Friday, June 17, 2016

गुरु-त्रय को नमन्!

पहली कक्षा से लेकर एमए, पीएचडी तक की पढ़ाई के दौरान मैंने कितनों से शिक्षा ग्रहण की होगी या मेरे कितने शिक्षक रहे होंगे, यह बतलाना उतना जरूरी नहीं है जितना यह बतलाना कि किस शिक्षक ने मुझे वह दिया जिसका उल्लेख करना या स्मरण करना आवश्यक है। कश्मीर विश्वविद्यालय से 1960 में बीए अच्छे अंकों से पास कर लेने के बाद मेरे पास एम०ए० करने के दो विकल्प थे। या तो गणित में एमए करता या फिर हिंदी में। बीए में मेरे विषय थे गणित, हिंदी और राजनीति शास्त्र। गणित और हिंदी में मेरा दाखिला हो गया था। चुनाव मुझे करना था कि हिंदी में दाखिला लूं या फिर गणित में। उस जमाने में कश्मीर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष डॉ हरिहरप्रसाद गुप्त (डॉ माताप्रसादजी के अनुज) हुआ करते थे। मेरे असमंजस अथवा दुविधा को डॉ साहब ने यह कह कर दूर किया कि हिंदी में दाखिला लेने पर वे मुझे छात्रवृत्ति दिलवाएंगे। उन्होंने यह कह कर भी मेरा उत्साह बढ़ाया कि कश्मीर जैसे दूरस्थ/ अहिंदी-प्रदेश से हिंदी-प्रेमी छात्र आगे चल कर निश्चित रूप से नाम कमाएंगे।

आज सोचता हूं कि डॉ साहब कितने दूरदर्शी थे! अनेक वर्ष पूर्व इलाहाबाद से उनके लिखे एक पत्र की यह पंक्ति मेरे रोम-रोम को आज भी पुलकित करती है- ‘प्रिय शिबन, शिष्य द्वारा गुरु को परास्त होते देख अपार हर्ष हो रहा है। ... सुखी रहो, मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ है।’ गुरुदेव को मेरा नमन! एक बार दिल्ली जाते समय अपनी सेहत/ दीर्घ-आयु का खयाल न कर वे मुझ से, अपने शिष्य से, मिलने के लिए अलवर भी आए थे।डाक्टर साहब अब इस संसार में नहीं रहे मगर उनकी यादें अब भी मस्तिष्क में ताज़ा हैं।हमारे समय में यानी १९६०-६२ में कश्मीर विश्विद्यालय के स्नातकोत्तर हिंदी विभाग में अध्यक्ष डॉ हरिहरप्रसाद गुप्त के अलावा डॉ० शशिभूषण सिंहल और डॉ० श्रीमती मोहिनी कौल हिंदी विभाग के प्राध्यापक हुआ करते थे।मुझे याद है रिजल्ट निकलने के बाद तथा एम०ए० प्रथम श्रेणी में प्रथम रहकर पास करने के उपरान्त श्रीमती कौल जो कालान्तर में विभाग की प्रभारी बन गयी थीं, ने हिंदी विभाग में मेरी नियुक्ति करवाने में व्यक्तिगत रुचि ली।उस समय के कश्मीर विश्वविद्यालय के उपकुलपति प्रसिद्ध विद्वान और इतिहासवेत्ता Sardar KM Pannikar साहब से खुद मिलकर मेरी विभाग में नियुक्ति करवाई।हालांकि नियुक्ति तकनीकी कारणों से अस्थायी तौर पर हुयी थी। जाड़ों के अवकाश के शुरु होने तक मात्र तीन महीनों के लिए, मगर मुझे इस बात का गर्व है कि जिस विभाग का में विद्यार्थी रहा, उसी विभाग में मैं,थोड़े-से समय के लिए ही सही, प्राध्यापक भी रहा। बाद में नियति को कुछ और ही मंज़ूर था।मैं कुरुक्षेत्र विश्विद्यालय चला आया।दरअसल, इस बीच डॉ० शशिभूषण सिंहल कुरुक्षेत्र आ गये थे। उन्होंने मुझे वहां बुला लिया और उन्हीं के निर्देशन में मैं ने यूजीसी की फ़ेलोशिप पर शोधकार्य किया।१९६६ में राजस्थान लोकसेवा आयोग,अजमेर से मेरा हिंदी व्याख्याता के पद पर चयन हुआ और इस तरह वीर-वसुंधरा राजस्थान मेरी कर्मस्थली बन गई।पीछे मुड़कर देखता हूँ तो लगता है जैसे कि यह सब कल ही बातें हों।







No comments:

Post a Comment