Friday, June 17, 2016

कहावत का सच

डॉ० शिबन कृष्ण रैणा
कहावत मानव-जीवन के अनुभवों की मार्मिक, सूत्रात्मक तथा सहज अभिव्यक्ति है। यह एक सजीव तथा चुभता हुआ व्यावहारिक अनुभवसूत्र है जो जनमानस की देन और धरोहर है । वे सभी घटनाएँ जो मनुष्य के ह्रदय को आलोड़ित कर उसके स्मृतिपटल पर स्थायी रूप से अंकित हो जाती हैं, कालान्तर में उसकी प्रखर बुद्धि के अवशेषों के रूप में कहावतें बन जाती हैं।कहावत की तीन मुख्य विशेषताएँ हैं: अनुभुव-मूलकता, सूत्रात्मकता तथा लोकप्रियता ।

‘कहावत’ की सबसे पहली विशेषता यह है कि उसमें जीवन के अनुभव मूलरूप में संचित रहते हैं । देखा जाए तो इन मर्म-वाक्यों में मानव-जीवन के युग-युगों के अनुभवों का निरीक्षण और परिणाम सार-रूप में सुरक्षित रहता है । दरअसल, कहावतें जनता के सम्यक ज्ञान तथा अनुभव से जन्म लेती हैं, अत: उनमें जीवन के सत्य भलीभांति व्यंजित होते हैं । डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार ‘कहावतें मानवी ज्ञान के चोखे और चुभते हुए सूत्र हैं।‘ कहावतों को बुद्दि और अनुभव की किरणों से फूटने वाली ज्योति प्राप्त होती है ।मानव ने जीवन में अपने अनुभव से जिन तथ्यों का साक्षात्कार किया, उनका प्रकाशन इन कहावतों के माध्यम से होता है ।

मोटे तौर पर कहावतें अनुभव-सिद्ध ज्ञान की निधि हैं । इनमें मानव जाति की प्रथाओं, परम्पराओं, जीवन-मूल्यों तथा घटनाओं के गुण-अवगुणों का वर्णन दैनिक-जीवन के अनुभवों के आधार पर होता है।यही कारण है कि इन्हें दैनिक-जीवन के अनुभवों की दुहिताएँ भी कहा गया है । दरअसल, ये ज्ञान के क्षेत्र में चलने वाले सिक्के हैं । सर्वान्ते ने कहावतों के अनुभव-पक्ष पर बल देते हुए लिखा है: “मैं समझता हूँ कि कोई भी कहावत ऐसी नहीं जिसमें सत्य न हो, क्योंकि ये सभी प्रत्यक्ष जीवन के अनुभवों से चुने हुए सूत्र हैं, इतिहास हैं, समाज की तत्कालीन दशा का दर्पण हैं । ये लोगों के मन में उठने और मुख से प्रकट होने वाले सब प्रकार के भाव हैं । इनमें ये भाव इतनी सुन्दरता से और इतने संक्षेप में प्रकट हुए हैं कि साहित्य की दूसरी शाखा में हमें शायद ही मिल सकें ।”

लोकानुभावों की मार्मिकता कहावतों का प्राणाधार है । लोक के अनुभव से ही ये अपनी जीवन-शक्ति प्राप्त करती हैं । हिन्दी की तीन कहावतें देखिए । तीनों में विविध-आयामी जीनानुभवों का निचोड़ निबद्ध है: “आज के थापे आज ही नही जलते”, “आसमान का थूका मुँह पर ही आता है” और “अटका बनिया दे उधार ।“ उपले थापने के पश्चात उन्हें सूखने के लिए छोड़ा जाता है।अच्छी तरह सूखने के बाद ही वे जलाने के काम आते हैं । हर काम में तुरंत फल की कामना करने वाले जल्दबाज व्यक्तियों की मन:स्थिति को पहली कहावत सुन्दर-सरल ढंग से रूपायित करती है । जो व्यक्ति पर-निंदा में रत रहते हैं वे यह नहीं जानते कि इससे उन्हीं का अपमान होता है, उनका ही ओछापन सिद्ध होता है ।वैसे ही जैसे आसमान पर थूका लौटकर प्राय: व्यक्ति के मुँह पर ही आ गिरता है । अपनी गर्ज या मतलब से दबा सिद्धान्तहीन व्यक्ति प्राय: विनम्रता से काम लेता है । वैसे ही जैसे कम से अटका/दबा बनिया उधार देने पर विवश हो जाता है ।

लोकानुभव की प्रगल्भता से ओत-प्रोत कश्मीरी की दो कहावतें और देखिए: “ब्रार सिंदि गयव ख्यन छु न लगान, ब्रार सिंदि लअट गिल्नवनअ छु लगान” और “ककुर तछान, पूत हेछान”।कभी-कभी हानि हो जाने से मन उतना नहीं दुखता जितना कि हानि पहुँचाने वाले की धृष्टता/व्यंगपूर्ण या चिढाने वाली मुद्रा (भावाकृति) से होता है । पहली कश्मीरी कहावत हानि की इस कष्टदायी स्थिति को बड़े ही अनुभव-सिद्ध तरीके से व्यंजित करती है-“बिल्ली के घी खा जाने से मन उतना नहीं दुखता जितना कि उसकी पूँछ हिलाने से दुखता है। परिवार को बच्चों की प्राथमिक पाठशाला माना गया है।प्राय: बच्चे अपने माता-पिता को आदर्श मानकर उनका अनुकरण करने का प्रयास करते हैं । अनुकरण की इस प्रकृति को दूसरी कश्मीरी कहावत लोकानुभव से बिम्ब ग्रहण कर यों साकार करती है:“मुर्गा कुरेदे, चूजा सीखे।” (मुर्गा पंजों से जमीन कुरेदता है तो चूजा भी उसकी नकली कर कुरेदने लग जाता है |)

अमुक कहावत कब जन्मी और किसने उसको जन्म दिया, इसका कुछ पता नहीं चल सकता क्योंकि कहावत रूपी शिशु का जब जन्म होता है तब किसी को भी पास फटकने नहीं दिया जाता । कहावत के उदभव-विकास की प्रक्रिया पर विचार करते समय इसके दो भेदों, यथा साहित्यिक कहावतें तथा लौकिक कहावतें को जान लेना आवश्यक है । साहित्यिक कहावत ऐसी कहावत है जिसका निर्माण साहित्यिक-प्रक्रिया के अंतर्गत किसी प्रतिभाशाली लेखक द्वारा होता है। ऐसी कहावतें के जन्मदाता का पता लगाना अपेक्षाकृत सुगम कार्य है।महापुरुषों की उक्तियाँ,संत-वाणी,धर्म-ग्रन्थों में वर्णित आप्त-वचन आदि ऐसी कहावतों के जनक हैं| लौकिक कहावत साधारण जन-जीवन के सहज अनुभवों से जन्म लेती है तथा मौखिक परम्परा के रूप में विकसित और प्रचलित होती है।यही कारण है साहित्यिक कहावतों में लौकिक कहावतों की अपेक्षा भाषा एवं भाव की दृष्टि से अधिक परिष्कार पाया जाता है।साहित्यिक कहावतों के रूप-निर्धारण में व्यक्तिगत संस्कार और प्रतिक्रिया का विशेष हाथ रहता है किंतु लौकिक कहावतों की उत्पत्ति मूलतः लोक-कल्पना को स्पंदित और प्रभावित करने वाले अनुभवों के फलस्वरूप होती है । ये कहावतें लोक-जीवन के साथ विकसित होती हैं और वहीँ से भाव-सामग्री ग्रहणकर लोकप्रियता प्राप्त करती हैं । लौकिक कहावतों की भाषा और भावधारा यद्यपि अपरिष्कृत होती है तथापि मूलरूप में शुद्ध कहावतें यही हैं। इनमे जन-मानस का सूक्ष्म अंकन रहता है।मानव के चिर-अनुभूत ज्ञान की सहज व सरल अभिव्यंजना तथा प्राचीन सभ्यता व संस्कृति की छाप इनमें स्पष्ट झलकती है।कुलमिलाकर हम कह सकते हैं कि कहावत एक ऐसा बिंदु है जिसमैं असंख्य अनुभवों की कड़ियाँ संयुक्त रहती हैं । इनमे मानवमन के उदगारों, हर्ष-शोक, संकल्प-विकल्प आदि का मार्मिक एवं सजीव वर्णन मिलता है । सच में, ये मानवता के अश्रु हैं ।

२/५३७ अरावली विहार,

अलवर ३०१००१



No comments:

Post a Comment