Wednesday, August 24, 2016


कश्मीर का सच 

कश्मीर का मामला इन दिनों तूल पकड़ रहा है,ख़ास तौर पर जब से कुख्यात आतंकी बुरहान वानी को सुरक्षा बलों द्वारा मार गिराया गया।एक महीने से भी ज्यादा हो गया है और कश्मीर अभी भी अशांत बना हुआ है।केंद्र और राज्य सरकारें दोनों स्थिति को सामान्य बनाने हेतु भरसक यत्न कर रही हैं।कोशिश यह की जा रही है कि विभिन्न पक्षों के बीच वार्ता द्वारा कोई समाधान निकाला जाए।जैसा कि होता है ऐसे उलझे हुए मामलों में प्रायः सत्तारूढ़ दल अपनी पूर्ववर्ती सरकार पर दोषारोपण करते हुए कहता है कि समस्या हम पर थोपी गयी है।समय रहते अगर पुरानी सरकार ने कड़े कदम उठाए होते और जिहादी-अलगाववादी गतिविधियों पर लगाम कसी होती तो आज कश्मीर में हालात इतने बिगड़े हुए न होते।कहने की आवश्यकता नहीं कि कश्मीर में जब-जब सरकार बदलती है, लगभग यही आरोप सरकारें एक-दूसरे पर लगाती आयी हैं।सत्ता में रहने या सत्ता हासिल करने के लिए ये आरोप-प्रत्यारोप कश्मीर की राजनीति का हिस्सा बन चुके हैं।

इसी तरह का एक आरोप १९९० में कश्मीर के हुक्मरानों द्वारा गवर्नर श्री जगमोहन पर लगाया गया था कि कश्मीर से पंडितों के विस्थापन में श्रीजगमोहन की विशेष भूमिका रही है।हालाँकि इस आक्षेप का न तो कोई प्रमाण था और न कोई दस्तावेज़, मगर फिर भी इस आरोप को तब मीडिया ने खूब उछाला था। कहने का तात्पर्य यह है कि राजनीति में रहने के लिए,अपनी राजनीति चमकाने के लिए या फिर जैसे-तैसे खबरों में छाये रहने के लिए आरोप गढना-मढ़ना अब हमारी राजनीति का चलन हो गया है।जिन्होंने जगमोहन की पुस्तक“माय फ्रोजेन टरबुलंस इन कश्मीर” पढ़ी हो,वे बता सकते हैं कि पंडित वादी से पलायन करने को क्यों मजबूर हुए थे? जगमोहन ने तो सीमित साधनों और विपरीत परिस्थितियों के चलते घाटी में विकराल रूप लेती आतंककारी घटनाओं को खूब रोकना चाहा था, मगर उस समय के स्थानीय प्रशसन और केंद्र की उदासीनता की वजह से स्थिति बिगडती चली गयी थी।जब आतंकियों द्वारा निर्दोष पंडितों को मौत के घाट उतारने का सिलसिला बढ़ता चला गया तो जान बचाने का एक ही रास्ता रह गया था उनके पास और वह था घरबार छोड़कर भाग जाना।

लगभग छब्बीस साल हो गये हैं पंडितों को बेघर हुए ।इनके बेघर होने पर आज तक न तो कोई जांच-आयोग ही बैठा,न कोई स्टिंग ऑपरेशन ही हुआ और न ही संसद में या संसद के बाहर इनकी त्रासद-स्थिति पर कोई बहसबाज़ी ही हुयी।इसके विपरीत ‘आज़ादी चाहने’ वाले अलगाववादियों और जिहादियों/जुनूनियों को सत्ता-पक्ष और मानवाधिकार के सरपरस्तों ने हमेशा सहानुभूति की नजर से ही देखा।पहले भी यही हो रहा था और आज भी यही हो रहा है। काश,अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की तरह कश्मीरी पंडितों का भी अपना कोई वोट-बैंक होता, तो आज स्थिति दूसरी होती!
इधर, सुनने में यह भी आया है कि जो सरकार अलगाववादियों से किसी भी हालत में वार्ता करने कों तैयार नहीं थी, वह अब दबाव में आ गयी है और वाजपेयीजी के ‘इंसानियत, कश्मीरियत और जमहूरियत’ वाले सूत्र से प्रेरणा लेकर बढ़ते दबाव के मद्देनजर विपक्ष के साथ-साथ अलगाववादियों आदि के साथ भी वार्ता करने कों तैयार हो गयी है हालांकि इस सूत्र में ‘आज़ादियत’ और ‘पाकिस्तानियत’ को भी जोड़ने की मांग उठ रही है! 

शिबन कृष्ण रैणा
अलवर 







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