Tuesday, August 20, 2019

हिंदी के सामने असली चुनौतियाँ 

डॉ० शिबन कृष्ण रैणा 

हिंदी-दिवस अथवा हिंदी-सप्ताह या फिर हिंदी पखवाड़ा आदि मनाने के दिन निकट आ रहे हैं।सरकारी कार्यालयों में,शिक्षण-संस्थाओं में,हिंदी-सेवी संस्थाओं आदि में हिंदी को लेकर भावपूर्ण भाषण व व्याख्यान,निबन्ध-प्रतियोगिताएं,कवि-गोष्ठियां पुरस्कार-वितरण आदि समारोह धडल्ले से होंगे।नयी सरकार ने चूंकि हिंदी के रथ पर सवार होकर ही गढ़ जीता है,अतः उसका आशीर्वाद भी इस भाषा को मिलेगा।मगर प्रश्न यह है कि इस तरह के आयोजन पिछले साठ-सत्तर सालों से होते आ रहे हैं,क्या हिंदी को हम वह सम्मानजनक स्थान दिला सके हैं जिसका संविधान में उल्लेख है या जिसकी कामना हिंदी जगत को है? 

भाषण देने,बाज़ार से सौदा-सुलफ खरीदने या फिर फिल्म/सीरियल देखने के लिए हिंदी ठीक है,मगर कौन नहीं जानता कि वैश्वीकरण के इस दौर में अच्छी नौकरियों के लिए या फिर उच्च अध्ययन के लिए अब भी अंग्रेजी का दबदबा बन हुआ है।इस दबदबे से कैसे मुक्त हुआ जाय?निकट भविष्य में आयोजित होने वाले हिंदी-आयोजनों के दौरान इस पर भावुक हुए विना वस्तुपरक तरीके से विचार-मंथन होना चाहिए।निजी क्षेत्र के संस्थानों अथवा प्रतिष्ठानों में हिंदी की स्थिति शोचनीय बनी हुई है और मात्र कमाने के लिए इस भाषा का वहां पर ‘दोहन’ किया जा रहा है? इस प्रश्न का उत्तर भी हमें निष्पक्ष होकर तलाशना होगा। 

यों देखा जाय तो हिंदी-प्रेम का मतलब हिंदी विद्वानों,लेखकों,कवियों आदि की जमात तैयार करना कदापि नहीं है।हिंदी-प्रेम का मतलब है हिंदी के माध्यम से रोज़गार के अच्छे अवसर तलाशना,उसे उच्च-अध्ययन ख़ास तौर पर विज्ञान और टेक्नोलॉजी की पढाई के लिए एक कारगर माध्यम बनाना और उसे देश की अस्मिता व प्रतिष्ठा का सूचक बनाना।कितने दुःख की बात है कि हिंदी दिवस तो पसरते जाते हैं,मगर खुद हिंदी सिकुड़ती जा रही है। कहने को तो आज इस देश में हिंदी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त है किन्तु स्थिति भिन्न है. चाहे विश्विद्यालयों या लोकसेवा आयोगों के प्रश्न-पत्र हों, या फिर सरकारी चिट्ठी-पत्री, मोटे तौर पर राज-काज की मूल प्रामाणिक भाषा अंग्रेजी ही है। रैपिड इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स के सर्वव्यापी विज्ञापन और कुकरमुत्ते की तरह उगते इंग्लिश मीडियम के स्कूल अंग्रेजी के साम्राज्य का डंका बजाते दीख रहे हैं।जहां-जहां अभिलाषा या जरूरत है वहां-वहां अंग्रेजी है।दरअसल,इन पैंसठ-सत्तर सालों में सत्ता का व्याकरण हिंदी में नहीं अंग्रेजी में रचा जाता रहा है। सता के केंद्र में बैठे लोग औपचरिकतावश हिंदी का समर्थन करते रहे,अन्यथा भीतर से मन उनका अंग्रेजी की ओर ही झुका हुआ था।हिंदी की ओर होता तो शायद आज हिंदी को लेकर परिदृश्य ही दूसरा होता. 

पहले कहा जा चुका है कि किसी भी भाषा का विस्तार,उसकी लोकप्रियता या फिर उसका वर्चस्व तब तक नहीं बढ़ सकता जब तक कि उसे ‘ज़रूरत’ यानी ‘आवश्यकता’ से नही जोड़ा जाता। यह ‘ज़रूरत’ अपने आप उसे विस्तार देती है और लोकप्रिय बना देती है।हिन्दी को इस ‘जरूरत’ से जोड़ने की बहुत आवश्यकता है।हिन्दी की तुलना में ‘अंग्रेजी’ ने अपने को इस ‘ज़रूरत’ से हर तरीके से जोड़ा है।जिस निष्ठा और गति से हिन्दी और गैर-हिन्दी प्रदेशों में हिन्दी प्रचार-प्रसार का कार्य हो रहा है, उससे दुगुनी रफ़्तार से देश-विदेश में अंग्रेजी माध्यम से ज्ञान-विज्ञान के नये-नये क्षितिज उद्घाटित हो रहे हैं जिनसे परिचित हो जाना आज हर व्यक्ति के लिए लाजि़मी हो गया है।मेरे इस कथन से यह अर्थ कदापि न निकाला जाए कि मैं अंग्रेजी की वकालत कर रहा हूँ।मैं सिर्फ यह रेखांकित करना चाहता हूं कि अंग्रेजी ने अपने को उस जरूरत से जोड़ा है जो अच्छी नौकरी देती है,प्रतिष्ठा देती है या फिर ज्ञान-विज्ञान की नई खिड़कियाँ हमारे लिए खोलती हैं। इस बात को भी हमें स्वीकार करना होगा कि अंग्रेजी ने अपने को मौलिक-चिंतन, मौलिक-अनुसंधान व सोच तथा ज्ञान-विज्ञान के अथाह भण्डार की संवाहिका बनाया है जिसकी वजह से पूरे विश्व में आज उसका वर्चस्व अथवा दबदबा बना हुआ है।हिन्दी अभी ‘जरूरत’ की भाषा नहीं बन पाई है।हमें इस बात का जवाब ढूंढना होगा कि क्या कारण है अब तक उच्च अध्ययन खास तौर पर विज्ञान और तकनालॉजी, चिकित्साशास्त्र,प्रबंधन आदि के अध्ययन के लिए हम हिंदी में स्तरीय/मौलिक पुस्तकें तैयार नहीं कर सके हैं?क्या कारण है कि एनडीए,सीडीएस,बैंक प्रोबेशनरी ऑफिसर्स टेस्ट,कैट आदि परीक्षाओं और प्रतियोगिताओं के लिए हम हिन्दी को एक विषय के रूप में सम्मिलित नहीं करा सके हैं?क्या कारण है कि आईआईटी,पीएमटी आदि परीक्षाओं में अंग्रेजी एक विषय है, हिन्दी नहीं है? ऐसी अनेक बातें हैं जिनका उल्लेख किया जा सकता है। यह सब क्यों हो रहा है?अनायास हो रहा है या जानबूझकर किया जा रहा है, इन बातों पर खुल कर चर्चा होनी चाहिए। 

जैसा कि पूर्व में खा जा चुका है कि हिन्द्र प्रचार-प्रसार या उसे अखिल भारतीय स्वरूप देने का मतलब हिन्दी के विद्वानों, लेखकों, कवियों या अध्यापकों की जमात तैयार करना नहीं है।जो हिन्दी से सीधे-सीधे आजीविका या अन्य तरीकों से जुडे हुए हैं,वे तो हिन्दी के अनुयायी हैं ही। यह उनका धर्म है, उनका नैतिक कर्तव्य है कि वे हिन्दी का पक्ष लें।मैं बात कर रहा हूं ऐसे हिन्दी वातावरण को तैयार करने की जिसमें भारत देश के किसी भी भाषा-क्षेत्र का किसान, मजदूर, रेल में सफर करने वाला हर यात्री,अलग अलग काम-धन्धों से जुडा आम-जन हिन्दी समझे और बोलने का प्रयास करे।टूटी-फूटी हिन्दी ही बोले,मगर बोले तो सही। यहां पर मैं दूरदर्शन और सिनेमा के योगदान का उल्लेख करना चाहूंगा जिसने हिन्दी को पूरे देश में लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।कुछ वर्ष पूर्व जब दूरदर्शन पर ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ सीरियल प्रसारित हुए तो समाचार पत्रों के माध्यम से सुनने को मिला कि दक्षिणभारत के कतिपय अहिन्दी भाषी अंचलों में रहने वाले लोगों ने इन दो सीरियलों को बड़े चाव से देखा क्येांकि भारतीय संस्कृति के इन दो अद्भुत महाकाव्यों को देखना उनकी भावनागत जरूरत बन गई थी और इस तरह अनजाने में ही उन्होंने हिन्दी सीखने का उपक्रम भी किया। हम ऐसा ही एक सहज सुन्दर और सौमनस्यपूर्ण माहौल बनाना चाहते हैं जिसमें हिन्दी एक ज़रूरत बने और उसे जन-जन की वाणी बनने का गौरव उसे प्राप्त हो। 

एक बात और। हिंदी प्रचार-प्रसार सम्बन्धी कई राष्ट्रीय संगोष्ठियों में मुझे सम्मिलित होने का सुअवसर मिला है।इन संगोष्ठयों में अक्सर यह सवाल अहिन्दी-भाषी हिंदी विद्वान करते हैं कि हम तो हिंदी सीखते हैं या फिर हमें हिंदी सीखने की सलाह दी जाती है, मगर आप लोग यानी हिंदी भाषी क्षेत्रों के लोग हमारे दक्षिण भारत की एक भी भाषा सीखने के लिए तैयार नहीं हैं। यह रटा-रटाया जुमला मैं कई बार सुन चुका हूँ। और आखिर एक सेमिनार में मैं ने कह ही दिया कि दक्षिण की कौनसी भाषा आप लोग हम को सीखने के लिए कह रहे हैं? तमिल/मलयालम/कन्नड़/या तेलुगु?और फिर उससे होगा क्या? आपके अहम् की संतुष्टि? पंजाबी-भाषी डोगरी सीखे तो बात समझ में आती है।राजस्थानी-भाषी गुजराती सीख ले तो ठीक है।इन प्रदेशों की भौगोलिक सीमाएं आपस में मिलती हैं, अतः व्यापार या परस्पर व्यवहार आदि के स्तर पर इससे भाषा सीखने वालों को लाभ ही होगा।अब आप कश्मीरी-भाषी से कहें कि वह तमिल या उडिया सीख ले या फिर पंजाबी-भाषी से कहें कि वह बँगला या असमिया सीख ले (क्योंकि इस से भावात्मक एकता बढेगी) तो आप ही बताएं यह बेहूदा तर्क नहीं है तो क्या है?इस तर्क से अच्छा तर्क यह है कि अलग-अलग भाषाएँ सीखने के बजाय सभी लोग हिंदी सीख लें ताकि सभी एक दूसरे से सीधे-सीधे जुड़ जाएँ।वह भी इसलिए क्योंकि हिंदी देश की अधिकाँश जनता समझती-बोलती है। 

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Aravali vihar, 

Alwar 301001 







Monday, August 5, 2019

Article 370

पांच अगस्त 2019 का दिन भारतीय इतिहास के पन्नों में स्वर्ण-अक्षरों में लिखा जायगा।जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा देने वाली संविधान की धारा ३७० को हटाने के प्रस्ताव को राज्य-सभा ने अपनी मंजूरी दे दी। सचमुच, यह एक ऐतिहासिक फैसला है जिस पर कई दिनों से कई तरह की अटकलें लग रही थीं। 

कहना न होगा कि वर्तमान सरकार ने लोकसभा चुनावों में किये अहम वादों में से एक धारा ३७० को हटाने का भी वादा जनता से किया था जो खूब विचार-मंथन के बाद सोमवार को सरकार ने ‘तीन तलाक’ बिल की तरह राज्यसभा से आखिर पास करा ही लिया।सोमवार को धारा 370 और इससे जुड़ी अधिकाँश धाराओं को खत्म कर जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को दो केंद्र-शासित क्षेत्र बनाने संबंधी दो संकल्पों को राज्यसभा ने वोटिंग द्वारा अपनी मंजूरी दे दी। 

मोटे तौर पर धारा 370 हटने का मतलब है कि अब जम्मू-कश्मीर में अलग संविधान नहीं होगा।जम्मू-कश्मीर में अलग झंडा भी नहीं रहेगा।जम्मू-कश्मीर में देश के दूसरे राज्यों के लोग ज़मीन ख़रीद सकेंगे और नौकरी भी पा सकेंगे और इसी के साथ जम्मू-कश्मीर की विधानसभा का कार्यकाल 6 साल न हो कर 5 साल होगा।इस धारा के हटने से जम्मू-कश्मीर में उद्यमी अपने प्रतिष्ठान/उद्योग आदि लगा सकेंगे जिससे वहां के नागरिकों को विकास और रोजगार के नए-नए अवसर प्राप्त होंगे। वहां के नागरिकता कानून में विसंगति की वजह से छह दशकों से बिना किसी अधिकार के शरणार्थियों का जीवन जी रहे लाखों लोगों को बराबरी का दर्ज़ा हासिल होगा। कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापसी की प्रक्रिया शुरू होगी। प्रदेश के बाहर शादी करने वाली कश्मीर की बेटियों को अपनी पैतृक संपत्ति में उनका जायज़ अधिकार हासिल हो सकेगा। 

कुलमिलाकर धारा ३७० को हटाने की वर्तमान सरकार की पहल से यह सिद्ध हो गया कि दृढ इच्छा-शक्ति के चलते प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा करते हुए कोई भी जनहितकारी निर्णय लिया जा सकता है। भाजपा सरकार के इस साहसिक फ़ैसले के लिए उसकी तारीफ़ की जानी चाहिए। 

वैसे,गृहमंत्री ने बिल पर राज्य-सभा में चर्चा के दौरान यह स्पष्ट किया है कि जम्मू-कश्मीर हमेशा के लिए केंद्र-शासित प्रदेश नहीं रहेगा. जम्मू-कश्मीर की स्थिति सामान्य होते ही उसे पूर्ण राज्य का दर्जा पुनः दे दिया जाएगा.

Friday, July 5, 2019



मेरे नगपति, मेरे विशाल! 

नगपति हिमालय सचमुच विशाल है।इसका आकार-प्रकार विशाल,इसकी भव्यता विशाल,इसकी संस्कृति विशाल और इसका अतीत भी विशाल। भारतीय साहित्य और जीवन में हिमालय का बड़ा महत्व है। कालिदास ने इसे 'नगाधिराज कहा तो ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के लेखक रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने ‘मेरे नगपति, मेरे विशाल’ से इसे संबोधित किया।हिमालय अपनी विविधता में महान है बाहरी रूप में भी और भीतरी रूप में भी। एक ओर जहाँ यह पर्वतराज अपनी बहुमूल्य वनस्पति, जंगलों की समृद्धि, पशु-पक्षियों, खनिज-संपदा, पर्वतों-श्रेणियों एवं नदियों से संपन्न है तो आत्मिक रूप से अध्यात्म-चिन्तन,ज्ञान-मुक्ति और परमार्थ-दर्शन के लिए भी साधकों, मनस्वियों, चिन्तकों और ऋषियों-मुनियों को प्रश्रय देता रहा है।सचमुच, हिमालय भारत देश का ही नहीं,समूचे विश्व का गौरव है। इसमें हमें विशेष रूप से भारत और समूची भारतीय संस्कृति की विराटता एवं औदात्य के एकसाथ दर्शन होते हैं।इसीलिए भारत और हिमालय दोनों संभवतः एक-दूसरे के पर्याय-से बन गए हैं।सदियों से अपने धवल रूप में मौनद्रष्टा प्रहरी की भांति खड़ा यह पर्वतराज भारतीय संस्कृति एवं जनजीवन में होने वाले परिवर्तनों का युगों-युगों से साक्षी रहा है। एक तरह से यह भारतीय संस्कृति का अविच्छिन्न अंग बन गया है।भारतीय साहित्य, कला, धर्म, दर्शन आदि में हिमालय का जो प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष प्रभाव दिखाई देता है, वह इस बात को सिद्ध करता है कि ‘नगपति’ हिमालय हमारी आस्थाओं,हमारी मान्यताओं और हमारी सांस्कृतिक धरोहर का बहुमूल्य प्रतीक है। 

भौगोलिक सर्वेक्षण के अनुसार हिमालय पर्वत की चौड़ाई कश्मीर में 400 किमी एवं अरुणाचल प्रदेश में 150 किमी के करीब है।हिमालय की पर्वतीय श्रृंखला के उत्तरी भाग को हिमाद्रि या आन्तरिक हिमालय कहा जाता है । इसकी औसत ऊँचाई 6,000 मीटर है ।दूसरे शब्दों में हिमालय विश्व की सर्वाधिक ऊँची पर्वत-श्रृंखला है । माउण्ट एवरेस्ट, इस पर्वत-श्रेणी की सबसे ऊँची चोटी है, जिसकी ऊँचाई 8,848 मी है । यह विश्व कीं भी सर्वाधिक ऊँची पर्वत-चोटी है । हिमाद्रि अर्थात् आन्तरिक हिमालय का अधिकतर हिस्सा बर्फ से ढका रहता है । हिमाद्रि के दक्षिणी भाग को हिमाचल या निम्न हिमालय कहा जाता है । इसकी ऊँचाई 3,700 मी से लेकर 4,500 मी के बीच तथा चौडाई 50 किमी है ।इसी क्षेत्र में कश्मीर की अनुपम घाटी तथा हिमाचल के काँगडा एवं कुल्लू की घाटियाँ स्थित हैं । कवि जयशंकर प्रसाद ने इन पंक्तियों के माध्यम से इसी हिमालय की ऊँची चोटी का उल्लेख करते हुए भारत भूमि के वीर सुपुत्रों का देश को स्वतन्त्र कराने के लिए आह्वान किया था: 

”हिमाद्रि तुंग श्रुंग से 

प्रबुद्ध शुद्ध भारती 

स्वयं प्रभा समुज्जवला 

स्वतन्त्रता पुकारती ।” 

माना जाता है कि हिमालय पर्वत-श्रृंखला की उत्पत्ति प्राचीनकाल के टैथिस सागर में हुई थी । इस सागर में सन्निहित तलछट भूगर्भीय हलचलों के फलस्वरूप धीरे-धीरे ऊपर उठ चले, जिससे विश्व के इस विशालतम पर्वत की उत्पत्ति प्रारम्भ हुई । इसके निर्माण की प्रक्रिया दीर्घ काल तक चलती रही । वैज्ञानिकों के अनुसार, इसको वर्तमान स्वरूप तक पहुँचने में लगभग सात करोड वर्ष लगे । 

हिमालय हमारे लिए आराध्य-स्वरूप है। यह उत्तर में खड़े हमारे प्रमुख प्रहरी का कार्य करता है तो वहीं यह भारत की अधिकाँश नदियों का स्रोत है। इन नदियों से निर्मित घाटियाँ कृषि के लिए सर्वाधिक उपयुक्त होती है । गंगा नदी एवं इसका बहाव क्षेत्र इसका सबसे अच्छा उदाहरण है ।हिमालय से निसृत होकर आनेवाली नदियों में इंडस तथा ब्रह्मपुत्र सबसे बड़े हैं। इंडस नदी की पाँच उपशाखाएं है, झेलम, चिनाब, रावी, बियास और सतलज। इसके अतिरिक्त भागीरथी, अलकनन्दा, सरस्वती आदि नदियाँ भी उल्लेखनीय हैं। हिमालय पर्वत-श्रृंखला में पन्द्रह हजार से अधिक ग्लेशियर हैं, जो बारह हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हैं। पूरी हिमालय पर्वत-श्रृंखला लगभग पाँच लाख वर्ग किलोमीटर में फैली हुयी है । 

काश्मीर हिमालय की वृहत्तम घाटी है। काश्मीर घाटी अपनी दिव्य छटा और शोभाश्री के लिए विश्वविख्यात तो है ही, साथ ही विश्वविख्यात केसर,सेब,नाशपाती,बादाम,अखरोट,खूबानी,आड़ू,गिलास(चेरी)आदि फल हिमालय के आंचल में बसी धरती का स्वर्ग कहलाने वाली कश्मीर घाटी में ही पैदा होते हैं।धार्मिक दृष्टि से देखें तो प्रसिद्ध त्रिक/शैव दर्शन का आविर्भाव भी हिमालय के इसी अंचल में हुआ बताया जाता है।और तो और कश्मीर-शैव-दर्शन के प्रतिपादक शैव-आचार्य अभिनवगुप्त भी यहीं पर अवतरित हुए थे। माना तो यह भी जाता है की बौद्ध-दर्शन के विश्वविख्यात दार्शनिक नागार्जुन ने भी स्वाध्याय के लिए इसी पुण्यभूमि को चुना था।कल्हण,बिल्हण,’काव्यप्रकाश’ के प्रणेता मम्मटाचार्य,’ध्वन्यालोक’ के रचियता आनंदवर्धन आदि संस्कृत के कवि और काव्यशास्त्री भी इसी पावन-धरती की देन हैं। 

हिमालय-क्षेत्र का प्राकृतिक सौन्दर्य भी अन्यतम है। ऊँचे-ऊँचे हिमाच्छादित पर्वत-शिखर, कल-कल रव करती नदियाँ, झरनें, स्फटिक शिलायें,मनोहर ढलानों पर बने क्यारीनुमा खेत, हरे-घने वन आदि इस महापर्वत के शोभालंकार हैं। दूसरे शब्दों में हिमालय धरती की समग्र शोभा का अनुपम कोषागार है, जो सदैव अपनी प्राकृतिक सुषमा से मंडित रहता है। प्राकृतिक वैभव यहाँ बिखरा पड़ा है । वन-संपदा भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।देवदार, चीड़ आदि के ऊँचे-ऊँचे पेड़ यहाँ की शोभा बढ़ाते हैं । ये पेड़ जगंली जीव-जंतुओं की शरणस्थली भी हैं ।कितने ही जानवर यहाँ निवास करते हैं । भालू, रीछ, हाथी, बंदर, याक, जेबरा, गेंडा, चीता हिरन सब यहाँ स्वयं को सुरक्षित अनुभव करते हैं । उधर पेड़ों पर पक्षियों का कलरव सुनाई देता है तो इधर छोटी-छोटी नदियाँ, ऊँचे पहाड़, गहरी खाइयाँ, पेड़, पशु, पक्षी आदि मिलकर अद्‌भुत प्राकृतिक दृश्य उपस्थित करते हैं । 

हिमालय का आर्थिक और लोकोपयोगी महत्व भी कम नहीं है।इसके कई क्षेत्रों में जलाशयों का निर्माण कर उनका उपयोग सिचाई एवं जल-विद्यूत उत्पादन के लिए किया जाता है । इसके अलावा हिमालय में कई प्रकार की वनस्पतियाँ तथा जीव-जन्तु पाए जाते हैं । हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों के वनों से हमें ईंधन, चारा, कीमती लकड़ियाँ एवं विभिन्न प्रकार की औषधियाँ प्राप्त होती हैं इतना ही नहीं हिमालय हम भारतवासियों को अडिग होकर निरन्तर अपने कर्म-पथ पर चलते रहने कीं प्रेरणा भी देता है । 

कवि सोहनलाल द्विवेदी के शब्दों में- 

”खडा हिमालय बता रहा है 

डरो न आँधी पानी में । 

खडे रही तुम अविचल होकर 

सब संकट तूफानी में । 

हिमालय पर्वत-श्रृंखला प्राचीनकाल से ही योगियों एवं ऋषियों की भी तपोभूमि रही है । हिन्दुओं के अनेक तीर्थ; जैसे-हरिद्वार, बद्रीनाथ, केदारनाथ, ऋषिकेश इत्यादि हिमालय पर्वत-श्रृंखला में ही स्थित हैं । श्रीराम शर्मा आचार्य ने ‘हिमालय की यात्रा’ नामक यात्रा वृनान्त में हिमालय की शोभा का बडा ही सुन्दर एवं सजीव वर्णन किया है । हमारे प्राचीन शास्त्र भी इस पर्वत श्रृंखला के गुणगान से भरे हुए हैं । 

संस्कृत का यह श्लोक इसका प्रमाण है: 

”हिमालय समारम्भ यावत् इंदु सरोवरम् । 

तं देवनिर्मितं देशं हिंदुस्तान प्रचक्षते ।” 

इसका अर्थ है: “हिमालय पर्वत से प्रारम्भ होकर हिन्द महासागर तक फैले हुए हिन्दुस्तान देश की रचना ईश्वर ने की है ।“ 

हिमालय पर्वत का सांस्कृतिक-धार्मिक महत्व प्राचीन काल से चला आ रहा है। ऐसी मान्यता है के देवों के देव महादेव का निवास हिमालय पर्वत में ही है।उमा(पार्वती) का भी यह निवास माना जाता है। इस विशाल पर्वतों के बीच बहुत सारे धार्मिक स्थल बने हुए हैं: जैसे बदरीनाथ , केदारनाथ , अमरनाथ और हेमकुंट आदि हैं। यहां हिमालय के प्रमुख पर्वत-शिखर हैं: कैलास, मैनाक, गन्धमादन, इन्द्रकील, सुमेरू, क्रौंचपर्वत, एवरेस्ट (गौरी-शंकर), कारकोरम आदि। ये पर्वत अपनी विशालता और विराटता के कारण विदेशी आक्रमणकारियों केलिए अलंध्य हैं। शैलराज हिमालय का सबसे प्रमुख पर्वत है कैलास। यह पर्वत समुद्र तल से 23,000 फुट ऊँचाई पर स्थित सदा हिम से आच्छादित एक धवलिम शिखर है यह । पुराणों में कैलास पर्वत को विशेष महत्व दिया गया है। कैलास पर्वत को रजतश्रृंग एवं देवाधिदेव महादेव का वास स्थान भी बताया गया है। भारतीयों का विश्वास है कि कैलास पर्वत के उत्तर भाग की ओर स्वर्णमय मेरु पर्वत स्थित है। हिमगिरि के स्वर्णिम वर्ण के कारण ये पर्वत हेमगिरि भी कहलाता है। हिमालय का यह श्रेष्ठ पर्वत कैलास अपनी अनन्त वैभव एवं संपन्नता की दृष्टि से भी अद्वितीय है। कैलास पर्वत पर विश्वकर्मा द्वारा बनायी गयी कुबेर की नगरी है अलकापुरी। हिमालय के इस प्रमुख पर्वत का उल्लेख कालिदास के मेघदूत में मिलता है। 

महाभारत के अनुसार पांडवों ने कैलास की यात्रा की थी।सौगन्धिक पुष्प लाने के लिए भीम कैलास के पास कुबेर के पुष्पोद्यान में पहुँचे थे। कैलास पर्वत पर कुबेर के निवास स्थान के पास यक्ष, राक्षस, किन्नर एवं गन्धर्व रहते हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि हनुमान श्रीराम के ध्यान में कैलास पर्वत पर वास करते हैं।हिमालय पर्वत से ही रामभक्त हनुमान मूर्छित लक्ष्मण के लिए संजीवनी बूटी लेकर आये थे।इस रोचक प्रसंग पर यहाँ प्रकाश डालना अनुचित न होगा।:”हनुमानजी द्वारा पर्वत उठाकर ले जाने का प्रसंग वाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड में मिलता है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार रावण के पुत्र मेघनाद ने ब्रह्मास्त्र चलाकर श्रीराम व लक्ष्मण सहित समूची वानर सेना को घायल कर दिया। अत्यधिक घायल होने के कारण जब श्रीराम व लक्ष्मण बेहोश हो गए तो मेघनाद प्रसन्न होकर वहां से चला गया। उस ब्रह्मास्त्र ने दिन के चार भाग व्यतीत होते-होते 67 करोड़ वानरों को घायल कर दिया था।हनुमानजी, विभीषण आदि कुछ अन्य वीर ही उस ब्रह्मास्त्र के प्रभाव से बच पाए थे। जब हनुमानजी घायल जांबवान के पास पहुंचे तो उन्होंने कहा – इस समय केवल तुम ही श्रीराम-लक्ष्मण और वानर सेना की रक्षा कर सकते हो। तुम शीघ्र ही हिमालय पर्वत पर जाओ और वहां से औषधियां लेकर आओ, जिससे कि श्रीराम-लक्ष्मण व वानर सेना पुन: स्वस्थ हो जाएं।जांबवान ने हनुमानजी से कहा कि- हिमालय पहुंचकर तुम्हें ऋषभ तथा कैलाश पर्वत दिखाई देंगे। उन दोनों के बीच में औषधियों का एक पर्वत है, जो बहुत चमकीला है। वहां तुम्हें चार औषधियां दिखाई देंगी, जिससे सभी दिशाएं प्रकाशित रहती हैं। उनके नाम मृतसंजीवनी, विशल्यकरणी, सुवर्णकरणी और संधानी है।हनुमान तुम तुरंत उन औषधियों को लेकर आओ, जिससे कि श्रीराम-लक्ष्मण व वानर सेना पुन: स्वस्थ हो जाएं। जांबवान की बात सुनकर हनुमानजी तुरंत आकाश मार्ग से औषधियां लेने उड़ चले। कुछ ही समय में हनुमानजी हिमालय पर्वत पर जा पहुंचे। वहां उन्होंने अनेक ऋषियों के आश्रम देखे।हिमालय पहुंचकर हनुमानजी ने कैलाश तथा ऋषभ पर्वत के दर्शन भी किए। इसके बाद उनकी दृष्टि उस पर्वत पर पड़ी, जिस पर अनेक औषधियां चमक रही थीं। हनुमानजी उस पर्वत पर चढ़ गए और औषधियों की खोज करने लगे। उस पर्वत पर निवास करने वाली संपूर्ण महाऔषधियां यह जानकर कि कोई हमें लेने आया है, तत्काल अदृश्य हो गईं। यह देखकर हनुमानजी बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने वह पूरा पर्वत ही उखाड़ लिया, जिस पर औषधियां थीं। 

कुछ ही समय में हनुमान उस स्थान पर पहुंच गए, जहां श्रीराम-लक्ष्मण व वानर सेना बेहोश थी। हनुमानजी को देखकर श्रीराम की सेना में पुन: उत्साह का संचार हो गया। इसके बाद उन औषधियों की सुगंध से श्रीराम-लक्ष्मण व घायल वानर सेना पुन: स्वस्थ हो गई। उनके शरीर से बाण निकल गए और घाव भी भर गए। इसके बाद हनुमानजी उस पर्वत को वापस लेकर गये।तुलसी कृत ‘रामचरितमानस’ में इस प्रसंग को दूसरे रूप में वर्णित किया गया है: गोस्वामी तुलसीदास द्वारा चरित श्रीरामचरितमानस के अनुसार रावण के पुत्र मेघनाद व लक्ष्मण के बीच जब भयंकर युद्ध हो रहा था, उस समय मेघनाद ने वीरघातिनी शक्ति चलाकर लक्ष्मण को बेहोश कर दिया। हनुमानजी उसी अवस्था में लक्ष्मण को लेकर श्रीराम के पास आए। लक्ष्मण को इस अवस्था में देखकर श्रीराम बहुत दु:खी हुए।तब जांबवान ने हनुमानजी से कहा कि लंका में सुषेण वैद्य रहता है, तुम उसे यहां ले आओ। हनुमानजी ने ऐसा ही किया। सुषेण वैद्य ने हनुमानजी को उस पर्वत और औषधि का नाम बताया और हनुमानजी से उसे लाने के लिए कहा, जिससे कि लक्ष्मण पुन: स्वस्थ हो जाएं। हनुमानजी तुरंत उस औषधि को लाने चल पड़े। जब रावण को यह बात पता चली तो उसने हनुमानजी को रोकने के लिए कालनेमि दैत्य को भेजा कालनेमि दैत्य ने रूप बदलकर हनुमानजी को रोकने का प्रयास किया, लेकिन हनुमानजी उसे पहचान गए और उसका वध कर दिया। इसके बाद हनुमानजी तुरंत औषधि वाले पर्वत पर पहुंच गए, लेकिन औषधि पहचान न पाने के कारण उन्होंने पूरा पर्वत ही उठा लिया और आकाश मार्ग से उड़ चले। अयोध्या के ऊपर से गुजरते समय भरत को लगा कि कोई राक्षस पहाड़ उठा कर ले जा रहा है। यह सोचकर उन्होंने हनुमानजी पर बाण चला दिया। 

हनुमानजी श्रीराम का नाम लेते हुए नीचे आ गिरे। हनुमानजी के मुख से पूरी बात जानकर भरत को बहुत दु:ख हुआ। इसके बाद हनुमानजी पुन: श्रीराम के पास आने के लिए उड़ चले। कुछ ही देर में हनुमान श्रीराम के पास आ गए। उन्हें देखते ही वानरों में हर्ष छा गया। सुषेण वैद्य ने औषधि पहचान कर तुरंत लक्ष्मण का उपचार किया, जिससे वे पुन: स्वस्थ हो गए। 

जहां वाल्मीकि रचित रामायण के अनुसार हनुमान जी पर्वत को पुनः यथास्थान रख आए थे वही तुलसीदास रचित रामचरितमानस के अनुसार हनुमान जी पर्वत को वापस नहीं रख कर आए थे, उन्होंने उस पर्वत को वही लंका में ही छोड़ दिया था। श्रीलंका के सुदूर इलाके में श्रीपद नाम का एक पहाड़ है। मान्यता है कि यह वही पर्वत है, जिसे हनुमानजी संजीवनी बूटी के लिए उठाकर लंका ले गए थे। इस पर्वत को एडम्स पीक भी कहते हैं। यह पर्वत लगभग 2200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। श्रीलंकाई लोग इसे रहुमाशाला कांडा कहते हैं। इस पहाड़ पर एक मंदिर भी बना है। 











हिमालय भारत के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है ।यदि हिमालय न होता तो भारत के अधिकांश उत्तरी भाग में मरुभूमि होती । यह हिमालय ही है जो पूर्वी तथा दक्षिणी आर्द्र मानसूनी हवाओं को रोककर भारत के उत्तरी राज्यों में वर्षा कराता है । इससे इन राज्यों में भरपूर फसल होती है । इन राज्यों की सभी नदियाँ वर्षा ऋतु में जलप्लावित रहती हैं । वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद भी गंगा, यमुना जैसी बड़ी नदियों में जल रहता है । इसमें भी हिमालय का योगदान है । हिमालय की ऊँची चोटियों की बर्फ सूर्य की गर्मी से पिघलकर इन नदियों में जल के रूप में आती रहती है । इस तरह हिमालय सूखे होठों की प्यास शांत करने वाला साक्षात देवता बन जाता है । 

हिमालय हमारी शान है । इसकी शान में मानव खलल डाल रहा है । वह यहाँ के वनों को नष्ट कर रहा है । वह उद्‌योगों के फैलाव से यहाँ की नदियों तथा अन्य प्राकृतिक स्थलों को गंदा कर रहा है । अवैध रूप से शिकार हो रहे हैं जो जगंली जीवों के जीवन के लिए घातक हैं । ग्रीन हाऊस गैसों के निरंतर प्रसार से तापमान में वृद्धि हो रही है जिसके प्रभाव से यहाँ की बर्फ पिघल रही है । इन सबके बारे में हमें जागरूक होना पड़ेगा । लोगों को हिमालय की रक्षा के लिए उपयुक्त कदम उठाने होंगे । 

कुलमिलाकर यह विशाल नगपति भौगोलिक दृष्टि से असंख्य पर्वतों, नदियों, वन-संपदा तथा खनिजों को अपने में समेटकर हमारे सम्मुख अनंतकाल से खड़ा है। देश-विदेश से तीर्थ यात्री एवं पर्यटक इसके दर्शन के लिए आते हैं। हिमालय के रमणीय स्थान, यहाँ मनाए जानेवाले पर्व एवं त्योहार आदि रंग-बिरंगे दृश्य अवश्य ही इन्हें खींच लाते हैं। हिमालय असंख्य तीर्थों को धारण कर एक ओर धार्मिक महत्व का प्रतिपादन करता है तो दूसरी ओर तपस्वियों की साधना-भूमि होकर आध्यात्मिक महत्व पर बल देता है। पौराणिक घटनाओं का साक्षी हिमालय स्वयं सच्चरित्रता का साक्षी बनकर हमारी संस्कृति की रक्षा करता है। वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण एवं महाभारत में इसके उदाहरण पाए जाते हैं। 

हिमालय प्राकृतिक वैभव बिखरा पड़ा है । यहाँ प्रकृति अपने अनमोल खजाने मुक्त हस्त से लुटाती है । हिमाच्छादित पर्वत अद्‌भुत समाँ बाँध देते हैं । प्रात:कालीन सूर्य की किरणों से इनकी शोभा और भी निखर आती है । देखने वाले ठगे से रह जाते हैं । थोड़े नीचे की ओर चलें तो वनप्रांत आरंभ हो जाते हैं । देवदार, चीड़ आदि के ऊँचे-ऊँचे पेड़ यहाँ की शोभा बढ़ाते हैं । ये पेड़ जगंली जीव-जंतुओं की शरणस्थली हैं । कितने ही जानवर यहाँ निवास करते हैं । भालू, रीछ, हाथी, बंदर, याक, जेबरा, गेंडा, चीता हिरन सब यहाँ स्वयं को किसी हद तक सुरक्षित अनुभव करते हैं । उधर पेड़ों पर पक्षियों का कलरव सुनाई देता है । छोटी-छोटी नदियाँ, ऊँचे पहाड़, गहरी खाइयाँ, पेड़, पशु, पक्षी आदि मिलकर अद्‌भुत प्राकृतिक दृश्य उपस्थित करते हैं ।हिमालय की तराई में अनेक गाँव और शहर बसे हैं । पहाड़ी लोग भेड़-बकरियाँ बड़ी संख्या में पालते हैं । इन पालतू पशुओं के लिए हिमालय में चारागाह होता है । स्थानीय लोग हिमालय से कई प्रकार की जड़ी-बूटियाँ प्राप्त करते हैं । हिमालय के वनों से कीमती लकड़ियाँ, गोंद तथा पत्ते प्राप्त होते हैं । लकड़ियों की बहुतायत लकड़ी के ढलवाँ घर बनाने में मदद करती है । इन वनों से दियासलाई की लकड़ी तथा कागज बनाने की लुगदी भी प्राप्त होती है । 

अंत में, भारत के निर्भीक प्रहरी ‘मेरे नगपति,मेरे विशाल!’(हिमालय) ने राष्ट्र-रक्षक के रूप में हमारी सीमा को सदियों से सुरक्षित रखा है।हिमालय हमारी सांस्कृतिक धरोहर का पतीक ही नहीं हमारी भौगोलिक,प्राकृतिक आध्यात्मिक, धार्मिक, नैतिक और राष्ट्रीय स्मिता का अग्रदूत भी है। 







Friday, June 21, 2019



MORAL EDUCATION 

Rape is a sin, a curse on humanity and above all, it is a punishable offence. It is a violent crime that has been continuously on the rise in India. To make it a communal issue for gaining cheap popularity and score a point by political parties is highly shameful. We need to condemn the act and the monsters who commit such heinous crimes with one voice. Perhaps, such belligerent and disgraceful acts along with other social crimes crop up in our society just because the moral and religious values of the society seem to be on the decline. Time is ripe when we need to be determined and pay attention to introduce better moral education in India’s educational institutions and other social organizations. Besides making the rape law more stringent, media too needs to be unbiased, unprejudiced and impartial in flashing such sensitive stories. 

I am here in Dubai currently and it was really heartening to learn that UAE schools have started teaching Moral Education as a subject from 2017 academic year. The national initiative, originally announced in 2016, deserves all the praise from all those who know how significant and productive it is to include Moral Education in school level curriculum. The initiative signifies the foresightedness and concern of state-of-the-art UAE establishment and dispensation for its future generation. 

Needless to mention that today's education system has become more-or-less a job-oriented affair. Education is not all about cramming formulas and equations. it is, as a matter of fact, about the way it shapes our soul and mind and moral education for that matter plays a vital role in inculcating high values in the life of our younger generation. Moral Education deserves to be an essential part of the school curriculum since it re-shapes the way of our future generations. Whether or not a boy will help an old man cross a road depends on how well he was educated with ethics and moral behavior, not how well he recited the mathematical tables and poems. 

Moral education means an ethical education to follow the good and right principles of life. It consists of some basic principles, like truthfulness, honesty, charity, hospitality, tolerance, love, kindness and sympathy. Broadly speaking, teachings from our sacred scriptures can very aptly serve as a source material for preparing the syllabus for Moral Education since our scriptures are the priceless treasure of Moral Education. 

In short, Moral Education inculcates basic human values in the minds of children and help in their character-building from the very start of their career/life. Eventually, the process will bear a meaningful impact on nation-building too. 

Time is ripe, when in our country also, Moral Education as an independent subject is introduced in school-level curriculum. 



From Mr Shiben Krishen Raina 

Thursday, June 13, 2019

विश्व की सब से ऊंची इमारत दुबई/यूएई स्थित ‘बुर्ज खलीफा’ है. बुर्ज खलीफा को पहले बुर्ज दुबई कहा जाता था, बाद में यहां के राष्ट्रपति खलीफा बिन ज़ायेद अल नह्हान के सम्मान में इसका नाम बुर्ज खलीफा रख दिया गया.बुर्ज खलीफा की ऊंचाई 828 मीटर यानी की 2716.5 फीट है. यानी एफिल टॉवर से करीब तीन गुना ज्यादा है.बुर्ज खलीफा को बनाने में करीब 1.5 बिलियन डॉलर खर्च हुआ है.बुर्ज खलीफा में कुल 163 मंजिल है, जिसमें 58 लिफ्ट और 2957 पार्किंग स्पेस, 304 होटल और 900 अपार्टमेंट्स है. इमारत बनाने का काम 2004 में शुरू हुआ और यह इमारत 2010 में बनकर तैयार हो गई.कहा जाता है कि बुर्ज खलीफा को करीब 12,000 मजदूरों ने मिलकर बनाया.यह भी कहा जाता है कि इसे बनाने में 100,000 हाथियों के बराबर कंक्रीट और पांच A380 हवाई जहाज के बराबर एल्युमीनियम लगा है.बुर्ज खलीफा में एक समय में करीब 35000 लोगों के रहने की व्यवस्था है.बुर्ज खलीफा इतना बड़ा है कि इसे आप 95 किलो मीटर दूर से भी देख सकते हैं.इसकी चोटी से पड़ोसी देश ईरान भी दिखता है.बुर्ज खलीफा में 946,000 लीटर पानी को 100 किलो मीटर पाइप की सहायता से पहुंचाया जाता है.बुर्ज खलीफा के 76वें मंजिल पर सबसे ऊंचा स्विमिंग पूल और 122वें मंजिल पर रेस्टोरेंट है.बुर्ज खलीफा के नाम 6 वर्ल्ड रिकॉर्ड है, सबसे ऊंची बिल्डिंग, सबसे ज्यादा मंजिल, सबसे ऊंची लिफ्ट आदि.इसमें 37 ऑफिस फ्लोर और 900 अपार्टमेंट हैं.बुर्ज खलीफा में लगे AC से जितना पानी एक साल में निकलता है उससे ओलंपिक के पांच स्विमिंग पूल भरे जा सकते हैं.जमीन से 210 मीटर की ऊंचाई पर 25 मीटर की चौड़ाई का हेलिपैड भी बनाया गया है जिस पर हेलीकॉप्टर उ

Monday, June 10, 2019



As we keep on using them, modern-day house-hold items like Refrigerator, Washing-Machine, Toaster, TV, and for that matter, any other electric or electronic device etc. is liable to malfunction at any point of time. The reason could be anything: mishandling, misuse or any other inexplicable issue. What we do usually is to see if we could handle the situation ourselves: plug-unplug the wire, read the manual if we have preserved it, go through it and try to find out the remedy etc. Having gone through all this exercise carefully for a day or two and concluding that the device is suffering from some serious fault, we finally decide to contact the mechanic who, though pretending to be busy, drops in within hours along with his assistant and toolbox etc.

Last year my LCD suddenly became inactive. No image, sound only. Tried all the methods as mentioned above. Nothing came up. Since the guarantee-period of the device from the company was over, I contacted a local mechanic who lost no time to come to my residence and checked the LCD with his apparatus. I, all along watched him with curiosity and interest. Having finished the diagnosis, the mechanic very unambiguously declared that the Panel of LCD had gone and needed replacement. ’can’t it be repaired?’ I made a polite request. ‘No, Panels are not repaired. They are irreparable.’ ‘How much should the new Panel cost?’ was my next query.’ He looked at me for a while and suggested that firstly the LCD is of old make and it may be difficult to find out a matching Panel for your LCD and even if I manage to procure one for you, it won’t cost you less than Eleven Thousand Indian Rupees. My sincere advice is to abandon this device/LCD and go in for a newer one which might cost you only a little more than Eleven Thousand.

I thought for a while on his guidance and eventually told him that I will call him later after taking the second opinion from some other mechanic. ‘No problem. You can call me any time. But I pledge here and now that even if you call Almighty too, he also would corroborate my view of fused Panel. Rest is what you deem fit. I am at your disposal any time.’ The mechanic said bluntly though annoyingly.

To seek the second opinion, I contacted my friend who, too, had faced the same kind of problem with his LCD. He sent his mechanic and after a thorough check up the new mechanic proclaimed that Panel was alright. Only a fore image-IC needed to be replaced and entire cost including the service charges etc. won’t be more than Four Thousand Five Hundred Indian Rupees. I had no other option but to accept his bid with utmost delight.

It is always better and sensible to go in for the second opinion in every matter of life more especially in the matters of repairing sick and malfunctioning electronic/electric devices and gadgets.

Friday, June 7, 2019


MODI WINS
Amidst tough and mostly hate-oriented fight by the combined opposition, Modi emerged as the most powerful and popular leader of world’s one of the largest democracies. Tagged as Chaiwala (Tea maker) in 1914 and Chowkidar Chor hai (Guard is Thief) in 2019 by the opposition, Mr Modi never got disheartened, perturbed or saddened by these frivolous and biased slogans but kept on working for the masses more especially for the poor and oppressed. Around Fifty reformist and welfare programs were carried out on utmost priority. The opposition never bothered to care about the far-reaching implications of these projects/ programs. All these welfare programs flourished in the background slowly and steadily over these past five years. On the one side the opposition believed in raising unfounded allegations or slogans accusing or targeting the government while as on the other side the ruling government saw that its reforms were implemented sincerely, strictly and hit the target flawlessly. Perhaps that made the difference. 

All the social and economic schemes implemented by Modi's government paid rich dividends and significantly escalated the popularity of this great but modest leader to new heights. Also, Modi's strong conviction in Nationalism made him not a savior of masses alone but a true nationalistic leader of the country. His famous slogan ‘Sabka Sath, Sabka Vikas’ (All we unite and all we progress!) made Modi an epitome and embodiment of millions of Indians. 

In short, opposition and, for that matter, every opposition in any democratic/non-democratic form of government should learn from the straightforwardness, simplicity, humanness, respect for elders, down to earth nature and perfect oratory of this great leader. In a democracy it is after all the words you speak work, impress and woo the listeners for you. 

Dr.Shiben Krishen Raina 

Writer,translator and professor , 

Currently in Dubai(UAE) 

Wednesday, May 1, 2019



चीन पर पड़े अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण उसकी हठ-धर्मिता को झुकना पड़ा और यूएन ने कुख्यात आतंकी मसूद अजहर को 'ग्लोबल टेररिस्ट' घोषित कर दिया।इसे भारत की कूटनीतिक विजय ही माना जाएगा। कुछ मित्रों का कहना है कि मसूद को बीजेपी की सरकार ने ही तो आतंकियों को सौंप दिया था आदि। 

दरअसल,24 दिसंबर 1999 को 5 हथियारबंद आतंकवादियों ने 178 यात्रियों के साथ इंडियन एयरलाइंस के हवाई जहाज आईसी-814 को हाइजैक कर लिया था। हरकत-उल-मुजाहिद्दीन के आतंकियों ने भारत सरकार के सामने 178 यात्रियों की जान के बदले में तीन आतंकियों की रिहाई का सौदा किया था। भारत सरकार ने यात्रियों की जान बचाने के लिए जिन तीन आतंकियों को छोड़ने का फैसला किया था, उनमें से मसूद अजहर भी एक था। 

देखा जाय तो उस समय जो भी सरकार होती,शायद वही करती जो उस समय की सरकार ने किया।कल्पना कीजिये, यात्रियों की जान खतरे में हो।एक यात्री का चेतावनी के तौर पर गला भी रेत दिया जाय।तो सरकार क्या करती? इस प्रसंग में उस समय विमान की हालत पर एक अधिकारी का यह बयान पठनीय है : ''जब हम विमान में घुसे तो चारों तरफ मल और पेशाब फैला था, क्योंकि सप्ताह भर से यात्री कहीं नहीं गए थे।सबकी हालत बुरी थी और आतंकियों द्वारा रुपिन कात्याल की हत्या के बाद हुए झगड़े में कुछ यात्री घायल भी हो गए थे।तीन आतंकियों के बदले दो सौ के करीब यात्रियों की जान की सुरक्षा का सवाल था।यों,वीपी सिंह के शासनकाल में भी गृहमंत्री मुफ़्ती सैयद की बेटी रूबिया को कुछेक आतंकियों के बदले छोड़ना पड़ा था।ऐसे संवेदनशील और तनावपूर्ण क्षणों में सरकार को बहुत सोच-समझ कर जनहित अथवा देशहित में निर्णय लेने पड़ते हैं। दिल पर हाथ रखकर सोचें: संयोग से अगर हमारा भी कोई रिश्तेदार: भाई,पत्नी,बेटा,बाप,बहन या माता इस जहाज़ में होते तो हमारा रवैया क्या होता?क्या हम अपनों को किसी भी मूल्य पर छुड़ाने की गुहार नहीं लगाते?या फिर अपने बाप/बेटे/पत्नी आदि को मरने दे देते!आतंकियों अथवा फिरौती मांगने वालों को तो हम देर-सवेर दबोच लेते मग़र खुदा-न-खास्ता अगर वे दरिन्दे आतंकी यात्रियों की एक-एक कर के हत्या कर देते तो उनकी मूल्यवान ज़िन्दगियों को हम वापस कहाँ से ले आते?इसलिए उस समय का सरकार का निर्णय सर्वथा समयोचित ही नहीं,कूटनीतिक भी था। 

शिबन कृष्ण रैणा 

अलवर

Thursday, April 25, 2019


यासीन मलिक 
जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती जेकेएलएफ के अलगाववादी नेता यासीन मलिक की जेल से रिहाई के लिए गुहार लगा रही है।(शायद धरने पर भी बैठी है।)यह वही अलगाववादी नेता यासीन मलिक है जिसपर 25 जनवरी 1990 में भारतीय वायुसेना कर्मियों पर आतंकी हमले में शामिल होने का आरोप है। इस हमले में वायुसेना के स्क्वाड्रन लीडर रवि खन्ना सहित चार वायुसेना कर्मियों की मौत हो गई थी, जबकि 10 वायुसेना कर्मी जख्मी हो गए थे।और भी कई संगीन आरोप हैं इस अलगाववादी मलिक पर।गौरतलब है कि जेकेएलएफ 1988 से घाटी में सक्रिय है और कई आतंकी गतिविधियों में शामिल रहा है. संगठन ने 1994 में हिंसा का रास्ता छोड़ने का दावा किया लेकिन अलगाववादी गतिविधियों को बढ़ावा देता रहा.माना जाता है कि इस संगठन का मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया के अपहरण में भी हाथ रहा है. इस घटना को दिसंबर 1989 में अंजाम दिया गया था. तब मुफ्ती मोहम्मद देश के तत्कालीन गृहमंत्री थे. माना यह भी जा रहा है कि यासीन मलिक ही 1989 में घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन का मास्टर- माइंड था और यही पंडितों के नरसंहार के लिए जिम्मेदार था. 

गौरतलब है कि यासीन मलिक पर कश्मीरी अलगाववादियों और आतंकी समूहों की वित्तीय मदद करने के आरोप में बीते दिनों उन्हें राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने गिरफ्तार किया था.उनकी गिरफ्तारी के बाद पहले उन्हें जम्मू की कोट भलवाल जेल में रखा गया था लेकिन उसके बाद उन्हें दिल्ली की तिहाड़ जेल में भेज दिया गया था. जेकेएलएफ पर आतंकी गतिविधियों को समर्थन देने का आरोप लगता रहा है। यासीन मलिक पर आरोप है कि 1994 से भारत विरोधी गति‍विधियां चलाते थे। वह देश के पासपोर्ट पर पाकिस्‍तान जाते और वहां पर देश विरोधी गतिविधि‍यों में लिप्‍त रहते थे। पिछले दिनों पुलवामा हमले के बाद केंद्र सरकार ने यासीन मलिक समेत सभी अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा वापस ले ली थी। अब एक बड़ा कदम उठाते हुए मोदी सरकार ने जेकेएलएफ को बैन कर दिया है। 

प्रवर्तन निदेशालय भी लेगा ऐक्‍शन 
दूसरी ओर, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) भी फेमा अधिनियम का उल्‍लंघन करने के मामले में यासीन मलिक के खिलाफ कानूनी कार्यवाही में जुटा हुआ है। यासीन मलिक पर अवैध रूप से 10 हजार अमेरिकी डॉलर की विदेशी मुद्रा रखने का आरोप है। इस मामले में शुक्रवार को ही ईडी ने एक और अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी पर 14.40 लाख रुपये का जुर्माना लगाया है। 

यासीन मलिक खुद स्‍वीकार कर चुका है कि उसने 1987 में 4 भारतीय सुरक्षाकर्मियों की हत्‍या कर दी थी। इस दोष में उसे सजा भी काटनी पड़ी थी। यासीन मलिक 1999 और 2002 में गिरफ्तार हो चुका है। 2002 में तो उसे पोटा के तहत गिरफ्तार किया गया था। यासीन मलिक पर लगातार पाकिस्‍तानी आतंकियों के साथ संबंध रखने के आरोप लगते रहे हैं। 1990 में हिंदुओं का कत्लेआमकर उन्हें कश्मीर से बेदखल करने के आंदोलन में यासीन जैसे नेताओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
यासीन मलिक पर पहले से पाकिस्‍तान के आतंकी संगठनों के साथ संबंधों के आरोप लगते रहे हैं, लेकिन भारत सरकार उसकी गतिविधियों को वोट बैंक की राजनीति के चलते उसकी हरकतों को नजरअंदाज करती रही है। इसी का परिणाम यह है कि उसके जैसे नेताओं के हौसले बुलंद होते गए। आज वह खुलेआम पाकिस्तना की गोद में बैठ गया है। 

"जेकेएलएफ जम्मू कश्मीर में अलगाववादी गतिविधियों में सबसे आगे है, वह 1989 में कश्मीरी पंडितों की हत्याओं के लिए जिम्मेदार रहा है, जिसकी वजह से उन्हें राज्य से बाहर पलायन करना पड़ा." 

ऐसे विध्वंसकारी के बचाव में वही उतरेगा जिसकी अलगाववादियों के साथ सहानुभूति ही नहीं,सांठगांठ भी हो।अन्यथा महबूबा को बयान देना चाहिए था कि ज्यूडिशरी अपना काम कर रही है।जो फैसला आएगा वह सर माथे। 



14 फरवरी को हुए आतंकी हमले के बाद जम्मू एवं कश्मीर सरकार ने कई अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा वापस ले ली थी जिसमें मलिक, सैयद अली शाह गिलानी, शब्बीर शाह और सलीम गिलानी शामिल हैं. 

Friday, February 22, 2019



पछतावा


हमारे पड़ोस में रहने वाले आनंदीलाल जी सत्तर के करीब होंगे। काया दुर्बल है, अत: चलने-फिरने में दिक्कत महसूस करते हैं। सुबह-सुबह जब मैं बच्चों के साथ अपने प्रांगण में बैड-मिंटन खेलता हूँ तो वे मुझे धीमी चाल से चहल-कदमी करते हुए दिखाई पड़ते है। सिर झुकाए तथा वितृष्ण नजरों को इधर-उधर घुमाते हुए वे भारी कदमों से मेरे सामने से निकलते हैं। क्षण-भर के लिए वे मुझ पर नजऱें गड़ाते हैं और फिर आगे बढ़ जाते हैं। उनकी छोटी-छोटी आँखों में मुझे अवसाद की गहरी परतें जमी हुई नजर आती हैं। मैं सोचता हूँ कि शायद मंदिर जा रहे होंगे, किन्तु मंदिर के फाटक तक पहुँच जाने के बाद वे वापस मुड़ जाते हैं। मुझे वे ऐसे घूरते हैं मानो मैं कोई अपराधी होऊँ। उनकी तरफ देखकर मुझे ऐसा लगता है जैसे फटकार लगाकर मुझे कुछ कहना चाहते हों-

''काल की चाल को कौन थाम सका है भाई? योगी भी नहीं, महात्मा भी नहीं। अब भी वक्त है, चेत जा बाबू, चेत जा।“

उनकी नजरों की फटकार से बचने के लिए मैं अक्सर अपनी गर्दन मोड़ लेता हूँ और बच्चों के साथ खेल में लग जाता हूँ। आगे बढऩे के बाद वे एक बार फिर पीछे मुड़कर देखने लगते हैं, शायद यह जानने के लिए कि मैं भी उन्हें देख रहा हूँ कि नहीं।

हमारा यह मौन-संभाषण तब से चला आ रहा है जब से मैं और आनंदीलाल जी इस आवासीय कॉलोनी में रहने लगे हैं। हमारी ही लाइन में सात-आठ मकान पीछे उनका मकान है। एक दिन की बात है- आनंदीलाल जी अपनी दिनचर्या के मुताबिक मेरे मकान के सामने से निकले। दिनचर्या के तुमाबिक ही उन्होंने मेरे ऊपर नजऱें गड़ाई। उस दिन जाने ऐसा क्या हुआ कि वे देर तक मुझे देखते रहे। मैने भी नजरें हटाई नहीं बल्कि आँखों ही आँखों में उनको आदरभाव के साथ अभिवादन पेश किया। मुझे लगा कि मेरे इस अभिवादन को पाने की शायद वे बहुत दिनों से प्रतीक्षा कर रहे थे। क्षण-भर में अपरिचय, संकोच और औपचारिकता की सारी दीवारें जैसे ढह गईं। हाथ के इशारे से उन्होंने मुझे अपनी ओर बुलाया। मैं चाहता तो उनके पास नहीं जाता, मगर मुझे लगा कि वे मुझे कुछ कहना चाहते हैं। शायद कई दिनों से वे इस अवसर की तलाश में थे। मैं सड़क पार कर उनके पास पहुँचा। हाथ जोड़कर मैंने नमस्ते की। उन्होंने मेरे कन्धे पर अपना दायां हाथ रखा, जिसका मतलब था कि वे मुझे आशीर्वाद दे रहे हैं। इस बीच मेंने अनुभव किया कि उनकी छोटी-छोटी आँखों में अश्रु-कण तैरने लगे हैं। सांस उनकी फूली हुई है तथा टाँगें लरज रही हैं। इससे पहले कि मैं कुछ कहता, वे बोल पड़े-

'तुम मास्टर हो, बच्चों को पढ़ाते हो ना?’

'हाँ-हाँ, लडकों को पढ़ाता हूँ। कॉलेज का प्रोफेस र हूँ।‘मैंने बड़ी शालीनता से निवेदन किया।

मेरी बात सुनकर जैसे उनकी वाणी खुल-सी गई।

दूसरा हाथ भी मेरे कन्धे पर रखकर वे बोले-

'प्रोफेसर साहब, अब भी वक्त है। चेत जाओ, चेत जाओ...’

मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया कि आनंदीलाल जी कहना क्या चाहते हैं। मैंने अन्दाज लगाने की खूब कोशिश की, किन्तु नाकामयाबी ही हाथ लगी। मेरी उलझन को वे भांप गये, बोले-

'घर आ जाओ कभी, सारी उलझन दूर हो जाएगी...।‘

मुझे लगा कि मैं पकड़ा जा रहा हूँ और मेरी ज्ञान-गरिमा चकना-चूर होती जा रही है। मैं मन-ही-मन इस बूढ़े आदमी की आत्मविश्वास एवं जीवन-सार से भरी हुई बातों की प्रशंसा करने लगा। क्या मनोवैज्ञानिक दृष्टि है ! क्या आत्म-बल है ! ....कहीं ऐसा तो नहीं कि जीवन के निचोड़ से निकले किसी बहुमूल्य रहस्य अथवा तथ्य को यह शख्स मुझे बताना चाहता हो। पर मुझे ही क्यों,....कॉलोनी में और भी तो इतने सारे लोग रहते हैं। मेरी चुप्पी उन्होंने तोड़ी, बोले-

'कोई मजबूरी नहीं है। मर्जी हो तो आ जाना। तुम्हारे लेख मैं अखबार में पढ़ता रहूता हूँ’ यह कहकर वे हल्की-सी मुझकराहट के साथ आगे बढ़ गए। उनके आखिरी वाक्य ने मुझे भीतर तक गुदगुदा दिया। मेरे अनुवादों और कहानियों को यह आदमी अपनी भाषा में लेख कहता है। कोई बात नहीं। पढ़ता तो है। पड़ोसी होने के रिश्ते को लेखक-पाठक के रिश्ते ने और बल प्रदान किया। मैं उसी दिन शाम के वक्त आनंदीलाल जी के घर चला गया। दरवाजा उन्होंने ही खोला। हल्की-सी मुस्कराहट के साथ उन्होंने मेरा स्वागत किया। हम दोनों आमने-सामने बैठ गए। काफी देर तक वे मुझे देखते रहे और मैं उन्हें। बीच-बीच में वे मामूली-सा मुस्करा भी देते। मौन-संभाषण जारी था। वे मुझे क्या चेताना चाह रहे थे, यह मैं आज जानना चाहता था। इस बीच मैंने महसूस किया कि वे बड़े सहज भाव से मेरी हर गतिविधि का अपनी अनुभवी नजरों से बड़ी गहराई के साथ अध्ययन कर रहे हैं। मुझे अपने मित्त-भाषी स्वभाव पर दया आई। आनंदीलाल जी अब भी संयत-भाव से मुझे तके जा रहे थे और मंद-मंद मुस्कराए जा रहे थे। तभी उनकी श्रीमती जी ने प्रवेश किया। पानी के दो गिलास हमारे सामने रखकर वह भीतर चली गई। जाते-जाते उसने अपने पति को कुछ इस तरह से घूर कर देखा मानो कह रही हो कि मुझे चाय बनाने के लिए मत कहना, मुझ में अब वह ताकत नहीं रही।

पानी पीकर गिलास को जैसे ही मैंने नीचे रखा, आनंदीलाल जी बोल पड़े-

'मन्दिर का मतलब मालूम है ?’

'मैं कुछ सकपकाया। अचानक ऐसा सवाल उन्होंने दे मारा था मुझ पर कि मैं सकते में आ गया। शब्दों को जमाते हुए मैंने कहा-

'जहाँ भगवान की मूर्ति रहती है, जहाँ भक्तजन पूजा-अर्चना करते हैं, वह पवित्र-स्थान मन्दिर कहलाता है।‘

'न-न, यह सही उत्तर नहीं है’ वे ऐसे बोले मानो मेरी प्रोफेसरी का बल निकालने पर तुले हुए हों ।

‘तो फिर ?’ मैंने पूछा।

'मन के अन्दर जो रहे, वह मन्दिर।‘ कहकर वे हल्का-सा हंस दिए।

मन्दिर की यह परिभाषा सुनकर मेरे विस्मय की सीमा नहीं रही। सचमुच, इस परिभाषा में दम था। वे एक बार फिर मुस्करा दिए मुझे देखकर, शायद यह सोचकर कि उन्होंने मुझे भिड़ते ही चित कर दिया था। मैंने पाया कि उनके चेहरे पर विजयोल्लास झलक रहा था। मेरी बेचैनी बढ़ गई। सोचने लगा कि यदि इन्होंने और कोई ऐसा ही निरुत्तर करने वाला प्रश्न ठोंक दिया तो मेरी प्रतिष्ठा खतरे में पड़ सकती है। मैंने विनत होकर पूछा-

'वह आप चेत जाने की बात कह रहे थे ना।‘

'हां-हां कह रहा था, मगर पहले मेरे एक और प्रश्न का जवाब दो।‘

मैं आनंदीलाल जी की तरफ जिज्ञासाभरी नजरों से देखने लगा। मुझे लगा कि वे इस वक्त सचमुच यक्ष बने हुए हैं।

'यह बताओ जीवन में गहन पछतावा कब होता है ?’

प्रश्न कोई कठिन नहीं था। मैंने तत्काल उत्तर दिया-

'गलत काम करने पर पछतावा होता है।‘

'नहीं, इस बार भी तुम सही जवाब नहीं दे सके।‘

'तो सही जवाब क्या है ?’ मैंने झुंझलाते हुए कहा।

उन्होंने लम्बी-गहरी सांस ली। इधर-उधर नजरें घुमाई और कहने लगे-

'ममता किसी से मत रखो, अपनी संतान से भी नहीं। नहीं तो बुढ़ापे में पछताओगे। मैं तो पछता रहा हूँ। तुम चेत जाओ।‘

आनंदीलाल जी अब इस संसार में नहीं रहे। उनकी धर्मपत्नी का भी पिछले महीने स्वर्गवास हो गया। मैंने आनंदीलाल जी के अतीत को जानने की कोशिश की तो मालूम पड़ा कि अपने समय के प्रतिष्ठित व्यापारियों में उनकी गणना थी। अपनी लगन और मेहनत से उन्होंने पुस्तक-प्रकाशन का कारोबार जमाया था। जब बच्चे बड़े हो गए तो उनको अपना कारोबार संभलाकर खुद चालीस वर्षों की थाकन को उतारने की गर्ज़ से घर पर रहने लगे। लड़कों की शादियाँ हुई, घर-गृहस्थी नए आयाम और नए विस्तार लेती गई। कारोबार भी फैलता गया और एक दिन नौबत यह आ गई कि कारोबार का बंटवारा हो गया। तीनों लड़के अलग हो गए और अलग-अलग रहने लगे। आनंदीलाल जी और उनकी पत्नी इस संसार में अकेले रह गए और उनके साथ रह गई उनके अतीत की यादें, जिन यादों को अपने सीने में संजोए जाने कितनी रातें उन्होंने करवटें बदल-बदल कर काटी होंगी, इसका अनुमान मैं अच्छी तरह लगा सकता हॅँ।

Monday, January 21, 2019



लगभग उन्नतीस साल हो गए हैं कश्मीरी पंडितों को बेघर हुए। इनके बेघर होने पर आज तक न तो कोई जांच-आयोग बैठा, न कोई स्टिंग आपरेशन हुआ और न संसद या संसद के बाहर इनकी त्रासद-स्थिति पर कोई सार्थक बहसबाजी ही हुई। इसके विपरीत ‘आजादी चाहने’ वाले अलगाववादियों और जिहादियों/जुनूनियों को सत्ता-पक्ष और मानवाधिकार के सरपरस्तों ने हमेशा सहानुभूति की नजर से देखा। पहले भी यही हो रहा था और आज भी यही हो रहा है। सर्वोच्च न्यायलय ने भी पंडितों की उस याचिका पर विचार करने से मना कर दिया जिस में पंडितों पर हुए अत्याचारों की जांच करने के लिए गुहार लगाई गयी थी। ऐसे में दिल के किसी कोने से यह आवाज़ निकलना स्वाभाविक है कि "काश, अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की तरह कश्मीरी पंडितों का भी अपना कोई वोट-बैंक होता तो आज स्थिति दूसरी होती!" लगभग उन्नतीस सालों के विस्थापन की पीड़ा से आक्रांत/बदहाल यह जाति धीरे-धीरे अपनी पहचान और अस्मिता खो रही है। कौन जानता है आने वाले समय में उपनामों को छोड़ इस जाति की अपनी कोई पहचान बाकी रहेगी भी या नहीं!

आज कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडित नहीं के बराबर हैं। अगर हैं भी तो वे किसी मजबूरी के मारे वहां पर रह रहे हैं और उनकी संख्या नगण्य है। वादी से खदेड़े जाने के बाद ये लोग शरणार्थी शिविरों (जम्मू और दिल्ली में) या फिर देश के दूसरे स्थानों पर रह रहे हैं। माना जाता है कि 3 लाख के करीब कश्मीरी पंडित जिहादियों के जोर-जब्र की वजह से घाटी से भागने पर विवश हुए। कभी साधन-सम्पन्न रहे ये हिंदू/पंडित आज सामान्य आवश्यकताओं के मोहताज हैं। उन्हें उस दिन का इंतज़ार है जब वे ससम्मान अपने घर वापस जा सकें।

केंद्र और राज्य सरकारें पंडितों को कश्मीर में बसाने और कश्मीर समस्या को सुलझाने के लिए भरसक प्रयत्न कर रही हैं। कोशिश यह की जा रही है कि विभिन्न पक्षों के बीच वार्ता-संवाद से कोई समाधान निकाला जाए। जैसा कि होता है, ऐसे उलझे हुए मामलों में प्राय: सत्तारूढ़ दल अपनी पूर्ववर्ती सरकार पर दोषारोपण करते हुए कहता है कि समस्या हम पर थोपी गई है। समय रहते अगर पूर्ववर्ती सरकारों ने कड़े कदम उठाए होते और जिहादी-अलगाववादी गतिविधियों पर लगाम कसी होती तो आज कश्मीर में हालात इतने बिगड़े हुए न होते। कहने की आवश्यकता नहीं कि कश्मीर में जब-जब सरकार बदलती है, लगभग यही आरोप सरकारें एक-दूसरे पर लगाती आई हैं। सत्ता में रहने या सत्ता हासिल करने के लिए ये आरोप-प्रत्यारोप कश्मीर की राजनीति का हिस्सा बन चुके हैं।

इसी तरह का एक आरोप 1990 में कश्मीर के हुक्मरानों ने गवर्नर जगमोहन पर लगाया था कि कश्मीर से पंडितों के विस्थापन में उनकी विशेष भूमिका रही है। हालांकि इस आक्षेप का न तो कोई प्रमाण था और न कोई दस्तावेज, मगर फिर भी इस आरोप को तब मीडिया ने खूब उछाला था। कहने का तात्पर्य यह है कि राजनीति में रहने के लिए, अपनी राजनीति चमकाने के लिए या फिर जैसे-तैसे खबरों में छाए रहने के लिए आरोप गढ़ना-मढ़ना अब हमारी राजनीति का चलन हो गया है। जिन्होंने जगमोहन की पुस्तक ‘माय फ्रोजेन टरबुलंस इन कश्मीर’ पढ़ी हो, वे बता सकते हैं कि कश्मीरी पंडित वादी से पलायन करने को क्यों मजबूर हुए थे। जगमोहन ने तो सीमित साधनों और विपरीत परिस्थितियों के चलते घाटी में विकराल रूप लेती आतंककारी घटनाओं को खूब रोकना चाहा था, मगर उस समय के स्थानीय प्रशासन और केंद्र की उदासीनता की वजह से स्थिति बिगड़ती चली गई थी। जब आतंकियों द्वारा निर्दोष पंडितों को मौत के घाट उतारने का सिलसिला बढ़ता चला गया तो जान बचाने का एक ही रास्ता रह गया था उनके पास और वह था घरबार छोड़कर भाग जाना।

दरअसल, किसी भी जाति के अस्तित्व के लिए तीन शर्तों का होना परमावश्यक है। पहली, उसका भौगोलिक आधार अर्थात उसकी अपनी सीमाएं, क्षेत्र या भूमि। दूसरी, उसकी सांस्कृतिक पहचान और तीसरी, अपनी भाषा और साहित्य। ये तीनों किसी भी ‘जाति’ के मूलभूत तत्त्व होते हैं। अमेरिका या इंग्लैंड में रह कर आप अपनी संस्कृति का गुणगान या संरक्षण तो कर सकते हैं, मगर वहां अपना भौगोलिक आधार तैयार नहीं कर सकते। यह आधार तैयार हो सकता है अपने ही देश में और ‘पनुन कश्मीर’ (अपना कश्मीर) की अवधारणा इस दिशा में उठाया गया सही कदम है। सारे विस्थापित/गैर-विस्थापित कश्मीरी पंडित जब एक ही जगह रहने लगेंगे तो भाषा की समस्या तो सुलझेगी ही, सदियों से चली आ रही कश्मीर की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा की भी रक्षा होगी। लगता तो यह एक दूर का सपना है, मगर क्या मालूम यह सपना कभी सच भी हो जाए।

शिबन कृष्ण रैणा 

अरावली विहार,अलवर 



Friday, January 18, 2019


कश्मीरी पंडितों का काला दिवस १९ जनवरी,१९९० 


कश्मीरी पंडितों के घाटी से जबरन विस्थापन के लगभग उन्नती वर्ष 19 जनवरी,2019 को पूरे हुए।इस बीच न 'पनुन कश्मीर'(अपना कश्मीर)की अवधारणा साकार हुई और न पंडितों की घरवापसी का सपना पूरा हो सका।पण्डितों को वापस घाटी में बसाने की सरकार की पहल भी कोई रंग नहीं लाई।बदहाली से जूझते,अपने ज़ख्मों को सहलाते तथा कर्मनिष्ठ बन इस देशभक्त कौम ने इन उन्नतीस वर्षों के दौरान दुनिया को दिखा दिया कि प्रभु उनकी मदद करते हैं जो अपनी मदद खुद करते हैं।कश्मीरी पंडितों के मुद्दे को मात्र वोटों के लिए भुनाने की बात आहिस्ताआहिस्ता साफ होती जा रही है।कश्यप ऋषि की संतानें विपरीत परिस्थितियों में जीना खूब जानती है।यही इस देशप्रेमी समुदाय का सम्बल और सहारा है। यहाँ पर इस बात को रेकांकित करना लाजिमी है कि जब तक कश्मीरी पंडितों की व्यथा-कथा को राष्ट्रीय स्तर पर उजागर नहीं किया जाता तब तक इस धर्म-परायण,कर्तव्यनिष्ठ और राष्टभक्त कौम की फरियाद को व्यापक समर्थन प्राप्त नहीं हो सकता।इस के लिए परमावश्यक है कि सरकार इस समुदाय के किसी जुझारू,कर्मनिष्ठ और सेवाभावी नेता को राज्यसभा में मनोनीत करे ताकि पंडितों के दुःखदर्द को देश तक पहुँचाने का उचित और प्रभावी माध्यम इस समुदाय को मिले।अन्य मंचों की तुलना में देश के सर्वोच्च मंच से उठाई गयी समस्याओं की तरफ जनता और सरकार का ध्यान तुरंत जाता है। 

यदि सरकार इस तरह का कोई निर्णय लेती है तो निश्चित ही कश्मीरी पंडित समुदाय की व्यथा-कथा को वाणी मिलेगी और पंडित समाज को लगेगा कि सरकार सच में उनकी हितैषी है और उनके दुखदर्द की पैरवी करने वाला कोई जुझारू नेता देश की सर्वोच्च अदालत/संसद में बैठा हुआ है।

शिबन कृष्ण रैणा