Wednesday, June 29, 2016



कावपूत की बुद्धिमानी

कहावत की व्युत्पत्ति कह+आवत से मानी जाती है। हालांकि कुछ विद्वान ‘कथावार्ता’ से भी इसका उद्भव मानते हैं। कहावतें मनुष्य के युग-युगीन लोकानुभव की धरोहर/साक्षी हैं। मनुष्य का सीधा-सच्चा और परखा हुआ ज्ञान कहीं देखना हो तो इन में देखिये। कहावतों का जन्म लोकानुभव से तो होता ही है, कभी-कभी कोई घटना या कहानी भी कहावत को जन्म देती है। आपको एक कश्मीरी कहावत ‘काव गव पाव त कावपूत गव डोड पाव’ यानी कौआ पाव बराबर तो कौए का पूत/बच्चा/पोता डेढ़ पाव के बराबर, की कहानी सुनाता हूँ। 
एक बार एक कौआ और उसका पोता सड़क-किनारे किसी मुरदार जानवर पर ठूँगें मार रहे थे। इतने में वहां से एक मनुष्य गुज़रा जिसे देख छोटा कौआ(पोता) फुर्र से उडकर पास खड़े पेड़ पर जाकर बैठ गया। दादाजी उड़े नहीं, अपनी जगह पर ही बैठे रहे। मनुष्य के चले जाने के बाद पोता वापस सड़क पर आ गया और दादा से कहने लगा:”दादाजी,आप मनुष्य को देखकर उड़े/भागे क्यों नहीं?---कहीं पत्थर-वत्थर मार देता तो?” दादाजी को पोते की इस नासमझी-भरी बात पर हँसी आई,बोले: “वत्स,तुम अभी भोले हो। ---भागना तब चाहिए जब हम देखें कि मनुष्य पत्थर उठाने वाला है या उसने पत्थर उठा लिया है। पहले से ही भागने में क्या तुक है?” पोते ने तुरंत जवाब दिया:” दादाजी,अगर मनुष्य ने पहले से अपनी पीठ के पीछे पत्थर को छिपकर रखा होता, तो?” पोते के इस सटीक उत्तर का दादाजी से कोई उत्तर देते न बना और वे बगलें झांकते हुए वहां से खिसक गए. कहावत का आशय यह है कि कभी-कभी अल्प-आयु वाले बालक बुद्धिमानी की ऐसी बात करते हैं कि बड़े-बूढ़े भी तर्क-विहीन हो जाते हैं।



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