Saturday, June 18, 2016

भारतीय भाषाओँ से हिंदी में अनुवाद की समस्याएं 

अनुवाद पिछले लगभग तीस वर्ष से मेरी रुचि का विषय रहा है। अध्यापन-कार्य के साथ-साथ कश्मीरी, अंग्रेज़, उर्दू आदि भाषाओं से मैंने अनुवाद का काम खूब किया है। चूँकि मेरा कार्य अपनी तरह का पहला कार्य था, इसलिए साहित्य, विशेषकर अनुवाद के क्षेत्र में मुझे प्रतिष्ठा भी यथोचित प्राप्त हुई। अनुवाद-कार्य के दौरन मुझे लगा कि अनुवाद-विधा मौलिक लेखन से भी ज़्याद दुष्कर एवं श्रमसाध्य विधा है। (मैंने कुछ मौलिक कहानियाँ, नाटक आदि भी लिखे हैं) अनुवाद सम्बन्धी अपनी दीर्घकालीन सृजनयात्रा के दौरान मेरा वास्ता कई तरह की कठिनाइयों/समस्याओं से पड़ा जिनसे प्राय: हर अच्छे अनुवादक को जूझना पड़ता है। इन कठिनाइयों एवं समस्याओं के कई आयाम हैं जिन्हें इस प्रबन्ध मे6 यथास्थान ‘भाषातत’ एवं‘अर्थगत’ शीर्षकों के अंतर्गत विस्तार से समझाया गया है।
संस्थान के पूर्व निदेशक प्रो. मृणाल मिरी एवं वर्तमान निदेशक प्रो. विनोदचन्द्र श्रीवास्तव दोनों के प्रति मैं आभारी हूँ जिन्होंने इस कार्य को पूरा करने में मेरी हर संभव सहायता की। स्वयं अनुवाद-प्रेमी होने के कारण प्रो. श्रीवास्तव ने मेरे कर्मोत्साह को खूब बढ़ाया और मार्गदर्शन भी किया।
अनुवाद कार्य के दौरान मुझे लगा कि अपने अनुभवों को साक्षी बनाकर मुझे ऐसी कोई परियोजना हाथ में ले लेनी चाहिए जिसमें अनुवाद के सैद्धांतिक पक्षों की सम्यक् विवेचना हो तथा अनुवादकार्य में आने वाली कठिनाइयों/समस्याओं का विवेचन कर उनके निदान आदि पर भी सार्थक विचार हो। 1997 के प्रारम्भ में मैंने गम्भीरतापूर्वक इस परियोजना के प्रारूप पर विचार करना शुरू किया तथा इसी वर्ष के अंत में विधिवत इस परियोजना को आवश्यक पत्र/प्रपत्रों के साथ ‘भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान’ शिमला को विचारार्थ भिजवा दिया। सभी भारतीय भाषाओं का ज्ञान चूँकि मुझे नहीं था, इसलिए मैंने विषय सीमित कर परियोजना का शीर्षक रखा ‘भारतीय भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद की समस्याएँ: एक तुलनात्मक अध्ययन, कश्मीरी-हिन्दी के विशेष सन्दर्भ में’। एक मई 1999 को मैंने संस्थान में प्रवेश किया। एक नये, सुखद एवं पूर्णतया शांत/अकादमिक वातावरण में कार्य करने का यह मेरा पहला अवसर था जिसकी अनुभूति अपने आप में अद्भुत थी। लगभग ढाई वर्षों की अवधि में मैंने यह कार्य पूरा किया जिसका मुझे परम संतोष है।



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