Thursday, June 8, 2017



कबीर जयंती पर विशेष 


कबीर की याद 


(मेरा यह आलेख बहुत पहले देश की एक प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशित हुआ था जिसे आज मित्रों के लिए पुनः अपनी वाल पर डाल रहा हूँ)

कबीर भक्तिकालीन भारतीय साहित्य और समाज के ऐसे युगचेता कवि थे जिनकी हैसियत आज भी एक जननायक से कम नहीं है। अपने समय के समाज में परंपरा और शास्त्र के नाम पर प्रचलित रूढ़ियों, धर्म के नाम पर पल रहे पाखंड-आडंबर, सामाजिक शोषण-असमानता जैसी कई बुराइयों के वे घोर विरोधी थे और इनके विरुद्ध डट कर बोले।

कबीर समाज में व्याप्त शोषक-शोषित का भेद मिटाना चाहते थे। जातिप्रथा का विरोध करके वे मानवजाति को एक-दूसरे के समीप लाना चाहते थे। पथभ्रष्ट समाज को उचित मार्ग पर लाना उनका प्रधान लक्ष्य था। वे कथनी के स्थान पर करनी, प्रदर्शन के स्थान पर आचरण को महत्त्व देने वाले थे। कबीर का एक अहम उद्देश्य था विभिन्न धर्मों में व्याप्त वर्णवादी-व्यवस्था को तोड़ना।

उन्होंने एक जाति और एक समाज का स्वरूप प्रतिष्ठापित करने का प्रयास किया और साथ ही जाति-प्रथा के मूलाधार वर्णाश्रम व्यवस्था पर भी गहरी चोट की। कर्तव्य-भावना की प्रतिष्ठा पर उन्होंने खूब जोर दिया। कहा जा सकता है कि कबीर का समूचा समाजशास्त्रीय चिंतन भारतीय संस्कृति और साहित्य की अनमोल थाती है।

आज के जागरूक लेखक को कबीर की निर्भीकता, सामाजिक अन्याय के प्रति उनके तीव्र विरोध की भावना और उनके स्वर की सहज सच्चाई और स्पष्टवादिता से प्रेरणा लेने की जरूरत है। कबीर की वाणी में अपने समाज और व्यवस्था के प्रति जो अस्वीकार का स्वर दिखाई देता है, वही इस फक्कड़ कवि को प्रासंगिक बनाता है और वर्तमान से जोड़ता है।

कबीर जैसे संत कवि के बारे में बहुत कुछ कहा/लिखा जा सकता है। उनका एक दोहा है जो मुझे उम्र के इस पड़ाव पर उनका मुरीद बनाने से नहीं रोक पा रहा:

सुख में सुमिरन ना किया, दुख में करते याद।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥

इस दोहे के अर्थ को मात्र भक्ति/अध्यात्म के संदर्भ में न देखकर हर तरह की मतलबपरस्ती के संदर्भ में देखें, तो कितना सामयिक/प्रासंगिक लगता है यह!
शिबन कृष्ण रैणा, अलवर

http://www.jansatta.com/chopal/jansatta-editorial-memory-of-saint-kabir/28580/



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