Wednesday, September 14, 2016



कश्मीरी साहित्य में राष्ट्रीय काव्य-चेतना 


डॉ० शिबन कृष्ण रैणा

पूर्व अध्येता,भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान,शिमला,
सीनियर फेलो,संस्कृति मंत्रालय,भारत सरकार, 


कविता प्राचीनकाल से ही मानव की भावाभिव्यक्ति का प्रधान माध्यम रही है | सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ-साथ उसके रूप-विन्यास, भाव-लोक, अभिव्यक्ति-शैली आदि में परिवर्तन-परिष्कार होता रहा है | सहृदय व्यक्ति अपने परिवेश के प्रति सजग होकर जब चिन्तन-मनन करता है तो प्रतिक्रिया-स्वरुप उसके विहृल मन से नि:सृत होने वाले उद्वार या भाव कविता बन जाते हैं | ऐसी कविता युग-बोध की साक्षी बनकर अपने समय की चेतना को रूपायित करती है | किसी भी भाषा की काव्यचेतना अपने युग के संदर्भों से विलग नहीं हो सकती | मोटे तौर पर काव्यचेतना से तात्पर्य कवि-चिन्तन के उस रूप से है जो सामयिक बोध से आवेष्ठित होकर कवि की सोच, उसकी दृष्टि तथा सर्जन-शक्ति को रूपायित करता है |


भारत एक बहु भाषा-भाषी देश है। बाईस प्रमुख भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त इस देश में लगभग 1652 बोलियां या उपभाषाएं बोली जाती हैं।प्रायः प्रत्येक भाषाक्षेत्र की अपनी भौगोलिक एवं परिवेशगत विशिष्टिता होते हुए भी अपनी एक पृथक्, स्वस्थ, सुदीर्घ एवं समृद्ध साहित्यिक-सांस्कृतिक परंपरा है । इस परंपरा में भारतीय धर्म-दर्शन, विद्या-बुद्धि, चिंतन और कलाओं की परमोत्कृष्ट संपदा समायोजित है। दूसरे शब्दों में भारतीय मनीषा और विचारणा इन्हीं भाषाओं के साधकों, रचनाधर्मियों एवं सर्जकों की समेकित अभिव्यक्ति है,जिसे हम प्रकारांतर से ‘भारतीयता’ या ‘भारतीय-अस्मिता’ भी कहते हैं। दरअसल, मौटे तौर पर हमारे देश में अनादिकाल से एक ही विचारधारा, एक ही जीवन-दर्शन तथा एक ही महान् आदर्श का प्रचार-प्रसार था । कालांतर में किन्हीं राजनीतिक परिवर्तनों के कारण विभिन्न प्रदेशों में उनका विशिष्ट स्वरूप स्थिर हो गया । इस विशिष्टता के होते हुए भी उनके मूल में एक ही सांस्कृतिक सूत्र विद्यमान रहा । इस अन्तर्व्यापी सांस्कृतिक सूत्र की महिमा पर श्री आर.आर. दिवाकर लिखते हैं ‘But inspite of these political and other vicissitudes,what has persisted like mighty river Ganga,is the silken thread of Indian culture which is still binding the varied people of the whole India,from Kashmir to Cape-Comorin and Kutch to Assam’(India Through Ages Page 26) अर्थात् ‘‘राजनीतिक तथा अन्य प्रकार के उलट-फेरों के होते हुए भी भगवती गंगा के समान पवित्र एवं शाश्वत हमारी भारतीय संस्कृति का रेशमी धागा आज भी कश्मीर से कन्याकुमारी तक तथा कच्छ से असम तक इस देश के भिन्न-भिन्न लोगों को एकसूत्र में बॉंधे हुए है ।’’ इस अविच्छिन्न सूत्र के कई आयाम हैं जिनका अन्वेषण हिन्दी के सन्दर्भ में विभिन्न भारतीय भाषाओं में उपलब्ध साहित्य की संपदा के अध्ययन से किया जाना संभव है।

यह भारतीय संस्कृति या अस्मिता की विशिष्टता ही है कि प्रायः समस्त भारतीय भाषाओं के साहित्य का आदिकाल संतवाणी या भक्तिप्रधान काव्य से युक्त है। इस काल के प्रत्येक संत/भक्त कवि ने जो रचना की,उसकी भाषा भले ही भिन्न रही हो पर कथ्य के स्तर पर उस में अद्भुत साम्य/एकसूत्रता दृष्टिगोचर होती है। भाषा-साहित्य के स्तर पर भारतीय साहित्य में इस तरह की एकरूपता सचमुच अभिनन्दनीय है। एकसूत्रता का यह प्रभाव भारतीय मनीषा एवं सृजनशीलता में व्याप्त आंतरिक अखंडता एवं भावनात्मक एकता को रेखांकित करता है।चाहे बंगला के चण्डीदास हों या गुजराती के नरसिंह मेहता, मराठी के संत ज्ञानेश्वर हों या तमिल के कंबन या आलवार भक्तिन आंडाल, तेलुगु के पोतन हों या मलयालम के तुंजन,असमिया के माधव कंदली हों या कश्मीरी की संत कवयित्राी लल्लद्यद या शेख नूरुद्दीन वली/नुंद ऋषि या फिर हिन्दी के कबीर,दादू,नानक,रैदास आदि।ये सभी कवि अपनी-अपनी भाषाओं के आदिकाल के अत्यन्त प्रतिष्ठित एवं कृती रचनाकार हैं जिनका काव्य संतवाणी से मुखरित है और ज्ञान,सदाचार,धर्म,दर्शन आदि की अन्तःसलिला से इन भाषओं का साहित्य रससिक्त है।

भारतीय भाषाओं के साहित्यों में मध्यकाल में कथ्य की विविधता या फिर प्रतिपाद्य विषयों की अधिकता के कारण एकात्मकता के तंतु बिखरे हुए अवश्य मिलते हैं किन्तु आधुनिककाल में,विशेषकर भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन के आसपास से, ये सम्बन्ध पुनः संगठित और एकनिष्ठ होते हुए दिखाई पड़ते हैं। परिस्थितियां और परिवेश भिन्न होते हुए भी काव्य-चेतना के स्तर पर समस्त भारतीय भाषाओं में रचित इस काल की रचनाओं की अभिव्यक्ति में उल्लेखनीय समानता मिलती है।घ्यान से देखा जाए तो भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम के महायज्ञ में जहां देश के बड़े-बड़े नेता,समाज-सेवी,देशभक्त आदि आहुतियां दे रहे थे, वहीं विभिन्न भारतीय भाषाओं के कवि एवं लेखक भी अपनी क़लम की ताक़त से इस राष्ट्र्-व्यापी जन-आंदोलन को मज़बूत कर रहे थे। टैगोर(बंगला),भारती(तमिल),गोपबन्धुदास(उड़िया), जोश मलीहाबादी(उर्दू), श्रीश्री(तेलुगु), वीरसिंह(पंजाबी), भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, मैथिली शरण गुप्त व माखनलाल चतुर्वेदी(हिन्दी), गुलाम अहमद महजूर, अब्दुल अहद आज़ाद व दीना नाथ नादिम(कश्मीरी)आदि, ऐसे कुछ रचनाकार हैं, राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में जिनके योगदान ने समूचे भारतीय साहित्य को ऊर्जा प्रदान कर स्वतन्त्रता-संग्राम के महायज्ञ में मंत्रोच्चार का कार्य किया।

अन्य भारतीय भाषाओं की तरह कश्मीरी भाषा में भी राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ी काव्यचेतना की मुखरता साफ तौर पर देखने को मिलती है। इतना ज़रूर है कि राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा की अनुवर्त्ती बनकर यह चेतना ‘देसी आंदोलन’ के रूप में अधिक मुखर रही।स्वातन्त्रयपूर्व रची हिन्दी कविता की तरह ही कश्मीरी कविता में भी राष्ट्रीयता एवं जनचेतना की अनुगूंज सुनाई पड़ती है। बीसवीं शती के प्रारम्भ में कश्मीर सिक्खों के दौर से गुज़र कर डोगरा शासकों की सामंती शासन-व्यवस्था की जकड़ में आ चुका था और जम्मू व कश्मीर राज्य की स्थापना भी हो चुकी थी।उधर, अंग्रेज़ी शिक्षा और सभ्यता तथा भारतीय नवोन्मुष का प्रभाव इस भू-भाग में भी परिलक्षित होने लगा था। कालांतर में रेज़ीडेंटशाही के दमनचक्र के विरुद्ध कश्मीरियों ने कमर कस ली और अपने ऊपर हो रही ज़्यादतियों का विरोध किया। राजनीतकि व सामाजिक दृष्टि से पराभूत तत्कालीन कश्मीरी जनमानस में नवचेतना का संचार किया गुलाम अहमद महजूर, अब्दुल अहद आज़ाद,नूर मुहम्मद रोशन, दीनानाथ नादिम, अर्जुन देव मजबूर आदि कवियों ने। हिन्दी में जो कार्य साहित्य के मोर्चे से सर्वश्री भारतेन्दु हरिश्चन्द्रु,मैथिलीशरण गुप्त,माखनलाल चतुर्वेदी,बालकृष्ण शर्मा नवीन,सुभद्रा कुमारी चौहान, सोहनलाल द्विवेदी आदि कर रहे थे, वही कार्य कश्मीरी में महजूर,आज़ाद,रोशन,नादिम आदि कर रहे थे। राजनीति के मोर्चे पर जहां शेख अब्दुल्ला आदि नेताओं की अगुआई में डोगरा शासकों के सामंती वर्ग को चुनौती देता हुआ राजनीतिक आंदोलन तीव्र हो चला, वहीं साहित्य के मोर्चे पर महजूर,आज़ाद,नादिम आदि ने जनजागरण व राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत सुन्दर कविताएं लिखीं।‘नया कश्मीर’ ज़िदाबाद का नारा घर-घर गूंजने लगा।शायर-ए-कश्मीर ‘महजूर’ ने इकबाल के ‘सारे जहां से अच्छा---’ की तर्ज़ पर ‘गुलशन वतन छु म्योनुय..’/गुलशन है वतन मेरा..’, ‘वलो हो बागवानो...’ओ बागबान,आओ...’ आदि कविताओं में अपने मन व समय के अन्तर्संघर्षों को वाणी दी। 1938 की सांकेतिक क्रांति के उद्घेषक के रूप में ‘महजूर’ ने प्रतीकों के माध्यम से स्वाधीनता की बात कही-

रे बागवान! तू नव-बहार की शान पैदा कर,

खिलें गुल, पंख फैलाए बुलबुल-

ऐसा तू सामान पैदा कर। 

तूफान ला, भूकंप ला या फिर तू

गर्जन पैदा कर---। 

‘महजूर’ ने देशभक्ति से ओतप्रोत जो कविताएं लिखीं उन्हें पढ़ व सुनकर कश्मीरी जनता में नई उमंग व स्फूर्ति का संचार हुआ। ‘नोव कश्मीर’ कविता में महजूर ने ‘नए कश्मीर’ के सपनों को यों संजोया-

कांटे करेंगे बाग की रखवाली

ताकि फूलों को तोड़कर न ले जाए कोई,

भेद मिट जाएगा-

छोटे- बड़ेकमज़ोर-ताक़तवर का 

सभी एकसमान होंगे, और

आदमी इंसान बन जाएगा।

महज़बदारों के हथियार खोल दिए जाएंगे

ताकि एक-दूसरे के साथ लड़ते-मरते न रहें,और

मज़हब मात्रा एक चिह्न रह जाएगा। 



आगे चलकर ‘महजूर’ की कविता में उद्वेलन एवं क्रांति के स्वर गूंज उठे।वे निर्भय हाकेर कहने लगे-

रे भूख से पीड़ित मज़दूर!

तू गफ़लत की नींद से जाग,

उठ और अपने पैरों पर खड़ा होना सीख।

जु़ल्म ने तुझ को पौरुषहीन बना दिया है-

देख,इंकलाब का प्रकाश लेकर नया सूरज

पूर्व से उगा है.....।



हिन्दी में राष्ट्र् कवि मैथिलीशरण गुप्त की कविता में भी कुछ ऐसे ही तेवर देखने को मिलते हैं-

धरती हिलाकर नींद भगा दे

वज्रनाद से व्योम जगा दे

दैव,और कुछ लाग लगा दे। (स्वदेश संगीत)



अब्दुल अहद ‘आजाद’(1913-1988) नाम के साथ कश्मीरी-कविता का एक ऐसा दौर जुड़ा हुआ है जिसमें राष्ट्रीय संचेतना, देशभक्ति तथा जनजागरण के स्वर गूँजते मिलते हैं | ‘आजाद’ जब तक जीवित रहे तब तक हाकिमों की ताना-शाही देखते-झेलते रहे | वे जिधर भी नजर दौड़ाते उधर जनता शोषण के पंजों में जकड़ी दीख पड़ती | समाज का प्रत्येक सदस्य चाहे वह किसान हो य मजदूर, सरकारी कर्मचारी हो या कोई कारीगर--ज़माने का मारा हुआ था|उधर सम्पूर्ण देश पर अंग्रेजी शासक जुल्म ढा रहे थे और इधर आजाद की मातृभूमि-कश्मीर का और भी बुरा हाल था |अंग्रेज अधिकारी दिखावे के लिए कश्मीर की जनता का उद्धार करने के लिए यहाँ आते किंतु यहाँ पहुँचकर वे हाकिम-वर्ग से मिलकर सैर-सपाटे तथा खाने-पीने में लग जाते | बेचारी जनता के दुःख-दर्द को समझने वाला कोई न था | ‘आजाद’ कश्मीरियों की यह बेबसी देखकर जार-जार रोया | उसने जनता को आह्वान किया: यदि ज़िन्दा रहना चाहते हो तो दिलों में जोश पैदा करो, गफलत की नींद से जाग उठो | अपने पैरों पर खुद बड़ा होना सीखों, जुल्म और अन्याय एक दिन मिटकर रह जायेगे और वह दिन बहुत जल्द आने वाला है जब तुम अपने मुल्क के मालिक होगे | मेरे देशवासियों, गरीब का खून रंग अवश्य लायेगा और वह तूफान व बाढ़ की तरह जलिमों को बहाकर ले जायगा| न सूदखोर रहेंगे और न सरमायादार:-

आसि दोह अनकरीब दीद वुछन खोशनसीब,

नेरि यि खुनि गरीब जोश दीवान आशकार,

वोयि यि तूफान जन त्रावि पथर जालिमन,

फेरिकोहन जंगलन नेरि करान लूरअ पार,

रुद्ध कति सूदखोर रोजि यि सरमायदार,---------

‘आजाद’ ने आततायियों को कभी नहीं कोसा | वे जानते थे की जनता मूक गाय की तरह अन्याय सह रही है, अत: मूलतः दोषी वही है | जनता में (हुब्ब-वतन) देशप्रेम की कमी है, तभी अन्याय करने वालों को निरीह जनता पर अत्याचार करने का सुअवसर मिल रहा है |’ जनता के दिलों से देशप्रेम की भावना बर्फ के समान ठंडी पड़ गई है | अपनी ही लापरवाही से उनका सर्वस्व लुटा जा रहा है | अब नींद से जागो रे देशवासियों! हमारी धरती को स्वर्ग कहा जाता है किंतु अफ़सोस, हमारी जिन्दगी दिनोदिन जलील होती जा रही है | हाकिमों के लिये खूनपसीना एक कर के हम उन्हें सुख-सुविधा का सामान सुलभ करते हैं लेकिन बदले में वे हमारी बोटी-बोटी नोच रहे है | यह धरती बडशाह, कल्हण, सरफी जैसे सपूतों की है, उस धरती की यह दुर्दशा| गैर-मुल्की शासन के चंगुल से मुक्त होना, जातियों के जुल्म का अन्त करना तथा जनता के दिलों में देशप्रेम को जगाना – यही मेरी तमन्ना है, यही मेरी आरजू है और यही मेरा पैगाम है:-

शीन खोत सर्द वुछान छुस व तिम सीनअ गअमत्य,

हा वतन दारो वुनि न्यंदरि गछख ना बेदार,

माल चोन जायि सपुन जुव ति मा गछि जाये,

कल्हण, गनी, तअ सरफी सअराब करियेम आबन,

सुय आब सानि बापय जहर हिलाल आसिहा,

आजाद बनुन जुल्म गालुन, वहम करुन दूर,

यी म्योन हवस, यी छु सदा, यी छु म्योन मुदा | -----



कवि इतना कुछ कहने पर संतुष्ट नहीं दिखता | वह आगे कहता है:-

युस डयकअ अलरावी अरशस फर्शहयय वक्त नियाज,

सुय डयकअ दरवाजनअय प्यठ क्याजि त्रिवुश, ती पज्या,

बस मारुनोतुय वे जोनुय प्यंड परुन मेरास व मुल्क,

जिन्दगी हुन्द खून नाहक बारि योवुय, तीपज्या-----||

(रे देशवासी, तेरे सजदा-ए-नियाजमंदी से तो आस्मानो जमीन

हिल सकते थे किंतु हाय अफ़सोस, तूने वह सजदा गैर-मुल्की

हाकिमों की दहलीज़ पर नजर किया | तू ने अपनी जिन्दगी का

लक्ष्य केवल मौत समझ रखा है तया अपने कर्तव्यों को भूल रहा

है | इन कर्तव्यों से विमुख होकर तू मानवता का हनन कर रहा

है, क्या यही उचित है?)

मजहब की दीवार इन्सान को इन्सान से जुदा करे- यह आजाद को कदापि मानी नहीं था | ‘हम सभी एक हैं, हम सब का एक खुदा है, हम सब एक ही धरती-माँ की सन्तान हैं- फिर यह भेदभाव क्यों:-

येमि यकसानिक हालि मअदाना,

कुसछु पनुन त कुसछु बेगाना म्योन,

यूथ मेनिश हयोद्तअ तुयुय मुसलमाना,

गोश थव बोज अफसानअ म्योन,

दीन म्योन मिलचार ,धर्मयकसाना,

यूथ मेनिश कैबा तुथुय बुतखाना,

गोश थव बोज अफसानअ म्योन----------||

मेरे लिये कोई भी अपना-पराया नहीं है 

न मेरे लिये कोई हिन्दू है और न कोई मुसलमान,

मेरा धर्म ‘मिलजुल कर रहने’ का धर्म है 

जैसे मेरे लिये मस्जिद पवित्र है, वैसे ही मंदिर भी |

देश की युवा-पीढी को आजाद ने विशेष रूप से ख़बरदार किया | उन्हीं पर देश के उज्ज्वल भविष्य की आशा टिकी हुई है | बस, उन्हें अच्छे नेता मिल जाय तो देश की काया पलट जाय | “नौजवानों, उठो और अपने ज़ोर-बाजू से अपनी मुश्किलें आसन करो | एक बात याद रखना, नेताओं के चक्कर में पड़कर उनका अन्धानुकरण कभी मत करना | कहीं वह मौकापरस्त तुम्हें चारागाह में ले जाने के बजाय किसी बीहड़ वन में न ले जाएँ- यह ध्यानपूर्वक देख लेना :-

च वोय रोज इस्तादअ पन्यन कोठयन प्यठ,

पंजन्य न्याय पानअ अंजरावू नवजबानो,

ब्रोठ्मिस पतअ- पतअ पकवन्य तीरे,

पानअ ति ब्रोठकुन नजारअ कर,

दखयि मन्ज मा गजख नमहंजी वीरो,

पजि शमशीरे गिन्दुना कर--------||

आजाद ने जब देखा कि जनता के दिलों में देशप्रेम की भावना का द्रुतगति से संचार नहीं हो पा रहा है और हाकिमवर्ग अपना जुल्म बराबर ढा रहा है तो उन्होंने अत्यंत ओजस्वी वाणी में इन्कलाब का नारा लगाया | वे ज़ोर-ज़ोर से पुकारने लगे:-

पान पनुन परजनाव छाव पनुन लोलबाग,

दाग-गुलामी मिटाव हावपनुन दिलदिमाग,

चान्य खयालन बनाव्य खवाजअ, अमीर वडय नवाब,

इन्कलाब अन इन्कलाब, इन्कलाब अन इन्कलाब,

सजदि कमन छुख करान खोफ कहनिद छुख मरान,

लोल छुख बागरान, ब्रांडअकनयन सोन जरान,

आसि त्युहुन्द खून सोरख छुय वे रगनमंच आब,

इन्कलाब अन इन्कलाब, इन्कलाब अन इन्कलाब --------||

(रे देशवासी, तू अपने आप को पहचान 

अपने दिल-दिमाग से काम लेकर गुलामी का दाग मिटा दे |

तू इन्कलाब ला, इन्कलाब ला|

तू किन के सामने झुकता है ?

और किन के खौफ से डरता है ?

अपने खून पसीने को एक करके

तू जिनके लिये नींव बना रहा है

वे तुझे हेय समझते हैं 

रे पौरुषहीन, उठ-इन्कलाब ला, इन्कलाब ला)

आजाद के अन्य देशभक्ति गीतों में ‘म्योन वतन’ मेरा वतन, ‘हा वतन दारो हो’ रे देशवासी, ‘नग्माए बैदारी ‘जागरण-गीत, ‘इन्कलाब’, ‘शायर-लीडर-कौम’ , ‘सुभाषचंद्र बोस’ ‘महात्मागान्धी’ , ‘नाल-ए-बडशाह’ ‘शिकवा-ए-कश्मीर’ ‘सरमायादारी’ आदि काफ़ी प्रसिद्ध हैं |

१९४७ का वर्ष कश्मीर के इतिहास में विशेष महत्त्व रखता है | इस वर्ष कश्मीर की सुरम्य घाटी पर पाकिस्तान द्वारा समर्पित कबाइलियों का आक्रमण हुआ, जिस के परिणामस्वरूप घाटी के अनेक देशभक्तों ने एकत्र होकर पाकिस्तानी हमले का साहित्यक मोर्चे से मुकाबला करने के लिए कल्चरल फ्रग्टे नाम की एक अदबी अजुमन गठित की |इस अंजुमन के सदस्य थे कश्मीर के विभिन्न प्रगतिशील युवा लेखक कर्मठ समाज सेवी तथा विचारणीय चिन्तक आदि | सभी ने देश भक्ति की भावना से ओतप्रोत साहित्य की संरचना की | सन १९४७ के एक वर्ष पूर्व कश्मीर के नवगठित राजनीतिक दल नेशनल कान्फ्रेंस ने वर्षों से चली आ रही सामन्तशाही डोगरा शासन के विरूद्ध अभियान छेड़ दिया था और इस से पूर्व मई १९४६ ई. में इस अभियान के अंतर्गत “कश्मीर छोड़ो” आन्दोलन ने एक व्यापक ने एक व्यापक एवं अग्र रूप धारण कर लिया था |

इस आन्दोलन के पीछे चूंकि स्वदेश प्रेम की भावना तथा प्रगतिशील तत्व कम कर रहे थे इसलिए कबादली हमले तक घाटी में ऐ ऐसा जोशीला एवं तनावपूर्ण माहौल बन चुका था, जिस को कल्चरल प्रान्टे के साहित्यकारों ने एक अनुकूल एवं सामयिक पृष्ठभूमि के रूप में – आत्मसात कर लिया | इस दौरान जो साहित्य रचा गया उस का व्यापक ध्येय जनता जो देश प्रेम का पाठ पढ़ाकर उसे आर्थिक एवं राजनीतिक दोनों प्रकार की दासता के बन्धनों से मुक्त कराता रहा इस दौर की मुख्य साहित्यिक प्रवृति राष्ट्रीय प्रगतिवादी रही जो कश्मीरी साहित्य में सन १९५३ के आसपास तक व्याप्त रही |

आततायियों को मुंहतोड़ उत्तर देने के लिए जिस साहित्यक मोर्चे | कल्चरल फ्रग्ट का गठन किया गया | उस के सक्रीय सदस्य थे | सर्वश्री दोनानाथ नादिम, नूर मुहम्मद रोशन, गुलाम अहमद फाजिल, नन्दलाल अम्बारदार, अलमस्त कश्मीरी अर्जुनदेव मजबूर, प्रेमनाथ प्रेमी आदि |

ये सभी कवि ह्रदय रखते थे | सभी ने देश की स्वतंत्रता अखंडता, मान मर्यादा तथा धर्म निरपेक्षता की रक्षा हेतु ओजस्वी वाणी में दुश्मन को ललकारा | सभी का एक नारा था |

हमला आवर ख़बरदार,

हम कश्मीरी हैं तैयार,

नादिम साहब इस मोर्चे के अगुआ सिद्ध हुए | उन के प्रत्येक आह्वान ने जनता में नवीन स्फूर्ति एवं मनोबल का संचार किया | व्यापक जन-जागरण उन का विश्वास था | विश्वमैत्री उन की आस्था थी तथा मानवतावाद उन का सम्बल था:

बढ़ना है,

बढ़ना है मुझ जुमहैरियत के मशविरों पर,

नजर मेरी है कश्मीर के रहबरों पर

सारी दुनिया को विश्वमैत्री ले मुझे एक है बनाना

कि मुझ में जोश- -जवानी है,

जोश- -जवानी है ...........|

नूर मुहम्मद रोशन ने नादिम के साथ स्वर में स्वर मिलाकर नये कश्मीर के सपने अपनी कविता ‘वतन आजाद थावुन छुम’ में यों संजोया 

मुझे अपने वतन को आजाद करना है तथा एक नया

कश्मीर बनाना है | ऐस आराम छोड़कर जंग के लिए

मौर्चा तैयार करना है | अपने दुश्मन को मुझे मिटा

देना है और एक नया कश्मीर बनाना है | गुलामी

की जंजीरों को तोड़ डालना है तथा अपनी

जवानी के दम से अपनी तकदीर को संवारना है |

यहां पर इसी काल के हिन्दी कवियों की कुछ कविताओं के उदाहरण देना अनुचित न होगा जो राष्ट्रीय-चेतना से ओतप्रोत कविताएं लिख रहे थे और जिनका वर्ण्य-विषय लगभग वही था जो कश्मीरी कवियों का रहा -

1- किस के आगे हाथ पसारें

कौन हमें है देने वाला?

अपनी छिनी हुई आज़ादी

भारत खुद ही लेने वाला। ) जगन्नाथप्रसाद मिलिंद)

2-ले अंगड़ाई उठ हिले धरा

कर निज स्वर में निनाद

तू शैल विराट्! हुंकार भरे

फट जाए कुहा,भागे प्रमाद। (रामधारीसिंह दिनकर)

3-प्राण प्रेम का खेल हो चुका अब आकर्षणहीन पुराना

ब्रज की बंशी छोड़ हमें अब कुरुक्षेत्र का शंख बजाना। (हरिकृष्ण प्रेमी)

4-मेरी जां न रहे, मेरा सर न रहे,

समां न रहे, न ये साज रहे |

फकत हिन्द मेरा आजाद रहे

माता के सर पर ताज रहे |(माधव शुक्ल)

ऊपर दिए गए उदाहरणों का ध्यान से अध्ययन करने पर इस सुखद निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि हिन्दी और कश्मीरी में प्रत्यक्षतया भाषा-भेद होते हुए भी दोनों भाषाओं में कथ्य के स्तर पर आशातीत आंतरिक समानता है और यह समानता उनके अन्तर सम्बन्धों को न केवल प्रमाणित करती है अपितु पुष्ट भी करती है।

बीसवीं शताब्दी के आरंभिक पचास वर्षों में रचित हिन्दी और कश्मीरी कविता की चेतना का तुलनात्मक अध्ययन करने के पश्चात इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है की दोनों में भाव और शिल्प के स्तर पर काफ़ी समानता है | बढती हुई राजनीतिक चेतना ने दोनों भाषाओँ के कवियों को आत्मोत्सर्ग की प्रेरणा और पराधीनता को अभिशाप मानकर स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिए दोनों ने अपनी कविताओं के माध्यम से नवचेतना व नवजागरण की भावनाओं को वाणी दी |

एक बात और। हिन्दी की बढ़ती हुई लोकप्रियता (इलैक्ट्र्निक मीडिया की बदौलत) ने कश्मीरी- भाषी समुदाय को अपनी भाषा में हिन्दी के अनेक शब्दों का व्यवहार करने की यथेष्ट प्रेरणा दी है।ऐसा हिन्दी के दबाव के कारण नहीं वरन् उसकी हर क्षेत्र में बढ़ती हुर्ह व्यावहारिक उपयोगिता के कारण है। संरचना एवं व्याकरणिक दृष्टि से भी चूंकि हिन्दी और उर्दू में कोई विशेष अन्तर नहीं है,इसलिए यहां के भाषा-भाषियों में हिन्दी के प्रति कोई दुराग्रह भी नहीं है।रूप, जनता, राजनीति, भारत, प्रधानमंत्राी, युद्ध, देश, भाषा,अध्यक्ष, विधान सभा आदि ऐसे अनेक शब्द हैं जो इधर, कश्मीरी भाषियों की ज़ुबान पर चढ़ गए हैं और इन शब्दों का अपनी भाषा में प्रयोग करते समय जन-सरोकारों से सम्बन्ध रखने वाला शिक्षित कश्मीरी भाषी न केवल अपने को मुख्यधारा से जुड़ा हुआ पाता है, अपितु इन शब्दों का प्रयोग करने पर आनन्दित भी होता है।यहां पर मैं कश्मीरी के प्रसिद्ध साहित्यकार श्री अमीन कामिल की उन पंक्तियों को उद्धृत करना चाहूंगा जो उन्होंने आज से लगभग ४० वर्ष पहले एक इण्टरव्यू के दौरान मुझ से कही थीं-‘हम तो नहीं,पर हमारी संतान को अब हिन्दी सीखनी चाहिए क्योंकि यही वह भाषा है जो हमें और हमारे बच्चों को समूचे देश के साथ जोड़ सकती है--’। कामिल साहब के कथन में जो सहमति का भाव दर्ज है, वह निश्चित रूप से किसी दबाव या विवशता का सूचक नहीं है, अपितु हिन्दी की बढ़ती हुई लोकप्रियता एवं उसकी सर्वग्राह्यता के कारण है। एक सूचना के अनुसार आज कश्मीर में,राजनीतिक अफ़रा-तफ़री के बावजूद, वहां के विश्वविद्यालय में हिन्दी का अध्ययन-अध्यापन हो रहा है, हिन्दी में शोधकार्य हो रहा है, विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग से ‘वितस्ता’ नाम की हिन्दी पत्रिका निकल रही है,कई टीवी चेनलों के लिए कश्मीरी युवक और पत्रकार प्रभावशाली ढंग से हिंदी में रिपोर्टिंग करते हैं आदि-आदि।

कश्मीर और कश्मीर का विस्थापन-साहित्य 

कश्मीरी साहित्य में राष्ट्रीय संचेतना के प्रसंग में कश्मीरी की उस अत्याधुनिक कव्य- प्रवृत्ति के लिए ज़िम्मेदार उन कारणों पर विचार करना अनुचित न होगा जिनके फलस्वरूप विगत तीन दशकों के दौरान धरती का स्वर्ग कहलाने वाली कश्मीर-भूमि में साहित्यिक फिजायें विषाक्त हुयी हैं। विश्व में फैलते आतंकी साए और बढ़ते इस्लामीकरण ने जहाँ विश्व के कई सारे देशों को भयाक्रांत कर दिया है, वही कश्मीर भी इस मज़हबी जुनून की कुत्सित और भयावह छाया से अछूता नहीं रह सका है।एक समुदाय (इस्लाम-परस्तों) द्वारा दूसरे समुदाय(कश्मीरी पंडितों/हिन्दुओं) को निर्ममता और बलपूर्वक अपने पैदाइशी वतन से खदेड़े जाने की बदौलत यह शांतिप्रिय और सहनशील समुदाय अपने ही देश में दर-दर भटकने को विवश हुआ।दरअसल, यह कट्टर,क्रूर और गैर राष्ट्रवादी ताकतों की राष्ट्रवादी ताकतों के साथ सीधी-सीधी जंग थी।बहु-संख्याबल के सामने अल्पसंख्या-बल को झुकना पड़ा जिसके कारण ‘पंडित समुदाय’ भारी संख्या में कश्मीर घाटी से विस्थापित हुआ और पिछले तीन दशकों से अपनी अस्मिता और इज्जत की रक्षा के लिए संघर्षरत है।विस्थापन के दौरान इस आतंकित किन्तु शांतिप्रिय समुदाय के रचनाकारों ने अपने रोष-आक्रोश और व्यथा-कथा को जो वाणी दी ,वह भाव और शिल्प की दृष्टि से ‘कश्मीरी विस्थापन साहित्य’ की बेमिसाल थाती है।यहाँ पर कश्मीरी पंडितों के मनो-विषाद से परिपूरित इस बहुमूल्य साहित्य की चर्चा करना अनुचित न होगा।

माना जाता है कि कश्मीर घाटी से पंडितों का विस्थापन सात बार हुआ है। पहला विस्थापन १३८९ ई० के आसपास हुआ जब घाटी में विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा बलपूर्वक इस्लामीकरण के परिणामस्वरूप हजारों की संख्या में या तो पंडित हताहत हुए या फिर अपनी जान बचाने के लिए वे भाग खड़े हुए।इस बीच अलग-अलग कालावधियों में पाँच बार और पंडितों का घाटी से निष्कासन हुआ।सातवीं और आखिरी बार पंडितों का विस्थापन १९९० में हुआ। आंकड़े बताते हैं कि पाक-समर्थित जिहादियों के आतंक से त्रस्त होकर १९९० में हुए विस्थापन के दौरान तीन से सात लाख के करीब पंडित कश्मीर से बेघर हुए।

१९९० में हुए कश्मीरी पंडितों के घाटी से विस्थापन की कथा मानवीय यातना और अधिकार-हनन की त्रासद कथा है। यह दुर्योग अपनी तमाम विडम्बनाओं और विसंगतियों के साथ आज हर चिन्तक, बुद्धिजीवी और जनहित के लिए प्रतिबद्ध रचनाकार के लिए उद्वेलन और चुनौतियां का कारण बना हुआ है। विस्थापन की त्रासदी के बीच, टूटते भ्रमों और ढहते विश्वासों को कन्धा देते हुए कश्मीर के रचनाकरों ने विस्थापितों के स्वप्नों और उनकी स्मृतियों को व्यवस्था और जागरूक देश-वासियों के रू-ब-रू रखकर विस्थापन से जनित स्थितियों और उनके दुष्प्रभावों को बड़ी मार्मिकता के साथ अपने रचना-कर्म में दर्ज किया है और दर्ज कर रहे हैं।

ध्यान से देखा जाय तो कश्मीर में आतंकवाद के दंश ने कश्मीरी जनमानस को जो पीड़ा पहुंचायी है, उससे उपजी हृदय-विदारक वेदना तथा उसकी व्यथा-कथा को साहित्य में ढालने के सफल प्रयास पिछले लगभग ढाई-तीन दशकों के बीच हुए हैं और अब भी हो रहे हैं।कई कविता-संग्रह, कहानी-संकलन,औपन्यासिक कृतियां आदि सामने आए हैं, जो कश्मीर में हुई आतंकी बर्बरता और उससे जनित एक विशेष जन-समुदाय(कश्मीरी पंडितों) के ‘विस्थापन’ की विवशताओं को बड़े ही मर्मस्पर्शी अंदाज में व्याख्यायित करते हैं। कहना न होगा कि पंडितों के घाटी से विस्थापन के कारणों और उससे जनित पंडित-समुदाय पर पड़े सामाजिक-सांस्कृतिक दुष्प्रभावों को लेकर देश में समय-समय पर अनेक परिचर्चाएं,संगोष्ठियाँ,आयोजन आदि हुए हैं परन्तु विस्थापन के दौरान कश्मीरी लेखकों द्वारा रचे गए साहित्य की सम्यक मीमांसा, उसका आलोचनात्मक अध्ययन आदि अधिक नहीं हुआ है। प्रस्तुत आलेख में विस्थापन के दौरान कश्मीरी पंडितों द्वारा लिखे गये साहित्य का आकलन और विश्लेषण करना अभीष्ट है।

विस्थापन की त्रासदी भोगते रचनाकारों की सबसे बड़ी पीड़ा जो कभी उन्माद की हदें छूने लगती है, आतंकवाद से छूटे घर-संसार की पीड़ा है। घर मात्र जमीन का टुकड़ा या ईंट-सीमेंट का खांचा भर होता तो कभी भी, कहीं पर भी बनाया जा सकता था. घर के साथ हमारी पहचान, स्मृतियों की भरी-पूरी जमीन और अस्मिता के प्रश्न जुड़े होते हैं. विस्थापितों से.दरअसल, जमीन का टुकड़ा ही नहीं छूटा, उनकी आस्था के केन्द्र वितस्ता, क्षीर भवानी और दल झील भी छूट गईं है। वहां बर्फ के तूदों (ढेर) के बीच मनती शिवरात्रि और वसंत की मादक गंध में सांस लेता "नवरोज' भी था। घर छूटने का अर्थ मोतीलाल साकी' के शब्दों में- "वही जानता है, जिसने अपना घर खो दिया हो। बात १९९० के आसपास की है।घर से बेघर हुओं ने विकल्पहीन स्थितियों को स्वीकारते हुए भी उम्मीद नहीं छोड़ी थी, यह सोचकर कि एक दिन हालात सुधर जाएंगे और हम वापस अपने घरों को लौट जाएंगे। आखिर हम एक स्वतंत्र धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के नागरिक हैं। मगर, शंभूनाथ भट्ट "हलीम' घर लौटने को विकल विस्थापितों से कहते हैं, "आतंकवाद ने वादी के आकाश और धरती के रंग बदल दिए हैं। वहां जाकर तुम क्या पाओगे? हमारी अपनी धरती अब हमारे लिए पराई हो गई है।'

पंडितों को वादी से खदेड़ने की साजिश में जिन छोटे-बड़े रहनुमाओं, साम्प्रदायिक तत्वों और पाक समर्थित जिहादियों/आतंकवादियों के हाथ रहे हैं, वे आज भी बेखटके वादी की सामासिक संस्कृति के परखच्चे उड़ाने में लगे हुये हैं और कहते हैं: "बट /पंडित तो सदा से भगोड़े रहे हैं।' अग्निशेखर को भगोड़ा शब्द कचोटता है, वे लिखते हैं:

"आंखें फोड़ीं, बाहें काटीं, बेकसूर थे भागे पंडित,

किसको चिन्ता नदियां सूखीं, लावारिस हैं, भागे पंडित।'' 

महाराज कृष्ण भरत लिखते हैं-"मुझसे मिलने के लिए/किसी को खटखटाना नहीं होगा दरवाजा/केवल फटेहाल सरकारी तम्बू का पर्दा सरकाना होगा।'

घाटी में छूटे घरों को जिहादियों ने मलबे के ढेर में बदल दिया। चन्द्रकान्ता को जले हुए छान-छप्परों में "घर' की शिनाख्त करते लगता है कि "घर की लाश टुकड़ों में बंट कर पूरी वादी में छितर गई है'। शशिशेखर तोषखानी अपनी गली के कीचड़ को भूल नहीं पाते, जो घर छोड़ते समय, मोहवश उनके पैरों से लिपट गई थी। ऐसे घर और गलियों को छोड़ना आसान नहीं था। तोषखानी कहते हैं:

"कत्लगाहों के नक्शों में/हमारे सिर रखे जा रहे हैं/मील के निशानों की जगह/और कोई दिशा तय नहीं है यहां/मृत्यु के सिवा।'

विस्थापन की त्रासदी ने कवि ब्रजनाथ बेताब के मन-मस्तिष्क को बहुत गहरे तक आक्रांत कर दिया है। उनकी यह पीड़ा उनके रोम-रोम में समाई हुई है। घर-परिवार की सुखद स्मृतियों से लेकर आतंकवाद की आग तक की सारी क्रूर स्थितियां कवि की एक-एक पंक्ति में उभर-उभर कर सामने आती हैं। आतंकी विभीषिकाओं का कवि द्वारा किया गया वर्णन और उससे पैदा हुई सामाजिक असमानता/स्थितियां मन को यों आहत करती हैं-

मैं कवि नहीं हूं

न मेरी धरा के सीने में छिपा मेरा लहू

मेरी कविता है।

क्योंकि मैं अपने लहू को छिपाने का नहीं

लहू से धरा को सींचने का आदी रहा हूं।

यही मेरी विरासत,मेरी परंपरा है

जिसे निभाते निभाते मैं 

बहुसंख्यक होते हुए भी अल्पसंख्यक हो गया हूं।...

विस्थापन में रचना करते हिन्दी कवियों के महाराज कृष्ण संतोषी,अवतारकृष्ण राजदान, रतनलाल शान्त, उपेन्द्र रैणा, महाराज कृष्ण भरत, क्षमा कौल, चन्द्रकान्ता से लेकर सुनीता रैना,प्यारे हताश तक ढेरों नाम हैं, जिनकी रचनाओं में एक रची-बसी विरासत के ढहने और पहचान के संकट की पीड़ा है। भ्रष्ट राजनीति और अवसरवादी नेताओं की गैरजिम्मेदारियों और ढुलमुल नीतियों के प्रति आक्रोश है क्योंकि वे लोग जवाबदेह हैं कल्हण के स्वर्ग को रक्त-रंजित रणक्षेत्र बनाने के लिए। कश्मीरी-भाषी कवि "साकी' के शब्दों में :

" आज वादी में दहशत का आलम है/डूलचू की पीढ़ी जवान हो गई है/लल्लद्यद और शेखुलआलम को आज कौन सुनेगा?/बडशाह की रूह कांप रही है/और वितस्ता का पानी बदरंग हो गया है।'

विस्थापितों के पास अतीत की स्मृतियां ही नहीं, वर्तमान के दंश भी हैं। शिविरों में पशुवत जीवन जीते संभ्रांत लोगों की दुर्दशा पर कवि उद्विग्न है। नयी पीढ़ी चौराहे-पर भौंचक्क खड़ी अपनी दिशा ढूंढ रही है। "साकी' उन बच्चों के लिए चिंतित हैं, जो तम्बुओं में पलते हुए मुरझा गए हैं। वे कहते हैं:

"ये हमारे लोकतंत्र के नए अछूत हैं/ राहों में मारे-मारे फिरना/अब इनकी सजा है/ये मां कश्मीर की बेबस बेचारी संतान हैं।'

इतिहास कहता है कि कश्मीरी पंडित अभिनवगुप्त, कल्हण,मम्मट और बिल्हण की संतानें हैं। इनके पूर्वजों को भरोसे/उदारता की आदत विरासत में मिली है। लेकिन,कुलमिलाकर इस बदलते समय में, भरोसे की आदत ने इन्हें ठगा ही है। विश्वासों की पुरानी इबारत, वक्त की आंधी में ध्वस्त हो गई है। चन्द्रकान्ता कहती हैं:

"तुम्हारे काम नहीं आएगी मेरे बच्चो! भरोसे की यह भुरभुरी इबारत/खुदा की हो या नेता की/तुम्हें लिखनी है वक्त के पन्नों पर/खुद ही नयी इबारत।'

विस्थापन भोगते रचनाकार अपने तीखे, तुर्श अनुभवों और वैचारिक उद्वेलनों के बीच, आज जो साहित्य रच रहे हैं, वह उनके निजी या वादी के सीमित परिवेश की समस्याओं से जुड़ा होने के साथ, जीविका के लिए घर से दूर, देश-विदेश में भटकते उन कश्मीरियों की भी पीड़ा है, जो उम्रभर की भटकन के बाद अपने पुरखों की धरती पर लौटने की उम्मीद और अधिकार से भी वंचित रह गए। कश्मीरी लेखक जब घर छूटने या शरणार्थियों की पीड़ाओं को स्वर देता है, तो निजी पीड़ा की बात करते हुए भी उसकी संवेदनाएं वैश्विक होकर उन बेघर-बेजमीन लोगों के साथ जुड़ जाती हैं जिनकी व्यथा उससे भिन्न नहीं है, भले कारण भिन्न हों। वह चाहे गुजरात की त्रासदी हो, उड़ीसा या आन्ध्र का तूफान हो, तिब्बतियों-अफ्रीकियों या फिर फिलिस्तीनियों की पीड़ा हो, संवेदना के तार उन्हें एक दूसरे से जोड़ते हैं। तभी तो महाराज संतोषी कहते हैं कि 

"अपने घर से विस्थापित होकर मैंने बिना यात्रा किए ही फिलिस्तीन को भी देखा और तिब्बत को भी।'

इन तमाम निराशाओं और अनिश्चितताओं के बावजूद रचनाकार हार नहीं मान रहा। राधेनाथ मसर्रत, वासुदेव रेह, शान्त, संतोषी, क्षमा कौल या चन्द्रकान्ता आदि सभी की उम्मीदें जीने का हौसला बनाए रखे हुए हैं। तोषखानी को भरोसा है कि,"फैलेगा हमारा मौन, नसों में रक्त की तरह दौड़ता हुआ....मांगेगा अपने लिए एक पूरी जमीन।'

"शान्त' वादी से दूर रहकर वादी के इतिहास को नए सिरे से रचना चाहता है- "अंधेरा है अभी, पर सूर्य जरूर निकलेगा।" और संतोषी कहता है, "इस बार सूर्य मेरी नाभि से निकलेगा।'

विस्थापन त्रासद होता है, खासतौर पर अपने ही देश में हुआ विस्थापन। वह लज्जास्पद भी होता है और आक्रोश का कारण भी। वह मानवीय यातना और मनुष्य के मूल अधिकारों से जुड़े बेचैन करने वाले प्रश्नों को जन्म देता हैं, जिन्हें रचनाकार स्वर देकर एक समानान्तर इतिहास रचता रहे है: कविताओं में भी, कहानियों में भी और "कथा सतीसर', "पाषाण युग' "दर्द पुर" आदि जैसे उपन्यासों में भी।

कश्मीरी लेखकों के 'विस्थापन-साहित्य' को मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है:१-हिंदी में लिखा गया विस्थापन साहित्य,२-अंग्रेजी में लिखा गया विस्थापन साहित्य और ३-उर्दू/कश्मीरी में लिखा गया विस्थापन साहित्य।

प्रस्तुत आलेख में मुख्यतया हिंदी में रचित कश्मीरी लेखकों द्वारा लिखित 'विस्थापन-साहित्य' को केंद्र में रखा गया है।इस अध्ययन द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि चूंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है,इसलिए कश्मीरी लेखकों द्वारा रचित 'विस्थापन-साहित्य' अपने समय और समाज की विषमताओं, चिंताओं, दुरावस्थाओं, आकुलताओं आदि का बखूबी वर्णन करता है।इस वर्णन में भाव और शिल्प के स्तर पर मर्म को छूने वाली जिन अनुभूतियों से साक्षात्कार होता है,वे कश्मीरी साहित्य के साथ-साथ भारतीय/हिंदी साहित्य की भी बहुमूल्य निधि हैं। 

यहाँ पर प्रसंगवश यह कहना अनुचित न होगा कि कश्मीर में कुछेक ऐसे भी रचनाकार हैं जो यद्यपि 'पंडित' नहीं हैं किन्तु पंडितों के विस्थापन की त्रासदी से विक्षुब्द हैं।अपने पंडित भाइयों से विलग होने और खुद को असहाय पाने की पीड़ा इन रचनाकारों ने भोगी है।कश्मीरी कवि बशीर अत्तहर की कविता "कहाँ जाऊँ मैं?" इसका प्रमाण है:

तुम समझते हो तुम्हारे अस्तित्व को मैं लील गया
पर, उस प्रयास में मेरा अस्तित्व कहाँ गया
यह शायद तुम्हें मालूम नहीं।
मैंने कल ही एक नई मुहर बनवाई और
लगा दी ठोंककर हर उस चीज़ पर
जो तुम्हारी थी।
लेकिन यह ख़याल ही न रहा कि
उन कब्रिस्तानों का क्या करूँ
जो फैलते जा रहे हैं रोज-ब-रोज
और कम पड़ रहे हैं हर तरफ़ बिखरी लाशों को समेटने में!
बस, अब तो एक ही चिंता सता रही है हर पल,
तुम को चिता की आग नसीब तो होगी कहीं-न-कहीं 

पर, मेरी कब्र का क्या होगा मेरे भाई?



कश्मीरी पंडितों के विस्थापन को लेकर मुझे कई सभा-गोष्ठियों में बोलने अथवा अपने आलेख पढने का अवसर मिला है।विस्थापन से जुडे कई कश्मीरी लेखकों की रचनाओं का 'रिव्यु' अथवा अनुवाद करने का अवसर भी मिला है।साहित्य अकादेमी,दिल्ली ने कई वर्ष पूर्व गिधर राठी के सम्पादन में "कश्मीर का विस्थापन सहित्य" पर जो विशेषांक निकाला था,उसमें मेरी भी दो-एक रचनाएँ सम्मिलित हैं। मुझे लगा कि पंडितों की विस्थापन की इस त्रासदी से जुड़े साहित्य को न केवल एकत्र किया जाय अपितु उसका निरपेक्ष-भाव से कश्मीर की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में अध्ययन भी किया जाय।प्रस्तुत आलेख मेरी इसी संकल्पना पर आधारित है।

कश्मीर की संत कवयित्री ललद्यद ने चौदहवीं शती में एक "वाख' कहा था- "आमि पन सोदरस...।' कच्चे सकोरों से ज्यों पानी रिस रहा हो, मेरा जी भी वैसे ही कसक रहा है, कब अपने घर चली जाऊं?' आज ललद्यद का यही "वाख', इक्कीसवीं सदी के इस भूमंडलीकरण के दौर में विस्थापित कश्मीरियों के अन्तर की हूक बनकर साहित्य में अभिव्यक्त हो रहा है। सिर्फ संदर्भ बदल गए हैं। संत कवयित्री ललद्यद ने यह "वाख' आध्यात्मिक संदर्भों में कहा था, धरती पर उसका कोई घर नहीं था, लेकिन आम-जन ईंट-गारे से बने उस घरौंदे की बात करता है, जिसमें उसके स्वप्न, स्मृतियां और भविष्य दफन हो गए हैं। लेकिन हूक वही है जो नश्तर-सी अंतर में गड़ी है। यों,ललद्यद ने यह भी कहा था:

"शिव/प्रभु थल-थल में विराजते हैं

रे मनुष्य! तू हिन्दू और मुसलमान में भेद न जान,

प्रबुद्ध है तो अपने आप को पहचान,

यही साहिब/ईश्वर से है तेरी पहचान।"



काल को महाबली कहा गया है।कोई आश्चर्य नहीं कि कश्मीर की इस महान आदि संत-कवयित्री योगिनी ललद्यद (१४ वीं शती) की वाणी में निहित सन्देश कश्मीरी जनमानस को उद्वेलित-अनुप्राणित कर घाटी में एक बार पुनः अमन-चैन का वातावरण स्थापित करने की प्रेरणा दे।

अंत में यहां पर यह उल्लेखनीय है कि हिन्दी समन्वय और एकता की भाषा है।इस ने प्रायः सभी भारतीय भाषाओं से सामंजस्य स्थापित कर अपने स्वरूप को संवर्द्धित किया है।भारतीय भाषाओं को अपने साथ लेकर चलने की और जनसाधारण का अभिव्यक्ति माध्यम बनने की उसकी क्षमता अद्भुत है।अपनी इसी विशेषता के कारण, कुछ अपवादों को छोड़कर, वह समूचे देश में उत्तर से दक्षिण तक तथा पूर्व से पश्चिम तक जन-जन की भावाभिव्यक्ति का सहज माध्यम बनी हुई है। आशा की जानी चाहिए कि भविष्य में भारतीय भाषाओं से अपने भावपूर्ण सम्बन्धों के आधार पर उसका व्यक्तित्व और निखरेगा।





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