Friday, June 24, 2016



अनुवाद कला पर प्रो० जीवनसिंह की डॉ० शिबन कृष्ण रैणा से बातचीत


अनुवाद राष्ट्र-सेवा का कर्म है






(राजस्थान साहित्य अकादमी के प्रथम अनुवाद-पुरस्कार से सम्मानित,भारतीय अनुवाद परिषद, दिल्ली द्वारा द्विवागीश पुरस्कार से समादृत, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, बिहार राजभाषा विभाग, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय तथा देश की अन्य कई महत्वपूर्ण साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा डॉ० रैणा को उनके योगदान के लिए पुरस्कृत-सम्मानित किया जा चुका है। अंग्रेजी, कश्मीरी तथा उर्दू से डा0 रैणा पिछले ३० वर्षों से निरन्तर अनुवाद-कार्य करते आ रहे हैं और अब तक इनकी चैदह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनकी सर्वत्र प्रशंसा हुई है। डॉ० रैणा भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, राष्ट्रपति निवास, शिमला में अधेता भी रहे हैं, जहाँ उन्होंने ‘भारतीय भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद की समस्याएँ’ विषय पर शोधकार्य किया है.यह कार्य संस्थान से प्रकाशित हो चुका है.सम्प्रति डॉ०रैणा संस्कृति मंत्रालय,भारत सरकार के सीनियर फेलो हैं. प्रसिद्ध अनुवादक,शिक्षाविद एवं लेखक डॉ०शिबनकृष्ण रैणा से प्रो० जीवनसिंह की अनुवादकला पर विस्तृत बातचीत के कुछ अंश यहाँ पर प्रस्तुत हैं.)



प्रश्न०: आपको अनुवाद की प्रेरण कब और कैसे मिली ?

उ०: १९६२ में कश्मीर विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिन्दी) कर लेने के बाद मैं पी-एच.डी. करने के लिए कुरुक्षेत्र विश्ववि़द्यालय आ गया (तब कश्मीर विश्वविद्यालय में रिसर्च की सुविधा नहीं थी) यू.जी.सी. की जूनियर फेलोशिप पर ‘कश्मीरी तथा हिन्दी कहावतों का तुलनात्मक अध्ययन’ पर शोधकार्य किया। 1966 में राजस्थान लोक सेवा आयोग से व्याख्याता हिन्दी के पद पर चयन हुआ।प्रभु श्रीनाथजी की नगरी नाथद्वारा मैं लगभग दस वर्षों तक रहा.यहाँ कालेज-लाइब्रेरी में उन दिनों देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाएँ : धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नवनीत, कादम्बिनी आदि आती थीं.। इन में यदा-कदा अन्य भारतीय भाषाओं से हिन्दी में अनुवादित कविताएँ/कहानियाँ/व्यंग्य आदि पढ़ने को मिल जाते। मुझे इन पत्रिकाओं में कश्मीरी से हिन्दी में अनुवादित रचनाएँ बिल्कुल ही नहीं या फिर बहुत कम देखने को मिलती। मेरे मित्र मुझसे अक्सर कहते कि मैं यह काम बखूबी कर सकता हूँ क्योंकि एक तो मेरी मातृभाषा कश्मीरी है और दूसरा हिन्दी पर मेरा अधिकार भी है। मुझे लगा कि मित्र ठीक कह रहे हैं। मुझे यह काम कर लेना चाहिए। मैं ने कश्मीरी की कुछ चुनी हुई सुन्दर कहानियों/कविताओं/लेखों/संस्मरणों आदि का मन लगाकर हिन्दी में अनुवाद किया। मेरे ये अनुवाद अच्छी पत्रिकाओं में छपे और खूब पसन्द किए गए। कुछ अनुवाद तो इतने लोकप्रिय एवं चर्चित हुए कि अन्य भाषाओं यथा कन्नड़, मलयालम, तमिल आदि में मेरे अनुवादों के आधार पर इन रचनाओं के अनुवाद हुए और उधर के पाठक कश्मीरी की इन सुन्दर रचनाओं से परिचित हुए। मैंने चूंकि एक अछूते क्षेत्र में प्रवेश करने की पहल की थी, इसलिए श्रेय भी जल्दी मिल गया।

प्रश्न०: अब तक आप किन-किन विधाओं में अनुवाद कर चुके हैं ?

उ0: मैंने मुख्य रूप से कश्मीरी, अंग्रेजी और उर्दू से हिन्दी में अनुवाद किया है। साहित्यिक विधाओं में कहानी, कविता, उपन्यास, लेख, नाटक आदि का हिन्दी में अनुवाद किया है।

प्रश्न० आप द्वारा अनुवादित कुछ कृतियों के बारे में बताएंगे ?

उ0: मेरे द्वारा अनुवादित कृतियाँ, जिन्हें मैं अति महत्वपूर्ण मानता हूँ और जिनको आज भी देख पढ़कर मुझे असीम संतोष और आनंद मिलता है, ‘प्रतिनिधि संकलन:कश्मीरी’(भारतीय ज्ञानपीठ)१९७३, ‘कश्मीरी रामायण: रामावतार चरित्र’ (भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनऊ)१९७५ ‘कश्मीर की श्रेष्ठ कहानियाँ’ (राजपाल एण्ड संस दिल्ली)१९८० तथा ‘ललद्यद’ (अंगे्रजी से हिन्दी में अनुवाद, साहित्य अकादमी, दिल्ली) १९८१ हैं। ‘कश्मीर की श्रेष्ठ कहानियाँ’ में कुल 19 कहानियाँ हैं। कश्मीरी के प्रसिद्ध एवं प्रतिनिधि कहानीकारों को हिन्दी जगत के सामने लाने का यह मेरा पहला सार्थक प्रयास है। प्रसिद्ध कथाकार विष्णु प्रभाकर ने मेरे अनुवाद के बारे में मुझे लिखा :‘ये कहानियाँ तो अनुवाद लगती ही नहीं हैं, बिल्कुल हिन्दी की कहानियाँ जैसी हैं. आपने, सचमुच, मेहनत से उम्दा अनुवाद किया है।’

प्रश्न०: अपनी अनुवाद-प्रक्रिया पर कुछ प्रकाश डालिए।

उ0: अनुवाद प्रक्रिया से तात्पर्य यदि इन सोपानों/चरणों से है, जिनसे गुजर कर अनुवाद/अनुवादक अपने उच्चतम रूप में प्रस्तुत होता है, तो मेरा यह मानना है कि अनुवाद रचना के कथ्य/आशय को पूर्ण रूप से समझ लेने के बाद उसके साथ तदाकार होने की बहुत जरूरत है। वैसे ही जैसे मूल रचनाकार भाव/विचार में निमग्न हो जाता है। यह अनुवाद-प्रक्रिया का पहला सोपान है। दूसरे सोपान के अन्तर्गत वह ‘समझे हुए कथ्य’ को लक्ष्य-भाषा में अंतरित करे, पूरी कलात्मकता के साथ। कलात्मक यानी भाषा की आकर्षकता, सहजता एवं पठनीयता के साथ। तीसरे सोपान में अनुवादक एक बार पुनः रचना को आवश्यकतानुसार परिवर्तित/परिवर्धित करे। मेरे विचार से मेरे अनुवाद की यही प्रक्रिया रही है।

प्रश्न०: अनुवाद के लिए क्या आपके सामने कोई आदर्श अनुवादक रहे ?

उ0: आदर्श अनुवादक मेरे सामने कोई नहीं रहा। मैं अपने तरीके से अनुवाद करता रहा हूँ और अपना आदर्श स्वयं रहा हूँ। दरअसल आज से लगभग 30-35 वर्ष पूर्व जब मैंने इस क्षेत्र में प्रवेश किया, अनुवाद को लेकर लेखकों के मन में कोई उत्साह नहीं था, न ही अनुवाद कला पर पुस्तकें ही उपलब्ध थीं और न ही अनुवाद के बारे में चर्चाएँ होती थीं। इधर, इन चार दशकों में अनुवाद के बारे में काफी चिंतन-मनन हुआ है। यह अच्छी बात है।

प्रश्न०: क्या आप मानते हैं कि साहित्यिक अनुवाद एक तरह से पुनर्सृजन है ?

उ0: मैं अनुवाद को पुनर्सृजन ही मानता हूँ, चाहे वह साहित्य का हो या फिर किसी अन्य विधा का। असल में अनुवाद मूल रचना का अनुकरण नहीं वरन् पुनर्जन्म है। वह द्वितीय श्रेणी का लेखन नहीं, मूल के बराबर का ही दमदार प्रयास है। मूल रचनाकार की तरह ही अनुवादक भी तथ्य को आत्मसात करता है, उसे अपनी चित्तवृत्तियों में उतारकर पुनः सृजित करने का प्रयास करता है तथा अपने अभिव्यक्ति-माध्यम के उत्कृष्ट उपादानों द्वारा उसको एक नया रूप देता है। इस सारी प्रक्रिया में अनुवादक की सृजन-प्रतिभा मुखर रहती है

प्रश्न०: अनुवाद करते समय किन-किन बातों के प्रति सतर्क रहना चाहिए ?

उ.०: यों तो अनुवाद करते समय कई बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए जिनका विस्तृत उल्लेख आदर्श अनुवाद/अनुवन्दक जैसे शीर्षकों के अन्तर्गत ‘अनुवादकला’ विषयक उपलब्ध विभिन्न पुस्तकों में मिल जाता है। संक्षेप में कहा जाए तो अनुवादक को इन बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए। (1) उसमें स्रोत और लक्ष्य भाषा पर समान रूप से अच्छा अधिकार होना चाहिए। (2) विषय का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए। (3) मूल लेखक के उद्देश्यों की जानकारी होनी चाहिए। (4) मूल रचना के अन्तर्निहित भावों की समझ होनी चाहिए। (5) सन्दर्भानुकूल अर्थ-निश्चयन की योग्यता हो। एक बात मैं यहाँ पर रेखांकित करना चाहूंगा और अनुवाद-कर्म के सम्बन्ध में यह मेरी व्यक्तिगत मान्यता है। कुशल अनुवादक का कार्य पर्याय ढूंढ़ना मात्र नहीं है, वह रचना को पाठक के लिए बोधगम्य बनाए, यह परमावश्यक है। सुन्दर-कुशल, प्रभावशाली तथा पठनीय अनुवाद के लिए यह ज़रूरी है कि अनुवादक भाषा-प्रवाह को कायम रखने के लिए, स्थानीय बिंबों व रूढ़ प्रयोगों को सुबोध बनाने के लिए तथा वर्ण्य-विषय को अधिक हृदयग्राही बनाने हेतु मूल रचना में आटे में नमक के समान फेर-बदल करे। यह कार्य वह लंबे-लंबे वाक्यों को तोड़कर, उनमें संगति बिठाने के लिए अपनी ओर से एक-दो शब्द जोड़कर तथा ‘अर्थ’ के बदले ‘आशय’ पर अधिक जोर देकर कर सकता है। ऐसा न करने पर ‘अनुवाद’ अनुवाद न होकर मात्र सरलार्थ बनकर रह जाता है।

प्रश्न०: मौलिक लेखन और अनुवाद की प्रक्रिया में आप क्या अंतर समझते हैं ?

उ.०: मेरी दृष्टि में दोनों की प्रक्रियाएं एक-समान हैं। मैं मौलिक रचनाएं भी लिखता हूँ। मेरे नाटक, कहानियाँ आदि रचनाओं को खूब पसन्द किया गया है। साहित्यिक अनुवाद तभी अच्छे लगते हैं जब अनुवादित रचना अपने आप में एक ‘रचना’ का दर्जा प्राप्त कर ले। दरअसल, एक अच्छे अनुवादक के लिए स्वयं एक अच्छा लेखक होना भी बहुत अनिवार्य है। अच्छा लेखक होना उसे एक अच्छा अनुवादक बनाता है और अच्छा अनुवादक होना उसे एक अच्छा लेखक बनाता है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, पोषक हैं।

प्रश्न०: भारत में विदेशों की तुलना में अनुवाद की स्थिति के विषय में आप क्या सोचते हैं ?

उ०: पश्चिम में अनुवाद के बारे में चिन्तन-मनन बहुत पहले से होता रहा है। कहने की आवश्यकता नहीं कि जिस तरह ज्ञान-विज्ञान एवं अन्य व्यावहारिक क्षेत्रों में पश्चिम बहुत आगे है, उसी तरह ‘अनुवाद’ में भी वह बहुत आगे है। वहाँ सुविधाएं प्रभूत मात्रा में उपलब्ध हैं, अनुवादकों का विशेष मान-सम्मान है। हमारे यहाँ इस क्षेत्र में अभी बहुत-कुछ करना शेष है।

प्रश्न०: भारत में जो अनुवाद कार्य हो रहा है, उसके स्तर से आप कहाँ तक सन्तुष्ट हैं ? इसमें सुधार के लिए आप क्या सुझाव देना चाहेंगे।

उ.०: साहित्यिक अनुवाद तो बहुत अच्छे हो रहे हैं। पर हाँ, विभिन्न ग्रन्थ- अकादमियों द्वारा साहित्येत्तर विषयों के जो अनुवाद सामने आए हैं या आ रहे हैं, उनका स्तर बहुत अच्छा नहीं है। दरअसल, उनके अनुवादक वे हैं, जो स्वयं अच्छे लेखक नहीं हैं या फिर जिन्हें सम्बन्धित विषय का अच्छा ज्ञान नहीं है। कहीं-कहीं यदि विषय का अच्छा ज्ञान भी है तो लक्ष्य भाषा पर अच्छी/सुन्दर पकड़ नहीं है। मेरा सुझाव है कि अनुवाद के क्षेत्र में जो सरकारी या गैर सरकारी संस्थाएं या कार्यालय कार्यरत हैं, वे विभिन्न विधाओं एवं विषयों के श्रेष्ठ अनुवाद का एक राष्ट्रीय -पैनल तैयार करें। अनुवाद के लिए इसी पैनल में से अनुवादकों का चयन किया जाए। पारिश्रमिक में भी बढ़ोतरी होनी चाहिए।

प्रश्न० आप अनुवाद के लिए रचना का चुनाव किस आधार पर करते हैं ?

उ.०: देखिए, पहले यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि हर रचना का अनुवाद हो, यह आवश्यक नहीं है। वह रचना जो अपनी भाषा में अत्यन्त लोकप्रिय रही हो, सर्वप्रसिद्ध हो या फिर चर्चित हो, उसी का अनुवाद वांछित है और किया जाना चाहिए। एक टी.वी. चैनल पर मुझसे पूछे गए इसी तरह के एक प्रश्न के उत्तर में मैंने कहा था - ‘प्रत्येक रचना/पुस्तक का अनुवाद हो, यह ज़रूरी नहीं है। हर भाषा में, हर समय बहुत-कुछ लिखा जाता है। हर चीज़ का अनुवाद हो, न तो यह मुमकिन है और न ही आवश्यक! मेरा मानना है कि केवल अच्छी एवं श्रेष्ठ रचना का ही अनुवाद होना चाहिए। ऐसी रचना जिसके बारे में पाठक यह स्वीकार करे कि सचमुच अगर मैंने इसका अनुवाद न पढ़ा होता तो निश्चित रूव से एक बहुमूल्य रचना के आस्वादन से वंचित रह जाता।

प्रश्न0: : अनुवाद से अनुवाद के बारे में आप की क्या राय है?

उ0:: प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो की वह पंक्ति याद आती है जिसमें वह कहता है कि कविता में कवि मौलिक कुछ भी नहीं कहता,अपितु नकल की नकल करता है।‘फोटो-स्टेटिंग’ की भाषा में बात करें तो जिस प्रकार मूल प्रति के इम्प्रेशन में और उस इम्प्रेशन के इम्प्रेशन में अन्तर रहना स्वाभाविक है,ठीक उसी प्रकार सीधे मूल से किए गये अनुवाद और अनुवाद से किए गये अनुवाद में फर्क रहेगा।मगर,सच्चाई यह है कि इस तरह के अनुवाद हो रहे हैं।तुर्की,अरबी,फ्रैंच,जर्मन आदि भाषाएं न जानने वाले भी इन भाषाओं से अनुवाद करते देखे गए हैं।इधर,कन्नड़,मलयालम,गुजराती,तमिल,बंगला आदि भारतीय भाषाओं से इन भाषाओं को सीधे-सीधे न जानने वाले भी अनुवाद कर रहे हैं।ऐसे अनुवाद अंग्रेज़ी या हिन्दी को माध्यम बनाकर हो रहे हैं।यह काम खूब हो रहा है।

प्रश्न : अनुवाद-कार्य के लिए अनुवाद-प्रशिक्षण एवं उसकी सैद्धान्तिक जानकारी को आप कितना आवश्यक मानते हैं?

उ : सिद्धान्तों की जानकारी उसे एक अच्छा अनुवाद-विज्ञानी या जागरूक अनुवादक बना सकती है,मगर प्रतिभाशाली अनुवादक नहीं।मौलिक लेखन की तरह अनुवादक में कारयित्री प्रतिभा का होना परमावश्यक है।यह गुण उसमें सिद्धान्तों के पढ़ने से नहीं,अभ्यास अथवा अपनी सृजनशील प्रतिभा के बल पर आसकेगा। यों,अनुवाद-सिद्धान्तों का सामान्य ज्ञान उसे इस कला के विविध ज्ञातव्य पक्षों से परिचय अवश्य कराएगा।

प्रश्न०: अनुवाद में स्रोत भाषा के प्रति मूल निष्ठता के बारे में आपकी क्या राय है ?

उ.०: मूल के प्रति निष्ठा-भाव आवश्यक है। अनुवादक यदि मूल के प्रति निष्ठावान नहीं रहता, तो निश्चित रूप से ‘पापकर्म’ करता है। मगर, जैसे हमारे यहाँ (व्यवहार में) ‘प्रिय सत्य’ बोलने की सलाह दी गई है, उसी तरह अनुवाद में भी अनुवाद में भी प्रिय लगने वाला फेर-बदल स्वीकार्य है। दरअसल, हर भाषा में उस देश के सांस्कृतिक, भौगोलिक तथा ऐतिहासिक सन्दर्भ प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में रहते हैं और इन सन्दर्भों का भाषा की अर्थवत्ता से गहरा संबंध रहता है। इस अर्थवत्ता को ‘भाषा का मिज़ाज’ अथवा भाषा की प्रकृति कह सकते हैं। अनुवादक के समक्ष कई बार ऐसे भी अवसर आते हैं जब कोश से काम नहीं चलता और अनुवादक को अपनी सृजनात्मक प्रतिभा के बल पर समानार्थी शब्दों की तलाश करनी पड़ती है। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि भाषा और संस्कृति के स्तर पर मूल कृति अनुवाद कृति के जितनी निकट होगी, अनुवाद करने में उतनी ही सुविधा रहेगी। सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक दूरी जितनी-जितनी बढ़ती जाती है, अनुवाद की कठिनाइयाँ भी उतनी ही गुरुतर होती जाती हैं। भाषा, संस्कृति एवं विषय के समुचित ज्ञान द्वारा एक सफल अनुवादक उक्त कठिनाई का निस्तारण कर सकता है।

प्रश्न०: आप किस तरह के अनुवाद को सबसे कठिन मानते हैं और क्यों ?

उ.०: अनुवाद किसी भी तरह का हो पर अपने आप में एक दुःसाध्य/श्रमसाध्य कार्य है। इस कार्य को करने में जो कोफ़्त होती है, उसका अन्दाज़ वहीं लगा सकते हैं जिन्होंने अनुवाद का काम किया हो। वैसे मैं समझता हूँ कि दर्शन-शास्त्र और तकनीकी विषयों से संबंधित अथवा आंचलिकता का विशेष पुट लिए पुस्तकों का अनुवाद करना अपेक्षाकृत कठिन है। गद्य की तुलना में पद्य का अनुवाद करना भी कम जटिल नहीं है।

प्रश्न०: लक्ष्य भाषा की सहजता को बनाए रखने के लिए क्या-क्या उपाय सुझाना चाहेंगे ?

उ.०: सुन्दर-सरस शैली, सरल-सुबोध वाक्य गठन, निकटतम पर्यायों का प्रयोग आदि लक्ष्य भाषा की सहजता को सुरक्षित रखने में सहायक हो सकते हैं। यों मूल भाषा के अच्छे परिचय से भी काम चल सकता है लेकिन अनुवाद में काम आने वाली भाषा तो जीवन की ही होनी चाहिए।

प्रश्न०: किसी देश की सांस्कृतिक चेतना को विकसित करने में अनुवाद की क्या भूमिका है ?

उ०: अनुवाद-कर्म राष्ट्र सेवा का कर्म है। यह अनुवादक ही है जो भाषाओं एवं उनके साहित्यों को जोड़ने का अद्भुत एवं अभिनंदनीय प्रयास करता है। दो संस्कृतियों, समाजों, राज्यों, देशों एवं विचारधाराओं के बीच ‘सेतु’ का काम अनुवादक ही करता है। और तो और, यह अनुवादक ही है जो भौगोलिक सीमाओं को लांघकर भाषाओं के बीच सौहार्द, सौमनस्य एवं सद्भाव को स्थापित करता है तथा हमें एकात्मकता एवं वैश्वीकरण की भावना से ओतप्रोत कर देता है। इस दृष्टि से यदि अनुवादक को समन्वयक, मध्यस्थ, सम्वाहक, भाषायी-दूत आदि की संज्ञा दी जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। कविवर बच्चन जी, जो स्वयं एक कुशल अनुवादक रहे हैं, ने ठीक ही कहा है कि अनुवाद दो भाषाओं के बीच मैत्री का पुल है। वे कहते हैं - ‘अनुवाद एक भाषा का दूसरी भाषा की ओर बढ़ाया गया मैत्री का हाथ है। वह जितनी बार और जितनी दिशाओं में बढ़ाया जा सके, बढ़ाया जाना चाहिए ...।’
प्रश्न०: अनुवाद मनुष्यजाति को एकदूसरे के पास लाकर हमारी छोटी दुनिया को बड़ा बनाता है।इसके बावजूद यह दुनिया अपने-अपने छोटे अहंकारों से मुक्त नहीं हो पाती-इसके कारण क्या हैं?आप इस बारे में क्या सोचते हैं?

उ०: देखिए,इसमें अनुवाद/अनुवादक कुछ नहीं कर सकता। जब तक हमारे मन छोटे रहेंगे,दृष्टि संकुचित एवं नकारात्मक रहेगी,यह दुनिया हमें सिकुड़ी हुई ही दीखेगी ।मन को उदार एवं बहिर्मुखी बनाने से ही हमारी छोटी दुनिया बड़ी हो जाएगी।

प्रश्न०: अच्छा,यह बताइए कि कश्मीर की समस्या का समाधान करने में कश्मीरी-हिन्दी एवं कश्मीरी से हिन्दीतर भारतीय भाषाओं में अनुवाद किस सीमा तक सहायक हो सकते हैं?

उ०: कश्मीर में जो हाल इस समय है ,उससे हम सभी वाकिफ़ हैं।सांप्रदायिक उन्माद ने समूची घाटी के सौहार्दपूर्ण वातावरण को विषाक्त बना दिया है। कश्मीर के अधिकांश कवि,कलाकार,संस्कृतिकर्मी आदि घाटी छोड़कर इधर-उधर डोल रहे हैं और जो कुछेक घाटी में रह रहे हैं उनकी अपनी पीड़ाएं और विवशताएं हैं। विपरीत एवं विषम परिस्थितियों के बावजूद कुछ रचनाकार अपनी कलम की ताकत से घाटी में जातीय सद्भाव एवं सांप्रदायिक सौमनस्य स्थापित करने का बड़ा ही स्तुत्य प्रयास कर रहे हैं। मेरा मानना है कि ऐसे निर्भिक लेखकों की रचनाओं के हिन्दी अनुवाद निश्चित रूप से इस बात को रेखांकित करेंगे कि बाहरी दबावों के बावजूद कश्मीर का रचनाकार शान्ति चाहता है और भईचारे और मानवीय गरिमा में उसका अटूट विश्वास है और इस तरह एक सुखद वातावरण की सृष्टि संभव है।ऐसे अनुवादों को पढ़कर वहां के रचनाकार के बारे में प्रचलित कई तरह की बद्धमूल/निर्मूल स्थापनाओं का निराकरण भी हो सकता है।इसी प्रकार कश्मीरी साहित्य के ऐसे श्रेष्ठ एवं सर्वप्रसिद्ध रचनाकारोंजैसे,लल्लद्यद,नुंदऋषि,महजूर,दीनानाथ रोशन,निर्दोष आदि, जो सांप्रदायिक सद्भाव के सजग प्रहरी रहे हैं, की रचनाओं के हिन्दी अनुवाद कश्मीर में सदियों से चली आरही भाईचारे की रिवायत को निकट से देखने में सहायक होंगे।
http://www.apnimaati.com/2012/06/blog-post_13.html
http://www.liveaaryaavart.com/2015/04/shiven-raina-interview.html



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