Sunday, November 6, 2016



गीतों की रानी हब्बाखातून 

डॉ० शिबन कृष्ण रैणा


संगीत-साम्राज्ञी हब्बाखातून (1554-1609) कश्मीरी काव्य-जगत की एक ऐसी अप्रतिम विभूति हैं, जिनके गीतों से लगभग पांच दशक पहले तक कश्मीर की फिजाएं गूंजती रहती थीं। हब्बाखातून का वास्तविक या बचपन का नाम ‘जून’ था। वे एक ग्रामबाला थीं, जिनकी सुंदरता और पुरकशिश आवाज लाजवाब थी। कालांतर में माता-पिता ने अज़ीज़ लोन नाम के एक युवक से उनकी शादी तय कर दी। दुर्भाग्य से वह रिश्ता बहुत दिनों तक चल नहीं सका। जून के साथ न तो अज़ीज़ की रुचियां मेल खाती थीं और न ही विचार। ससुराल-पक्ष से भी कोई सहानुभूति नहीं मिली। ऐसे में अवसादजन्य पीड़ा से संतापित उस नवविवाहिता का भाव-प्रवण मन कराह उठा और वह मायके वालों से फरियाद करने लगी- ‘चार कर म्योन मालिन्यो...!’ यानी, ‘ससुराल में मैं सुखी नहीं हूं, मायके वालो! मेरा कष्ट निवारो...! नमक छिड़कते हैं सभी, मुझे संभालो मायके वालो! मेरा कष्ट निवारो...!’
एक दिन खेत में काम करते वक्त हब्बाखातून शायद अपने दिल का दर्द हल्का करने के लिए इस गीत की पंक्तियां गुनगुना रही थीं। तभी वहां से सजे हुए घोड़े पर सवार सुंदर परिधान में सुसज्जित एक नवयुवक गुजरा, जिसे इस दर्द-भरे गीत के मधुर बोलों ने बरबस अपनी ओर आकर्षित किया और वह उस ग्राम बाला पर मुग्ध हुआ। वह नवयुवक और कोई नहीं, कश्मीर के सिंहासन का वारिस शहजादा यूसुफशाह चक था। क्षण भर में ही ‘चंद्रहार’ गांव की रूपसी कश्मीर के भावी नरेश के दिल की रानी बन गई। हब्बा ने शहजादे का मौन प्रणय-निवेदन स्वीकार कर लिया और 1570 ई में वे खेतों से निकल कर राजमहल में आ गर्इं। राजमहल में कदम रखने के बाद हब्बाखातून का व्यक्तित्व निखर उठा। शहजादा यूसुफशाह अगरचे एक कुशल प्रशासक सिद्ध न हुआ, लेकिन तबियत से खुद वह एक सुरुचिसंपन्न और कलाप्रेमी व्यक्ति था। उसने हब्बा की तरबियत के लिए विदेशों से प्रसिद्ध संगीतशास्त्री बुलाए। अपनी कला को निखारने में कवयित्री को यहां हर तरह की प्रेरणा और सुविधा मिली।
एक ग्रामबाला और राजरानी के अलावा एक संगीतज्ञ और कवयित्री के गुणों का सुंदर-सजीव सम्मिश्रण हब्बाखातून के कृतित्व में देखने को मिलता है। कवयित्री के भावपूर्ण उद्गार ‘वचन’ कहलाते हैं, जिनके माध्यम से हब्बा के कोमल और संवेदनशील व्यक्तित्व को कश्मीरी काव्य और संस्कृति में एकाकार हुए देखा जा सकता है। महल के रमणीक वातावरण में रह कर हब्बा ने प्रेम और समर्पण से आपूरित बड़ी ही सुंदर रचनाएं रचीं जो उनके भावप्रवण मन का द्योतन करती हैं- ‘गुलदस्ता सजाया है मैंने तेरे लिए, इन अनार-पुष्पों का आनंद ले ले/ मैं धरती तू आकाश है मेरा, आवरण तू मेरे रहस्यों का/ मैं एक व्यंजन, अतिथि तू प्यारा, इन अनार पुष्पों का आनंद ले ले...!’
हब्बाखातून ने जब महल में प्रवेश किया, कश्मीरी भाषा और साहित्य की स्थिति संतोषजनक नहीं थी। फारसी भाषा के बढ़ते प्रभाव के कारण लोकभाषा कश्मीरी में साहित्य-रचना करना प्रतिष्ठा के विरुद्ध समझा जाता था। हब्बाखातून का यह कश्मीरी भाषा और कविता पर बहुत बड़ा उपकार है कि उन्होंने फारसी के राजकीय प्रभाव की चिंता किए बिना कश्मीरी में ही काव्य-रचना की, जिससे इस भाषा को फलने-फूलने का अवसर मिला और साथ ही कश्मीरी काव्य-परंपरा की छोटी-सी धारा को, जो कवयित्री के लगभग एक सौ वर्ष पूर्व तक लुप्तप्राय हो चुकी थी, काल के गर्भ में विलीन होने से बचाया। कश्मीरी के प्रसिद्ध विद्वान अमीन कामिल साहब ने इसी बात को यों रखा है- ‘एक ऐसे वक्त में जबकि फारसी जबान के प्रभाव की वजह से कश्मीर के तमाम शायर अपनी मादरी जबान की तरफ आंख उठा कर भी नहीं देखते थे, बल्कि इसमें साहित्य-सृजन करना प्रतिष्ठा के विरुद्ध मानते थे, हब्बाखातून के गीत जहां कश्मीरी जबान की जिंदगी के प्रेरणास्रोत बन गए, वहीं आम लोगों, खासकर औरतों में लोकप्रिय होकर उनके दिलों को गम बर्दाश्त करने की कूवत भी बख्शते रहे।’
1585 ई में मुगल सेनाओं ने सिपहसालार राजा भगवानदास की अगुवाई में कश्मीर की ओर कूच किया। यूसुफ की जांबाज फौज ने शक्तिशाली मुगल सेना का डट कर मुकाबला किया। राजा भगवानदास की बातों में आकर यूसुफ शहंशाह अकबर के साथ संधि करने के लिए राजी हो गया। हालांकि बेटे याकूब ने बहुत समझाया कि इसमें कोई चाल नजर आ रही है। इसके बाद यूसुफ लौट कर नहीं आया। कहा जाता है कि उसे बंदी बना कर बिहार में बसोक (बिस्वक) नामक स्थान पर रखा गया, जहां सात वर्ष बाद उसका निधन हो गया।
यूसुफ से बिछुड़ जाने के बाद हब्बाखातून के जीवन में जो घोर वीरानी और खालीपन छाया, उससे जनित वियोग की दारुण पीड़ा ने उन मर्मांतक गीतों को जन्म दिया जो उन्हें गीतों की रानी का दरजा देते हैं। इन गीतों में कवयित्री के शोकाकुल मन की वितृष्णा, खिन्नता और उद्वेग्जनित पीड़ा के दर्शन होते हैं- ‘मां-बाप ने बड़ा किया, दूध औ मिश्री खिला कर/ खूब पुचकारा, खूब नहलाया, अब मुसाफिर बन दर-दर डोलती जाऊं/ हाय, किसी का भी यौवन व्यर्थ न जाए।’ कहते हैं कि यूसुफ के कश्मीर छोड़ने के बीस वर्ष बाद तक हब्बाखातून जीवित रहीं और आखिरकार प्रेम की पीर और अधूरे ख्वाबों की कसक को अपनी आंखों में संजो कर वह दीवानी-विरहिणी इस संसार से चल बसी। उनकी कब्र श्रीनगर के निकट ‘पांतछोक’ नामक स्थान पर स्थित बताई जाती है। कश्मीर की इस लाडली/ महान कवयित्री की याद में भारतीय नौ-सेना के एक जहाज का नाम ‘हब्बाखातून’ रखा गया है।