Wednesday, September 4, 2024



मौली का महत्व



मुझे लगता है कि कश्मीरी शब्द ना’र्यवन्द “नाडीबंध”से बना है। हिंदी क्षेत्रों में इसे मौली,कलावा,रक्षा-सूत्र,डोरा आदि नामों से जाना जाता है। वैसे,मौली शब्द प्रचलन में अधिक है। मौली लाल-पीले सूत का वह लच्छा है जिसे विवाह आदि मांगलिक अवसरों पर कलाई,घड़ों तथा अन्य वस्तुओं पर बाँधा जाता है। कलाई पर इसलिए क्योंकि कलाई में स्थित नाडी/नब्ज़ का विशेष महत्त्व है। वैद्य कलाई की नाडी/नब्ज़ के परीक्षण द्वारा ही रोग का पता लगाते हैं। नाडी-परीक्षण से हृदय द्वारा संचालित रक्त-संचार का पता भी पता लगाया जाता है।
मौली बाँधने की प्रथा कब से शुरू हुई और इसके महत्त्व के विषय में अनेक आख्यान शास्त्रों में मौजूद हैं । ऐ९स माना जाता है कि मौली बाँधने की परंपरा तब से चली आ रही है, जब से दानवीरों में अग्रणी महाराज बलि की अमरता के लिए वामन भगवान् ने उनकी कलाई पर रक्षा सूत्र बांधा था !इसे रक्षा-कवच के रूप में भी शरीर पर बांधा जाता है !इन्द्र जब वृत्रासुर से युद्ध करने जा रहे थे तब इंद्राणी शची ने इन्द्र की दाहिनी भुजा पर रक्षा-कवच के रूप में मौली को बाँध दिया था और इन्द्र इस युद्ध में विजयी हुए !। मौली का दोनों धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व बताया जाता है।

ऐसा माना जाता है कि मौली बांधना उत्तम स्वास्थ्य भी प्रदान करता है क्योंकि मौली बांधने से त्रिदोष यानी वात, पित्त तथा कफ का शरीर में सामंजस्य बना रहता है। शरीर की संरचना का प्रमुख नियंत्रण हाथ की कलाई में होता है, अतः यहां मौली बांधने से व्यक्ति स्वस्थ रहता है। इसे बांधने से बीमारी अधिक नहीं बढती है। ब्लड प्रेशर, हार्ट एटेक, डायबीटिज और लकवा जैसे रोगों से बचाव के लिये मौली बांधना हितकर बताया गया है। शास्त्रों का ऐसा भी मत है कि मौली बांधने से त्रिदेव : ब्रह्मा, विष्णु व महेश तथा तीनों देवियों- लक्ष्मी, पार्वती व सरस्वती की कृपा प्राप्त होती है। ब्रह्मा की कृपा से "कीर्ति", विष्णु की अनुकंपा से "रक्षा बल" मिलता है तथा शिव "दुर्गुणों" का विनाश करते हैं। इसी प्रकार लक्ष्मी से "धन", दुर्गा से "शक्ति" एवं सरस्वती की कृपा से "बुद्धि" प्राप्त होती है। मौली शत प्रतिशत कच्चे धागे (सूत) की ही होनी चाहिये। पुरुषों तथा अविवाहित कन्याओं के दाएं हाथ में तथा विवाहित महिलाओं के बाएं हाथ में मौली को बांधा जाता है। जिस हाथ में कलावा या मौली बांधें उसकी मुट्ठी बंधी हुयी हो एवं दूसरा हाथ सिर पर हो। इस पुण्य कार्य के लिए व्रतशील बनकर उत्तरदायित्व स्वीकार करने का भाव रखा जाए। संकटों के समय भी यह रक्षासूत्र हमारी रक्षा करता है,ऐसा माना जाता है। वाहन, कलम, बही खाते, फैक्ट्री के मेन गेट, चाबी के छल्ले, तिजोरी पर पवित्र मौली बांधने से लाभ होता है, महिलाएं मटकी, कलश, कंडा, अलमारी, चाबी के छल्ले, पूजा घर में मौली बांधें या रखें। मोली से बनी सजावट की वस्तुएं घर में रखेंगी तो नई खुशियां आती हैं । नौकरी-पेशा लोग कार्य करने की टेबल एवं दराज में पवित्र मौली रखें या हाथ में मौली बांधेंगे तो लाभ प्राप्ति की संभावना बढ़ती है।

Tuesday, August 6, 2024





चाथम आरा मिल

अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में स्थित ‘चाथम सॉ-मिल’ एशिया की सबसे बड़ी आरा मिलों में से एक है।ब्रिटिश शासन-काल के दौरान 1883 में स्थापित इस मिल का इतिहास बड़ा ही गौरवशाली है। यह आरा-मिल एक छोटे से द्वीप पर बनी है और एक पुल द्वारा पोर्ट-ब्लेयर से जुड़ा हुयी है। पोर्ट-ब्लेयर से 3 किलोमीटर उत्तर में स्थित इस मिल के प्रवेश-द्वार पर विशाल लकड़ी का गेट गर्व से इस द्वीप के इतिहास में इस मिल के योगदान को रूपायित करता है। जैसा कि कहा गया इस मिल को मुख्य रूप से 1883 में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान द्वीप के भीतर निर्माण कार्यों के लिए लकड़ी की जरूरतों को पूरा करने के लिए बनाया गया था। अंग्रेजों ने अपने देश में भी लकड़ी की जरूरतों को पूरा करने के लिए इस आरा मिल का इस्तेमाल किया।

आरा मिल परिसर के भीतर एक संग्रहालय है जो अंडमान और निकोबार द्वीप-समूह की काष्ठ-संपदा को प्रदर्शित करता है।
1942 में, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान यह मिल ब्रिटिश बमबारी का शिकार हुयी थी जिसमें इस मिल में काम करने वाले कई कर्मियों समेत अनेक सुरक्षा कर्मी मारे गये थे। उनकी याद में मिल-परिसर में एक स्मारक भी स्थापित किया गया है।

Sunday, July 28, 2024



अंडमान-निकोबार की राजधानी पोर्ट ब्लेयरके आसपास कई सारे दर्शनीय स्थान हैं जिन में एक चर्चित स्थान है ‘मुंडा पहाड़’ या ‘चिड़िया टापू’। यह जगह जितनी रामणीक और हरियाली से भरपूर है उतनी ही प्रसिद्ध भी है। प्रख्यात जैविक उद्यान और सर्वप्रसिद्ध ‘सिंफनी बीच’ भी इसी जगह पर स्थित हैं।दोनों जगहों के बारे में संक्षेप में जानना आवश्यक है।

चिड़िया टापू जैविक उद्यान (बर्ड आइलैंड जैविक उद्यान) 2001 में अस्तित्व में आया था, जिसका उद्देश्य अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में पाए जाने वाले स्थानिक और लुप्तप्राय जानवरों की प्रजातियों का संरक्षण और अध्ययन करना था। तब से यह पार्क जैव विविधता और संरक्षण का केंद्र रहा है, जहाँ से द्वीप के समृद्ध जीवों की झलक देखी जा सकती है।
हरा-भरा और घना जंगल जैसा वातावरण यहाँ के जानवरों के प्राकृतिक आवास को आत्मीयता प्रदान करता है। 40 हेक्टेयर में फैला यह पार्क विभिन्न प्रकार के पौधों,पेड़ों,वन्य-जीवों आदि से आपूरित है। पक्षियों के अलावा यहाँ जंगली सूअरों के साथ-साथ तरह-तरह के हिरण और भी देख सकते हैं। जंगली तोते,बन्दर,कबूतर आदि के अलावा आराम करते मगरमच्छों को भी यहाँ देखा जा सकता है।

‘सिम्फनी समुद्र जंगल रिज़ॉर्ट’ प्राकृतिक सौंदर्य और शानदार निर्माण-शैली का एक दिलकश समुद्र-तटीय रिज़ॉर्ट है। तीन दशकों से अधिक के आतिथ्य उत्कृष्टता के लिए प्रसिद्ध प्रतिष्ठित सिम्फनी रिसॉर्ट्स श्रृंखला अपनी अद्वितीय आतिथ्य सेवा के लिए प्रसिद्ध है। यह पोर्ट ब्लेयर में एक वेलनेस सेंटर वाला एकमात्र 5-सितारा होटल के रूप में अपनी अलग पहचान रखता है। रिज़ॉर्ट में 85 कमरे, एक इनफिनिटी पूल और बगल में सनसेट लाउंज है, जहां से सूर्यास्त के मनमोहक दृश्य को देखा जा सकता है।



Sunday, July 21, 2024



अंडमान निकोबार द्वीप की राजधानी पोर्ट ब्लेयर की यात्रा के दौरान यहाँ की सेल्युलर जेल का उल्लेख करना परम आवश्यक है।यह जेल अंग्रेजों द्वारा भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के सेनानियों को कैद में रखने और उन पर ज़ुल्म ढाने के लिए बनाई गई थी। यह जेल ‘काला पानी’ के नाम से भी कुख्यात है।अंग्रेजी सरकार द्वारा भारत के स्वतंत्रता-सैनानियों पर किए गए अत्याचारों,ज़ुल्म-सितम और यातनाओं की मूक गवाह है इस जेल की दीवारें और उनकी एक-एक ईंट!

इस जेल के अंदर 694 कोठरियां हैं। इन कोठरियों को बनाने का उद्देश्य बंदियों के आपसी मेलजोल को रोकना था। आक्टोपस की तरह सात शाखाओं में फैली इस विशाल कारागार के अब केवल तीन अंश बचे हैं। कारागार की दीवारों पर वीर शहीदों के नाम लिखे हैं। यहां एक संग्रहालय भी है जहां उन शस्त्रों को देखा जा सकता है जिनसे स्वतंत्रता सैनानियों पर अत्याचार किए जाते थे।
भारत के प्रसिद्ध क्रांतिकारी, स्वतंत्रता सेनानी, समाजसुधारक, इतिहासकार, राजनेता तथा विचारक विनायक दामोदर सावरकर को 7 अप्रैल, 1911 को काला पानी की सजा पर सेल्युलर जेल भेजा गया था । वीर सावरकर को स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े होने के कारण अंग्रेजों द्वारा 'दोहरे आजीवन कारावास' की सजा सुनाकर अंडमान-निकोबार की सेल्युलर जेल में रखा गया था।सावरकर के अनुसार इस जेल में स्वतंत्रता सेनानियों को कड़ा परिश्रम करना पड़ता था। कैदियों को यहां कोल्हू में बैल की तरह जुत कर सरसों व नारियल आदि का तेल निकालना होता था। इसके अलावा उन्हें जेल के साथ लगे व बाहर के जंगलों को साफ कर दलदली भूमि व पहाड़ी क्षेत्र को समतल भी करना होता था। रुकने पर उनको कड़ी सजा व बेंत व कोड़ों से पिटाई भी की जाती थी। इतने पर भी उन्हें भरपेट खाना नहीं दिया जाता था।सावरकर 4 जुलाई, 1911 से 21 मई, 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे। उनके समर्थक उन्हें वीर सावरकर के नाम से सम्बोधित करते हैं।इनके नाम को भास्वरित करता एक सुंदर पार्क जेल-परिसर के बाहर बना हुआ है।

अपने समय में इस जेल में रहने की सज़ा को कालापानी की सजा भी कहा जाता था। ‘कालापानी’ शब्द की व्युत्पति संस्कृत के शब्द 'काल' से मानी जाती है, जिसका अर्थ समय या मृत्यु होता है। यानी काला पानी शब्द का अर्थ मृत्यु के उस स्थान से है, जहां से कोई भी जिंदा वापस नहीं आता था।

पोर्ट ब्लेयर की इस जेल का एक आकर्षण ‘ध्वनि और प्रकाश शो’ है । सेल्युलर जेल के इतिहास की कहानी जानने के लिए यह शो सूचनाओं और मनोरंजन का एक अद्भुत मिश्रण है। भारत के स्वतंत्रता-संग्राम में अपनी आहुति देने वाले माँ-भारती के वीर सपूतों के बारे में रुचि रखने वालों के लिए ध्वनि और प्रकाश का यह शो निश्चित रूप से देखने योग्य है।

इस शो द्वारा जेल के कैदियों की उत्पीडन-गाथा परिसर की दीवारों पर ध्वनि और प्रकाश के अद्भुत कला-कौशल से जीवंत हो उठती है।लगभग 45 मिनट तक चलने वाला यह शो अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में प्रदर्शित होता है। परिसर में बचे एक प्राचीन पीपल के पेड़ की आवाज़ द्वारा जेल की कहानी सुनाए जाने का विचार दर्शकों को भावुक कर उन्हें अतीत की यादों में डुबो देता है और वे अपने वीर शहीदों के उत्सर्ग और बलिदान की रोमांचक दास्ताँ सुनकर अभिभूत हो उठते हैं।

जेल परिसर के अंदर कुछ जगहें हैं जिन्हें सुरक्षित रखा गया है।जैसे: वह स्थान जहाँ कैदी को सूली पर चढ़ाये जाने से पहले उसके मजहब के अनुसार रस्म आदि निभाई जाती थी,कैदी को कोड़े लगाने की जगह, कैदी द्वारा कोल्हू में जुतकर तेल निकालने की जगह आदि-आदि।

भारत-माता के उन वीर सपूतों को शत-शत नमन जिन्होंने सेल्युलर जेल की काल कोठरियों में अपने जीवन के बहुमूल्य वर्ष प्राणों की आहुति देकर बिताये और हमें आज़ादी दिलाई।

Friday, July 12, 2024



Fear Time: For it is a Great Watcher.


Dr.Shiben Krishen Raina

When a person’s desires become excessively intense or he becomes overly ambitious, when he rises from the scratch and touches the skies, he may, out of arrogance, start considering himself invincible. This is the point where the pages of his downfall begin to be written. It is rightly said, "Fear time, for it is Almighty. It keeps an eye on everyone and takes note of everything. When the appropriate time comes, it takes account of all. In its realm, there might be a delay, but there is no injustice.

As a matter of fact, human nature is such that once basic needs are met, the quest for more begins. This quest can lead to growth and progress, but it can also lead to an unquenchable thirst for more and more, known as greed. When an individual becomes consumed by greed, his actions are often driven by the desire to accumulate more wealth, power, or status. This relentless pursuit can make him override the ethical and moral boundaries he might be crossing.

Ambition is often praised as a virtue that drives individuals to achieve great things. However, when ambition turns into an obsession, it can lead to one’s downfall. Overambitious individual may start to believe that he is above everyone else, and this delusion can make him reckless. He may take undue risks or make decisions that harm others, believing that he is invulnerable to consequences.

We should keep in mind that time is the great watcher. It observes everything silently, taking note of every action and every decision. Time has a way of its own to expose the truth and bring about justice. It may seem to delay, but it never denies. The reckoning may not come immediately, but it will come eventually. Those who have risen through unethical means or have let arrogance cloud their judgment will find that time has not forgotten their deeds.

When the fall comes, it is often swift and unexpected. The very foundations that seemed so solid can crumble down overnight. The support systems that seemed unshakeable can vanish. The individual who once soared high is brought back to the ground. This fall is not just a physical or financial one; it is also a fall from grace, a loss of respect and dignity and a disaster in family, as well.

The lesson here is clear: fear time, respect it, and understand its power. Recognize that no matter how high you rise; you are never above the laws of nature and the universe. Stay grounded, remain humble, and always be mindful of your actions and decisions. Time is watching, and it will hold you accountable one day.

As already said, time, the silent mediator of justice, keeps a vigilant watch over the deeds of humanity. While corruption, irregularities, and unethical activities may temporarily escape detection, they leave indelible marks on the fabric of existence. These transgressions, though hidden from immediate view, are never truly concealed from the unerring gaze of time.The perpetrators of such misdeeds might bask in a false sense of security, believing their actions to be beyond accusation or discovery. They may even revel in the fruits of their illicit labors, unaware of the unavoidable forces aligning against them. But time, a patient and relentless watcher, hits at them when suitable and appropriate time approaches. Unlike human justice systems, which can be fallible or manipulated, time's judgment is absolute and inescapable. It does not announce its arrival with fanfare or warning. There are no sirens, no alarms to herald the approach of its vengeance. Instead, it moves with the quiet inevitability of a glacier, slowly but surely eroding the foundations of ill-gotten gains and unearned privileges.

This concept is defined in various literary forms. The phrase "the mills of God grind slowly, but they grind exceedingly fine" speaks to this inevitable process. Similarly, the "Rod of God has no sound.” (Uski Lathi mein Awaaz Nahi..) serves as a metaphor for this cosmic accountability. It reminds us that our actions have consequences, even if those consequences are not immediately apparent.

It is this understanding that gives hope to the oppressed and strikes fear into the hearts of wrongdoers. For while human systems may fail, and immediate consequences may be avoided, the ultimate judgment of time remains a reality.

Virtuous and wise individuals heed to this silent warning. They understand that each action, no matter how small or seemingly inconsequential, is being recorded in the annals of time. This awareness serves as a powerful deterrent against moral compromise and unethical behavior.

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Former Fellow, IIAS, Shimla (H.P)
Currently in Bengaluru (Karnataka)

Tuesday, July 9, 2024



Courage Amidst Conflict: The Story of Bashir Athar


Dr. Shiben Krishen Raina

In the turbulent year of 1997, amidst the height of militancy in Kashmir, I embarked on a journey to Srinagar for academic purposes. The atmosphere was fraught with tension, yet assurances of adequate security measures gave me some solace. My itinerary included stops in both Jammu and Srinagar.

Upon completing my work in Jammu, I arrived at the Srinagar airport, where a vehicle awaited me, accompanied by an armed guard. My accommodation was arranged at the Tourist Reception Center, conveniently located near the local Doordarshan Kendra.

After fulfilling my official duties, I had the privilege of meeting Bashir Malik, popularly known as Bashir Athar, ’Athar’ being his pen-name. At that time, Athar was the Chief News Editor at Doordarshan and later retired as Deputy Director General. I was familiar with some of his poetry, and he knew of my literary contributions, as well. Our meeting was warm. He introduced me to his colleagues and also arranged for my interview at the DD Centre.

During our conversation, Athar received a phone call. Though I couldn't discern the caller's words, Athar's thunderous response left an indelible mark on me. He roared into the phone, "Listen carefully. I will only say 'killed' for your dead man, not 'martyred'. Do whatever you want." After a brief exchange, he hung up the phone.

Athar then explained the situation. Militant groups frequently threatened him, demanding that those killed in encounters be referred to as 'martyrs' in news bulletins. Athar stood firm, declaring, "I will be the last person to succumb to their pressure."

Throughout his tenure, Athar maintained this resolute stance, facing the militants' challenges head-on. There was even an incident where a bomb was thrown at him, but he miraculously escaped unharmed. During this period of turmoil Athar could not attend the funeral of his mother, who passed away in 1993, nor perform the last rites of his uncle, who had adopted him as his son. ‘Come what may!’ Athar always remained unwavering in his commitment to the truth.

Bashir Malik was honored with the Shiromani Patarkarita Rattan Award by the Shaheed Memorial Sewa Society (Ludhiana) for his outstanding service to the nation, presenting an accurate picture of the situation in Kashmir against all odds. During our discussions, Bashir revealed the many challenges he faced. As per his words reporting from Kashmir was not an easy job. He had been doing it for over 20 years, ever since the eruption of militancy in Kashmir. While traditional media persons had left the valley or succumbed to militants’ dictates, Bashir Malik stood firm. Militants had already killed several state-run media personnel, making reporting for All India Radio and Doordarshan nearly suicidal, especially for someone with widespread family ties in the valley. Malik, from Anantnag, the fountainhead of militancy, chose to stand steady, reporting for AIR and presenting a picture contrary to that of traditional and biased media reported. This displeased the militants, who intensified their threats to Athar.

Malik's family received numerous threats, with Malik himself receiving at least 100 threatening calls daily. He frequently changed his telephone numbers and residences. Despite the predicament, he chose to uphold his conscience over succumbing to fundamentalism and secessionism. This decision isolated him socially, with militants issuing a fatwa of social boycott against him. Athar wrote me later that the most painful moments of his life were when he couldn't attend his mother and uncle's funerals. "I was only about 50 km away when my uncle and my mother were being laid to rest, yet I could not join the mourning... I was made to mourn, grieve and weep all alone," he recounted.
Malik aspired to rise above parochial and chauvinistic considerations, demonstrating that not all Kashmiri Muslims were fundamentalists or secessionists. He highlighted that many like him were willing to die for India, with hundreds having already sacrificed their lives for the country. His award by the Shaheed Memorial Sewa Society acknowledges those sacrifices and supports his stand.

Athar's story offers a glimpse into the daily pressures faced by journalists in conflict zones, particularly in Kashmir during the height of militancy and violence. His unwavering commitment to journalistic integrity, even in the face of grave danger, is a proof of his courage, principles, and dedication.

Interestingly, Athar's fighting spirit is also reflected in his poetry collection, “Kani Shahar.” His verses carry the same fierce determination and resilience he displayed as a news editor. Some of his poems, which I had the privilege of translating into Hindi, appeared on various social platforms within and outside the country and were later published in a book-form that he dedicated to me reverentially. It won’t be out of context to quote one of Bashir's most poignant poems here for readers' contemplation. This piece aims to expose the nefarious and destructive motives of antisocial elements, including extremists bent upon dividing the homogeneous and secular character of Kashmiri society. The last four lines of the poem highlight the deep love the poet has for his society and homeland, expressing hope that no one can divide his motherland.

"Keep on Dividing”

You divided the sky,

Divided the Universe too.

God too you divided,

And divided the countries all over.



You divided the shade of trees,

Divided their greenness and freshness.

Our rich traditions you got divided,

Bonds ever thick you divided.



You divided water, air too,

Divided our rich past.

Present too you brutally divided,

You divided man, his humanness.



Divided his soul, his psyche too,

You divided the love

Of our mothers, brothers'

and sisters' affection, too.



Keep on dividing, my friend!

Till you are exhausted.

But tell me,

How will you divide

My Motherland, my homeland?

Where you live,

I live,

And our ancestors lived!



Athar's story is a powerful reminder of the challenges faced by media professionals in conflict-ridden areas. It underscores the importance of maintaining journalistic ethics and the personal risks involved in standing up to anti-social groups. His dual role as a fearless journalist and poet adds depth to his personality, showing how art and professional integrity can coexist and reinforce each other.

In conclusion, Bashir Athar's story is not just about one man's courage but a reflection of the broader struggles faced by those who uphold truth and integrity in challenging circumstances. Athar’s life and work inspire, reminding us of the power of individual resolve in the face of intimidation and the crucial role of responsible journalism in conflict zones.

It needs to be mentioned here that author of several books in Urdu, Hindi and Kashmiri, Malik was awarded thrice by Doordarshan for his outstanding work in news- reporting and also conferred with the State award of excellence in the field of media by J&K State Government.

Malik has travelled widely and has the distinction of accompanying various Presidents and Prime Ministers of our country to over fifteen foreign countries.

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Friday, July 5, 2024



Memories of Peetambar Paanwala: A Glimpse into Kashmir's Habba-Kadal


In the heart of Srinagar, nestled near the picturesque Habba Kadal Bridge, stood a small shop that held a special place in the memories of many. This was the area where Peetambar Paanwala, affectionately known as "Peetkak, owned a shop." His humble establishment was more than just a paan shop. It was a gathering place, a source of entertainment, and a window into the changing times of Kashmir. I am talking of mid-Fifties when I was just a school-going boy.

Peetkak's shop was strategically located in what was then considered the bustling center of Srinagar: Habba-Kadal. Habbakadal, a locality in Srinagar Srinagar, holds a special place in the hearts of many. It is home to a significant population of Kashmiri Pandits adds to the city’s unique character. I remember Habbakadal’s bustling square, always beaming with activity and people. From there, four roads branch out, leading to different neighborhoods: Fateh Kadal, Babapora, Kral Khod (Ganpatyar), and Purshyar (Kani Kadal). Those days most people preferred to walk, and bicycles and Tangas (horse-drawn carriages) were a common sight. I have the proud privilege of being a native resident of Purshyar, Habbakadal. Amidst the bustling sight of Habba-Kadal and around, Peetkak's shop wore a busy look. In front were three renowned bookstores, Kapoor Brothers, Ali Muhammad and Sons and Omkar Brothers, adding an intellectual flavor to the neighborhood. Just next door, a quieter presence could be found in the form of Zinda Paanwala, another betel leaf seller who lived in the same lane where I lived.

Peetkak himself was a character larger than life. Tall and sturdy, he possessed an imposing figure behind his modest counter. His face was captivating, exuding a charm that drew people to his shop. Perhaps his most striking feature was the prominent round vermilion Tilak adorning his forehead, a symbol of his faith and identity. But it wasn't just his appearance that made Peetkak memorable, his voice carried authority and could be heard far and wide, while his quick wit and audacious nature had made him a local celebrity of the entire area.

In an era when owning a radio was a luxury few could afford, Peetkak's shop served as a point of social meetings. Students would gather around, drawn by the allure of Radio Ceylon's Geetmala, a popular music program that brought the latest hits to their eager ears. Cricket enthusiasts found solace here too, huddling close to catch the excitement of match commentaries. In this way, Peetkak's small shop became a place where shared experiences created lasting bonds.

Despite the seemingly idyllic setting, all was not peaceful in the Kashmir valley. Peetkak often voiced his frustration about the frequent disruptions to daily life. His words paint a vivid picture of a region in turmoil: "What kind of place are we living in?" he would lament, listing off a number of disturbances - "Daily curfews, protests, demonstrations, strikes, lathi-charges, shutdowns." His advice to me is still fresh in my memory : "Leave this place, or else you'll end up selling paan/betel leaves like me for the rest of your life. Nothing is left here for young talented boys like you."



Nearly seven decades have gone by and suddenly today the memory of this colorful character resurfaced in my mind, prompting questions about Peetkak's fate and his current whereabouts.

The story of Peetambar Paanwala offers more than just a nostalgic glimpse into Srinagar's past. It serves as a microcosm of a society in transition, caught between tradition and modernity, peace and conflict. Through the lens of this small paan shop and its charismatic owner, we see the complex landscape of life in Kashmir - the simple joys of shared entertainment, the bonds of community, and the undercurrent of unrest that came to define the region later At this point of time, Peetkak's words of warning seem almost prophetic, highlighting the challenges faced by a generation coming of age in uncertain times. As we reflect on this chapter of history, we're reminded of the profound ways in which our environments and experiences shape our lives, often in ways we can't fully appreciate until years later.