Wednesday, September 14, 2016



पहली कश्मीरी फिल्म ‘मेहंदी रात’ कैसे बनी?


मूल लेखक पुष्कर भान


प्रस्तुतकर्त्ता एवं रूपान्तरकार: डॉ० शिबन कृष्ण रैणा


हाँ, तो बात यों शुरू होती है। एक दिन प्राणकिशोर (मेरा अभिन्न मित्र) मुझ से बोला, ‘पुष्कर, सुना तुम ने ? कश्मीरी में एक फिल्म बनने वाली है।'

‘क्यों भई, कल तक तो भेजा ठीक था तुम्हारा, यह रात-भर में ही कैसे फिर गया ?' उसकी बात पर आश्चर्य प्रगट करते हुए मैंने पूछा।

'सच कह रहा हैं यार ! निक्के (बेटे) की कसम।'

‘भई, मुझे तो विश्वास नहीं हो रहा। भला कौन कश्मीरी में फिल्म बनाने का जोखम उठाएगा ?'

'सुनो, कल बम्बई से एम० आर० सेठ आ रहे हैं। वह मुझसे बातचीत करने वाले हैं। साथ में लोन और संतोष भी होंगे। संतोष फिल्म के लिए गीत लिखेगा और लोन डायलॉग ।'

मैं मन-ही-मन सोचने लगा कि प्राणकिशोर से कैसे कहूँ कि क्या मुझे भी इस फिल्म में काम करने का मौका मिलेगा ?

दिल कर रहा था कि कह दूँ ' भई, मुझे पैसा-वैसा कुछ भी नहीं चाहिए, बस एक चांस मिल जाए। यह स्वर्ण अवसर हाथ से निकलना नहीं चाहिए।‘

जब से फिल्म बनने की सूचना मिली, सच कह रहा हूँ, मेरी भूख जाने कहाँ उड़नछू हो गई? दफ्तर के काम से भी दिल उकता गया। दिमाग पर फिल्म का भूत कुछ इस तरह से छा गया है कि मुझे लोन और संतोष फिल्मी दुनिया की दो महान् हस्तियाँ नजर आने लगी । रात-दिन बस यही विचार दिल-दिमाग में चक्कर काटता रहा कि क्या मेरा फोटो भी सिनेमा-हाल के बाहर टाँगा जाएगा ? क्या मेरा नाम भी स्क्रीन पर जाएगा ? 

मैने अपने हमदम, अपने दोस्त सोमनाथ साधू को स्थिति से परिचित कराया। यह भाई भी मेरी ही तरह फिल्म में काम पाने के लिए बेचैन हो रहा था। हम आपस में बातें कर ही रहे थे कि सामने से प्राणकिशोर आता हुआ दिखाई दिया', ‘भई, कल तुम दोनों अपनी-अपनी फोटो-कापी लेते आना। उन्हें बम्बई भेजना है और हाँ सुनो पुष्कर, विलन का रोल करोगे क्या ?”

उसका इतना कहना ही था कि मैं ने उसी क्षण क्रूर खलनायकाना अन्दाज में अपनी भौंहें कस लीं, ‘विलन का ही सही, मगर चांस जरूर मिल जाना चाहिए।'

‘शुआर-शुआर, वाय नॉट ।' उसकी इस फिरंगी भाषा ने मुझे तनिक निराश-सा कर दिया । लगा, वह आना-कानी कर रहा है। मगर, मेरी निराशा उस दिन आशा में बदल गई जब प्राणकिशोर ने हम दोनों से कहा, ‘फोटोग्राफ अप्रूव्ड'। आज उसकी फिरंगी भाषा बहुत मीठी लग रही थी मुझे।
०००००
अहादू होटल (श्रीनगर का एक प्रसिद्ध होटल) का कमरा । बम्बई के सेठजी, फिल्म के मुख्य अभिनेता, डायलॉग राइटर लोन, एसोशिएट डायरेक्टर प्राणकिशोर, फिल्म के गीतकार जी० आर० संतोष तथा गीतों को संगीत देने वाले मोहनलाल’ ऐमा ।सभी पूरे दम-खम के साथ कुसियों पर विराजमान हैं। लोन बार-बार कालीनॉस-स्माइल दे रहा है। वास्तव में, यह ऐसा हथियार है जिसने बड़े-बड़ों को सरंडर करवाया है। संतोष पाइप चूस रहा है और बीच-बीच में उसके सिरे को गाल से सटाकर लोन की नकल कर रहा हैं। प्राणकिशोर को फ़क्त फिरंगी भाषा बोलने की झक सवार हो गई। एक-आध बार तो उसने बैरे को डाँट भी पिलाई, 'यू डोंट हैव प्रांप्ट सविस टुडे । व्हॉट द हेल इज दिस ?' बेचारा बैरा हेल को बेल समभ बैठा और विनम्रतापूर्वक बोला, ‘जनाब, अभी-अभी पावर ऑफ हो गया है। नहीं तो बजती थी ।' मोहनलाल ऐमा सेठजी को मीठी-मीठी बातों में फुसलाकर आश्वासनों के भण्डार लुटाता रहा।

सेठ वास्तव में सेठ था। धन का स्रोत, करोड़ों का मालिक । मगर, फिर भी विनम्र और मित्तभाषी । छोटा-मोटा बकरा जैसा ।सादा भेस, दिखावा कहीं नहीं।

मैं सोचने लगा कि यह धनी-मानी लोग भी कितने सीधे-साधे होते हैं। इतने में सेठजी ने मुखारविन्द खोला। मुंह क्या खोला, मोती लुटाए। दायीं ओर के होंठ कुछ जुडे-हुए-से और बायीं ओर के होंठ शब्दों की निकासी करते हुए:

"हाँ,तो साहब मैं भूल ही गया आपका नाम ।' सेठजी ने मुझे देखकर कहा।

'पुष्करनाथ !' मैंने भौंहें तीरकमानी अन्दाज में तानकर जवाब दिया । कहने को तो मैं ने अपना नाम कह दिया, मगर मेरा सारा शरीर पसीने से तर हो गया था। नथुने अपने-आप फड़कने लगे और होंठ हरकत करने लगे । डर इस बात का था कि कहीं सेठजी मुझे रिजेक्ट न कर दें। 

मगर, ऐसा कुछ भी न हुआ । मुझे और साधू दोनों को फिल्म में ले लिया गया। इसी बीच सेठजी का हाथ जेब में गया और उन्होंने कांट्रक्ट-फार्म बाँटे। सबने दस्तखत कर दिये । एक-एक हजार एडवांस। विश्वास नहीं हो रहा था कि फिल्म की दौलत हमारी जेबों में है । सेठजी ने सबसे बिदा ली। फिल्मी-दुनिया की महान् हस्तियां अहद्-हॉटल के कमरे से शाही डग भरते हुए बाहर निकल आयीं । सभी के दिमाग में यह बात घूमने लगी कि आज सारी दुनिया उनकी क़िस्मत पर रश्क करेगी । यहां तक कि साधू और मैं काफी देर तक एक-दूसरे से बात करने से कतराते रहे यह सोचकर कि बात पहले कौन करे। कोई भी अपने आप को छोटा जताना नहीं चाहता था ।

फिल्म के लिए स्क्रिप्ट तैयार हो गई और डायलॉग भी बन गये। फिल्म के लिए साजो-सामान भी मय अमले के बम्बई से आ गया। टंगमर्ग (कश्मीर का एक प्रसिद्ध प्राकृतिक स्थान) में डाक-बंगला एकटरों के लिए बुक करा लिया गया। एक विंग एक्ट्रेसों के लिए और दूसरी एक्टरों के लिए। और इसी के साथ 'फ्लाइग रानी' ( सेठजी की गाड़ी) भी कार्यक्षेत्र में उतर गई। जिस रंग की कार थी उसी रंग का सूट भी आज सेठ मनाराम जी ने पहन रखा था । कार का काम था मनाराम, कैमरा मैन और सन्तोख सिंह को शहर से टंगमर्ग और टंगमर्ग से शहर लान और ले जाना । यों तो प्राय: हर गाड़ी में धूल खिड़कियों से अन्दर घुसती है मगर इस गाड़ी का आलम दूसरा था। यद्यपि इसकी खिड़कियां इनटेक्ट थीं, मगर इस कार में सफर करते समय सवारी की पैंट की जेबों से धूल उड़ती थी, जो इसके फर्श के किसी छेद से मौका पाकर भभकती थी। यह ‘फ्लाइंग रानी' के ड्राइवर नजीर खान का ही बूता था कि वह इस हालत में भी उसे ढोए जा रहा था। बड़ा ही दिलबर और दिलदार ड्राइवर था । कभी वह रानी को घसीटता और कभी रानी उसको और कभी दोनों समझौता करके लम्बी नींद सो जाते ।

इघर, टंगमर्ग के डाक-बंगले में रौनक आ गई। सभी एक्टरों का एक ही घर । साथ-साथ खाना-पीना, सोना-खेलना, उठना-बैठना ’ ’ । आधों को ‘कड़क-पराठे' पसन्द तो आधों को फ्राई-आमलेट पसन्द । कुछ मीट के पक्ष में तो कुछ साग-भाजी के पक्ष में । एक सप्ताह के बाद खबर मिली कि टंगमर्ग और उसके आस-पास के इलाके में मांस और मुर्गों का अकाल पड़ गया है। मुर्गों का ऐसा सफाया हुआ कि मारे खौफ के मुर्गियों ने अण्डे देना बन्द कर दिया। टंगमर्ग के निवासी तोबा करने लगे कि हे राम, यह कौन-सी भुक्खड़-पार्टी यहाँ आन पड़ी है। धीरे-धीरे दूसरी चीजें भी बाजार से ग़ायब होने लगी । खुदा ही जानता है कि यह टंगमर्ग के हवा-पानी का असर था या कि हम लोगों की मानसिक कमजोरी कि हर कोई मरना भूल खूब छककर सेठ का माल उड़ाने लगा ।

एक दिन की बात है। टंगमर्ग के नाले पर शूटिंग हो रही थी। साधू और मैं मेक-अप किए हुए हैं। बड़े-बूढ़ कह गये हैं-‘कर्महीन खेती करे, बलद मरे या सूखा पड़े।‘ साधू को सिग्रेट पीने की तलब जोरों से उठी। बोला, ‘यार, एक सिग्रेट तो देना।'

“मेरे पास चार-मीनार है”

‘चलेगा ।'

‘चलो, जरा उधर हटकर पीते हैं। यहाँ सभी लोग देख रहे हैं।' मैं ने उसे एक बड़े पत्थर की आड़ में चारमीनार की सिग्रेट पकड़ायी। मगर, हाय री किस्मत । माचिस न उसके पास और न ही मेरे पास। अब क्या हो ? साधू भूल गया कि वह मेक-अप किए हुए है। घुस गया दर्शकों में: 'भाई साहब, आपके पास माचिस होगी क्या? भाई साहब ने साधू को ऊपर से नीचे गौर से देखा। फिर हँसी का पटाखा छोडकर फब्ती कसी, ‘अरे-रे, इन मंगते कश्मीरी एक्टरों को तो देखो । माचिस तक नहीं खरीद सकते। शायद बेगार ली जा रही है इन से ।' भाई साहब के साथ-साथ और भी दूसरे लोग ठठाकर हँस दिए। साधू अपनासा मुहं लेकर फुर्ती से लौट आया।

०००००

मागाम( स्थान-विशेष) में शूटिंग चल रही थी । सभी ने अपने-अपने कपड़े उतार कर फिल्मी परिधान पहन रखा था ।

"कपड़ों को आस-पास के पेड़ों पर टाँग दिया गया था । लगता था जैसे गाँव में कोई मेला लगा हुआ हो। मैं मेक-अप करवा रहा था कि अचानक मेरी नजर सामने गई। क्या देखता हूँ कि एक भाई मेरे कोट के इर्द-गिर्द पतंगे की तरह मेंडरा रहे हैं। मैं सकपकाया । सोचने लगा कि कहीं यह भाई मेरा कोट पार न कर जाए। वह घूर-घूर कर मेरे कोट को देखने लगा। मैं समझ गया कि कोट की शमत आ गई है। मैं मेक-अप अधूरा छोड़कर उस भाई के पास नंगे पाँव : दौड़ता हुआ गया: 

'क्या बात है बरखुरदार ?

'अजी, मैं पूछ रहा हूँ कि कितने में दे रहे हो यह कोट?' वह बड़े रोब के साथ बोला।

मैं ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और खीझकर जवाब दिया, 'अठारह रुपए में।'

‘नहीं, अठारह ज्यादा हैं। नौ जंचते हों तो कर दो इसे मेरे हवाले ।'

'अठारह से एक कौड़ी भी कम नहीं होगी ।'

‘हूँ' वह कुछ संजीदा होकर बोला।‘दरअसल, महगाई ने सब को मार डाला है।तुम्हारे सर की कसम, पिछले वर्ष इसी मेले में, ऐसा ही कोट मैं ने सिर्फ साढ़े आठ रुपए में खरीदा था - - - - - । हां, तो बोलो, क्या इरादा है?' मैं अब अपने गुस्से को रोक न सका बमक पड़ा, 'अबे ओ भड़वे, क्या समझ रखा है तू ने मुझ को ? मैं एक्टर हूँ,फिल्मी एक्टर । यहाँ यह शूटिंग चल रही है, कोई कबाड़-मेला नहीं लगा है। गेट

आउट । ये हमारे पहनने के कपड़े हैं, नीलामी के कपड़ नहीं।'

वह भाई वहाँ से तब हटा जब उसके किसी दोस्त ने उसे समझाया, ‘अरे-रे, यह तो वास्तव में, एक्टर हैं भाई। कश्मीरी फिल्म के एक्टर।'

शूटिंग चलती गई और फिल्म बनती।

०००००

टंगमर्ग की जानलेवा सर्दी और शूटिंग थी नाइट की । सीन था मेरे मरने का। मैं रजाई में दुबका पड़ा हूँ। दो तकिए मेरी गर्दन के नीचे हैं। 'काँगड़ी' बिस्तर में हैं। मेरे इर्दगिर्द फिल्म के तीन पात्र: हीरो ओमकार ऐमा, हीरोइन मोखतअ और हीरो का भाई सोमनाथ साधू । तीनों मेरे मरने का बेचैनी के साथ इन्तजार कर रहे हैं।

‘अरे, ओ! अब तो मर जा जल्दी-जल्दी । मारे सर्दी के हम ठिठुर गये हैं । खुद तो बड़े मज़े से रजाई में दुबके हुए हो । कुछ हमारा भी तो खयाल करो।'

जितना मुझ से बन पड़ा, उन्हें परेशान किया। बहुत देर के बाद मरा मैं । 

“साहब, बेड टी । बैरा अली हर रोज़ अलसुबह दरवाजे पर दस्तक देकर पुकारता। सभी बेदार होते हुए भी गहरी नींद का स्वाँग रचते । हर कोई इसी प्रतीक्षा में रहता कि दरवाजा पहले कौन खोले। उस रात सन्तोष हमारे ही कमरे में सोया था । उसने रज़ाई साँप की केंचुली की तरह ओढ़ रखी थी ।

'हजूर, बेड टी ।' बैरा अब दरवाजा जोर-जोर से खटखटाने लगा ।

सन्तोष झल्लाया, 'हाय री किस्मत ! नींद के भी लाले पड़ गये यहाँ। नहीं चाहिए यह सुसरी बेड टी । ’ हुं, हमारे पुरखों ने तो कभी दिन की चाय तक नहीं पी होगी!’

मगर, साधू से नहीं रहा गया । मुस्तैदी के साथ बिस्तर से उठ खड़ा हुआ और दूरबाजा खोलकर बैरे से बोला, ‘ओ, बैरे मियाँ, ठहरना तो भई । यह सन्तोष क्या जाने कि बेड-टी किसे कहते हैं? बेड टी तो फिल्मी एक्टरों के लिए एक जरूरी चीज़ है।'

संतोष ने रज़ाई से मुंह निकाल कर कहा, ‘नहीं पिऊँगा, कभी नहीं।'

‘पीनी पड़ेगी,ज़रूर पीनी पड़ेगी ।‘

‘बिल्कुल नहीं, हरगिज नहीं।'

'तो फिर क्यों सोये हम एक्टरों के साथ ?’ नहीं, यह नहीं चलेगा।'

खैर, बहुत कहा-सुनी के बाद सन्तोष को ब्रेड-टी पीनी ही पड़ी। 

यहां पर सूरजनारायण तिक्कू के बारे में कुछ कहना मैं जरूरी समझता हूं' । यह मात्र एक ऐसा व्यक्ति था जो हमारे हँसी-मजाक में खुलकर शरीक होता था। बम्बई से आई हुयी यूनिट (पार्टी) के सभी लोग उसकी बातों में ख़ूब रस लेते थे। खुद सेठ साहब भी । यहाँ तक कि सेठजी ने उन्हें अन्य कामों के अलावा किचन की मैनेजरी

भी उन्हें सौप दी थी । मैनेजरी क्या सौंपी, चील को मांस सँभलाया । नतीजा यह हुआ कि किचन में दस मुर्गे बीस टांगों समेत प्रवेश करते तो उधर से यही मुर्गे केवल नौ टाँगे लेकर निकलते। देखते-ही-देखते सूरजनारायण ने वह सेहत बनायी, वह सेहत बनाई कि उसके चहरे पर नजर नहीं टिकने लगी ।

एक दिन की बात है। सेठजी को किसी जरूरी काम से बम्बई जाना पड़ा। ‘फ्लाइंग रानी' की खिड़की से सर बाहर निकाल कर उन्होंने सूरजनारायण से कहा, 'सूरजजी, मेरे पीछे खाने-पीने के मामले में किसी को कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए।' सूरज बोला, सेठ साहब, आप बेफिक्र रहें। जब हम हैं तो फिर क्या ग़म है। सिर्फ मुर्गा पकेगा।'

सेठ कुछ दिनों के बाद लौटकर आगये और सूरज ने घर जाने के लिए छुट्टी मांगी।गया तो वह चार दिन की छुट्टी लेकर मगर लौट आया दूसरे दिन ही।

' 'क्यों भई, तुम इतनी जल्दी लौट कर कैसे आ गये ? घरवाली ने भगा दिया क्या ?'

हम में से एक ने चुटकी ली। 

‘नहीं तो ।'

‘फिर?’

'अरे भई, अब कहूँ भी तो क्या कहूँ। इस टंगमर्ग ने मेरी तो आदत ही बिगाड़ दी। घर पहुंचा तो वही कड़म का साग, वही दाल और वही बैंगन। माथे को पीटकर मुंह से निकल पड़ा, सूरज, लानत है ऐसे मुकद्दर पर । कहां मुर्ग-मुसल्लम और कहां

यह साग-भाजी । चल वापस टंगमर्ग के किचन मे ।'

०००००

आउटडोर शूटिंग । ग्रामीण मेक-अप में ऐमा और साधू को लाल-चौक के बीच में से होकर दिन-दहाडे गुजरना था। सीन यह था कि ये दोनों गाँव से आये हुए हैं और विलन की तलाश में हैं। कमरा होटल में फिक्स किया गया था। दोनों बड़ी मजे के साथ लोगों के बीच में से होते हुए गुजर रहे थे। किसी को भी इसका ध्यान न था कि शूटिंग चल रही है। इसी बीच एक जोरदार आवाज हुई, 'अरे-रे, कश्मीरी एक्टर ! वह देखो।' जाने किस मरदूद की गिद्ध-दृष्टि ने उन्हें भीड़ में पहचान लिया था। ऐमा तो जान बचाता हुआ होटल के अन्दर घुस गया, मगर साधू को लोगों ने घेर लिया।

'अरे, देखो तो इस एक्टर को एक बोलT । ‘छीन लो यार इसका यह कम्बल’, दूसरा बोला।

‘दिलीप कुमार को भी पीछे छोड़ दिया बच्चू ने', तीसरा बोला ।

बस फिर क्या था लगे लोग उसका कम्बल खींचने। साधू गिड़गिड़ाकर मिन्नतें करने लगा, 'य-यह मेरी कम्बल नहीं है भाई लोगो। मु-मुझे जाने दो। लो कान पकड़ता हूँ ।उस वक्त साधू की हालत देखने लायक थी ।

समय बीतता गया और फिल्म बनती गयी और अन्त में बह दिन भी आया जब फिल्म का आखिरी शॉट शाही-चश्मे में लेना निश्चित हुआ। इस शॉट तक पहूँचते-पहुँचते हालत यह हो गई थी कि सेठ मनाराम की जेब की तरह हमारा भी धैर्य चुक चुका था । रिकॉर्डिंग वैन मय अमले के वापस मुबंई, कैमरा मय साउण्ड बाक्स व ट्रैक के वापस मुंबई को, रिफ्लेक्टर भी वापस मुंबई को--- । संक्षेप में, कड़की के आलम में सेठजी ने यूनिट के अधिकांश आदमियों को एक-एक करके वापस अपने-अपने घर रवाना कर दिया। इन सबका काम मैं ने, प्राणकिशोर ने, ओमकर ऐमा ने और सूरज पूरा किया। मुझे याद है कि सिग्रेट के डिब्बे की चाँदी से सूरज ने रिफ्लेक्टर बनाए बड़ी मुश्किल से।प्राणकिशोर ने कहीं से एक कैमरा कबाड़ लिया । आखिरी जिन्दाबाद। और फिल्म पूरी हो गयी ।

सेठ खुश हो गया कि चलो जैसे-तैसे उसकी फिल्में पूरी हो गई। मगर हम नहीं।'जो ज़िन्दगी हम सब ने मिलकर टंगमर्ग में गुजारी थी, उसको पीछे छोड़ते समय हम सब के दिल दर्द करने लगे। ऐसा लगा जैसे मां से उसके बेटे को कोई जबर्दस्ती जुदा कर रहा हो। सभी बिदा होते समय बार-बार टंगमर्ग के डाकबंगले को निहारने लगे। " प्राणकिशोर और सूरज इस विदाई वेला में भी नजरे बचाकर डाकबंगले के किचन को कातर नजरों से देखे जा रहे थे । 

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