Tuesday, June 21, 2016



पहचान की दृष्टि

(आदि संत कवयित्री ललद्यद (चौदहवीं शताब्दी) कश्मीरी भाषा-साहित्य की विधात्री मानी जाती हैं)

शिबन कृष्ण रैणा


जनसत्ता 22 फरवरी, 2013: कश्मीरी की आदि संत कवयित्री ललद्यद (चौदहवीं शताब्दी) कश्मीरी भाषा-साहित्य की विधात्री मानी जाती हैं। ललेश्वरी, लल, लला, ललारिफा, ललदेवी आदि नामों से विख्यात इस कवयित्री को कश्मीरी साहित्य में वही स्थान प्राप्त है जो हिंदी में कबीर को है। इनकी कविता का छंद ‘वाख’ कहलाता है जिसमें उन्होंने अनुभवसिद्ध ज्ञान के आलोक में आत्मशुद्धता, सदाचार और मानव-बंधुत्व का ऐसा पाठ पढ़ाया जिससे कश्मीरी जनमानस आज तक देदीप्यमान है।
ललद्यद का जन्म पांपोर के निकट सिमपुरा गांव में एक ब्राह्मण किसान के घर हुआ था। यह गांव श्रीनगर से लगभग पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। तत्कालीन प्रथानुसार ललद्यद का विवाह बाल्यावस्था में ही पांपोर/ पद्मपुर ग्राम के एक प्रसिद्ध ब्राह्मण घराने में हुआ। उनके पति का नाम सोनपंडित बताया जाता है। बाल्यकाल से इस आदि कवयित्री का मन सांसारिक बंधनों के प्रति विद्रोह करता रहा जिसकी चरम परिणति बाद में भावप्रवण ‘वाक्-साहित्य’ के रूप में हुई। कबीर की तरह ललद्यद ने भी ‘मसि-कागद’ का प्रयोग नहीं किया। ये वाख प्रारंभ में मौखिक परंपरा में ही प्रचलित रहे और बाद में इन्हें लिपिबद्ध किया गया। इन वाखों की संख्या लगभग दो सौ है। सूत्रात्मक शैली में निबद्ध ये ‘वाख’ कवयित्री की अपूर्व आध्यात्मिक अनुभूतियों की अभिव्यंजना बड़े सुंदर ढंग से करते हैं। योगिनी ललद्यद संसार की महानतम आध्यात्मिक विभूतियों में से एक हैं, जिन्होंने अपने जीवनकाल में ही ‘परमविभु’ का मार्ग खोज लिया था और ईश्वर के धाम/ प्रकाशस्थान में प्रवेश कर लिया था। वे जीवनमुक्तथीं और उनके लिए जीवन अपनी सार्थकता और मृत्यु भयंकरता खो चुके थे। उन्होंने ईश्वर से एकनिष्ठ होकर प्रेम किया था और उसे अपने में स्थित पाया था। ललद्यद के समकालीन कश्मीर के प्रसिद्ध सूफी-संत शेख नूरुद्दीन वली/ नुंद ऋषि ने कवयित्री के बारे में जो विचार व्यक्त किए हैं, उनसे बढ़ कर उनके प्रति और क्या श्रद्धांजलि हो सकती है- ‘उस पद्मपोर/ पांपोर की लला ने/ दिव्यामृत छक कर पिया/ वह थी हमारी अवतार/ प्रभु! वही वरदान मुझे भी देना।’
ललद्यद के वाख-साहित्य का मूलाधार दर्शन है और यह वैसा ही है जैसा हिंदी के निर्गुण संत कवियों में परिलक्षित होता है। ललद्यद विश्वचेतना को आत्मचेतना में तिरोहित मानती हैं। सूक्ष्म अंतर्दृष्टि द्वारा उस परम चेतना का आभास होना संभव है। यह रहस्य उन्हें अपने गुरु से ज्ञात हुआ- ‘गुरु ने एक रहस्य की बात मुझे बताई: बाहर से मुख मोड़ और अपने अंतर को खोज। बस, तभी से बात हृदय को छू गई और मैं निर्वस्त्र नाचने लगी।’ दरअसल, ललद्यद की अंतर्दृष्टि 

दैहिक चेष्टाओं की संकीर्ण परिसीमाओं को लांघ कर असीम में फैल चुकी थी। वे ठौर-ठौर अंतर्ज्ञान का रहस्य अन्वेषित करने के लिए डोलने लगीं। उनकी आचार-मर्यादा कृत्रिम व्यवहारों से बहुत ऊपर उठ कर समष्टि में गोते लगाने लगी। वे नाचती-गाती और आनंदमग्न होकर निर्वस्त्र घूमती रहतीं। उनके इस असामान्य आचरण को देख कर लोग उन्हें ‘ललमच’ (लल-पगली) कह कर पुकारते थे। पुरुष वह उन्हीं को मानतीं जो ईश्वर से डरते हों और ऐसे पुरुष, उनके अनुसार इस संसार में बहुत कम थे। फिर शेष के सामने नग्नावस्था में घूमने-फिरने में शर्म कैसी?

ललद्यद उस सिद्ध-अवस्था में पहुंच चुकी थीं जहां ‘स्व’ और ‘पर’ की भावनाएं लुप्त हो जातीं हैं। जहां मान-अपमान, निंदा-स्तुति, राग-विराग आदि मन के संकुचित होने को ही लक्षित करते हैं। जहां पंचभौतिक काया मिथ्याभासों और क्षुद्रताओं से ऊपर उठ कर विशुद्ध स्फुरणों का केंद्रीभूत पुंज बन जाती है: ‘युस मे मालि हेडयम, गेल्यम, मसखरअ करेम, सु हो मालि मनस खरेंम न जांह, शिव पनुन येली अनुग्रह करेम, लुक हुंद हेडून मे करेम क्याह?’ यानी ‘चाहे मेरी कोई अवहेलना करे या तिरस्कार, मैं कभी उसका बुरा मानूंगी नहीं। जब मेरे शिव/ प्रभु का मुझ पर अनुग्रह है तो लोगों के भला-बुरा कहने से क्या होता है?’ इस असार संसार में व्याप्त विभिन्न विरोधाभासों और सामाजिक विसंगतियों को देख कर ललद्यद का अंतर्मन व्यथित हो उठा और वे कह उठीं- ‘एक प्रबुद्ध को भूख से मरते देखा जैसे पतझर की बयार में पत्ते जीर्ण-शीर्ण होकर झरते हैं। उधर, एक निपट मूढ़ द्वारा रसोइए को पिटते देखा। बस तभी से (इस विसंगति को देख कर) प्रतीक्षारत हूं कि मेरा यह अवसाद कब दूर होगा?’

ललद्यद के एक वाख/ पद को पढ़ कर यह अंदाजा लगाना सहज होगा कि ऐसी रचनाशीलता की आज के युग में कितनी अधिक सार्थकता और आवश्यकता है- ‘शिव (यानी प्रभु) थल-थल में रहते हैं। इसलिए हिंदू-मुसलमान में तू भेद न जान। प्रबुद्ध है तो अपने आपको पहचान। साहिब (ईश्वर) से तेरी यही है असली पहचान।’ ललद्यद का कोई भी स्मारक, समाधि या मंदिर कश्मीर में नहीं मिलता है। शायद वे इन सब बातों से ऊपर थीं। वे दरअसल ईश्वर (परम विभु) की प्रतिनिधि बन कर अवतरित हुर्इं और उसके फरमान को जन-जन में प्रचारित कर उसी में चुपचाप मिल गर्इं, जीवन-मरण के लौकिक बंधनों से ऊपर उठ कर- ‘मेरे लिए जन्म-मरण हैं एक समान/ न मरेगा कोई मेरे लिए/ और न ही/ मरूंगी मैं किसी के लिए!
http://archive.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=39402:2013-02-22-05-43-26


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