्मीरी से हिन्दी में अनुवादित होकर आने वाली प्रथम पुस्तकाकार रचना है “ललवाक्यानि” जिसकी मूल पांडुलिपि प्रसिद्ध कश्मीरी विद्वान् पं० मुकुन्दराम शास्त्री ने तैयार की थी । लल (पूरा नाम ललद्यद या लल्लेश्वरी, समय 14वीं शताब्दी) कश्मीरी की आदि संत-कवयित्री के नाम से जानी जाती है । इस कवयित्री के वचन या पद वाख (वाक्) कहलाते हैं जिन्हें सन् 1914 में ग्रियर्सन महोदय ने पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित करने की इच्छा प्रकट की । चूंकि कबीर की तरह ललद्यद ने भी ‘मसि कागद’ का प्रयोग नहीं किया था, अतः ये ‘वाख' प्रारम्भ में मौखिक परंपरा में ही प्रचलित रहे । ग्रियर्सन ने पं० मुकुन्दराम शास्त्री की सहायता ली जिन्होंने बड़ी लगन, मेहनत और निष्ठा के साथ ललद्यद के वाखों का संग्रह कर उन्हें संस्कृत और हिन्दी रूपांतर के साथ ग्रियर्सन को प्रस्तुत किया । इन्हीं वाखों को ग्रियर्सन ने बाद में सन् 1920 में रॉयल एशियाटिक सोसाइटी, लंदन से प्रकाशित कराया ।

इसी परंपरा में दूसरी अनूदित पुस्तक पं० जियालाल कौल जलाली कृत है। ‘ललवाख' के नाम से प्रकाशित मात्र 20 पृष्ठों की इस छोटी-सी पुस्तिका में कवयित्री ललद्यद के ऐसे 38 अतिरिक्त/दुर्लभ पद (वाख) हिन्दी अनुवाद सहित संकलित किये गये हैं जो ग्रियर्सन आदि को उपलब्ध नहीं हो सके थे ।

जम्मू व कश्मीर की ललितकला, संस्कृति तथा साहित्य अकादमी ने कश्मीरी की कतिपय सुन्दर और श्रेष्ठ पुस्तकाकार रचनाएं हिन्दी में अनुवादित कराकर प्रकाशित की हैं। इस क्रम में श्री श्यामलाल शर्मा द्वारा संपादित ‘कश्मीरी लोक कथाएं अग्रगण्य है । 1972 में प्रकाशित इस प्रस्तक में 15 कश्मीरी लोक कथाओं के हिन्दी-अनुवाद संकलित हैं । जिन्हें क्रमशः मोहन निराश, श्री शशि शेखर तोषखानी ने किया है ।1972 में ही एक और पुस्तक सामने आई-“प्रतिनिधि संकलन : कश्मीरी’ 176 पृष्ठों की इस पुस्तक का संपादक/रूपांतरकार इन पंक्तियों के लेखक ने किया है। पुस्तक का प्रकाशन लोकोदय ग्रन्थमाला के अन्तर्गत भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली ने किया है । यह ग्रन्थ एक तरह से कश्मीरी की प्रतिनिधि (चुनी हुई) गद्य-पद्य रचनाओं का एक संग्रह है जिसके प्रारम्भ में सम्पादक की 25 पृष्ठों की कश्मीरी कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास आदि विधाओं पर एक विस्तृत और गंभीर भूमिका है । गद्य-संकलन के अन्तर्गत कश्मीरी के प्रसिद्ध कहानीकारों, यथा सर्वश्री अमीन कामिल, अली मुहम्मद लोन, सूफी गुलाम मुहम्मद, अख्तरमोही उद्दीन, बंसी निर्दोष, ताज बेगम रंजू, अवतार कृष्ण रहबर, उमेश कौल, गुलाम नबी शाकिर, शंकर रैना आदि की कहानियां, पुष्कर भान का प्रहसन, जियालाल, कौल का संस्मरण, सोनाथ साधू का हास्य-व्यंग्य तथा दीपक कौल का रेखाचित्र आदि संगृहीत हैं । पद्य संकलन मैं सर्वश्री मास्टर ज़िन्दा कौल, गुलाम अहमद महजूर, रसा जाविदानी, अब्दुल अहद आजाद, अलमस्त कश्मीरी, मिर्जा आरिफ, दीनानाथ नादिम, फज़िल कश्मीरी, नूर मुहम्मद रोशन, गुलाम नबी फिराक, प्रेम नाथ प्रेमी, अमीन कामिल, रहमान राही, वासुदेव रेह, गुलाम रसूल संतोष, मक्खन लाल महव, गुलाम नबी खयाल, मोती लाल साकी, पृथ्वी नाथ कौल सायल, चमन लाल चमन, मक्खन लाल बेकस, मोहन कृष्ण रैना आदि की रचनाएं समाविष्ट की गई हैं। यह अनुवाद मूल कश्मीरी से हिन्दी में हुआ है। संकलन के अंत में मूल लेखकों का जीवन परिचय देने से पुस्तक की उपादेयता बढ़ गई है। इस संकलन की एक कविता का अनूदित अंश देखिए ---

“तुम दुनिया वालों से दूर हो रहते/क्योंकि/मेरी ही तरह दुनिया के जंजाल तुम्हें पसंद नहीं ।

औरों की खातिर/अपनी जान कुबान करते हो/ और अपनी पूंजी दूसरों पर लुटाते हो / इस नाते भी तुम मेरे सहकर्मी हो। निर्नंध रहकर / तुम नभ को हो छूते/ जकड़े रहना/मेरी तरह तुम्हें भाता नहीं । फायदा उठाता है हर कोई/तेरे-मेरे उपकारों से--/ इस नाते भी तुम मेरे सहकर्मी हो ।

मगर/तुम सूर्य को ढांप प्रकाश को हो रोकते/बस/यहीं पर तुम्हें अपनी सहकर्मी मानने में/हे बादल !/ मुझे इनकार है !

( इनकार’ अलमस्त कश्मीरी, ‘प्रतिनिधि संकलनः कश्मीरी’ पृष्ठ 137, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली)

मेरे द्वारा कश्मीरी की लोकप्रिय रामायण 'रामावतारचरित’ का हिन्दी अनुवाद-सहित देवनागरी लिप्यांतर 1975 में भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनऊ से प्रकाशित हुआ । 480 पृष्ठों वाले इस ग्रन्थ की प्रस्तावना प्रसिद्ध विद्वान् डा० कर्ण सिंह ने लिखी है । कश्मीरी की इस लोकप्रिय रामायण के मूल रचयिता प्रकाशराम कुर्यगामी है जिन्हें ग्रियर्सन ने भूल से दिवाकर प्रकाश भट्ट कहा है ।1975 में जम्मू व कश्मीर राज्य कल्चरल अकादमी ने ‘वाणी वितस्ता की' शीर्षक से कश्मीरी लोक गीतों की एक पुस्तक प्रकाशित की । 101 पृष्ठों की इस पुस्तक के संकलनकर्ता व हिन्दी अनुवादक प्रो० पृथ्वीनाथ ‘मधुप' हैं ।

‘कहा था ऋषि ने’ शीर्षक से ही उक्त अकादमी ने कश्मीरी के प्रसिद्ध संत कवि शेख नूरुद्दीन वली नुन्द ऋषि, (समय 1376-1438) के चुने हुए कश्मीरी श्लोकों (श्रुकों) का हिन्दी भाषांतर प्रकाशित किया । 73 पृष्ठों की इस पुस्तक के भाषांतरकार श्री शशिशेखर तोषखानी हैं ।

डा० मुहम्मद अयूब खां ‘प्रेमी' के संपादकत्व में ‘प्रतिनिधि कश्मीरी कविताएं शीर्षक से 73 पृष्ठों की एक पुस्तक जम्मू व कश्मीर कल्चरल अकादमी ने 1975 में प्रकाशित की । संकलन में कश्मीरी काव्य-संसार के प्रमुख कवियों (ललद्यद से लेकर सजूद सैलानी तक) की एक-एक, दो-दो कविताओं के अनुवाद दिए गए हैं । पुस्तक के प्रारम्भ में प्रसिद्ध हिन्दी विद्वान् डा० विजयेन्द्र स्नातक की दो पृष्ठों की प्रस्तावना है । यों, डा० अयूब खां ‘प्रेमी' अ-कश्मीरी हैं । संभव है अपने कश्मीरी मित्रों की सहायता से वे इतना सुन्दर अनुवादकार्य करने में समर्थ हुए हों। इस संकलन का एक उदाहरण--

शरद में झर जाते सब फूल

बसंत में फिर जीवन का ज़ोर

मिला करता मर कर जीवन

मरण-भय छोड़ चल इस ओर । (कविवर महजूर, पृष्ठ 13)



‘ललद्यद' शीर्षक से प्रसिद्ध संत कवयित्री ललद्यद (समय 14वीं शती) के चुने 161 वाखों (पदों) का सानुवाद देवनागरी लिप्यान्तर 1976 में जम्मू व कश्मीर राज्य कल्चरल अकादमी ने प्रकाशित किया । संकलनकर्ता और अनुवादक हैं श्री शंभुनाथ भट्ट हलीम ।

इसी क्रम में एक और पुस्तक भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनऊ से 1977 में प्रकाशित हुई। इस संग्रह में ललद्यद के 179 पदों (वाखों) का सानुवाद देवनागरी लिप्यांतर किया गया है । संपादन, अनुवाद व लिप्यांतर का काम स्वयं मैंने किया है । 112 पृष्ठों की इस पुस्तक की भूमिका प्रसिद्ध विद्वान् डा० बनारसीदास चतुर्वेदी ने लिखी है । पुस्तक में से अनूदित/संकलित ललद्यद का एक पद (वाख) प्रस्तुत है:--

हे नाथ ! न मैंने (कभी) अपने को और न (कभी) पर को जानने की कोशिश की । सदैव इस देह की चिंता करती रही । ‘तू मैं और मैं तू’ इस मेल को भी कभी न जान सकी । मैं तो इसी सन्देह (संशय) में पड़ी रही कि तू कौन और मैं कौन ?

(ललद्यद, वाख नं० 31, पृ० 40)

रसूल मीर की कश्मीरी के प्रमुख श्रृंगारवादी कवियों में गणना की जाती है। इनकी रचनाओं का सुन्दर अनुवाद ’पोशिमाल' संग्रह में किया है जो राज्य की कल्चरल, अकादमी द्वारा 1977 में प्रकाशित हुआ है । 64 पृष्ठों की इस पुस्तक में रसूलमीर की 14 नज्में और 27 गजलों का हिन्दी अनुवाद दिया गया है । एक अनूदित अंश

देखिये:

“धन्य तुम्हारा पार्श्व, पृष्ठछवि और चाल है । चली खेलने कुसुम-कली चंचल बाला पोशिमाल है । राज-हंसिनी की हंसिनी-सी गर्दन कितनी कोमल है! रक्षा करो इलाही इसकी, दुनिया की नजरे-बद से, कम क्या होगा दयानिधि ? तेरा कोष विशाल है । चली खेलने कुसुम-कली चंचल बाला पोशिमाल है । (पोशिमाल, रसूल मीर, अनुवादक डा० शांत पृ० 1)



1979 में कल्चरल अकादमी ने प्रसिद्ध संत नुद ऋषि->(शेख नूरद्दीन वली) की रचनाओं का एक प्रतिनिधि संकलन कवि के परिचय, आलोचना और हिन्दी पद्यानुवाद सहित प्रकाशित किया । 84 पृष्ठों के इस संकलन का संपादन और अनुवाद सर्वश्री शंभुनाथ भट्ट हलीम, शशिशेखर तोषखानी, अजुनदेव मजबूर, बद्रीनाथ कल्ला तथा डा० रतन लाल शांत ने किया है । मुख्य संपादक श्री रतन लाल शांत हैं ।

अभी तक कश्मीरी कविताओं का हिन्दी अनुवाद उपलब्ध होता रहा था किन्तु कश्मीरी कहानियों का एक व्यवस्थित और विशिष्ट संकलन 1980 में राजपाल एण्ड सन्ज, दिल्ली से प्रकाशित हुआ । मेरी इस अनुवादित/संपादित पुस्तक का नाम ‘कश्मीरी की श्रेष्ठ कहानियां’ है। 160 पुष्ठों वाली इस पुस्तक में कश्मीरी की 19 कहानियों का अनुवाद है । इस संकलन द्वारा हिन्दी पाठकों को पहली बार कश्मीरी की सुन्दर-श्रेष्ठ कहानियां पढ़ने को मिलीं जो अनुवाद की भाषा को लेकर विद्वत्जनों में काफी चर्चित हुई । प्रख्यात कथाकार श्री विष्णु प्रभाकर के शब्दों में “कश्मीरी की श्रेष्ठ कहानियों की अधिकांश रचनाएं पढ़ गया । कश्मीरी जीवन को नाना रूपों में रूपायित करती ये कहानियां बहुत सुन्दर हैं । सब से अच्छी बात तो यह है कि ये अनुवाद लगती ही नहीं । मूल भावना भी उतनी ही सुरक्षित रह सकी है...... יי ।

साहित्य अकादमी, दिल्ली ने अंग्रेजी/कश्मीरी में 1973 में “ललद्यद“ शीर्षक से एक पुस्तक तैयार करवाई थी । पुस्तक के लेखक थे प्रो० जे० एल० कौल । इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद ‘ललद्यद' शीर्षक से साहित्य अकादमी दिल्ली ने 1980 में प्रकाशित किया ।अनुवाद मेरा है ।

परमानंद (1791-1879) कश्मीरी के प्रसिद्ध कृष्ण भक्त कवि हुए हैं । इनकी चुनी हुई रचनाओं का हिन्दी अनुवाद 1981 में प्रो० पृथ्वी नाथ पुष्प ने ‘परमानंद प्रवाह शीर्षक से किया । 160 पृष्ठों की यह पुस्तक जम्मू-कश्मीर कल्चरल अकादमी का महत्वपूर्ण प्रकाशन है ।

बंसी निर्दोष कश्मीरी कथा-जगत् के सुविख्यात लेखक हैं । कश्मीरी में लिखित इनके चर्चित उपन्यास 'अख दोर' का हिन्दी अनुवाद ‘एक दौर' शीर्षक से हिन्दी विकासपीठ, मेरठ से 1984 में प्रकाशित हुआ । अनुवाद स्वयं मैंने किया है । इस उपन्यास पर अनुवाद-कला की दृष्टि से एक विचार-गोष्ठी 31 मार्च, 1985 को ‘भारतीय अनुवाद परिषद्’ के सौजन्य से जे० एन० यू० समिति कक्ष, दिल्ली में हुई थी । कश्मीरी से हिन्दी में अनुवादित होने वाला यह प्रथम प्रशंसित उपन्यास है ।

कश्मीर के प्रसिद्ध शायर श्री गुलाम अहमद महजूर (1887-1952)की श्रेष्ठ कविताओं का एक संग्रह मेरे द्वारा अनूदित 1989 में राज्य की कल्चरल अकादमी द्वारा प्रकाशित है । 77 पृष्ठों की इस पुस्तक में महजूर की 32 कविताओं का हिन्दी अनुवाद दर्ज है । एक कवितांश का अनुवाद देखिये:

“सुलाए जो कविता संसार को कभी मुझ से न लिखवाना तू, मृत पुन: जी उठे जिन से, गीत ऐसे मुझ से, प्रभु, गवाना तू । जिन शब्दों से बहे नेह-सरिता, मिटे मरुस्थल नफरत का, जन-जन में भावना प्रेम की जगे ऐसी जुबान, प्रभु, मुझे सिखाना तू ।“

कश्मीरी की प्रतिनिधि कहानियों का एक संग्रह देवदार प्रकाशन, दिल्ली ने 1990 किया । -

1990 में कल्चरल अकादमी ने दो संग्रह छापे:(1) डोगरी और कश्मीरी कहानियां (संपादक डा० उषा व्यास) तथा (2) श्रेष्ठ कश्मीरी लोकगीत (संकलन एवं - रूपांतर डा० जिया लाल हण्डू । डा० ओंकार कौल द्वारा संपादित और अनुवादित कश्मीरी कहानियों का एक संग्रह ‘कश्मीरी कहानियां’ 1992 में छपा जिसमें अनुवादक ने कश्मीरी की तेरह कहानियों का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया है । 88 पृष्ठों की इस पुस्तक के प्रकाशक हैं ‘वितस्ता प्रकाशन’ नई दिल्ली ।

कश्मीरी से हिन्दी में अनुवादित हुए साहित्य की श्रीवृद्धि करने में सद्य: प्रकाशित पुस्तकाकार रचना ‘कश्मीरी कवयित्रियां और उनका रचना-संसार’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है । पुस्तक दो भागों में विभाजित है ~प्रथम के अन्तर्गत कश्मीरी की तीन प्रसिद्ध कवयित्रियों: ललद्यद, हब्बाखातून और अरणिमाल के व्यक्तित्व और कृतित्व का सोदाहरण विवेचन प्रस्तुत किया गया है । दूसरे भाग में इन तीनों कवयित्रियों की चुनी हुई रचनाओं का सानुवाद देवनागरी लिप्यंतर दिया गया है। इस पुस्तक की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें पहली बार मूल रचनाओं को उनकी अपनी लिपि (फारसी-अरबी लिपि) में प्रस्तुत किया गया है । 152 पृष्ठों की मेरी इस पुस्तक का प्रशस्ति-संदेश महामहिम राष्ट्रपति डा० शंकर दयाल शर्मा ने लिखा है तथा विस्तृत ‘प्रस्तावना' प्रसिद्ध लेखिका मृणाल पांडे ने लिखी है ।दोनों ने मेरे कार्य की प्रशंसा की है: “डा० शिबन कृष्ण रैणा इस पुस्तक के माध्यम से कश्मीर की तीन कवयित्रियों- ललद्यद, हब्बाखातून और अरणिमाल के भावलोक को सहृदय पाठकों के सामने लाए हैं । डा० रैणा ने इन रचनाओं को कश्मीरी, हिन्दी और उर्दू में प्रस्तुत करके एक महत्त्वपूर्ण काम किया हैं ।“ -- “डा० रैणा द्वारा किए गये इन तीन यशस्विनी कवयित्रियों की रचनाओं के ये सहज अनुवाद कालजयी कविता के सभी प्रेमियों के लिए संग्रह-योग्य और शिरोधार्य बनेंगे... יי ।

स्फुटरूप में कश्मीरी रचनाओं का हिन्दी अनुवाद विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित होता रहा है । बहुत पहले कमलेश्वर के संपादन-काल में ‘सारिका' का कश्मीरी-कहानी-विशेषांक निकला था जिसमें कश्मीरी के 9 कहानीकारों की कहानियों के अनुवाद छपे थे । सभी कहानियों के अनुवाद सुरजीत ने कश्मीरी-भाषी किन्हीं राजदान साहब की सहायता से किए थे । इसी तरह 1975 में ‘माया' का कश्मीरी-प्रेम कथा-विशषांक भी निकला था जिस की अधिांश कहानियां स्वयं मैंने अनूदित की थीं । भारतीय भाषा परिषद्, कलकत्ता ने अपनी पत्रिका 'सन्दर्भ भारती' का दिसम्बर 1978 का अंक कश्मीरी साहित्यांक के रूप में प्रकाशित किया था । इस अंक का संपादन तथा रचनाओं का अनुवाद भी मैं ने ही किया था। :शीराजा’, ‘आजकल’, ‘सन्दर्भ भारती', :भाषा', 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान', ‘हमारा साहित्य’, ‘समकालीन भारतीय साहित्य’, ‘जनसत्ता’, ‘पहल' आदि पत्रिकाओं में कश्मीरी से हिन्दी में किए गये अनुवाद समय-समय पर छपते रहे हैं/रहते हैं । इधर, ‘समकालीन भारतीय साहित्य' (साहित्य अकादमी, दिल्ली का प्रकाशन) का कश्मीरी साहित्य पर केन्द्रित विशेषांक (अक्तूबर-दिसम्बर 1992) तथा ‘पह्ल’ (जबलपुर) का अगस्त-अक्तूबर 1988 का कश्मीरी साहित्य-केन्द्रित अंक विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं। दोनों अंकों में कश्मीरी की सुन्दर-श्रेष्ठ रचनाओं का हिन्दी अनुवाद किया गया है । ‘पहल' के उक्त अंक के लिये डा० अग्निशेखर ने कठिन परिश्रम करके सामग्री का चयन व अनुवाद किया है । एक कवितांश का अनुवाद देखिये: “मुझे आस है कल की, कल प्रज्जवलित होगी दुनिया, चौड़ायेगी रोशनी दिल की, गुल गुलजार गमक उठेंगे, सिहरेगी मिट्टी और हरियाली गमक उठेगी । हृदय में फूटेंगे उमंग के अंखुवे और चुंधिया उठेंगे फव्वारे प्रेम के । कल प्रज्जवलित होगी दुनिया” (कश्मीरी कवि दीनानाथ नादिम, रूपांतर अग्नि शेखर)

कश्मीरी समिति, दिल्ली की मुख-पत्रिका ‘कोशुर समाचार' में हिन्दी अनुभाग के अन्तर्गत कश्मीरी रचनाओं के सुन्दर अनुवाद बराबर प्रकाशित होते रहे हैं । कश्मीरी रचनाओं को हिन्दी पाठकों तक पहुंचाने में यह पत्रिका बड़ा ही महत्त्वपूर्ण कार्य कर रही है । इस पत्रिका ने अब तक कई विशेषांक भी प्रकाशित किए हैं जिनमें उल्लेखनीय हैं--कश्मीरी संत-विशेषांक, ललद्यद विशेषांक आदि । केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, (भारत सरकार) द्वारा समय-समय पर विभिन्न साहित्यिक प्रकाशनों, यथा-भारतीय साहित्य सर्वेक्षण माला के अन्तर्गत ‘वार्षिकी’ ‘भारतीय एकांकी’, ‘भारतीय उपन्यास’, ‘भारतीय कविता' आदि का उल्लेख करना भी आवश्यक है । इन महत्त्वपूर्ण प्रकाशनों में समय-समय पर कश्मीरी साहित्य की चयनित रचनाओं (कहानी, कविता, उपन्यास अंश, निबंध आदि) के अनुवाद प्रकाशित होते रहे हैं । निदेशालय की पत्रिका ‘भाषा' में भी कश्मीरी से हिन्दी में अनुवादित अनेक रचनाएं छपी हैं ।

अंत में, कश्मीरी के प्रसिद्ध रहस्यवादी कवि मास्टर जिन्दा कौल की उस कविता का उल्लेख करना संगत होगा जो उन्होंने आकाशवाणी द्वारा आयोजित 25 जनवरी 1958 को सर्वभाषा कवि-सम्मेलन में पढ़ी थी और कविवर हरिवंश राय बच्चन ने स्वयं उसका हिन्दी में (मूल कवि की सहायता से) सुन्दर अनुवाद किया था:

हुआ गंदला धर्म का नीर मत-पथों की धारा में,

मुझे पीने दो वह जल जो नहीं बंधता किनारों में,

मैं हर जर्रे में देखूँ खुद को, सब में एक को पाऊं

दुई रहने न पाए, मैं कुछ ऐसा तुम में मिल जाऊं। (कोशुर समाचार, 1979 पृ० 5)