Monday, April 30, 2018


कश्मीर की बेटी सरला भट्ट

पिछले कई दिनों से दो अमानवीय कृत्यों की मीडिया में और अन्यत्र भी जबरदस्त चर्चा चल रही है।दो बेटियों को यौन-पिपासु दरिंदों ने अपनी हवस का शिकार बनाया।एक घटना यूपी के उन्नाव की है और दूसरी जम्मू-कश्मीर के कठुआ की। कठुआ वाली नाबालिग बेटी की तो बलात्कार के बाद हत्या ही कर दी गयी। टीवी चैनलों और समाचारपत्रों में लगातार इन दो दुष्कृत्यों पर चर्चा हो रही है।मानवता को शर्मसार करने वाली इन दोनों घटनाओं की जितनी भी निंदा की जाय, कम है।अपराधियों को किसी भी हालत में बख्शा नहीं जाना चाहिए।जैसा कि होता है, प्रायः ऎसी घटनाओं को लेकर विभिन्न पार्टियाँ अथवा सामाजिक संघठन राजनीति करने लग जाते हैं, जो सर्वथा अनुचित है।
यहां पर मुझे कश्मीर की बेटी सरला भट्ट की याद आ रही है।सरला भट श्रीनगर के एक अस्पताल में नर्स थी जिसे आतकंवादियों द्वारा सामूहिक बलात्कार के बाद उसके शरीर को चीर कर सरे-बाज़ार घुमाया गया था और बाद में सडक पर फेंक दिया गया था। गूगल में उसका क्षत-विक्षत चित्र और पूरी दर्दनाक कहानी मौजूद है। धर्मनिरपेक्षता और मानवाधिकार के अलम्बरदारों के मुंह पर तमाचा जड़ने वाला तथा आँखों में आंसू लाने वाला चित्र देखेंगे, तो कलेजा मुंह को आ जाएगा। सरला भट सच्ची देश-भक्तिन थी। सुना है उसने सुरक्षा कर्मियों को अस्पताल में चुपचाप इलाज करा रहे आतंकियों के ठिकानों का पता बताया था जिसकी कीमत उसे बेदर्दी के साथ चुकानी पड़ी। शायद सच्चे राष्ट्रभक्तों की यही नियति होती है!बताया जाता है कि उसके हत्यारे वादी में मौजूद हैं और खुले-आम घूम रहे हैं।
मैं ऊपर की घटनाओं की तुलना सरला भट्ट की घटना से मात्र इसलिए कर रहा हूँ, यह रेखांकित करने के लिए,कि सरला भी तो इस देश की बेटी थी,उसकी भी तो दरिंदों ने अस्मत लूटी थी,वह भी तो किसी की लाडली थी।उसकी जघन्य हत्या पर कोई हो-हल्ला नहीं,कोई धरना-प्रदर्शन नहीं,कोई बयानबाज़ी नहीं।मीडिया चुप और नेतागण भी चुप।ऐसा क्यों है कि एक जगह हमारा मीडिया चुप रहना पसंद करता है और दूसरी जगह छाती कूटना प्रारम्भ करता है। हमारा देश धर्म-निरपेक्ष देश है। कितना है और कब से है, यह शोध का विषय है। मिलजुल कर रहना और एक दूसरे के सुख दुःख में शामिल होना कौन नहीं चाहता? सभी समुदायों में, सभी धर्मावलम्बियों और सम्प्रदायों में सौमनस्य बढ़े और धार्मिक उन्माद घटे, आज की तारीख में समय की मांग यही है।मगर यह तभी संभव है जब सभी समुदाय और सम्प्रदाय मन से ऐसा चाहेंगे।
यहां पर फिर दोहराना चाहूँगा कि सरला का उदाहरण देकर उन्नाव और कठुआ की घटनाओं की गंभीरता को कमतर आंकने का मंतव्य कदापि नहीं है।बस, मंतव्य यह है कि क्यों सरला के हत्यारे अभी तक पकड़े नही गए?सरला के मामले में भी देश और मीडिया क्यों एक नहीं हुआ? अगर आवाज़ उठायी भी गई तो हत्यारे अभी तक सलाखों के पीछे क्यों नहीं हैं? सरकार से अनुरोध है कि वह सरला भट के हत्यारों को पकड़ने के लिए पहल करे और वीरगति को प्राप्त कश्मीर की इस बहादुर बेटी के उत्सर्ग और उसकी राष्ट्रभक्ति को ध्यान में रखते हुए उसे मरणोपरांत दिए जाने वाले किसी उपयुक्त अलंकरण से विभूषित करे। कश्मीर की इस देश-भक्तिन वीरांगना (बेटी)के नाम पर कोई स्मारक भी बने तो लाखों पंडितों की आहत भावनाओं की कद्रदानी होगी और साथ ही देश की सुरक्षा हेतु आत्मोत्सर्ग की भवना रखने वालों के प्रति यह बहुत बड़ी कृतज्ञता भी होगी।
https://www.liveaaryaavart.com/2018/04/rape-and-politics.html?spref=fb
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बख्शी गुलाम मोहम्मद

बात साठ के दशक की है।बख्शी गुलाम मोहम्मद कश्मीर के मुख्यमंत्री हुआ करते थे।उनके दामाद साहब मीर नसर उल्लाह खान श्रीप्रताप कॉलेज में केमिसट्री के लेक्चरर नियुक्त हुए थे।मैं ने इसी कॉलेज से बीए किया है।हालांकि मेरे पास केमिस्ट्री विषय नहीं था, मगर प्रो0 नसर-उल्लाह साहब मेरे ग्रुप-ट्यूटर थे यानी किसी भी शिक्षणेत्तर कठिनाई के निवारण के लिए मैं उनसे मार्गदर्शन ले सकता था।कॉलेज प्रशासन ने सभी छात्रों को ग्रुपों में बांटा था और हर ग्रुप का एक प्रभारी/ट्यूटर हुआ करता था।
इस बीच खबर आई कि नसर साहब और किन्हीं अन्य रसूख वाले सज्ज्न को राज्य सरकार ने अपने विशेष अधिकारों का प्रयोग करते हुए दोनों को आईएएस के खिताब से नवाजा।एक बार आईएएस जो हो गया वह फिर सेक्रेटरी/चीफ seretary बन के तो रिटायर होता ही है।(मेरी तरह कॉलेज शिक्षा में रहते तो हद से हद प्रिंसिपल बन जाते।)वे केंद्र में कई उच्च पदों पर रहे ।कुछ समय तक वे मानव संसाधन विकास मंत्रालय में सचिव पद पर भी रहे और बाद में जम्मू कश्मीर राज्य के मुख्य सचिव के पद पर से रिटायर हुए।शायद अब इस संसार में नहीं हैं।
जब वे मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सचिव बने तो उनको मैं ने बधाई पत्र लिखा और याद दिलाया कि 1957-58 में वे श्रीप्रताप कॉलेज में मेरे ग्रुप ट्यूटर रहे हैं।उनका तुरन्त जवाब आया और ढेर सारी शुभकामनाएं भेजीं।दिल्ली में कभी मिलने के लिए भी आमंत्रित किया।
कहने का अभिप्राय यह है कि अच्छी रिश्तेदारी से मिला अच्छा पद आदमी को कहां से कहाँ पहुंचाता है!

ड्राइविंग लाइसेंस

एक किस्सा याद आ रहा है।ड्राइविंग लाइसेंस को रिन्यू करने के लिए अपने एक मिलने वाले के थ्रू किसी एजेंट से संपर्क किया।जितने भी पैसे बनते थे एडवांस में दे दिए।दोएक महीने में काम हो जाएगा,ऐसा आश्वासन एजेंट ने दिया।महीने पर महीना बीतता गया मगर काम नहीं हुआ।अब तो एजेंट ने फोन रिसीव करना भी बंद कर दिया।मिलने वाले ने भी हाथ खड़े कर दिए।
एक दिन मेरा पढाया एक स्टूडेंट मुझे मार्किट में मिला।चरण स्पर्श के बाद कहने लगा 'गुरुजी,कोई काम बताओ।मेरा तबादला अब इसी शहर में सर्किल इंसेक्टर के पद पर हुआ है।' मैं ने अपना कष्ट बयान किया और उस एजेंट का नाम-पता और फोन नंबर बता दिया।विश्वास नहीं करेंगे कि अगले ही दिन रोनी-सी सूरत बनाकर वह एजेंट पैसे लेकर मेरे घर पर धौक देने आया।इसे कहते हैं पुलसिया डंडा।मुझे तो वह एजेंट 6 महीनों से टरका रहा था।बाद में मैं ने फिर किसी और एजेंट से लाइसेंस रिन्यू करवाया।

सैन्य शिक्षा

मुझे किसी ने कश्मीर की यह घटना पिछले साल सुनाई थी।कश्मीर घूमने की गर्ज़ से चार-पांच युवक सप्ताह भर के लिए कश्मीर गए और वहाँ एक हाउस बोट में ठहरे।दिन में घूमने निकल पड़ते और शाम को हाउस बोट में आजाते।एक रात उनके दरवाज़े पर खड़ खड़ की आवाज़ हुई।खिड़की का पर्दा हटाकर देखा तो वे सकते में आ गए।लगभग चार व्यक्ति मुंह ढके हाथों में बंदूकें लेकर अंदर कमरे में घुसने का प्रयास कर रहे थे।वे निश्चित तौर पर आतंकवादी थे।कमरे के अंदर जवानों ने भी कमर कस ली और दुश्मन से भिड़ने के लिए तैयार हो गए।जैसे ही आतंकवादी दरवाज़ा तोड़कर भीतर कमरे में घुसे, ताक में बैठे सैलानी उनपर एक साथ झपट पडे।मैन to मैन फाइटिंग हुई।दो एक राउंड फायरिंग भी हुई।लगभग 20 मिनट की गुथमगुथा झड़प और फाइटिंग के बाद सैलनियों ने उनकी बंदूकें छीन लीं और उन्हें बंधक बनाया।इस लोमहर्षक कार्रवाई में सैलानियों के एक साथी को गोली भी लगी और वह बुरी तरह से जख्मी भी हुआ।जानते हैं वे सैलानी/tourist कौन थे?वे इज़राईल के जांबाज़ युवक थे।इज़राईल में हर व्यक्ति के लिए मिलिट्री ट्रेनिंग अनिवार्य है।इसी ट्रेनिंग की वजह से इन युवकों ने आतंकियों के न केवल दांत खट्टे किये अपितु धर दबोचा भी।इज़राईल से हमें सीख लेनी चाहिए।समय आ गया है जब हमारे देश में भी आत्मरक्षा के लिये हर युवक-युवती को सैन्य शिक्षा दी जानी चाहिये।

साईकल की महिमा

उस ज़माने की बातें हैं जब साईकल की बड़ी महिमा हुआ करती थी।साईकल दहेज में दी जाती थी।गिने चुने लोगों के पास साईकल हुआ करती थी।हरक्यूलस,हिन्द,एटलस,रैलेह आदि सायकलें खूब चलती थीं।रैलेह शायद अच्छी क्वालिटी की महंगी साईकल मानी जाती थी।ये बातें पचास के दशक के आसपास की होनी चाहिए।फिर आया दुपहिए यानी स्कूटर का ज़माना।लम्बरेटा और वेस्पा ने धूम मचा दी।वेस्पा की एडवांस बुकिंग एक-एक, दो-दो साल पहले करवानी पड़ती थी।बज़ाज़, चेतक,विजय,एलएमएल,अरावली आदि भी मैदान में उतरे।ये बातें साठ-सत्तर के दशक के आसपास की हैं।इस बीच मोटर सायकलें भी मार्केट में आगयीं: एनफील्ड,जावा, राजदूत आदि।अस्सी के दशक तक आते आते लोगों ने सायकलें छोड़ दीं और स्कूटर/मोटरसाइकिल चलाने लगे।कार रखना या खरीदना लक्ज़री ही थी।
सरकारी कर्मचारियों को दुपहिया वाहन खरीदने के लिए कम दरों पर लोन मिला करता था।मैं ने भी लोन लेकर एक स्कूटर खरीदा और साईकल को अलविदा कहकर कॉलेज उसी पर जाने लगा।अन्य कई सारे मित्रों के पास भी स्कूटर आगये।साईकल पर कॉलेज जाना अब शोभनीय नहीं माना जाता था।
एक दिन ऋण कार्यलय का एक क्लर्क मुझे मार्किट में मिला।वह मुझे जानता था।बोला, 'सर आपके कॉलेज में अमुक नाम के कोई प्रोफेसर साहब हैं?'मेरे हाँ करने पर वह बोला:'सर,उन्होंने साईकल-लोन के लिए अप्लाई किया है।क्या वे इतने तँगदस्त हैं?हमारे यहाँ तो अब चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी भी स्कूटर लोन के लिए अप्लाई करते हैं,साईकल लोन के लिए नहीं।'
'उनकी मर्जी।शायद व्यायाम के उद्देश्य से लेना चाहते होंगे।' मैं ने प्रोफेसर साहब का पक्ष लिया।वैसे,इन प्रोफेसर साहब की हर बात न्यारी ही होती थी।

Using a bicycle


(My post on ‘Using of a bicycle’ in Hindi was liked by the readers all over. Some friends and editors requested me to supply them the English version of this post as well. Here it is.)

I take pleasure in recalling my era when bicycle used to be a great means of conveyance. A great symbol of prestige and a great source of a pleasurable ride. So much was the importance of this great two-wheeler that the bicycle was one of the major items to be offered to the bridegroom in the dowry. Only a few would have the proud privilege of owning a bicycle. Cycles with the brand names like Hercules, Hind, Atlas, Raleigh etc. were quite popular in the market. Raleigh was probably the best one, though slightly expensive than other brands. I am talking of the fifties. Then came the engine-borne two-wheelers ie the scooter. Lamberta and Vespa made inroads and replaced bicycles. I remember advanced booking for Vespa was no less than two years. During this period other scooters like Chetak, Vijay, LML, Aravalli etc. also made their presence in the market. This is the scenario of the Sixties. Meanwhile, motorcycles also fluttered in the market: Enfield, Yezidi-Java, Rajdoot etc. sped on the roads, more especially on rough-rural roads. Consequently, with the passage of time, bicycles were ‘bye-byed’ and people switched over to a more comfortable and excretion-free ride of scooters/motorcycles. Owning a car was still a luxury! Government employees used to get loans at low rates for buying two-wheeler vehicles. I also bought a scooter by taking a loan and would go to the college on my brand new Bazaz-Cub now saying goodbye to my bike. My other colleagues also bought scooters and came to the college on these automated two-wheelers with their heads high on the seats. Going to college on a cycle was now considered to be below the standard of a professor.
One day a clerk of the loan-section met me in the market. He knew me. Said, 'Sir, do you have any professor in the college named AAA? Is he a pauper, really? I am amused. He has applied for a cycle loan. Sir, even peons of our office apply now for scooter/Vicky loan and not for cycle-loan.’ 
‘Maybe he wanted to buy it for the purpose of the exercise.' I wanted to be on the side of the Prof. Saheb, but I knew that Prof. Saheb was not a normal creature. A learned man of several inhibitions, he would always love to make himself conspicuous by taking such queer, trivial and amusing decisions.
Dr.SHIBEN KRISHEN RAINA
Currently in Ajman

Friday, April 20, 2018

विदेशी आक्रांता हम से गले मिलने या मेलजोल बढाने या फिर गलबहियां डालने के लिए नहीं,अपना दीन-धर्म फैलाने के लिए आये थे,कुछ तो माल-असबाब लूटने के उद्देश्य से आये थे और कुछ ऐयाशी करने के लिये आये थे। ।हमारी कमज़ोरी यह रही कि हम ने मिलकर इन आक्रांताओं को मुंहतोड़ जवाब नहीं दिया। है।मुगल,गुलाम,खिलजी,तुग़लक,लोधी आदि वंशों समेत अंग्रेजों,पुर्तगाली,डच,पुर्तगाली आदि जितने भी शासकों ने हमारे देश पर हुकूमत की, वह हमारी कमज़ोरी और फूट का नतीजा मानी जायेगी।नहीं तो क्या मजाल थी कि ये विदेशी आक्रांता हमारी धरती पर पैर रखते।राणा प्रताप,गुरु तेगबहादुर सिंह शिवाजी आदि की हम प्रशंसा नहीं करेंगे जो मरते दम तक मुगलों से लड़ते रहे और अंत समय तक उनकी अधीनता स्वीकार नहीं की।मैं ने कभी किसी भी इतिहास-गन्थ में ‘राणाप्रताप महान’ (Rana Pratap the Great) नहीं पढ़ा ‘अकबर महान’ (Akbar the Great) ज़रूर पढ़ा। । दुर्भाग्य से हमारे यहाँ जो इतिहास की किताबें लिखी गई, वे संभवतः एक ख़ास ‘उद्देश्य’ से लिखवाई गई। ।हमें तो हमारे अपने रण-बांकुरों और देश के लिए कुर्बान होने वालों पर गर्व होना चाहिए।विदेशी तो अपनी गर्ज़ से हमें लूटने और शोषण करने या फिर अपने धर्म का प्रचार करने के लिए आए थे।
वर्तमान परिदृश्य में समय की मांग है कि आपसी मन मुटाव छोड़कर हम एक हों।अपने देश के बलिदानियों का स्मरण करें और देश कि अखंडता पर आंच न आने दें।
शिबन कृष्ण रैणा 
अलवर 

Tuesday, April 17, 2018



रामावतारचरित’ कश्मीरी

 भाषा-साहित्य में उपलब्ध रामकथा-काव्य-परंपरा का एक बहुमूल्य काव्य-ग्रन्थ है जिसमें कवि ने रामकथा को भाव-विभोर होकर गाया है। कवि की वर्णन-शैली एवं कल्पना शक्ति इतनी प्रभावशाली एवं स्थानीय रंगत से सराबोर है कि लगता है कि मानो ‘रामावतार चरित’ की समस्त घटनाएं अयोध्या, जनकपुरी, लंका आदि में न घटकर कश्मीर-मंडल में ही घट रही हों । ‘रामावतारचरित’ की सबसे बड़ी विशेषता यही है और यही उसे ‘विशिष्ट’ बनाती है। ‘कश्मीरियत’ की अनूठी रंगत में सनी यह काव्यकृति संपूर्ण भारतीय रामकाव्य-परंपरा में अपना विशेष स्थान रखती है।
सन् 1965 में जम्मू व कश्मीर प्रदेश की कल्चरल अकादमी ने ’रामावतार चरित’ को ‘लवकुश-चरित’ समेत एक ही जिल्द में प्रकाशित किया है। कश्मीरी नस्तालीक लिपि में लिखी 252 पृष्ठों की इस रामायण का संपादन/परिमार्जन का कार्य कश्मीरी-संस्कृत विद्वान् डॉ0 बलजिन्नाथ पंडित ने किया है। मैंने इस बहुचर्चित रामायण का भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनऊ के लिए सानुवाद देवनागरी में लिप्यंतरण किया है। 481 पृष्ठों वाले इस ग्रन्थ की सुन्दर प्रस्तावना डा0 कर्ण सिंह जी ने लिखी है और इस अनुवाद-कार्य के लिए 1983 में बिहार राजभाषा विभाग, पटना द्वारा मुझे ताम्रपत्र से सम्मानित भी किया गया.

सांसारिक आधि-व्याधि, क्लेश-संताप आदि से मुक्ति का अमोघ साधन

TYPOGRAPHY

कश्मीर शैवदर्शन की जब चर्चा चलती है तो स्वछन्द-भैरव द्वारा प्रस्फुटित “बहुरूपगर्भ स्तोत्र” की ओर ध्यान जाना स्वाभाविक है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के लिए इन स्तोत्रों/श्लोकों का पठन-पाठन बड़ा ही फलदायी और सार्थक माना जाता है।

मेरे दादाजी स्व० शम्भुनाथजी राजदान (रैना) प्रधान ब्राह्मण महामंडल, श्रीनगर-कश्मीर ने अथक परिश्रमोप्रांत अपने जीवन के अंतिम वर्षों में इन दुर्लभ स्तोत्रों का संकलन किया था। बाद में इन स्तोत्रों का हिंदी अनुवाद सहित प्रकाशन माननीय मंडन मिश्रजी की अनुकम्पा से लाल बहादुर शास्त्री केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, दिल्ली से हुआ।
मुझे अतीव प्रसन्नता है कि दादाजी के इस पुनीत, श्रमसाध्य एवं लोकहितकारी प्रयास को सुधी पाठकों तक पहुँचने में मैं निमित्त बना। दादा की भी यही इच्छा थी।
श्रीबहुरूपगर्भस्तोत्रम्श्रीबहुरूपगर्भस्तोत्रम्मेरे पितामह स्वर्गीय श्री शम्भुनाथजी राज़दान (रैना) एक उच्चकोटि के संस्कृत विद्वान्, धर्मनिष्ठ पण्डित तथा सदाशयी व्यक्ति थे। ज्योतिष, व्याकरण, कर्मकाण्ड, शैव-दर्शन आदि के वे अच्छे ज्ञाता थे। वर्षों तक उन्होंने संस्कृत भाषा-साहित्य का अध्यययन-अध्यापन किया तथा कश्मीर ब्राहृमणमण्डल के लगभग एक दशक तक प्रधान रहे। वे जीवन-पर्यन्त संस्कृत के उन्नयन हेतु समर्पित रहे। जीवन के अपने अन्तिम दिनों में अशक्त होने के बावजूद उन्होंने “श्रीबहुरूपगर्भस्तोत्रम्” का सुन्दर एवं प्रामाणिक संपादन/आकलन किया।
इस पुस्तक के प्रकाशित होने के पीछे यहां पर अपना एक संस्मरण उद्धृत करना चाहूंगा। दादाजी का स्वर्गवास कश्मीर में १९७१ में हुआ। उन दिनों मैं प्रभु श्रीनाथजी की नगरी नाथद्वारा/उदयपुर में सेवारत था। दादाजी के स्वर्गवास के समय मैं लम्बी दूरी के कारण कश्मीर तो नहीं जा सका पर हाँ एक विचित्र घटना अवश्य घटी। मेरी श्रीमतीजी ने मुझे बताया कि दादाजी उन्हें सपने में दिखे और उनसे कहा: ‘मेरी एक पाण्डुलिपि घर में पड़ी हुई है जिसका प्रकाशन होना चाहिए और यह काम तुम्हारे पति शिबनजी ही कर सकते हैं।‘ दादाजी अच्छी तरह से जानते थे कि पूरे घर-परिवार में लिखने-पढ़ने के प्रति मेरी विशेष रुचि थी और उनके स्वर्गवास होने तक मेरी दो-तीन पुस्तकें प्रकाशित भी हुई थीं।
ग्रीष्मावकाश में जब मैं कश्मीर गया तो सर्वप्रथम उस पाण्डुलिपि को ढूंढ निकाला जिसके बारे में दादाजी ने मेरी श्रीमतीजी से उल्लेख किया था। सचमुच 'कैपिटल-कापी' में तैयार की गई उस पाण्डुलिपि के कवर के पिछले पृष्ठ पर मेरा नाम अंकित था-‘शिबनजी’। शायद वे अच्छी तरह से जानते थे कि इस पाण्डुलिपि का उदार मैं ही कर सकता था। इस बीच मेरा तबादला अलवर हो गया। संस्कृत के मूर्धन्य विद्वान् डा० मण्डन मिश्र के अनुज डा० गजानन मिश्र कालेज में मेरे सहयोगी थे। उन्होंने इस पाण्डुलिपि को छपवाने में मेरी पूरी सहायता की। मैं जयपुर के सकेंट हाउस में डा० मण्डन मिश्र से मिला| डा० साहब ने दादाजी के प्रयास की सरहाना की इसे प्रकाशित करने के मेरे निवेदन को सिद्धान्ततः स्वीकार कर लिया। चूंकि मूल पण्डुलिपि में हिन्दी अनुवाद नहीं था,अतः उनके संस्थान ने इसका सुन्दर अनुवाद भी करवाया और इस तरह से दादाजी का यह श्रम सार्थक होकर ज्ञान-पिपासुओं के सामने आ सका। कश्मीर की इस अद्भुत एवं बहुमूल्य धरोहर को देखकर धर्म-दर्शन, विशेषकर, कश्मीर की शैव-परम्परा में रूचि रखने वाले सुधीजन अवश्य हर्षित होंगे।
“श्रीबहुरूपगर्भस्तोत्र” के अंत में दिए गये आप्त-वचनों को पढ़कर निश्चय ही इन अनमोल स्तोत्रों के महात्म्य का भान हो जाता है। 
इति श्रीबहुरूपगर्भस्तोत्र सम्पूर्णम् । इति शुभम् (उपसंहार एवं फलश्रुति)
"इस प्रकार यह महान् स्तोत्रराज महाभैरव द्वारा कहा गया है। यह योगिनियों का परम सारभूत है । यह स्तोत्र किसी अयोग्य तथा अदीक्षित, मायावी, क्रूर, मिथ्याभाषी, अपवित्र, नास्तिक, दुष्ट, मूर्ख, प्रमादी, शिथिलाचारी, गुरु, शास्त्र तथा सदाचार की निन्दा करने वाले, कलहकर्त्ता, निन्दक, आलसी, सम्प्रदाय-विच्छेदक अथवा प्रतिज्ञा तोड़ नेवाले, अभिमानी और अन्य सम्प्रदाय में दीक्षित को नहीं देना चाहिए।
यह केवल भक्तियुक्त व्यक्ति को ही देना चाहिए। आचारशून्य पशुओं के समक्ष कहीं भी कभी भी इस स्तोत्र का उच्चारण नहीं करना चाहिए। इस स्तोत्र का स्मरण-मात्र करने से सदैव विध्न नष्ट होते हैं। यक्ष, राक्षस, वेताल, अन्य राक्षस आदि, डाकिनियां, पिशाच,जन्तु एवं पूतनादि राक्षसियां, खेचरी और भूचरी डाकिनी, शाकिनी आदि सभी इस स्तोत्र के पाठ से उत्पन्न प्रभाव से नष्ट हो जाते हैं। इनके अतिरिक्त जो भी भयङ्कर दुष्ट जीव हैं तथा रोग, दुर्भिक्ष, दौर्भाग्य, महामारी, मोह, विषप्रयोग, गज, व्याघ्र आदि दुष्ट पशु हैं, वे सभी दसों दिशाओं से भाग जाते हैं । सभी दुष्ट नष्ट हो जाते हैं,. ऐसी परमेश्वर की आज्ञा है।“

shiben rainaDr. Shiben Krishen RainaCurrently in Ajman (UAE)Member, Hindi Salahkar Samiti,Ministry of Law & Justice (Govt. of India)Senior Fellow, Ministry of Culture (Govt. of India)
Dr. Raina's mini bio can be read here:

शारजाह की नयी सब्जी मंडी 

जब भी मैं यूएई आता हूँ तो शारजाह की नयी सब्जी मंडी को दुबारा देखना नहीं भूलता। सचमुच, अद्भुत और दर्शनीय! कह नहीं सकता कि विश्व में ऐसी भव्य,विशालकाय और मनोरम सब्जीमंडी कहीं और होगी क्या?इस सब्जी मंडी का नाम है ‘सौक अल-जुबैल’। सैंतीस सौ वर्ग मीटर पर फैले इस विशालकाय वातानुकूलित परिसर में मुख्यतया तीन मार्किट अवस्थित हैं। एक में फल-फ्रूट और सब्जियाँ,दूसरे में मीट और मछली और तीसरे में सूखे मेवे आदि की दुकानें हैं। कुलबिल ३७० दुकानें हैं जिन में २१२ सब्जी और फल-फ्रूट की और शेष दुकानें मांस-मछली आदि की।पहले यह मंडी दूसरी जगह पर हुआ करती थी।नया परिसर बनने पर पुरानी मंडी की सारी दुकानें यहाँ पर शिफ्ट कर दी गयीं। व्यवस्था और साफ-सफाई अपने चरम पर। कहीं कोई गिचपिच नहीं,कोई चख-चख नहीं।कहीं कोई हो-हुल्लड़ भी नहीं।एक दाम। कोई चुकाव-मुकाव भी नहीं।अनुशासन और शांति भी अपने चरम पर। यूएई चूंकि-कृषि प्रधान देश नहीं है,अतः फल,सब्जी आदि खाने-पीने की चीज़े मुख्यतया ओमान,भारत,पाकिस्तान,इटली,अमेरिका,श्रीलंका,ऑस्ट्रेलिया आदि देशों से यहाँ आती हैं।
सब्जी मंडी की विशालकायता का अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि परिसर के बाहर ७५० कारों के लिए पार्किंग की व्यवस्था है। ८०० ट्रोलियों से लैस परिसर में एटीएम के साथ-साथ वाई-फाई की सुविधा भी उपलब्ध है। पूरा परिसर चौबीस घंटे सीसी कैमरों की निगरानी तले रहता है।परिसर की ऊपरली मंजिल पर ‘सौक अल-जुबैल’ का प्रशासनिक ऑफिस स्थित है।

दुबई में श्रीनाथजी का मन्दिर 

इस बार तो नहीं पिछली बार कुछ ऐसा योग बना कि दुबई स्थित श्रीनाथजी के मंदिर के स्थानीय मुखियाजी से भेंट हो गयी.जब उन्हें यह मालूम पड़ा कि मैं नाथद्वारा में रहा हूँ और वहां कॉलेज में मैं ने पढ़ाया है, तो पूछिये मत. सत्तर के दशक की नाथद्वारा नगर की सारी बातें और घटनाएँ दोनों की आँखों के सामने उभर कर आ गयीं. (मनोहर कोठारी,नवनीतन पालीवाल, दशोराजी,भंवरलाल शर्मा,बहुगुणा साहब,ललितशंकर शर्मा,मधुबाला शर्मा,बाबुल बहनजी, कमला मुखिया, देवपुराजी आदि जाने कितने-कितने परिचित नाम हमारे वार्तालाप के दौरान हम दोनों को याद आये.)हालांकि वे सीधे-सीधे मेरे विद्यार्थी कभी नहीं रहे क्योंकि जब मैं कॉलेज में था तो वे आठवीं कक्षा में पढ़ते थे.मगर जैसे ही उन्हें ज्ञात हुआ कि नाथद्वारा मंदिर के वर्तमान मुखियाजी श्री इंद्रवदन मेरे विद्यार्थी रहे हैं, तो वे सचमुच विह्वल हो उठे.गदगद इतने हुए कि मुझे भी अपना गुरु समझने लगे.स्पेशल प्रसाद मंगवया और मुझे भेंट किया.इस अवसर पर लिए गये कुछेक चित्र प्र्स्तुर हैं: मंदिर परिसर के बाहर मुख्य सडक पर बैंक ऑफ बडौदा का विशालकाय भवन है और उसके सामने वह मार्ग है जहाँ से होकर भीतर मंदिर की ओर जाया जाता है।
(पुनःच/ मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि चरन शर्मा.सुभाष मेहता.अनिल सनाढ्य आदि जैसे होनहार बालक मेरे प्रिय छात्र रहे.चरण शर्मा, जो आजकल मुम्बई में रहते हैं,ने तो चित्रकला की दुनिया में देश-विदेश में खूब नाम कमाया है)

हजारीप्रसाद द्विवेदीजी 

बहुत कम लोग जानते होंगे कि हजारीप्रसाद द्विवेदीजी को गुरुदेव टैगोर शांतिनिकेतन लाये थे और वे कई वर्षों तक इस विश्वप्रसिद्ध शिक्षा-संस्थान के हिंदी के प्रथम अध्यक्ष रहे।मानाजाता है कि यहीं पर द्विवेदीजी ने अपने प्रसिद्ध निबंधों 'शिरीष के फूल','अशोक के फूल' आदि की रचना की थी।ये दोनों वृक्ष आज भी हिंदी भवन के प्रांगण में मौजूद हैं।"बाण भट्ट की आत्मकथा"का प्रणयन भी द्विवेदी जी ने इसी जगह पर किया,ऐसा कहा जाता है।
द्विवेदीजी जिस निलयम या आवास गृह में रहते थे उसकी एक-एक बात आचार्य द्विवेदीजी की सादगी को रेखांकित करती है।(चित्र देखकर मित्र स्वयं अंदाज़ लगावें कि कौनसा चित्र किस संदर्भ से जुड़ा है।)

सौहार्द” सम्मान 

उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान,लखनऊ ने अभी कुछ दिन पहले देश के कई सारे हिंदी सेवियों-लेखकों को पुरस्कृत-सम्मानित करने का निर्णय लिया है.मुझे अपनी बात याद आई. ”सौहार्द” सम्मान के लिए मुझे 1990 में चयनित किया गया था.सब से बड़ी बात यह कि समारोह के अंत में पुरस्कार-विजेताओं की ओर से धन्यवाद-ज्ञापन का दायित्व संस्थान निदेशक ने मुझे देकर मेरा सम्मान दुगना किया.चित्र में 'चंदामामा' के प्रख्यात सम्पादक तेलुगु विद्वान बालशौरी रेड्डी, सिन्धी के मोतीलाल जोतवाणी आदि बैठे हुए देखे जा सकते हैं.(संभवतः अब ये दोनों सज्जन इस संसार में नहीं रहे)
पीछे मुड़कर देखता हूँ तो मन-प्राण पुलकित हो उठते हैं.

With Late Sh.Vishnu Kant Shastri, the then Governor of HP, at IIAS Campus.I stand immediately on the right of Shastri Ji.Shastri Ji was a great/well-read scholar of Hindi/Sanskrit literature besides being a great orator. — at IAAS Shimla.


आत्मकथा : वतन से दूरी ही मेरी साहित्य साधना की मूल प्रेरणा है!

आत्म-कथ्य लिखना किसी भी लेखक के लिए चुनौती का काम है। कारण, अपने बारे में लिखना आसान तो लगता है किंतु तभी सहसा दिमाग में एक बात और आती है कि 'लिखने' और 'बखान' में यानी आत्म-कथ्य और आत्म-प्रचार में स्पष्ट सीमा रेखा खिंच जानी चाहिए और उस रेखा को साफ-साफ उजागर करना ही एक सुलझे हुए लेखक की असली परख/ पहचान है। अपने आत्म-कथ्य में मैं इस बात के प्रति विशेषतया सावधान रहा हूं।

कश्मीर मेरी जन्मभूमि है। जन्म हुआ था श्रीनगर (कश्मीर) के पुरुषयार (हब्बाकदल) मुहल्ले में संवत 1999 में वैशाख शुक्ल पक्ष की सप्तमी को। ईस्वी सन् के हिसाब से यह तिथि 22 अप्रैल 1942 बैठती है। निम्न मध्यवर्गीय परिवार के तमाम अभावों और दबावों को विरासत में पाकर बचपन और किशोरावस्था के उद्दाम और बेफिक्री के दिनों को मैंने मन मारकर बिताया है।
पिताजी की प्राइवेट नौकरी हमारे 7 सदस्यीय परिवार के लिए तन ढंकने और दो टाइम का साग-भात जुटाने के लिए काफी न थी। माताजी कहती थी कि दुर्दिनों के हमने कई-कई बार चावल का मांड पिया है और सत्तू खाया है। 'जबरी स्कूल' में ढाई आने फीस जमा कराने के लिए भी हमें कई बार उधार लेना पड़ता था।


बड़ी मौसी की हैसियत हमसे कुछ ज्यादा ठीक थी, शायद सीमित परिवार के कारण। समय-असमय उसने हमारी बहुत मदद की है। कई बार माताजी ने मुझे उनके पास आलीकदल भेजा है और मैं 3 मील पैदल चलकर उनके यहां से कभी चावल, कभी आटा और कभी 5-7 रुपए चुपचाप लाया हूं।

नौकरी के सिलसिले में पिताजी लंबे समय तक जम्मू में रहे। रेडक्रॉस के दफ्तर में उनकी नौकरी थी। सर्दियों में हम जम्मू चले जाते और गर्मियों में वापस श्रीनगर लौट आते। इस आवाजाही के कारण मेरी स्कूली शिक्षा दो जगह हुई। जम्मू में घास मंडी स्कूल में तथा श्रीनगर में जबरी स्कूल (टंकीपोरा) तथा श्रीप्रताप हाईस्कूल में। सरकारी स्कूलों में जैसी पढ़ाई और जैसा माहौल होता है, उसी को आत्मसात करता मैं 10वीं प्राप्त कर गया। यह बात 1956 की है। 10वीं में मुझे अच्छे अंक मिले थे- प्रथम श्रेणी में 7 या 8 ही घटते थे। कॉलेज में प्रवेश लेने के लिए विषयों का सही चयन करना अनिवार्य था।

मुझे याद है कि प्रवेश फॉर्म भरते समय कॉलेज के एक अनुभवी प्रोफेसर साहब ने मेरे प्राप्तांक को ध्यान में रखते हुए मुझे विज्ञान संकाय में जाने की सलाह दी थी, क्योंकि आने वाले समय में रोजगार की दृष्टि से कला की तुलना में विज्ञान की संभावनाएं अच्छी थीं। 10वीं में यह विषय मेरे पास न होने पर भी वे मुझे विज्ञान दिलवाने के पक्ष में थे। घर पर दो दिनों तक इस बात पर खूब विचार होता रहा कि मैं विज्ञान लूं या आर्ट्स?

चूंकि पिताजी ज्यादातर जम्मू में रहते थे अत: हमारे घर के सारे मुख्य निर्णय दादाजी लेते थे। दादाजी की अपनी विवशताएं, अपने पूर्वाग्रह तथा स्थितियों को समझने की अपनी दृष्टि थी। वे हिन्दी-संस्कृत के अध्यापक तथा एक धर्मपरायण/ कर्मकांडी ब्राह्मण थे। (कश्मीर ब्राह्मण मंडल के वे वर्षों तक प्रधान रहे।) विज्ञान जैसे पदार्थवादी विषय से उनका दूर का भी वास्ता न था। उन्होंने जोर/ तर्क देकर मुझे कला संकाय में जाने को कहा, क्योंकि उस स्थिति में हिन्दी-संस्कृत के विषयों को वे मुझे अच्छी तरह से पढ़ा सकते थे।

आज सोचता हूं कि यदि विज्ञान संकाय में प्रवेश ले लिया होता तो एक दूसरे ही रसहीन संसार में विचरण कर रहा होता मैं, और व कला के अनूठे, कालजयी, यशबहुल तथा रससिक्त संसार से एकात्म होकर आत्मविस्तार की अनमोल सुखानुभूति से वंचित रह जाता। इसे मैं दादाजी का पुण्य प्रताप ही मानूंगा कि उन्होंने मुझ में हिन्दी के प्रति प्रेम को बढ़ाया और यह उनकी ही दूरदृष्टि का परिणाम है कि मैं एमए तक पढ़ पाया अन्यथा मैट्रिक कर लेने के बाद पिताजी मुझे नौकरी पर लगवाने के पक्ष में थे।

कश्मीर विश्वविधालय में एमए हिन्दी खुले संभवत: 2 ही वर्ष हो गए थे, जब मैंने 1960 में एमए में प्रवेश लिया। उस समय विभाग में 30 लड़के-लड़कियां तथा 3 प्रोफेसर थे। डॉ. हरिहरप्रसाद गुप्त विभाग के अध्यक्ष तथा डॉ. शशिभूषण सिंहल व डॉ. मोहिनी कौल प्राध्यापक हुआ करते थे। मैंने पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध दोनों में अधिकतम अंक प्राप्त कर 1962 में एमए हिन्दी प्रथम श्रेणी में प्रथम रहकर किया।
मुझे याद है हिन्दी विभाग में साहित्य परिषद या हिन्दी सेमिनार जैसे एक मंच का निर्माण किया गया था जिसमें हर शनिवार को 'गोष्ठी' होती थी। इस गोष्ठी में छात्र-छात्राओं की स्वरचित कविताओं, गजलों, कहानियों, शोधपरक निबंधों का वाचन होता। समीक्षाएं भी होतीं और जमकर होतीं। 1 वर्ष तक मैं इस हिन्दी सेमिनार का छात्र सचिव रहा और संभवत: गोष्ठियों का संचालन करते-करते, गुरुजनों की समीक्षाएं सुनते-सुनते तथा छात्र लेखकों की रचनाएं सुनते-सुनते मेरे भीतर का छिपा लेखक इतना प्रभावित और विलोड़ित हुआ कि मैंने नियमित रूप से लिखने का अभ्यास करना प्रारंभ कर दिया।

मैंने बहुत कुछ लिखा, पर वह छपा नहीं। कश्मीर जैसे अहिन्दी प्रांत में हिन्दी रचना का छपना-छपाना सरल कार्य न था। पूरे प्रांत से 'योजना' नाम की एकमात्र सरकारी पत्रिका निकलती थी और उस पर वरिष्ठ लेखकों का दबाव अधिक था। हम नए लेखकों को भला कौन जानता? मुझे याद है मेरी पहली रचना 'समाज और हम' (जिसे मैंने हिन्दी सेमिनार में पढ़ा था) 1960 में युवक (आगरा) में छपी थी मेरे फोटो के साथ। रचना छपवाने के लिए मेरे श्रद्धेय गुरुजी डॉ. शशिभूषण सिंहल ने मेरी मदद की थी। गुरुजी के सिफारिशी पत्र के साथ मैंने उक्त रचना संपादक को भेजी थी।

यकीन मानिए, जब डाक से पत्रिका मेरे पास आई और मैंने अपनी रचना सचित्र उसमें देखी तो मैं इतना प्रसन्न हुआ, इतना प्रसन्न हुआ मानो कुले-जहां की खुदाई मिल गई हो। पूरे 7 दिनों तक मेरी प्रसन्नता का ज्वर नहीं टूटा। इन 7 दिनों के दौरान पत्रिका मेरे बगल में ही रही। उठते-बैठते, घूमते-फिरते, खाते-पीते हर बार पलट-पलटकर अपनी रचना को देख लेता, मित्रों को दिखाता और मन ही मन सुखामृत के घूंट पीता रहता।

रचना छप तो गई। वाहवाही भी मिली किंतु गुरुदेव डॉ. हरिहर प्रसाद गुप्त की मंशा कुछ और ही थी। मुझमें वे संभवत: उन तमाम संभावनाओं का पता लगा चुके थे, जो आगे चलकर मुझे साहित्य के क्षेत्र में प्रतिष्ठापित करतीं। उनका आग्रह था कि मैं शुद्ध साहित्यिक विषयों, जैसे सूर, तुलसी, नई कविता, छायावाद, रस निष्पत्ति, साहित्य और समाज आदि विषयों का अध्ययन तो कर लूं, मगर इन पर लिखने की जिद न पकडूं। इन विषयों के अधिकारी लेखक हिन्दी जगत में बहुत हैं और इन विषयों के माध्यम से आगे बढ़ने की संभावना भी उतनी नहीं है जितनी कश्मीर संबंधी विविध विषयों को आधार बनाने से है। इसमें उन्हें कश्मीर की सांस्कृतिक-साहित्यिक धरोहर को हिन्दी जगत तक पहुंचाने की आवश्यकता नजर आ रही थी और साथ ही संपर्क भाषा हिन्दी के माध्यम से देश की दो संस्कृतियों को मिलाने की वे बात सोच रहे थे।

मेरे लिए उन्होंने साहित्य साधना का नूतन मार्ग खोल दिया। मेहनत करके मैंने 'कश्मीर की झीलें' शीर्षक से एक सचित्र लेख 'सरिता' में प्रकाशनार्थ भेजा। 2-3 महीनों के बाद रचना छप गई नयनाभिराम गेटअप के साथ। 60 रुपए पारिश्रमिक भी मिला। गुरुजी ने ठीक ही कहा था कि कश्मीर संबंधी विषयों पर लिखने की बहुत जरूरत और गुंजाइश थी। 'कश्मीर के प्रसिद्ध खंडहर', 'कश्मीरी संगीत', 'कश्मीरी कहावतें और पहेलियां' आदि मैंने लेख लिखे। ये बातें 1960-61 की हैं।

कश्मीर की सुरम्य घाटी को मैंने नवंबर 1963 में छोड़ा। नहीं जानता था कि मातृभूमि को सदा-सदा के लिए छोड़ना पड़ेगा। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से फैलोशिप मिली और पीएचडी करने मैं कुरुक्षेत्र आया। इस बीच हमारे प्रोफेसर डॉ. शशिभूषण सिंहल कश्मीर से कुरुक्षेत्र विश्वविधालय में चले आए थे। वे मेरे शोध कार्य के निदेशक नियुक्त हुए। शोध का विषय था- 'कश्मीरी तथा हिन्दी कहावतों का तुलनात्मक अध्ययन।' अपने पीछे मां-बाप की छत्रछाया, भाई-बहनों का प्यार तथा बंधु-बांधवों का सान्निध्य छोड़ अपनी राह स्वयं बनाने तथा अपनी मंजिल स्वयं तय करने के एकाकी अभियान पर चल पड़ा था मैं। घर और अपने परिवेश की सीमित-सी दुनिया को अलविदा कहकर मैंने एक नए परिवेश में प्रवेश किया था।

मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैं घर से चला था तो मात्र 50 रुपए लेकर चला था। दादाजी ने चुपचाप अलग से 10 का नोट मेरी जेब में डाल बालों पर हाथ फेरते हुए कहा था- 'हमसे दूर जा रहे हो। एक बात का हमेशा ध्यान रखना बेटा, परदेश में हम लोग तुम्हारे साथ तो होंगे नहीं, पर तुम्हारी मेहनत, लगन और मिलनसारिता हरदम तुम्हारा साथ देगी। औरों के सुख में सुखी और उनके दु:ख में दु:खी होना सीखना। सच्चा मानव धर्म यही है।'

यहां पर इस बात का उल्लेख करना अनुचित न होगा कि एक समय में कश्मीर में हिन्दी के प्रचार तथा हिन्दी लेखन के प्रति लोगों में बड़ा उत्साह और आदरभाव था। क्रालखोड (हब्बाकदल) में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का कार्यालय हुआ करता था और प्राय: हर इतवार की शाम को वहां हिन्दी से प्रेम रखने वाले उत्साही युवकों एवं वरिष्ठ लेखकों का मजमा जुड़ जाता था। बहसें होतीं, कवि सम्मलेन आयोजित होते, साहित्यिक चर्चाएं होतीं, पुस्तकों के विमोचन होते, कहानियां पढ़ी जातीं आदि-आदि।

यह बात इस शती के 5वें/ 6ठे दशक की है। मैं कोई 15 वर्ष का रहा होऊंगा। इन गोष्ठियों में सम्मिलित तो हो जाता किंतु पीछे वाली पंक्ति में बैठ (या बिठा दिया) जाता। उस वक्त के कुछ बड़े नामों में प्रो. काशीनाथ धर, प्रो. लक्ष्मीनारायण सपरू, श्रीकंठ तोषखानी, प्रो. पृथ्वीनाथ पुष्प, मोतीलाल चातक, द्वारिकानाथ गिगू, रतनलाल शांत, प्रेमनाथ प्रेमी, शशिशेखर तोषखानी, प्रो. लीलकंठ गुर्टू, हरिकृष्ण कौल, प्रो. चमनलाल सपरू, जानकीनाथ कौल 'कमल' आदि याद आ रहे हैं।

कालांतर में समय ने करवट ली और इसी के साथ कश्मीर में हिन्दी के ये प्रहरी और प्रेमी भी इधर-उधर बिखर गए। हां, माननीय प्रो. चमनलाल सपरू साहब आज भी हिन्दी के लिए कृतसंकल्प हैं और मेरे कार्य की प्रशंसा करते नहीं अघाते। मेरी पहली पुस्तक 'कश्मीरी भाषा और साहित्य' (सन्मार्ग प्रकाशन, दिल्ली 1972) की विस्तृत भूमिका उन्हीं ने लिखी है।

कुरुक्षेत्र विश्वविधालय में 2 वर्ष की अवधि बिताने के साथ ही नौकरी के लिए तलाश शुरू होने लगी और मैंने इधर-उधर प्रार्थना पत्र भेजे। 2 जगह मेरा चयन हुआ। दिल्ली के एक सांध्यकालीन कॉलेज में अस्थायी तौर तथा राजस्थान लोकसेवा आयोग, अजमेर द्वारा राजस्थान कॉलेज शिक्षा सेवा के लिए पक्के तौर पर। निर्णय मुझे लेना था।

राजस्थान सरकार की नौकरी ही मेरी नियति बनी, क्योंकि अस्थायी नौकरी स्वीकार करने का जोखिम उठाना मेरे बूते से बाहर था। जुलाई 1966 से मैं राजस्थान के विभिन्न सरकारी कॉलेजों में अध्यापनरत हो गया। राजकीय कॉलेज, भीलवाड़ा में मेरी प्रथम नियुक्ति हुई। 1 वर्ष तक वहां पर रह लेने के बाद लगभग 10 वर्षों तक राजकीय कॉलेज, नाथद्वारा (उदयपुर) में रहा। 1978 से राजकीय स्नातकोत्तर कला महाविद्यालय, अलवर में स्थानांतरित होकर आया।

इस बीच 1975-76 में वर्ष के लिए भारत सरकार के पटियाला स्थित उत्तर क्षेत्रीय भाषा केंद्र में कश्मीरी भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन, उसके व्याकरण और उसकी पाठ्य साम्रगी का निकट से अनुशीलन करने का मुझे सुअवसर मिला। संत कवयित्री ललद्दद पर मैंने यहीं पर एक पुस्तक तैयार की, जो भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनऊ से प्रकाशित हुई। इस पुस्तक की सुंदर प्रस्तावना प्रसिद्ध हिन्दी विद्वान और पत्रकार बनारसीदास चतुर्वेदी ने लिखी है।

प्रभु श्रीनाथजी की प्रसिद्ध नगरी नाथद्वारा में बिताए गए 10 वर्ष मेरे जीवन के सर्वाधिक महत्वपूर्ण और दिशासूचक वर्ष रहे हैं। यही वे वर्ष हैं जिन्होंने मेरे भीतर के लेखक (साहित्यसेवी) को एक सुनिश्चित आकार देना प्रारंभ किया और मेरे साहित्यिक भविष्य की एक पक्की नींव डल गई।

ये तमाम वर्ष मेरे लिए कठोर परिश्रम के वर्ष थे। अपनी जम्भूमि से सैकड़ों मील दूर, डल झील और चिनारों की शीतल और पुलकनभरी दुनिया से विलग, नर्म-नर्म बर्फ की छुअन से सदा के लिए विमुख होकर मैं वीर वसुंधरा राजस्थान की प्रचंड गर्मी और लू से टक्कर लेता हुआ परदेस में लसने-बसने, अपने लिए एक जगह बनाने तथा अपने भविष्य को संवारने की चिंता में साधनारत था।

अपनों से दूरी ने मन में जो रिक्तता और टीस पैदा की थी, वह मेरे लिए वरदान सिद्ध हुई। मैंने निश्चय किया कि मेरा प्रवास आजीविका जुटाने का प्रयास मात्र नहीं होना चाहिए किंतु मुझे कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे मेरे भीतर की वियोगजन्य पीड़ा की क्षतिपूर्ति हो। सच पूछा जाए तो मातृभूमि (वतन) से दूरी और तज्जन्य रिक्तता का भाव ही मेरी समस्त साहित्य साधना की मूल प्रेरणा हैं।

कुछ-कुछ यही बात 1983 में पटना के सचिवालय सभागार में बिहार राजभाषा विभाग द्वारा आयोजित मेरे अभिनंदन समारोह में उस समय के बिहार के मुख्य सचिव ने कही थी। अपने समापन भाषण में सचिवजी ने शायद ठीक ही कहा था कि रैणाजी अगर कश्मीर में होते तो इतना महत्वपूर्ण और उपयोगी कार्य न करते। दरअसल, अपने वतन से दूरी ने ही उन्हें इतना ठोस कार्य करने की प्रेरणा दी है।

इस बीच राजस्थान जैसे विशुद्ध हिन्दी प्रांत में कार्य करने से मेरे हिन्दी के व्यावहारिक ज्ञान की सीमाएं विस्तृत हो चुकी थीं। मैंने हिन्दी के रोजमर्रा के मुहावरे को आत्मसात कर लिया था, भाषा पर मेरी पकड़ मजबूत होती जा रही थी। हिन्दी भाषा और साहित्य के जानकारों/ विद्वानों से दिनोदिन मेरा संपर्क बढ़ता जा रहा था। सभा-गोष्ठियों में मेरी भागीदारी बढ़ती जा रही थी। कश्मीर छोड़कर राजस्थान को अपना कार्यक्षेत्र बनाने का एक जबरदस्त फायदा मुझे यह हुआ कि भाषा और अभिव्यक्ति शैली में बहुत परिष्कार हुआ। मेरी पहली पुस्तकाकार रचना 'कश्मीरी भाषा और साहित्य' 1972 में छपी। इसे मैंने लगभग 2 वर्षों की मेहनत के बाद नाथद्वारा में तैयार किया था।

सुप्रसिद्ध हिन्दी-संस्कृत विद्वान एवं सांसद ('राजतरंगिनी' के विख्यात भाष्यकार) डॉ. रघुनाथ सिंह ने लगभग 18 वर्ष पूर्व राजस्थान में रहकर कश्मीरी साहित्य-संस्कृति पर मेरे निष्ठापूर्ण लेखन को देखकर सुखद आश्चर्य प्रकट किया था। (डॉ. सिंह पं. नेहरू के समय कश्मीर मामलों की संसदीय समिति के सदस्य रहे हैं) अपने 18 नवंबर 1974 के हाथ से लिखे पत्र में उन्होंने मुझे लिखा था- 'आप साहित्य की जो सेवा कर रहे हैं उससे कश्मीर और भारत उऋण नहीं हो सकते। विचित्र विपर्यय है- कहां कश्मीर का तुषार मंडित देश और कहां राजस्थान की मरुभूमि किंतु दोनों हैं उज्ज्वल वर्ण। राजस्थान की ऊष्मा ने वीरों को उत्पन्न किया है और हिमालय भूमि में आसीन कश्मीर ने दार्शनिकों एवं महाकाव्यकारों को।'

नाथद्वारा प्रवास के दौरान ही मैंने कश्मीरी भाषा की लोकप्रिय रामायण 'रामावतारचरित' का सानुवाद लिप्यांतरण किया। इस कार्य को पूरा करने में मुझे लगभग 5 वर्ष लगे। भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनऊ से प्रकाशित इस सेतु ग्रंथ की सुंदर प्रस्तावना डॉ. कर्णसिंह ने लिखी है। मेरे प्रयास की भूरि-भूरि प्रसंशा करते हुए उन्होंने लिखा- 'डॉ. शिबन कृष्ण रैणा ने अपने कठोर परिश्रम से मूल कश्मीरी भाषा की इस अमोल निधि 'रामावतारचरित' का देवनागरी लिपि में लिप्यांतरण किया है और हिन्दी में इसका सुंदर अनुवाद भी, जो अपने आप में प्रशंसनीय कार्य है। यों भी तो डॉ. रैणा हिन्दी के माध्यम से कश्मीरी भाषा और साहित्य की सेवा में संलग्न हैं किंतु मुझे आशा है कि वे समय-समय पर कश्मीरी के अनेक अनमोल रत्नों की छटा को प्रतिबिम्बित करने का अपना प्रयास जारी रखेंगे। मैं उनकी सफलता एवं स्वास्थ्य की कामना करता हूं।'
मेरा जन्म चूंकि एक परंपरावादी हिन्दू ब्राह्मण परिवार में हुआ इसलिए ईश्वर के अस्तित्व में मेरा अविश्वास कभी नहीं रहा। पर मेरे मन ने यह कभी स्वीकार नहीं किया कि ईश्वर, श्रम से बढ़कर है। श्रम के प्रति मेरे अटूट विश्वास ने ही मुझे 'भाग्यवादी' नहीं बनाया है। हां, जब मैं देखता हूं कि इस संसार में ऐसे भी अनेक लोग हैं, जो श्रम के प्रति उदासीन होते हुए भी सफलताएं अर्जित कर रहे हैं तो मन को बड़ी तकलीफ होती है। तब श्रम पर से मेरी आस्था हिल जाती है और मैं न चाहते हुए भी प्रारब्ध, भाग्य, नियति, कर्मों का फल, पूर्व जन्म के संस्कार आदि जैसी बातों पर विश्वास करने लग जाता हूं। इसे आप मेरे मन की कमजोरी कह सकते हैं, मगर सच्चाई यही है।

'कश्मीरी भाषा और साहित्य' पुस्तक लिखते समय, कश्मीरी रामायण 'रामावतारचरित' का सानुवाद लिप्यांतरण करते समय, कश्मीरी की श्रेष्ठ कहानियों का अनुवाद करते समय, केंद्रीय साहित्य अकादमी के अंग्रेजी प्रकाशनों 'ललद्दद' और 'हब्बाखातून' का हिन्दी में अनुवाद करते समय, महजूर की कविताओं को हिन्दी में रूपांतरित करते समय या फिर भारतीय ज्ञानपीठ के लिए कश्मीरी का प्रतिनिधि संकलन तैयार करते समय मैंने सच में अपनी आंखों का रक्त पृष्ठों पर उतारा है। मन-मस्तिष्क के एक-एक तंतु को कठोर परिश्रम की यातना से गुजारा है, तब जाकर कहीं सृजन की पीड़ा झेलकर ये पुस्तकें सामने आ सकी हैं।

'ललद्दद' के अंग्रेजी से हिन्दी में किए गए अनुवाद को मैं अपनी मेहनत का अनूठा प्रसाद मानता हूं। जिसने भी उसे पढ़ा, विभोर हो गया। एक समीक्षक ने तो यहां तक लिख दिया- 'अनुवाद गजब का है। भाषा-शैली पुष्ट एन प्रांजल। हिन्दी के पाठकों के लिए इस दुर्लभ सामग्री को सुलभ कराकर रैणाजी ने बड़ा पुनीत एवं सार्थक कार्य किया है। यह पुस्तक इतिहासविदों, साधकों एवं साहित्यकारों के लिए समान रूप से उपयोगी है।' (प्रकर, दिसंबर, 1981)
ऐसा ही कुछ परम आदरणीय विष्णु प्रभाकरजी ने मेरी अनुवादित/ संपादित पुस्तक 'कश्मीर की श्रेष्ठ कहानियां' (राजपाल एंड संस, दिल्ली) के बारे में लिखा- 'कश्मीर की श्रेष्ठ कहानियां' की अधिकांश रचनाएं पढ़ गया। कश्मीरी जीवन को नाना रूपों में रूपायित करती ये कहानियां बहुत सुंदर हैं। सबसे अच्छी बात तो यह है कि ये अनुवाद लगतीं ही नहीं। मूल भावना भी उतनी ही सुरक्षित रह सकी है। मेरी हार्दिक बधाई लें।'
मेरी रचना यात्रा के साक्षियों में मेरे गुरुजन, सुरुचि संपन्न मित्र तथा वे सब हितैषी शामिल हैं जिन्होंने सच्चे मन से मेरी साहित्यिक उपलब्धियों पर प्रसन्नता व्यक्त की है। गुरुदेव डॉ. हरिहरप्रसाद गुप्त ने अपने एक पत्र में मुझे इलाहाबाद से लिखा था- 'तुम्हारी उपलब्धियों पर मुझे गर्व है। शिष्य द्वारा गुरु को परास्त होते देख अपूर्व आनंद की प्राप्ति हो रही है। आगे बढ़ो और यशस्वी बनो।'

मेरी जीवनसंगिनी हंसा का भी इस यात्रा में कम योगदान नहीं रहा है। हमारी शादी 14 जून 1967 को कश्मीर में हुई थी। एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में जन्मी मेरी धर्मपत्नी के दादाजी हरभट्ट शास्त्री अपने समय के जाने-माने कर्मकांडी, शैवाचार्य तथा संस्कृत के पंडित थे। अपने दादाजी से प्राप्त संस्कारों को अपने व्यक्तित्व में साकार करते हुए मेरी श्रीमती ने मेरे लेखन को मन ही मन आदर की दृष्टि से देखा है। स्वयं साहित्य की प्राध्यापिका होने की वजह से इस सारे कार्य की गुणवत्ता और महत्ता का उसे पूरा अंदाज है। कई-कई बार प्रेस में जाने से पहले मेरी रचनाएं उसने पढ़ी हैं और बहुमूल्य सुझाव भी दिए हैं। हां, मेरी पुस्तकों/ फाइलों/ कागजों की अस्त-व्यस्तता से वह तंग अवश्य हुई है और यही साहित्य के मामले में हमारे बीच छोटी-मोटी टकराहट का मुख्य मुद्दा रहा है। वह पुस्तकों को करीने से सजाने के पक्ष में रही है और मैं उन्हें 'घोटने' के पक्ष में। अधखुली किताबें, बेतरतीबी से बिखरे कागज, टेबल के दाएं-बाएं किताबों के छोटे-मोटे ढेर और उनके बीच में मैं। सच, मुझे यह सब बहुत अच्छा लगता है। कोई कागज या पत्र कहीं इधर-उधर चला जाए, फाइल कहीं दब जाए, किताब रैक में मिले नहीं- मुझे जाने क्यों उसे ढूंढ निकलने में बड़ा आनंद आता है।

मेरा साहित्यिक अवदान मुख्य रूप से एक अनुवादक के रूप में अधिक है इसीलिए कई विज्ञ साथियों ने मेरी साहित्य सेवा को 'सेतुकरण' की संज्ञा दी है। 1990 में उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान ने लखनऊ में मुझे 'सौहार्द सम्मान' से अलंकृत करते हुए प्रशस्ति पत्र में कुछ ऐसा ही कहा था- 'डॉ. शिबनकृष्ण रैणा कश्मीर और हिन्दी भाषियों के बीच एक लब्ध प्रतिष्ठित साहित्य प्रेमी, अनुवादक और लेखक के रूप में जाने जाते हैं। हिन्दी भाषियों को कश्मीरी साहित्य की ऊंचाइयों से परिचित करने के लिए आपने असाधारण मेहनत की और उसकी अनेक रचनाएं आज उन्हीं की सक्रियता से हिन्दी में उपलब्ध हैं। उनकी उल्लेखनीय, विशिष्ट और दीर्घकालीन हिन्दी सेवा और कश्मीरी जैसी आत्मीय भारतीय भाषा को राष्ट्रभाषियों के बीच पहुंचाने में अतुलनीय योगदान के लिए उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान उन्हें सौहार्द सम्मान से सम्मानित करते हुए 10,000 रुपए की धनराशि भेंट करता है।'

यही बात 1983 में ताम्रपत्र प्रदान करते हुए बिहार सरकार के राजभाषा विभाग ने मेरे साहित्यिक अवदान के बारे में कही थी। 2014 में भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने मुझे सीनियर फैलोशिप (हिन्दी) प्रदान की और 2015 में भारत सरकार के विधि और न्याय मंत्रालय ने मुझे अपनी 'हिन्दी सलाहकार समिति' का गैरसरकारी सदस्य मनोनीत किया। केंद्रीय हिन्दी निदेशालय की कई समितियों आदि में भी मुझे काम करने का सुअवसर मिला है।
मैंने अनुवाद को हमेशा मूल के बराबर का ही प्रयास माना है। यह मौलिक सृजन से भी बढ़कर कष्टसाध्य कार्य है। अपनी पुस्तक 'कश्मीर की प्रतिनिधि कहानियां' (देवदार प्रकाशन, दिल्ली) में 'पूर्व निवेदन' के अंतर्गत मैंने इसी बात को रेखांकित करते हुए लिखा है- 'अनुवाद, मौलिक सृजन से भी बढ़कर एक दुष्कर कार्य है। यह काम इतना जटिल, श्रमसाध्य और विरस है कि इससे होने वाली कोफ्त (यातना) का अंदाज वही लगा सकते हैं जिन्होंने अनुवाद का कार्य किया हो। अनुवाद तो एक तरह से योगी का परकाया प्रवेश है। वह पुनर्जन्म है, रचना का पुनर्सृजन! वह द्वितीय श्रेणी का लेखन नहीं, मूल के बराबर का ही प्रयास है।

सुंदर, प्रभावशाली तथा पठनीय अनुवाद के लिए यह आवश्यक है कि अनुवाद भाषा प्रवाह को कायम रखने के लिए, स्थानीय बिम्बों तथा अन्य रूठ प्रयोगों को बोधगम्य बनाने और वर्ण्य विषय को अधिक हृदयग्राही बनाने के लिए मूल रचना में आए में नाम को समान फेरबदल कर वह ऐसा लंबे-लंबे वाक्यों को तोड़कर, उनमें संगति बिठाने के लिए अपनी ओर से दो-एक शब्द जोड़कर तथा अर्थ के बदले आशय पर ध्यान देकर, कर सकता है। इस संकलन की कहानियों का अनुवाद करते समय मैंने यही किया है। ऐसा न करता तो अनुवाद 'अनुवाद' न होकर 'सरलार्थ' बन जाता। मैंने प्रयत्न किया है कि प्रत्येक अनुवादित रचना अपने आप में एक 'रचना' का दर्जा प्राप्त करे।
पूर्व में कहा जा चुका है कि अनुवाद पिछले लगभग 30-35 वर्षों से मेरी रुचि का विषय रहा है। अध्यापन कार्य के साथ-साथ कश्मीरी, अंग्रेजी, उर्दू आदि भाषाओं से मैंने अनुवाद का काम खूब किया है। चूंकि मेरा कार्य अपनी तरह का पहला कार्य था इसलिए साहित्य, विशेषकर अनुवाद के क्षेत्र में मुझे प्रतिष्ठा भी यथोचित प्राप्त हुई।

अनुवाद कार्य के दौरान मुझे लगा कि अनुवाद विधा मौलिक लेखन से भी ज्यादा दुष्कर एवं श्रमसाध्य विधा है। (मैंने कुछ मौलिक कहानियां, नाटक आदि भी लिखे हैं) अनुवाद संबंधी अपनी दीर्घकालीन सृजन यात्रा के दौरान मेरा वास्ता कई तरह की कठिनाइयों/ समस्याओं से पड़ा जिनसे प्राय: हर अच्छे अनुवादक को जूझना पड़ता है। अनुवाद कार्य के दौरान मुझे लगा कि अपने अनुभवों को साक्षी बनाकर मुझे ऐसी कोई परियोजना हाथ में ले लेनी चाहिए जिसमें अनुवाद के सैद्धांतिक पक्षों की सम्यक् विवेचना हो तथा अनुवाद कार्य में आने वाली कठिनाइयों/ समस्याओं का विवेचन कर उनके निदान आदि पर भी सार्थक विचार हो।
1997 के प्रारंभ में मैंने गंभीरतापूर्वक इस परियोजना के प्रारूप पर विचार करना शुरू किया तथा इसी वर्ष के अंत में विधिवत इस परियोजना को आवश्यक पत्र/ प्रपत्रों के साथ 'भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान' शिमला को विचारार्थ भिजवा दिया। सभी भारतीय भाषाओं का ज्ञान चूंकि मुझे नहीं था इसलिए मैंने विषय सीमित कर परियोजना का शीर्षक रखा- 'भारतीय भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद की समस्याएं : एक तुलनात्मक अध्ययन, कश्मीरी-हिन्दी के विशेष संदर्भ में'। 1 मई 1999 को मैंने संस्थान में प्रवेश किया। एक नए, सुखद एवं पूर्णतया शांत/ अकादमिक वातावरण में कार्य करने का यह मेरा पहला अवसर था जिसकी अनुभूति अपने आप में अद्भुत थी। लगभग ढाई वर्षों की अवधि में मैंने यह कार्य पूरा किया जिसका मुझे परम संतोष है। मेरा यह शोध कार्य संस्थान से प्रकाशित हो चुका है।
मित्रों का कई बार आग्रह रहा कि मुझे अनुवाद के अलावा कुछ मौलिक भी लिखना चाहिए। यह बात शायद वे इसलिए कह रहे थे कि मेरी कार्यित्री प्रतिभा में कितनी ऊर्जा और दम है, वे यह देखना चाहते थे। यों कश्मीरी भाषा, साहित्य, कला, संस्कृति आदि पर मैंने बीसियों शोधपरक/ समीक्षात्मक लेख लिखे होंगे, जो समय-समय पर देश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं यथा- 'धर्मयुग', 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान', 'सन्मार्ग' (कलकत्ता), 'जनसत्ता', 'परिषद पत्रिका', (पटना), 'शीराजा', 'आजकल' आदि में छपे हैं, पर शायद यह मौलिक लेखन न था। मित्र चाहते थे कि मैं भी कहानियां/ कविताएं/ नाटक लिखूं और मात्र 'अनुवादक' बनकर न रह जाऊं।

मैंने चुनौती स्वीकार कर ली। भीतर मन में छटपटाहट तो थी ही, रचना की भाषा से भी मैंने साक्षात्कार कर लिया था और फिर साहित्य शास्त्र का अध्येता/ प्राध्यापक होने के कारण रचना की सृजन प्रक्रिया के मूल एवं आवश्यक तत्वों की जानकारी भी मुझे थी। मैंने कहानी लिखने का प्रयास किया। 'शतरंज का खेल', 'मोहपाश', 'अंतराल', 'रिश्ते' आदि मेरी ऐसी स्वरचित कहानियां हैं जिन्होंने मुझे और मेरे मित्रों को आश्वस्त कर दिया कि मौलिक सृजन करने की मेरी संभावनाएं कम नहीं हैं। ये सभी कहानियां आकाशवाणी के जयपुर केंद्र से प्रसारित हो चुकी हैं तथा कुछेक तो 'जनसत्ता', 'राजस्थान पत्रिका', 'शीराजा' आदि में छपी हैं। पाठकों ने इन कहानियों को खूब सराहा।

आकाशवाणी जयपुर केंद्र के लिए लिखे मेरे नाटक 'हब्बाखातून', 'प्रेम और प्रतिशोध', 'खानखानां रहीम' आदि भी कम लोकप्रिय सिद्ध न हुए। 'हब्बाखातून' लिखने और उसके प्रसारित होने के बाद मुझे खुद लगा कि मैं अच्छे संवाद लिख सकता हूं। जिन्होंने भी इस नाटक को सुना, मुझे बधाई दी। मेरी स्वरचित कहानियों का एक संग्रह 'मौन संभाषण तथा अन्य कहानियां' राजस्थान साहित्य अकादमी के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित हो चुका है। 'दिनन के फेर' से एक नाटक संकलन भी प्रकाशित हुआ है।

साहित्य सेवाओं के लिए मुझे केंद्रीय हिन्दी निदेशालय (भारत सरकार), राजभाषा विभाग (पटना), उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, सिन्ध राष्ट्रभाषा प्रचार समिति (जयपुर), भारतीय साहित्य संगम (दिल्ली), राष्ट्रभाषा प्रचार समिति श्रीडूंगरगढ़ (बीकानेर), भारतीय अनुवाद परिषद दिल्ली आदि संस्थाओं ने ताम्रपत्रों, प्रशस्तिपत्रों तथा अभिनंदन पत्रों आदि से समय-समय पर सम्मानित किया है। दो-एक संस्थाओं ने 'साहित्यश्री' तथा 'साहित्य-वागीश' जैसी मानद उपाधियां भी प्रदान की हैं।

सम्मान प्राप्ति के इन हर्षदायक अवसरों के पीछे मेरे मन में अपूर्व आनंद का भाव अवश्य व्याप्त रहा है। दरअसल, सम्मान/ पुरस्कार जड़ता (शैथिल्य) को मिटाता है, मन में नव्य कर्मोत्साह का उदय/ संचार करता है। यों सम्मान या पुरस्कार लेखक के लिए साध्य नहीं होते और होने भी नहीं चाहिए। उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान के 'सौहार्द सम्मान' की सूचना मेरी श्रीमतीजी ने मुझे अलसुबह स्थानीय दैनिक पढ़कर दी थी, तब मैं शायद सो ही रहा था।

कई साहित्यिक गोष्ठियों एवं सम्मेलनों में भाग लेने के लिए मैंने पिछले 4 दशकों में देश के दूरस्थ अंचलों/ स्थानों यथा इम्फाल, वास्को-डि-गामा, जगन्नाथपुरी, एर्नाकुलम, मद्रास, पयनूर, कटक, बेंगलुरु, गुवाहाटी, शिलांग, पटना, लखनऊ, उदयपुर, कन्याकुमारी, जलपाईगुड़ी, शांति निकेतन, अमृतसर, हरिद्वार आदि जाने कितनी ही जगहों की यात्राएं की हैं। इन यात्राओं से मेरा दृष्टिकोण व्यापक और चिंतन पुष्ट हुआ है। इसी के साथ अपने देश की वैविध्यपूर्ण संस्कृति और देशवासियों के स्वभाव को भी निकट से देखने का अवसर मिला है।

स्व. डॉ. प्रभाकर माचवेजी ने बहुत पहले मुझे एक पत्र लिखा था- 'आप सशक्त लेखनी और उद्यमशील शोध-बुद्धि के मेधावी स्कॉलर हैं। आप अवश्य कश्मीरी के लिए हिन्दी में बहुत अच्छा काम करेंगे।'

माचवेजी की ये पंक्तियां मुझे याद दिलाती हैं कि मुझे कश्मीरी के लिए बहुत अच्छा काम करने के अपने प्रयास में कमजोरी नहीं लानी है। आयु बढ़ने के साथ-साथ घर-परिवार तथा अंदर-बाहर की जिम्मेदारियां भी बढ़ती जाती हैं और लेखन के लिए समय निकाल पाना मुश्किल हो जाता है। फिर भी अपने जीवट पर मुझे विश्वास है।