Thursday, January 9, 2025



  • कश्मीर और कश्मीरी पंडित

  • कश्मीर को कश्मीरी भाषा में ‘कशीर’ तथा इस भाषा को ‘का’शुर’ कहते हैं।‘कश्मीर’ शब्द के कशमीर,काश्मीर,काशमीर आदि पर्यायवाची भी मिलते हैं। इन में से सवार्धिक प्रचलित शब्द कश्मीर ही है।माना जाता है कि कश्मीर का नाम कश्यप ऋषि के नाम पर पहले तो ‘कश्यपमर’ या ‘कश्यपपुर’ पड़ा जिसका अपभ्रंश बाद में ‘कश्मीर’ हुआ. सहस्रों वर्ष पूर्व सतीसर नाम से विख्यात यह सारा भूभाग पूर्णतया जलमग्न था जिस में जलदभू नाम का एक विशाल दैत्य रहता था. इस दैत्य ने अखण्ड तपस्या द्वारा ब्रह्मा से तीन वरदान प्राप्त कर लिये थे:जल से अमरत्व,अतुलनीय विक्रम तथा मायाशक्ति की प्राप्ति।यह दैत्य इन वरदानों को प्राप्तकर निरंकुश हो गया था और तत्कालीन जनता को,जो आसपास की पहाड़ियों पर रहती थी,संत्रस्त करने लगा।उस पापी के आतंक से सारा भूभाग एक तरह से जनशून्य हो गया था। एक बार बह्मापुत्र कश्यप ने इस भू-भाग की यात्रा की। यहां की दुरवस्था का जब उन्होंने लोगों से कारण पूछा तो उन्होंने जलद्भू दैत्य का सारा वृत्तान्त सुनाया जिसे सुनकर कश्यप का हृदय दयार्द्र हो उठा।उन्होंने तुरन्त इस भूखण्ड का उद्धार करने का निश्चय कर लिया। वे हरिपुर के निकट नौबन्धन में रहने लगे तथा यहां पर उन्होंने एक सहस्र वर्षों तक महादेव की तपस्या की।महादेव कश्यप की तपस्या से प्रसन्न हो गये तथा उन्होंने जलद्भू दैत्य का अन्त करने की प्रार्थना स्वीकार कर ली। महादेव ने दैत्य का अन्त करने के लिए विष्णु और ब्रह्मा की भी सहायता ली।ऐसा माना जाता है कि विष्णु और दैत्य के बीच सैकंडों वर्षों तक युद्ध चलता रहा।

  • विष्णु ने जब देखा कि दैत्य जल और पंक में रहकर अपनी रक्षा करता है तो उन्होंने वराहमूला (आधुनिक बारामूला) के समीप जल का निकास कराया।जल के निकलते ही दैत्य दृष्टिगोचर होने लगा।दैत्य को पकड़कर उसका अन्त कर दिया गया।चूंकि यह सत्कार्य कश्यप की कृपा से संपन्न हुआ था इसलिए ‘कशिपसर’,‘कश्यपुर,’‘कश्यपमर’आदि नामों से यह घाटी प्रसिद्ध हो गई। एक अन्य मत के अनुसार कश्मीर ‘क’ व ‘समीर’ के योग से बना है।‘क’ का अर्थ है जल और ‘समीर’ का अर्थ है हवा।जलवायु की श्रेष्ठता के कारण यह घाटी ‘कसमीर’ कहलायी और बाद में ‘कसमीर’ से कश्मीर शब्द बन गया।एक अन्य विद्वान के अनुसार कश्मीर ‘कस’ और ‘मीर’ शब्दों के योग से बना है।‘कस’ का अर्थ है स्रोत तथा ‘मीर’ का अर्थ है पर्वत।चूंकि यह घाटी चारों ओर से पर्वतों से घिरी हुई है तथा यहां स्रोतों की अधिकता है, इसलिए इसका नाम कश्मीर पड़ गया.उक्त सभी मतों में से कश्यप ऋषि से सम्बन्धित मत अधिक समीचीन एवं व्यावहारिक लगता है।

  • कश्मीर, जिसे ‘रेश्यवा’र’ यानी देवभूमि भी कहा जाता है,प्राचीनकाल से विद्या-बुद्धि, धर्म-दर्शन तथा साहित्य-संस्कृति का प्रधान केन्द्र रहा है। यहां की अद्भुत एवं समृद्ध दार्शनिक और सांस्कृतिक परंपरा/धरोहर के दर्शन हमें इस भू-भाग में आविर्भूत अनेक साधु-संतों,सूफियों,मस्त-मलंगों,तपीश्वरों,जोगियों वीतरागियों, सिद्ध-पुरुषों,पंडितों,विद्यावानों आदि के रूप में हो जातें है।राजतरंगिणीकार कल्हण,कश्मीर शैवदर्शन के परम विद्वान महापंडित अभिनवगुप्त,बौद्ध-दर्शन के मींमासक नागसेन,उद्भट काव्यशास्त्री भामह, आनन्दवर्धनाचार्य, मम्मटाचार्य,रुद्रट, जयन्त भट्ट, भट्ट नायक, कुन्तक,क्षेमेन्द्र आदि के नाम इस संबंध में बड़े गर्व और आदर के साथ लिये जा सकते हैं।

  • मुझ से मित्र अक्सर पूछते हैं कि कश्मीरी-पंडित के बदले कश्मीरी-हिन्दू प्रचलन में क्यों नहीं है?पंडित या हिन्दू में कोई तात्विक अंतर है क्या?--मित्रों की शंका का समाधान संभवतः अधोलिखित बात से हो सकता है।
  • प्रसंगवश एक बात याद आ रही है। अपने नाम के आगे जवाहरलाल नेहरू भी पंडित लगाते थे और दीनदयाल उपाध्याय भी पंडित लगाते थे।
  • कश्मीर ने अपनी विकास-यात्रा के दौरान कई मंज़िलें तय की हैं।प्राचीनकाल से ही यह भूखंड विद्या-बुद्धि,धर्म-दर्शन और साहित्य-संस्कृति का प्रधान केंद्र रहा है।इसे ''रेश्य-वा’र” या संतों की भूमि भी कहा जाता है।यहाँ के मूल निवासी कश्मीरी पंडित कहलाते हैं। प्रारम्भ से ही कश्मीर भूमि उद्भट विद्वानों और मनीषियों की भूमि रही है।कश्मीर को ‘शारदा देश’ के नाम से भी पुकारा जाता है। शारदा देश यानी माता सरस्वती का निवास स्थान। कहते हैं कि ज्ञानकी देवी सरस्वती ने अपने रहने के लिए जो स्थान पसंद किया, वह कश्मीर है।अत: कश्मीर का नाम शारदा-देश भी है ।तभी विद्याप्रेमी हिंदूजन प्रायः प्रतिदिन शारदा देवी के श्लोक का पठन करते समय कहते हैं: “नमस्ते शारदे देवी काश्मीरपुरवासिनि
  • त्वामहं प्रार्थये नित्यं विद्यादानं च देहि मे।“ (अर्थ: हे कश्मीर-वासिनी सरस्वती देवी! आपको मेरा प्रणाम । आप हमें ज्ञान दें, यह मेरी आपसे नित्य प्रार्थना है।)
  • इस उक्ति से सहज ही समझा जा सकता है कि कश्मीर में कितने विद्वानों का प्रादुर्भाव हुआ होगा! ऋषियों, मुनियों, मठों-मन्दिरों, विद्यापीठों और आध्यात्मिक केन्द्रों की इस भूमि ने एक-से-बढ़कर एक विद्वान उत्पन्न किए हैं। ये सब विद्वान पंडित कहलाए। ज्ञान रखने वाला और बाँटने वाला ‘पंडित’ कहलाता है। अतः ज्ञान की भूमि कश्मीर की जातीय पहचान ही ‘पंडित’ नाम से प्रसिद्ध हो गई। ‘कश्मीरी’ और ‘पंडित’ दोनों एकाकार होकर समानार्थी बन गए।कहना न होगा कि प्राचीनकाल में कश्मीर में जिस भी धर्म,जाति,प्रजाति या संप्रदाय के लोग रहे होंगे, कालांतर में कश्मीरी हिन्दू अथवा पंडित ही धरती का स्वर्ग कहलाने वाले इस भूभाग के मूल निवासी कहलाये।

  • कश्मीर प्रचीनकाल से ही विद्या-बुद्धि और धर्म-दर्शन का प्रधान केंद्र रहा है।यह पवित्र-भूमि संतों,ऋषियों,मुनियों आदि की कर्मभूमि रही है।तभी कश्मीर घाटी को ‘रेश्य-व’आर’ यानी ऋषियों की वाटिका भी कहा जाता है।इतिहास साक्षी है कि इस सुरम्य घाटी से समय-समय पर ऐसे ज्ञान-पिपासु मनीषी,दार्शनिक और संत-साधू अवतरित हुए हैं जिन पर कश्मीर-वासियों को ही नहीं,समूचे भारत-वर्ष को गर्व है।संतों और दार्शनिकों की इस परम्परा में शिखर-पुरुष के रूप में सर्वप्रथम आचार्य अभिनव गुप्त(दसवीं शाताब्दी)का नाम सामने आता है।शैव-दर्शन और काव्य-दर्शन के वे अप्रतिम विद्वान और मीमांसक ही नहीं, एक उच्चकोटि के तत्वचिंतक भी थे।वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। कश्मीर-वासी इस उद्भट विद्वान आचार्य अभिनव गुप्त की सहस्राब्दी समूचे देश में वर्ष २०१६ में मनायी गई थी।काव्यशास्त्र की अनुपम कृति 'ध्वन्यालोक' पर इनकी टीका 'ध्वन्यालोक-लोचन' तथा भरत मुनि के 'नाट्यशास्त्र' की टीका 'अभिनवभारती' इनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं।
  • अभिनव गुप्त की यह साधना-पद्धति आगे चलकर सत्रहवीं शताब्दी तक अवरुद्ध-सी रही।संभवतः विदेशी मुस्लिम-आक्रान्ताओं के आक्रमणों के कारण,जिनकी विधर्मी विचार-धारा के प्रचार-प्रसार-स्वरूप हिन्दू धर्म-दर्शन और संस्कृति की खूब क्षति हुयी।अपवाद के तौर पर योगिनी ललद्यद(१४ वीं शती)का नाम ज़रूर सामने आता है जो कश्मीरी की आदि-कवयित्री भी कहलाती हैं।सत्रहवीं शताब्दी के बाद एक बार फिर कश्मीर की संत-परम्परा ने गति पकड़ी और कई संत-सुजान(स्त्री-पुरुष) इस ऋषि-भूमि/वाटिका में अवतरित हुए।सूची लम्बी है,अतः कतिपय विख्यात दिव्य-विभूतियों का नामोल्ल्र्ख करना ही उचित होगा।ये नाम इस तरह से हैं: माता रूप-भवानी,ज़यद्यद, र’अच द्यद, स्वामी परमानंद, स्वामी कशकाक, प्रकाशराम,स्वामी लक्ष्मणजू ,पीर-पंडित पादशाह,स्वामी नन्द बब, स्वामी आफ़ताब जू वांगनू, किश बब, आनंद बब, रघुनाथ किकलू, सिद्ध बब(मोल), मिर्ज़काक, ग्रटअ बब, भगवान् गोपीनाथजी,स्वामी जीवन साहिब(मोतीयार रैनावारी),स्वामी नीलकंठजी आदि-आदि।इन सभी महापुरुषों ने कश्मीर की संत/भक्ति-परंपरा को खूब विकसित और समृद्ध किया है तथा अपनी अलौकिक शक्तियों से जनमानस को विलोड़ित किया है।पीड़ितों के दुःख-दर्द का निवारण करने हेतु ही संभवतः इन पूतात्माओं का इस धरती पर अवतरण हुआ।

  • माना जाता है कि पंडित कश्मीर के मूल निवासी हैं और सदियों से धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले इस भू-भाग में अपने रीति-रिवाजों का पालन करते हुए रहते आ रहा हैं। मध्यकाल में कश्मीर में बढ़ते हुए क्रूर और हिंसक इस्लामीकरण की वजह से इस शांतिप्रिय जातीय-समुदाय को कई बार कश्मीर घाटी से विस्थापित होना पड़ा ।मन जाता है कि कश्मीर घाटी से पंडितों का विस्थापन सात बार हुआ है। पहला विस्थापन १३८९ ई० के आसपास हुआ जब घाटी में विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा बलपूर्वक इस्लामीकरण के परिणामस्वरूप हजारों की संख्या में पंडित या तो हताहत हुए या फिर अपनी जान बचाने के लिए भाग खड़े हुए। इस बीच अलग-अलग कालावधियों में पाँच बार और पंडितों का घाटी से निष्कासन हुआ। सातवीं और आखिरी बार पंडितों का विस्थापन १९९० में हुआ।

  • 19 जनवरी 1990 का दिन कश्मीरी पंडितों के वर्तमान इतिहास-खंड में काले अक्षरों में लिखा जायेगा। यह वह दिन है जब पाक समर्थित जिहादियों द्वारा कश्यप-भूमि की संतानों (कश्मीरी पंडितों) को अपनी धरती से बड़ी बेरहमी से बेदखल कर दिया गया था और धरती के स्वर्ग में रहने वाला यह शांतिप्रिय समुदाय दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर हुआ था।यह वही काली तारीख है जब लाखों कश्मीरी पंडितों को अपनी जन्मभूमि, कर्मभूमि, अपने घर आदि हमेशा के लिए छोड़ कर अपने ही देश में शरणार्थी बनना पड़ा था।

  • पंडितों के विस्थापन का यह सिलसिला कब से और कैसे प्रारंभ हुआ? इस पर तनिक एक नजर डालने की ज़रूरत है। खूब मिलजुलकर रहने वाली दोनों कौमों यानी हिन्दुओं(पंडितों) और मुसलमानों के बीच नफरत के बीज किसने और क्यों बोये? इसका उत्तर सीधा-सा है : विश्व में बढ़ते इस्लामीकरण की फैलती आग का मुस्लिम-बहुल कश्मीर पहुँच जाना और इस खूबसूरत वादी का इसकी चपेट में आजाना। कौन नहीं जानता कि कश्मीर से पंडितों के पलायन के पीछे पृथकतावादी (जिहादी संगठन) हिजबुल मुजाहिदीन की कुत्सित और भडकाऊ नीति ज़िम्मेदार रही है।

  • कहा जाता है कि 4 जनवरी 1990 को इस संगठन ने एक प्रेस नोट जारी किया जिसे कश्मीर के उर्दू समाचारपत्रों ‘आफताब’ और ‘अल सफा’ ने प्रमुखता के साथ छापा। प्रेस नोट में हिंदुओं को कश्मीर छोड़ कर घाटी से चले जाने का आदेश दिया गया था।कश्मीरी पंडितों की चुन-चुन कर खुले आम हत्याएँ की गयीं। कश्मीर दूरदर्शन के निदेशक लसा कौल, राजनीतिक कार्यकर्त्ता टीकालाल टप्लू, नर्स सरला भट्ट, जज नीलकंठ गुर्टू, साहित्यकार सर्वानन्द प्रेमी, केन्द्रीय कर्मचारी बाल कृष्ण गंजू आदि दर्जनों बेकसूर कश्मीरी पंडितों को मौत के घाट उतारा गया। कश्मीर की प्रमुख मस्जिदों के लाउडस्पीकर जिनसे अब तक केवल अल्लाह-ओ-अकबर की आवाजें आती थीं, अब भारत की ही धरती पर हिंदुओं से चीख-चीख कर कहने लगे कि कश्मीर छोड़ कर चले जाओ और अपनी बहू-बेटियाँ हमारे लिए छोड़ जाओ। कश्मीर में रहना है तो अल्लाह-अकबर कहना है, “असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान” (हमें पाकिस्तान चाहिए. पंडितों के बगैर किन्तु पंडित-महिलाओं समेत।)और तो और जगह-जगह दीवारों पर पोस्टर चिपकाये गये कि सभी लोग कश्मीर में इस्लामी वेश-भूषा पहनें, कश्मीरी पंडित-महिलाएं बिंदी का प्रयोग न करें, सिनेमाघरों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया, कश्मीरी हिंदुओं की दुकानें, मकान और व्यापारिक प्रतिष्ठान चिन्हित कर दिए गए ताकि इन्हें बाद में लूटा जा सके या इनपर कब्जा किया जा सके आदि-आदि। यहाँ तक कि घड़ियों का समय भी भारतीय समय से बदल कर पाकिस्तानी समय के अनुरूप करने का फतवा जारी किया गया। 24 घंटे में कश्मीर छोड़ दो या फिर मरने के लिए तैयार हो जाओ, काफिरों को क़त्ल करो आदि नारे और सन्देश कश्मीर की फिजाओं में गूँजने लगे। इस्लामिक दमन का घिनौना रूप जिसे भारत सदियों तक झेलने के बाद भी मिल-जुल कर रहने के लिए भुला चुका था, एक बार फिर अपना विकराल रूप धारण करने लगा था। प्रशासन ठप्प पड़ा था या मूक दर्शक बनकर अपनी लाचारी का मातम मना रहा था। हुकुमरान सुरक्षा कवच में थे या फिर घाटी छोड़ कर भाग खड़े हुए थे। चारों तरफ अराजकता और बद-अमनी का माहौल व्याप्त था।

  • आज कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडित बिलकुल भी नहीं। अगर हैं भी तो वे किसी मजबूरी के मारे वहां पर रह रहे हैं और उनकी संख्या नगण्य है। वादी से खदेड़े जाने के बाद ये लोग शरणार्थी शिविरों (जम्मू और दिल्ली में) या फिर देश के दूसरे स्थानों पर रह रहे हैं। माना जाता है कि 3 लाख के करीब कश्मीरी पंडित जिहादियों के जोर-जब्र की वजह से घाटी से भागने पर विवश हुए।कभी साधनसम्पन्न रहे ये हिंदू/पंडित आज सामान्य आवश्यकताओं के मोहताज हैं. उन्हें उस दिन का इंतज़ार है जब वे ससम्मान अपनी धरती पर वापस जा सकेंगे।

  • केंद्र और राज्य सरकारें पंडितों को कश्मीर में बसाने और कश्मीर समस्या को सुलझाने के लिए भरसक प्रयत्न कर रही हैं। कोशिश यह की जा रही है कि विभिन्न पक्षों के बीच वार्ता-संवाद से कोई समाधान निकाला जाए। जैसा कि होता है, ऐसे उलझे हुए मामलों में प्राय: सत्तारूढ़ दल अपनी पूर्ववर्ती सरकार पर दोषारोपण करते हुए कहता है कि समस्या हम पर थोपी गई है। समय रहते अगर पूर्ववर्ती सरकारों ने कड़े कदम उठाए होते और जिहादी-अलगाववादी गतिविधियों पर लगाम कसी होती तो आज कश्मीर में हालात इतने बिगड़े हुए न होते। कहने की आवश्यकता नहीं कि कश्मीर में जब-जब सरकार बदलती है, लगभग यही आरोप सरकारें एक-दूसरे पर लगाती आई हैं। सत्ता में रहने या सत्ता हासिल करने के लिए ये आरोप-प्रत्यारोप कश्मीर की राजनीति का हिस्सा बन चुके हैं।

  • इसी तरह का एक आरोप 1990 में कश्मीर के हुक्मरानों ने गवर्नर जगमोहन पर लगाया था कि कश्मीर से पंडितों के विस्थापन में उनकी विशेष भूमिका रही है। हालांकि इस आक्षेप का न तो कोई प्रमाण था और न कोई दस्तावेज, मगर फिर भी इस आरोप को तब मीडिया ने खूब उछाला था। कहने का तात्पर्य यह है कि राजनीति में रहने के लिए, अपनी राजनीति चमकाने के लिए या फिर जैसे-तैसे खबरों में छाए रहने के लिए आरोप गढ़ना-मढ़ना अब हमारी राजनीति का चलन हो गया है। जिन्होंने जगमोहन की पुस्तक ‘माय फ्रोजेन टरबुलंस इन कश्मीर’ पढ़ी हो, वे बता सकते हैं कि कश्मीरी पंडित वादी से पलायन करने को क्यों मजबूर हुए थे। जगमोहन ने तो सीमित साधनों और विपरीत परिस्थितियों के चलते घाटी में विकराल रूप लेती आतंककारी घटनाओं को खूब रोकना चाहा था, मगर उस समय के स्थानीय प्रशासन और केंद्र की उदासीनता की वजह से स्थिति बिगड़ती चली गई थी। जब आतंकियों द्वारा निर्दोष पंडितों को मौत के घाट उतारने का सिलसिला बढ़ता चला गया तो जान बचाने का एक ही रास्ता रह गया था उनके पास और वह था घरबार छोड़कर भाग जाना।

  • लगभग पैंतीस साल हो गए हैं पंडितों को बेघर हुए। इनके बेघर होने पर आज तक न तो कोई जांच-आयोग बैठा, न कोई स्टिंग आपरेशन हुआ और न संसद या संसद के बाहर इनकी त्रासद-स्थिति पर कोई बहसबाजी ही हुई। इसके विपरीत ‘आजादी चाहने’ वाले अलगाववादियों और जिहादियों/जुनूनियों को सत्ता-पक्ष और मानवाधिकार के सरपरस्तों ने हमेशा सहानुभूति की नजर से देखा है। पहले भी यही हो रहा था और आज भी यही हो रहा है। उच्च न्यायलय ने भी पंडितों की उस याचिका पर विचार करने से मना कर दिया जिस में पंडितों पर हुए अत्याचारों की जांच करने के लिए गुहार लगाई गयी थी।

  • कहना पड़ेगा कि काश, अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की तरह कश्मीरी पंडितों का भी अपना कोई वोट-बैंक होता तो आज स्थिति दूसरी होती!पैंतीस साल के विस्थापन की पीड़ा से आक्रांत/ बदहाल यह जाति धीरे-धीरे अपनी पहचान और अस्मिता खो रही है। एक समय वह भी आएगा जब उपनामों को छोड़ इस जाति की कोई पहचान बाकी नहीं रहेगी। दरअसल, किसी भी जाति के अस्तित्व के लिए तीन शर्तों का होना परमावश्यक है। पहली, उसका भौगोलिक आधार अर्थात उसकी अपनी सीमाएं, क्षेत्र या भूमि। दूसरी, उसकी सांस्कृतिक पहचान और तीसरी, अपनी भाषा और साहित्य। ये तीनों किसी भी ‘जाति’ के मूलभूत तत्त्व होते हैं।अमेरिका या इंग्लैंड में रह कर आप अपनी संस्कृति का गुणगान या संरक्षण तो कर सकते हैं, मगर वहां अपना भौगोलिक आधार तैयार नहीं कर सकते। यह आधार तैयार हो सकता है अपने ही देश में और ‘पनुन कश्मीर’ (अपना कश्मीर) की अवधारणा इस दिशा में उठाया गया सही कदम है। सारे विस्थापित/ गैर-विस्थापित कश्मीरी पंडित जब एक ही जगह रहने लगेंगे तो भाषा की समस्या तो सुलझेगी ही, सदियों से चली आ रही कश्मीर की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा की भी रक्षा होगी। लगता तो यह एक दूर का सपना है, मगर क्या मालूम यह सपना कभी सच भी हो जाए! 00000

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