Friday, September 9, 2022





हिंदी-दिवस (१४ सितम्बर,२२)पर विशेष

हिंदी को ज़रूरत से जोड़ना ज़रूरी

डा० शिबन कृष्ण रैणा

विगत सत्तर-बहत्तर वर्षों से हम हर साल हिंदी दिवस 14 सितंबर को बड़े उत्साह और उमंग से मनाते आ रहे हैं। समय आ गया है अब हम इस बात पर विचार करें कि इन वर्षों के दौरान हिंदी ने अपने स्वरूप और आधार को कितना समृद्ध किया है? अगर नहीं किया है तो उसके क्या कारण हैं?

भाषण देने, बाज़ार से सौदा-सुलफ खरीदने या फिर फिल्म/सीरियल देखने के लिए हिंदी ठीक है, मगर कौन नहीं जानता कि वैश्वीकरण के इस दौर में अच्छी नौकरियों के लिए या फिर उच्च अध्ययन के लिए अब भी अंग्रेजी का दबदबा बना हुआ है। इस दबदबे से कैसे मुक्त हुआ जाए? निकट भविष्य में आयोजित होने वाले हिंदी-आयोजनों के दौरान इस मुद्दे पर भावुक हुए बिन वस्तुपरक तरीके से विचार-मंथन होना चाहिए। निजी क्षेत्र के संस्थानों अथवा प्रतिष्ठानों में हिंदी की स्थिति शोचनीय बनी हुई है और मात्र कमाने के लिए इस भाषा का वहां पर ‘दोहन' किया जा रहा है। इस प्रश्न का उत्तर भी हमें निष्पक्ष होकर तलाशना होगा।

यों देखा जाए तो हिंदी-प्रेम का मतलब हिंदी विद्वानों,लेखकों,कवियों आदि की जमात तैयार करना कदापि नहीं है। हिंदी-प्रेम का मतलब है हिंदी के माध्यम से रोज़गार के अच्छे अवसर तलाशना, उसे उच्च-अध्ययन ख़ास तौर पर विज्ञान और टेक्नोलॉजी की पढ़ाई के लिए एक कारगर माध्यम बनाना और उसे देश की अस्मिता व प्रतिष्ठा का सूचक बनाना। कितने दुःख की बात है कि हिंदी दिवस तो पसरते जाते हैं, मगर खुद हिंदी सिकुड़ती जा रही है। कहने को तो आज इस देश में हिंदी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त है किन्तु स्थिति भिन्न है। चाहे विश्विद्यालयों या लोकसेवा आयोगों के प्रश्न-पत्र हों, या फिर सरकारी चिट्ठी-पत्री, मोटे तौर पर राज-काज की मूल प्रामाणिक भाषा अंग्रेजी ही है।

दरअसल, जिस रफ्तार से हिंदी के विकास-विस्तार हेतु सरकारी या गैर सरकारी संस्थाएं कार्यरत हैं, उससे दुगनी रफ्तार से अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। खास तौर पर अच्छा रोजगार दिलाने के मामले में हिंदी अभी सक्षम नहीं बन पाई है। हमारी नई पीढ़ी का अंग्रेजी की ओर प्रवृत्त होने का एक प्रमुख कारण यह भी है कि हिंदी में उच्च ज्ञान-विज्ञान को समेटने वाला साहित्य बिल्कुल भी नहीं है। अगर अनुवाद के जरिए कुछ आया भी हो तो वह एकदम बेहूदा और बोझिल है।जब तक अपनी भाषा में हम मौलिक चिंतन नहीं करेंगे और हिंदी में मौलिक पुस्तकें नहीं लिखी जाएंगी, तब तक अंग्रेजी के ही मुहताज रहेंगे। आज भी संघ लोक सेवा आयोग या फिर हिंदी क्षेत्रों के विश्वविद्यालयों के प्रश्नपत्र अंग्रेजी में बनते हैं और उनके अनुवाद हिंदी में होते हैं।पाद-टिप्पणी में साफ लिखा रहता है कि विवाद की स्थिति में अंग्रेजी पाठ को ही सही मान लिया जाए। यानी हिंदी विद्वानों का देश में टोटा पड़ गया है जो उनसे प्रश्नपत्र नहीं बनवाए जाते! विज्ञान अथवा तकनोलॉजी से जुड़े विषयों की बात तो समझ में आती है, मगर कला और मानविकी से जुड़े विषयों के प्रश्नपत्र तो मूल रूप से हिंदी में बन ही सकते हैं।कुलमिलाकर हिंदी को जब तक सीधे-सीधे 'जरूरत' से नहीं जोड़ा जाता, तब तक अंग्रेजी की तरह उसका वर्चस्व और वैभव बढ़ेगा नहीं।

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