Wednesday, June 22, 2016

कश्मीर की उलझन


आज 23 जून 2016 के 'जनसत्ता'(चौपाल) में मेरा पत्र।


कश्मीर और कश्मीर के विस्थापित पंडितों से संबंधित प्रश्नों का हल ढूंढने के लिए कुछ सरगर्मी-सी आ गई है। पहले श्रीश्री ने हुर्रियत के अध्यक्ष मीरवाइज उमर फारूक से उनके आवास पर मुलाकात कर कश्मीर में चल रही स्थिति पर विस्तार से चर्चा की। बाद में दर्जन भर स्वघोषित पंडित नेताओं ने भी मीरवाइज से मुलाकात की और पंडितों की घाटी में वापसी और उनके पुनर्वास पर विचार-विमर्श किया। तनावग्रस्त घाटी में शांति स्थापित हो और पंडित समुदाय ससम्मान घाटी में लौटें, उसके लिए किए जाने वाले ऐसे प्रयासों की हर स्तर पर प्रशंसा की जानी चाहिए। लेकिन चिंता का विषय थोड़ा अलग है। ऐसी महत्त्वपूर्ण वार्ताओं के लिए हमेशा मान्यताप्राप्त मंचों के माध्यम से ही बातचीत की पहल होनी चाहिए। छोटे गुट नेतृत्व में केवल विभाजन पैदा करते हैं।
पनुन कश्मीर’ पंडितों की एकमात्र प्रतिनिधि संस्था हुआ करती थी। पिछले लगभग पच्चीस वर्षों के दौरान इस संस्था ने हर मुश्किल घड़ी में पंडितों का साथ दिया है और धरने-प्रदर्शनों के आलावा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कश्मीरी पंडितों के विस्थापन और पुनर्वास के मुद्दों को जोरदार तरीके से उठाया और जिंदा रखा है। समझ में नहीं आ रहा कि क्या ‘पनुन कश्मीर’ के नेताओं को हाशिए पर डाल दिया गया है या फिर उन्होंने अपनी मर्जी से इन स्वयंभू पंडित नेताओं को अपना कार्यभार सौंप कर शांति-वार्ताओं की प्रक्रिया से अपने को अलग कर दिया है? कौन नहीं जानता कि बहुत सारे नेता या मंच ज्यादातर मामलों को सुलझाने के बजाय उन्हें उलझाते ही हैं।

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