Tuesday, June 21, 2016





दुबई में प्रभु श्रीनाथजी

९६७ से लेकर १९७७ तक मैं प्रभु श्रीनाथजी की नगरी नाथद्वारा में सेवारत रहा. एक तरह से मेरे अकादमिक और गृहस्थ जीवन की शरुआत इसी पावन नगरी से हुयी. स्मृति-पटल पर इस जगह की बहुत-सारी सुखद स्मृतियाँ अभी तक अंकित हैं. इधर, गृहस्थी बढ़ती-फैलती गयी और पिछले तीस-पैंतीस वर्षों के दौरान जिंदगी के सारे उतर-चढ़ावों और खट्टे-मीठे अनुभवों को पीछे मुड़कर देखना अब बहुत अच्छा लगता है. दो बेटियों की शादियाँ हो चुकी हैं. दोनों के पति सेना में उच्च ओहदों पर हैं. बेटा कुछेक वर्षों तक तो स्वदेश में रहा और बाद में वह दुबई चला गया किसी बड़ी कंपनी में.

मैं जब भी दुबई आता हूँ तो दुबई में बने प्रभु श्रीनाथजी के मंदिर के दर्शन करना नहीं भूलता. बेटा भी चूँकि नाथद्वारा के ‘जागृत-बाल-मन्दिर’ में पहली-दूसरी क्लास में पढ़ा है, अतः मुझे दुबई स्थित श्रीनाथजी के मंदिर ले जाने में ज़रा भी आलस्य नहीं करता. अजमान(जहाँ पर बेटा रहता है) से लगभग एक-डेढ़ घंटे की दूरी पर स्थित यह मंदिर-परिसर देखने लायक है. सर्वधर्म सद्भाव की सुंदर झलक मिलती है यहाँ. सिखों का गुरुद्वारा, शिरडी के सांई का मंदिर, शिवजी का मंदिर, प्रभु श्रीनाथजी का मंदिर आदि सबकुछ एक ही जगह पर. एक मस्जिद भी बगल में है.
इस बार कुछ ऐसा योग बना कि दुबई स्थित श्रीनाथजी के मंदिर के स्थानीय मुखियाजी से भेंट हो गयी. जब उन्हें यह मालूम पड़ा कि मैं नाथद्वारा में रहा हूँ और वहां कॉलेज में मैं ने पढ़ाया है तो पूछिये मत. सत्तर के दशक की नाथद्वारा नगर की सारी बातें और घटनाएँ दोनों की आँखों के सामने उभर कर आ गयीं. मनोहर कोठारीजी, गिरिजा व्यास, नवनीत पालीवाल, दशोराजी, भंवरलाल शर्मा, बहुगुणा साहब, ललितशंकर शर्मा, मधुबाला शर्मा, बाबुल बहनजी, कमला मुखिया, भगवतीलाल देवपुराजी आदि जाने कितने-कितने परिचित नाम हमारे वार्तालाप के दौरान हम दोनों को याद आये.
हालांकि वे सीधे-सीधे मेरे विद्यार्थी कभी नहीं रहे क्योंकि जब मैं कॉलेज में था तो वे आठवीं कक्षा में पढ़ते थे. मगर जैसे ही उन्हें ज्ञात हुआ कि नाथद्वारा मंदिर के वर्तमान मुखियाजी श्री इंद्रवदन मेरे विद्यार्थी रहे हैं तो वे सचमुच विह्वल हो उठे. गदगद इतने हुए कि मुझे अपना गुरु समझने लगे यानी गुरु के गुरु! स्पेशल प्रसाद मंगवाया और मुझे भेंट किया.



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