Friday, June 17, 2016

जनसत्ता(चौपाल) में मेरा पत्र. 5 जून, २०१६


साहित्य जैसे पुनीत कार्य-सृजन में यदि यह देखा जाने लगे कि अमुक तो वामपंथी है, दक्षिणपंथी है, जनवादी है या फिर प्रतिक्रियावादी और इन्हें एक-दूसरे के कार्यक्रमों में कतई शामिल नहीं होना चाहिए, तो इसे कोई उम्दा, गरिमामय अथवा गंभीर किस्म का चिंतन नहीं माना जाएगा। ऐसा विचार मन में पालना साहित्य और उसके सरोकारों का अपमान है। एक तरफ हम साहित्य द्वारा विश्वमैत्री या विश्वबंधुत्व का सपना साकार करने की बात करते हैं और दूसरी तरफ साहित्य को ही वर्गों में बांटने का प्रयत्न करते हैं। लेखक के वर्ग या उसकी निष्ठा का निर्णय उसके लेखन से होगा न कि इस बात से कि वह किस विचारधारा से जुड़ा हुआ है। वर्ग और खेमों तक अपने को सीमित रखने का जमाना गया। अब वैश्वीकरण का जमाना है। दृष्टि बदलनी होगी तभी साहित्य का भला होगा। वैसे भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया साहित्य-सृजन को हाशिये पर धकेलने पर तुला हुआ है और हम हैं कि साहित्य लिखने-पढ़ने या उस पर बात करने वालों को शाबाशी देने के बजाय उन्हें खेमों में बांट कर हतोत्साह कर रहे हैं और उनके लिखे की पूर्वग्रहपूर्ण समीक्षा करते हैं।

’शिबन कृष्ण रैणा, अलवर

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