Wednesday, June 28, 2017



जुनैद की हत्या को लेकर कविताबाज़ों ने कविताएं लिखना शुरू कर दिया: असहिष्णुता बढ़ गयी है,देश बदनाम हो रहा है,क्योंकि तू जुनैद था,हम शर्मिंदा हैं,वायदा झूठा निकला, जुनैद को मारो आदि-आदि।हत्या किसी की भी हो या कोई भी करे,एक जघन्य अपराध है।कानून को तुरंत इस बारे में कार्रवाई करनी चाहिए।रही बात ऐसे अवसरों पर लेखकों/कवियों की नैतिक ज़िम्मेदारी की।उसके लिए निवेदन है कि अगर एक समुदाय विशेष के लिए ही हमारा कवि आंसू बहाने लग जाय और दूसरे समुदाय के लिये चुप्पी साध ले, तो यह कवि का दोगलापन ही कहलायेगा।मैं बात कर रहा हूँ कश्मीर की बेटी सरला भट की।एक कविता कश्मीर की इस लाडली बेटी पर भी लिखी जानी चाहिए।वही सरला भट जिसके साथ हैवानों ने वह किया जिसको बयान नहीं किया जा सकता।गूगल में सब दर्ज है । कवि लोग सरला के साथ हुए पिशाचपन को पढ़ें और मेरी बात का समर्थन करें।इस हैवानियत और दरिंगी को उजागर करने वाली एक ‘जुनैद-टाइप’ सशक्त कविता लिखें ताकि मैं कविता लिखने वालों की कलम को सलाम कर सकूँ ।कविता का शीर्षक रखें "क्योंकि वह सरला थी"।
हालांकि ऐसा करने से सरला भट वापस नहीं आ सकती, मगर इतना भरोसा कश्मीरी पण्डित समुदाय को अवश्य हो सकता है कि उसके सुख-दुःख में भी आंसू बहाने वाले,कविताएं लिखने वाले आदि इस धर्म-निरपेक्ष देश में मौजूद हैं।

शिबन कृष्ण रैणा



अलवर


Dr.ShibenKrishen Raina




With the growing concept of globalization, the urge for exchange of knowledge in the fields of science, technology, history, culture, literature and other allied fields, has become a compelling factor to prompt knowledge-seekers to explore and be aware of human knowledge around them. Language barriers have been cracked! Thanks to the art of Translation. It is through translation we know about all the developments in communication and technology and keep abreast of the latest discoveries in the various fields of knowledge, and also have access through translation to the literature of several languages and to the different events happening around the world. Therefore, good translators need to be patronized since they are the real cultural ambassadors of their respective languages representing the best of their languages.

Dr.ShibenKrishen Raina is a well-known educationist, teacher, writer and a translator. He is more known as a distinguished translator having a long experience in the field of translating from Kashmiri, Urdu and English into Hindi. His contribution to the Art of Translation is immense. Besides other translated works to his credit,his translated work comprising of translation and transliteration of famous Kashmiri Ramayana “RamavtarCharit” is a valuable contribution to the field of Hindi literature. This monumental and pioneering work,aptly foreworded by Dr.Karan Singh Ji and published from Bhuvan Vani Trust, Lucknow, has earned Dr.Raina a cash-award and Tamra-Patra from the Bihar Rajya Bhasha Vibhag, Govt.of Bihar in 1975. Dr.Raina was Fellow at the Indian Institute of Advanced Study, Rashtrapati Nivas, Shimla during 1999-2001,where he worked on the Problems of Translation. The work has already been published by IIAS, Shimla. 

Winner of several academic awards and distinctions, Dr.Raina has around one hundred papers and fourteen books to his credit. His books have been published by publishers like: Bhartiya Jnanpith, Rajpal & Sons, Hindi Book Centre, Sahitya Academi,Dehi , J&K Cultural Academy etc. He is associated with a number of literary and cultural bodies of the country.Happily for him, some of his books were released by India’s former President Dr. Shankar Dayal Sharma, former Prime Minister Mrs. Indira Gandhi and former Governor of Rajasthan Mr.Bali Ram Bhagat etc.

In 1996-97 Dr.Raina was the recipient of first translation award instituted by Rajasthan Sahitya Academy,Udaipur while in 1972 the Government of India’s Central Hindi Directorate awarded him prize and certificate of merit in recognition of his services to Hindi language and literature as a non-Hindi speaking writer.This apart, he has also been honoured with ‘Sahitya Shree’, ‘Sahitya Vageesh’ and ‘Sahitya Gaurav’ by various literary organizations of the country. In 1990, he received ‘TamraPatra’ and cash award from Uttar Pradesh Hindi Sansthan for his valuable services to Hindi literature.

Dr.Raina obtained first class first M.A(Hindi) degree from Kashmir University in the year 1962 followed by a PhD degree on UGC Fellowship from Kuruskshetra Univeristy.He was selected as lecturer in Hindi by Rajasthan Public Service Commission,Ajmer in the year 1966 and eventually rose to the positions of Head of Hindi Department,Vice Principal/Principal etc. Dr.Raina holds a post-graduate degree in English Language and Literature,too,from Rajasthan University.

Currently Dr.Raina is a Senior Fellow(Hindi) with Ministry of Culture,Govt. of India. Recently,he was nominated as a non-official Member of Hindi Salahkar Samiti of Ministry of Law and Justice (Govt. of India) for a term of three years.

Dr.Shiben Krishen Raina’s translated works go a long way in strengthening the cultural and emotional bonds of our country. His beautiful translations of Kashmiri fiction,poetry and prose have been widely appreciated and earned him a big name in the translation world. Its through his translated works that the readers more especially the Hindi readers have come to know about the niceties of Kashmiri literature.May it be the Kashmiri poetess Lal Ded, mystic poet Nund Rishi, Habba Khatoon, Mahjoor, Dina Nath Nadim, Akhtar Mohi-ud-Din, Amin Kamil, Rahman Rahi,Bansi Nirdosh or many other luminaries of Kashmiri literature, Dr. Raina has very dedicatedly and immaculately translated the best of these litterateurs into Hindi and thus proved himself to be a bridge between the two langauges.

Translators have rightly been called as Cultural Ambassadors and Dr. Raina, rightly so has earned this eminence for himself. Moreover, a new expression has been coined for Dr.Shiben Krishen Raina for his excellent and outstanding contribution to Kashmiri-Hindi as a translator by his admirers to describe him as a ‘high-voltage literary transformer’.

Dr.S.K.Raina’s published works include ‘Kashmiri Bhasha Aur Sahitya’, ‘Kashmir ki Shresth Kahaniyan’, ‘Pratinidhi Sankalan:Kashmiri’, ‘Kashmiri Ramayan:RamavtarCharit’, ‘Lal-Ded’, ‘Habba-Khatoon’, Mahjoor’, ‘Kashmiri Kavitriyan aur Unka Rachna Sansaar’, ‘Paidayishi Ghulam’(Collection of Bansi Nirdosh’s short stories) etc.

Apart from his literary pursuits, Dr.Shiben Krishen Raina has been a good swimmer, a decent player of chess and badminton.During his college days when he was merely fifteen,he had the proud privilege of crossing the Dal-Lake of Kashmir and earned a citation in the college magazine. He was Secretary, District Chess Association,Alwar during early Eighties.

2/537(HIG)

AravaliVihar,Rajasthan Housing Board,

Alwar 301001(Rajasthan)


09414216124(Mobile)
01442360124(Landline)

Thursday, June 22, 2017



अम्माजी


सूद साहब अपने फ्लैट में परिवार सहित रहते हैं। पति-पत्नी, दो लड़कियाँ और एक बूढ़ी माँ। माँ की उम्र अस्सी से ऊपर है। काया काफी दुबली हो चुकी है। कमर भी झुक गई है। वक्त के निशान चेहरे पर साफ तौर पर दिखते हैं। सूद साहब की पत्नी किसी सरकारी स्कूल में अध्यापिक हैं। दो बेटियों में से एक कॉलेज में पढ़ती है और दूसरी किसी कम्पनी में सर्विस करती है। माँ को सभी ‘‘अम्माजी’’ कहते हैं। मैं भी इसी नाम से उसे जान गया हूँ।

जब मैं पहली बार ‘‘डेलविला’’ बिल्डिंग में रहने को आया था, तो मेरे ठीक ऊपर वाले फ्लैट में कौन रहता है, इसकी जानकारी बहुत दिनों तक मुझे नहीं रही। सवेरे इंस्टिट्यूट निकल जाता और सायं घर लौट आता। ऊपर कौन रहता है, परिवार में उनके कौन-कौन लोग हैं? आदि जानने की मैंने कभी कोशिश नहीं की। एक दिन सायंकाल को सूद साहब ने मेरा दरवाजा खटखटाया, अन्दर प्रवेश करते हुए वे बढ़ी सहजता के साथ मेरे कन्धे पर हाथ रखते हुए बोले-

‘‘आप को इस फ्लैट में रहते हुए तीन महीने तो हो गए होंगे?’’

‘‘हाँ, बस इतना ही हुआ होगा ।’’ मैंने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया।

‘‘कमाल है! आपने हमसे मिलने की कोशिश भी नहीं की..... भई, हम आपके ऊपर रहते हैं, पड़ौसी हैं आपके.....। ’’

‘‘ वो, वोह, दरअसल, समय ही नहीं मिलता है। इंस्टिट्यूट से आते-आते ही सात बज जाते हैं...।’’

‘‘अजी, इंस्टिट्यूट अपनी जगह और मिलना-जुलना अपनी जगह.....। चलिए, आज डिनर आप हमारे साथ करें।’’, उन्होंने बढ़े ही आत्मीयतापूर्ण अंदाज में कहा। उनके इस अनुरोध को मैं टाल न सका।

खाना देर तक चलता रहा। इस बीच सूद साहब के परिवार वालों से परिचय हो गया। सूद साहब ने तो नहीं, हाँ उनकी पत्नी ने मेरे घर-परिवार के बारे में विस्तार से जानकारी ली। चूँकि मेरी पत्नी भी नौकरी करती है और इस नई जगह पर उनका मेरे साथ स्थायी तौर पर रहना संभव न था, इसलिए मैंने स्पष्टï किया-

‘‘मेरी श्रीमती जी यदाकदा ही मेरे साथ रह पाएगी और हाँ बच्चे बड़े हो गये हैं... उनकी अपनी गृहस्थी है.... फिलहाल मैं अकेला ही रहूँगा......।’’

मुझे लगा कि मेरी इस बात से सूद दंपत्तित्त् को उतनी तकलीफ नहीं हुई जितनी कि उनकी बूढ़ी माँ को...। जब तक मैं खाना खा रहा था और अपने घर-परिवार आदि की बातें कर रहा था, अम्माजी बढ़े चाव से एकटक मुझे तके जा रही थी और मेरी बातों को ध्यान से सुन रही थी....। जैसे ही उसे मालूम पड़ा कि मैं अकेला ही रहूँगा और मेरी श्रीमतीजी कभी-कभी ही मेरे साथ रहा करेंगी तो मुझे लगा कि अम्माजी के चेहरे पर उदासी छा गई है। झुर्रियों भरे अपने चेहरे पर लगे मोटे चश्मे को ठीक करते हुए वे अपनी पहाड़ी भाषा में कुछ बुदबुदायी। मैं समझ गया कि अम्माजी मेरी श्रीमती जी के बारे में कुछ पूछ रही हैं, मैंने कहा-

‘‘हाँ अम्माजी, वोह भी सरकारी नौकरी करती हैं- यहाँ बहुत दिनों तक मेरे साथ नहीं रह सकती। हाँ, कभी-कभी आ जाया करेगी।’’

मेरी बात शायद अम्माजी ने पूरी तरह से सुनी नहीं, या फिर उनकी समझ में ज्यादा कुछ आया नहीं। श्रीमती सूद ने अपनी बोली में अम्माजी को मेरी बात समझायी जिसे सुनकर मुझे लगा कि अम्माजी का चेहरा सचमुच बुझ-सा गया है। आँखों में रिक्तता-सी झलकने लगी है तथा गहन उदासी का भाव उनके अंग-अंग से टपकने लगा है। वे मुझे एकटक निहारने लगी और मैं उन्हें। सूद साहब बीच में बोल उठे-

‘‘इसको तो कोई चाहिए बात करने को... दिन में हम दोनों और बच्चे तो निकल जाते हैं - यह रह जाती है अकेली - अब आप ही बताइए कि इसके लिए घर में आसन जमाए कौन बैठे? कौन अपना काम छोड़ इससे रोज-रोज गप्पबाजी करे ? वक्त है किस के पास ?....’’

सूद साहब की बात सुनकर मैंने महसूस किया कि अम्माजी कहीं भीतर तक हिल-सी गई हैं। अपने बेटे से शायद उसे मेरे सामने इस तरह की प्रतिक्रिया की आशा नहीं थी। श्रीमती सूद अपने पति की इस प्रतिक्रिया से मन-ही-मन पुलकित हुई। जहाँ अम्माजी के चेहरे पर निराशा एवं अवसाद की रेखाएँ खिंच आईं, वहीं श्रीमती सूद के चेहरे पर प्रसन्नता मिश्रित संतोष के भाव उभर आए।

कई महीने गुजर गए। इस बीच मैं बराबर महसूस करता रहा कि अम्माजी किसी से बात करने के लिए हमेशा लालायित रहती। उन्हें मैं अक्सर अपने फ्लैट की बालकानी में बैठे हुए पाता- अकेली, बेबस। नजरों को इधर-उधर घुमाते हुए, कुछ ढूँढते हुए ! कुछ खोजते हुए!! पुरानी यादों के कोष को सीने में संजोए ! ..... किसी दिन मैं इंस्टिट्यूट से जल्दी आता तो मुझे देखकर अम्माजी प्रसन्न हो जातीं, शायद यह सोचकर कि मैं उनसे कुछ बातें करूँगा !एक आध बार तो मैंने ऐसा कुछ किया भी, मगर हर बार ऐसा करना मेरे लिए संभव न था.... दरअसल, अम्माजी से बात करने में भाषा की समस्या भी एक बहुत बड़ा कारण था।

इतवार का दिन था। मैं अपने कमरे में बैठा अखबार पढ़ रहा था। दरवाज़े पर खटखट की आवाज सुनकर मैंने दरवाजा खोला। सामने अम्माजी खड़ी थीं। छड़ी टिकाएँ वह कमरे में दाखिल हुई। साँस उसकी फूली हुई थी। कमरे में घुसते ही वह मुझसे बोली-

‘‘बेटा, तेरी बहू कब आएगी?’’

अम्माजी के मुँह से अचानक यह प्रश्न सुनकर मैं तनिक सकपकाया। सोचने लगा, मैंने इसको पहले ही तो बता दिया है कि मेरी श्रीमती जी नौकरी करती है, जब उसको छुट्ïटी मिलेगी, तभी आ सकेगी फिर यह ऐसा क्यों पूछ रही है? पानी का गिलास पकड़ते हुए मैंने कहा-

‘‘ अम्माजी, अभी तो वह नहीं आ सकेगी, हाँ अगले महीने छुट्टी लेकर पाँच-छ: दिनों के लिए वह ज़रूर आएगी। ’’

मेरी बात सुनकर अम्माजी कुछ सोच में डूब गई। शब्दों को समटते हुए अम्माजी टूटी-फूटी भाषा में बोली-

‘‘अच्छा तो चल मुझे सामने वाले मकान में ले चल। वहीं मेहरचंद की बहू से बातें करूँगी।’’

सहारा देते हुए अम्माजी को मैं सामने वाले मकान तक ले गया, रास्ते भर वह मुझे दुआएं देती रही,... जीता रह, लम्बी उम्र हो, खुश रह..... आदि आदि।

जब तक सूद साहब और उनकी श्रीमतीजी घर में होते, अम्माजी कहीं नहीं जाती। इधर, वे दोनों नौकरी पर निकल जाते, उधर अम्माजी का मन अधीर हो उठता, कभी बालकानी में, कभी नीचे, कभी पड़ौस में, कभी इधर, तो कभी उधर।

एक दिन की बात है। तबियत ढीली होने के कारण मैं इंस्टिट्यूट नहीं गया। ठीक दो बजे के आसपास अम्माजी ने मेरा दरवा$जा खटखटाया। चेहरा उनका बता रहा था कि वह बहुत परेशान है। तब मेरी श्रीमतीजी भी कुछ दिनों के लिए मेरे पास आई हुई थीं। अंदर प्रवेश करते हुए वह बोली-

‘‘बेटा, अस्पताल फोन करो- सूद साहब के बारे में पता करो कि अब वह कैसे हैं? ’’

यह तो मुझे मालूम था कि दो चार दिन से सूद साहब की तबियत ठीक नहीं चल रही थी। गर्दन में मोच-सी आ गई थी और बुखार भी था। मगर उन्हें अस्पताल ले जाया गया है, यह मुझे मालूम न था। इंस्टिट्यूट में भी किसी ने कुछ नहीं बताया। इससे पहले कि मैं कुछ कहता, अम्माजी मेरी श्रीमतीजी से रुआंसे स्वर में बोली-

‘‘बहू इनसे कहो ना फोन करे,पता करे कि सूद साहब कैसे हैं और कब तक आएँगे ?’’

श्रीमती मुझे देखने लगी और मैं उन्हें। अस्पताल में सूद साहब भर्ती हैं, मगर किस अस्पताल में हैं, किस वार्ड में हैं, और कब से भर्ती हैं ? जब तक यह न पता चले तो फोन कहाँ और किधर किया जाए? मैंने तनिक ऊँचे स्वर में अम्माजी से कहा-

‘‘अम्माजी अस्पताल का फोन नम्बर है आपके पास?’

मेरी बात शायद अम्माजी को पूरी तरह से समझ में नहीं आई। बोली-

‘‘सूद साहब अस्पताल में हैं। रात को ले गये बेटा, पता करो कैसे हैं? कब आएँगे? मैंने तो कल से कुछ भी नहीं खाया।’’

मेरे सामने एक अजीब तरह की स्थिति पैदा हो गई। न अस्पताल का नाम-पता, न फोन नम्बर, न और कोई जानकारी। मैं पता लगाऊँ तो कैसे ?

उधर अम्माजी अपने बेटे के बारे में हद से ज्य़ादा परेशान। कभी उठे, कभी बैठे, कभी रोए तो कभी कुछ बुदबुदाए। मैंने ऐसी एक-दो जगहों पर फोन मिलाएँ जहाँ से सूद साहब के बारे में जानकारी मिल सकती थी। पर मुझे सफलता नहीं मिली। विवश होकर मुझे अम्माजी से कहना पड़ा-

‘‘अम्माजी आप चिन्ता न करो। सब ठीक हो जाएगा। सूद साहब आते ही होंगे।’’ बड़ी मुश्किल से मेरी बात को स्वीकार कर अम्माजी भारी कदमों से ऊपर चली गई। जाते-जाते अम्माजी मेरी श्रीमतीजी से कहने लगी-

‘‘बहू, तुम भी मेरे साथ चलो ऊपर। मेरा मन लग जाएगा।’’

हम दोनों अम्माजी को सहारा देते हुए ऊपर चले गए। मेरी श्रीमतीजी से बात करते-करते अम्माजी टी.वी. के पास पहुँच गई और वहीं पर रखी सूद साहब की तस्वीर को ममता भरी नजरों से देखने लगी। तस्वीर पर चारों ओर हाथ फेर कर वह फिर बुदबुदायी-

‘‘फोन करो ना बेटा, सूद साहब अभी तक क्यों नहीं आए ?

बहुत समझाने के बाद भी जब अम्माजी ने फोन करने की जिद न छोड़ी तो मुझे एक युक्ति सूझी। मैंने फोन घुमाया-

‘‘हैलो! अस्पताल से, अच्छा-अच्छा ..... यह बताइए कि सूद साहब की तबियत अब कैसी है ? क्या कहा- ठीक है..... एक घंटे में आ जाएँगे। - हाँ- हाँ - ठीक है -। अच्छा, धन्यवाद ! ’’

फोन रखते ही मैंने अम्माजी से कहा- ‘‘अम्माजी, सूद साहब ठीक हैं, अब चिंता की कोई बात नहीं है।’’

मेरी बात सुन कर अम्माजी का ममता-भरा चेहरा खिल उठा। उसने मुझे खूब दुआएँ दी। सुखद संयोग कुछ ऐसा बना कि सचमुच सूद साहब और उनकी श्रीमती जी एक घंटे के भीतर ही लौट आए।

कुछ दिन गुजर जाने के बाद मैंने सूद साहब से सारी बातें कहीं। किस तरह अम्माजी उनकी तबियत को लेकर परेशान रही, कैसे अस्पताल फोन करने की बार-बार जि़द करती रही और फिर मैंने अपनी युक्ति बता दी जिसे सुनकर सूद साहब तनिक मुस्कराए और कहने लगे-

‘‘माँ की ममता के सामने संसार के सभी रिश्त-नाते सिमटकर रह जाते हैं- सौभाग्यशाली हैं वे जिन्हें माँ का प्यार लम्बे समय तक नसीब होता है।’’



सूद साहब की अंतिम पंक्ति सुनते ही मुझे मेरी माँ की याद आई और उसका ममता-भरा चेहरा देर तक आँखों के सामने घूमता रहा।

Friday, June 16, 2017

Our 50th marriage anniversary



Below is the link of our 50th marriage anniversary (Golden Jubilee) function celebrated in UAE(Ajman) on 14th June, 2017 in the company of son Ashish and his family. Thanks to all those who made this function so memorable for us. Video messages and voice calls received on this occasion from relatives, friends and other near and dear ones will always be stored in our memory and shall go a long way in inspiring us. Thanks once again.

https://youtu.be/6i5HGgeyNTE

Tuesday, June 13, 2017

हिन्दी का अखिल भारतीय स्वरूप 



मित्रों, १४ सितम्बर को यानि आज के दिन प्रति वर्ष हम लोग हिन्दी दिवस मनाते हैं, जगह-जगह गोष्ठियां होती हैं, हिन्दंी सप्ताह और पखवाडे मनाये जाते हैं आदि-आदि। अहिन्दी प्रदेशों में जिस उत्साह के साथ इस दिवस को मनाया जाता है, उसी उत्साह के साथ हिन्दी प्रदेशों में भी इस दिवस को मनाया जाता है। लगभग ५० वर्ष हो गये हमें इस प्रकार की संगोष्ठियां करते-करते तथा इस तरह की चर्चाएं करते-करते। मेरी हार्दिक कामना है कि वह दिन जल्दी आ जाए जब हमें इस तरह के कार्यक्रम व आयोजन न करने पडंें। मेरा मन सचमुच भारी जो जाता है जब मैं इस बात की कल्पना करने लगता हूुं कि जाने और कितने वर्षों तक हमें हिन्दी के लिए दिवस, सप्ताह और पखवाडे मनाने होंगे। कब तक हमें हिन्दी को उसका सम्मान और उचित स्थान दिलाने के लिए इन्तजार करना होगा, कब तक स्वाधीन भारत में विदेशी भाषा के आतंक को झेलना होगा आदि-आदि ऐसे कुछ प्रश्न जिन पर आज इस संगोठी में हमें विचार करना होगा।

दोस्तो, स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद हमारे देश के नेताओं, विचारकों और हित-चिंतकों ने एक सपना देखा था कि एक राष्ट््रगीत, एक राष्ट्र्ध्वज आदि की तरह ही इस देश की एक राष्ट््रभाषा हो ! संविधान-निर्माताओं ने हिन्दी को राष्ट््रभाषा का दर्जा भी दिया। मगर हम सभी जानते हैं कि यह सब होते हुए भी, ५०वर्ष बीत जाने के बाद भी, हिन्दी को अभी तक अखिल भारतीय भाषा, जिसे हम कभी-कभी सम्पर्क-भाषा भी कहते हैं, का दर्जा प्राप्त नहीं हुआ है और इसके लिए उसे बराबर संघर्ष करना पड रहा है। इस गतिरोध का आखिर कारण क्या है? क्या भारत की जनता को 'एक भाषा, एक राष्ट्र्` वाली बात में अब कोई दिलचस्पी नहीं रही, क्या सरकार या व्यवस्था की नज़र में राष्ट््रभाषा की अस्मिता का प्रश्न महज फाईलोंे तक सीमित रह गया है, क्या हमारे हिन्दी प्रेमियों एवं हिन्दी सेवियों को कहीं किसी उदासीनता के भाव ने घेर लिया है, आदि कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके उत्तरों की तलाश हमें इस राष्ट््रीय संगोष्ठी में करनी होगी। यह सब मैं इस लिए कह रहा हूं क्योंकि पूरे पांच दशक बीत गये हैं और हम अनकरीब ही २१वीं शताब्दी में प्रवेश करने वाले हैं, मगर हिन्दी को अभी तक राष्ट््रीय स्तर पर सम्मानजनक स्थान दिलाने में पूरी तरह से कामयाब नहीं हुए हैं।

बन्धुओं, हिन्दी के सेवा-कार्य, लेखन कार्य तथा अध्ययन-अध्यापन कार्य से मैं पिछले तीन दशकों से भी ज्यादा समय से जुडा हुआ हॅंू। मेरे जेह़न में इस समय कई बातें उभर रही हैं जो हिन्दी को अखिल भारतीय स्वरूप प्रदान करने में बाधक सिद्ध हो रही हैं। बातें कई हैं, मगर मैं यहंा पर अपनी बात मात्र एक विशेष बात तक ही सीमित रखूंगा।

देखिए, किसी भी भाषा का विस्तार या उसकी लोकप्रियता या उसका वर्चस्व तब तक नहीं बढ़ सकता जब तक कि उसे 'ज़रूरत` यानि 'आवश्यकता` से नही ंजोड़ा जाता। यह 'ज़रूरत` अपने आप उसे विस्तार देती है और लोकप्रिय बना देती है। हिन्दी को इस 'जरूरत` से जोड़ने की आवश्यकता है। मुझे यह कहना कोई अच्छा नहीं लग रहा और सचमुच कहने में तकलीफ भी हो रही है कि हिन्दी की तुलना में 'अंग्रेजी` ने अपने को इस 'ज़रूरत` से हर तरीके से जोड़ा है। जिस निष्ठा और गति से हिन्दी और गैर-हिन्दी प्रदेशों में हिन्दी प्रचार-प्रसार का कार्य हो रहा है, उससे दुगुनी रफतार से अंग्रेजी माध्यम से ज्ञान-विज्ञान के नये नये क्षितिज उदघारित हो रहे हैं जिनसे परिचित हो जाना आज हर व्यक्ति के लिए लाज़िमी हो गया है। मेरे इस कथन से यह अर्थ कदापि न निकाला जाए कि मैं अंग्रेजी की वकालत कर रहा हूं। नहीं, बिल्कुल नहीं। मैं सिर्फ यह रेखांकित करना चाहता हूं कि अंग्रेेजी ने अपने को जरूरत से जोड़ा है। अपने को मौलिक चिंतन, मौलिक अनुसंधान व सोच तथा ज्ञान-विज्ञान के अथाह भण्डार की संवाहिका बनाया है जिसकी वजह से पूरे विश्व में आज उसका वर्चस्व अथवा दबदबा है। हिन्दी अभी 'जरूरत` की भाषा नहीं बन पाई है। आज इस संगोष्ठी में हमें इसका जवाब ढूंढना होगा कि क्या कारण है अब तक उच्च अध्ययन, खासतौर पर विज्ञान और तकनालॉजी, चिकित्साशास्त्र आदि के अध्ययन के लिए हम स्तरीय पुस्तकें तैयार नहीं कर सके हैं। क्या कारण है कि सी०डी०एम० और एन०डी०ए० ;ब्वउइपदमक क्ममिदबम ैमतअपबमेद्ध प्रतियोगिताओं के लिए हिन्दी को एक विषय के रूप में सम्मिलित नहीं करा सके हैें। क्या कारण है कि ठंदा विपिबमते की परीक्षा में अंग्रेजी एक विषय है, हिन्दी नहीं है। ऐसी अनेक बातें हैं जिनका उल्लेख किया जा सकता है। यह सब क्यों हो रहा है --? अनायास हो रहा है या जानबूझकर किया जा रहा है, इन बातों पर खुलकर चर्चा होनी चाहिए।

मित्रों, मैं यह रेखांकित करना चाहता हू्रं कि मेरी बातों से कदापि यह निष्कर्ष न निकाला जाए कि हिन्दी के सुन्दर भविष्य के बारे में मुझ मंे कोई निराशा है। नहीं, ऐसी बात नहीं है। उसका भविष्य उज्ज्वल है। वह धीरे-धीरे अखिल भारतीय स्वरूप ले रही हे। मगर इसके लिए हम हिन्दी प्रेमियों को अभी बहुत काम करना है। एक जुट होकर युद्ध स्तर पर राष्ट््रभाषा हिन्दी की स्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष करना है। यहां पर मैं जोर देकर कहना चाहूंगा कि हिन्दी की स्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष करना है। यहां पर मै जोर देकर कहना चाहूंगा कि हिन्द्र प्रचार-प्रसार या उसे अखिल भारतीय स्वरूप देने का मतलब हिन्दी के विद्वानों,लेखकों,कवियों या अध्यापकों की जमात तैयार कना नहीं है। जो हिन्दी से सीधे-सीधे आजीविका या अन्य तरीकों से जुडे हुए हैं, वे तो हिन्दी के अनुयायी हैं ही। यह उनका कर्म है, उनका नैतिक कर्तव्य है कि वे हिन्दी का पक्ष लें। मैं बात कर रहा हूं ऐसे हिन्दी वातावरण को तैयार करने की जिसमें भारत देश के किसी भी भाषा-क्षेत्र का किसान, मजदूर, रेल में सफर करने वाला हर यात्री,अलग अलग काम धन्धों से जुडा आम जन हिन्दी समझे और बोलने का प्रयास करे। टूटी-फूटी हिन्दी ही बोले- मगर बोले तो सही। यहां पर मैं दूरदर्शन और सिनेमा के योगदान का उल्लेख करना चाहूंगा जिसने हिन्दी को पूरे देश में लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कुछ वर्ष पूर्व जब दूरदर्शन पर 'रामायण` और 'महाभारत` सीरियल प्रसारित हुए तो समाचार पत्रों के माध्यम से सुनने को मिला कि दक्षिण भारत के कतिपय अहिन्दी भाषी अंचलों में रहने वाले लोगों ने इन दो सीरियलों को बढे चाव से देखा क्येांकि भारतीय संस्कृति के इन दो अद्भुत महाकाव्यों को देखना उनकी भावनागत जरूरत बन गई थी और इस तरह अनजाने में ही हिन्दी सीखने का उपक्रम भी किया। बन्धुओं, हम ऐसा ही एक सहज, सुन्दर और सौमनस्यपूर्ण माहौल बनाना चाहते हैं जिसमें हिन्दी एक ज़रूरत बने और उसे जन-जन की वाणी बनने का गौरव प्राप्त हो। जय भारत / जय हिन्दी.

डा० शिबन कृष्ण रैणा
पूर्व अध्येता,भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान,शिमला
सितम्बर 18, 2006

indinest.com/nibandh/n19.htm





Thursday, June 8, 2017



कबीर जयंती पर विशेष 


कबीर की याद 


(मेरा यह आलेख बहुत पहले देश की एक प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशित हुआ था जिसे आज मित्रों के लिए पुनः अपनी वाल पर डाल रहा हूँ)

कबीर भक्तिकालीन भारतीय साहित्य और समाज के ऐसे युगचेता कवि थे जिनकी हैसियत आज भी एक जननायक से कम नहीं है। अपने समय के समाज में परंपरा और शास्त्र के नाम पर प्रचलित रूढ़ियों, धर्म के नाम पर पल रहे पाखंड-आडंबर, सामाजिक शोषण-असमानता जैसी कई बुराइयों के वे घोर विरोधी थे और इनके विरुद्ध डट कर बोले।

कबीर समाज में व्याप्त शोषक-शोषित का भेद मिटाना चाहते थे। जातिप्रथा का विरोध करके वे मानवजाति को एक-दूसरे के समीप लाना चाहते थे। पथभ्रष्ट समाज को उचित मार्ग पर लाना उनका प्रधान लक्ष्य था। वे कथनी के स्थान पर करनी, प्रदर्शन के स्थान पर आचरण को महत्त्व देने वाले थे। कबीर का एक अहम उद्देश्य था विभिन्न धर्मों में व्याप्त वर्णवादी-व्यवस्था को तोड़ना।

उन्होंने एक जाति और एक समाज का स्वरूप प्रतिष्ठापित करने का प्रयास किया और साथ ही जाति-प्रथा के मूलाधार वर्णाश्रम व्यवस्था पर भी गहरी चोट की। कर्तव्य-भावना की प्रतिष्ठा पर उन्होंने खूब जोर दिया। कहा जा सकता है कि कबीर का समूचा समाजशास्त्रीय चिंतन भारतीय संस्कृति और साहित्य की अनमोल थाती है।

आज के जागरूक लेखक को कबीर की निर्भीकता, सामाजिक अन्याय के प्रति उनके तीव्र विरोध की भावना और उनके स्वर की सहज सच्चाई और स्पष्टवादिता से प्रेरणा लेने की जरूरत है। कबीर की वाणी में अपने समाज और व्यवस्था के प्रति जो अस्वीकार का स्वर दिखाई देता है, वही इस फक्कड़ कवि को प्रासंगिक बनाता है और वर्तमान से जोड़ता है।

कबीर जैसे संत कवि के बारे में बहुत कुछ कहा/लिखा जा सकता है। उनका एक दोहा है जो मुझे उम्र के इस पड़ाव पर उनका मुरीद बनाने से नहीं रोक पा रहा:

सुख में सुमिरन ना किया, दुख में करते याद।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥

इस दोहे के अर्थ को मात्र भक्ति/अध्यात्म के संदर्भ में न देखकर हर तरह की मतलबपरस्ती के संदर्भ में देखें, तो कितना सामयिक/प्रासंगिक लगता है यह!
शिबन कृष्ण रैणा, अलवर

http://www.jansatta.com/chopal/jansatta-editorial-memory-of-saint-kabir/28580/