Friday, September 16, 2016

हिंदी के प्रसिद्ध सम्पादक/आलोचक/लेखक प्रभाकर श्रोत्रिय नहीं रहे.मैं इनसे दो-तीन बार मिला हूँ जब वे ज्ञानपीठ के निदेशक थे. एक बार की मुलाक़ात बहुत दिनों तक याद रहेगी. किसी मीटिंग के सिलसिले में मुझे ज्ञानपीठ के दफ्तर जाना पड़ा. मित्रवर जुगमंदिर तायल भी इसबार मेरे साथ होलिए. मीटिंग हो जाने के बाद हम ने प्रभाकरजी से अलग से उनके चैम्बर में मिलने का मन बनाया.संयोग से उस दिन ज्ञानपीठ का स्टाफ उनको विदाई देने वाला था. (प्रभाकरजी ने निजी कारणों से ज्ञानपीठ को छोड़ने का मन बना लिया था.) हम दोनों से वे खूब आत्मीयता से मिले. ज्ञानोदय के ताज़ा अंक हमको भेंट किये.चाय मंगवाईआदि. इस सब में समय लगा.इस बीच उनके निजी सहायक ने दो बार उन्हें सूचना दी कि विदाई केलिए सारा स्टाफ नीचे एकत्र है और बाहर से कुछ अतिथिगण भी पधार गये हैं और बहुत देरसे इंतज़ार कर रहे हैं.हमने भी शिष्टाचारवश इजाजत मांगनी चाही,मगर यह उनका बडप्पन और लेखकों के प्रति मान-सम्मान का भाव था कि उन्होंने हमें यह अहसास होने नहीं दिया कि वे जल्दी में हैं .उल्टा सहायक को कहा: 'मेरे कुछ मेहमान मुझसे मिलने के लिए दूरसे आये हैं,मुझे कुछ समय लग सकता है.' आज की तारीख में साहित्यिक बिरदारी के ऐसे कद्रदानों का मिलना असम्भव नहीं तो कठिन ज़रूर है. विनम्र श्रद्धांजलि!

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