Saturday, September 15, 2018


14 सितम्बर को कश्मीरी-पंडित-समुदाय ने देश-विदेश में बलिदान-दिवस मनाया।जगह-जगह पंडितों की बीसियों प्रमुख सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक संस्थाओं ने जनसभाएं आयोजित कीं।जुलूस और कैंडल-मार्च निकाले। कवियों, गायक-कलाकारों आदि ने इस अवसर पर अपनी बिरादरी के सैंकड़ों शहीदों की स्मृति में हिंदी, कश्मीरी, उर्दू और अंग्रेज़ी कविताएँ पढ़ीं और गीत गाए।रंगकर्मियों ने लघु-लोकनाट्य मंचित किए। सड़कों पर नुक्कड़ नाटक खेले गये।शहीदों की याद में दो मिनट का मौन भी रखा गया।

समुदाय के नेताओं ने शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए कश्मीर के अलगाववादियों,जिहदियों,आतंकवादियों, छद्म बुद्धिजीवियों और मानवाधिकारवादियों और वर्तमान सरकार सहित तमाम राजनीतिक दलों के नेताओं को पंडितों के दुःख-दर्द की अनदेखी करने के लिए आड़े हाथों लिया। 

दरअसल, पंडित-समुदाय की अपनी कुछ सीमाएं हैं। काश गुर्जरों,जाटों,राजपूतों आदि की तरह कश्मीरी पंडितों का भी अपना एक अलग वोट-बैंक होता! तब शायद ये हर साल के शोक दिवस,बलिदान दिवस आदि इस समुदाय को मनाने न पड़ते।भावनाओं को उद्वेलित कर पंडितों के विस्थापन का मुद्दा वोट-प्राप्ति के लिए एक अच्छा जुगाड़ है अन्यथा न पहले वाली सरकार को और न ही वर्तमान सरकार को पंडितों की कोई खास फिक्र है।इधर, विस्थापन ने पंडितों को छितरा दिया,वोट-शक्ति भी कमज़ोर कर दी।ये लोग बिखर गए,चाहे किसी भी वजह से।आज़ादी चाहने वाले वही जमे हुए हैं, अपनी ज़मीन को मजबूती से थामे हुए।संख्याबल भी उनके साथ है।इसलिए कोई भी सरकार उनका कुछ बिगाड़ नहीं पा रही।







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