Thursday, May 10, 2018

प्रूफ रीडिंग

प्रूफ रीडिंग पर बात चली है तो एक मजेदार किस्सा और याद आ रहा है।उस ज़माने की बातें हैं जब राजस्थान पत्रिका के 'इतवारी परिशिष्ट'के संपादक श्री मनोहर प्रभाकर जी हुआ करते थे।ये बातें अस्सी-नब्बे के दशक की होनी चाहिए।उन्होंने मुझे बहुत छापा।कहानियां,अनुवाद,संस्मरण आदि।कालांतर में उनका आफिस केसरगढ़,जयपुर से झालाना डूंगरी जयपुर शिफ्ट हुआ,जयपुर दूरदर्शन के आसपास।मैं जब भी जयपुर जाता किसी भी काम से,तो मनोहर प्रभाकरजी से अवश्य मिलता।एक दिन उनके पास बैठा था तो पूछने लगे इन दिनों आपकी कोई रचना नहीं आयी।व्यस्त हैं क्या?मैं ने निवेदन किया:एक रचना भेज रखी है।उसी के बारे में पूछने आया था।उन्होंने तुरंत इण्टरकॉम से सहायक चम्पा जी को बुलाया।मेरा परिचय दिया और मेरी रचना की स्थिति के बारे में जानकारी मांगी।चम्पाजी तुरन्त बोली:सर,हाँ।इनकी रचना आयी तो है और शीर्षक उसका 'रिपूते' है जो समझ में नहीं आ रहा।मुझे बात को समझने में देर नहीं लगी।दरअसल, उस ज़माने में रचनाएँ हाथ से लिखकर भेजने का चलन था। 'रिश्ते' को चम्पाजी रिपूते समझ बैठी थी और इसी वजह से छप नहीं रही थी।शायद शीर्षक देखकर ही चम्पाजी ने निर्णय लिया था अन्यथा आगे कहानी की थीम रिश्तों से ही जुड़ी हुई थी।मगर पूरी कहानी पढ़े कौन?
मेरी बात सुनकर वहाँ बैठे सभी लोग हंस दिए।(इसे लिखावट की प्रूफ रीडिंग कहें तो कैसा रहे?)कहानी अगले ही सप्ताह 'रिश्ते' नाम से छपकर आ गयी।

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