Tuesday, June 13, 2017

हिन्दी का अखिल भारतीय स्वरूप 



मित्रों, १४ सितम्बर को यानि आज के दिन प्रति वर्ष हम लोग हिन्दी दिवस मनाते हैं, जगह-जगह गोष्ठियां होती हैं, हिन्दंी सप्ताह और पखवाडे मनाये जाते हैं आदि-आदि। अहिन्दी प्रदेशों में जिस उत्साह के साथ इस दिवस को मनाया जाता है, उसी उत्साह के साथ हिन्दी प्रदेशों में भी इस दिवस को मनाया जाता है। लगभग ५० वर्ष हो गये हमें इस प्रकार की संगोष्ठियां करते-करते तथा इस तरह की चर्चाएं करते-करते। मेरी हार्दिक कामना है कि वह दिन जल्दी आ जाए जब हमें इस तरह के कार्यक्रम व आयोजन न करने पडंें। मेरा मन सचमुच भारी जो जाता है जब मैं इस बात की कल्पना करने लगता हूुं कि जाने और कितने वर्षों तक हमें हिन्दी के लिए दिवस, सप्ताह और पखवाडे मनाने होंगे। कब तक हमें हिन्दी को उसका सम्मान और उचित स्थान दिलाने के लिए इन्तजार करना होगा, कब तक स्वाधीन भारत में विदेशी भाषा के आतंक को झेलना होगा आदि-आदि ऐसे कुछ प्रश्न जिन पर आज इस संगोठी में हमें विचार करना होगा।

दोस्तो, स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद हमारे देश के नेताओं, विचारकों और हित-चिंतकों ने एक सपना देखा था कि एक राष्ट््रगीत, एक राष्ट्र्ध्वज आदि की तरह ही इस देश की एक राष्ट््रभाषा हो ! संविधान-निर्माताओं ने हिन्दी को राष्ट््रभाषा का दर्जा भी दिया। मगर हम सभी जानते हैं कि यह सब होते हुए भी, ५०वर्ष बीत जाने के बाद भी, हिन्दी को अभी तक अखिल भारतीय भाषा, जिसे हम कभी-कभी सम्पर्क-भाषा भी कहते हैं, का दर्जा प्राप्त नहीं हुआ है और इसके लिए उसे बराबर संघर्ष करना पड रहा है। इस गतिरोध का आखिर कारण क्या है? क्या भारत की जनता को 'एक भाषा, एक राष्ट्र्` वाली बात में अब कोई दिलचस्पी नहीं रही, क्या सरकार या व्यवस्था की नज़र में राष्ट््रभाषा की अस्मिता का प्रश्न महज फाईलोंे तक सीमित रह गया है, क्या हमारे हिन्दी प्रेमियों एवं हिन्दी सेवियों को कहीं किसी उदासीनता के भाव ने घेर लिया है, आदि कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके उत्तरों की तलाश हमें इस राष्ट््रीय संगोष्ठी में करनी होगी। यह सब मैं इस लिए कह रहा हूं क्योंकि पूरे पांच दशक बीत गये हैं और हम अनकरीब ही २१वीं शताब्दी में प्रवेश करने वाले हैं, मगर हिन्दी को अभी तक राष्ट््रीय स्तर पर सम्मानजनक स्थान दिलाने में पूरी तरह से कामयाब नहीं हुए हैं।

बन्धुओं, हिन्दी के सेवा-कार्य, लेखन कार्य तथा अध्ययन-अध्यापन कार्य से मैं पिछले तीन दशकों से भी ज्यादा समय से जुडा हुआ हॅंू। मेरे जेह़न में इस समय कई बातें उभर रही हैं जो हिन्दी को अखिल भारतीय स्वरूप प्रदान करने में बाधक सिद्ध हो रही हैं। बातें कई हैं, मगर मैं यहंा पर अपनी बात मात्र एक विशेष बात तक ही सीमित रखूंगा।

देखिए, किसी भी भाषा का विस्तार या उसकी लोकप्रियता या उसका वर्चस्व तब तक नहीं बढ़ सकता जब तक कि उसे 'ज़रूरत` यानि 'आवश्यकता` से नही ंजोड़ा जाता। यह 'ज़रूरत` अपने आप उसे विस्तार देती है और लोकप्रिय बना देती है। हिन्दी को इस 'जरूरत` से जोड़ने की आवश्यकता है। मुझे यह कहना कोई अच्छा नहीं लग रहा और सचमुच कहने में तकलीफ भी हो रही है कि हिन्दी की तुलना में 'अंग्रेजी` ने अपने को इस 'ज़रूरत` से हर तरीके से जोड़ा है। जिस निष्ठा और गति से हिन्दी और गैर-हिन्दी प्रदेशों में हिन्दी प्रचार-प्रसार का कार्य हो रहा है, उससे दुगुनी रफतार से अंग्रेजी माध्यम से ज्ञान-विज्ञान के नये नये क्षितिज उदघारित हो रहे हैं जिनसे परिचित हो जाना आज हर व्यक्ति के लिए लाज़िमी हो गया है। मेरे इस कथन से यह अर्थ कदापि न निकाला जाए कि मैं अंग्रेजी की वकालत कर रहा हूं। नहीं, बिल्कुल नहीं। मैं सिर्फ यह रेखांकित करना चाहता हूं कि अंग्रेेजी ने अपने को जरूरत से जोड़ा है। अपने को मौलिक चिंतन, मौलिक अनुसंधान व सोच तथा ज्ञान-विज्ञान के अथाह भण्डार की संवाहिका बनाया है जिसकी वजह से पूरे विश्व में आज उसका वर्चस्व अथवा दबदबा है। हिन्दी अभी 'जरूरत` की भाषा नहीं बन पाई है। आज इस संगोष्ठी में हमें इसका जवाब ढूंढना होगा कि क्या कारण है अब तक उच्च अध्ययन, खासतौर पर विज्ञान और तकनालॉजी, चिकित्साशास्त्र आदि के अध्ययन के लिए हम स्तरीय पुस्तकें तैयार नहीं कर सके हैं। क्या कारण है कि सी०डी०एम० और एन०डी०ए० ;ब्वउइपदमक क्ममिदबम ैमतअपबमेद्ध प्रतियोगिताओं के लिए हिन्दी को एक विषय के रूप में सम्मिलित नहीं करा सके हैें। क्या कारण है कि ठंदा विपिबमते की परीक्षा में अंग्रेजी एक विषय है, हिन्दी नहीं है। ऐसी अनेक बातें हैं जिनका उल्लेख किया जा सकता है। यह सब क्यों हो रहा है --? अनायास हो रहा है या जानबूझकर किया जा रहा है, इन बातों पर खुलकर चर्चा होनी चाहिए।

मित्रों, मैं यह रेखांकित करना चाहता हू्रं कि मेरी बातों से कदापि यह निष्कर्ष न निकाला जाए कि हिन्दी के सुन्दर भविष्य के बारे में मुझ मंे कोई निराशा है। नहीं, ऐसी बात नहीं है। उसका भविष्य उज्ज्वल है। वह धीरे-धीरे अखिल भारतीय स्वरूप ले रही हे। मगर इसके लिए हम हिन्दी प्रेमियों को अभी बहुत काम करना है। एक जुट होकर युद्ध स्तर पर राष्ट््रभाषा हिन्दी की स्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष करना है। यहां पर मैं जोर देकर कहना चाहूंगा कि हिन्दी की स्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष करना है। यहां पर मै जोर देकर कहना चाहूंगा कि हिन्द्र प्रचार-प्रसार या उसे अखिल भारतीय स्वरूप देने का मतलब हिन्दी के विद्वानों,लेखकों,कवियों या अध्यापकों की जमात तैयार कना नहीं है। जो हिन्दी से सीधे-सीधे आजीविका या अन्य तरीकों से जुडे हुए हैं, वे तो हिन्दी के अनुयायी हैं ही। यह उनका कर्म है, उनका नैतिक कर्तव्य है कि वे हिन्दी का पक्ष लें। मैं बात कर रहा हूं ऐसे हिन्दी वातावरण को तैयार करने की जिसमें भारत देश के किसी भी भाषा-क्षेत्र का किसान, मजदूर, रेल में सफर करने वाला हर यात्री,अलग अलग काम धन्धों से जुडा आम जन हिन्दी समझे और बोलने का प्रयास करे। टूटी-फूटी हिन्दी ही बोले- मगर बोले तो सही। यहां पर मैं दूरदर्शन और सिनेमा के योगदान का उल्लेख करना चाहूंगा जिसने हिन्दी को पूरे देश में लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कुछ वर्ष पूर्व जब दूरदर्शन पर 'रामायण` और 'महाभारत` सीरियल प्रसारित हुए तो समाचार पत्रों के माध्यम से सुनने को मिला कि दक्षिण भारत के कतिपय अहिन्दी भाषी अंचलों में रहने वाले लोगों ने इन दो सीरियलों को बढे चाव से देखा क्येांकि भारतीय संस्कृति के इन दो अद्भुत महाकाव्यों को देखना उनकी भावनागत जरूरत बन गई थी और इस तरह अनजाने में ही हिन्दी सीखने का उपक्रम भी किया। बन्धुओं, हम ऐसा ही एक सहज, सुन्दर और सौमनस्यपूर्ण माहौल बनाना चाहते हैं जिसमें हिन्दी एक ज़रूरत बने और उसे जन-जन की वाणी बनने का गौरव प्राप्त हो। जय भारत / जय हिन्दी.

डा० शिबन कृष्ण रैणा
पूर्व अध्येता,भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान,शिमला
सितम्बर 18, 2006

indinest.com/nibandh/n19.htm





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